Book Title: Gacchayar Ppayanna
Author(s): Vijayrajendrasuri, Gulabvijay
Publisher: Amichand Taraji Dani

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Page 325
________________ प्रमाणे-१. स्थंडिल-मातरादिकनी जग्या जीवाकुळ होय, २ संथारामां जीवादिक होय, ३ दुःखपूर्वक गोचरी मळती होय, ४ पोताने के अन्यने मोहोदय थयो होय, ५ मरकी प्रमुख रोगोनो उपद्रव उपस्थित थयो होय. चार पडवा व्यतीत थई गया होय छतां पण नीचेनां कारणोथी आगळ विहार करवानो निषेध फरमावे छे, ते कारण आ प्रमाणे छे- १ विहार करवानो मार्ग कठिन विषम होय, २ विहारना मार्गमां स्थळे स्थळे जळ भरेलुं होय, ३ मार्गमां अतिशय कादव होय, ४ वरसाद वरसतो बंध न रहे तो होय. वळी कया कारणे विहार न थाय ते जणावतां कहे छे के-१ मरकी प्रमुखनो देशमां उपद्रव चालतो होय ते अशिव, २ भिक्षा ओछी मलती होय, ३ राजा दुष्ट होय, ४ रोगादिक व्याधिओ उत्पन्न थई होय अने, ५ चोर लोकोनो भय होय. आ गाढ पांच कारणोने अंगे चोमासा पछी पण साधु विहार न करे. आ वर्णन श्रीपर्युषणकल्पनी निर्युक्तिनी चूर्णिमां तेमज श्रीनिशीथसूत्रना दशमा उद्देशानी चूर्णिमां पण करेल छे. आ प्रमाणे आगमोक्त विधि प्रमाणे विचरे ते गच्छ जे साध्वी आ प्रमाणे विचरण न करे ते विहारभेद करनारी तेमज मिथ्यात्व वधारनारी समजवी. हवे साध्वीए केवुं वचन अने भाषा बोलवी ते आ गाथाद्वारा दर्शावे छे तम्मूलं संसारं जणेइ अज्जा वि गोयमा ! नूणं । तम्हा धम्मुवसं, मुत्तुं अन्नं न भासिज्जा ॥ १३३ ॥ मासे मासे उजा अज्जा, एगसित्थेण पारए । कलहे गित्यभासाहिं सव्वं तीइ निरत्थयं ॥ १३४ ॥ [ तन्मूलं संसारं जनयति, आर्याऽपि गौतम ! नूनम् । तस्मात् धर्मोपदेशं मुक्त्वा, अन्यत् न भाषते ॥ १३३ ॥ मासे मासे तु या आर्या, एकसिक्थेन पारयेत् । कलहे गृहस्थ भाषाभिः, सर्व तस्याः निरर्थकम् ॥ १३४ ॥] गाथार्थ--है गौतम ! धर्मोपदेश सिवायनुं वचन संसार- भ्रमण करावे तेवुं छे तेथी साध्वीओए धर्मोपदेश सिवाय अन्य वचन बोलवु नहीं. मासक्षमण जेवा उग्र तपने पारणे कुरादिक रूक्ष एक सित्थ (दाणा) वडे पारणुं करनारी साध्वी पण जो परमर्मप्रकाशन, आल के मकार चकारादिक गाली प्रदानरूप गृहस्थ योग्य सावद्य ( दोषित) भाषा बोले तो तेनुं सघळं तप निष्कळ जाणवुं. विवेचन- धर्मोपदेश सिवायना वचनोच्चार ए केवळ विकथा ज गणाय. राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा अने भक्तकथा- एविकथाना चार प्रकार अगाउ पृ. ५३ ऊपर वर्णवाई गया छे. अत्यारे वाणी-व्यापार एटलो बधो वृद्धिंगत थयो छे के बोलनारने पोताने पण पोते शुं बोले छे ? कई जातनी विकथा करी रह्यो छे तेनुं भान रहेतुं नथी. शास्त्रकार तो त्यां सुधी कहे छे के बीजाने कडवुं लागे, दुःख लागे तेवुं वचन न बोलो. कारण के तेवा वचन पण एक प्रकारनी भाव हिसा ज छे. भाषासमिति श्रीगच्छाचार - पयन्ना—- ३१० .

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