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समये स्वाध्याय न करवो केमके तेथी शिष्यादिकने भणाववानो अंतराय पडे, वळी आचार्य, उपाध्याय के ग्लान साधुनी वेयावच्चमां खामी आवे. आप्रमाणे धर्मकथानी खामी समजवा उपरांत धर्मकथा कहेवामां खूब काळजी राखवी जोईए. (१) क्षेत्र जोईने विचारवं के-आ क्षेत्रमा साधु-साध्वीनो निर्वाह थशे, लोको भद्रिक होवाथी धर्म समजशे, दाननी रुचि रहेशे, श्रद्धावाला बनशे, साधु-साध्वीने उपकारक थशे-आवो विचार करी योग्य क्षेत्र होय तो ज धर्मकथा करवी. (२) राजादिक महर्द्धिक पुरुष आवे तो धर्मोपदेश करवो.(३) उत्तम कुळनी कोई व्यक्ति आवे तो उपदेश आपवो कारण के तेनी साथोसाथ नगरजनो पण प्रतिबोध पामे. आ प्रमाणे पूर्वापरनो विचार कर्या वगर जे साधु या साध्वी धर्मकथा कर्या करे छे ते काथिक-कथा करनार जाणवो. श्रीनिशीथचूर्णीना तेरमा उद्देशाना प्रांतभागमां का छे के-“जे भिक्खू काहीअं वंदइ वंदंतं वा साइज्जति" जे साधु काथिकने वांदे छे, अन्य पासे वदावे छे अने वंदन करनारने सारो कहे छे ते प्रायश्चित्तने पात्र थाय
युवान रूपवंत पुरुषने आवता जाणी कहे के– “तमे भले आव्या, वळी पण वारंवार आवजो, कई काम होय तो कहेजो.” आ प्रमाणे आदर-सत्कार वचनो उच्चारे ते साध्वी न जाणवी पण शासननी शत्रु जाणवी; कारण के ते भगवंतनी आज्ञा लोपनारी छे. आ विषयने वधु स्पष्ट करतां कहे छे के
वुड्ढाणं तरुणाणं, रत्तिं अज्जा कहेइ जा धम्मं । सा गणिणी गुणसायर!, पडिणीआ होइ गच्छस्स ॥११६ ।। जत्थ य समणीणमसं-खडाइं गच्छम्मि नेव जायंति। तं गच्छं गच्छवरं, गिहत्थभासा उ नो जत्थ ॥११७ ॥ [वृद्धानां तरुणानां, रात्रौ आर्या कथयति वा धर्मम्। सा गणिनी गुणसागर!, प्रत्यनीका भवति गच्छस्य ॥११६ ।। यत्र च श्रमणीना-मसंखडानि गच्छे नैव जायन्ते।
स गच्छो गच्छवरः, गृहस्थभाषास्तु न यत्र ॥११७॥] . गाथार्थ-हे इंद्रभूति गौतम ! रात्रिसमये जे मुख्य साध्वी वृद्ध के तरुण वयवाळाने धर्मकथा संभळावे छे तेने गच्छनी बैरिणी जाणवी.
जे गच्छमां साध्वीओ परस्पर क्लेश-कंकास करती नथी तेमज गृहस्थना जेवी सावध के खुशामतभरी वाणी बोलती नथी ते गच्छ सर्व गच्छोमां श्रेष्ठमां श्रेष्ठ जाणवो.
विवेचन-साध्वीने रात्रिने विषे युवान तेमज वृद्ध पुरुषोनी समक्ष, उपलक्षणथी स्त्री के पुरुषोनी संयुक्त सभा समक्ष के दिवसे पुरुषो समक्ष धर्मकथा करवानो निषेध छे. अहीं मूळमां 'गणिनी' एवो शब्द आप्यो छे तेनो अर्थ मुख्य साध्वी छे. तेनो परमार्थ ए छे के-गच्छमां वडील साध्वीने पण रात्रिने विषेधर्मकथा करवानो निषेध छे तो बीजी साध्वीओने माटे पूछवू ज शुं?
श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २९१