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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । इस प्रकार नमस्कार और विवक्षित ग्रंथकी प्रतिज्ञाकर इस जीवकाण्डमें जितने अधिकारों के द्वारा जीवका वर्णन करेंगे उनके नाम और संख्या दिखाते हैं ।
गुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णाय मग्गणाओ य। उबओगोवि य कमसो वीसं तु परूषणा भणिदा ॥२॥ गुणजीवाः पर्याप्तयः प्राणाः संज्ञाश्च मार्गणाश्च ।
उपयोगोपि च क्रमशः विंशतिस्तु प्ररूपणा भणिताः ॥ २ ॥ अर्थः-गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा, और उपयोग इस प्रकार ये वीस प्ररूपणा पूर्वाचार्योंने कही हैं । भावार्थ इनहीके द्वारा आगे जीवद्रव्यका निरूपण किया जायगा । इसलिये इनका लक्षण यद्यपि अपने अपने अधिकारमें स्वयं आचार्य कहेंगे तथापि यहांपर संक्षेपसे इनका लक्षण कहदेना भी उचित है । मोह और योगके निमित्तसे होनेवाली आत्माके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रगुणोंकी अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं । जिन सदृशधर्मों के द्वारा अनेक जीवोंका सङ्ग्रह किया जासके उन सदृशधर्मोका नाम जीवसमास है । शक्तिविशेषकी पूर्णताको पर्याप्ति कहते हैं। जिनका संयोग रहनेपर जीवमें 'यह जीता है और वियोग होनेपर 'यह मरगया' ऐसा व्यवहार हो उनको प्राण कहते हैं । आहारादिकी वाञ्छाको संज्ञा कहते हैं। जिनके द्वारा अनेक अवस्थाओं में स्थित जीवोंका ज्ञान हो उनको मार्गणा कहते हैं । बाह्य तथा अभ्यंतर कारणों के द्वारा होनेवाली आत्माके चेतना गुणकी परिणतिको उपयोग कहते हैं । ___ उक्त वीस प्ररूपणाओंका अन्तर्भाव गुणस्थान और मार्गणा इन दो प्ररूपणाओंमेंही हो सकता है, इस कथनके पूर्व दोनो प्ररूपणाओंकी उत्पत्तिका निमित्त तथा उनके पर्यायवाचक शब्दोंको दिखाते हैं।
संखेओ ओघोत्ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा । वित्थारादेसोत्ति य मग्गणसण्णा सकम्मभवा ॥३॥
संक्षेप ओघ इति च गुणसंज्ञा सा च मोहयोगभवा ।
विस्तार आदेश इति च मार्गणसंज्ञा स्वकर्मभवा ॥ ३ ॥ अर्थ-संक्षेप और ओघ यह गुणस्थानकी संज्ञा है और वह मोह तथा योगके निमित्तसे उत्पन्न होती है, इसी तरह विस्तार तथा आदेश यह मार्गणाकी संज्ञा है और यह भी अपने २ कर्मोके उदयादिसे उत्पन्न होती है । यहांपर चकारका ग्रहण किया है इससे गुणस्थानकी सामान्य और मार्गणाकी विशेष यह भी संज्ञा समझना। यहांपर यह शङ्का होसकती है कि मोह तथा योगके निमित्तसे गुणस्थान उत्पन्न होते हैं नकि 'गुणस्थान'
१ नामके एकदेशसे भी सम्पूर्ण नाम समझाजाता है इस लिये गुणशब्दसे गुणस्थान और जीवशब्दसे जीवसमास समझना।
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