Book Title: Gacchayar Ppayanna
Author(s): Vijayrajendrasuri, Gulabvijay
Publisher: Amichand Taraji Dani

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Page 213
________________ 3m ठल्लो या मातरं अविधिपूर्वक परठवे तो एक मासी लघुदंड अने आज्ञाभंगना दोपपात्र बने तेनी विधि दर्शावतां कहे छ के-गृहस्थ प्रमुखनी दृष्टिनें निवारण करवू अने ते माटे ऊर्ध्व, अधो अने तिर्छा सर्व दिशामा अवलोकन कर्या पछी ठल्लो मातरं परठवq. जे लोको ते कार्य करतां जोवे तो तेओ हांसी करे अने आत्माने कलुपितता प्रगटे. वळी स्थंडिल प्रमुख वोसरावीने वस्त्रना कटकाथी गुह्यांग जो साफ न करे तो प्रायश्चित लागे, पण जो काष्ठथी, वांसना खपाटियाथी, अथवा लाकडानी सळीथी साफ करे अथवा साफ करनारने सारो माने तेने एकमासी लघुदंड आवे. वळी जो कोई साधु या साध्वी स्थंडिल प्रमुख परठवीने पछी जळद्वारा हस्त साफ करे नहीं के न करनारने सारो जाणे तो दंडपात्र बने. वळी स्थंडिल परठव्यानी जग्याए साधु या साध्वीए आचमन न लेवू. आचमन ले के लेनारनी अनुमोदना करे तो प्रायश्चित लागे परंतु सो हाथना आंतरामा तम करी शकाय, तेथी विशेष दूर आचमन करे तो पण दोपभागी थाय. स्थंडिल-मातरं परठवी त्रण खोवा प्रमाण जळथी शुद्धि करवी; विशेष जळ न वापर. विशेष जळ वपराय तो कीडी प्रमुख जावानी विराधना थाय, त्रसजीवने पीडा उपजे, वृक्षना फूल-पात्रादिक तेमां पडे अने पृथ्वीकायादिकनी पण विराधना थाय, केटलाक आचार्यो एम पण कहे छे के-अंजलिना त्रण भाग करवा, पहेला भागथी मळद्वार साफ करे, बीजा भागथी अवयवो साफ करे अने त्रीजा भागथी सर्व शुद्धि करे. जेने थोडे थोडे समयने आंतरे स्थंडिल जवू पडतुं होग्य, हरस' जेवो व्याधि होय तेवा आपवादिक मार्गमां विशेष जळ वापरी शकाय. संक्षिप्तमा एटलुं समजवायूँ के-दुर्गंध न रहे. मळनो लेप न रहे तेटला प्रमाणमा जळनो उपयोग करवो. कारणप्रसंगे मूत्रथी पण मळशुद्धि करी शकाय छे. बृहत्कल्पना पांचमां उद्देशामां का छे के णो कप्पइ निग्गंथाण वा अण्णमण्णस्स मोयं आइयत्तए वा आयमित्तए वा णण्णत्थ गाढेसु अगाढेसु वा रोगायंकेसु ॥ साधु या साध्वीने परस्परना मूत्रनो उपयोग करवो न कल्पे परंतु विशूचिका (उलटी) थई होय, सर्प करड्यो होय, ज्वरादिक रोगोद्भव थयो होय तो तेवा अनिवार्य प्रसंगोमां मूत्रनुं आचमन लेवू या मळशुद्धि माटे ग्रहण करवं कल्पे. आ विषयमां कोई शंका करतां कहे के-आ मूत्रनुं आचमन या ग्रहण अशुचिकारक न कहेवाय? तो तेने जवाब आपतां ग्रंथकार कहे छे के - वैद्यकशास्त्रमा पण मूत्र-पान उपयोगी जणाव्युं छे. वळी गोमूत्र तो पवित्र मनाय छे अने औषधमां पण वपराय छे. साधु तो कारण विना रात्रिए पाणी राखे ज नहीं, परंतु कोई नूतन दीक्षित होय, विवाहित न होय तेने मूत्र ग्रहण करवामां दुगंछा थाय माटे तेने अर्थे रात्रिए अचित्त जळ राखे, परंतु जे मातरानी विधिनो जाण होय, साधुपणुं बराबर परिणमी गयुं होय तेने अर्थ पछी पाणी राखवानी जरूर नथी. कोई शिष्य घणी वखत स्थंडिल जाय अने मूत्रथी शुद्धि करवामां अशक्त होय तेने माटे जळ राखवू पडे कारण के जो जळ न राखवामां आवे तो तेवा शिष्यने स्थंडिलनी शंका थवा छतां दुगंछाथी स्थंडिल जाय नहीं अने मळनो अवरोध करवाथी परिताप पामे, मृत्यु पण पामे माटे तेवा प्रसंगमां जळनो जोग राखवो. कोई कोई आचार्य कल्पत्रेपनो अर्थ चैत्र मासनी असज्झाय उतर्या पछी कर्त्तव्य करवान सूचवे छे. कोईक एम कहे छे के-आ परंपरागम्य छे अने सदैव कर्त्तव्य छे. वळी साधु विनयशाळी होय, निश्चळ-गंभीर स्वभाववाळा होय, जेथी प्रायश्चित्तादिकनो अन्य पासे प्रकाश करे नहीं श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१९८

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