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पुत्रनो आवा प्रकारनो सदाग्रह जाणी माताए विचार्युं के – 'पुत्र खरेखरा संयमरंगथी वासित थयो छे माटे तेना भव्य दीक्षा महोत्सवनी तैयारी करूं.' एम विचारीने कृष्ण वासुदेव पासे गई अने सर्व हकीकत जणावी कह्यं के – “हे महाराज ! पुत्रना आ महोत्सव प्रसंगे तमे मने छत्र, चामरादि उपरांत राज्यसामग्रीनी सहायता करो.” कृष्णे कह्यं के – “हे सार्थवाहिनी ! तमे लेशमात्र चिंता न करो. तमारा पुत्रनो दीक्षा महोत्सव हुं करीश.' आ प्रमाणे कहीने कृष्ण वासुदेव पोतानी चतुरंगिणी सेना साथे थावच्चा पुत्रना आवासे आव्या. कृष्णने थावच्चा पुत्रना संयमरंगनी परीक्षा करवानुं मन थयुं एटले आवीने तेमणे कह्यं के—“हे कुमार ! तमे आवा कोमळ वयमां शा माटे दुष्कर संयम स्वीकारो छो ? दीक्षापालन ऍ तो मीणना दांतोथी लोढाना चणा चाववा जेवुं दुष्कर छे, तमे संसार संबंधी सुखो भोगवो. अमे तमारी रक्षा करशुं.” थावच्चाकुमारनो संयमना रंग कई पतंगनो रंग जेवो अस्थायी के विनश्वर न हतो के जेथी कृष्णना प्रलोभनथी ते चलित थाय. ते रंग तो तेमने मजीठना रंगनी माफक हाडोहाड व्यापी गयो हतो एटले कृष्णने जवाब आपतां तेणे जणाव्यं के— “हे महाराज ! तमै कहो ते ठीक छे पण मारुं मृत्यु आवशे त्यारे तमे मारुं रक्षण करवा समर्थ हो तो हुं तमे कहो तेम करवा तैयार छु” कृष्णे जवाब आप्यो के – “मरणसमये कोई पण कोईनुं रक्षण करी शकतो नथी: तो हुं तारुं रक्षण केम करी शकुं ? चक्रवर्ती अने तीर्थंकर जेवाने पण काळ आधीन बनवुं पडे छे तो बीजानी वात शा माटे करवी जोईए ?” त्यारे थावच्चा कुमारे कह्यं – “हे राजन् ! आप शा माटे एम कहो छो के 'हु तारुं रक्षण करीश.' हुं जन्म-मरणरुपी भयथी भयभीत बन्यो छु अने तेमांथी मुक्त थवा आ प्रवज्या अंगीकार करुं छं.” तेनुं आ प्रमाणेनुं दृढ मन्तव्य जाणी कृष्ण वासुदेव अत्यंत हर्षित थया अने पोताना सेवकने बोलावी आदेश आप्यो के—“आ द्वारिका नगरीमां जाहेर उद्घोषणा करावो के – 'जे कोईने थावच्चाकुमारनी साथे दीक्षा लेवी हशे तेनो सर्व बंदोबस्त कृष्ण महाराजा स्वयं करशे अने कोईना कुटुंबने आधार नही होय तो तेनुं राजा पो पालन करशे.” आ उद्घोषणाने परिणामे एक हजार पुरुषो थावच्चानी साथे दीक्षा लेवा उत्सुक बन्या. पोतानी ज्ञातिने भोजन आपी, स्नान करी, सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहेरी, हजार पुरुषो उपाडे तेवी शिबिकामां बेसी सर्व थावच्चापुत्रना आवासे आव्या. ते समये कृष्ण वासुदेवे आठ जातिना कळशद्वारा थावच्चा पुत्रनो अभिषेक करी, स्वच्छ वस्त्रो अने उत्तम आभूषणो पहेराव्या. बाद हजार पुरुषो उपाडे तेवी शोभनीय शिबिकामां विराजमान करी वाजिंत्रना नादपूर्वक श्रीनेमिनाथ परमात्मा ज्यां विराज्या हता त्यां आव्या. पालखीमांथी नीचे ऊतर्या त्यारे कृष्ण वासुदेवे तेमने आगळ कर्या अने पोते तेनी पाछळ चाल्या. भगवान समीपे आवीने कृष्णे कह्यं के— “हे भगवन् ! आ थावच्च सार्थवाहनो थावच्चा नामनो पुत्र मने अति वल्लभ छे. ते जन्ममरणरूपी भयवाळा आ संसारसागरथी उद्वेग पाम्यो छे अने आपनी पासे मोक्षना परवानारूप प्रव्रज्या अंगीकार करवा इच्छे छे, माटे हे स्वामिन् ! आप तेमनी विज्ञप्तिनो स्वीकार करो.” एटले परमात्माए कह्यं के— “जहां सुक्खं” अर्थात् सुख उपजे तेम करो. प्रभुनी आज्ञा थतां थावच्चाकुमारे पोते पहेरेला आभूषणो एक पछी एक उतारवा शरू कर्या त्यारे ते सर्व तेनी माताए पोताना वस्त्रना पालवमां अश्रु - झरती आंखो सहित
श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २७