Book Title: Gacchayar Ppayanna
Author(s): Vijayrajendrasuri, Gulabvijay
Publisher: Amichand Taraji Dani
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाचार-पयन्ना XX. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - ॥ णमो सिरिवद्धमाणस्स ॥ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर-श्रीधनचंद्रसूरीश्वर-भूपेन्द्रसूरीश्वरेभ्यो नमः । पूर्वाचार्यविरचित - श्री गच्छाचार - पयन्ना संस्कृत छाया सह गुजराती विवेचन युक्त ___ संयोजकजगत्पूज्य सौधर्म बृत्तपोगच्छीय भट्टारक श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज संशोधक - उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी महाराज प्रकाशक एवं सुकृत सहयोगी मुनिराज श्री जयानंदविजयजी के सदुपदेश से शा अमीचंद्रजी ताराजी दाणी - मु.पो.धानसा (जिला-जालोर) राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गच्छाचार पयन्ना * संयोजक : श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वजी म.सा. * संशोधक : उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी म.सा. * प्रथमावृत्ति : विक्रम संवत २००२ * द्वितीयावृत्ति : विक्रम संवत २०४८; वीर सवंत २५१७ राजेन्द्रसूरि संवत ८५; ईस्वी सन् १९९१ * प्रति - १००० * द्वितीयावृत्ति प्रकाशन प्रेरक : मुनिराज श्री जयानन्द विजयजी * प्रकाशक एवं प्राप्ति स्थान शा अमीचंदजी ताराजी दाणी मु.पो. धानसा जिला-जालोर (राजस्थान) * मुद्रक : डपुजी आर्ट प्रिंटर्स, माजीवडे-थाने (महाराष्ट्र) * प्राप्ति स्थान: [१] जे. के. संघवी (सम्पादक) शाश्वत धर्म कार्यालय जामलीनाका - थाने-४००६०१ (महाराष्ट्र) [२] श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति राजेन्द्रसूरि जैन क्रिया मंदिर, पुराना बस स्टॅण्ड मु.पो. आहोर-३०७०२९ (राजस्थान) [३] शा देवीचंद छगनलालजी जैन, सदर बाजार-भीनमाल ३४३०२९ (राज.) . * पोस्टेज खर्च पांच रुपये भेजने पर साधु-साध्वी अथवा ज्ञानभंडार में भेंट Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "दो शब्द" गच्छारं सुणित्ताणं, पठित्ता भिक्खु भिक्खुणी। कुणंतु जं जहा भणियं, इच्छन्ता हियमप्पणो ॥१३७ ॥ "गच्छाचार - पयन्ना" साधु साध्वीयों की मर्यादा स्वरूप यह गच्छाचार पयन्ना सद्गुरु भगवंत के पास अर्थरूप में श्रवण कर स्वात्मकल्याणकायी मुनि भगवंतों को गच्छाचार पयन्ना में वर्णित आचारों का समाचरण करना चाहिये। गच्छाचार-पयन्ना में साधु-साध्वीयों के आत्मकल्याण के लिये अक्षय अचल स्थान प्राप्ति हेतु, परतंत्रता के प्रगाढ बंधनों से परिपूर्ण मुक्ति प्राप्त करने, आच्छादित आत्मगुणों का प्रगटीकरण कर स्वातंत्र्य पाने, के लिये सुयोग्य सरलतम मार्गदर्शन किया गया है। तीर्थंकरों द्वारा प्ररुपित संस्थापित शासन आत्मा को अरूपी,अवर्णि,अगंधी, अरसी, अस्पर्शी बनाने का कार्य अनंतकाल से मोक्षमार्ग की प्ररूपणा के द्वारा कर रहा है। ___ राह / मार्ग पर चलने वाला राही मार्ग दर्शक के निर्देशानुसार चलता है तो निर्विघ्नता पूर्वक इच्छित स्थान पर पहुंच जाता है । पथ पर चल रहा पथिक पथ प्रदर्शक के निर्देशों की अवहेलना, अनादर कर स्वेच्छा को स्थान दे देता है । तब वह मार्ग को छोड़कर कहीं विपरीत मार्ग पर भटक जाता है, अटवी में कहीं अटक जाता है या फिपीक फल वान हनुलटक जाता है। છે નજર Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही व्यक्ति जब पथ प्रदर्शक के निर्देशों का पुनश्च पालन कर पथ पर चलना प्रारम्भ कर देता है तो इच्छित स्थान पर पहुंच जाता है । I I मोक्षमार्ग के लिये भी यही नियम है । जो आत्म 'मग्गदयाणं' विरूद्ध धारक तीर्थंकर परमात्मा के निर्देशानुसार साधकावस्था में जीवन व्यतीत करता है वह आत्मा निर्विघ्नता पूर्वक मोक्ष नगर में अनंतकाल के लिये पहुंच जाता है । अक्षय स्थिति को पा लेता है । और जो आत्मा चलते-चलते स्वेच्छा को स्वमति कल्पना को अग्र स्थान देकर मार्ग से विपरीत मार्ग पर मुड़ जाता है, भटक जाता है, चार गति रूप अटवी में अटक जाता है एवं लोभ लालच रूप विष वृक्षों पर लटक जाता है । शिथिलाचारी बन जाता है I 1 I I उस आत्मा को पुनश्च मोक्षमार्ग के प्ररूपकों का पथ जब प्रशस्त लग जाता है । उस पथ पर चलने की प्रबलेच्छा प्रगट हो जाती है । उनके निर्देशानुसार पथ पर चलना प्रारंभ कर देता है । शिथिलाचार छोड़कर शास्त्रोक्त आचारों का पालन प्रारंभ कर देता है तब वह मुक्तिपुरी में अति शीघ्रता से पहुंच जाता है । मोक्षमार्ग के पूर्ण रूप से पथिक बने हुए आत्मा को गच्छाचार पयन्ना का अध्ययन अवश्य करवाना चाहिये । चारित्र लेने के बाद चारित्र में अतिचार रूपी छिद्रों को दूर करने हेतु, स्वयं र हुए शिथिलाचार को दूर करने हेतु, धर्म श्रद्धा को विशेष सुदृढ़ बनाने हेतु, आचार पालन में प्रतिदिन शुद्धि विशुद्धि लाने हेतु, गच्छाचार पयन्ना का अध्ययन, वांचन, मनन, चिंतन सभी को अवश्य करना है । गच्छाचार पयन्ना के माध्यम से हम हमारे आत्मा को शुद्ध विशुद्ध बनाकर मोक्ष सुख को प्राप्त करें इसी अभिलाषा के साथ । जावरा श्रावण सुदी ६, सं. २०४८ शुभम् शुभम् शुभम् ४ जयंतसेन सूरि Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावृत्ति प्रकाशन के अवसर पर । आदि--वचन जैन वाङ्मय एक महासागर सद्दश छे. जेम महासागरनो पार न पामी शकाय तेम जैनसाहित्य-समृद्धिनी तुलना थई शकती नथी. मानवी ए संयोगाधीन प्राणी छे । तेने सतत जागृत राखवा माटे आपणा परमोपकारी पूर्वपुरुषोए साहित्यनी अविरत उपासना करी छ । संस्कारी साहित्य ए संसारवासी जीवने माटे सुधा (अमृत) सद्दश छे । सुधापानथी जेम प्राणी अमरत्वने पामे छे तेम साहित्य-पानथी पण प्राणी निर्भीक बने छे. ___ पंचमकाळना प्रभावे प्राणीओनी मतिमंदता थवा लागी अने परिणाम जैन वाङ्मयने चार विभागमां वहेंची नाखवामां आव्यु (१) द्रव्यानुयोग, (२) चरणकरणानुयोग, (३) गणितानुयोग अने (४) कथानुयोग. .. बालजीवोने कथानुयोग विशेष रुचिकर थाय छे एटले आपणा साहित्यमां कथा-ग्रंथो विपुल प्रमाणमां रचाया छे; साथोसाथ आचारनुं ज्ञान पण अत्यावश्यक छे. कडुं छे के-आचार: प्रथमो धर्मः । आ श्री गच्छाचारपयन्नो चरण-करणानुयोगनो ग्रंथ छे. कोई पण ग्रंथनी प्रामाणिकतानो आधार तेना कर्तापुरुष ऊपर अवलंबे छे. आ श्री गच्छाचारपयनो पण पूर्वपुरुष प्रणीत छे. सामान्य नियम एवो छे के पयन्नानी रचना गणधरमहाराजा के भगवंतना हस्तदीक्षित शिष्य करे छे. एटले आ पयत्नानी प्रामाणिकता माटे अंश मात्र आशंकाने स्थान रहेतुं नथी. ___आ गच्छाचारपयन्नामां साधु-साध्वीना विस्तारपूर्वक आचार-विचार दर्शावेल छे. आ पयन्ना ऊपर श्रीमद् आनंदविमलसूरिजी-शिष्य श्री विजयविमलगणिए संस्कृत टीका रची सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय, क्रियोद्धारक, जगत्पूज्य श्री मद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीनी साहित्यसेवाथी जैनसमाज अज्ञात नथी. तेमणे पोतानुं समस्त जीवन साहित्य पाछळ न्योछावर करी दीधुं हतुं. “अभिधान राजेन्द्र कोष” जेवो अजोड ग्रंथ ए एमनी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्योपासनानुं अप्रतिम फल छे. बालजीवोनी समजणंने माटे तेमणे आ गच्छाचारपयन्नानुं गुजराती भाषामां विवरण रच्युं. अमे आ ग्रंथनी विशेष उपादेयता माटे (१) मूळ गाथा, (२) तेनी संस्कृत छाया (३) मूळ गाथानो अर्थ अने (४) विस्तृत विवेचन-आ क्रम राख्यो छे. “गच्छाचार” ए नाम ज ग्रंथनी सामग्री शुं छे ते आपोआप जणावे छे: साधु-साध्वीना आचारविशेषनुं अने कर्तव्यनुं ज आमां मुख्यत्वे विवरण छे. ग्रंथ रोचक बने ते माटे प्रसंगे प्रसंगे कथाओ पण आपवामां आवी छे. आ गच्छाचारपयन्नानी हस्तलिखित प्रति स्व. श्री विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराजना जोवामां आवी. तेमणे तेने जेनोपकारी जाणी मुद्रित करवानी इच्छा करी तेवामा ओ स्वर्गवासी थया. त्यारबाद व्या. वा. वर्त्तमानाचार्य श्री विजययतीन्द्रसूरिजीनी अध्यक्षतामां स्व. श्री विजयभूपेन्द्रसूरिजीना ग्रंथाने प्रकाशित करवा माटे “श्री भूपेन्द्रसूरि जैन साहित्य समिति” नी स्थापना थई. तेना कार्य माटे (१) साहित्यरसिक उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी महाराज (२) तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी महाराज (३) शांतमूर्ति श्री हंसविजयजी महाराज अने (४) मुनिश्री कल्याणविजयजी महाराजनी नियुक्ति करवामां आवी. आ समितिए अत्यारसुधी १७ ग्रन्थो प्रगट कर्यां छे; आ गच्छाचारपयत्रो ए पंदरमो ग्रन्थाङ्क छे. अत्यार सुधीना प्रकाशनोनी माफक आ ग्रन्थ पण समाजना आदरने पात्र थशे. आशा छे के-गुणग्राही सज्जनों आ ग्रंथनो सविशेष लाभ लई अमारो प्रयास सफळ करे. आचार्यश्रीनी जूनी गुजराती भाषाने रोचक ने शिष्ट भाषामां मूकवा माटे भावनगरनिवासी पंडित बालुभाई रुगनाथे करेल सुप्रयास माटे आभार मानवामां आवे छे. मुद्रणकार्यमा सारी काळजी राखवा आनंद प्रेसना मालिक शेठ गुलाबचंद देवचंद पण धन्यवादने पात्र छे. प्रूफ सुधारवा विगेरेमां पण पूरती काळजी राखवा छंता द्दष्टिदोष अने प्रेसदोषने कारणे कंई खामी रही गई होय तो वाचकवर्ग सुधारी वांचवा कृपा करे.. वि. सं. २००२ आषाढी पूर्णिमा ६ संचालक श्री भूपेन्द्रसूरि जैन साहित्य समिति वाया- एरणपुरा मु. पो. आहोर (मारवाड़) - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “पुनः प्रकाशन की बेला में " अवसर्पिणी काल के प्रभाव से दिनोंदिन श्रमणसंस्था आचारपालन में शिथिल हो रही है । समय-समय पर श्रमण संस्था में आगमोक्त क्रिया पालन के इच्छुक महापुरुष भी उत्पन्न हुए हैं जिन्होंने स्वशक्ति अनुसार ग्रन्थों की रचना कर, देशकालानुसार पट्टक बनाकर, क्रियोद्धार कर शिथिलाचार की विषाक्त आचरणा को दूर करने का सुप्रयत्न किया है। आत्महित, आगमोक्त आचरणा का आदरपूर्वक आचरण करने से ही होता है, यह दो और दो चार जैसा स्पष्ट है। जिनागम स्पष्ट रूप से कहता है कि शक्ति को छुपाये बिना आगमोक्त आचरणा करने वाला भव्यात्मा मोक्षाधिकारी है एवं आचरणा का परिपूर्ण पालन करने की भावना होते हुए भी पूर्वकृत चारित्रावरणीय कर्म के प्रबल अशुभोदय के कारण आगमोक्त आचरणा कर न सके फिर भी आगमोक्त आचरणा का पक्ष धर भव्यात्मा भी सजता से आत्महित कर सकता है। पर जो-जो आत्माएँ स्व प्रमाद दशा को छुपाकर स्वयं की स्वच्छन्दता का पोषण करने हेतु देश काल की आड लेकर आगमोक्त आचरणाओं की हंसी उड़ाते हो, इस युग में इन आचरणाओं के पालन की बात करना मूर्खता है, पालन करते हैं ऐसा कहनेवाले ढोंगी हैं, धूतारे हैं, ऐसे विधान अपने भोले भक्तों को भरमाने हेतु कह रहे हो । उन आत्माओं का तो स्पष्ट रूप से अहित ही हो रहा है । आचार का महत्व तो “आचार प्रभवो धर्म:” सूत्र से स्पष्ट हो रहा हैं । आचार से ही धर्म . का प्रादुर्भाव होता है । गच्छाचार पयन्ना में गच्छ के आचार का वर्ण वर्णित है । गच्छ के प्रत्येक अंग के आचारों का वर्णन विस्तृत रूप से समझाया है। सुबोध्य बनाने हेतु प्रसंगोपात कथाओं का वर्णन दिया गया है। गच्छाचार पयन्ना की प्रथमावृत्ति प्रकाशित हेने के बाद प्रकाशक की ओर से उसके प्रचार हेतु " जैन " साप्ताहिक पत्र में विज्ञापन दिया गया था जिसको संक्षेप में यहां उद्धृत कर रहे हैं, जिससे गच्छाचार पयन्ना की आज कितनी आवश्यकता है इसका हमें ख्याल आ जावे I [जैन पर्युषणांक, श्रावण वदी ११, विक्रम संवत २००३] आजे आपणा समाजमां शिथिलतावधती चाली छे तेवा प्रसंगे आ गच्छाचार पयन्ना नुं प्रकाशन अतीव उपयोगी थई पडयुं छे. पूर्वाचार्य प्रणीत आ गच्छाचार पयन्ना ने जनोपयोगी बनाववा स्व. श्री विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजे तेनो अनुवाद कर्यो हतो. तेने संस्कारी ने सरल गुजराती भाषामा समाजाइ शके तेवी रीते प्रसिद्ध करवामां आवेल छे. श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिती- आहोर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरोक्त पंक्तियों को पढ़ने पर यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि आज से ४५ वर्ष पूर्व श्रमण संस्था में शिथिलता बढ़ रही थी। उस शिथिलता पर अंकुश लगाने हेतु गच्छाचार पयन्ना उपयोगी था। जैसे बरसात के दिनों में नदी में पानी बढ़ रहा होता है वैसे ही श्रमण संस्था रूप महल के चारों ओर शिथिलता रूप जल बढ़कर उसकी नींव में पानी जाने जैसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई है । उस शिथिलता को दूर करने में सहायक बनने वाले ऐसे ग्रंथ की अप्राप्यता खटक रही थी। ___एक बार प.पू. आगमज्ञमुनि श्री रामचन्द्र विजयजी के पास अध्ययन करते हुए साध्वाचार विषयक चर्चा में उन्होंने कहा था “प्रत्येक साधुसाध्वी को गच्छाचार-पयन्ना का वांचन वर्ष में एक बार तो अवश्य करना चाहिये ।" उस समय इस ग्रंथ के महत्व का विशेष ध्यान आया और मन में इसे पुन: प्रकाशन करवाने की भावना उत्पन्न हुई। श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के पट्टधर श्री धनचंद्रसूरिश्वरजी उनके पट्टधर श्रीभूपेन्द्रसूरीश्वरजी उनके पट्टधर श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी एवं उनके पट्टधर श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी के पट्टधर वर्तमानाचार्य श्री जयंतसेनसूरीश्वरजी के साथ प्रसंगोपात गच्छाचार पयत्रा के पुनः: प्रकाशन विषयक चर्चा हुई तब उन्होंने पुन: प्रकाशन की आज्ञा प्रदान की। धाणसा चातुर्मास में ज्ञान भक्ति की चर्चा के समय श्रीमान शा. अमीचंदजी ताराजी दाणी ने सुकृत में अर्थउपयोग की भावना व्यक्त की तब गच्छाचार-पयन्ना के प्रकाशन की बात उनसे कही । उन्होंने स्वीकृति दी । सम्पूर्ण प्रकाशन में सुकृत के सहभागी वे ही हुए हैं । ज्ञान भक्ति हेतु धन्यवाद । उन्होंने धर्म के अनेक कार्यों में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग किया है, भविष्य में भी इसी प्रकार धार्मिक कार्यों में धन व्यय करते रहें यही भावना। __इस ग्रंथ के प्रकाशन में शाश्वत धर्म के संपादक जुगराज कुन्दनमलजी संघवी थाना वालों का सराहनीय सहयोग निस्वार्थ भाव से रहा है, उनके ही अथक परिश्रम से इस ग्रंथ की शोभा में चार चांद लगे हैं । इस ग्रंथ की उपयोगिता के विषय में तो कुछ भी नहीं कहना यह ग्रंथ स्वयं अपनी उपयोगिता दर्शा रहा है । इस ग्रन्थ का वाचन, मनन् कर हम सब लाभान्वित बनें । स्वयं के दोषों को, पेर में लगे अनेक कांटों की तरह ढूंढ-ढूंढ कर निकालने का हम सभी प्रयत्न करें । यही । शुभम्-शुभम्-शुभम् आहोर (राज.) वीर सवंत - २५१७ मुनि जयानंदविजय जेठ सुदी - ५ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमआचार्यस्वरूपनिरूपण-पहेलो अधिकार पृष्ठ www ०२ २१ विषय पृष्ठ मंगलादिकनी आवश्यकता महावीर नाम केम पडडे? गच्छाचार पयन्नानी प्राचीनता केवा गच्छमां वास करवो? तेने लगता दृष्टान्तो भ्रष्ट गच्छवासथी संसारभ्रमण गच्छाचार पयत्नाना कर्ता कोण? वाचना क्यारे थई ? प्रकीर्णक एटले शुं? १३ श्रुतज्ञानना प्रकार कालिक ने उत्कालिक श्रुतनुं । विस्तृत विवेचन सारा गच्छवास, फल शेलकाचार्यनी कथा वीर्योल्लासनी वृद्धिथी फलप्राप्ति अरणिक मुनिवरनुं वृत्तांत आचार्यनां लक्षणो भ्रष्टाचार्यनां चिह्रो शल्य संबंधी अश्वनी कथा आलोचना कोनी पासे लेवी? विकथा अने तेना प्रकारो अंगारमर्दकाचार्यनी कथा आचार्यना ३६ गुणो आलोचनानी आवश्यकता ६० सारा आचार्य- कर्तव्य --- ६१ वस्त्र, पात्र ने वसतिनी विचारणा -..-६३ विषय दीक्षा कोने न आपी शकाय? अतिमुक्तक कुमारनी कथा वज्रस्वामीनुं वृत्तांत आर्यरक्षितसूरिनुं वृत्तांत नपुंसकना प्रकारो सारणादिकनी आवश्यकता शिष्य शत्रुरूप क्यारे मनाय? शिष्ये गुरुने समजाववानी रीत ज्ञानाचारनुं स्वरूप १०० दर्शनाचारनुं स्वरूप १०२ चारित्राचार- स्वरूप १०४ तपाचारनुं स्वरूप वीर्याचारनुं स्वरूप पिंडादिकनुं वर्णन सोळ प्रकारना उद्गम दोष ११५ सोळ प्रकारना उत्पादन दोष ११५ घेवरीया साधुनुं वृत्तांत (फुटनोटमा) ११५ सेविया साधुनुं वृत्तांत (फुटनोटमा) ११६ आषाढाभूतिनुं वृत्तांत (फुटनोटमा) ११७ सिंहकेसरिया साधुनुं वृत्तांत (फुटनोट) ११७ दश प्रकारना एषणा दोष ११८ पांच प्रकारना ग्रासैषणा दोष आचार्य त्रीजा भंग तुल्य विहारनुं विस्तृत स्वरूप सारा आचार्यनं कर्तव्य १२४ सारा अने भ्रष्टआचार्यने उपमाओ १०४ ११३ ११४ ३८ WOW ११८ १२५ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ १३९ १४५ १७२ १५० विषय पृष्ठ . विषय पृष्ठ सावधाचार्यनी कथा चरणसित्तरीने करणसित्तरीना भेदो १३५ मोक्षमार्गना विनाशक संविज्ञपाक्षिक- कर्तव्य १३७ आचार्यना त्रण प्रकार १३१ आचार्यने शिखामण संविज्ञ पाक्षिकना लक्षणो १३२ { यतिस्वरूप-बीजो अधिकार } कोनी साथे विहार करवो? १४१ कोना हाथथी आहार न लेवो? १६८ अगीतार्थ साथे विहारनो त्याग १४२ संयोजनादि पांच दोषो १६९ सात नयनुं स्वरूप १४३ चारित्र-वहन माटे ज आहार कल्पे १७० सप्तभंगी- संक्षिप्त स्वरूप वास्तविक गच्छ कोने कहेवो? १७१ गीतार्थ मुनिनी श्रेष्ठता १४६ साध्वीसंगनुं वर्जन १७१ चारित्र-कांटानो मार्ग १४७ अर्णिकापुत्र आचार्य- वृत्तांत अगीतार्थनो उपदेश झेर सद्दश १४८ वृद्धमुनिने पण साध्वी साथेना । १७६ अगीतार्थना पांच प्रकार १४९ ___वार्तालापनो निषेध । अगीतार्थना संगथी अध:पतन स्त्रीजातिमां दूषणो १७७ सुमतिनुं वृत्तांत स्त्रीवाचक शब्दोना विविध अर्थो १७८ जळमनुष्य- स्वरूप १५३ स्त्रीना दूषणो संबंधी अन्य ) रागी ने क्रोधी शिष्यवाळा । शास्त्रकारो, कथन १७९ १५५ गच्छनो त्याग कूलवालुक मुनिनीकथा (फुटनोटमां) १८० सारा गच्छमां वास करवाथी लाभ १५६ मणिरथनी कथा (फुटनोटमा) १८१ केवा साधुओ निर्जरा करी शके? अग्निसमीपे घीनी माफक स्त्री १८३. स्कंदकाचार्य- वृत्तात (फुटनोटमां) १५८ संसर्गनो सदंतर त्याग स्कंदिक मुनिनी कथा (फुटनोटमा) १५८ राजीमती ने रथनेमिनुं वृत्तांत १८३ धन्ना काकंदीनी कथा (फुटनोटमां) १५९ साध्वीसंग-एक मुश्केल बंधन १८५ गजसुकुमालनी कथा (फुटनोटमां) साध्वीनुं कई रीते रक्षण करवू? दश प्रकारनी समाचारी १५९ स्थानांगसूत्रमा दर्शावेल साधु । पडिलेहण- सुंदर स्वरूप १६० साध्वीओने एकत्र रहेवाना . १८६ आवश्यक संबंधी वर्णन १६२ पांच स्थळो सत्तर प्रकारनो संयम १६५ लब्धिधारी पण चारित्रभ्रष्ट १८७ वाणीना प्रकार १६५ साधुनो त्याग आहार- प्रमाण १६६ १५० १५६ १८३ WWW १५९ १८६ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २०० विषय पृष्ठ विषय पृष्ठ क्षुल्लक साधुनुं वृत्तांत १८७ रोहा तापसीनी कथा २३१ लब्धिओनुं विस्तृत विवेचन १८८ कंटकादिक केवी रीते कढाववा? २३१ सनत्कुमार चक्री, वृत्तांत (फुटनोटमा) १८९ सुभद्रा सती- वृत्तांत २३३ कई लब्धि कोने होय? १९४ मूळ गुण विनानो साधु गच्छबाह्य २३६ रात्रि-आहारना दोषो १९५ थीणद्धि निद्राना पांच द्दष्टांतो २३७ कल्प अने त्रेपनो अधिकारी १९७ कषायदुष्ट साधुनुं वृत्तांत . २३८ आठ प्रकारनी गोचर भूमि सुवर्णादिकना स्पर्शनो निषेध २३९ चार प्रकारना अभिग्रह धान्य अने पात्रना प्रकारो दश प्रकारनां प्रायश्चित साध्वीए मेळवेला उपकरणो २४१ मुसाधु केवा होय? ) साधुओने कल्पे नहीं छक्कायना रक्षक साध्वीए वस्त्रादिक कई रीते मेळववा? २४१ तृषा संबंधमां क्षुल्लक साधुनी कथा २०३ दुर्गाह्य स्त्रीहृदय २४३ जळना एक बिंदुमां केटला जीवो? २०३ । लौकिक शास्त्रोमां दर्शावेल स्त्रीचरित्र २४३ अहिंसानी श्रेष्ठता २०४ रेवती, वृत्तांत २४४ ऐषणीय जलना प्रकारो २०५ पातालसुंदरीनी कथा २४७ अग्निकायनो उपयोग केम करवो? भोजन समये साध मंडळमां । वनस्पतिकाय संबंधी वर्णन साध्वी आगमननो निषेध । २५० कुचेष्टाना पांच प्रकार २१० सुगच्छना साधुओ क्रोधादिक २५१ नास्तिकवादनुं निरसन २११ कषायवाळा न बने जीवस्थापना कुलक-सार्थ २१४ स्कंदकाचार्यना शिष्योनुं वृत्तांत २५१ धूर्तनी कथा २१७ अर्जुनमालीनी कथा चंडकौशिकनुं वृत्तांत २२१ दमदंत राजर्षिनी कथा २५४ अर्हन्मित्र साधुनी कथा २२३ क्रोध संबंधी अच्वंकारी भट्टानी कथा २५६ वराहमिहिरनुं वृत्तांत २२४ माया संबंधी पांडुर आर्यानी कथा २५८ कारण उत्पन्न थते छते पण । लोभ संबंधी आर्य मंगुसूरिनी कथा २५९ वस्त्रादिकनुं अंतर करी साधुए २२७ साधुओने परस्पर कलह-कंकास । २६० साध्वीनो स्पर्श न करवो. न करवो अनंगराजपुत्र ने सुकुमारिकानु वृत्तांत २२८ क्षमापना- महत्त्व २६० स्त्रीस्पर्शथी हानि २२९ कुंभारनु वृत्तांत २६१ कया कारणे स्पर्श करी शकाय? २३० द्रमकनुं दृष्टांत २६२ २०८ २५२ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ २७६ ३०२ २८२ ३०५ विषय पृष्ठ विषय उदायन राजर्षिनी कथा २६३ श्रोत्रंद्रिय विषये राम-कथा २७४ सारा गच्छना लक्षणो २७० चक्षुइंद्रिय विषये चपलाक्ष कथा । २७५ बार प्रकारनी भावना घ्राणेंद्रिय विषये गंधप्रिय कथा २७५ पांच हेतुओनो परिहार २७२ रसनेंद्रियना विषये मधुप्रियनी कथा । केवा गच्छमां वास करवो? २७३ स्पर्शेन्द्रिय विषयमा महेन्द्रनी कथा २७६ पांच इंद्रियोना विषयोर्नु । इंद्रियना विषयो संबंधी प्रशमरति २७३ विषम परिणाम कार, कथन २७६ साध्वीस्वरूपनिरूपण-त्रीजो अधिकार साध्वीने एकान्त उपाश्रयमा न राखवी २८० नावमां क्यारे बेस? ३०१ साध्वीनी मर्यादाओ २८० नावना प्रकारो एकांत वार्तालापना दोषो २८१ जळ उतरवानो विधि ३०२ साध्वीए केवा वस्त्रो वापरवा? विहार संबंधी मासकल्पनुं वर्णन ३०४ साध्वीए गृहस्थादिकनी सीवणा- ) चातुर्मास क्यां ने केवी रीते रहेQ? दिक क्रिया न करवी पर्युषणा चोथनी केम थई? ३०७ सुभद्रानी कथा २८३ विहार क्यारे करवो? ३०९ कालीनी कथा २८८ साध्वीए केवी भाषा न बोलवी ३१० साध्वी शासननी शत्रु क्यारे गणाय? २९० रात्रि समये साध्वीए युवान । ********* पुरुषने धर्मकथा न संभळाववी [ उपसंहार - साध्वी पुरुषोनी सभामां आ गच्छाचार पयत्रो कया व्याख्यान न आपी शके शास्त्रग्रन्थोमांथी उध्धृत करेल छे? | ३१२ कुसाध्वीनां लक्षणो २९३ असज्झायना प्रकारो ३१२ साध्वीए रात्रे शयन केम करवू? . २९४ आ पयत्रो कोणे भणवो? ३१४ कया कार्यों करनार साध्वीने । २९५ आ पयन्नाना पठनथी लाभ ३१४ साध्वी न कहेवी? पाटपरंपरा ३१५ गणिनी पदने योग्य साध्वीनां लक्षणोव २९७ प्रशस्ति-सार्थ ३१६ शंकादि पृच्छा माटे गुरु समक्ष ) २९९ केवी रीते जवु? विहारनी मर्यादा ३०० २८२ २९१ २९२ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ वन्दे श्रीवर्द्धमानजिनेश्वरम् ॥ अनन्तलब्धिनिधानाय श्रीगौतमस्वामिने नमः । | "श्रीगच्छाचार-पयन्ना") श्रीविजयविमलगणिविरचित टीकाना आधारे] जैनाचार्य - श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरकृत - सरल अने रोचक विवेचन युक्त विवेचन - कर्ता- मंगलाचरण समस्तवस्तुपर्याय - स्तोमसत्यप्रकाशकः ।। निर्मोही शिवनारीशो, वीरोऽस्तु ज्ञानदो मम ॥१॥ गच्छाचारप्रकीर्णस्य, टीकां लोकसुभाषया । - कुर्वे वृत्त्यनुसारेण, चाऽधिकां कुत्रचित्त्वपि ॥ २ ॥ श्लोकार्थ - सकल पदार्थोना पर्यायसमूहने सत्य स्वरूपे प्रकाशित करनार, मोह रहित, शिववधू-मोक्षरूपी स्त्रीना स्वामी श्रीवीरजिनेश्वर परमात्मा मने ज्ञानदाता थाओ. गच्छाचारप्रकीर्णकनी टीकाना आधारे लोकभाषा-गुजराती भाषामां हुं अनुवाद - विवेचन करूं छु आ अनुवादने मनोगम्य तथा सरल बनाववा माटे टीकाना उल्लेख करतां पण प्रसंगोचित विशेष विवेचन कर्यु छे. * ** अनन्तलब्धिनिधान श्रीगौतमस्वामी गणधरमहाराजे एकदा चोत्रीश अतिशयधारी, वाणीना पांत्रीश गुणोथी विभूषित श्रीवर्द्धमानस्वामीने सुविहित गच्छसंबंधी पृच्छा करी, एटले दयानिधि, अनंतज्ञानी श्रीवीर भगवंते भव्य प्राणीओने संसारसागरनो पार पमाड़वामां नौका-जहाज समान, जन्ममरणरूपी दुःखदावानळने प्रशांत करवामां मेघधारा समान चारित्रधर्मनी प्ररुपणा करीने “गच्छाचारपयन्ना" प्रमाणे सुविहित गच्छ, स्वरूप कही संभळाव्युं. ते गच्छाचारपयन्ना स्वपरोपकारक समजी, अथवा आवा अनुपम ग्रंथनो सर्वसामान्य जनसमूह पण लाभ लई शके ते माटे लोकप्रिय गुजराती भाषामां तेनुं विवेचन करवानों में यथाशक्ति प्रयास कर्यों छे. मंगलादिनी आवश्यकता - __ कोई पण ग्रंथनी शरूआत करतां प्रथम मंगल, अर्थसंबंध, नाम अने प्रयोजन ए चार हेतओ दर्शाववा जोईए. आना संबंधमां कोई एवी शंका करे के – ‘मंगळ करवानुं कारण शुं?' तेनो उत्तर एछे के-'विघ्नोनी उपशांतिने माटे मंगळ करवू जोइए, मंगळ करवाथी विघ्नपरंपरा विनाश श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामे छे. आ उपरांत मंगळ करवानो बीजो हेतु ए छे के - ग्रंथने मंगळरूप मानीने शिष्यवर्ग तेनुं अध्ययन करवा उद्यमशील थाय. त्रीजो लाभ ए पण छे के – शिष्टवर्गनी परंपरानुं अनुकरण पण सचवाय. आपणा पूर्वाचार्य महाराजाओ प्रथम मंगळ करीने ज ग्रंथ प्रारंभ करता, एटले अन्य वर्गे पण तेमनी प्रणालिकानुं अनुकरण करवुं ज जोईए- आ बधा हेतुओने लक्षमां राखीने ज ग्रंथकर्ता महापुरुष पोताना इष्टदेव श्रीमहावीर परमात्मा - अपरनाम श्रीवर्द्धमानस्वामीने नमस्कार करवारूप मंगळ करे छे. वळी श्रोतागणनी ग्रंथ - श्रवण करवामां प्रवृत्ति थाय, तेमनी रुचि वृद्धि पामे तेमज शिष्टाचारनुं पालन थाय ते माटे अर्थसंबंध, नाम अने प्रयोजन ए त्रणे हेतुओं पण दर्शाववा जोईए. प्रस्तुत ग्रंथमां अमुक संबंध-वर्णन आवशे, ग्रंथनुं अमुक अभिधान छे अने ते ग्रंथ सांभळवाथी ज्ञानवृद्धि थवा साथै निर्जरा पण थशे एम श्रोतागणने जणाय तो ते वर्ग तेमां प्रवृत्ति करवा प्रयत्नशील बने. आटला समाधान पछी पण कोई वळी शंका करे के- अर्थसंबंधादि त्रण हेतुओनी आवश्यकता स्वीकारीए छीए पण मंगळ करवानुं शुं काम छे ? कारण के ज्ञानाध्ययन करवुं ते ज महामांगलिक छे तो पछी बीजुं मंगळ शा माटे करवुं ? आ शंकानो प्रत्युत्तर ए छे के श्रेय - कल्याणकारी कार्य हमेशां विघ्नव्याप्त होय छे. कह्यं पण छे के–'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' जे पापकार्यनी प्रवृत्ति करे तेने विघ्न शुं नडवानुं छे ? कारण के पापरूप कार्य ते ज विघ्नरूप छे, एटले विघ्नमां विघ्न कयुं नड़े ? आथी बराबर स्पष्ट थाय छे के श्रेयकार्यमा विघ्न न नड़े ते माटे मंगळ करवुं ज जोईए प्रस्तुत विषयमा शास्त्रश्रवण ए श्रेय-कल्याणकारी कार्य छे, कारण के तेथी स्वर्गादि संपत्ति यावत् शिवसुखनी प्राप्ति थाय छे. आ उपरांत ग्रंथकर्तानो ए पण आशय होय छे के - आ ग्रंथनुं रचनाकार्य निर्विघ्ने साद्यंत परिपूर्ण थाय, शरीर संबंधी व्याधिओ उपशमी जाय अने प्रफुल्ल चित्तथी ग्रथनी रचना करी सुखरूप पूर्णाहुति थाय. भाष्यकार पण आ संबंधमां जणावे छे के बहुविग्घाई सेयाई, तेण कयमंगलोवयारेहिं । सत्थे पट्टिअव्वं, विज्जाए महानिहीए व्व ॥ १ ॥ — उपरना विषयनी पुष्टि करतां भाष्यकार पण उपर्युक्त गाथामां कहे छे के - 'श्रेयकार्यमां घणा विघ्नो आवी पड़े छे, माटे मंगळ उपचार-मंगळ करीने पछी ज ग्रंथ रचवामां उद्यम करवो. जेम महानिधान तेमज महाविद्या वखते मंगळ करवामां आवे छे तेम आ शास्त्र संबंधमां पण समजी लेवुं.' महानिधानभंडारनुं स्थापन करवुं होय त्यारे गोळ प्रमुखनुं दान करवामां आवे छे तेमज विद्याभ्यास करती वखते पण मंगळ करवामां आवे छे, तेवी रीते ग्रंथरचनामां पण मंगळनुं अवलंबन लेवुं ज जोईए. आटला कथनथी समाधान न थतां प्रतिवादी पुन: शंका करे छे के - ग्रंथनी शरुआतमां मंगळ करीने ग्रंथगौरव ग्रंथविस्तार शा माटे करो छो ? जो विघ्ननी ज शांति करवी छे तो मनमां नमस्कार करवाथी अगर तो तपश्चर्यादिक करवाथी विघ्नोनुं उपशमन थई जशे आनो उत्तर एटलो ज के तमे श्रीगच्छाचार - पयन्ना २ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह्यं तेम थई शके छे, पण ते भावमंगळ छे. ते अन्यना जाणवामां आवी शकतुं नथी. ग्रंथकर्ताने तो मानसिक नमस्कारादिकथी जरूर लाभ थाय पण प्रमादी शिष्यने तेमज श्रोताने शो लाभ थाय ? मंगळना अभावे विघ्न उपस्थित थतां तेनुं अध्ययन अपूर्ण रही जाय. जो ग्रंथनी आदिमां मंगळ होय तो तेनुं अध्ययन कर्या पछी ज प्रमादी शिष्यने आगळ वधवानुं रहे, अने मंगळना सामर्थ्यथी ते निरुपद्रव बनी पोतानुं इच्छित कार्य पण पूर्ण करी शके. वळी ग्रंथनां प्रारंभमां इष्टदेवने नमस्कार विगेरे जोईने तेने श्रद्धा थाय के आ ग्रंथ आगमानुसारी छे, तेमां वीतराग भगवंतने नमस्कार छे माटे ते उपादेय छे एवी प्रतीति पण थाय. आ बधा कारणोथी मंगळनी आवश्यकता सिद्ध थाय छे. कह्यं छे के - मंगलपुव्वपवत्तो, पमत्तसीसो वि पारमिह जाइ । सत्थिविसेसण्णा, गोरवादिह पयट्टेज्जा ॥ १ ॥ मंगळनी पुष्टि करनारी आ गाथामां कहेवामां आव्युं छे के 'मंगळ करीने प्रवृत्ति करेल प्रमादी शिष्य पण शास्त्रनो पारंगत - पारगामी थाय छे, माटे आदरमान- बहुमानपुरस्सर जरूर मंगळ करवुं.' - आम छतां पण वादी पोताना बचावमां एक वधु दलील रजू करी कहे छे के - मंगळ विनाना पण घणां ग्रंथो जोवामां आवे छे अने तेवा ग्रंथो श्रोतासमूह सांभळे पण छे तो तमे मंगळ मा आलो बधो आग्रह शामाटे राखो छो ? आनो सरळ अने स्पष्ट जवाब एछे के - मंगळ ए शिष्टाचार पाळवानुं कारण छे. पूर्वधर पुरुषो कोई पण मनवांछित कार्य माटे प्रवृत्ति करता त्यारे मंगळ करी ज-इष्टदेवने प्रणाम करीने ज प्रवृत्ति करता. मूळ ग्रंथकर्ता पण पूर्वधर पुरुष छे एटले पण मंगळनी आवश्यकता प्रतिपादन थाय छे. कह्युं छे के. शिष्टाः शिष्टत्वमायान्ति, शिष्टमार्गानुपालनात् । तल्लङ्घनादशिष्टत्वं, तेषां समनुपद्यते ॥ १ ॥ ‘शिष्टमार्गना पालनथी-वडील पुरुषोए फरमावेल नीतिरीतिने अनुसरवाथी शिष्टपणुं प्राप्त थाय छे अने तेओनी मर्यादानुं उल्लंघन करवाथी लघुता प्राप्त थाय छे' आ कारणथी ज पूर्वाचार्योए मंगळ करवानी प्रणालिका अंगीकार करी छे. आवी रीते मंगळनी पूर्ण रीते पुष्टि कर्या पछी हवे संबंध, अभिधेय अने प्रयोजन ए त्रणे कारणोनी दृढतानुं वर्णन करे छे. असंबंध ग्रंथ होय तो श्रोतावर्ग तेमां रस ले नहिं. पंडित पुरुषो पण दश दाडिमादिक असंबंध वाक्यनी माफक तेमां प्रवृत्ति करे नहिं. वली नाम विनानो ग्रंथ होय तो पण श्रोतावर्ग सांभळे नहिं. कागड़ाना दांतनी परीक्षानी जेम ते निष्फळ ज जाय. वळी ग्रंथनुं कशुं प्रयोजन न होय तो मंदबुद्धिवाला प्राणीओ तेना श्रवणमां तथा अध्ययनमां उद्युक्त ज न थाय; कारण के कंटक - कांटानी शाखानुं मर्दन करवानो कोई विचार करे ? अर्थात् न ज करे. तेवी रीते प्रयोजन विनाना ग्रंथना श्रवण अभ्यासमा कोई पण प्रवृत्ति न ज करे. श्रीगच्छाचार - पयन्ना - ३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधादिकनी उपयोगिता जणाव्या छतां वादी तर्क करे छे के – जेओ अज्ञानी छे तेओने वीतरागना वचनमां श्रद्धा होती नथी, वीतराग परमात्माए का ते साचुंज का छे तेवो तेमने ख्याल होतो नथी अने जो संशयथी प्रवृत्ति करवामां आवे तो ते संबंधादिक विना पण थई शके, अर्थात् 'ए शुं कहेशे?' एवी जेने जाणवानी इच्छा हशे ते तो संबंधादिक विना पण ग्रंथ सांभळशे, तेओनुं निवारण कोण करवानुं छे? माटे मारा मत प्रमाणे तो संबंधादिक हकीकत श्रोताओ माटे आवश्यक नथी. आ बधी हकीकतना परिहारपूर्वक ग्रंथकर्ता महाशय कहे छे के- शिष्टाचार तो राखवो ज जोइए, कारण के ग्रंथकर्ता जे हेतुथी ग्रंथनी शरूआतमा प्रयोजनादिक देखाड़े छे ते शिष्ट अनुकरण छे. आ संबंधी विशेष अधिकार न्यायग्रंथोथी जाणवो उचित छे. हवे 'गच्छाचार-पयन्ना' ग्रंथना कर्ता शरूआतमां मंगलादि चारे हेतुओने दर्शावता पहेली गाथा कहे छे नमिऊण महावीरं, तियसिंदनमंसिअं महाभागं । गच्छायारं किंची, उद्धरिमो सुअसमुद्दाओ ॥१॥ [नत्वा महावीरं, त्रिदशेंद्रनमस्थितं महाभागम् । गच्छाचारं किञ्चिद्-उद्धराम: श्रुतसमुद्रात् ॥१॥] गाथार्थ – देवेंद्र-इंद्रथी नमस्कार कराएल, महाप्रभावशाळी श्रीवीर परमात्माने प्रणाम करीने द्वादशांगीरूप श्रुत-सिद्धांतरूपी समुद्रमांथी साधुसमुदायरूपी गच्छनो ज्ञानाचारादि अथवा गणमर्यादारूप आचार स्वल्पमात्र उद्धरूं छु. १. विवेचन - उपर्युक्त गाथामां वीर परमात्माने प्रणाम कर्या, पण वीर-महावीर एटले शुं? 'महावीर' शब्दनो शब्दार्थ एवो छे के-विशेषे करीने कर्मोने खपावे तेने वीर कहीए. पूर्वाचार्यकृत नीचेनो श्लोक पण ए ज अर्थने जणावतां कहे छे के विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद् वीर इति स्मृत: ॥१॥ जे कर्मने विदारे-तोड़ी नाखे, तेमज तपश्चर्याद्वारा जे विशेष शोभे अने तप तथा वीर्यथी जे युक्त होय तेने वीर कहेवामां आवे छे. बीजा वीरोनी अपेक्षाए जे महान्-श्रेष्ठ वीर ते महावीर चरम जिनपतिने नमस्कार को छे. महावीर नाम केवी रीते प्राप्त थयुं ते माटे शास्त्रोमां नीचे प्रमाणे उल्लेख मळी आवे छे. ज्यारे वीर परमात्मानो जन्म थयो त्यारे तेमनो स्नात्राभिषेक करवा माटे तेमने मेरूपर्वत पर लई जवामां आव्या. जेम दरेक तीर्थंकरोने माटे बने छे तेम जळना* कळशो तैयार करवामां आव्या * स्नात्रभिषेक समये इंद्रो, अग्रमहिषीओ अने बीजा देवोना कल अढीसो अभिषेक थाय छे. एक एक अभिषेकमां चोसठ हजार कळशो होय छे. एटले सर्व कळश संख्या एक करोड ने साठ लाख कळशनी थाय. दरेक कळश २५ योजन ऊंचो,१२ योजन पहोळो अने एक योजनना नाळचावाळो होय छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवामां इन्द्रने संशय उपज्यो के प्रभु तो हजु बाळक छे. आटलो बधो विपुल जळराशि केवी रीते ते सहन करी शकशे? जन्मथी जत्रण ज्ञानवाळा परमात्माए अवधिज्ञान द्वारा इंद्रनो संशय जाण्यो एटले पोताना वाम चरणना अंगूठाथी मेरुपर्वतने दबाव्यो के तरत ज चारे तरफ उत्पात मची गयो, जेम-के पर्वतना शिखरो पड़वा लाग्या, मेघगर्जनाओ थवा लागी, समुद्र प्रचंड नादपूर्वक उछळवा लाग्या, वायु झंझावातनी माफक फेलाई गयो, धरती धणधणी ऊठी. एटले प्रभुना जन्ममहोत्सवना पवित्र कार्य प्रसंगे आवो उपद्रव शो? एम विचारतां इंद्रे पोताना अवधिज्ञाननो उपयोग मूक्यो तेवामां प्रभुनी ज आ बधी चेष्टा-लीला जणाई. वीर परमात्माना अनन्त बळनी तेने खात्री थतां प्रभुने तेणे तुर्त ज खमाव्या अने अनंतबळी होवाथी तेमनुं महावीर एवं बीजुं नाम प्रसिद्धिमां मुक्यु. कोई कदाच कहे के - बीजा तीर्थंकरोनो त्याग करीने महावीर भगवंतने ज नमस्कार करवानुं कारण शुं? आनो स्पष्ट खुलासो करतां कहे छे के वीर परमात्मा चालु चोवीशीना अंतिम तीर्थंकर हता अने आपणे तेमना शासनमा होईने तेओ आपणा अत्यंत उपकारी छे तेथी तेमने नमस्कार करवामां आव्यो छे. तेओ देवेश - इंद्रथी नमस्कार कराएल छे अने तीर्थंकरपणारूपी ऐश्वर्यना स्वामी होवाथी महात्मा पण कहेवाय छे. तेमने नमस्कार करीने पांच समिति, पालन करनार, त्रण गुप्तिने धारण करनार, छकायनी रक्षा करवामां तत्पर मुनिवरोना समुदायना आचार-गच्छाचारने हुं वर्णवीश. भगवान महावीरनी पाटे विराजित श्रीसुधर्मास्वामी आदि शिष्योए जे क्रियाकलापर्नु आचरण कर्यु अने पंचांगीमां जेनुं वर्णन करवामां आव्युं छे ते गच्छाचार कहेवाय. तेनो प्रकीर्णक-पृथक् करवू ते गच्छाचार-पयत्रो. आ अभिधेय नाम समजवू. कोई शंका करे के श्रीमान् भद्रबाहुस्वामी आदि पूर्वपुरुषविरचित गच्छाचारना ग्रंथो छे तो आ नवीन ग्रंथ रचवानुं कारण शुं? आनो उत्तर आपतां जणावे छे के ए ग्रंथो विस्तृत अने विद्वानोने गम्य छे. मंदबुद्धिवाळा-अल्पज्ञानी प्राणीओना माटे संक्षेपमां आ ग्रंथरचना करी छे. आ रीते ग्रंथ, प्रयोजन पण जणावी दीधुं; कारण के का छे के– “प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते ।” प्रयोजन विना मंदमतिवाळो मूर्खजन पण कोई कार्यमा प्रवृत्ति करतो नथी. संक्षेपमां रचवानुं कारण एछे के ते सुखपूर्वक भणी शकाय, ग्रंथ संक्षिप्त जाणी सांभळवावाळा लोको पण उत्सुक बने अने परिणामे ज्ञानलाभ थाय. कोई एवी शंका करे के - आ ग्रंथरचना तो नवी छे, सर्वज्ञभाषित नथी; माटे तेमा विसंवादपणुं-साचापणुं तथा झूठापणुं जाणी लोको तेनो सांभळवा तथा शिखवामां अनादर करशे. आ शंकाना परिहार माटे ग्रंथकर्ता कहे छे के - आ ग्रंथ श्रुतसमुद्रमांथी उद्धरवामां आव्यो छे–नवीन नथी, माटे तेमां विसंवादपणानी संभावना करवी नहिं. ___ आ प्रमाणे गाथाना पूर्वाद्ध-पहेला तथा बीजा पादवड़े मंगळ अने उत्तरार्ध त्रीजा तथा चोथा पादवड़े नाम, प्रयोजन अने अर्थसंबंधपण दर्शाव्या छे. प्रयोजन बे प्रकारना छे: एक अनंतरप्रयोजन अने बीजुं परंपरप्रयोजन. ए बन्ने पण बब्बे प्रकारनां छे. एक कर्तानी अपेक्षाए एटले कर्ताने अनंतर तेमज परंपरप्रयोजन अने श्रोता-सांभळनारनी अपेक्षाए अनंतर अने परंपरप्रयोजन. कर्ताने अनंतरप्रयोजन एटले शिष्योने संक्षेपथी गच्छाचारनो बोध कराववो [१] अने कर्ताने परंपरप्रयोजन श्रीगच्छाचार-पयन्ना–५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले बीजाने गच्छाचारनो उपदेश आपी सर्द्धममां जोड़वो. आवी जातना उपकारथी कर्म क्षय थाय छे अने छेवटे मोक्षसुखनी पण प्राप्ति थाय छे. [२] शिष्यने अनंतरप्रयोजन एटले ग्रंथना संक्षेपथी अल्पप्रयासे गच्छाचारनुं ज्ञान थाय. [१] जेवी रीते श्रीशय्यं भवसूरिए अल्पायुषी पोताना पुत्र मनक माटे दशवैकालिक सूत्रनी रचना करी, तेना द्वारा संक्षिप्तमां सघळो बोध समजाव्यो. अने शिष्यने परंपरप्रयोजन ते गच्छाचार जाणी अनाचार छोड़े अने तेवी शुद्ध आचरणाथी प्रांते तेने शिवसुखनी प्राप्ति थाय. [२] ग्रंथनुं नाम गच्छाचार कर्यु. नाम विना प्रयोजन होय नहिं, कारण के महात्मा पुरुषो विनां प्रयोजने प्रवृत्ति करता नथी. आ पयन्नो गच्छाचार जाणवानो उपाय छे, तेना विना गच्छाचार जाणवामां न आवे तेथी गच्छाचार जाणीने अंगीकार करे ते उपेय छे. ग्रंथांतरमां तेने प्रतिपाद्य अने प्रतिपादक कहेवामां आवे छे. प्रयोजन अने संबंधने प्रकारांतरे भिन्नपणुं जुदापणुं होय छे. कह्यं छे केसमबन्धः प्रोक्त एव स्यात्, एतस्यैतत् प्रयोजनम् । इत्युक्तेन तन्नो वाच्यो, भेदेनासौ प्रयोजनात् ॥ १ ॥ यस्याः पादे प्रथमे, द्वाद्वशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि । अष्टादश द्वितीये, चतुर्थके पञ्चदश सार्या ॥ १ ॥ 9 श्रुतसमुद्रमांथी 'गच्छाचार - पयन्नो' उद्धरुं छं एम कहेवाथी शिष्यने गुरुपरंपरा दर्शावे छे. प्रथम श्रीवीर परमात्माए आ गच्छाचार प्रतिपादन कर्यो, श्रीसुधर्मास्वामीए तेने द्वादशांगीमां सूत्ररूपे गूंथ्यो. बाद श्रीभद्रबाहुस्वामी प्रमुखे तेने बृहत्कल्पादिकमां दाखल कर्यों अने ते ते ग्रंथोमांथी उद्धरीने संक्षेपथी मंदबुद्धिवाळाओ माटे रच्यो. एटले परंपराए आ ग्रंथना कहेनारा सर्वज्ञ परमात्मा ज छे. एटले आ प्रकीर्णक अवश्य ग्रहण करवा योग्य - आदरवा योग्य छे. आ पयन्नाना मूळश्लोक आर्या छंदमां छे, तेथी तेनुं लक्षण नीचे प्रमाणे जगावे छे — आर्या छंदा प्रथम पादमां बार मात्रा होय, त्रीजामां पण बार होय, बीजामां अढार अने चोथामां पंदर मात्रा होय छे. आ आर्या छंदने प्राकृतमां “ गाथा" कहेवामां आवे छे. श्रीगच्छाचार - पयन्ना - ६ संसारने असार-दुःखरूप जाणी, मातपिताना वात्सल्यने तिलांजलि दई, संसारजन्य कष्टोने दूर करवा माटे तेमज इहलोक अने परलोक साधवा माटे जेओ साधुपणुं अंगीकार करे छे तेओनो जे गच्छ ते सुविहित गच्छ जाणवो. ते गच्छमां (सारणा वारणा) चोयणा, पडिचोयणा इत्यादि होय अने शिष्यवर्गने शुद्ध आचरणमां प्रवर्तावे. आवा सुविहित गच्छमां ज वास करवो योग्य छे; कदापि असदाचारी भ्रष्ट गच्छमां निवास करवो नहि. जे गच्छमां साधु परिग्रह अने आरंभमां आसक्त होय, नित्य अनाचार सेवता होय, गृहस्थो पासे कार्य करावता होय, गृहस्थो साथे आलाप-संलाप करवाने कारणे पड़िलेहणादि आवश्यक क्रिया करवामां प्रमादी बनी जता होय तेवो गच्छ असदाचारी - भ्रष्ट कहेवाय. तेनो तो सदैव त्याग ज करवो जोईए. आ संबंधमां टूंका टूंका दश दृष्टांतो आपवामां आवे छे. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहेलुं दृष्टांत - कोईएक पुरुष महामहेनते चित्रकला शीख्यो, परंतु चित्रकाम क्या अने केवी रीते करवं तेनुं तेने पूरेपूरुं ज्ञान प्राप्त थयुं नहि. एकदा एक चित्रकलाशोखीन राजाए आ चिताराने एक मकानमां सुंदर चित्रकाम करवानो आदेश आप्यो. ते मकाननी दिवालो खरबचड़ी अने खाड़ा-खड़िया वाळी तेमज कोई कोई स्थळे तो ऊंचा-नीची पण हती. चिताराए ते भीतने मठारीने सारी कर्या सिवाय ज पोतानु चित्रकाम शरू कर्यु परंतु ते चित्रामण बेडोळ अने शोभाविहीन बन्यु. राजाए आवी कार्य जोयुं तो तेने चित्रकारनी महेनत माटे मान उपज्युं परंतु तेनी अज्ञता-केवा स्थळे चित्रकाम सुंदर देखाय तेनी असमजण माटे हास्य उत्पन्न थयु. मतलब के चिताराए कार्य तो कर्यु पण चित्रकामनी पूरती समजणना अभावे तेनो प्रयास वृथा थयो. आ कथानो उपनय एवो छ केअहीं चितारो ते साधु, अशुद्ध दिवाल-भीत ते भ्रष्टाचारी गच्छ अने चित्रामण ते साधुधर्मनुं पालन अर्थात् अशुद्ध भींत पर करेल चित्रामण वृथा नीवड्युं तेम भ्रष्टाचारी गच्छमां निवास करवाथी अथवा तेनो संसर्ग करवाथी साधुधर्मनुं पालन निष्फल बने छे, माटे हमेशां भ्रष्टाचारी गच्छनो त्याग ज करवो. . बीजुं दृष्टांत - कोईएक शख्सने उतावळना कार्य प्रसंगे बहारगाम जवानुं थयु. तेणे पूरती तैयारी करी प्रयाण कर्यु तो रस्तामां वच्चे नदी आवी. नदी तरीने सामे कांठे गया सिवाय तेने छूटको नहोतो. नदी पण विशाळ अने बे कांठामा होवाथी एम ने एम चालीने जई शकाय तेम नहोतुं. तेणे नदी पार करवा माटे साधन मेळववा आसपास नजर फेंकी तो थोडेक दूर एक नौका पड़ेली मालूम पड़ी. तेणे तरत ज त्यां जई ते होड़ीनो उपयोग कयों परन्तु उतावळने कारणे तपास न करी के होड़ी केवी छ ? होड़ीमां छिद्रो होवाथी थोड़े दूर जतां ज पाणी भरावा मांड्यु अने हजु तो कांठे पहोंचे ते पहेला ज पाणीथी भराई जवाथी होड़ी डूबी गई अने साथोसाथ ते शख्स पण डूबी गयो. आ कथानो उपनय एवो छ के - नदी ते संसार, शख्स ते साधु अने छिद्रवाळु नाव ते भ्रष्टाचारी गच्छ. जेम ते शख्स छिद्रवाली होड़ीना अवलंबनथी डूबी गयो तेम जे साधु भ्रष्टाचारी गच्छनो आश्रय ले ते जरूर पतित थाय. त्री दृष्टांत-कोईएक मानवीने व्याधि थयो. तेणे एक कुशळ गणाता वैद्य पासे जई उपचार शरू कों. औषध आपवानी साथे वैद्ये शिखामणरूपे तेने कां के – 'भाई, जो तुं बराबर करी पाळीश, पथ्य- ज सेवन करीश तो ज मारु औषध फायदाकारक बनशे.' केटलाएक दिवस बाद ते मानवी पोतानी जिह्वाने वश राखी शक्यो नहिं अने अपथ्य- सेवन करतां व्याधि वृद्धि पामी गयो अने प्रांते ते यमराजनो अतिथि बन्यो. आ कथानो उपनय एवो छे के- व्याधि ते कर्म, औषध ते चारित्र, वैद्य ते साधु अने अपथ्य ते भ्रष्टाचारी गच्छ. जेम ते व्याधिग्रस्त अपथ्य- सेवन करवाथी मृत्यने आधीन थयो अने वैद्यनु औषध गुण-फायदो करी शक्युं नहिं तेम भ्रष्टाचारी गच्छ- सेवन करवाथी चारित्र कोई पण जातनो लाभ करी शकतुं नथी, माटे भ्रष्टाचारी गच्छनो कदी पण परिचय न करवो. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चोथु दृष्टांत- कोई एक द्विजपुत्र काशी भणवा गयो. काशीमां तेने केटलाक पंडितो मळ्या. तेओए तेने सलाह आपी के – 'तुं प्रथम व्याकरण भणजे अने पछी तने न्यायना अभ्यासमां सुगमतां थशे.' ते द्विजपुत्रे जवाब आप्यो के- 'ना, हुं तो प्रथम न्याय ज भणीश, मारे तो सिद्धांतनो अभ्यास करी तेना पारगामी बनवू छे.' ते पंडितोए ते भोळा द्विजपुत्रने समजाव्यो के – 'भला माणस ! व्याकरण विना न्याय भणीश तो छारनालीपण जेवूनकामुंथशे. व्याकरण विना शब्दोच्चार पण स्पष्ट नहिं थाय अने विद्वानोनी सभामां हांसी थशे.' छतां पण ते कदाग्रही द्विजपुत्रे पोतानो हठाग्रह छोड्यो नहिं अने अभ्यास शरू को. न्यायनो अभ्यास करतां बार वर्ष व्यतीत थई गया. एवामां पंडितोनी सभा भराई. द्विजपुत्र पण पोतानुं पांडित्य दर्शाववाना हेतुथी त्यां गयो. पंडितोए तेनी परीक्षा निमित्ते तेने का के– 'पंडितशेखर ! मंगळाचरण करो.' द्विजपुत्र लक्षपत्री न्याय भण्यो हतो पण व्याकरण- ठेकाणु न हतुं. तेना मनमां थोडो वसवसो उत्पन्न थयो के व्याकरणनां अभ्यास विना हुं मंगळाचरण केवी रीते करीश? छतां समग्र हिंमत एकठी करीने तेणे मंगलाचरणनी शरूआत करतां का के "शब्दरि..." आ “शब्दरि" शब्द सांभळतां ज समग्र विद्वत्सभा हसवा लागी. पंडितोए ते द्विजपुत्रने “शब्दरि" शुंछे ते समजाववा का त्यारे ते बोल्यो के–'अर्थरि, कर्तरि विगेरे शब्दोनी माफक ‘शब्दरि' पण हशे तेम मानीने बोल्यो छु.' तेनो आवो खुलासो सांभळी सभाने विशेष हास्य आव्यु अने तेनो तिरस्कार करी सभामांथी काढी मूक्यो. आ कथानो उपनय एवो छ के - बार बार वर्ष सुधी श्रम करवा छतां व्याकरणना अभ्यास विना ते द्विजपुत्रनो श्रम वृथा गयो तेम कोई पण साधु भ्रष्टाचारी गच्छमां रही गमे तेटलो श्रम करे तो पण ते कदी फळदायक बने नहिं. पांचमुं दृष्टांत- कोई एक माणसे मकान तैयार कराववा मांड्युं पण जल्दी तैयार कराववानी आशाए एम ने एम-पाया विना चणाववा मांड्यु, थयुं एवं के मकान थोडं तैयार थाय अने तरत ज पड़ी जाय. आवी रीते त्रण-चार वखत बनवाथी तेणे कोई एक सज्जननी सलाह लीधी. सज्जने का के– 'पहेला पाया खोदावी, तेने मजबूत करो अने पछी ते पर मकान चणावो.' ते माणसे तेवी रीते करतां तेनुं इच्छित पार पड्यु. कथानो उपनय एवो छे के-सारा पाया विना जेम मकान टकी शके नहिं तेम सुविहित-सदाचारी गच्छ सिवाय चारित्र टकी शके नहिं. छ→ दृष्टांत - कोई एक गृहस्थे पोतानी दासीने का के —'आपणा आवासना त्रीजे मजले लींपण करी आवजे.' त्रीजो माळ वपराश वगरनो हतो तेथी त्यां धूळना ढग जाम्या हता. ते मूर्ख दासीए धूळने साफ कर्या वगर ज ते पर लींपण कर्यु परंतु बन्यु एवं के लींपण सुकाई गयु के तरत ज धूळनी साथोसाथ लीपणना पोपड़ेपोपड़ा उखड़ी गया अने लींपण निरर्थक बन्यु. आ कथानो उपनय एवो छे के - लींपण ते व्रत, धूळ ते भ्रष्ट गच्छ अने दासी ते साधु. जेम धूळना योगथी लींपण नाश पाम्युं तेम भ्रष्टाचारी गच्छना सहवासथी साधुनुं चारित्र नाश पामे छे. सातमुंदृष्टांत-कोई एक मूर्ख जलरहित पत्थरवाळी भूमिमां कमळ रोपवा लाग्यो. तेने बीजा सज्जन माणसे का - ‘भाई ! पत्थरवाळी भूमिमां कदी कमळ नऊगे.' पेला मूर्ख माणसे हठपूर्वक श्रीगच्छाचार–पयन्ना-८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह्यं के – 'हुं तो मारो उद्यम करीश अने अहिं रोपेला कमळनी जरूर सुगंध लईश.' बीजाए ते समजावतां कह्यं—‘भला माणस ! शा माटे महेनत करे छे ? तारो आ प्रयत्न वंध्यासुतनी माफक वृथा थशे.' आटलुं कहेवा छतां मूर्ख मान्यो नहिं अने तेणे पोतानो प्रयत्न जारी राख्यो. क्रमे क्रमे वर्षो पर वर्षो वीततां गया छतां परिणाम कई न आव्युं- कमळ ऊग्युं ज नहीं. ते मूर्ख माणसे कमळनी पाछळ पूर्ण प्रयास करेल होवाथी बीजा उद्यमना अभावे निर्धन-दरिद्री बनी गयो. आ कथानो उपनय एवो छे के – मूर्ख ते साधु, कमळ ते चारित्र, निर्जळ पत्थरवाळी भूमि ते भ्रष्ट गच्छ. चारित्ररूप कमळनी वांछना करतो ते मूर्ख श्रावकधर्मव्रत - पालनरूप बीजा उद्यमने मूकीने चार गतिमां 'रड़वड्यो-भटक्यो. - आठमुं दृष्टांत – कोई अंध पुरुष पोतानी शोभा वधारवा माटे कानमां कुंडळ, भालमा तिलक, कपालप्रदेश पर चित्रामण कराववा लाग्यो. तेनुं आवुं कृत्य जोईने कोई डाह्या पुरुषे तेने तेनुं कारण पूछ्युं. तेणे कह्यं के –‘हुं सौंदर्यशाळी बनवा मागुं छं.' सज्जन पुरुषे कह्यं के –'भाई, नेत्र विना मुख-मंडन शोभै नहि कारण के मुखनी शोभा तो नेत्र छे. तुं आ वृथा प्रयास त्यजी दे.' उपनयअंधपुरुष ते साधु, नेत्र विनानुं मुख ते भ्रष्ट गच्छ, शोभा ते चारित्र. जेम नेत्रयुक्त मुख शोभे तेम सुविहित गच्छ होय तो ज चारित्र शोभनीय - प्रशंसनीय बने. नवमं दृष्टांत – कोई खेडूत उखरभूमिमां बीजनी वावणी करवा लाग्यो. तेने कोई सज्जन पुरुषे कह्यं के – 'आ खारवाळी जमीनमां वावेलां बधां बीज बळी जशे अने धान्य नहिं नीपजे' छतां तेणे मान्युं नहिं अने पोतानुं कार्य चालु राख्युं. भाग्ययोगे वर्षा पण सारी थई छतां बीजों बधा दग्ध थई गएला होवाथी धान्य पाक्युं नहीं. परिणामे एनी महेनत वृथा - निष्फळ नीवड़ी. उपनय— खेडूत ते साधु, उखरभूमि ते भ्रष्टाचारी गच्छ, बीज ते चारित्र उखरभूमिमां धान्योत्पत्ति थाय नहिं तेम भ्रष्टाचारी गच्छमां कदी चारित्रशुद्धि थई शके नहिं. दशमुं दृष्टांत – बकरीनी डोक पासे नाना नाना बे स्तनो होय छे. तेमांथी दूध झरतुं नथी. मात्र ते शोभा पूरता ज होय छे. भ्रष्टाचारी गच्छ पण अजागलस्तन जेवो छे. माथी की चारविशुद्धिरूप दूध प्राप्त थई शकतुं नथी. आ बधा दृष्टांतोद्वारा रहस्य जाणीने उन्मार्गगामी गच्छनो हमेशां त्याग करवो जोईए. उन्मार्गगामी साधुओ साथे आलाप-संलाप पण न करवो. शुद्ध समाचारीमां वर्तनारा, मूलोत्तर गुण पाळनारा, दोषने आलोवनारा मुनिवरो जे गच्छमां रहेता होय ते सुविहित गच्छ शुद्ध गच्छ जाणवो. आवा गच्छमां चारित्रना खपी मुनिवरोए निवास करवो योग्य छे, छतां पण जो कोई उन्मार्गगामी गच्छमां वास करे तो तेओ दुःखी थाय, तेनुं संसारपरिभ्रमण वधे. आ संबंधी हकीकत बीजी गाथामां दर्शावता कर्त्ता कहे छे के अत्थेगे गोअमा ! पाणी, ते उम्मगपट्ठिए । गच्छम्म संवसित्ता णं, भमई भवपरंपरं * ॥ २ ॥ श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ९ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सन्त्येके गौतम ! प्राणिन:, ये उन्मार्गप्रतिष्ठिते । गच्छे संवसित्वा, भ्रमन्ति भवपरंपराम् ॥ २ ॥ गाथार्थ - हे गौतम! एवा केटलाएक वैराग्यवंत जीवो होय छे के जेओ अज्ञानपणे अने जाणपणाना मिथ्याभिमानवडे सन्मार्गने दूषित करवापूर्वक उत्सूत्रप्ररूपणा करे छे तेमज हिंसादिक पांचे आश्रवो जेमां प्रवर्ती रह्या छे तेवा उन्मार्गगामी गच्छमां वसीने चार गतिरूप संसारमां भटक्या करे छे. विवेचन – उन्मार्गगामी गच्छमां वसीने प्राणी भवपरंपराने वृद्धिंगत करे छे. दुर्जननो संग सज्जनने-शीलवानने पण भ्रष्ट करे छे. आ संबंधे नीचेनी कथा समजवा योग्य छे. एक ब्राह्मणने अत्यंत चपळ पुत्र हतो. नानपणमां ज हमेशां ते जुगारी तथा लंपट पुरुषोनी सोबत करवा लाग्यो. तेना पिताने ते पसंद न पड्युं. तेणे ना कह्या छतां पण ते जवा लाग्यो, तेथी तेना पिताए चौदमुं रतन शरू कर्यु अर्थात् तेने मारवा मांड्यो. ते समये तेनी पत्नी पोताना स्वामीने कहेवा लागी के – 'हे स्वामिन् ! पुत्रने शा माटे मारो छो ?' ब्राह्मणे कह्यं के – 'ते चोर लोको अने लुच्चाओनी संगतमां रहे छे.' स्त्रीए कह्यं - 'ते हमणां शुं समजे ? पुत्र हजी नानो छे. मोटो थशे त्यारे आपमेळे समजशे. हमणां तेने स्वेच्छापूर्वक रमवा द्यो.' ब्राह्मणे पोतानी अज्ञान स्त्रीने समजावतां कह्यं के – 'हे भोळी ! जो तारो पुत्र भ्रष्टाचारीना संगमां रहेशे तो आ संसारमां बंदीखाना, प्रहार विगेरेनुं दुःख सहन करशे अने परलोकमां नरकादि दुष्ट गति पामशे. जो सज्जननी सोबत करशे तो सद्विद्या प्राप्त करी राजसभाने शोभावशे तेमज परभवमां पण देवगति विगेरे सद्गति प्राप्त करशे, कह्यं छे केयदि सत्सङ्गनिरतो भविष्यसि भविष्यसि । अथासज्जनगोष्ठीषु, पतिष्यसि पतिष्यसि ॥ १ ॥ जो सत्संगमां रक्त रहेशे तो गुणवान, आ लोकमां पूजापात्र अने सुखी बनशे. जो दुष्टसंगति र तो आ लोकमां राजाना केदखानामां पड़शे अने परभवमां पण नरकगतिमां पड़शे.' ब्राह्मणना आ प्रमाणे समजाववाथी तेनी स्त्री समजी. आ कथानो उपनय ए छे के - साधु जो उन्मार्गगामी गच्छनो आश्रय ले तो साधुपणाथी च्युत थाय- पतन पामे अने संघमां आदरसत्कारहीन बने. - आ बीजी गाथामा श्रीगौतमस्वामीने संबोधन छे एटले श्रीमहावीरस्वामीए श्रीगौतमस्वामीने करेल प्रश्ननो जवाब आप्यो छे एम जणाय छे. श्रीगौतमस्वामीनो – 'हे भगवंत ! कल्याणभाजन ! ज्ञानवान ! हे पूज्य ! केटलाएक जीवो उन्मार्गगामी गच्छमां रहे तो तेनुं शुं थाय ?' आवी जातनो प्रश्न गाथामां नथी छतां श्रीगौतमस्वामीनो एवो प्रश्न जाणी लेवो; कारण के प्रश्न कर्या वगरनो उत्तर संभवी शकतो नथी. वळी आगळ गाथाओमां पण आवी रीते जाणी लेवुं. एटले के जेवो जेवो * आ गाथामां णं वाक्यालंकारना अर्थमां छे. बहुवचनमां एकवचन अने दीर्घपणादिक प्राकृत शैलीने अंगे छे. आ प्रमाणे ज्यां ज्यां विभक्तिनो लोप, ह्स्वनो दीर्घ, दीर्घनो ह्रस्व तथा चतुर्थीना स्थाने छट्ठी विभक्ति आवे ते प्राकृत भाषाने अंगे वं. मां दोष न समजवो. श्रीगच्छाचार- पयन्ना — १० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर आवे तेवो तेवो प्रश्न समजी लेवो. कोई स्थळे प्रश्न विना पण उत्तर संभवे छे, कारण के केटलेक स्थळे शिष्य पूछे त्यारे गुरु उत्तर आपे अने केटलेक स्थळे पूछ्या विना पण उत्तर आपे. आ पयन्नाना रचनार कोण ? आ गच्छाचार - पयन्नो रच्यो कोणे ? एवो आपणने प्रश्न थाय ते स्वाभाविक छे. तेना खुलासामा आज पयन्नामां आगळ उपर नीचेनी गाथा जणावे छे के महानिसीहकप्पाओ, ववहाराओ तहेव य । साहुसाहुणिअट्ठाए, गच्छायारं समुद्धरिअं ॥ एटले के महानिशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहारादिक सूत्रोमांथी साधु-साध्वीओने माटे आ गच्छाचार पयन्नो उध्धृत करवामां आव्यो छे. आ उपरथी एवं अनुमान थाय छे के कर्ताए श्रीभद्रबाहुस्वामीना रचेला ग्रंथोमांथी उध्धृत करीने आ पयन्नो रच्यो छे. आ उपरथी ए पण साबित थाय छे के श्रीभद्रबाहुस्वामी पछी कोई पूर्वधराचार्ये आ पयन्नानी रचना करी हशे . आम केम बनी शके ? एवी शंका थाय तो जणावे छे के - ज्योतिषकरंडक पयन्नो पण आवी ज रीते पूर्वधर आचार्ये रच्यो छे. श्रीमलयगिरि महाराज ज्योतिषकरंडकनी प्रथम गाथानी टीकामां कहे छे के “ अयमत्र पूर्वाचार्योपदर्शित उपोद्घातः- कोऽपि शिष्योऽल्पश्रुतः कश्चिदाचार्यं पूर्वगतसूत्रार्थधारकं वा लभ्य श्रुतसागरपारगतं शिरसा प्रणम्य विज्ञपयति स्म, यथा- भगवन् ! इच्छामि युष्माकं श्रुतनिधीनामन्ते यथावस्थितं कालविभागं ज्ञातुमिति, तत एवमुक्ते आचार्य आह-शृणु वत्स ! तावदित्यादि०” “कोई अल्प बुद्धिवाळो शिष्य श्रुतना सागर समा पूर्वधर आचार्यने प्रणाम करीने विनयपूर्वके कहे छे के-'भगवन् ! श्रुतना निधान तुल्य आपनी पासे हुं काळनुं स्वरूप जाणवा इच्छं छं.' शिष्ये आ प्रमाणे कह्यं त्यारे पूर्वधराचार्य कहे छे के – 'हे शिष्य ! तुं सांभळ, इत्यादि॰” आ वचनोद्वारा आपणे जाणी शकीए के जेवी रीते ज्योतिषकरंडक पूर्वधर महापुरुषनो रचेल छे तेवी ज रीते आ गच्छाचार पयन्नो पण पूर्वगत सूत्रार्थने जाणनारा पूर्वाचार्यप्रणीत छे. आ उपरांत ज्योतिषकरंडक पयन्नाना बीजा प्राभृतनी टीकामां ज्यां संख्यानं वर्णन आपवामां आव्युं छे त्यां ते संख्या मतांतरवाळी होईने ते संबंधमां खुलासा करतां जणाव्युं छे के – “ इह स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्तौ दुःषमानुभावको दुर्भिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनशत् । ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः सङ्ख्योर्मेलापकोऽभवत् । तद्यथा-एको वलभ्यां, एको मथुरायाम्, तत्र च सूत्रार्थसङ्घटने परस्परवाचनाभेदो जातः । विस्मृतयोर्हि सूत्रार्थयोः समृत्वा सङ्घटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः, तत्रानुयोगद्वारादिकम् इदानीम् वर्तमानं माथुरवाचनानुगतं, ज्योतिष्करण्डकसूत्रकर्ता चाचार्यो वालभ्यः, तत इहैदं संख्यास्थानप्रतिपादनं वालभ्यवाचनानुगतमिति नास्यानुयोगद्वारप्रतिपादितसङ्ख्यास्थानैः सह विसदृशत्वमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति ।" अर्थात् “ श्री स्कंदिलाचार्यना समयमां दुःषमकाळना माहात्म्यथी भयंकर दुष्काळ पड्यो. दुष्काळने अंगे साधुओनुं पठन-पठन तद्दन अल्प श्रीगच्छाचार- पयन्ना — ११ - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थई गयुं अने छेवटे तेओ भण्या हता ते पण लगभग भूली जवा लाग्या. एवामां ज्यारे दुष्काळ दूर थई सुकाळ थयो त्यारे शासननी रक्षा माटे - भुलाई जतां श्रुतनुं संरक्षण करवा माटे वे स्थळोए संघ एकत्र थयो: एक वल्लभीपुरमा (हालनुं काठियावाडमां आवेल वळा गाम) अने बीजो मथुरा नगरीमां. वल्लभीपुरमां अध्यक्षता नागार्जुननी हती ज्यारे मथुरामां प्रमुखपद श्रीमान् स्कंदिलाचार्यनं हतुं. ते ओए बने तेटलुं श्रुतनुं संरक्षण कर्यु. आ बने आचार्यो समकालीन होवा छतां परस्परने मळी शक्या नहिं अने तेने कारणे तेओए करेली वाचनामां मतभेद रही जवा पाम्यो. पाछळथी ज्यारे श्रीमान् देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणे आगमोने पुस्तकारूढ कर्या त्यारे आ मतभेदोनुं स्पष्टीकरण करवा तेमणे स्कंदिलाचार्यनी वाचना प्रमाणे आगमो लखाव्या अने * नागार्जुन वाचनानो विषय टीकामां अवतरित कर्यो. विस्मरण थयेला सूत्रने संग्रहित करवामां आवे त्यारे वाचनाभेद थाय ते स्वाभाविक छे. अत्यारे उपलब्ध थतां आगमग्रंथोमां अनुयोगद्वारादि आगमसूत्रो माथुरीवाचनाना छे ज्यारे ज्योतिषकरंडक वल्लभी वाचनानो ग्रंथ छे, एटले संख्या संबंधी तेना वर्णननी साथे अनुयोगद्वारमां दर्शावेल संख्या - वर्णन मळतुं न आवे ए स्वाभाविक छे, कारण के वाचनाभेद होवाथी तेम बनी जाय ते कल्पी शकाय तेवी हकीकत छे. आ उपरथी ते वस्तु खोटी छे एव शंका या विचिकित्सा कदी पण न करवी. आटला विवेचन उपरथी आपणे समजी शकशुं के जेवी रीते ज्योतिषकरंडक पूर्वधरप्रणीत छे तेम गच्छाचार पयन्नो पण पूर्वधररचित ज छे. आ विषयनी विशेष पुष्टि करतां श्रीमलयगिरिजी महाराज बीजो दाखलो आपे छे. श्री मलयगिरिजी नंदीसूत्रनी टीकामां कहे छे के – “तदेवमभीष्टदेवतास्तवादिसम्पादितसकलसौविहित्यो भगवान् दूषगणिपादोपसेवी पूर्वान्तर्गतसूत्रार्थधारको देववाचको योग्यविनेयपरीक्षां कृत्वा सम्प्रत्यधिकृताध्ययनविषयस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां विदधाति - 'नाणं पञ्चविहं पण्णतं' इत्यादि” अर्थात् “ इष्टदेवनी स्तुति - प्रार्थनाथी सुविहितपणुं प्राप्त करनार श्री दूष गणिना चरणनी सेवा-उपासना करनार तेमज सूत्र तथा अर्थने जाणनार देववाचक नामना आचार्य योग्य शिष्यनी परीक्षा करीने अध्ययन विषयक पांच ज्ञाननी प्ररूपणा करे छे एटले के दूष गणिनो शिष्य हुं देववाचक नंदिसूत्रनी रचना करुं छं. तेमां पांच प्रकारनं ज्ञान वर्णववामां आव्युं छे.... इत्यादि.” आ प्रमाणे नंदीसूत्रना कर्ता तरीके श्री देववाचकनुं नाम मळी आववाथी श्री मलयगिरिजी महाराजे तेनो उल्लेख कर्यो छे. आ उपरथी ए सिद्ध थाय छे के नाम मळे तो कर्तानुं अभिधान जणावे अने न मळे तो न जणावे. जेम ज्योतिषकरंडकना कर्तानुं नाम उपलब्ध थई शकतुं न होवाथी ते जेम पूर्वधररचित छे तेम जणाव्यं तेवी रीते आ गच्छाचार पयन्नो पण पूर्वधररचित ज जाणी लेवो. वळी आ विषय परत्वे शंका करता कोई प्रश्न करे के जो तमे एम कहेता हो के आ गच्छाचार युगप्रधान नागार्जुननी अध्यक्षतामां वल्लभी वाचना थई अने तेने अंगे नागार्जुन विशेष प्रख्याति पाम्या, वल्लभी वाचनाने “नागार्जुनी वाचना" पण कहेवामां आवे छे. “वाचना" ए शब्द पारिभाषिक छे अने तेनो अर्थ " भणाववुं ते " थाय छे.वी.नि.सं. १३०मां श्रीभद्रबाहुस्वामीना समयमां पाटलीपुत्रमां वाचना थई हती. त्यारबाद आ वल्लभी तेमज माथुरी वाचना समकाळे थई हती. नागार्जुन धुरंधर ने प्रभाविक आचार्य हता अने वी.नि.सं. ८९९ मां तेमनो स्वर्गवास थयो हतो. श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १२ * Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयनो पूर्वधररचित छे ते तेमां श्रीगौतमस्वामीना प्रश्न अने भगवंत श्री महावीरस्वामीना उत्तर एम केम घटी शके? आ बाबतनो खुलासो करतां टीकाकार जणावे छे के-आ गच्छाचार पयत्रो सूत्रमाथी उद्धरेल छे अने सूत्रोना वक्ता तीर्थंकर परमात्मा ज होय छे; बीजा नहीं कारण के आ संबंधमां सूत्र प्रचलित ज छे के–“अत्थं भासइ अरहा" अरिहंत परमात्मा ज अर्थनी प्ररुपणा करे, गणधर महाराज तेने सूत्ररुपे गूंथे. आ रीते पण गच्छाचार पयन्नाना कर्ता श्री तीर्थंकर परमात्मा ज कही शकाय. भगवान श्रीमहावीर आपणा आसन्नोपकारी अने चालु चोवीशीना चरम जिनपति छे अने श्रीगौतमस्वामी तेमना मुख्य गणधर छे एटले श्रीगौतमस्वामीना प्रश्न अने भगवंत महावीरस्वामीना प्रत्युत्तर-एवी शैली गच्छाचार पयन्नाना कर्ता पूर्वधर महापुरुषे स्वीकारी तेमांलेश मात्र अनुचित नथी; परंतु खरी रीते तो ते सूत्रमाथी उद्धरेल छे ते वस्तुनी साबितीरूप छे. वळी कर्ता पुरुष जणावे छे के आ गच्छाचारनी रचनामारी मति-कल्पनानुसार नथी करी पण भगवंत श्रीमहावीरे श्रीगौतमस्वामीने जणावेल तेने अनुलक्षीने ज ग्रंथ-रचना करी छे. श्री पनवणा सूत्रना कर्ता आर्य श्यामाचार्ये पण श्रीगौतमस्वामीना प्रश्न अने वीरभगवंतना उत्तर-एवी पद्धति प्रमाणे ज ते सूत्रनी . रचना करी छे. आ ज प्रमाणे श्री गच्छाचार पयन्नाने अंगे पण समजी लेवू. . प्रकीर्णक संबंधी विशेष वृत्तांत__आटला स्पष्ट ने बुद्धिगम्य खुलासा पछी पण प्रतिवादी विशेष समाधान माटे चार प्रश्न पूछतां जणावे छे के (१) प्रकीर्णक शब्दनो अर्थ शं? (२) प्रकीर्णको क्या छ ? (३) एकेक तीर्थंकरना समयमां केटलां प्रकीर्णको थया अने (४) प्रकीर्णको रच्या कोणे? पहेला प्रश्ननो जवाब ए छे के - प्रकीर्णक शब्दनो व्युत्पत्ति अने संज्ञार्थ एम बे प्रकारे अर्थ थाय छे. जे संबंध चालतो होय तेनुं संपूर्ण वर्णन करे तेनुं नाम व्युत्पत्ति. अरिहंत परमात्माए जे श्रुत सिद्धांतनो उपदेश कर्यो तेने स्वीकारीने जे साधुओ रचना करे ते सर्व प्रकीर्णक कहेवाय. एटले के श्रुतमाथी उद्धरीने रचना करे ते प्रकीर्णक अथवा पयन्नो समजवो अथवा श्रुतनो अंगीकार करीने पोतानी विद्वतापूर्वक तेने धर्मदेशनादिकमां ग्रंथ पद्धति प्रमाणे उपदेशे तेने पण प्रकीर्णक कहेवामां आवे छे. बीजा प्रश्ननो उत्तर ए छे के-श्री ऋषभदेव परमात्माना समये ८४,००० श्री अजितनाथादि बावीश तीर्थंकरोना समये संख्याता हजार अने श्री वीरभगवंतना समयमां चौद हजार प्रकीर्णको थया. आ संबंधमां केटलाक आचार्यों एम पण कहे छे के-एकेक तीर्थंकरना समयमां असंख्याता प्रकीर्णको रचाय छे. चोथा प्रश्ननो जवाब ए छे के श्री ऋषभदेवथी प्रारंभीने श्री वीर परमात्मा पर्यंतना तीर्थमा जे जे मुनिवरो सूत्ररचना करवा शक्तिशाळी थया तेओ बधाए पयन्ना रच्या. वळी प्रत्येकबुद्ध थया तेमणे पण प्रकीर्णको रच्या. आ हिसाबे पयन्ना असंख्याता कही शकाय, कारण के केटलाक तीर्थंकरना समयमा असंख्याता साधुओ थया अने तेमनुं शासन पण असंख्याता समय सुधी चाल्यु. आवी ज मतलबनो उल्लेख नंर्दीसूत्रना टीकाकार श्री मलयगिरिजी महाराज जणावतां कहे छे के–“अहवा तं समासओ दुविहं पन्नतम्...इत्यादि” अर्थात् श्रुतज्ञान बे प्रकारनुं छे. (१) अंगमा रहेलुं जेमके श्रीगच्छाचार–पयन्ना– १३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगादि बार अंगो, तेने अंगप्रतिष्ठित कहीए अने अंगबाह्य एटले बार अंगोथी जुईं. ते अंगबाह्य बे प्रकारनुं छे: (१) आवश्यक अने (२) आवश्यकथी भिन्न आवश्यकना छ प्रकार छे: (१) सामायिक, (२) चउविसथ्यो, (३) वंदनक,(४) प्रतिक्रमण, (५) काउसग्ग अने (६) पच्चक्खाण. आवश्यकथी व्यतिरिक्त (भिन्न) पण बे प्रकारनुं छे : (१) कालिक अने (२) उत्कालिक प्रथम पोरसी अने छेल्ली पोरसी समये ज वंचाय अर्थात् दिवस ने रात्रिना पहेला अने चोथा पहोरमां जे वंचाय-भणाय ते श्रुतने कालिक अंगबाह्यआवश्यकव्यतिरिक्त जाणवू. काळ (योग्य समय) वर्जीने गमे त्यारे भणाय-वंचाय ते श्रुतने उत्कालिक जाणवू. आ उत्कालिक अनेक प्रकारनुं छे. दा. त. १ दशवैकालिक, २ कप्पियाकप्पिय (कल्प्याकल्प्य), ३ चुल्ल (नानु) कल्पश्रुत, ४ महाकल्पश्रुत, ५ उववाई,६ रायपसेणी,७ जीवाभिगम, ८ पन्नवणा, ९ महापन्नवणा, १० पमायप्पमायं, ११ नंदी,१२ अनुयोगद्वार, १३ देवेंद्रस्तव, १५ तंदुलवैचारिक, १५ चंदावेध्यक, १६ सूर्यपन्नती, १७ पोरिसिमंडल, १८ मंडलप्रवेश, १९ विज्जाचरणविनिश्चय, २० गणिविज्जा, २१ ध्यानविभक्ति, २२ मरणविभत्ती, २३ आत्मविशुद्धि, २४ वीतरागश्रुत, २५ संलेखणाश्रुत, २६ विहारकल्प, २७ चरणविधि, २८ आउरपच्चख्खाण अने २९ *महापच्चख्खाण विगेरे. १. दशवैकालिक - तेमां पाछले पहोरे अध्ययन करवा योग्य दश अध्ययनो छे. आ सूत्र चोथा पट्टधर श्रीशय्यंभवसूरिए पोताना मनक नामना पुत्र अने पाछळथी दीक्षित थयेल ते बाळमुनिना अध्ययनार्थे सूत्रोना साररूपे रचेल छे. आ सूत्रमा साधुजीवनना नियमो दर्शाववामां आव्या छे. मूळ श्लोक ७००, अध्ययन १०. आ सूत्र ऊपर त्रण टीकाओ छे. श्रीतिलकाचार्यनी ७००० श्लोकप्रमाण, श्रीहरिभद्रसूरिनी ६८१० श्लोकप्रमाण तेमज श्रीमलयगिरिनी ७७०० श्लोकप्रमाण. लघुटीका पण त्रण छे. एक ३७०० श्लोकप्रमाणनी, बीजी सोमसुंदरसूरिकृत ४२०० श्लोकनी अने त्रीजी समयसुंदरगणिकृत २६०० श्लोकनी. चूर्णि ७५०० श्लोकनी अने नियुक्ति ४५० गाथानी छे. २. कल्पाकल्प-कल्प एटले आचार. तेमां साधुना तथा स्थविरादिकना आचारनुं वर्णन छे. ३-४. चुल्ल (नानुं) कल्पश्रुत अने महा (मोटुं) कल्पश्रुत - तेने विषे स्थविरादिकना आचारनुं वर्णन छे. कल्पश्रुत बे प्रकारनां छे.-१. चुल्लकल्पश्रुत अने २. महाकल्पश्रुत. पहेलामां श्रीमहावीरस्वामीना ज कल्पाचारनुं वर्णन छे ज्यारे बीजामां चोवीश तीर्थंकरोना आचारनुं वर्णन छे. ५. उववाई (औपपातिक) -देवगति, नरकगति अने सिद्धिगतिमां उपजवाना अधिकारनुं वर्णन छे. वानीय नामना गामना ईशान खूणामां द्विपलास नामर्नु चैत्य हतुं. त्यां ते गामनो राजा जितशत्रु अने श्रावक आनंद प्रभु श्रीमहावीरनी देशना सांभळवा आव्या ते प्रसंगने लगतुं वर्णन छे. वानीयने केटलाक वैशाली नगरी कहे छे अने जितशत्रु श्रेणिकनो पुत्र कोणिक होवानुं अनुमान ___ * पाक्षिक सूत्रमा २९ नामने बदले २८ जणावेल छे. तेमां सोळमुं सूर्यप्रज्ञप्ति जणावेल नथी; परंतु ते ज नाम कालिक श्रुतमां जणावेलछे. श्रीगच्छाचार–पयन्ना-१४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे छे. मूळ श्लोकसंख्या १२०० छे अने तेना पर श्रीअभयदेवसूरिजीनी ३१२५ श्लोकनी टीका ६. रायपसेणीय (राजप्रश्नीय) - जेमां प्रथम नास्तिक अने बाद गुरु संसर्गथी आस्तिक बनेल प्रदेशी राजाए करेल प्रश्नो अने केशीकुमार गणधरे आपेल उत्तरोनुं वर्णन छे. प्रदेशी राजा मृत्यु पामीने सूर्याभ नामनो देव थयो अने प्रभु श्रीमहावीरने वंदन करवा आव्यो ते हकीकतनुं वर्णन छे. मूळ श्लोक २०७८ छे. श्रीमलयगिरिजीकृत टीका ३७०० श्लोकप्रमाण छे. ७. जीवाभिगम-जीव, अजीवनुं विस्तारपूर्वक चमत्कारिक वर्णन छे. मूळ श्लोक ४७०० छे. श्रीमलयगिरिकृत मोटी टीका १४००० श्लोकप्रमाण छे ज्यारे लघुटीका ११००० श्लोकनी छे. चूर्णी १५०० श्लोकनी छे. ८. पन्नवणा(प्रज्ञापना) -जीव अने अजीव कोने कहेवाय? तेने लगतुं वर्णन छे. तेना ३६ पदमां छत्रीश वस्तुओनुं वर्णन विस्तृत रीते करेल छे. मूळ श्लोक ७७८७, श्रीमलयगिरिकृत टीका १६००० श्लोकप्रमाण छे ज्यारे श्रीहरिभद्रसूरिकृत लघुटीका ३७२८ श्लोकनी छे. ९. महापन्नवणा-जीव तेमज अजीवने ओळखवानो जेमा विस्तृत वृत्तांत छे. १०.पमायप्पमायं-आमांप्रमाद अने अप्रमादने लगतुं विवेचन करवामां आव्युं छे.जे प्रमाद सेवे तेने अशुभ विपाक-फल अने न सेवे तेने शुभ विपाक प्राप्त थाय. प्रमाद ए मानव जातनो मोटामां मोटो शत्रु होबाथी तेना संबंधे विशेष विवेचन करवामां आवे छे. चोराशी लाख जीवयोनिमां भमतो जीव कोई पुन्ययोगे दश दृष्टांते दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करे छे अने एवो चिंतामणि रत्न तुल्य नरभवपामीने पण केटलाक प्राणीओ प्रमादना वशवर्तीपणाथी तेने वृथा गुमावी बेसे छे. प्रमादना पांच कारणो जणावतां का छे के मज्जं विसयकसाया, निद्दा विगहा य पंचहा भणिया । एए पंच पमाया, जीवं पाडेंति संसारे ॥ अर्थात् मद्य, विषय, कषाय, निद्रा अने विकथा- आ पांच प्रकारना प्रमादो प्राणीने भ्रमण करावे छे—संसारमा जन्ममरणादिकनां दुःखमां नाखे छे. मद्य - मदिरा, भांग, गांजो, अफीण प्रमुख नशाना जे पदार्थो होय तेने मद्य जाणवू, अथवा आठ प्रकारना* मदना प्रसंगथी पण प्राणी धर्मकर्त्तव्यथी पतित बने छे. रात्रिदिवस तेना परवशपणाथी आरंभ-समारंभनी प्रवृत्तिमां रच्योपच्यो रहे छे अने परिणामे भवोदधिमां भटक्या करे छे. विषय - शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्श - ए पांच प्रकारनां विषयो छे. शब्द - स्त्रीओना मधुरा गीत तथा वार्तालाप सांभळी तेना प्रत्ये उद्भवती आसक्तिने अंगे *जातिमद, रूपमद, कुळमद, ज्ञानमद, बळमद, तपमद, ऋद्धि (ऐश्वर्य) मद अने लाभमद-आ आठ प्रकारनां मदो छे, जे प्राणीओने दर्गतिरूपी ऊंडी खाईमां धकेले छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेना परिचयनी, तेनी साथे भोगविलास माणवानी अभिलाषा उत्पन्न थाय छे अने तेना परिणामे मनुष्य जन्म हारी जवाय छे. संगीत अने विविध वाजित्रना ध्वनिथी पण आसक्ति वृद्धिंगत थाय छे. वीणावाद्यमां आसक्त थयेल मृग छेवटे पारधीनी जाळमां फसाई मृत्युनुं दुःख वहोरी ले छे. रूप-रूपवंती स्त्रीओना दर्शनथी अथवा मनोहर अने रमणीय पदार्थोंना अवलोकनथी तनमां विकार उपजे छे अने तेना परिणामे भोगविलासनी आशा उद्भवे छे. तेनी प्राप्ति माटे अहोनिश झंखना रहेवा साथे आरंभ-समारंभ करतो प्राणी प्रांते संसार - समुद्रमां रझळे छे. दीपकना रूप (प्रकाश) मां मुग्ध बनेल पतंगीयुं तेमां झंपलावीने पोताना प्राणने कुरबान करी नाखे छे. रस - मिठाई अथवा मिष्ट रसवाळां पदार्थोंने खावानी लोलुपताथी, जिह्वास्वादथी कोई प प्रकारना भक्ष्याभक्ष्यनुं भान रहेतुं नथी तेमज तेवी वस्तुनी प्राप्ति माटे असत्यादि पापस्थानकों पण सेवाय छे अने तेमां अहोनिश झंखना रहेती होवाथी धर्मकार्यमां न्यूनता आवी जाय छे. मांसनी पेशीने विषे आसक्त थतुं मत्स्य तेनी साथे लगाडेला लोढाना सळीयानी तीक्ष्ण अणीथी छेवटे मृत्युने आंधीन बने छे. गंध - सुगंधने विषे आसक्त थईने प्राणी तेवा प्रकारनी सुवास प्राप्त करवामां अनेक समारंभो करे छे अने तेमां ज लयलीन रहेवाथी धर्मकार्य पण तेने सूझतुं नथी. सहेज पण दुर्वासना-दुर्गंध तेने दुःखदायी थई पडे छे. तेनाथी परिषह सहन थई शकता नथी तेमज जीव चंचळ बनी जाय छे. भ्रमर गंध प्रत्येनी तीव्र आसक्तिने कारणे कमळमां बीडाई जाय छे अने छेवटे विनाश पामे छे. स्पर्श – स्त्री आदिकना सुकोमळ स्पर्शने कारणे मन व्यग्र बनतां कामोत्पत्ति थाय छे अने तेनी शांतिने अर्थे प्राणी अनेक प्रकारनां दुर्ध्यान करे छे. हिंसादिकमां प्रवृत्त थतां अचकातो नथी तेमज मां रक्त बनीने छेवटे प्राणोनी आहुति आपी दे छे. हस्ती एटलो बधो स्पर्शप्रेमी छे के कागळनी बनावेल कृत्रिम हाथणीने जोईने पण तेनी उत्कट काम इच्छा जोर करे छे, अने तेने झंखतो ते तेनी पाछळ अंध बनीने दोडे छे तेवामां तेने फसाववा माटे खोदेला खाडामां पडी बंधनमां जकडाय छे. आ प्रमाणे एक एक इंद्रियना वशवर्तीपणाथी जीवन निरर्थक बने छे तो पांचे इन्द्रियोनी आसक्तिवाळा मनुष्ये तो स्वयमेव पोतानी गतिनो तेमज स्थितिनो संपूर्ण विचार करी लेवो. खरेखर एक कविए यथार्थ ज कह्युं छे के - “कुरङ्गमातङ्गपतङ्गभृङ्गा, मीना हताः पञ्चभिरेव पञ्च । एकः प्रमादी स कथं न हन्यात्, यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च ॥ २ ॥ * अर्थात् मृग, हस्ती, पतंगीयुं, भ्रमर अने मत्स्य एक- एक इंद्रियने विषे अतिशय गृद्धपणुं राखवाथी यमराजने आधीन बने छे तो पांचे इंद्रियोने आधीन बनीने जे प्रमादी जीवन व्यतीत करे छे ते केम जीवन-साफल्यता प्राप्त करी शके ? कषाय - कषायो चार छे-क्रोध, मान, माया अने लोभ. श्रीगच्छाचार- पयन्ना—- १६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध-बीजा प्रत्ये तीव्र-उग्र परिणामना कारणे मुखादि अवयवो तपाववा तेने क्रोध कहेवामां आवे छे, तेथी कोईना परत्वे गुस्सो थाय, रोष आवे अने आर्तध्यान थाय तेमज तेने अंगे हिंसादि कार्यमां पण प्रवर्ते. मान - प्राप्त अथवा अप्राप्त वस्तुनो अहंकार ते मान. तेनाथी पोताना ज्ञातपणानं, वाणिज्य-विचक्षणता आदिनुं अभिमान करे, धर्मकरणी न करे अने पोतानी प्रतिष्ठा साचवी राखवा अनेक प्रकारनां आरंभसमारंभ करवापूर्वक आर्तध्यान करे. माया-गुप्तपणे स्वार्थवृत्ति सिद्ध करवानी वांछा ते माया. तेथी कपट, छतरपीडी करी बीजाने वंचे, तेने मूझवे, तेनो अयोग्य लाभ ले अने ए प्रमाणे वर्तन करी रत्नचिंतामणि सरखो मानव भव कोडीनी प्राप्ति माटे एळे गुमावे. लोभ- धनादि संपत्ति एकठी करी संग्रह करी राखवानी मनोवृत्ति ते लोभ. तेथी अहोनिश परिग्रह वधारवामां, विशेष ने विशेष संपत्ति मेळववामां लयलीन रही धर्मकरणी भूली जाय. निद्रा- रातदिवस निद्रा लेवामां व्यतीत करे, अथवा समय मळे तो बीजानी निंदा करवामां प्रवृत्त थाय पण धर्मकृत्य न करे. विकथा-जेनाथी आत्माने कंई पण लाभ न थाय तेवी कथा-वार्ता ते विकथा. विकथा करनार प्राणी नथी जाणतो के पुन्ययोगे हुं मनुष्यपणुं पाम्यो छु अने फोगट विकथा करीश तो धर्मकरणी विना मानवजन्म निष्फळ जशे. यथारुचि खाई-पीने फोगट गामगपाटा मारवा ते ज तेने प्रियकर थई पड़े छे. विकथा चार प्रकारनी छे-राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा अने भक्तकथा. अत्यारे प्रवर्तती स्थिति तपासशुं तो मानवीनो मोटो भाग विकथा करवामां अथवा तो तेने पुष्टि आपतां वर्तमानपत्रो वांचवामां व्यतीत थाय छे, जे खरखर शोचनीय छे. मानवे पोतानी पळे-पळनो सदुपयोग करतां शीखवू जोइए एटला ज खातर भगवान श्रीमहावीरे श्रीगौतमस्वामीने का हतुं के – 'समयं गोयम ! मा पमायए' अर्थात् हे गौतम ! तुं एक समय मात्र पण प्रमाद करीश नहिं. राजकथा- अमुक देशनो राजा महाशूरवीर छे, तेणे सिंहने एकले हाथे मारी नांख्यो, तेनी घोडेस्वारी जोई होय तो भलभलाने आश्चर्य उत्पन्न थाय. तेनी पासे हाथी, घोडा तथा पायदळनी संख्या विपुल छे. तेना आभूषणो लाखोनी किंमतना छे. तेनो राज्यभंडार अखूट खजानाथी भरपूर छे. ते स्वभावनो अत्यंत क्रूर छे इत्यादि कथा ते राजकथा. - देशकथा – अमुक देशमा घणी ऋद्धिसंपत्ति छे. लोको घणा ज सुखी अने विलासी छे. ते देशमां भोलविलासनां साधनो, बाग-बगीचा विगेरे घणां ज छे. आ उपरांत पृथ्वी पण रसाळ होवाथी विधविध प्रकारनां धान्यो अने फळो प्राप्त थाय छे. ते देशमां गामडाओ सुशोभित, पहेरवेश सुंदर अने खानपान मिष्ट अने रोचक छे इत्यादि वातो करवामां वखत गुमावे अने धर्मकरणी न करे ते देशकथा. स्त्रीकथा - स्त्रीओ संबंधी विधविध वार्तालाप करी तेना गुणदोष, पृथक्करण कर्या करे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोगलजातिनी सुंदरीओ तो खूबसूरत परी जेवी होय छे, दक्षिणी लोकोनी स्त्रीओ सुंदर चहेरावाळी अने नित्य स्नान करनारी होय छे, नागर लोकोनी स्त्रीओ अत्यंत सुघड होय छे. एवी विधविध देशनी सुंदरीओना वर्णन करे. आ उपरांत स्त्रीओनां शृंगार, अवयवो विगेरेने लगती वात करे स्त्रीकथा. भक्तकथा – (भोजनकथा) कोईना जमणवारने लगती वात करे के अमुकना जमणवारमां मिष्टान्न सारुं थयु हतुं, शाक तम-तमाटवाळं हतुं, पेंडा घणा ज सारा हता विगेरे विगेरे वात करे ते भक्तकथा. ऊपरनी चारे कथाओ परत्वे विपरीत बोले एटले के निंदा करे ते पण विकथा ज कहेवाय; जेके राजा तो पापी छे, निर्दय छे, विषयी छे; अमुक देश तो क्लिष्ट छे, लोको दुराचारी छे; अमुक स्त्री तो आचार वगरनी ने विषयलंपटी छे, कंकासी तेमज क्रोधी छे; अमुक भोजन तो अस्वादिष्ट छे, मीठाई तो गंधाई गयेली छे, शाक सडेलुं छे. इत्यादि इत्यादि वार्तालापो करवामां रच्योपच्यो रहे ते पण विकथानो ज प्रकार छे. . आवी रीते प्रमादनां पांचे प्रकारोनुं जे सेवन करे छे ते कर्मरूपी अग्निमां हरहमेश बळ्या करे छे, तेने रोग-संतापादि परिताप उपजे छे, मरणादिक महाभय रहे छे अने संसाररूपी कारागारना बंधनमां जकडावुं पडे छे. आवी घोर विटंबनामांथी मुक्त करावनार जो कोई होय तो श्रीकेवळी भगवंते उपदेशेल धर्म ज छे, तेथी प्रखर शत्रु सदृश प्रमादनो परित्याग करी धर्मसेवन करवुं जोईए.' प्रमाद सेवे छे तेने नरकादि महादुःखो, महायातनाओ सहन करवी पडे छे, महाभयंकर ताड, पिशाचादिकनुं रूप जोवुं पडे छे, शब, हाडकां प्रमुखनी दुर्गंध सहन करवी पडे छे, अतिकडवो कष्टदायी आहार करवो पडे छे, फरसी तथा तलवार जेवा तीक्ष्ण शस्त्र परथी चालवुं पड़े छे, अत्यंत शीत तथा अत्यंत उष्णता सहन करवी पडे छे, अत्यंत बोजो- असह्य भार उपाडवो पडे छे-आवा आवा कष्टो प्रमादना परवशपणथी सहन करवा पडे छे. प्रमादनुं आवुं भयप्रद स्वरूप समजीने जे कोई महाव्रतनुं पालन करे, इंद्रियोने दमे, मनने काबूमां राखे, श्रावक धर्म पाळे, शुद्ध समकितधारी बने ते मनुष्य मरण पामीने देवलोकमां जाय अने त्यांथी च्यवीने पण सुख-संपत्ति भोगवी, धर्माराधन करी छेवट अक्षयसुखनो भोक्ता थाय. आवी रीते प्रमाद सेववाथी अशुभ फळ अने प्रमादनो परित्याग करवाथी देवलोकादिकनी प्राप्तिरूप शुभ विपाक - फल थाय तेने लगतुं जेमां वर्णन छे ते दशमुं पमायाप्पमायं जाणवुं. ११. नंदी – तेमां महामांगलिक मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यव अने केवळज्ञानए पांच प्रकारना ज्ञाननुं स्वरूप छे. आ सूत्र देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणकृत छे. मूळ श्लोक ७००. श्रीमलयगिरिकृत टीका ७७३५ श्लोकप्रमाणनी अने श्रीहरिभद्रसूरिकृत टीका २३१२ श्लोकनी छे. चूर्णि २००० गाथानी छे, टिप्पण ३००० श्लोकनुं छे. १२. अनुयोगद्वार – चार प्रकारनां व्याख्यान करवानी पद्धति – रीतिनुं तेमां वर्णन छे. वळी श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १८ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय-निक्षेपानुवर्णन अने सिद्धि दर्शाववामां आवेल छे. श्लोक १८०० छे. मलधारी हेमचंद्रसूरिकृत वृत्ति ६००० अने श्रीहरिभद्रसूरिकृत लघुवृत्ति ३५०० श्लोकनी छे. श्रीजिनदासगणि महत्तरनी चूर्णि ३००० श्लोकनी छे. १३. देविंदत्यओ (देवेंद्रस्तव) - देवोना स्वामी इंद्रे जे स्तवना-स्तुति करी ते. तेमां इंद्रोना स्वरूप- कथन छे. गाथा २००. १४. तंदलवेयालिय-जीव गर्भमां आवे त्यारे केवडो होय अने क्रमे क्रमे केटलो वृद्धि पामे तेने लगतुं तेमज जन्मथी मांडीने मरण सुधी-वृत्तांत छे. गाथा ४००. १५. चंद्रावेध्यक - चंद्रमानी गतिनुं प्रमाण. जेम राधावेधमां चतुराईथी पुतळीनी आंख बींधवामां आवे छे तेम चंद्रनी गति अनुसारे अणसण साधवानी क्रिया- वर्णन. १६.सूर्यप्रज्ञप्ति-सूर्यनी गति तथा मांडलादिकनुं वर्णन. मूळ श्लोक २२००,मलयगिरिकृत टीका ९००० श्लोकप्रमाण अने चूर्णि १००० श्लोकनी छे. १७. पोरिसीमंडल - शंकु तेमज पुरुषना शरीरना प्रमाण जेटली छाया थाय त्यारे पोरिसी थाय अर्थात् जे जे वस्तुओ छे ते ते वस्तुओना पोताना शरीरप्रमाण छाया थाय त्यारे पोरिसी कहेवाय. आ प्रमाण उत्तरायणना अंतमां अने दक्षिणायननी आदिमां समजवू. आ पोरिसीप्रमाण एक दिवस होय छे, पछी तो आठ आंगळना एकसठ भाग करीए अने तेना एक भाग जेटलो दक्षिणायने पोतानी छाया ऊपर वधे अने उत्तरायणमां तेटलो घटे तेम समजवू. आवी रीते मांडले-मांडले पोरिसीनुं प्रमाण जे ग्रंथमा आप्युं छे ते पोरिसीमंडल. १८. मंडलप्रवेश- दक्षिण तथा उत्तर दिशाना मंडलोने विषे चालता सूर्य तथा चंद्रनो एक एक मंडल मूकीने बीजा मंडलमा प्रवेश करवो तेने लगतुं वर्णन ते मंडलप्रवेश. १९. विज्जाचरणविनिश्चय - विद्या एटले ज्ञान, समकित युक्त ते चारित्र. तेनुं जे फळ - विनिश्चय तेने लगतुं वर्णन अर्थात् विद्याचारणादिकनो वृत्तांत. २०. गणिविद्या - बाल, वृद्ध साधुओनो समुदाय ते गण कहेवाय, ते गणनो नायक-अधिष्ठाता ते गणि अथवा आचार्य कहेवाय. तेनी विद्या ते गणिविद्या. आ विद्याद्वारा ज्योतिश्चक्रादीनुं ज्ञान थाय, जेथी अमुक शुभ वार, नक्षत्र, तिथि, मुहुर्त जोईने दीक्षा आदि धार्मिक क्रिया करावी शकाय. २१. ध्यानविभक्ति- आर्त्त, रौद्र, धर्म अने शुक्लध्यान-आ चार ध्यानने लगतुं तेमा वर्णन २२. मरणविभक्ति-मरण एटले प्राणत्याग करवो, ते बे प्रकारे थई शके- एक सारी रीते, बीजो दुष्ट अध्यवसायथी. आने लगतुं वर्णन करवामां आव्युं छे. २३. आयविसोही (आत्मविशुद्धि) -आत्माने कोई पण धार्मिक क्रिया करतां अगर तो बीजी रीते भंग पड्यो होय तेने माटे आलोयण-प्रायश्चित विगेरे लई आत्माने शुद्ध करवो तेने लगतो अधिकार आ ग्रंथमां छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. वीतरागश्रुत - रागीपणुं त्यजी दईने वीतराग-रागरहित केम थवाय ? तेने लगतुं आमां वर्णन छे. २५. संलेखना श्रुत - द्रव्य तथा भावथी संलेखना करवानो अधिकार द्रव्य संलेखना एटले चार वर्ष सुधी विविध-जुदी जुदी जातनो तप करे अर्थात् छट्ठ, अठ्ठम, चार उपवासादिक तप करे, वर्ष सुधी नवी करे, पछी एकांतरे आयंबिल करे, पछी छ महिना सुधी उपवास करे, पछी प्रमाण सहित आयंबिल करे, जो मुखभंग थाय एटले तपश्चर्यामां भांगो पडे तो वळी छ मास सुधी करे. त्यारपछी कोटिसहित तप करे एटले उपवास तथा एकासण एकएकने पारणे करे. भावसंलेखना एटले क्रोधादिक कषायो घटाडे-त्यागे. २६. विहारकल्प – स्थविरकल्पी प्रमुखना विहारना आचारनुं वर्णन. २७. चरणविधि – जेमां चारित्र पाळवानी विधिनुं वर्णन छे. २८. आउरपच्चक्खाण - रोगोत्पत्ति थाय - व्याधि थाय त्यारे पच्चख्खाण कराववानी विधिनुं वर्णन छे. ध्यान अने जाणवा योग्य ६३ वस्तुओनुं वर्णन आमां करवामां आव्युं छे. गाथा १३४. २९. महापच्चक्खाण स्थविरकल्पी तथा जिनकल्पी अंतकाले बार वर्षनी जे संलेखना करे तेने लगती विधिनुं वर्णन. गाथा ८४. कालिकश्रुत पण अनेक प्रकारनुं छे. जेमके - १ उत्तराध्ययन, २ दशाश्रुतस्कंध, ३ बृहत्कल्प, ४ व्यवहारसूत्र, ५ निशीथ, ६ महानिशीथ, ७ ऋषिभाषित, ८ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, ९ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, १० चंद्रप्रज्ञप्ति, ११ खुड्डिया ( क्षुद्रिका [ नानी ] ) -विमाणविभक्ति, १२ महल्लिया ( महती [ पोटी ]) विमाणप्रतिभक्ति, १३ अंगचूलिका, १४ वर्गचूलिका, १५ विवाहचूलिका, १६ अरुणोपपात, १७ वरुणोपपात, १८ गरूडोपपात, १९ धरणोपपात, २० वैश्रमणोपपात, २१ वेलंधरोपपात, २२ देवेंद्र पपात, २३ उत्थानश्रुत, २४ समुत्थानश्रुत, २५ नागपरिज्ञावलिका, २६ निर्यावलिका, २७ कप्पिआ (कल्पिका), २८ कप्पवडिंसिया (कल्पावतंसक), २९ पुप्फिया (पुष्पिता), ३० पुप्फचूलिया अने ३१ वह्निदशांग * इत्यादि. w - १. उत्तराध्ययन - - जे सूत्रमां बधा अध्ययनो न्यून नथी, श्रेष्ठ छे ते. तेना अध्ययन ३६ छे. साधुओने संयममार्गमां स्थिर राखवाने उपदेशरूपे अनेक दृष्टान्तो सहित सुंदर संवादो आप्या छे. मूळ श्लोक २०००, वादीवेताल श्रीशान्तिसूरिकृत मोटी टीका १८००० श्लोकप्रमाण छे ज्यारे विक्रम संवत् ११२९ मां श्रीनेमिचंद्रसूरिए लघुटीका १३६०० श्लोकनी बनावी छे. श्रीभद्रबाहुस्वामीकृत निर्युक्ति ६०७ गाथानी छे. चूर्णि ६००० श्लोकनी छे. २. दशाश्रुतस्कंध आ सूत्रमा दश अध्ययन छे. आ सूत्रना आठमा अध्ययनमांथी उद्धृत करी श्रीकल्पसूत्रनी रचना करवामां आवी छे. मूळ श्लोक १८३५, निर्युक्ति ११८ अने चूर्णी २२४ श्लोकप्रमाण छे. * पाक्षिक सूत्रमां आशीविषभावना, दृष्टिविषभावना, चारणभावना, महास्वप्नभावना अने तैजसनिसर्ग-आटला नामो विशेष जणाव्या छे. २७ थी ३१ सुधीना पांच नामो निर्यावलिका सूत्रना विभागरूप ज छे. श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २० Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.बृहत्कल्प-जेमां स्थविरकल्प अने जिनकल्प पाळवानो आचार छे. उद्देश ३४ छे. मूळ श्लोक ४७३. वि. सं. १३३२मां बृहच्छाखीय श्रीक्षेमकीर्तिसूरिकृत टीका ४२००० श्लोकप्रमाण छे. बृहद्भाष्य १२००० अने लघुभाष्य ८००० श्लोक, छे. चूर्णि १४५२५ श्लोकप्रमाण छे. ४. व्यवहारसूत्र-आलोयण-प्रायश्चित संबंधी अधिकार छे. उद्देशा १०, मूळ श्लोक ६००, श्रीमलयगिरिजीकृत टीका ३३६२५ श्लोकप्रमाण छे. भाष्य ६००० अने चूर्णी १०३६१ श्लोकप्रमाण छे. ५. निशीथ-जे मुनिओ साध्वाचारथी च्युत थाय तेनी शिक्षा संबंधी आ सूत्रमा अधिकार छे. उद्देशक २०, मूळ श्लोक ८१५, मोटुं भाष्य १२००० श्लोक-अने लघुभाष्य ७४०० श्लोकछे. चूर्णी २८००० श्लोकप्रमाण छे. ६. महानिशीथ - जिनमंदिर तथा जिनप्रतिमा, अछाई महोत्सव, अनुकंपा विगेरेने लगता शिक्षा- उपदेश संबंधी मोटा सूत्रोनुं सविस्तर वर्णन छे. अध्ययन १३, मूळ श्लोक ४५००. मतांतरे तेनी त्रण प्रकारनी वाचना छे. लघुवाचना४२००, मध्यमवाचना ४५०० अने बृहद्वाचना ११८०० श्लोकप्रमाण छे. ७. ऋषिभाषित- श्रीनेमिनाथना समयना २०, श्रीपार्श्वनाथना समयना १५ अने श्रीमहावीर परमात्माना समयना १०-कुल ४५ ऋषिओनुं वर्णन छे. ८. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - जंबूद्वीप संबंधी भौगोलिक वर्णन छे. मूळ श्लोक ४१४६, श्रीमलयगिरिजीकृत टीका १२००० श्लोकनी अने चूर्णी १८६० श्लोकनी छे. ९. चंद्रप्रज्ञप्ति-चंद्रनो चार (गति) अने मांडला संबंधी अधिकार छे. मूळ श्लोक २२००. श्रीमलयगिरिजीकृत टीका ९४११ श्लोकनी छे ज्यारे लघुटीका १००० श्लोकप्रमाण छे. १०.द्वीपसागरप्रज्ञप्ति-तेमां अनेक द्वीप अने समुद्र संबंधी वर्णन छे. आ उपरांत मानुष्योत्तर पर्वत, नंदीश्वरद्वीप, रुचकद्वीप इत्यादि पर रहेल जिनमंदिरोनुं वर्णन आपवामां आव्युं छे. ११. क्षुद्रिकाविमानप्रविभक्ति -जेमां समश्रेणिए रहेला विमान अने छूटा विमाननुं अल्पसूत्रार्थद्वारा वर्णन करेल छे. १२. महतीविमानप्रविभक्ति- जेमा उपर्युक्त विमानोनुं विस्तृत सूत्रार्थथी विवेचन करवामां आव्युं छे. १३. अंगचूलिका- आचारांगादि जे अंगो छे तेनी चूलिका ते अंगचूलिका, आ चूलिकामां अंगमां जे का छे तेनो तेमज जे कहेल नथी ते सर्वनो संग्रह छे. १४. वर्गचूलिका - वर्ग एटले अध्ययन. आमां अष्टवर्गादिक अध्ययननो संग्रह करवामां आव्यो छे. १५. विवाहचूलिका-श्रीभगवती सूत्रनी (विवाहप्रज्ञप्तिनी) चूलिका छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. अरुणोपपात, १७. वरुणोपपात, १८. गरुडोपपात, १९. धरणोपपात, २०. वैश्रमणोपपात, २१. वेलंधरोपपात अने २२. देवेंद्रोपपात-जेना अध्ययनथी ते ते नामना देव प्रत्यक्ष थाय अने स्मरण करनारनी स्तवना-स्तुति करी तेमनी कार्यसिद्धि करे. अरुण, वरुण विगेरे देवोनो जेमां संबंध छे ते अरुणोपपात, वरुणोपपात इत्यादि सूत्रो जाणवा. २३. उत्थानश्रुत - जेना अध्ययनथी गाम, नगर, कुल अने राजधानी विगेरे उज्जड थाय ते. ज्यारे कोई साधु-मुनिराज क्रोधावेशमां आवे त्यारे आ श्रुतनो एक वार पाठ करे त्यारे सर्वत्र लोक भयभ्रान्त थई जाय अने बीजी त्रीजी वार भणे त्यारे सर्व ग्राम-नगरादिक छोडीने चाल्या जाय-नाशी जाय. .. २४. समुत्थानश्रुत - ज्यारे उपर्युक्त क्रोधी मुनिराजनुं कार्य थई जवाथी तेमना चित्तनी शांति थाय-प्रसन्नचित्त थाय त्यारे पार्छ समुत्थानश्रुत भणे ने तेना एक बे-त्रण वारना पाठथी नाशी गयेला लोको पाछा मंगलनी इच्छाथी आवीने ग्राम नगरादिकमां निवास करे. २५. नागपरिज्ञावलिका-नागकुमार देवनी परिज्ञा. चूर्णिकार जणावे छे के- ज्यारे साधु आ अध्ययन भणे त्यारे संकल्प कर्या विना पण नागकुमार देव पोताना स्थानमा रह्या छतां ते साधु-मुनिराजने वांदे अने संघ पर कोई पण संकट आवी पड्युं होय तो तेनुं निवारण करे. २६.निरयावलिका-तेमां नरकावासानुं वर्णन छे. नरकमांजनारा मनुष्य अने तिर्यंचों विगेरेनुं पण वर्णन आपवामां आव्युं छे. २७. सूत्रकल्पिक - सौधर्मादि देवलोकना कल्प संबंधी वर्णन छे. २८. कल्पावतंस-विमानना शिखरादिनुं वर्णन. चूर्णिकार एम पण कहे छे के सौधर्म तथा ईशान देवलोकने विषे जे विमानो छे तेमां अत्यंत तपश्चर्या द्वारा जे देवपणे उपजे तेने लगतुं वर्णन आपेल छे. २९. पुष्पिका- गृहस्थावासनो त्याग करी जे संयमभावमां स्थिर थया एटले सुखिया थया तेने लगतो अधिकार छे. ___३०. पुष्पचूलिका- गृहस्थपणानो त्याग करी साधुत्व स्वीकार्या बाद पासत्थापणे विचरवा संबंधी अधिकार. ३१. वह्निदशांग-अंधकवृष्णि राजाना कुळमां उत्पन्न थईने जेओ मोक्षे गया तेओने लगतो अधिकार. आ प्रमाणे उत्कालिक अने कालिक श्रुतनी संख्या गणावता पार आवे तेम नथी. आपणे पूर्वे जाणी गया ते प्रमाणे श्रीऋषभदेवना समयमा ८४ हजार, बावीश तीर्थंकरना समयमां संख्याता हजार अने श्रीमहावीर परमात्माना समये चौद हजार प्रकीर्णको रचाया छे. भगवान श्रीऋषभदेवना चोराशी हजार साधुओ हता माटे तेमना समयमां कालिक अने उत्कालिक श्रुतनी संख्या चोराशी हजारनी थई, कारण के भगवंते उपदेशेल श्रुतनो अंगीकार करीने जे रचना करे ते सर्व प्रकीर्णक श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहेवाय अथवा तो पोतानी कुशळता दर्शाववापूर्वक श्रुतने अनुसारे उपदेशने अवसरे रचना करी बोले ते पण प्रकीर्णक कहेवाय. आ प्रमाणे श्रीऋषभदेवना समयमा ८४ हजार, बावीश तीर्थंकरना समयमा संख्याता हजार अने श्रीवीरपरमात्माना समयमां चौद हजार प्रकीर्णकोनी रचना थई. ऊपर जणावेल हकीकतना संबंधमां केटलाक आचार्योनो मतभेद पण छे. केटलाक आचार्यो एम पण जणावे छे के - श्रीऋषभदेवने आश्रयीने जे साधु संख्या कही छे ते सूत्र रचवानी श्रेष्ठ शक्ति धरावनारा साधुओनी समजवी. बीजा सामान्य साधुओ तो घणा थया छे. वळी केटलाक एम पण जणावे छे के - श्रीऋषभदेवनी विद्यमानतामां ज जणावी तेटली साधुसंख्या थई, पण तेमना निर्वाण पछी जे जे साधुओ तेमना शासनकाळमां थया अने तेमां पण जे श्रेष्ठ शास्त्र रचवानी शक्तिवाळा थया तेओना रचेला ग्रंथो ज सूत्रमा अधिकृत करेला जाणवा. अने तेवा नाम ज श्रीनंदीसूत्रमा सूचवेल छे. आवा प्रकारनो मतांतर दर्शाववा माटे ज 'अहवा' शब्द सूत्रमा मूकवामां आव्यो छे. श्रीऋषभदेवादिक तीर्थंकरना समयमां तेमना जे शिष्यो (१) उत्पातबुद्धि, (२) वैनेयिकी, (३) कार्मणकी अने (४) पारिणामिकी - आ चार बुद्धिना धरनार हता तेमना रचेला जे पयन्ना ते प्रकीर्णको जाणवा. प्रत्येकबुद्ध पण तेटला ज जाणवा. आ संबंधमां कोई आचार्य एम कहे छे केदरेक तीर्थंकरना समयमा असंख्याता पयन्ना रचाय छे, पण अहीं तो फक्त प्रत्येकबुद्धना रचेला ज प्रकीर्णको जाणवा. आ कथन परत्वे कोई शंका करतां कहे के प्रत्येकबुद्धने शिष्य तो न होय तो तमारुं कथन सत्य-व्याजबी जणातुं नथी. आ शंकाना संबंधमां खुलासो करतां गीतार्थ जणावे छे के – परमात्माना शासनरहित काळमां जे प्रत्येकबुद्ध थाय तेने शिष्यनो अभाव होय छे, परन्तु जे परमात्माना शासनकाळमां प्रत्येकबुद्ध थाय छे तेने शिष्य करवानो निषेध नथी. आ संबंधी नीचेनो मूळपाठ दर्पण सरखो स्पष्ट छे. “इह तित्थे अपरिमाणा पइन्नगा पइण्णगसामिअपरिमाणत्तणओ, किं तु इह सुत्ते पत्तेयबुद्धपणीयं पइन्नगं भाणियव्वं, कम्हा जम्हा पइण्णगपरिमाणेण चेव पत्तेयबुद्धपरिमाणं कीरइ भणियं 'पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव त्ति चोयग आह-नणु पत्तेयबुद्धा सिस्सभावो य विरुज्झए? आयरिओ आह-तित्थगरपणीयसासणपडिवन्नत्तणओ तस्स सीसा हवन्तीति" अर्थात् “तीर्थमां परिमाण रहित-संख्या रहित पयन्नानी रचना थाय छे, कारण के पयन्नाना रचनारनी संख्या परिमाण रहित होय छे; परन्तु अहीं तो प्रत्येकबुद्धना ज रचेल पयन्नानी संख्या ज सूत्रकार कहे छे. आ संबंधमां शंका थतां शिष्य पूछे छे के – 'प्रत्येकबुद्धने तो शिष्यनो अभाव होय छे.' आ शंकानुं समाधान करतां आचार्यभगवंत कहे छे के–'महानुभाव ! तीर्थंकर भगवंतना शासनकाळमां जे प्रत्येकबुद्ध थाय तेने शिष्य करवानो निषेध नथी." सदाचारी गच्छमां निवास करवानुं फल - आ प्रमाणे आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुतनुं स्वरूप जाणवू अने साथोसाथ प्रकीर्णक संबंधी समजुती पण विचारी लेवी. असदाचारी-भ्रष्ट गच्छमा रहेवाथी संसार-परिभ्रमण वधे तेम जणाव्यु, हवे सदाचारी-सारा गच्छमां वास करवाथी जे फायदा - लाभ थाय ते संबंधी वर्णन त्रण गाथाद्वारा करे छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-२३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जामद्धजामदिगपक्खं, मासं संवच्छरंपि वा । सम्मग्गपट्ठिए गच्छे, संवसमाणस्स गोअमा! ।।३ ॥ लीलाअलसमाणस्स, निरुच्छाहस्स वीमणम् । पिक्खविक्खइ अन्नेसि, महाणुभागाण साहूणम् ॥४॥ उज्जमं सव्वथामेसु, घोरवीरतवाइअं । लज्ज संकं अइकम्म, तस्स वीरिअंसमुच्छले ॥ ५ ॥ [यामार्द्ध यामं दिनं पक्षं, मासं संवत्सरमपि वा । सन्मार्गप्रस्थिते गच्छे, संवसमानस्य गौतम ! ॥ ३ ॥ लीलालसायमानस्य, निरुत्साहस्य विमनस्कस्य । पश्यत: अन्येषां, महानुभागानां साधूनाम् ॥ ४ ॥ उद्यमं सर्वस्थामेषु, घोरवीरतपादिकम् । . लज्जां शङ्कामतिक्रम्य, तस्य वीर्यं समुच्छलेत् ॥ ५ ॥] गाथार्थ - हे गौतम! अर्ध प्रहर, एक प्रहर, दिवस, पक्ष, मास के वर्ष पर्यन्त सन्मार्गगामी-सदाचारी गच्छमां रहेनारा सुखशील-आळसु, निरुद्यमी, विमनस्क-शून्य चित्तवाळो साधु पण बीजा प्रौढप्रभावी साधुओने सर्व क्रियाओमा प्रयत्नशील, घोर तपस्वी, दुष्कर वैयावच्चादिक करणी करवामां तत्पर जोईने पोतानी लज्जा-शरम-संकोच अने शंका सर्वथा त्यजी दईने धर्मानुष्ठान करवामां उत्साहवंत बने छ, अर्थात् ‘हुँ पण जिनोक्त क्रिया करूं जेथी दुःखरूपी दावानळथी मुक्त थाउं' एवी भावना तेने स्फुरे छे. ३-५ विवेचन - श्रीवीरपरमात्मा श्रीगौतमस्वामीने उद्देशीने कहें छे के - 'हे गौतम ! जे साधु सदाचारी गच्छमां रहे छे तेनुं आळसुपणुं, निरुत्साहपणुं अने मन- शैथिल्य दूर थई जाय छे. प्रतिक्रमणमां ऊठवा-बेसवानी क्रियाने अंगे आळस आवती होय अगर तो पडिलेहणादि क्रियामा मन्दता आवती होय ते बीजा सदाचारी साधुना अवलंबनथी दूर थाय छे. एक गामथी बीजे गाम विहार करवो, अध्ययन करवू विगेरे क्रियाथी निरुद्यमीपणुंपण दूर थई जाय छे. वळी दीक्षा लीधा पछी चारित्रपालनमां कठिनता नीहाळी मन डामाडोळ थाय, मनमा ‘हवे शुं करीशं? ज्योतिष, जंत्र, मंत्र अने तंत्रादि करी आजीविका चलावू'विगेरे विचार करे छतां पण तेनुं मन दृढ थई जाय; कारण के सन्मार्गगामी गच्छमां रहेनारा साधुओनुं यथासमये क्रियापूर्वकनुं आचरण नीहाळे, ग्रामानुगाम विहार, उपवास, छठ्ठ, अठुम, पासखमण तथा मासखमणादि उग्र तपश्चर्या जुए, आ उपरांत एकासj, आयंबिल तथा निवि आदि तपश्चर्या वारंवार नीहाळे, ज्ञानवृद्धना विनयादिक जुए, वैयावच्चादिक प्रवृत्ति जाणे, आहार-पाणी लावी देवा, पग चांपवा इत्यादि क्रिया नीहाळे, केवलीभाषित धर्ममां लेशमात्र पण अश्रद्धा न नीरखे, भूलचूकनो मिच्छामिदुक्कडं (माफी) मागे, आलोयण-प्रायश्चित ग्रहण करे इत्यादि विविध शुद्ध करणी जोईने सुखशील-आळसु साधु विचारे के–'आ पण मनुष्य श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे अने हुं पण मानव छु तो शा माटे माराथी शुद्ध चारित्रपालन न थई शके?' आवी जातनी विचारणाथी ते उद्यमवंत बने अने मनमां आवेली नबळाई दूर करवापूर्वक वीर्योल्लासपूर्वक संयमधर्मनुं सम्यक् प्रकारे आराधन करे. आ बाबतमां तर्क उठावतां कोई प्रश्न करे के-घोर तपश्चर्या अगर तो उग्र क्रिया करनारा साधुओने जोई काचोपोचो साधु तो नाशी जाय अर्थात् व्रतभंग करे. आ बाबतनुं समाधान करतां जणावे छे के जे दुःखगर्भित वैराग्यवासित आत्मा दीक्षा ग्रहण करे ते तो कदाच पतित थई जाय. जे संसारनी असारता या तो अनित्यता नीहाळी नि:स्पृही बनीने चारित्र अंगीकार करवा पछी कुसंगी थई जाय, पासत्थादिकना पासमां पड्यो रहे तो ते पण सुखशीलियो बनीने पासत्थो बनी जाय अने तेनुं निर्वेदपणुं चाल्युं जाय; परन्तु जो ते शुद्ध गच्छमां रहेतो होय तो शुभ योग अने शुभ करणी जोईने तेमां रक्त बने अने शुद्ध चारित्र पालवा पण उद्यमवंत थाय. आ संबंधमां श्रीज्ञातासूत्रना पांचमा अध्ययनमां आपेल शेलकाचार्यनुं दृष्टांत पूर्ण प्रकाश पाडे छे. शेलकाचार्यनी कथा - द्वारिकानगरीने विषे श्रीकृष्णवासुदेव राज्य करता हता. ते नगरीना ईशान खूणामां रैवतगिरि - रैवताचल (हालतुं गिरनार तीर्थ) नामनो पर्वत छे. ते पर्वत नैसर्गिक सौंदर्यथी अति रमणीय अने अनेक प्रकारना वृक्ष-लताओथी चित्ताकर्षक छे. ते पर्वतनी नजीकमां ज नंदनवन नामर्नु उद्यान हतुं, जे खरेखर इंद्रना नंदनवनने पण भुलावे तेवं हतुं. ते द्वारिका नगरीने विषे थावच्च नामनो गाथापति-गृहस्थ वसतो हतो. ते अत्यंत धनिक अने नागरिक जनोने विषे प्रतिष्ठापात्र हतो. तेमने थावच्चा नामनो रूपादि - गुणसंपन्न पुत्र हतो. तेने श्रेष्ठीए एक ज दिवसमां रंभा सरखी रुपवंती बत्रीश कन्याओ साथे परणाव्यो. थावच्चाकुमार ते रमाओनी साथे भोगविलास भोगवतो अने स्वर्गना सुखोनो अनुभव करतो दिवसो. व्यतीत करी रह्यो हतो, तेवामां श्रीनेमिनाथ भगवंत नंदनवनमां पोताना अढार हजार साधुओ अने चालीश हजार साध्वीओना परिवार सहित पधार्यां. नंदनवनने विषे रहेला सुरप्रियनामना यक्षचैत्यमां तेमणे वास को. आ हकीकत वनपालके श्रीकृष्ण वासुदेवने जणावी एटले अत्यंत हर्ष पामी, वनपालके वधामणी आपी अतीव आडंबरपूर्वक श्रीनेमिनाथ भगवंतने वांदवा नीकळ्या. थावच्चा पुत्रने आ समाचार मळतां ते पण पोताने योग्य आडंबरपूर्वक प्रभुने वांदवा गयो अने वांदीने योग्य स्थानके बेठो एटले श्रीनेमिनाथ भगवंते भव्य जीवोनो उद्धार करनारी रोचक देशना आपतां का के–“हे भव्य प्राणीओ ! आ संसार असार छे. तेने विषे जे सुखोपभोग जोवाय छे ते मृगजळनी माफक वृथा छे. माता, पिता, भाई, बहेन, स्त्री अने पुत्रादि स्वजन संबंधी सर्वे स्वार्थना ज सगा छे. स्वार्थ पूर्ण थतां तेओ शत्रुस्वरूप बनी जाय छे. वळी विषयसुख तो विष-झेर सदृश छे. विष भक्षणथी तो प्राणीनो एक ज भव बगडे छे पण १. आ सूत्रमा त्रीजा आराना प्रांतभागथी पांचमां आरानी शरूआत सुधीमां एटले श्रीमहावीरस्वामीनां जीवनकाल पर्यंत थयेल जैनधर्मनी महान् विभूतिओ, आदर्श सतीओ अने प्रभाविक पुरुषोनुं वर्णन आपवामां आव्युं छे. अध्ययन १९, श्लोक ५५०० अने श्रीअभयदेवसूरिकृत टीका ४२५२ श्लोकप्रमाण छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसुख तो भवपरंपरा वधारी दे छे; माटे तेनो त्याग करी *चार महाव्रतरूप धर्मनुं आचरण करो. भगवंतनी आज्ञा प्रमाणे जे तेनुं यथार्थ पालन करशे ते शिवलक्ष्मीना सुखने प्राप्त करशे. जे विषयसुखमां राचीमाची रहेशे ते चोराशी लाख जीवायोनिमां परिभ्रमण करवापूर्वक जन्म-मरणादिक अनेक प्रकारनां कष्टो सहन करशे. अनंत भवों पछी महापुण्यना प्रभावथी आ दुर्लभ मानवदेह मळ्यो छे तो प्रमादनो परित्याग करीने तेने सार्थक करी ल्यो.” आ प्रमाणे देशना सांभळी पर्षदा तो स्वस्थाने गई, परंतु लघुकर्मी थावच्चा कुमारनो आत्मा वैराग्यवासनाथी आर्द्र बन्यो. तेने परमात्मानी अमृत-वाणीमां परम सत्यनुं दर्शन थयुं अने ते ज समये भगवती दीक्षा अंगीकार करवानो दृढ निश्चय करी भगवंतने पोतानी इच्छा जणावी. भगवंते जणाव्युं के - " असार संसारमाथी सार ग्रहण करवारूप तमारो विचार प्रशंसापात्र छे. उत्तम कार्यमां कदापि ढील न करवी.” परमात्मानुं प्रेरक कथन सांभळी थावच्चाकुमार स्वमंदिरे आव्यो अने माताने पोतानी दीक्षाभिलाषा दर्शावी. थावच्चाकुमारनी वात सांभळतां ज माता धरणी पर ढळी पडी अने मूर्च्छित बनी गई. तरतज वायु अने शीतळ जळनो उपचार करतां ते अल्प समये सचेत थई त्यारे रुदन करती करती पोताना पुत्रने उद्देशीने कहेवा लागी के -" हे पुत्र ! मारे तो तुं एकनो एक ज लाडकवायो पुत्र छे. वळी हमणां ज तने अति रमणीय बत्रीश कन्याओ साथे परणाव्यो छे. ते स्त्रीओ तारुं स्मरण करीने मृत्युने वश थशे, माटे तारे दीक्षा लेवानी वात ज न उच्चारवी. आपणा गृहमां विपुल धन छे, कमावानी कई पण चिंता करवा जेवुं नथी माटे आ देवांगना सदृश रमणीओ सा यथेच्छित भोगविलास भोगव. संतानादिक थया पछी अने आ मळेल भोगविलासनी सामग्रीनो उपयोग कर्या पछी तुं सुखपूर्वक संयम स्वीकारजे. हुं पण तेटला समयमां स्वर्गवासी थई जईश, तने कोई निषेध नही करे माटे पछी श्रीनेमिनाथ भगवंत पासे प्रव्रज्या ग्रहण करजे. दीक्षा लेवानी वात करवी अने ते पाळवी ते बने वच्चे महद् अंतर छे. तारी वय लघु छे. चारित्र खांडाना धार जेवुं छे अने तेमां पण केशनुं लोचन आदि क्रिया कायक्लेश उपजावनारी छे, माटे हे पुत्र ! तुं दीक्षानो विचार मुलतवी राखी मनुष्यजीवननो भोगविलास भोगववारूप लहाव ग्रहण कर.” मातानुं आवुं स्नेहाळ कथन सांभळी थावच्चाकुमारे कह्यं के— “हे माता ! तमे जे सुख भोगववानुं कहो छो ते बधुं असार ने अनित्य छे. ते सुखनुं फळ नरकप्राप्ति छे. वळी आयुष्यनों विश्वास नथी. वळी कोई जाणी शकतुं नथी के कोण पहेलां अने कोण पछी मृत्यु पामवाना छे. धन तो चंचळ होवाथी कोई पण स्थळे स्थिर रहेतुं नथी. ज्यां पुण्यरूपी सामग्री पूरी थई के धन पग करीने चाल्युं जाय छे माटे हे माता ! मारा प्रत्येनी ममता अने मोहनो त्याग करी मने मोक्षप्राप्तिना निमित्तरूप संयम स्वीकारवा आज्ञा आपो.” * श्री ऋषभदेव अने महावीरस्वामी सिवायना बावीश तीर्थंकरने समये चार महाव्रत होय छे; ज्यारे पहेला अने छेल्ला तीर्थंकरोने समये पांच महाव्रत होय छे. पांच महाव्रतना नाम आ प्रमाणे - १ प्राणातिपातविरमण, २ मृषावादविरमण, ३ अदत्तादानविरमण, ४ मैथुन विरमण अने ५ परिग्रह सर्वथा त्यागरूप. श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पुत्रनो आवा प्रकारनो सदाग्रह जाणी माताए विचार्युं के – 'पुत्र खरेखरा संयमरंगथी वासित थयो छे माटे तेना भव्य दीक्षा महोत्सवनी तैयारी करूं.' एम विचारीने कृष्ण वासुदेव पासे गई अने सर्व हकीकत जणावी कह्यं के – “हे महाराज ! पुत्रना आ महोत्सव प्रसंगे तमे मने छत्र, चामरादि उपरांत राज्यसामग्रीनी सहायता करो.” कृष्णे कह्यं के – “हे सार्थवाहिनी ! तमे लेशमात्र चिंता न करो. तमारा पुत्रनो दीक्षा महोत्सव हुं करीश.' आ प्रमाणे कहीने कृष्ण वासुदेव पोतानी चतुरंगिणी सेना साथे थावच्चा पुत्रना आवासे आव्या. कृष्णने थावच्चा पुत्रना संयमरंगनी परीक्षा करवानुं मन थयुं एटले आवीने तेमणे कह्यं के—“हे कुमार ! तमे आवा कोमळ वयमां शा माटे दुष्कर संयम स्वीकारो छो ? दीक्षापालन ऍ तो मीणना दांतोथी लोढाना चणा चाववा जेवुं दुष्कर छे, तमे संसार संबंधी सुखो भोगवो. अमे तमारी रक्षा करशुं.” थावच्चाकुमारनो संयमना रंग कई पतंगनो रंग जेवो अस्थायी के विनश्वर न हतो के जेथी कृष्णना प्रलोभनथी ते चलित थाय. ते रंग तो तेमने मजीठना रंगनी माफक हाडोहाड व्यापी गयो हतो एटले कृष्णने जवाब आपतां तेणे जणाव्यं के— “हे महाराज ! तमै कहो ते ठीक छे पण मारुं मृत्यु आवशे त्यारे तमे मारुं रक्षण करवा समर्थ हो तो हुं तमे कहो तेम करवा तैयार छु” कृष्णे जवाब आप्यो के – “मरणसमये कोई पण कोईनुं रक्षण करी शकतो नथी: तो हुं तारुं रक्षण केम करी शकुं ? चक्रवर्ती अने तीर्थंकर जेवाने पण काळ आधीन बनवुं पडे छे तो बीजानी वात शा माटे करवी जोईए ?” त्यारे थावच्चा कुमारे कह्यं – “हे राजन् ! आप शा माटे एम कहो छो के 'हु तारुं रक्षण करीश.' हुं जन्म-मरणरुपी भयथी भयभीत बन्यो छु अने तेमांथी मुक्त थवा आ प्रवज्या अंगीकार करुं छं.” तेनुं आ प्रमाणेनुं दृढ मन्तव्य जाणी कृष्ण वासुदेव अत्यंत हर्षित थया अने पोताना सेवकने बोलावी आदेश आप्यो के—“आ द्वारिका नगरीमां जाहेर उद्घोषणा करावो के – 'जे कोईने थावच्चाकुमारनी साथे दीक्षा लेवी हशे तेनो सर्व बंदोबस्त कृष्ण महाराजा स्वयं करशे अने कोईना कुटुंबने आधार नही होय तो तेनुं राजा पो पालन करशे.” आ उद्घोषणाने परिणामे एक हजार पुरुषो थावच्चानी साथे दीक्षा लेवा उत्सुक बन्या. पोतानी ज्ञातिने भोजन आपी, स्नान करी, सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहेरी, हजार पुरुषो उपाडे तेवी शिबिकामां बेसी सर्व थावच्चापुत्रना आवासे आव्या. ते समये कृष्ण वासुदेवे आठ जातिना कळशद्वारा थावच्चा पुत्रनो अभिषेक करी, स्वच्छ वस्त्रो अने उत्तम आभूषणो पहेराव्या. बाद हजार पुरुषो उपाडे तेवी शोभनीय शिबिकामां विराजमान करी वाजिंत्रना नादपूर्वक श्रीनेमिनाथ परमात्मा ज्यां विराज्या हता त्यां आव्या. पालखीमांथी नीचे ऊतर्या त्यारे कृष्ण वासुदेवे तेमने आगळ कर्या अने पोते तेनी पाछळ चाल्या. भगवान समीपे आवीने कृष्णे कह्यं के— “हे भगवन् ! आ थावच्च सार्थवाहनो थावच्चा नामनो पुत्र मने अति वल्लभ छे. ते जन्ममरणरूपी भयवाळा आ संसारसागरथी उद्वेग पाम्यो छे अने आपनी पासे मोक्षना परवानारूप प्रव्रज्या अंगीकार करवा इच्छे छे, माटे हे स्वामिन् ! आप तेमनी विज्ञप्तिनो स्वीकार करो.” एटले परमात्माए कह्यं के— “जहां सुक्खं” अर्थात् सुख उपजे तेम करो. प्रभुनी आज्ञा थतां थावच्चाकुमारे पोते पहेरेला आभूषणो एक पछी एक उतारवा शरू कर्या त्यारे ते सर्व तेनी माताए पोताना वस्त्रना पालवमां अश्रु - झरती आंखो सहित श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहण कर्या अने छेवटनी शिक्षारूप बे वचनो बोलतां कह्य के–“हे प्रिय पुत्र ! हवे तुं लेश पण प्रमाद करीश नहि. फरी वार बीजी माता न करवी पडे तेवी रीते चारित्र पालन करजे. जेम सिंहर्नु शिशु घणा घेटांओथी पण डरतुं नथी तेम तुं पुष्कळ परिसहोथी पराभव पामीश नहि." आ प्रमाणे उपदेश-वचन सांभळ्या बाद थावच्चापुढे हजार पुरुषो साथे पंचमुष्टी लोच करी दीक्षा ग्रहण करी. बाद परमात्मानी मुखथी पांच समिति तथा त्रण गुप्तिनुं स्वरूप जाणीने ते प्रमाणे आचरण करतां अने अन्य स्थविरो पासे शास्त्राध्ययन करतां समय व्यतीत करवा लाग्या. उपवास, छठ्ठ, अठ्ठमादिक तपश्चर्याओ द्वारा कर्मनी निर्जरा करवा लाग्या. आ प्रमाणे अध्ययन अने संयमधर्मनी एकनिष्ठ उपासना करतां अनुक्रमे तेओ चौदपूर्वना पारगामी बन्या. थावच्चापुत्रनी शक्ति हवे तो घणी ज वृद्धि पामी. श्रीनेमिनाथ भगवंतने पण तेमनी शक्ति माटे मान उत्पन्न थयु. एकदा थावच्चापुत्रे भगवंतथी जुदा विचरवानी वात करी अन्य देशमां धर्मप्रचार करवा जवा माटे आज्ञा मांगी. भगवंतनी आज्ञा मळतां तेओ उग्रविहार करतां करतां शेलगपुरे आवी पहोंच्या. ते स्थळे सुभूमिभाग नामना उद्यानमां वास को एटले ते नगरनो शेलक नामनो राजा पोताना विचक्षण पंथक आदि पांचसो प्रधानो साथे तेमने वंदन करवा आव्यो. नगरजनो पण वंदनार्थे आव्या अने मोटी पर्षदा थई. थावच्चा अणगारे उपदेश आपी लोकोने संसारनुं स्वरूप यथार्थ समजाव्यु, साथोसाथ जीवाजीवादि नव तत्त्वोनुं स्वरूप समजावी कर्मना अबाधित नियमनुं पण दिग्दर्शन कराव्यु. आवी सुंदर देशना सांभळी राजा तथा प्रजाजनो पण अत्यंत हर्षित थया. राजा शेलके का के–“उग्रकुलना, भोगकुलना, राजन्यकुलना तेम ज सेनापति अने सार्थवाह प्रमुख घणा दीक्षा अंगीकार करीने विचरे छे, परंतु मारी एवी शक्ति नथी माटे हे गुरुदेव ! मने समकितमूळ श्रावकना व्रत आपी श्रमणोपासक बनावो.” थावच्चा मुनिए तेने पूरती समजण आपी श्रावकधर्मना बार व्रतो उच्चराव्या अने तेनी साथोसाथ राजाना पंथक प्रमुख पांचसो मंत्रीओ पण श्रमणोपासक बनवा साथे नवतत्त्वना विषयना ज्ञाता बन्या. शेलकराजा स्वस्थाने गयो अने थावच्चा अणगार पण पृथ्वी पर विहार करवा लाग्या. ___आ बाजु सोगंधिया नामनी नगरीमां सुदर्शन नामनो महाश्रेष्ठी वसतो हतो. ते नगरीमा एकदा चार वेदोनो जाण, महामिथ्यात्वी अने तेना शास्त्रोनो पारगामी, सांख्य मतवादी शुक नामनो परिव्राजक पोताना हजार शिष्यो साथे आवी पहोंच्यो. ते पांच नियम युक्त शौचधर्मनी प्ररूपणा करतो हतो, तेमज कषायी वस्त्र धारण करतो हतो. परिव्राजकना आश्रममां तेने उतरेल जाणीने नगरीना लोको अने सुदर्शन शेठ पण तेमने वांदवा गया. ते समये उपदेश आपतां तेणे सुदर्शन शेठने उद्देशीने कां के—“हे श्रेष्ठी ! अमारो मूळ धर्म शौच छे. ते बे प्रकारे छे– (१) द्रव्यशौच अने(२) भावशौच. द्रव्यशौच एटले पाणी तथा माटीवडे अशुचि होय ते दूर करवी अने भावशौच एटले तृण अने मंत्रादिकथी कोई पण मलमूत्रादिकनी अशुचि थई होय ते दूर करवी. आ प्रमाणे १. ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभंडमत्तनिक्षेपणासमिति अने पारिष्ठापनिकासमिति २. मनगुप्ति, वचनगुप्ति ने कायगुप्ति. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २८ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुचि दूर करवाथी जीव विघ्न रहित स्वर्ग प्राप्त करे छे.” आ प्रमाणे शुक परिव्राजकनो उपदेश सांभळी सुदर्शन शेठ अत्यंत प्रमोद पाम्यो अने परिव्राजकनो धर्म स्वीकार्यो, केटलाक समय बाद शुक परिव्राजक अन्य स्थळे गयो अने थावच्चा अणगार विचरतां विचरतां हजार मुनिओ साथे सोगंधिया नगरीए आव्या. तेने नीलाशोक नामना उद्यानमां उतरेला जाणीने पौरलोको साथे सुदर्शन श्रेष्ठी पण वंदनार्थे आव्यो. त्रण प्रदक्षिणा आपी, मुनिवरने वांदी बेठो अने देशना सांभळ्या बाद प्रश्न कयों के“हे भगवन् ! तमारो मूळ धर्म शुंछे?" थावच्चा अणगारे जवाब आप्यो के–“हे महानुभाव ! अमारो मूळ धर्म विनय छे. तेना बे प्रकार छे–(१) गृहस्थनो धर्म पांच अणुव्रत, त्रण गुणव्रत अने चार शिक्षाव्रत ए प्रमाणे बार व्रतरूप तेमज अग्यार उवासगपडिमारूप छे अने (२) साधुनो पांच महाव्रतरूप, अढार पापस्थानकना परित्यागरूप तेमज बार पडिमारूप विनय धर्म छे. आ बंने प्रकारनो धर्म सेवे ते आठ* कर्मनी एकसो अट्ठावन प्रकृतिनो विनाश करी शिवसुखनी प्राप्ति करे." आ प्रमाणे कहीने थावच्चा अणगारे सुदर्शन शेठने प्रश्न कर्यो के–“हे श्रेष्ठी ! तमारो मूळ धर्म शुं छे?" त्यारे श्रेष्ठीए का के-“मारो मूळ धर्म शौच छे.” एटले थावच्चा अणगारे का के–“हे देवानुप्रिय ! कोई माणस लोहीथी खरडायेला वस्त्रने पुन: लोहीमा झबोळी धोवे तो ते शुं शुद्ध थाय?” सुदर्शन का –“ना” एटले थावच्चा मुनिए जणाव्युं के–“अढार पापस्थानकद्वारा बांधेल कोने काचा पाणी प्रमुखना जीवोनी हिंसा करीने दूर करवाने इच्छे ते बनी शके खरुं? लोहीथी आर्द्र बनेला वस्त्रने जेम स्वच्छ जळ अथवा तो क्षारादिकथी धोवामां आवे तो ते शुद्ध बने तेम अढार पापस्थानकवडे उपार्जेल कर्मनो क्षय करवा माटे अहिंसादिक क्रिया अने तपश्चर्यादि करवा जोईए. पाणी तो बहारना मळने पण पूरेपूरुं दूक करी शकतुं नथी तो आत्माने लागेला कर्मनो नाश केवी रीते करी शके?” आ प्रमाणे थावच्चा अणगारनो सचोट उपदेश सांभळतां सुदर्शनने पोतानी भूलनुं भान थयु. पोते खोटे मार्गे प्रयाण कर्यु छे अने तेथी तो साध्यनी उलटी ज दिशा ग्रहण कराई छे तेवो तेने ख्याल आव्यो. पूर्व दिशामां गमन करवू होय अने पश्चिममां चालवां मांडे तो ते कदि पण इष्ट स्थळे पहोंची शके नहीं तेम विचारीने सुदर्शन श्रेष्ठीए विपरीत मार्गरूप शुक परिव्राजकना पंथनो त्याग कर्यो अने थावच्चा मुनि पासे केवलीभाषित जैनधर्मनो स्वीकार को. समकितना मूळरूप श्रावक धर्म ग्रहण कर्यो अने जीवाजीवादी नव तत्त्व- स्वरूप जाण्यु. आ हकीकत शुक परिव्राजकना कणे अथडातां ते स्वयं सोगंधिया नगरीए आव्यो अने सुदर्शन श्रेष्ठीने आवासे गयो. शुद्ध सम्यक्त्वधारी सुदर्शन शेठे तेनो आदर सत्कार पण न कों तेम तेने वंदना पण न करी त्यारे शुक परिव्राजके तेने का के- “हे श्रेष्ठिन् ! पहेलां तो तुं अमारी अत्यंत भक्तिभावपूर्वक सेवा-शुश्रूषा करतो अने तारामां आ परिवर्तन केम थई गयुं ? शुं तने मारो धर्म रुच्यो नहीं?" त्यारे शेठे कां के “हे परिव्राजक ! श्रीनेमिनाथ भगवंतना शिष्य थावच्चा ___ *ज्ञानवर्णीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र, आयु अने अंतराय-ए प्रमाणे आठ प्रकारना कमों छे. तेना क्षयथी प्राणी सिद्धिगति प्राप्त करे छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २९ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगारे मने विनयमूळ धर्मनुं सत्य स्वरूप समज्याव्युं छे. ते हालमा नीलाशोक उद्यानमां विराजमान छे. तेमणे मने शुद्ध - निष्कलंक धर्मनुं भान करावतां में तमारो मिथ्या मार्ग त्यजी दीघो छे.” आ प्रमाणे सांभळी शुक परिव्राजकने पोताना पांडित्यनुं अभिमान प्रगट्युं अने शेठने कां के- “चालो, हुं तमारा गुरु साथे वाद करवा मागुं छं. जो हुं हारी जईश तो तेमने वंदन करीश अने हितो तेनो पराजय थशे.” आ प्रमाणे बोली शेठ साथे ते थावच्चा अणगार पासे आव्यो अने प्रश्न पूछवा लाग्यो — “हे भगवन् ! तमारे जात्रा छे ? जवणिज्ज छे ? अव्याबाध छे ? फासु विहार छे ?” थावच्चा मुनिए कह्यं के— “सर्व छे.” शुके पूछ्युं - “केवी रीते ?” मुनिए जवाब आयो के–“ तप, नियम करवो, छकायनी जयणा-रक्षा करवी ते अमारी यात्रा छे. पांच इंद्रिय अने मन अमारे वशवर्ती छे ते अमारुं जवणिज्ज छे. अमारा शरीरमां कोई पण प्रकारना व्याधिनी पीडा नथी ते अव्याबाध अने स्त्री, पशु अने पंडक (नपुसंक) रहित आरामादि-उद्यानादिक स्थानोमा दोष रहित पीठ-फलकादिक लईने विचरवुं ते फासु विहार छे.” बाद शुक परिव्राजके बीजो प्रश्न करतां पूछयुं - " हे मुनि ! तमे सरसव खाओ छो के नहि ? " मुनि बोल्या – “खाईए छीए, अने नथी पण खाता.' आवो संदिग्ध जवाब सांभळी शुकने कईंक अचंबी उत्पन्न थयो. तेणे कह्यं - "एम केम बने ?' मुनिराजे जवाब आपतां जणाव्यं के- “सरसव बे प्रकारना छे – (१) समान वयना ते मित्र सरसव अने (२) धान सरसव. मित्र सरसव पंचेन्द्रिय मनुष्यादि माटे भक्ष्य नथी. वळी धान सरसवना पण बे प्रकार छे - (१) शस्त्रादिकथी छेदन - भेदन थयेला भक्ष्य अने (२) सचित्त मारे अभक्ष्य छे अने शस्त्रपरिणत छे तेना पण बे प्रकार छे - (१) एक बेंतालीश दोषरहित अने (२) बेंतालीश दोषसहित. दोषसहित छे ते मारे अभक्ष्य छे अने जे दोषरहित भक्ष्य छे तेना पण बे प्रकार छे - (१) एक मांगेला अने (२) नहीं याचेला. जाच्याना पण बे भेद छे – (१) एक मळेला अने (२) नहीं मळेला. नहीं मळेला मारे अभक्ष्य छे अने जे मळ्या ते भक्ष्य छे; माटे में कह्यं छे के-भक्खेया वि अभक्खेया विअर्थात् भक्षण करवा लायक अने नहीं भक्षण करवा लायक बन्ने प्रकार छे.” आ प्रमाणे सांभळी शुके पुन: प्रश्न कर्यो के—“कुलत्थ बे प्रकारनां छे—(१) स्त्रीकुलत्थ अने (२) धानकुलत्थ. तेमां पण स्त्रीकुलत्थ त्रण प्रकारनां छे (१) कुलमाता (२) कुलवधू अने (३) कुलपुत्री. आ अमारे अभक्ष्य छे. जे धानकुलत्थ छे तेना सरसवनी माफक ऊपर जणाव्या प्रमाणे भेद जाणी लेवा. छेवट जे मळ्या ते अमारे कल्पनीय छे एटले में कह्यं के अभक्ष्य अने भक्ष्य बने प्रकार छे.” ' आटला प्रश्नोत्तरथी शुकने संतोष न थयो तेथी तेणे वळी पण पृच्छा करी के " हे स्थविर ! मासा भक्ष्य छे के अभक्ष्य ?” अणगारे जवाब आयो के - “ खावा लायक छे अने नथी पण." "एम केम ?” एम पुनः पूछतां मुनिपुंगवे प्रत्युत्तर आप्यो कि- “ मासा त्रण प्रकारना छे—- (१) कालमासा, (२) अत्थमासा अने (३) धन्नमासा. कालमासा तो श्रावण आदि बार मास छे ते मारे अभक्ष्य छे. अत्थमासा बे प्रकारना छे (१) सुवर्ण तोलवाना अने (२) रूपुं तोलवाना- आ बने प्रकार अमारे अभक्ष्य छे. धन्नमासा फासु-एषणीय मळे ते मारे भक्ष्य छे.” आ प्रमाणे सर्व प्रश्नोनो युक्तिसंगत उत्तर आपवाथी शुक परिव्राजक विचारमां पडी गयो ने चिंतववा लाग्यो के- 'मुनि एकपक्षी उत्तर आपशे एटले तेमने हुं श्रीगच्छाचार - पयन्ना—- ३० ܕ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीती लईश तेवी मारी धारणा धूळमां मळी छे. तेओ नयना ज्ञाता छे माटे बोलवामां तो पकडाशे नहिं माटे बीजी युक्ति करूं. तेमणे वेराग्यथी चारित्र-ग्रहण कर्यु छे माटे तेओ आत्माने एकलो मानता हशे अने तेना जवाबमां तेओ भूलथाप खाई जशे माटे तेवो ज प्रश्न करूं.' एम विचारी तेणे तेमने पूछ्यु के–“हे भगवन् ! तमे एक छो के बे? अनेक छो? अक्षय छो? अव्यय छो? अवट्ठिय छो? पूर्वे जेवा हता, अत्यारे जेवा छो अने भविष्यमां थशो तेवा छो?” शुक परिव्राजकना आवा प्रश्नथी थावच्चा अणगारने तेनी युक्ति अने मूर्खाई बने पर मनमां सहेज हास्य उत्पन्न थयुं खजुओ सूर्यनो पराभव करवा इच्छे ते केम बनी शके ? परंतु तेमणे गंभीर थईने जवाब आप्यो के–“हे महानुभाव ! हुं एक छु, बे पण छु, इत्यादि ते जे प्रश्नो पूछया ते सर्व छं. तेनुं कारण सांभळ-द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए जीव द्रव्य एकलुं छे तेथी हुं एक छु. ज्ञान अने दर्शन ए बे जीवद्रव्यथी जुदा नथी तेथी हु बे पण छु. जीवद्रव्य-असंख्यातप्रदेशी छे तेथी हुं अनेक छु. कोई पण प्रदेशनो क्षय थतो नथी तेथी हुं अक्षय छु. कोई प्रदेशनो विनाश नथी माटे अविनाशी छु, जीव कोई पण दिवसे नूतन-नवो थतो नथी तेथी शाश्वत-नित्य छु. भूतकाळमां अनेक उपयोग कर्या छे, वर्तमानमां करी रह्यो छु अने भविष्यमां थशे तेनी अपेक्षाए तेवो पण छु." आ प्रमाणे थावच्चा अणगारना युक्तियुक्त अने अकाट्य प्रमाणो सांभळी शुक परिव्राजक तो विचारमा ज गरकाव बनी गयो. तेणे कदी आवो उपदेश के ज्ञान जाण्युं ज न हतुं. तेमने पोताना अत्यार सुधीना मिथ्या मार्ग माटे खेद उपज्यो अने मुनिवरने विज्ञप्ति करी के–“हे भगवन् ! मने केवलीभाषित धर्म संभळावो के जेथी मारुं अज्ञानांधकार नाश पामे.” थावच्चा अणगारे तेने प्रतिबोध पामेलो जाणी सर्वज्ञप्ररूपित सिद्धांतों अने तेनुं स्वरूप संक्षिप्तमा जणाव्यु जेथी शुक परिव्राजकने जैनी दीक्षानो शुद्ध मार्ग ग्रहण करवानी इच्छा थई. तेणे तरत ज पोतानी जिज्ञासा मुनिवरने जणावी. मुनिश्रीए का के–“जेवी तमारी इच्छा. शुभ कार्यमां विलंब न करवो.” त्यारबाद पोताना गेरु जेवा रंगवाळा वस्त्रनो त्याग करी, केशनो लोच करी पोताना हजार शिष्यो साथे दीक्षा ग्रहण करी. शुक परिव्राजक शास्त्राभ्यास करतां चौद पूर्वना ज्ञाता थया एटले थावच्चा अणगारे तेमने तेमनी साथे दीक्षा लीधेला हजार शिष्योना आचार्य तरीके स्थाप्या. बाद पोतानो अंतिम समय नजीक जाणी थावच्चा अणगार श्रीसिद्धाचळ पर्वते आव्या अने त्यां एक मासर्नु अणशण कर्यु, अणशणमां ज केवळज्ञान प्राप्त करी तेओ छेवटे मोक्षलक्ष्मीना भोक्ता बन्या. आ बाजु शुक मुनि विचरता विचरता शेलगपुरना सुभूमिभाग उद्यानमा रह्या तेवामां शेलक राजा अने नगरना लोको तेमने वंदनार्थे आव्या. शुक मुनिनी वैराग्यवाहिनी देशना सांभळी श्रावकधर्मी बनेल शेलक राजा विशेष वैराग्यवंत बन्यो अने तेणे शुक मुनिने का के–“मने संसार प्रत्ये उद्वेग उपज्यो छे तेथी मने दीक्षा लेवानी भावना उद्भवी छे.” मुनिराजे का “ सारा कार्यमां विलंब न करवो.” त्यारे शेलक राजाए कह्यं के—“मारे मारा पांचसो प्रधानोने पूछयूँ जोईए माटे तेनी रजा लई आईं त्यां सुधी आप स्थिरता करो.” आ प्रमाणे कही राजमंदिरे आवी तात्कालिक सर्व प्रधानोने बोलावी का के–“हे प्रधानो ! मने शुकाचार्यनो उपदेश रुच्यो छे अने संसारनी श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ३१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषम परिस्थितिनुं मने खरेखलं भान थयुं छे तेथी हुं चारित्र ग्रहण करवा इच्छु छु. तमारी शी इच्छा छे ते कहो.” त्यारे पंथक प्रमुख प्रधानोए कह्यं के–“हे महाराज ! अमे पण संसारथी भय पाम्या छीए. पहेला पण तमे ज अमारा आलंबनरूप हता तो हवे पण तमे ज आधारभूत थाओ. तमे चारित्र ग्रहण करशो तो साथोसाथ अमे पण संयम धर्म स्वीकार\" प्रधानोनी हकीकत सांभळी राजाए फरमाव्यु के–“जेओ संसारथी भयभीत थया होय तेओ पोतपोताना पुत्रोने कुटुंबनो भार सोंपी, शिबिकामां बेसी मारी पासे आवो.” आ प्रमाणे सूचन कर्या बाद बधा प्रधानो आव्या एटले राजाए पण पोताना मंडुक नामना पुत्रने राज्यसिंहासने बेसारीने, तेनी आज्ञा लईने महामहोत्सवपूर्वक शुकाचार्य पासे पांचसो प्रधानो सहित प्रव्रज्या लीधी. साधुपणानो आचार पाळता सामायिकथी प्रारंभीने क्रमश: तेओ अग्यार अंगना ज्ञाता थया. तेमने शक्तिशाळी अने गच्छ संभाळवाने लायक जाणी शुकाचार्ये शेलक राजाने पण आचार्यपदवी आपी शेलक राजर्षि बनाव्या अने तेमने पांचसो साधुओनो परिवार सोंपी अलग विचरवानी आज्ञा आपी. शुकाचार्य पोतानो अंतिम समय नजीक जाणी श्रीशत्रुजय तीर्थे आव्या अने अंतगड केवळी थई शिवसुखने पाम्या. आ बाजु शेलक राजर्षि पण अत्यंत कठिन तपश्चर्या करवा लाग्या अने पारणे पण तुच्छ-लूखो आहार करवा लाग्या. आम करवाथी परिणाम ए आव्यु के-पूर्वे राजा होवाथी सुखपूर्वक रहेला अने मिष्ट तेमज रसवाळो आहार करेलो तेने बदले आवो रस-कस विनानो आहार करवाथी शरीरमां व्याधि उत्पन्न थयो. दाहज्वर तथा पीतज्वर थई गयो अने तेनी महावेदना थवा लागी. आवी असह्य वेदना सहन करतां करतां पण शेलक राजर्षि पृथ्वीपीठ पर विचरवा लाग्या. व्याधिने कारणे तेमनुं शरीर दिवसे दिवसे दुर्बळ बनवा लाग्युं आ प्रमाणे विचरता विचरता तेओ शेलगपुर आवी पहोंच्या अने सुभूमिभाग उद्यानमां आवी वास को. पौरलोकोनी साथे मंडुक राजा पण तेमने वांदवा आव्यो. ते समये शेलक राजर्षिना अत्यंत दुर्बळ देहने व्याधिग्रस्त जोईने ते विचारमां पडी गयो. तेणे तेमने विज्ञप्ति करी के - "हे भगवंत ! आपनुं शरीर व्याधिग्रस्त बन्युं छे. आप जो के तेनी उपेक्षा करी रह्या छो, पण शरीर धर्मायतन छे एटले तेनी पण मावजत (हिफाजत) तो करवी पडे माटे आप मारी जनशाळामां पधारो. हुं वैद्योद्वारा आपनी चिकित्सा करावी निर्दोष ने पथ्य औषधवडे आपने निरोगी बनावं." आ प्रमाणे विनति करी मंडुक राजा स्वावासे गया बाद तेना आग्रहने वश थई शेलक राजर्षि पण बीजे दिवसे सूर्योदय थया बाद, पोताना पंथक प्रमुख पांचसो शिष्यो साथे जनशाळामां गया अने फासु पीठ, फलकादि भंडोपगरण लईने रहेवा लाग्या. मंडुक राजाए विचक्षण वैद्योने बोलावी का के—“शेलक राजर्षिनी चिकित्सा करी, तेमनुं दोष रहित औषध करो.” वैद्योए राजर्षिना व्याधि, निदान करी का के–“जो तमो रस-कसवाळा आहारना साथे मदिरापान करो तो ज तमारो व्याधि विनाश पामे.” राजर्षिए वैद्योना कथन मुजब व्याधिना उपशमनार्थे आहार साथे ते लेवा मांड्यु. आ प्रमाणेना सुरापानथी तेमनो व्याधि नाश पाम्यो अने शरीरे पण पुष्ट बन्या, परंतु आ उपचारनुं विपरीत परिणाम ए आव्यु के शेलक राजर्षि आ पौष्टिक आहार अने सुरापानमां आसक्त बनी गया. कर्मयोगथी धीमे धीमे तेमनुं अतिशय रसलोलुपपणुं जागृत थयु. हवे तेनाथी ते छोडातुं श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३२ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नथी. जे रसनेंद्रिय अत्यार सुधी काबूमां राखी हती ते हवे लगाम विनाना अश्वनी माफक स्वतंत्र बनी गई. धीमे धीमे शेलकराजर्षि संयम-पालनथी पण च्युत थवा लाग्या. पासत्थापणानो अंश आववा लाग्यो. प्रमाद पण तेनामा प्रवेश करवा लाग्यो. पीठ, फलक, शय्यासंथारो समय परिपूर्ण थये पाछा आपवा जोईए छतां तेम न करतां ते भोगववा लाग्या. हवे तो मंडुक राजानी परवानगी विना तेओ विहार करवाने पण असमर्थ बन्या त्यारे पंथक सिवायना बाकीना साधुओ एकठा थया अने परस्पर विचारवा लाग्या के–“शेलक राजर्षिए राज्य त्यजी दीक्षा लीधी हती परंतु कर्मयोगे पूर्ववत् पौष्टिक भोजन मळतां तेओ तेमां गृद्ध बनी गया छे. विहारनी तो वात ज करता नथी अने संयम-पालनमां दूषण लागे तेवू आचरण करी रह्या छे माटे आपणे तेवो प्रमाद करवो उचित नथी. कारण के करोडो रत्न आपतां पण मनुष्य जीवननी पळ पुन: प्राप्त थाय तेम नथी तो तेने प्रमादरूपी धूळ मात्रथी शा माटे व्यर्थ गुमाववी? आपणे सर्वेए प्रात:काळे शेलक राजर्षिनी आज्ञा लई अत्रेथी विहार करवो, पंथक मुनिने तेमनी वैयावच्च करवा मूकी जवा अने आपणी पासे जेना जेना पीठ, फलकादि छे ते तेमने पाछा सोंपी देवा.” आ प्रमाणे निर्णय करी, सर्व हकीकत शेलक राजर्षिने जणावी, पंथक मुनिने तेमनी पासे राखी तेओ सर्व भव्यजनोने प्रतिबोधार्थे अन्य देशमा विहार करी गया. ___पंथकमुनिने पूर्ण विश्वास हतो के शेलक राजर्षिने वहेलुं मोडुं पण आत्मभान थशे अने शुद्ध मार्गे आवशे. पंथक मुनि शेलक राजर्षिनी सारी रीते वैयावच्च करवा लाग्या. तेमने आहार लावी आपवो, तेमनुं मानु परठवी देवू, संथारो करी आपवो इत्यादि वैयावच्च शुद्ध मनथी करवा लाग्या. आहार करीने जेम सिंह पोतानी गुफामां पड्यो रहे तेम हवे तो शेलक राजर्षि अतीव प्रमादी थई गया. पडिलेहण, प्रतिक्रमणादिक आवश्यक क्रिया पण लगभग विस्मृत थवा जेवी बनी गई. अंकुश विनाना हस्तीनी बीजी शी दशा थाय? एवामां कार्तिक चोमासुं आव्यु, शेलकराजर्षिनी साथे रहेवा छतां पंथक मुनिना आचरणमां कदापि पण स्खलना न थई. तेओ तो तन अने मनथी वैयावच्च करतां अने संयमाराधनमां तत्पर रहेता. कार्तिक चोमासाने दिवसे चारे प्रकारनो आहार करी, सुरापान करी शेलक राजर्षि तो संध्यासमये ज सूई गया. चौमासी प्रतिक्रमण करतां पंथक मुनिए चौमासी खामणा खामवाना समये निद्राधीन बनेला शेलक राजर्षिना चरणने पोताना मस्तकद्वारा स्पर्श कर्यो तेवामां निद्राभंग थवाथी शेलकाचार्य अत्यंत क्रोधी बनीने बोल्या के–“कोणे मारी निद्रानो भंग कयों? अकाळे मृत्युने कोण वांछे छे? आवो पुण्यहीन कोण छे?" त्यारे पंथकमुनिए अत्यंत नम्रतापूर्वक जणाव्यु के–“हे भगवंत ! हुं आपनो शिष्य पंथक ज छु. आज चौमासी प्रतिक्रमण करतां आपने खमाववा में मारा मस्तकद्वारा आपनो चरणस्पर्श कर्यों छे. आपनो अविनय थयो होय तो हुं माफी मांगुं छु. फरी वार आवं कार्य नहिं करूं.” आ प्रमाणे कहीने पंथक मुनि शेलकाचार्यने वारंवार खमाववा लाग्या. पंथक मुनिना आप्रमाणेना कथनथी अने तेमना अत्यंत विनयशीलपणाथी शेलक राजर्षिनो क्रोध शांत थइ गयो. तेमने पोताना अविचारीपणानुं भान थयु. पोते शुद्ध स्थविरपणाथी पतित थईने पासत्थापणाने पाम्या तेने माटे अत्यंत परिताप थवा लाग्यो. हस्तिनो श्रीगच्छाचार–पयन्ना- ३३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्जारव सांभळी सुसुप्त सिंह पण जागृत थई जाय तेम शेलक सचेत बन्या. अत्यार सुधीना पोताना प्रमादीपणानुं भान थयुं अने निश्चय कर्यो के प्रातःकाले मंडुकनी परवानगी लईने, पीठ-फलकादि पाछा सोंपीने अन्यत्र विहार करीश. आ प्रमाणे अनाचार पाळवो ते मारे माटे योग्य नथी. एक वखत भोगविलासोनो त्याग कर्या पछी पुनः तेनो भोगवटो करवो ते तो वमन करेला भोजननो पुन: आहार करवा जेवुं छे. आ प्रमाणे पोताना मनमां मक्कम निर्णय करीने, मंडुकने सर्व वस्तु सुप्रत करीने पोते पंथक मुनिनी साथे पूर्ववत् उग्र विहार करवा लाग्या. आ व्यतिकर अगाउ चाल्या गयेला ४९९ शिष्योना जाणवामां आव्यो एटले तेओ पण शेलकाचार्यनी पासे आव्या. शेलकाचार्ये पूर्वनी माफक उग्र तपश्चर्या शरू करी अने छेवटे श्रीपुंडरीकगिरि ऊपर आव्या. त्यां पादपोपगम अणशण करी, केवलज्ञान प्राप्त करी छेवटे मोक्षलक्ष्मीना भोक्ता थया. आ दृष्टांतनो मतलब ए छे के जेम पंथक प्रमुख उद्यमी, क्रियाशील अने चारित्रना खपी मुनिने जोईने शेलकाचार्यने पोताना प्रमादीपणा प्रत्ये तिरस्कार आव्यो, पोतानी भूल समजाई अने परिणामे सुखशीलपणुं त्यजी दईने पुन: संयमधर्ममां स्थिर थया. आ प्रमाणे सदाचारी गच्छमां वास करवाथी कदाच कर्मवशात् पतित थवानो प्रसंग प्राप्त थाय तो पण संसर्गथी अने बीजाने उद्यमवंत देखीने पोताना प्रमादीपणानो त्याग करवानुं बने छे, वीर्य उल्लसे छे अने क्रिया प्रत्ये रुचि जागे छे; परंतु जो भ्रष्टाचारी गच्छमां वास होय तो नीसरणीना पगथियांनी माफक एक पगथियेथी चूक्या के तरत ज अध:पतन थवा लागे छे, माटे सदाचारी गच्छनुं ज हंमेशां अवलंबन लेवुं. हवे वीर्योल्लास थवाथी शुं फलप्राप्ति थाय ते जणावतां कहे छे के वीरिणं तु जीवस्स, समुच्छलिएण गोअमा ! । जम्मंतरक पावे, पाणी मुहुत्तेण निद्दहे ॥ ६ ॥ [ वीर्येण तु जीवस्य समुच्छलितेन गौतम ! । जन्मान्तरकृतानि पापानि, प्राणी मुहूर्तेन निर्दहेत् ॥ ६ ॥ गाथार्थ - हे गौतम! जीवनो वीर्योल्लास वृद्धि पामतां ते जीव पूर्वना अनेक भवोमां उपार्जन करेल ज्ञानावरणीय प्रमुख अशुभ कर्मोने अंतर्मुहूर्त मात्रमां-बे घडी जेटला समयमां बाळीने भस्म करी नाखे छे. ६. - विवेचन – अज्ञानादिकने कारणे आ आत्मा कर्मबंधन कर्या करे छे. आ प्राणी संयोगाधीन छे, कारण के कहां पण छे के A man is the creature of circumstances. अनादि काळथी मोहराजाँए तेने प्रमादरूपी मदिरा पाई एवो मस्त बनाव्यो छे के तेने पोताना सारासारपणानुं हिताहितनुं भातुं ज नथी. आवी अज्ञानावस्थामां- भोगविलासमां राज्योमाच्यो रही ते कर्मोपार्जन करे छे अने परिणामे तेना माठां फळ भोगवे छे. आवी रीते अनेक भवोमां कर्मसंचय वधतो जाय छे, परंतु तेनो आत्मा जागृत बनी अपूर्व आत्मोल्लास - वीर्योल्लासपूर्वक धर्मानुष्ठानमां रक्त बने, धर्मरंग रगे-रग व्यापी जाय त्यारे ते आत्मा अनेक भवना संग्रहित करेला पापराशिने बे घडी जेटलाज समयमा दग्ध करी शकवा शक्तिमान बने छे. एटले दरेक प्राणीए आत्मवीर्य गोपववुं श्रीगच्छाचार - पयन्ना—- ३४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहिं तेमज धर्मानुष्ठानमां कदी पण प्रमादी बनवू नहि. संयमधर्मथी पतित थई पुनः गृहस्थावास स्वीकारनार अरणिक मुनिवरे अपूर्व वीर्योल्लासथी केवी रीते शिवगति प्राप्त करी ते उदाहरण आ हकीकत जाणवा माटे अतीव उपयोगी छे. माताना उद्बोधनथी तेमनो पतित थई गयेल आत्मा पुनः जागृत बन्यो अने स्वकल्याण साध्यु, अरणिक मुनिनुं वृत्तांत - तगरा नामनी नगरीमा दत्त नामनो व्यवहारी वसतो हतो. तेनी धनधान्यादिकनी समृद्धि अपार हती. भोगविलासमां पण कशी कमी न हती. तेने भद्रा नामनी शियलवती अने धर्मश्रद्धाळु पत्नी हती. संसारावस्थाना फळस्वरूप ते दंपतीने अरणिक नामनो रूप, गुण अने कलासंपन्न देवसदृश कांतिमान पुत्र हतो. ते त्रणे सुखपूर्वक रहेता हता तेवामां ते नगरीना उद्यानमां श्री अर्हन् मित्राचार्य नामना मुनिवर पधार्या. गामलोको वंदनार्थे गया त्यारे दत्त श्रेष्ठी पण पोतानी पत्नी तथा पुत्र साथे देशना सांभळवा गयो. श्रीमित्राचार्ये धर्मोपदेश आपतां जणाव्यु के–“हे भव्य प्राणीओ ! आ संसार स्वार्थी छे-कोई कोईनुं नथी. आ नि:सारभूत संसारमाथी सार ग्रहण करवो ए ज आ मनुष्य जन्मप्राप्तिनुं फल छे. भोगविलासो तो अल्प सुख अने अत्यंत दुःख आपनारा छे. नरकगतिमां एक श्वासोश्वास प्रमाण समय पर्यंत सुख नथी, त्यां सागरोपम जेटलो काळ दुःख सहन करवामां गाळवो पडे छे. आवा कंपारी छूटे तेवा दुःखमांथी बचq होय तो धर्मनुं सम्यक् प्रकारे आचरण करो. आयुष्य डाभनी अणी पर रहेला जलबिंदुनी जेम अस्थिर छे अने लक्ष्मी पण विद्युतनी माफक चंचळ छे. शाश्वत सुख देनार कोई पण होय तो ते सर्वज्ञभाषित-वीतराग प्ररूपित जैनधर्म ज छे माटे तेनुं मन, वचन अने कायाथी यथाशक्ति पालन करो के जेथी जन्म-मरणना दुःखमांथी छूटकारो थाय.” आ प्रमाणे वैराग्यरसथी भरपूर देशना सांभळी दत्त श्रेष्ठीने वैराग्य उपज्यो. तेणे पोतानी मनोभावना भद्राने जणावी, एटले पति ए ज जेनो प्राण छे एवी भद्राए पण पतिनो मार्ग स्वीकारवा- कबूल कर्यु पण विचारवानो प्रश्न रह्यो नाना अरणिकनो. हजु ते उमरलायक थयो न हतो. विचारने परिणामे एq निर्णीत थयुं के अंरणिकने पण आ पवित्र मार्गनो पथिक बनाववो अने तेनी सारसंभाळ साधु दत्ते राखवी. शुभ मुहूर्ते दबदबापूर्वक त्रणे जणाए दीक्षा लीधी अने पोतानी संपत्तिनो धर्ममार्गमां सद्व्यय कयों. दत्ते सिंहनी पेठे चारित्र ग्रहण करी तेनुं सिंहवत् पालन करवा मांड्यु. धीमे धीमे शास्त्राभ्यास शरू कर्या परन्तु ज्ञानावरणीय कर्मना प्रभाव स्मरणशक्ति मंद बनी गई. तेणे विचार्यु के – 'हवे पाका घडाए जेम कांठा न चडे तेम वृद्धवये शास्त्राभ्यास नहीं थाय.' तेणे अरणिकने शास्त्राध्ययन शरू कराव्युं अने तेनी पडिलेहणादि क्रिया पण पोते करवा लाग्या. तेना प्रत्येना ममत्वभावना कारणे गोचरी पण पोते लई आवता. तेमां पण तेने माटे मोदक, पेंडा आदि मिष्ठान्न लावता. कोई पण प्रकार- कष्ट अरणिकने न पहोंचे तेवी संपूर्ण काळजी राखता. आप्रमाणे अरणिक साधुपणामां पण सुखशीलपणे उछरवा लाग्यो. तेनुं सुकुमारपणुं वधतुं गयु. भद्रा साध्वी पण वारंवार आवी समाचार मेळवी जती. दत्तनी साथेना बीजा साधुओ दत्त मुनिने कोई कोईवार कहेता श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के— “हे दत्तमुनि ! आ अरणिकने तमे हवे गोचरी जतां शीखवो. ते आचार नहीं शीखे तो भविष्यमां शुं करशे ? तमारी तपश्चर्याने दिवसे तो गोचरी माटे तमारे तेने ज मोकलवो.” आना जवाबमां दत्त मुनि पुत्र प्रत्येना स्नेहथी कहेता के— “हे पूज्यो ! हजु ते नानो छे. हमणां तेने शास्त्राभ्यास करवा दो. गोचरीमा हजु शुं समजे ? गोचरी विगेरे माटे तो हुं ज जईश.” काळांतरे दत्तमुनि अणशण करी काळधर्म पाम्या त्यारे अरणिक मुनि रुदन करतां करतां कहेवा लाग्या के— “हे पूज्य पिताजी ! तमे केम आजे कंई बोलता नथी ? हवे मने 'पुत्र' कहीने कोण बोलावशे ? सारं सारं मिष्ट भोजन कोण लावी आपशे ? मारी सारसंभाळ कोण करशे ? तमारां सिवाय मारो संयमनिर्वाह केम थशे ?” आ प्रमाणे विलाप करवा लाग्या तेवामां भद्रा साध्वी त्यां आव्या अने तेने समजावतां कह्यं के— “ वत्स ! तारे आम रुदन करवुं उचित नथी. आ संसारनी लीला ज आवी छे, माटे तारे मोहमां मुंझावुं नहीं. कोई सदाकाळ जीवंत रहेतुं नथी, माटे हवे स्वस्थ थईने शुद्ध चारित्र पालन कर" आ प्रमाणे भद्रा साध्वीनी शिखामणथी अरणिक कंईक स्वस्थ थयो अने चारित्र पालन करवा लाग्यो. एकदा गोचरी जनारा मुनिओए अरणिकने साथे लीधो अने कह्यं के— “चालो, गोचरी केम ग्रहण करवी ते तमने समजावुं.” अरणिक साथे चाल्यो पण तेनुं सुकोमळपणुं तेने दुःखदायक थई पड्युं. तेनी गति मंद बनी गई. बीजा साधुओ आगळ चालवा लाग्या अने अरणिक एकलो तेओनी पाछळ पाछळ जवा लाग्यो. बीजा साधुओए विचार्य के अरणिक हमणां भेगो थई जशे. एट तेओए गति चालु राखी. सुकुमार अरणिक मंद गतिए चालतो हतो. मस्तक अने चरण उघाडा हता. माथे ज्येष्ठ मासनो प्रखर ताप तपतो हतो. अरणिकने समग्र शरीरे प्रस्वेद थई गयो. तेनाथी ताप सहन न थयो एटले एक गोखनी नीचे छांयो हतो त्यां अल्प समय विश्राम लेवा ऊभो रह्यो. भाग्यानुयोगे बन्युं एवं के ते हवेली एक धनाढ्य श्रेष्ठीनी हती. ते श्रेष्ठी परदेश गयेल अने तेनी नवयौवनवती स्त्री ते हवेलीमां रहेती हती. ते विरहातुर बनेली हती. तेनी नजरे राजकुमार जेवा अरणिक मुनि चड्या. पोताना गोखनी ज नीचे तेने ऊभा रहेल जोई तेणे अनेक संकल्पविकल्प कर्या. तेणे मुनिने पोतानी जाळमां फसाववानो विचार करी पोतानी दासीने समजावीने तेनी पासे मोकली. दासीए आवीने नम्रताथी क “हे साधुपुरुष ! पधारो, अमारुं आंगणुं पावन करो. मारी शेठाणी आपने भोजन वहोराववा इच्छे छे. आपने सूझतो आहार वहोरावशे, माटे पधारो.” अरणिके तरत ज ते कथन स्वीकारी लीधुं, कारण के हवे आगल वधवाने तेना चरणो आनाकानी करी रह्या हता. सूर्यनो प्रचंड आताप पण तेनी बेचेनीमां वधारो करी रह्यो हतो. जेवो अरणिके हवेलीमां पग मूक्यों के दासीए द्वार बंध करी धा. मुनिने जोई ते व्यवहारी आनी स्त्रीए कह्यं के— “पधारो मुनिराज ! आटली नानी वयमां आ चारित्र केम ग्रहण कर्तुं ? हजी तो तमारे संसारोपभोग करवानो समय छे. आवो, अने आ सर्व अढळक संपत्तिनो यथेच्छ उपभोग करो. धर्मकरणी ए तो वृद्धावस्थानुं कर्तव्य छे. आ ऊगती युवानीमां आवो वेष तमने शोभे ? हुं, मारा दास-दासी विगेरे तमारी सेवामां हाजर ज छीए माटे श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ३६ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारी साथे संसार संबंधी भोगविलास भोगवो अने पछी पाछळथी यथावसरे चारित्र स्वीकारजो. धर्म करवाना दिवसो क्यां ओछा छे?" आ प्रमाणे प्रलोभन आपी, ते युवती हावभावपूर्वक चेष्टा करवा लागी. कामदेवना ताता तीर जेवा पोताना नेत्रकटाक्ष मुनि प्रति फेंकवा लागी. भोगावली कर्मना उदयथी अरणिक मुनिवर आ प्रेम-पाशमां फसाया. चारित्रपालन तेमने खांडानी धार पर चालवा जेवं विषम जणातुं हतुं. तेमणे मनने चलित कर्यु अने व्यवहारीआनी स्त्री साथे गृहसंसार शरू को. पोतानी पासेना रजोहरणादि साधु चिह्नो त्यजी दई गृहस्थनो वेश अंगीकार कयों. ___ आ बाजु पेला साधुओ गोचरी वहोरी जेवामां अरणिकनी तपास करे छे तो तेनो पत्तो ज न मळे. तेओ विचारमां पडी गया. अमुक अमुक स्थानोए तपास करी पण गृहस्थी बनेला अरणिकनो पत्तो क्याथी मळे ? तेमणे आवी गुरुने वात करी. गुरुए पण शोध करावी पण तरुणीना प्रेम-पिंजरमां पूरायेला अरणिकनी प्राप्ति न ज थई. भद्रा साध्वीने पण आ समाचार मळ्या. समाचार सांभळतां ज ते घेली बनी गई. तेनो सुसुप्त रहेलो पुत्र प्रेम उछळी आव्यो. तेणे कोई पण भोगे पुत्रने पाछो मेळववानो मन साथे मक्कम निर्णय को. पण हवे तेनो पुत्र घेर घेर भिक्षार्थे भटकतो भिक्षु न हतो. तेनी जीवनदिशा पलटाई गई हती. तेनो पुत्र तो हवेलीमां बेसीने भोगविलास माणी रो हतो तेनी तेने क्यां खबर हती. धीमे धीमे तेनी घेलछा वधवा लागी. ते नगरीनी शेरीए शेरीए भटकवा लागी अने 'अरणिक अरणिक' एम पोकार करवा लागी. नगरना बाळको तेने गांडी समजी तेनी मश्करी करवा लाग्या. छोकराओ तेने ठगवा लाग्या. 'अहीं तमारो अरणिक छे' एम कही एक शेरीमाथी बीजी शेरीमा दोडाववा लाग्या. छोकराओने मन आ रमतनो विषय थई पड्यो पण विशाळ तगरा नगरीमां अरणिकनो पत्तो न मळ्यो ते न ज मळ्यो दिवसो पर दिवसो पसार थवा लाग्या. बार वर्ष व्यातीत थई गया. दैवानुयोगे एकदा अरणिक गोखमां बेसी पोतानी प्रियतमा साथे शेतरंज खेली रह्यो हतो तेवामां तेणे माताने पोताना नामनो पोकार पाड़ती अने जाणे पोताने न जोवाथी गांडी बनी गई होय तेवी जोई. जोतां ज तेने पोतानी पूर्वावस्था- भान थयुं तेने पोतानी जात ने कार्य माटे धिक्कार उपज्यो. क्षणिक सुख माटे तेणे पोतानो आत्मा वेची नाख्यो हतो तेवू तेने आत्मभान थयु. चिंतामणिनो परित्याग करी तेना बदलामां काचना टुकडाथी पोते संतोष मान्यो हतो तेम पण जणायु. वधारे विचार करवानो अवकाश न हतो. तरत ज गोखथी नीचे ऊतरी पोतानी माताना चरणमां नमस्कार को. अरणिकने जोतां ज भद्रानी घेलछा दूर थई गई. अत्यंत वात्सल्यथी तेणे पुत्रने पंपाल्यो अने का के-“पुत्र ! तने आ उचित नथी. भगवंतनो श्रेष्ठ मार्ग मळ्या पछी आ कष्टमय कारावासमा रहेवानुं तने केम पसंद पडे छे? चाल, कर्मानुयोगे थवानुं हतुं ते थई गयु. हवे चारित्र स्वीकारी ले अने आ गंभीर भूलनुं प्रायश्चित ग्रहण कर. गुरुमहाराज जरूर तने क्षमा आपी सन्मार्गे चढावशे.” अरणिके का के—“माता ! माराथी दीर्घसमय चारित्र पालन नहीं थई शके माटे बीजो रस्तो बताओ. कहो तो हुं अणशण स्वीकारी पापपुंजने दग्ध करी नाखं.” माता तेने समजावी गुरुमहाराज पासे लावी अने तेने अणशण स्वीकाराव्यु ज्येष्ठ मासना तापने जे अरणिक सहन नही करी शकता ते ज अरणिक मुनि अग्नि जेवी धगधगती पत्थरनी शिला ऊपर पादपोपगम श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणशण स्वीकारी काउसग्ग ध्यानमां स्थित रह्या जेम अग्नि आगळ घृत पीगळी जाय तेम सुकुमार शरीरवाळा अरणिकनो देह अंगारा जेवी शिला ऊपर ओगळी गयो अने अरणिकनो आत्मा शुभ ध्याननी श्रेणीए चढी, काळ करी देवलोके गयो. . ___ आ कथानो सारांश एवो छे के - जेम उष्ण परिसह सहन करी अरणिके पोताना वीर्योल्लासपूर्वक स्वश्रेय साध्यं तेम दरेक प्राणीए वीर्योल्लास करवो. जे गच्छमां साधु आवा आत्मोल्लासपूर्वक क्रिया करे ते सुगच्छ जाणवो. आ माटे शुं करवू ते संबंधे जणावतां कहे छे के तम्हा निउणं निहालेउं गच्छ सम्मग्गपट्ठिअं । वसिज्ज तत्थ आजम्मं, गोअमा ! संजए मुणी ।।७ ।। [तस्मानिपुणं निभाल्य, गच्छं सन्मार्गप्रस्थितम् ।। वसेत्तत्र आजन्म, गौतम ! संयतो मुनिः ॥७॥ गाथार्थ - [सदाचारी गच्छमां वसतो प्रमादी शिष्य पण जागृत बनी अनेक भवसंचित पापपुंज दग्ध करी नाखे छे] माटे हे गौतम! ज्ञानचक्षुद्वारा जाणी जेमां आत्मकल्याण सधाय तेवा सन्मार्गप्रतिष्ठित गच्छनी परीक्षा करी संयममार्गमा प्रयत्नशील साधुए जीवन पर्यंत तेवा सुगुणी गच्छमां ज वास करवो. जे सत्क्रियापात्र होय छे तेज साधु- मुनि छे.७ विवेचन- मुमुक्षु आत्माए पोतानी आत्मोन्नति माटे सदाचारी गच्छमांज वास करवो उचित छे. जो उन्मार्गगामी-भ्रष्टाचारी गच्छमां वास करे तो तेनुं साधुपणुं रहेतुं नथी, पासत्थादिकना प्रसंगथी चारित्रपालनमां शिथिलता आवी जाय छे अने बधा सरखा एकत्र मळवाथी कोई कोईने जागृत करी शकतो नथी, परंतु जो सदाचारी गच्छमां निवास होय अने पोतामां कंई पण प्रमादनो अंश प्रगटे तो पोतानी साथे रहेला अन्य साधुओनी क्रियातत्परताथी, तेमनी वैयावच्चादिक क्रियाथी प्रमादी बनता साधुने सचेत बनवू पडे छे अने छेवटे लज्जाळपणाथी पण संयममां दृढ रहेवू पडे छे, माटे सुगच्छमां वास करवो ए ज योग्य छे. हवे सुगच्छनी तपास केम करवी? ते प्रश्न उपस्थित थाय छे. दरेके दरेक मुनिवरोनी कई परीक्षा करी शकाती नथी, तेथी शास्त्रकारमहाराजा फरमावे छे के गच्छना आधारभूत आचार्य छे, माटे जे आचार्य सद्गुणी, क्रियाप्रेमी अने शासनोन्नतिनी धगशवाळा होय तेनो गच्छ सुगच्छ ज होय, माटे तेवा गच्छमां वास करवो. हवे साम आचार्यनी परीक्षा केवी रीते थई शके ते माटे जणावतां कहे छे के मेढी आलंबणं खंभं, दिट्टी जाणं सुउत्तमम् । सूरी जं होइ गच्छस्स, तम्हा तं तु परिक्खए ।। ८ ॥ [मेधिरालम्बनं स्तम्भो-दृष्टिर्यानं सूत्तमम् । सूरिय॑स्माद् भवति गच्छस्य, तस्मात्तं तु (एव) परीक्षेत । ८ । श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ३८ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ - आचार्य महाराज गच्छने माटे मेढीभूत, अवलंबनस्वरूप, स्तंभनी माफक आधारभूत, नेत्र-दृष्टिनी जेवा उपयोगी अने छिद्र वगरना श्रेष्ठ जहाजनी जेवा होय छे. जे गच्छमां आवा आचार्य होय ते सुगच्छ जाणवो माटे आचार्यनी परीक्षा उपर्युक्त साधनो द्वारा करवी.८ विवेचन-सुगुप्तिमान उत्तम आचार्यनां लक्षण बतावतां शास्त्रकारमहाराजा जणावे छे के ते मेढी जेवा होय. मेढी एटले काष्ठ खेतरमां धान्य पाकी गया पछी तेना खळा करवामां आवे छे. ते खळामां डुंडाओमा रहेला धान्यने तेनाथी छूटा पाडवा माटे वृषभो पासे कचराववामां आवे छे. आ समये खळानी मध्यमां एक काष्ठ ऊभुं करवामां आवे छे अने तेनी साथे वृषभोनी राश बांधी लेवामां आवे छे एटले वृषभो आघा-पाछा जई शकता नथी अने पोतानुं कार्य करे छे. आ ऊभुं करेल काष्ठ ते मेढी कहेवाय छे. जेवी रीते आ काष्ठथी वृषभो मर्यादामां ज चाले, आघा-पाछा थई न शके तेम आचार्यनी आज्ञारूप राशथी बंधाएल शिष्यसमुदाय पोतपोताना आचारमां-मर्यादामां ज मग्न रहे छे. आचार्यनो बीजो गुण अवलंबन छे. जेम कोई पुरुष खाडा विगेरेमां पडी जता होय तेने हस्तादिनुं अवलंबन आपवामां आवे तो तेनी रक्षा थाय छे अने पडतो बची जाय छे तेम आचार्य पण भवरूप गर्तामां पडी जतां गच्छने बचावे छे. तेमनो त्रीजो गुण छे स्तंभभूत. प्रासाद विगेरेने आधारभूत स्तंभो छे, ते न होय तो महेल, हवेली विगेरे मकानो टकी शके नहि तेम आचार्य पण गच्छना स्तंभरूप छे. तेमनी गेरहाजरीमां गच्छ टकी शके नहीं. वळी आचार्यने नेत्र समान कह्या तेनुं कारण ए छे के जेम दृष्टि जीवने शुभाशुभ बतावनार छे तेम गच्छने भावी शुभाशुभ दर्शावनार आचार्य छे. तेमने छेल्लुं विशेषण आप्युं छे श्रेष्ठ यान-जहाज. छिद्र विनानुं यान-नाव जेम समुद्रनो पार पमाडे छे तेम आचार्य संसाररूपी समुद्रथी पार पहोंचाडवाने शक्तिमान छे. आवा आचार्य जे गच्छमां होय ते सुगच्छ जाणवो अने तेवा गच्छमां वास करवो ते ज हितकारी छे. आ ग्रंथमां (१) आचार्यस्वरूपाधिकार, (२) साधुस्वरूपाधिकार अने (३) साध्वीस्वरूपाधिकार-ए प्रमाणे त्रण अधिकार आववाना छे. तेमां प्रथम आचार्याधिकार जणावे छे. सदाचारी आचार्य, लक्षण बताव्यु त्यारे शिष्य प्रश्न करतां पूछे छे के–“ उन्मार्गगामी आचार्यने केवी रीते जाणी शकाय? तेनां लक्षण क्या क्या छ ? " तेनो खुलासो जणावतां कहे छे के भयवं! केहि लिंगेहि सूरिं उम्मग्गपट्टियम् । वियाणिज्जा छउमत्थे, मुणी तं मे निसामय ।। ९ ।। [भगवन् ! कैलि., सूरिमुन्मार्गप्रस्थितम् । विजानीयात् छद्मस्थ:, मुने ! तन्मे निशामय ॥९] गाथार्थ - हे पूज्य ! ज्ञान-दर्शन रहित छास्थ जीव कया कया लक्षण-वडे सूरि-आचार्यने उन्मार्गगामी थयेला जाणी शके ते तमो मने संभळावो- कहो. ९ विवेचन-ऊपरनी आठमी गाथामां सन्मार्गगामी - सदाचारी आचार्यनां लक्षण जणाव्या तेनी साथे अर्थान्तरन्यासथी उन्मार्गगामी आचार्यनां लक्षणो पण जाणवा आवश्यक छे, कारण के त्यारे श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३९ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते बन्ने मुकाबलो (तुलना) थई शके. छद्मस्थ जीव केटलीक वखत खोटा अनुमानो बांधी ले छे माटे तेने दिशासूचन कराव्युं होय तो ते भूलने पात्र न बने. आ कारणथी भ्रष्टाचारी आचार्यनां लक्षण जाणवानी जिज्ञासा दर्शाववामां आवी छे. नीचेना १०-११ श्लोकथी ते हकीकत जणाववामां आवे छे. सच्छंदयारिं दुस्सीलं, आरंभे सुपवत्तयम् । पीढयाइपडिबद्धं, आउक्कायविहिंसगम् ॥ १० ॥ मूलुत्तरगुणब्भद्वं, सामायारीविराहयम् । अदिन्नालोयणं निच्वं, निच्चं विगहपरायणम् ॥ ११ ॥ [ स्वच्छन्दचारिणं दुःशील- प्रारम्भे सुप्रवर्तकम् । पीठकादिप्रतिबद्ध, अप्कायविहिंसकम् ॥ १० ॥ मूलोत्तरगुणभ्रष्टं, सामाचारीविराधकम् । अदत्तालोचनं नित्यं नित्यं विकथापरायणम् ॥ ११ ॥ गाथार्थ – (१) स्वच्छंदाचारी- पोतानी मरजी मुजब वर्तनार, (२) दुराचारी, (३) आरंभ-समारंभमां प्रवर्तावनार, (४) पाट-पाटलादि वगर कारणे वापरनार, (५) अप्काय जीवोनो अनेक रीते घात करनार, (६) अहिंसादिक मूळगुण अने पिंडविशुद्धि प्रमुख उत्तरगुणोथी भ्रष्ट थल- तेनुं परिपालन न करनार, (७) दश प्रकारनी सामाचारीनी विराधना करनार, (८) पोताना पापनी गुरु पासे आलोचना नहीं करनार तेम ज (९) राजकथा आदि चार विकथाओमां रक्त रहेनार आचार्यने उन्मार्गगामी जाणवा. १०-११ विवेचन – (१) स्वछंदाचारी - जिनरांजनी आज्ञा प्रमाणे न वर्ततां पोतानी मरजी मुजब वर्तन करे ते स्वच्छंदाचारी कहेवाय. स्वछंदाचारी कदी पण साचा मार्गनो स्वीकार करी शकतो नथी तेमज पोतामां तेवी स्थिति नहीं होवाने कारणे तेवा सत्य धर्मनो उपदेश पण आपी शकतो नथी एटले तेवा आचार्यना अवलंबनथी स्वश्रेयसिद्धि थई शकती नथी. (२) दुराचारी - ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार अने वीर्याचार-आ पंचाचारनो विराधक, तेनुं यथार्थ पालन न करनार तेमज उद्भट वेष धारण करवा उपरांत विपरीत क्रिया करनारने दुराचारी जाणवा (३) आरंभादिकमां रक्त — आरंभ, संरंभ अने समारंभ - ए त्रण प्रकार छे. पृथ्वीकायादिकने विषे प्रवृत्ति करे ते आरंभ कहेवाय. जेमके- सचित्त माटी- पृथ्वी आदिथी पोताना हाथ धोवे, मकान चणावे, खेती करावे; अप् (काचा सचित्त पाणी) थी स्नानादि करे, वस्त्रादि धोवे; तेउ- अग्निना दीवा बाळे, धूप करे; वाउ-वायु, पवन माटे पंखा राखे, चामर वींझावे, पोता पासे रहेल मुहपत्तिवडे पवन खाय, उघाडे मुखे बोले, मुखवडे फूंक मारे; वनस्पति-लीलोतरी खाय, दातण करे, तांबूल खाय, गाय, घोडा प्रमुखने घास चरावे, तेमज गंडोल, जळोक, अळसीयादिक बेइंद्रिय, मकोडादिक श्रीगच्छाचार- पयन्ना- ४० Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेइंद्रिय, माखी, मच्छर प्रमुख चौरिंद्रिय, मेना, पोपट प्रमुख तिर्यंचपंचेन्द्रिय, तेमज गाडा राखे, घोडा राखे, नोकर-चाकर दास-दासीवर्ग राखे, गृहस्थ पासे भार वहन करावे इत्यादिक त्रसकाय विगेरेनो आरंभ करे. ऊपर वर्णवेली सर्व क्रियाने विषे प्रवृत्ति करवानो विचार करे ते संरंभ कहेवाय अने विचार कर्या बाद ते-ते जीवोने कष्ट थाय, परिताप उपजे तेवू कार्य करे ते समारंभ कहेवाय. आ प्रमाणे पोते करे अथवा अन्यने प्रेरणा करे तेमज आवी प्रवृत्ति करनारने सारो माने अर्थात् तेनी अनुमोदना करे तो तेवा लक्षणवाळाने उन्मार्गगामी आचार्य जाणवो. आ आरंभादिक पापप्रवृत्तिनुं मूळ छे. का छे के–“संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवेसमारंभो। आरंभो उद्दवओ, सुद्धनयाणं तु सव्वेसिं ॥ १ ॥" अर्थात् जीवादिकने हणवानो विचार करवो ते संकल्प, जीवो परिताप उपजाववो ते समारंभ अने जीवोनी घात थाय एवं कार्य करवू ते आरंभ जाणवो. सर्व नयोनो जे ज्ञाता छे एटले के जे तत्त्वज्ञ छे ते त्रणे प्रकार- बराबर स्वरूप जाणीने ज प्रवृत्ति करे. (४) पीठ-फलकादि वापरनार - चातुर्मास व्यतीत थया छतां पण पीठ, फलक अने संथारादिक कारण विना वापरे. चातुर्मासमां ते ते वस्तुओनो उपयोग करवानुं अने ते सिवायनी ऋतुमां कारणे-प्रयोजन होय तो ज वापरवानुं श्रीजिनेश्वर भगवंतोए उपदेश्युं छे, छतां पण तेनो भोगवटो करे तो आज्ञाभंग थाय. आ माटे निशीथसूत्रना बीजा उद्देशामां का छे के–“जे भिक्खू उडुबद्धियं सेज्जासंथारयं परं पज्जोसवणाओ उवाइणेइ उवाइणितं वा साइज्जइ ति। निशीथसूत्रना चूर्णिकार पण कहे छे के–“उडुबद्धगहितं सेज्जासंथारयं पज्जोसवणरातीओ परं उवातिणावेइ तस्स मासलहु पच्छित्तं ।" अर्थात् जे कोई साधु चोमासा पहेला गृहस्थे अर्पण करेल शय्या अने संथारा पर्युषणाकल्प पछी एटले के कार्तिकी पूर्णिमा पछी पण राखे अथवा ग्रहण करी राखनारने सहाय करे तो तेने मासलघु प्रायश्चित आवे. शय्या अने संथारा संबंधी भेद पण जाणवा जेवो छे. जे सर्व शरीरप्रमाण होय ते शय्या अने अढी हाथ प्रमाण होय तेने संथारो कहेवाय. अगर जे चाले नहीं ते शय्या अने चाले ते संथारो अथवा जो तत्पुरुष समास लईए तो शय्या ए जसंथारो थाय. संथाराना बे भेद छे–(१) परिसाडी-संथारो करतां जेमांथी कंई पण पडे-खरे ते अने बीजो (२) अपरिसाडी- जेमांथी कंई पण पडे नहीं. परिसाडी संथाराना पण बे भेद छे–(१) झुसिर अने (२) अझुसिर. सालनो, पराल आदिनो पोलो ते झुसिर अने बीजो डाभ, तृण विगेरेनो पोलो नहीं ते अझुसिर. अपरिसाडीना पण बे भेद छे– (१) एकांगिक अने (२) अनेकांगिक. एकांगिकना पण बे प्रकार छे–(१) असंघातिम अने (२) संघातिम. असंघातिम एटले एक पाटियानो सांध्या वगरनो अने संघातिम एटले बे पाटियानो भेगो सांधेलो. अनेकांगिक एटले वांस प्रमुखनो, अनेक कांबीओ (कांठा)नो बनावेल. आटला प्रकार संथाराना बताव्या ते पैकी कोई एकनो कोई पण प्रकारे समय व्यतीत थया पछी उपयोग करे तो ते साधु मिथ्यात्वी उन्मार्गगामी कहेवाय. कारण के का छे के–“एते सामण्णयरं, संथारुडुबद्धि गेहए जो उ। सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥१॥" अर्थात् संथाराना जे जे प्रकारो दर्शाव्या ते पैकी कोई पण मरजीमां आवे ते संथारो ऋतु समय व्यतीत थया छतां पण राखे, लावे अने लावनारने सारो माने तो ते साधु-मुनि जिनेश्वर श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ४१ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवंतनी आज्ञानुं उल्लंघन करे छे, मर्यादानो लोप करे छे, मिथ्यात्वने सेवे छे अने पोताना संयमधर्मनी पण विराधना करे छे. निर्णीत करेला समय उपरान्त जो संथारो राखवामां आवे तो तेनी गवेषणादिकने कारणे सज्झायनो व्याक्षेप थाय, वळी संथारामां दीर्घकाळे जीवोत्पत्ति पण थाय अने तेने सम्यक् प्रकारे जोवे नहीं तो संजमविराधना थाय. कदाच जीवोत्पत्तिनी संभावना जाणी संथारो अर्पण करनार गृहस्थ कहे के ते मने पाछो सोंपजो, हुं बीजो आपीश तो पण ते बीजानी गवेषणादिकने कारणे स्वाध्यायमा स्खलना थाय, माटे शेष काळमां संथारो स्वीकारवो ज नही. जो स्वीकारे तो ऊपर जणावेल दोषापत्ति आवे. कदाच कोईने अज्ञानतामां तेQ कार्य थई गयुं होय तो तेने माटे शिक्षा जणावतां कहे छे के परिसाडी अझुसिर संथारो लावे तेने एक लघुमासनो दंड, परिसाडी झुसिर, एकांगिक संघातिम, एकांगिक असंघातिम अने अनेकांगिक-आ चार प्रकार पैकी कोई पण जातनो संथारो ग्रहण करे, बीजा पासे ग्रहण करावे तेमज ग्रहण करनारनी अनुमोदना करे तो तेने लघु चारमासी दंड (प्रायश्चित) आवे. आ बाबतमा प्रतिवादी तर्क उठावतां प्रश्न करे छे के–“तमे ऊपर जणावेल सूत्रमा तो पर्युषण पूर्वे ग्रहण करेल संथाराने पर्युषण पछी शेषकाळ राखवाथी दंड जणावेल छे अने तमे तो शेष काळमां लाववानो दंड जणावो छो तो ते केम घटी शके?" आ बाबतनो स्पष्ट जवाब आपतां सूत्रकार भगवंत कहे छे के–“ए सूत्र तो कारणने आश्रयीने कहेल छे. कोई साधु ग्लान होय, अणशन करवानो अभिलाषी होय अने भूमि शरदीवाळी होय तो तेवा कारणोने अंगे चोमासा उपरांत पण संथारो राखवो पडे तो पण पूर्वे ग्रहण करेल संथारो तो न ज राखवो, बीजो लाववो एम सूत्रनो भावार्थ छे. शेष काळमां पण संथारो लाववो एवो तेनो अर्थ ज नथी. आ प्रमाणे पीठ, फलक अने संथारादिकनुं जे स्वरूप का ते प्रमाणे वर्तन न करे तेने उन्मार्गगामी जाणवा. (५) सचित्त अपकायनो विराधक पण उन्मार्गगामी जाणवो. (६) मूळ तथा उत्तरगुणनो विराधक-आ उपरांत मूल तथा उत्तरगुणनो विराधक होय तेने पण भ्रष्टाचारी आचार्य जाणवो. सर्वथकी प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रहनो त्याग अने रात्रिभोजनविरमण ए छ मूळगुण छे अने पांच समिति, त्रण गुप्ति तथा स्नान न करवू, मुख तथा हस्तादि न धोवा, शरीरनी शोभा न करवी, वस्त्र धोवा तेमज रंगवा नही, बेतालीश दोष रहित गोचरी लाववी, गृहस्थ पासे काम न कराववं विगेर विगेरे उत्तरगुण छे. आ बन्ने प्रकारना गुणोथी जे रहित होय तेने उन्मार्गगामी जाणवा. (७) सामाचारीदूषक - पंचांगीमां वळी साधुओने रात्रि तेमज दिवसमां जे क्रिया करवानी कही छे, जे मर्यादा बांधी छे ते प्रमाणे न करे, आधीपाछी करे, ओछी-वधती करे ते सामाचारीना विराधक कहेवाय अने तेने पण उन्मार्गगामी जाणवा. (८) आलोयण नहीं लेनार-पोते जे पापवृत्ति करी होय अथवा तो निरंतर जे दोष लागता होय ते गुरु समक्ष प्रकट करी गुरु जे आलोयण-प्रायश्चित आपे ते स्वीकारी लेवू जोईए. प्रायश्चितने अंगे जे तपश्चर्यादि करणी करवानी कहे ते करवी जोईए, छतां पण ते प्रमाणे न करे तेने भ्रष्टाचारी श्रीगच्छाचार-पयन्ना-४२ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणवा. अत्रे आलोयणनो प्रसंग होवाथी तेने लगतुं वर्णन व्यवहारवृत्ति तथा जीतकल्प प्रमुख ग्रंथने अनुसारे करतां कहे छे के आलोयण आपनारना * बे प्रकार छे– (१) आगमव्यवहारी अने (२) श्रुतव्यवहारी. आगमव्यवहारी छ प्रकारनां छे–(१) केवलज्ञानी, (२) मन:पर्यवज्ञानी, (३) अवधिज्ञानी, (४) चौदपूर्वी, (५) संपूर्ण दशपूर्वी अने (६) नवपूर्वी. आ बधा प्रत्यक्ष ज्ञानवाळा छे एटले जे प्राणीने जेवो अतिचार लाग्यो होय ते संपूर्ण जाणे. तेमनी पासे आवी कोई पण व्यक्ति पोताने लागेला अतिचारो पैकी कोई अतिचार कहेतां भूली जाय अगर तो छुपावे ते समये ते पोते विचारे के-आने हुं तेनी भूल कहीश अने ते स्वीकारीने आलोयण लेशे तो तेने तेनी भूल कहे अने आलोयण आपे. वळी विचारे के-आ पोतानी भूल कबूलशे नही अने सत्य बोलशे नही, तो तेवी व्यक्तिने कांई पण कहे नही तेमज आलोयण पण न आपे. बीजा श्रुतव्यवहारी छे ते छेदादि ग्रंथने जाणनारा होय छे. पोतानी पासे आलोयण लेवा आवनारने तेओ त्रण वखत पूछीने खात्री करे छे के तेणे कंई कपट तो कर्यु नथीने. आलोयण लेनार कहे में सांभळ्युं पण अवधार्यु नथी. बीजी वार कहे सांभळ्यु, पण निद्रानो समय थयो होवाथी बराबर उपयोग रह्यो नथी त्यारे त्रीजी वार पूछे अने उपयोगपूर्वक बराबर कहे त्यारे छेदादिग्रन्थने अनुसारे तेने आलोयण आपे. जो आलोयण लेनार कपट राखे, भूलचूक के मायाप्रपंच करे तो तेने समजाववा निशीथचूर्णीना वीशमा उद्देशानुं नीचे प्रमाणे दृष्टांत कही संभळावे कोई राजाने सर्व लक्षणयुक्त एक अश्व हतो. ते दोडवामां अत्यंत वेगवाळो अने नदी, पर्वत आदि उल्लंघन करवामां अत्यंत चतुर तेमज शक्तिशाळी हतो. ते घोडाना आवा गुण-सामर्थ्यथी अन्य कोई पण राजा आ राजाने जीती शकवा समर्थ थतो नही. उलटुं आ राजाए बीजा अनेक राजाओने जीती खंडिया राजा बनाव्या, अने तेमनी पासे पोतानुं कार्य करावे. कोई पण राजानी आ राजा सामे थवानी के तेनी आज्ञानु उल्लंघन करवानी हिम्मत चालती नही. आवी परिस्थितिथी खंडिया राजाओ हृदयमां घणो ज परिताप पामवा लाग्या. कोई पण हिसाबे आ दुःख निवारण करवानो निर्णय को. एक राजाए सौ सामन्त राजाओने एकठा करी तेनो उपाय पूछ्यो त्यारे केटलाके का के–“जो अश्वनो विनाश करवामां आवे तो आपणी मनसिद्धि थाय, कारण के ते अश्वना उत्तम लक्षणोने अंगे ज ते राजा आपणो पराभव करे छे, परंतु ते अश्वनो घात करवो ते सरळ के सुगम कार्य नथी; कारण के ते अश्वने तो किल्लामां पूरी राखवामां आवे छे अने ते कोटनी फरतां घणा ज माणसोनो पहेरो रहे छे तेथी आ अत्यंत कठिन काम कोई करी शकशे नहि.” तेवामां एक बहादुर पुरुष राजा समक्ष आवीने कहेवा लाग्यो के–“हे राजन् ! ते अश्वने तो कोई रीते त्यांथी दूर करी शकाय तेम नथी, परंतु जो तमे आज्ञा करो तो हं तेने मारी नाखं." द्वेषी राजाए का-“भले तेम करो. एम करवाथी पण आपणो हेतु सरशे. ते घोडो तेनो पण नहीं रहे अने बीजाना उपयोगमां पण नहीं आवे माटे कोई पण प्रकारे तेनो घात करवानो उद्यम कर.” राजाज्ञा सांभळी ते पुरुष अश्वना स्वामी राजानी पासे गयो अने तेनी सेवाभक्ति करवा लाग्यो. तेनी अत्यंत सेवाभक्ति, सुहृदयता अने आज्ञांकितपणुं जोई राजाने पण तेना पर विश्वास आव्यो एटले तेने योग्य वेतन आपी नोकरीमां * आज ग्रंथमां आगळ पांच प्रकार पण दर्शावेल छे. श्रीगच्छाचार–पयन्ना– ४३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राखी लीधो. हवे ते पुरुष पोतानी कार्यसिद्धि माटे झीणा-झीणा कांटा जेवा तीर बनाव्या अने ते तीरोने तेणे नाना बाणद्वारा घोडाने गुप्त रीते मार्या. ते बधा तीरो झीणा कांटानी जेम अश्वना अंगमा प्रवेश करी गया तेथी घोडाने शल्यनी माफक दुःख थवा लाग्युं दुःख दिवसे दिवसे वधवा लाग्यु गुप्त वेदना सहन न थवाथी ते दुर्बल बनवा लाग्यो. सजाए एकदा तपास करी तो अश्वनी कांति अने अंगसौष्ठवमा परिवर्तन जोडे. तेणे राजवैद्यने बोलावी का के–“हमेशां आ अश्व लीला जवर्नु भक्षण करे छे छतां दुर्बल केम बनतो जाय छे? माटे तेनी व्याधिनी परीक्षा करी तेनी बराबर चिकित्सा करो.” वैद्ये उपचार करवा मांड्या पण मूळ व्याधि बराबर न समजवाथी तेना बधा औषधोपचार निष्फळ नीवड्या. विचक्षण वैद्य विचारमां पडी गयो. तेणे पोताथी बने तेटला उपायो अजमावी जोया. बाद मनमां निर्णय को के–“अश्वने धातुविकारनो व्याधि तो नथी ज, इच्छानो व्याधि छे. तेना शरीरमां जरूर शल्य होवू जोईए.” छेवटे तेणे छेल्लो उपाय अजमाव्यो. अश्वना समग्र शरीरे लीली माटी, विलेपन कराव्यु एटले जे जे स्थळे झीणा तीरनुं शल्य हतुं ते ते स्थानो एकदम अंदरनी ऊष्माने कारणे सुकाई गया; एटले वैद्ये ते ते स्थळोए जरा जरा खोदी, त्यांथी झीणा झीणा तीर बहार खेंची काढ्या अने पछी रोहिणी औषधीद्वारा ते बधा व्रण रूझावी दीधा. आप्रमाणे युक्तिथी वैद्ये अश्वने निरोगी-नि:शल्य बनाव्यो. आवी जरीते बीजा अश्वनो पण वृत्तांत जाणवो. तेमां विशेष ए के-तेना शरीरमा रहेल झीणा तीर नीकळ्या नहीं अने अंते ते अश्व वेदनायुक्त मरण पाम्यो. आ दृष्टांतनो उपनय आ प्रमाणे समजवो-चेतनरूपी राजा छे. तेनो मनरूपी अश्व छे. ते चारित्ररूपी लक्षणोथी युक्त छे. तेना प्रभावथी मोहराय चेतनने जीती शकता नथी. उलटुं चेतनराज मोहराजाने दुःख देवा लाग्या अने शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्शादि जे मोहराजानुं राज्य छे ते उज्जड करवा लाग्या. वळी तेना सोळ कषाय अने नव नोकषायरूपी सामंतोने पण हेरान करी मूक्या. समकितमोह, मिथ्यात्वमोह अने मिश्रमोहरूपी त्रणे पराक्रमी पुत्रोने पण हणी नाख्या. आथी मोहराजा अत्यंत कोपायमान थयो परंतु लक्षणयुक्त अश्वना प्रभावथी तेनुं कईं पण जोर चाल्यु नहीं. पछी मोहराये सर्व सुभटोने एकठा कर्या अने पोतानुं दुःख कांही संभळाव्युं त्यारे एक सुभटे का-“हे महाराज ! ते अश्वने तो नव कोटी पच्चक्खाणरूप किल्लामां पूर्यो छे माटे तेनुं कोई पण रीते अपहरण थई शके नहीं, छतां तमारी आज्ञा होय तो हुँ तेने मारी नाखुं.” मोहराजाए तेवी आज्ञा करवाथी ते सुभट चेतनराजनो सेवक बन्यो अने गुप्तपणे मूळगुण तथा उत्तरगुणना अतिचाररूप झीणा-झीणा तीर मारवा लाग्यो. आथी अश्व शल्यवंत बन्यो. चेतनराजे विचार्यु के–“हुं तप-जपरूपी अनेक लीला जव अश्वने आपुं छु छतां ते दुर्बळ केम बने?” तेथी चेतनराजे आचार्यरूप वैद्यने बताव्यो अने तेमणे पण परीक्षा करी का के–“तेने मिथ्यात्वरूप मोहनो व्याधि नथी पण अतिचाररूप शल्य छे.” पछी त्रण वखत पृच्छा करवारूप आलोयण आपी अने शल्य काढी नाख्यु तेमज जे व्रण पड्या हता ते तपरूप औषधवडे रूझावी दीधा. आथी मनरूप अश्वं पुनः निरोगी थयो अने तेना प्रभावथी चेतनराय पर मोहराजानुं कई पण जोर चाली शक्युं नही. आवी ज रीते बीजा अश्वना शल्य नीकळ्या नही तेथी ते मृत्यु पाम्यो अर्थात् चारित्र नष्ट थयुं एटले श्रीगच्छाचार-पयन्ना-४४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतनरायने मोहराजाए चोराशी लाख जीवयोनिमां भटकाव्यो. हे साधु ! जो तुं पण कपट राखीश-शल्य राखीश तो तारा मनरूपी अश्वने लक्षण रहित बनावीने मोहराजा मरावी नाखशे, ताराथी मोक्षप्राप्ति थई शकशे नही, जन्ममरणादिक दुःखो भोगववा पडशे माटे सम्यक्प्रकारे आलोचना कर-प्रायश्चित स्वीकार. आलोचना कोनी पासे लेवी ? __ ऊपर पोताने लागेला अतिचार संबंधी प्रायश्चित लेवानी आवश्यकता दर्शावी. हवे आलोचना कोनी पासे लेवी ते बाबत जणावतां कहे छे के-आलोयण पोताना गच्छना आचार्य पासे लेवी. का छे के–“आयरियाइ सगच्छे, संभोइयइयरगीअपासत्थे । सारूवीपच्छाकङ-देवयपडिमाअरिहसिद्धे ॥१॥" अर्थात् (१) स्वगच्छना आचार्यादिक पासे, (२) एक ज सामाचारीवाळा अन्य गच्छना आचार्यादिक पासे, (३) गीतार्थ पासत्था पासे, (४) गीतार्थ सारूवी पासे, (५) गीतार्थ पच्छाकड़ पासे,(६) देव पासे,(७)जिनप्रतिमा पासे अने छेवटे,(८) अरिहंत, सिद्धभगवंतनी साक्षीए आलोयणा लेवी. श्रीव्यवहारसूत्रनी टीकामां आ संबंधी विशेष वर्णन आपवामां आव्युं छे. तेमां ते संबंधे का छे के-आलोयणा स्वगच्छना आचार्य पासे लेवी. तेना अभावमा उपाध्याय पासे, ते न मळे तो प्रवर्तक पासे, ते न मळे तो स्थविर पासे अने ते पण न मळे तो गणावच्छेदक* पासे आलोयण लेवी उचित छे. आम पांचे अनुक्रमे लेवा. आचार्य होवा छतां उपाध्याय पासे, अने उपाध्याय होवा छतां प्रवर्तक पासे प्रायश्चित ग्रहण न कराय. दैवानुयोगे स्वगच्छना ऊपर जणावेल पांच पैकी कोईनो पण सहयोग न होय तो पोताना गच्छनी सामाचारी पाळता बीजा आचार्यादिकनी पासे आलोयण लेवी. तेमां पण प्रथम आचार्य, तेना अभावमा उपाध्याय इत्यादिक पांचे प्रकारो समजी लेवा. आ प्रमाणे अन्य गच्छनो पण संयोग न थाय तो गीतार्थ पासत्था पासे आलोयणा लेवी. ते पण न मळे तो गीतार्थ सारूवी पासे लेवी. लिंगमात्र स्वीकारीने गृहस्थपणे जे रहेल होय तेने गीतार्थ सारूवी कहेवाय. तेनो पण अभाव होय तो गीतार्थ पच्छाकड पासे लेवी. जेणे प्रथण चारित्र स्वीकार्य होय अने पछी मूकी दीधुं होय, गृहस्थपणे रहेलो होय तेमज शास्त्रनो बोध होय तेने गीतार्थ पच्छाकड कहेवाय. जो गीतार्थ पासत्था के गीतार्थ सारूवी पासे आलोयण लेवानो प्रसंग आवे तो तेमनो आदरसत्कार करवो तथा वांदणा देवापूर्वक सर्व मर्यादा साचववी, छतां पण पासत्थादिक पोते मनमां एम विचार करे के - मारामां तो कोई पण प्रकारनो गुण नथी माटे हुं शा माटे वंदावू? अने तेम विचारीने वांदवानो निषेध करे तो तेओने बेसवा माटे आसन आपी, प्रणाम करी आलोयणा लेवी. गीतार्थ पच्छाकड पासे आलोयण लेवी पडे तो तेने थोडा समयनी सामायिक उच्चरावीने, साधुवेष पहेरावीने विधिपूर्वक आलोयण लेवी. कदाच पासत्थादि वंदाववानी अभिलाषा करे तो तेमने एकांतमां वंदन करवू, पण जनसमूह देखतां वंदन करवू नहीं कारण के __ * गणना अमुक विभाग (थोडा साधुओ)ने लईने गच्छनी पुष्टि माटे तथा उपधिनी गवेषणा निमित्ते विचरे तेने गणावच्छेदक कहेवामां आवे छे..... . x वर्तमान काळे गीतार्थ पासत्था, सारुवी के पच्छाकड विगेरे पासेथी प्रायश्चित ग्रहण करवानुं प्रचलित जणातुं नथी. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-४५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेम करवाथी शासननी हीलना थाय. ___ हवे ऊपर कह्यो तेवो कोई पण योग न मळे तो देव पासे आलोयण लेवी. कोरंटकादिक चैत्य, गुणशीलादिक चैत्यमां भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी तथा श्रीवर्द्धमानस्वामी प्रमुख तीर्थंकर अगर तो गणधरभगवंतो समवसर्या होय अने तेओए साधुओने जे प्रायश्चितो आप्या होय ते त्यांना चैत्यना अधिष्ठायक देवे सांभळ्या होय तेथी तेवा देव पासे पण आलोयणा लेवी. ते समकिती देवनी आराधनार्थे अठ्ठम तप करवो अने तपश्चर्याना प्रभावथी आसन चलायमान थवाथी ज्यारे ते प्रगट थाय त्यारे तेने पोतानो अतिचार जणावीने जे प्रायश्चित आपे ते ग्रहण करवू. कदाच ते अधिष्ठायक देव च्यवी गयो होय अने तेने स्थाने बीजो देव उत्पन्न थयो होय तो अठ्ठम तप करवाथी ते आवे अने कहे के—“हुँ महाविदेह क्षेत्रमा तीर्थंकर भगवंतने पूछीने आवं." पछी आज्ञा लईने महाविदेहमां जाय अने तीर्थंकर भगवंते जे आलोयण दर्शावी होय ते साधुने जणावे अने ते प्रमाणे आचरण करे. आ प्रमाणे पण न बने तो अरिहंत परमात्मानी प्रतिमा पासे एटले के जिनचैत्यमा जई, पोताना पाप प्रकाशी, पोते प्रायश्चित आपवानुं जाणतो होय तो आपमेळे सूत्रोक्त विधिपूर्वक अंगीकार करे. परंतु जिनचैत्य पण न होय तो अरिहंत या सिद्धनी साक्षीए आलोयण ले एटले के पूर्वदिशा अगर तो उत्तर दिशा सन्मुख ऊभो रही, पोताना पाप प्रकाशी, सूत्रानुसार प्रायश्चित स्वीकारे. आ पद्धति भणेलाए ग्रहण करवानी छे. पोते जाणकार होय अने ऊपर दर्शावेल आचार्यदिकनो योग होवा छतां आपमेळे कपट राखी आलोयण स्वीकारे तो ते मिथ्या जाणवी, कारण के कपटपूर्वकनी क्रिया निष्फळ ज छे. वळी आलोयणनी महत्ता दर्शावतां कहे छे के–“सल्लुद्धरणनिमित्तं, खित्तंमि अ सत्तजोअणसयाइं । कालेण बारवरिसा, गीयत्थगवेसणं कुज्जा ॥ १ ॥" अर्थात् पोताना पापरूपी शल्यने निर्मूळ करवाने माटे सातसो योजन सुधीमा आचार्यादिक तो होय त्यां जाय अने बार वरस पर्यंत तेवा गीतार्थनी राह जुए. आवी रीते शास्त्रोक्त विधिथी जे आलोचना करे ते शुद्ध आलोयण कहेवाय. (९) विकथा-रक्त - हवे नवमुं लक्षण दर्शावता कहे छे केते हमेशां विकथा करवामां आसक्त रहे. चार प्रकारनी शुभ कथा छे, अने तेनाथी विपरीत विकथा सात प्रकारनी छे. स्थानांगादि सूत्रोमां तेनुं वर्णन करवामां आव्युं छे."चउव्विहा कहा पन्नता, तंजहा-अक्खेवणी १, विक्खेवणी २, संवेयणी ३, निव्वेयणी ४। वीतराग परमात्माए चार प्रकारनी कथा कहेली छे. (१) अक्खेवणी, (२) विक्खेवणी, (३) संवेयणी अने (४) निव्वेयणी. (१) अक्खेवणी-आक्षेपणी कथा एटले ज कथाथी श्रोता संसार परत्वेनो मोह त्यजी दई तत्त्वनी वात ग्रहण करे-तत्त्वनी वातमा लयलीन बने ते. (२) विक्खेवणी-विक्षेपणी कथा एटले जे कथा सांभळवाथी श्रोता- मन-चित्त कुमार्गथी पार्छ हटे-कुमार्ग छोडी देवा तत्पर बने ते. (३) संवेयणी - संवेदिनी कथा एटले जे कथा सांभळवाथी श्रोताने मोक्षनी अभिलाषा थाय ते. (४) निव्वेयणी-निर्वेदिनी कथा एटले श्रोतानुं मन संसार परथी उतरी जाय ते. हवे ते प्रत्येक कथाओना भेदो दर्शावतां प्रथम आक्षेपणी कथाना प्रकार कहे छे के–“आयारे १ ववहारे २, पन्नती ३, चेव श्रीगच्छाचार–पयन्ना-४६ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिट्ठीवाए य४ । एसा चउब्विहा खलु, कहा उ अक्खेवणी नाम ॥ १ ॥" आक्षेपणी कथाना चार भेद छे—आचार, व्यवहार, प्रज्ञप्ति अने दृष्टिवाद. आचार एटले श्रोताने साधुओनो आचार बताववो, एटले के साधुए लोच करवो, उघाडे पगे विहार करवो, जोई-तपासीने (ईर्यासमितिपूर्वक) चालवू, उघाडे मुखे न बोलवू, प्राण जाय तो पण सचित्त पाणी न पीयूँ इत्यादि आचार दर्शाववो ते. आ प्रमाणे कहेवाथी श्रोता सम्यकत्त्व पामे अने बीजा मिथ्यात्वीना पाशमां न फसातां आवी क्रियावाळा शुद्ध गुरु होय तेने ज वांदे. बीजो भेद व्यवहार एटले साधुनो व्यवहार दर्शावे के-कोईनी सोय मांगी लाव्या होय अने प्रमादथी देवी भूली जवाय अने रात रही जाय तो एकमासीनो दंड आवे, कोई गृहस्थादि पासे पग चंपावे अगर तो मसलावे तो निशीथसूत्रमा कहेल चारमासी दंड आवे, एवी ज रीते गृहस्थनी भाषा बोले अगर तो गृहस्थ पासे बोजो वहन करावे तो पण दंड आवे-आ प्रमाणे कहेवाथी श्रोतानुं मन मिथ्यात्वथी उतरी जाय अने शुद्ध संयमना पालक साधु प्रत्ये अनुराग प्रगटे. त्रीजो भेद पन्नती छे, एटले के कोई श्रोताना मनमा शंका उपजे अने ते गुरुने पूछे तो तेने मधुर वचनथी जवाब आपे, तेने जीवाजीवादि तत्त्वोमां श्रद्धा उपजे अने मनमां एवो निर्णय थाय के साधु हितकारक कहे छे अने मनमां लेशमात्र पण रोष नथी. आ प्रमाणेना वर्तनथी श्रोताजन वधु दृढ बने छे. चोथो भेद दृष्टिवाद छे एटले के श्रोता समजु-ज्ञानवंत होय तो तेने जीवाजीवादिक तत्त्वोनुं सूक्ष्म वर्णन समजावे-कहे जेथी श्रोताना मनमां आश्चर्य उत्पन्न थाय के आवं सूक्ष्म-तलस्पर्शी ज्ञान वीतराग परमात्मा सिवाय कोण कही शके? आ प्रमाणे तेने समकित प्रत्ये दृढ अनुराग थाय. आ चार भेदो आक्षेपणी कथाना छे. केटलाक आचार्यों आ चार भेदोना अर्थ ते ते नाम प्रमाणेना सत्रो कहे छे. आचारांग व्यवहारसत्र. प्रज्ञापना अने दष्टिवाद. आदि शब्दथी बीजा पण भेदो जाणवा, परंतु मुख्यपणे आ चार भेद कह्या छे. हवे आक्षेपणी कथानो रस वर्णवतां कहे छे के–“विज्जाचरणं च तवो, पुरिसक्कारो य समिइगुत्तीओ। उवइस्सइ खलु जहियं, कहाइ अक्खेवणीइ रसो ॥ १ ॥" अर्थात् भावरूप अंधकार-अज्ञाननो नाश करनार ज्ञान ते विद्या, संचित कर्मनी निर्जरार्थे जे तपश्चर्यादि करवामां आवे ते तप, कर्मरूपी शत्रुने हणवा माटे जे उद्यमशीलपणुं ते पुरुषार्थ, पांच समिति अने त्रण गुप्ति-आवा प्रकारनी जे कथा करवी - उपदेश आपवो ते आक्षेपणी कथा- रहस्य छे. विक्षेपणी कथाना चार भेद दर्शावतां कहे छे के “पुब्बि ससमयं कहित्ता परसमयं कहेइ, ससमयगुणे दीवेइ परसमयदोसे उवदंसेइ एसा पढमा १ । पुदि परसमयं कहित्ता तस्सेव दोसे उवदंसित्ता पुणो ससमयं कहेइ गुणे उवदंसेइ एसा बिइया २ । मिच्छावायं कहित्ता सम्मावायं कहेइ, परसमयं कहित्ता तेसु चेव परसमएसुजे भावा जिप्पणीएहिं भावेंहि सह विरुद्धा असंता चेव विअप्पिआ ते पुट्वि कहित्ता दोसा य तेसिं भणिऊण पुणो जिणप्पणीयभावसारिसा घुणक्खरमिव कहवि सोभणा भणिया ते कहेइ अहवा मिच्छावाओ नत्थित्तं सम्मावाओ अस्थित्तं, तत्थ पुव्वि नाहियवाईण दिडीओ कहित्ता पच्छा अत्थित्तपक्खवाईणं दिट्ठीओ कहेइ एसा तइया ३ । सम्मावायं कहित्ता मिच्छावायं कहेइ सोवि श्रीगच्छाचार-पयन्ना-४७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं चेव नवरं पुटिव सोभणे कहेइ पच्छा इयरे त्ति चउत्था ४।" अर्थात् पोतानो धर्म संभळावीने तेना गुण- वर्णन करे के-आ जैनमत जेवो बीजो कोई पण श्रेष्ठ धर्म नथी. ते अहिंसामय छे, ते विनयमूळ धर्म छे, एनी सदुपासना करनार स्वर्ग अने प्रांते मोक्षलक्ष्मीनो भोक्ता बने छे इत्यादि. आ प्रमाणे प्रथम स्वधर्मनी श्रेष्ठता दर्शावी परमतना दोष दर्शाववापूर्वक कहे के-जैनधर्म सिवायना बीजा धर्मो दोषयुक्त छे. परधर्मीओ काचा-सचित्त पाणीवडे स्नान करी असंख्याता जीवोने हणी नाखे छे, पंचाग्नि तप करी तेमां तेउकायना अनेक जीवोनो संहार करे छे. तपश्चर्या करे छे पण ते अज्ञान कष्ट छे, कारण के अनंत जीवोना स्थानभूत अनंतकाय-कंदमूळ अने अभक्ष्य फळो खाय छे तेमज राक्षसनी पेठे रात्रिभोजन पण करे छे. एवी रीते अन्य दर्शनोना दूषणो देखाडी स्वधर्मनी पुष्टि करे ते प्रथम भेद. पुब्वि परसमयं..... अन्य मतोनी वात करी तेनुं मिथ्यापणुं सिद्ध करी बतावे. विष्णुमार्गी कहे छे के - विष्णुए ज आ जगत रच्यु-उत्पन्न कर्यु. जगतना जीवोने ते उत्पन्न करे छे अने मृत्यु पण ए ज पमाडे छे परन्तु आ कथन वृथा छे. जो विष्णु प्रथम जीवोने जन्मावी सुखो आपे अने पाछो मृत्यु पमाडतो होय तो तेने बाळहत्या-जनहत्यानो दोष लागे. बाळहत्या-जनहत्या करनार तो आ लोकमां महापातकी-महाघातकी गणाय छे. एवी व्यक्तिनं नाम पण केम लेवाय? अने तेनी पूजनादि क्रिया संभवी ज केम शके? विष्णुनुं जगत्कर्तृत्व कदी घटी शकतुंज नथी. आवी रीते विष्णु मतनो निरास कर्या पछी ब्रह्मवादी संबंधी कहेवू के-सर्व जीवाजीव ब्रह्मस्वरूप छे ते पण खोटुं छे, कारण के तेम मानवाथी तप-जपादिक क्रिया अने धार्मिक करणी निष्फळ बने छे. जो बधा ज ब्रह्मस्वरूप होय तो सर्वनी सरखी बुद्धि होवी जोईए अने एक -बीजी व्यक्तिनी वच्चे जे भिन्नता-विचारभेद अने असंगतता जोवामां आवे छे ते कदी होई शके नहीं. आ रीते ब्रह्ममतने मिथ्या जणावी, सांख्य, मीमांसकादि दर्शनोनु निष्फळपणुं दर्शावी स्वमत-जैनमतनी पुष्टि करवी. स्याद्वाद सिद्धांतनी अपूर्वता जणाववी अने स्वमतनुं अविसंवादपणुं प्रगट करवू-आ बीजो भेद. मिच्छावायं कहित्ता सम्मावायं कहेइ.... मिथ्यावादनुं कथन करीने पछी सम्यग्वादनुं निरुपण करवू. परदर्शननी वात करीने तेमां जे जे स्थाने दोषापत्ति होय ते दर्शावे अने तेनी साथोसाथ जैनदर्शनमां जणावेल विशिष्टता देखाडे. दाखला तरीके भागवतमां एक एवो उल्लेख छे के पंडित लोक धनिक लोको पासे शा माटे जाय? वस्त्र लेवा माटे. त्यारे जणाववामां आवे छे के शुं वस्त्रो रस्तामां नथी मळतां के धनिक वर्ग पासे जवू पडे? रस्तामां जे वस्त्रना टुकडा पड्या होय ते ग्रहण करी, तेने धोई, तेनी कंथा बनावीने पहेरवी. आ हकीकतनो जैन सिद्धांतानुसार विरोध दर्शाववो के रस्तामां पण पडेला वस्त्रो ग्रहण करवाथी अदत्तादाननो दोष लागे, वस्त्र धोवाथी जीवहिंसा थाय अने कंथामां जीवोत्पत्ति थवाथी तेनी जयणा न रहे. आप्रमाणे दोष देखाडी तेने अनुरुप जैन-आम्नाय समजाववो. जैन साधुओ वस्त्रादि मांगवा माटे जता नथी ते तेनुं नि:स्पृहपणुं जाणवू. आ कारणथी वस्त्रादिनी भिक्षा माटे गृहस्थवर्ग पासे जवानुं वर्ण्य गण्युं छे. आवी रीते मिथ्यामतनुं वर्णन करी, तेनी निरुपयोगिता दर्शावी आस्तिक मतनी सिद्धि करे ते त्रीजो भेद. श्रीगच्छाचार-पयन्ना– ४८ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मावायं कहित्ता मिच्छावायं कहेइ..... पहेला सम्यग्वाद कहीने पछी नास्तिक मत कहे. तेनी हकीकत ऊपरना त्रीजा भेदनी जेवी ज समजवी, परंतु पहेला जैन मतनु श्रेष्ठपणुं दर्शावी पछी बीजा दर्शनोनी वात करे तेमज दोषस्थान वर्णवे-आ चोथो भेद. संवेदनी कथाना चार भेद छे – (१) आयसरीरसंवेयणी - आ शरीर अशुचिजन्य छे. ते शरीर शुक्र अने रुधिर आदिथी बंधायेल छे. वळी आ शरीरने विषे पण मांस, चरबी, मेद, हाडका, मज्जा, चामडी, नसो, रोमावलि, नख, दांत, आंतरडा विगेरे दुर्गंधमय अवयवो छे. वळी आ शरीरने विषे मळ, मूत्र भरेला छे. आवा शरीरने धोवाथी पण शुं ते शुद्ध थाय? हाडकाने वारंवार धोवाथी जो ते शुद्ध थाय तो आ शरीरने वारंवार धोवाथी शुद्ध थाय पण ते असंभवित छे, कारण के हाडकुं कदापि शुद्ध थतुं नथी. आवी रीते वर्णन करी श्रोतानी शरीर प्रत्येनी रुचि ओछी करे. शरीर संबंधी आचारने ज श्रेष्ठ मानता होय तो ते भ्रमणा टाळी, संवेग उपजे तेवी कथा करवी ते प्रथम भेद. (२) परसरीरसंवेयणी - जेवी रीते पोताना शरीर- अशुचिमय वर्णन कर्यु तेवी रीते पारकाना शरीरनी वात करवी. मृत्यु पछीना शब विषे वर्णन करतां सांभळनारने संवेग उपजे तेवं वर्णन करवू ते बीजो भेद. (३) इहलोयसंवेयणी- आ मनुष्योना शरीर असार छे, अनित्य तेमज अध्रुव छे. केळना थंभ सरखी आ कायानी शोभा शा माटे करवी? कोई हमेश माटे रहेवानुनथी तो एवा नाशवंत शरीरनी विभूषा शी? आ प्रमाणे वात करी संवेग उपजाववा प्रयत्न करवो ते त्रीजो भेद. (४) परलोयसंवेयणी-परलोक संबंधी दुःख-दर्शन करावी श्रोताने संवेग उपजाववो. देवोने पण परस्पर ईर्ष्या होय छे, तेओ एक-बीजानो उत्कर्ष सहन करी शकता नथी. वळी क्रोध, मान, माया अने लोभने वश पडीने दुःखी थई रह्या छे. लोभने वशीभूत बनीने अनेक प्रकारनी चिंताओ करे छे अने मननी समाधि रहेती नथी. देवगतिमां पण आवा प्रकारचं दुःख छे तो बीजी त्रण गतिनी तो वात ज शी करवी? मनुष्य अने तिर्यंचगतिना प्रत्यक्ष दुःख नजरे जोवाई रह्या छे. आ बन्ने गतिमा सुख, बिन्दु पण नथी. वळी नरकगतिना दुःखनुं तो वर्णन ज शा माटे करवू? नरक एटले तो दुःखनो सागर. आ रीते कथा कहीने श्रोताने संवेग-ज्ञानगर्भित वैराग्य उपजाववो ते चोथो भेद. निर्वेदनी कथा पण चार प्रकारे छे. (१) इहलोए दुच्चिण्णा कम्मा इहलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति - आ लोकमां जे कुपथगामी बने छे अगर तो दुष्कर्म करे छे तेने ते ते अशुभ कर्त्तव्यो आ ज लोकमां संतापदायक थाय छे. जेम कोई चोरी करे, परस्त्रीगमन करे अथवा विषयलंपटी बने तो तेने लगता अशुभ पापथी आ ज लोकमां दुःखविपाक भोगववो पडे छे, कारण के राजा शिक्षा करी कारागृहमां नाखे, लोको अपमान-तिरस्कार करे, अपकीर्ति प्रसरे, अन्यनो विश्वास ओछो थई जाय अने धनहानि थाय. आ प्रमाणे श्रोताने समजावी पापकार्यथी पाछो वाळे, पापकृत्य करवाथी भवभीरु बनावे ते प्रथम भेद. (२) इहलोए दुच्चिण्णा कम्मा परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति-आ भवमां करेला अकृत्यो परलोकने विषे अतिशय दुःखदायक थाय छे. आवा प्रकारना पापोदयने कारणे जीव नरकमां पडे. नरकनां महादुःखो सांभळतां पण शरीरे कमकमाटी छूटे तो ते दुःखो सहन तो शी रीते थई शके ? नरकमां क्रूर, जंगली पशुओ फाडी खाय, श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ४९ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊंधा टांगे, परमाधामी देवो करवतथी कापे, तृषानी इच्छा थाय त्यारे उकाळेलुं तप्त शीसुं पीवरावे, शीतनी इच्छा थाय त्यारे करवत जेवा पांदडावाळा वृक्ष नीचे लई जाय. परस्त्रीगमन करनार शख्सने तपावेला लोहस्तंभ साथे आलिंगन करावे, आ प्रमाणे परलोकना दुःखदायी स्वरूपनुं वर्णन करी श्रोताने पापकार्यथी निवृत्त करे ते बीजो प्रकार. (३) परलोए दुच्चिण्णा कम्मा इहलोए दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति - पूर्वभवमां करेला दुष्ट पापकारी कार्योथी आ लोकमां दुःखपरंपरा प्राप्त थाय छे, तिर्यंचो केटलुं कष्ट भोगवे छे? गमे तेटलुं दुःख थाय तो पण वाचाद्वारा कही शके छ ? मालीक ओछु-वधतुं खावापीवानुं आपे अगर तो विशेष पडतो बोजो वहन करावे तो पण कोईनी पासे फरियाद करी शके छे ? सदैव पराधीन दशामां ज रहेवू पडे छे. आ उपरांत केटलाक मनुष्यो जन्मथी ज व्याधिवाळा, टुंठा, लूला, लंगडा अने पांगळा थाय छे ते पण पूर्वभवना पापकृत्य- ज परिणाम छे. चंडालादि नीच कुळमां जन्म थवो, दरिद्री अवस्था प्राप्त थवी, आदर-सत्कार न मळवो, भूख अगर तो तृषानुं दुःख सहन करवू विगेरे विगेरे वर्णन करी श्रोताने पापकार्यथी पाछो वाळवो ते त्रीजो प्रकार. (४) परलोए दुच्चिण्णा कम्मा परलोए एव दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति - पूर्वभवमां एकत्र करेल पापपुंज परलोकमां अत्यंत कष्टकारक थाय छे. बांधेला पापकर्मने योगे जीव नरकमां जाय, त्यां नरकभूमिनां अकथनीय अने असह्य संकटो सहन करे, क्रूर पक्षीओ देहने फोली खाय, कुंभीपाकमां पकावे, वैतरणी नदीमां उतारे, धगधगता अग्निकुंडमां फेंके, झेरी पशुओना डंख देवरावे, शरीरना सरसव जेटला टुकडा करी नाखे-आ प्रमाणे अवर्णनीय दुःख सहन करीने पण आयु पूर्ण थये पाछो तिर्यंच योनिमां जन्मे, त्यां पण पारावार कष्ट सहन करी धर्म भावनाना अभावमां पाछो दुर्गतिमां जाय. जो तेने धर्मभावना स्फुरे नहीं अगर तो पुण्यसंचय न थाय तो आ भवपरंपरा चालु ज रहे. आ प्रमाणे वर्णन करी श्रोताने वैराग्यवासित बनावे ते चोथो प्रकार. आ वर्णनमां कथन करनार व्यक्तिनी अपेक्षाए इहलोक अने परलोक समजवा प्ररूपणा करनार-व्याख्याता मनुष्य होवाथी मनुष्यलोक ते इहलोक अने बाकीनी त्रणे गति (देव, तिर्यंच अने नरक) परलोक समजवी. ऊपर वर्णवेली चारे प्रकारनी कथाओ प्ररूपनारनी अपेक्षाए (१) अकथा, (२) कथा अने(३) विकथा थई शके छे. ते केवी रीते संभवी शके ? ते संबंधमां जणावतां कहे छे के–“मिच्छतं वेयन्तो, अन्नाणी जं कहं परिकहेइ ॥ लिंगत्थो वागिही वा, सा अकहा देसिया समए ॥ १ ॥” अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीयना उदयवाळो एटले के मिथ्यात्वी तेमज अज्ञानी एवो कोई पण लिंगधारी एटले के साधुनो वेष धारण कर्यो होय परंतु समकित जेने स्पयुं नथी ते तेमज गृहस्थ जे कंई पण कथा करे-कहे तेने सिद्धांतने विषे अकथा कहेल छे. द्रव्यलिंगी-मात्र वेषधारी कोने कही शकाय? ते समजवाने माटे अंगारमर्दकाचार्य- कथानक शास्त्रकार महाराज जणावे छे. अंगारमर्दकाचार्य- दृष्टांत कोई एक नगरने विषे एक आचार्य महाराज पोताना शिष्य-परिवार साथे स्थिरता करी रह्या हता तेवामां एक दिवसे तेमना एक शिष्यने रात्रिसमये स्वप्नु आव्युं स्वप्नामां तेणे जोयु के-एक श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ५० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाशूकरनी पाछळ पांच सो हस्तिओ चाल्या आवे छे. शिष्य आ स्वप्ननुं रहस्य समजी शक्यो नहीं. तेणे आ स्वप्ननो अर्थ समजवा स्वयं घणो विचार कर्यो परंतु तेनी बुद्धि तारतम्य समजवा निष्फळ नीवडी. छेवटे तेणे ते हकीकत पोताना गुरुने जणावी तेनुं रहस्य पूछयु. विचक्षण गुरुए तात्कालिक जवाब आपतां जणाव्यं के – “" हे सुज्ञ शिष्य ! आजे आ नगरमां पांच सो शिष्यना परिवार साथे एक आचार्य आवशे. पांच सो शिष्य ते हस्तिओ सदृश जाणवा अने महाशूकर समान आचार्य जाणवा. पांच सो शिष्यो भव्य छे, ज्यारे तेओनो गुरु आचार्य अभव्य छे.” गुरुमहाराजे स्वशिष्य आ प्रमाणे जणाव्या बाद गोचरीना समये पांच सो शिष्यना परिवारयुक्त अंगारमर्दकाचार्य ते नगरमां आवी पहोंच्या. तेनी रहेणीकरणी, क्रियाचुस्तता अने विधि-विधान नजरे देखी पेला स्वप्नवाळा शिष्यने मनमां विचार आव्यो के आवा चारित्रधारी अने क्रियाशील गुरु अभव्य म होई शके ? तेणे तेमना आहार-विहार विगेरे प्रत्येक क्रियानुं सूक्ष्म रीते निरीक्षण करवा मांड्यं छतां पण तेने तेनो कोई पण दोष या तो अतिचार मालूम पड्यो नहीं. तेणे पोताना हृदयनी वात स्वगुरुने जणावी पूछ्युं के - "गुरुवर्य ! तेमनो आचार-विचार तो शुद्ध संयमाराधक साधु जेवो छे तो तेमने अभव्य कई रीते कही शकाय ?” गुरुने पोताना शिष्यनी आ वात सांभळी, बाह्य देखाव परथी अनुमान बांधवाना तेनी उतावळ माटे मनमां कंईक हास्य आव्युं परन्तु तेने दबावी दई गुरुए तेने कह्यं के— “हे विज्ञ ! तारे जो खरेखर खात्री ज करवी होय तो हुं हुं म कर. ए प्रमाणे करवाथी तॉरी भ्रमणा ने शंका बधी दूर थई जशे. केटलाक कोलसा लावी तेने रात्रि समये गुप्त ते स्थंडिल - मातरुं करवाना मार्गमां पाथरी दे. पछी जागृत रही थाय तेनुं बराबर निरीक्षण करजे.” शिष्य गुरुना आ कथननो सारांश समजी शक्यो नहीं, कोलसा मात्रथी परीक्षा केवी रीते थशे ? ते पण समजायुं नहीं; छतां पण गुरुकथन पर पूर्ण विश्वास राखी तेणे ते प्रमाणे कर्यु. अल्प रात्रि व्यतीत थतां अंगारमर्दकाचार्यना शिष्यो पैकी एक शिष्य लघुनीति (पेशाब) करवा उठ्यो. आगळ चालतां कोलसा पर पग पड्यो एटले कोलसो दबावाथी चरड एवो शब्द थयो. ध्वनि थतां ज ते शिष्ये विचार्य के आ भूमि जीवव्याप्त जणाय छे. आगळ चालीश तो विशेष जीवहिंसा थशे माटे जीवहिंसा करवा करतां लघुनीतिनुं कष्ट सहन करवुं ते ज श्रेयस्कर छे. आव विचार करी ते शिष्य पाछो वळी गयो अने लघुनीति कर्या सिवाय ज सूई गयो. बाद थोडो समय पसार थतां बीजो शिष्य जागृत थयो अने पूर्वना शिष्यनी माफक आगळ जई, कोलासानो ध्वनि सांभळता ज पहेला शिष्यनी माफक विचारणा करी, पाछो आवी सूई गयो. आ बनावने थोडो समय पसार थयो हशे तेवामां अंगारमर्दकाचार्यने लघुनीति करवानी शंका थई. तेने ऊभा थतां जोई पहेला स्वप्नवाळा शिष्यना कर्ण विशेष सावचेत बन्या अने शुं बने छे ते एकाग्रतापूर्वक जोवा लाग्यो. -अंगारमर्दकाचार्य आगळ चालतां कोलसा पर पग पड्यो अने चरड-चरड एवो अवाज थवा लाग्यो एटले जे तेमना हृदयमां हतुं ते वाणीद्वारा बहार आवी गयुं. चरड-चरड अवाज सांभळी तेओ बोल्या के— “बापडा आ जीवो तो आ प्रमाणे ज मृत्युने वश थवा लायक छे.” आ वचन पेला श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ५१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्ये सांभळ्या. अंगारमर्दकाचार्य तो मातरुं करी आवी निश्चिंतपणे सूई गया. पेला स्वप्नवाळा शिष्यने खातरी थई के आ आचार्य खरेखर अभव्य ज छे. गुरुए कह्यं हतुं ते अक्षरश: सत्य ज नीवड्युं आ आचार्य द्रव्यथी बधी क्रिया करे छे अने विधिविधान साचवे छे पण भावथी कशुंपण करता नथी. तेमनुं हृदय मगशेलिया पाषाण सदृश अनार्द्र ज जणाय छे. आवा आत्मानो कदी उद्धार न ज थई शके. तेने पूरेपूरी साबिती थई चूकी के आ आचार्य अभवी छे. ते पोते पोताना शिष्योनो उद्धार करीशकशे नहीं. पाषाणना जहाजनो नायक पोताना साथीओने तारे के डबाडे? आम विचारी परोपकार भावनाथी ते शिष्ये रात्रिनो सर्व व्यतिकर अंगारमर्दकाचार्यना शिष्यसमूहने जणाव्यो. शिष्योए बीजे दिवसे पण पूर्वनी पेठे परीक्षा करी, पोताना गुरुर्नु आवू दयाविहीन पाषाण हृदय निरखी शिष्यसमुदाय चेती गयो. तरत ज तेमनो त्याग करी ते सर्व पेला स्वप्नवाळा शिष्यना गुरुना शिष्यो थईने रह्या. आवा अंगारमर्दकाचार्य जेवा द्रव्यलिंगी पण मिथ्यात्वी ज जाणवा. तेमनी कोई पण प्रकारनी कथा अकथा ज जाणवी. श्रीआवश्यकसूत्रनी चूर्णीमां पण “बावन्न दंशणा खलु ।” ए पदना विवरणमां जणाव्यु छ के-पासत्था पण मिथ्यादृष्टी ज जाणवा. तेओ लिंगमात्र धारण करे छे परंतु तेमनुं हृदय वैराग्यरसथी लेपायेल होतुं नथी. तेना द्वारा कहेवायेल पूर्वोक्त चारे प्रकारनी-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी तथा निर्वेदनी-कथाओ पण अकथा ज जाणवी. गृहस्थने माटे जणावतां कहे छे के ब्राह्मणादि इतर जातीय गृहस्थे कहेल कथा पण अकथा जाणवी. . हवे प्रतिवादी आ बाबतमां शंका करतां प्रश्न करे छे के–“तमे ऊपर कहेल व्यक्तिनी कथाने अकथा शा माटे कहो छो?" शास्त्रकार तेनो जवाब आपतां जणावे छे के–“विशिष्टफलाभावात्" अर्थात् कथाना विशिष्ट फळनो अभाव होवाथी. कथा- फळ छे संवेग-वैराग्य. जे कथा सांभळवाथी वैराग्य उद्भवे, संसारनी असारता जणाय, द्रव्यादि संपत्तिनी क्षणभंगुरता समजाय तो ते कथाने साची कथा कही शकाय. द्रव्यलिंगी पासत्थादिकना कथनथी वैराग्य प्रगटतो नथी, कारण के जेओ पोते पत्थरना नावमां बेसीने तरवानी आकांक्षा राखे छे ते अन्यने कई रीते तारी शके? हवे बीजो कथा संबंधी भेद दर्शावतां कहे छे के–“तवसंजमगुणधारी, जं चरणरया कहन्ति सब्भावम् । सव्वजगज्जीवहियं, साउ कहा देसिया समए ।।२ ॥" छ बाह्य अने छ आभ्यंतर-ए प्रमाणे बार प्रकारना तप, आचरण करनार, सत्तर प्रकारनां संयम- पालन करनार तेमज संयमने विषे रक्त एवो कोई पण साधु, विश्वना समग्र प्राणिओने हितकारक-परोपकारक जे कथा कहे ते कथाने श्रुतसागरने विषे कथा कहेली छे. आ प्रमाणे कथा कहेवाथी तेमज सांभळवाथी कर्मनी निर्जरा थाय छे, प्राणी सम्यग् बोध प्राप्त करे छे अने उपदेशदाता साधु पण शुद्ध आचारी होवाथी श्रोताजनने ते प्रमाणे सम्यग् अनुकरण करवानुं मन थाय छे. ___हवे त्रीजो विकथानो भेद दर्शावतां कहे छे के–“जो संजओ पमत्तो, रागद्दोसवसगो परिकहेइ । सा उ विकहा पवयणे, पन्नत्ता धीरपुरिसेहिं ॥ ३ ॥" कोई रागद्वेषयुक्त (मध्यस्थता विनानो) प्रमादी साधु जे कथा कहे तेने तीर्थंकर परमात्माओए प्रवचन विषे-सिद्धान्तने विषे विकथा श्रीगच्छाचार-पयन्ना–५२ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज कहेली छे. आ प्रमाणे त्रणे प्रकारो समजी ते प्रमाणे आचरण करवा प्रयत्न करवो. आ संबंधमां विशेष एटलुं जाणवू के-कथानो उपदेशक के सांभळनार जो राग-द्वेषथी युक्त होय तो ते कथांतर बनी जाय छे एटले कथा पण विकथारूपे बनी जाय छे. अहीं प्रसंगोपात्त जणावेल गाथाओ श्रीदशवैकालिक नियुक्तिनी छे. ___ आपणे पूर्वे जोई गया छीए के आचार्य जो विकथा करे तो ते उन्मार्गगामी कहेवाय. हवे ते विकथानुं स्वरूप अने प्रकारो संबंधी वर्णन करतां जणावे छे के–“विकहा सत्तहा पन्नता तंजहा-इत्थिकहा १ भत्तकहा, २ देसकहा ३ रायकहा ४ मिउकालुणिया ५ दंसणभेइणी ६ चरित्तभेइणी ७॥' विकथा सात प्रकारनी छे– १. स्त्रीकथा, २. भोजनकथा, ३. देशकथा, ४. राजकथा, ५. मृदुकारुणिकी, ६. दर्शनभेदिनी अने ७. चारित्रभेदिनी कथा. १. स्त्रीकथा - स्त्री संबंधी कथा करवी. स्त्रीनी प्रशंसा करतां कहे के अमुक जातिनी स्त्री तो अतिशय रुपवंती होय छे, तेनो देह केळना स्थंभ जेवो घाटीलो अने पातळो छे, शरीर पुष्प जेवू सुकोमळ छे, चंद्रना मंडळ सरखं तेनुं कांतिमान मुख छे, कमळना पत्र जेवी अगर तो मृगना नेत्र जेवी तेनी आंखो छे, जेनो कटिप्रदेश सिंहनी केड जेवो पातळो छे, स्तन कळश जेवा उन्नत-ऊंचा ने पुष्ट छे, विलासी हाथीनी जेवी मंदगति छे. आ प्रमाणे स्त्रीनी प्रशंसा करे तो पण ते विकथा छे. प्रशंसा न करतां निंदापूर्वक कहे छे के- आ स्त्रीनी गति तो ऊंट जेवी वक्र छे, कागडानी माफक वाणी कर्कश छे, गर्दभ जेवो अशुभ स्वर छे, कदरूपा स्वरूपवाळी छे, आवी अपशुकनियाळ स्त्रीमुख कोण जुए? आ प्रमाणे निंदा करे तो पण ते विकथा ज छे. ____ आप्रमाणे स्त्रीकथा करवाथी पोताने तेमज सांभळनारने मोहनी प्रगटे, कामविकार जागृत थाय छे, मननी लागणीओ चळ-विचळ बने. वळी अन्य कोई सांभळे तो तेने विचार थाय के साधु संसारनो त्याग करी वैरागी बन्या छतां स्त्रीकथा करे छे, स्त्रीनी वार्तामां आसक्ति धरावे छे माटे आ साधु कुशील जणाय छे. वळी आवी कथा करवाथी विशेष समय तेमां व्यतीत थवाने कारणे स्वाध्यायनी हानि थाय, संयमनी हानि थाय अने ब्रह्मचर्यनी* नव वाडमां पण भंग पडे. सांभळनारनुं पण मन विपरीत मार्गे प्रेराय तो तेना दोषना भागीदार थवाय माटे स्त्रीकथानो सदंतर त्याग करवो. * जेम उद्यान अगर बगीचानुं रक्षण करवा माटे कांटानी अगर तो बीजी कोई वाड करवामां आवे छे तेम शास्त्रकारोए ब्रह्मचर्यरूपी उपवनना रक्षण माटे नव प्रकारनी वाडो (गुप्ति) कही छे, ते आ प्रमाणे १ स्त्री, पशु के नपुंसकनो निवास होय त्यां वसवाट न करवो-रहेवं नहीं. २ स्त्रीनी कथा न करवी अगर तो स्त्रीनी साथे एकांतमां वात न करवी. ३ स्त्रीओना आसन पर एटले शयन, आसन, पाट-पाटला ऊपर ज्यां स्त्री बेठी होय ते स्थान पर बे घडी जेटलो समय व्यतीत थया पहेलां बेसबुं नहीं. ४ स्त्रीओनां अंगोपांग जोवा के चिंतववां नहीं. ५ भीत, पडदा के खपेडाना ओथे स्त्री-पुरुष कामक्रीडा करता होय त्यां बेसवं नहीं. ६ पूर्वे करेल कामभोगनु-काम-क्रीड़ा, स्मरण न करवू. ७ स्निग्ध-रसकसवाळो आहार न करवो. ८ क्षुधा शांत थाय तेथी विशेष आहार करवो नहीं.. ९ शरीरनी विभूषा - शोभा करवी नहीं, श्रृंगारवडे टापटीप करवी नहीं. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-५३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. भोजनकथा - चार प्रकारना आहार छे. अशन, पान, खादिम अने स्वादिम. तेने लगता गुण अथवा अवगुण वर्णवे ते भोजनकथा; जेमके खीरमां खांड अने घी पूरता प्रमाणमां नाख्या होय तो अमृत समान स्वादिष्ट लागे छे. पूरणपोळीमां अंबरस तथा मसालो सारो नाख्यो होय तो तेनो स्वाद कदी भूलातो नथी. कळीना लाडु, मेसुब तथा मोहनथाळ विगेरेना ज़मणमां बे-चार शाक अने जुदा जुदां रायतां कर्यां होय तो श्रेष्ठ भोजन गणाय छे. घेवर तथा मालपूडानुं भोजन, उत्तम छे. आ प्रमाणे विधिविध पकवानोना नामनिर्देशपूर्वक प्रशंसा करे अगर तो निंदा करतां कहे के - अमुक व्यक्तिना जमणवारमां कांई मजा ज नहीं, स्वाद विनानुं जमण, मरचा, मीठं अने मसालो पूरता प्रमाणमां नहीं, कढीमां खटाश ज नहीं, चटणी, रायतुं विगेरे कर्या ज नहीं आ प्रमाणे निंदा करे ते पण विकथा ज छे. साधुओ जो आ प्रमाणे भोजनकथा करे तो आहारनी लालसा वधे, रसनेइंद्रिय वधु सचेत थाय, छक्कायनी विराधनाना अनुमोदक थाय तेमज स्वाध्याय-हानि के संयमहानि थाय ते वधारामां. आ उपरांत लोकोमां अपवाद थाय ते जुदो. सांभळनार लोक कहे के 'साधु थया छे पण खावानी - पीवानी तृष्णा शमी नहीं. स्वादिष्ट भोजन करवा माटे ज साधुनो भेख लीधो जणाय छे. इत्यादि इत्यादि. ' स्वहित इच्छुक साधुओए आ भोजनकथानो पण परित्याग करवो. ३. देशकथा - कोई पण देशनी प्रशंसा अथवा अपभ्राजना न करवी. मालव देश तो मनोहर छे, सारा सारा धान्य त्यां निपजे छे. कडंब देशना लोकोनुं शुं वर्णन करवुं ? ते लोको तो महाबुद्धिनिधान ने डाह्या छे. गुर्जरदेशना लोको तो उद्भटवेषधारी छे, कपटी छे, लाट देशना . लोको तो पशु जेवा जड छे, काश्मीर देशना लोको बहु सुखी अने सौंदर्यशाळी होय छे, कामरु देशना लोको अत्यंत रूपवाळा होय छे-आ प्रमाणे देश ना गुणावगुण कहेवा नहीं. साधु जो आ प्रमाणे देशकथा करे तो पोताना परिवारमां ते ते देश ना साधुओ होय तेने खराब लागे, अथवा ते ते देश ना लोको सांभळे तो आवी वात करनार साधु ऊपर द्वेष उत्पन्न थाय, तेओनुं मन तेमना ऊपरथी उतरी जाय, अरस्परस एकबीजा देशवाळाने क्लेश थाय माटे आ विकथान त्याग करवो. ४. राजकथा- राजानी प्रशंसा अथवा निंदा न करवी. आ राजा तो पराक्रमी छे. भीम जेवुं तो तेनुं बाहुबळ छे. प्रजा पर युधिष्ठिरनी माफक वात्सल्य धरावनार छे. शत्रु लोको तेमज चोरोने दंड आपवामां अतीव कुशळ छे. तेनुं तेज इन्द्र जेवुं छे, राजनीतिमां विचक्षण छे. अगर तो निंदा करतां कहे के - आ राजा तो दुष्ट छे, परस्त्रीलंपट छे, प्रजा पासेथी कर-वेरा ले छे, तेनुं मुख तो कागडा जेवुं श्याम छे, शरीर कदरुपुं छे. शत्रुने आवतो सांभळीने किल्लामां भराई जाय छे, कायर छे, काचा काननो छे, विषयासक्त छे विगेरे विगेरे. आ प्रमाणे बोलवाथी लोको जाणे के आ साधु राजाना छिद्र जोनार छे, कोई राजानो आ गुप्त . चरपुरुष छे. वळी राजा जाणे तो कोपायमान थाय. कदाच आ प्रमाणे राजानुं वृत्तांत सांभळीने राजसुख इच्छुक कोई पण व्यक्ति पर भवमां राजा थवानुं नियाणुं पण करे. साची खोटी वात थवाथी श्रीगच्छाचार- पयन्ना- ५४ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबंध पण थाय माटे आ विकथाने तो सदंतर देशवटो ज देवो. ५. मृदुकारुणिकी कथा-मृदु करुणा उपजावे तेवून बोलवू. जेमके हे महापुरुष ! तमो अमारो केम त्याग करो छो? अमे तो अनाथ छीए, तमारे आश्रये आव्या छीए. तमारा सिवाय अमारो कोई उद्धार नहीं करे. अमे तो बळता अग्निमां पड्या छीए. हे पुत्र ! हे वत्स ! तुंक्यां गयो? तुं अमारी सार-संभाळ ले. आ प्रमाणे करुणाजनक वचनो बोलवा ते विकथानो पांचमो प्रकार छे. आ प्रमाणे करुणाजनक कहेवाथी अन्य लोको हांसी करे छे, आपणा मनमां निर्बलता घर करी जाय अने पुरुषार्थ करवानो प्रयत्न मनमां न थाय. आवा नाना बच्चा तुल्य वचनो कदापि उच्चारवा नहीं. ६. दर्शनभेदिनी कथा- दर्शन एटले समकित. शुद्ध देव, गुरु अने धर्म ऊपर अविचल श्रद्धा तेनं नाम बोधिबीज अथवा सम्यक्त्व. तेनो घात करनारी कथा ते दर्शनभेदिनी कथा. कोई कुतीर्थी अगर तो मिथ्यात्वीनो चमत्कार देखी व्यामोहित थई जवं, तेनी प्रशंसा करवी, कोई अन्यमति न्यायशास्त्रनुं अल्प अध्ययन करीने वाचाळतापूर्वक वात करतो होय तो तेथी विस्मय पामी विचारे के-'जैनशास्त्रमा तो आवू कशुं वर्णन नथी. आ तो कोई महापंडित जणाय छे. तेना शास्त्रमा तो तत्त्वोनी सूक्ष्म सूक्ष्म हकीकतो वर्णवी जणाय छे', जिन वचनमा शंका करवी, इतर दर्शननो प्रभाव अगर तो चमत्कार निहाळी तेनो स्वीकार करवानी भावना उद्भववी, मिथ्यात्वीओनो संसर्ग करवो-आ बधां कारणो समकितना घात करनारा छे. आ प्रमाणे वर्तवाथी समकितना अतिचार लागे अने छेवटे अनाचार पण आदरे. वली लौकिक वासनाओ वधे अने सन्मार्गथी अध:पतन थाय माटे छठ्ठी विकथाथी पूरेपूरा सावचेत रहेवू. ७. चारित्रभेदिनी कथा-जे कथा सांभळवाथी चारित्रना परिणाम नष्ट थाय ते चारित्रभेदिनी कथा कहेवाय. जेमके कोई कहे के–'आ पांचमा आरामां तो चारित्र पाळवू घणुं कठिन छे.' वळी कोई कहे के–“केवलिमणोहिचोद्दस-दसनवपुव्वीहिं संपयं रहिए. सुद्धमसुद्धं चरणं, को जाणइ तस्स भावं वा ॥१॥" सांप्रतकाळे केवळज्ञानी नथी, मन:पर्यवज्ञानी नथी, अवधिज्ञानी पण नथी तेमज चौद पूर्वधर के दश या नव पूर्वधर महापुरुष पण नथी तो कोण जाणी शके तेम छे के साधु शुद्ध चारित्र पालन करे छे के अशुद्ध ? वळी तेना अंतर्गत भाव केवा छे ते पण कोण जाणी शके छे? परंपरानुं चारित्र केयूँ हतुं अने अत्यारे केवूछे ? तेनो तफावत पण कोण समजावे? कारण के घणा गच्छो अने अनेक मतो प्रचलित थई गया छे माटे आमां साचा या जूठानी खबर पडी शके तेम नथी. वळी स्वमंतव्यनी विशेष पुष्टि करतां कहे के –“ जह मंचाओ पडियस्स, देहपीडा सुथोविया होइ । गिरिसिहराओ महती, तहणंतभवो तओ भट्ठा ॥ २ ॥ काले पमायबहुले, दंसणनाणेहिं वट्टए तित्थम् । वुच्छिन्नं च चरित्तं, तो गिहिधम्मो परं काउं ॥ ३ ॥" अर्थात् पूर्वे कहेला कारणोथी शुद्ध चारित्र तो पाळवाना नथी अने छतां चारित्रथी पतित थाय तो अनंता भवमां भ्रमण करवू पडे, कारण के कोई एक शख्स मांचा (खाटला) ऊपरथी पडी जाय तो तेने ओछु वागे-अल्प पीडा थाय, पण जो कोई पर्वतना शिखर ऊपरथी पडी जाय तो प्राणघातक दुःख सहन श्रीगच्छाचार–पयन्ना-५५ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवू पडे. वळी आ पांचमा आरामां प्रमाद विशेष छे अने दर्शन ते समकित अने ज्ञान-मति अने श्रुत ए बे ज्ञानवडे प्रवर्ते छे. श्रीमहावीरस्वामीवडे प्ररूपित चारित्र हमणा पाळी शकातुं नथी तो तेवा चारित्र करतां गृहस्थधर्म उत्तम छे, कारण के ऊपर का तेम मांचा परथी पडनारने अल्प कष्ट थाय छे अने गिरिशिखर ऊपरथी पडनारने अतिशय कष्ट थाय छे तेम गृहस्थ धर्मथी जो पतित थवाय तो अल्प अतिचार लागे अने जो सर्वविरतिथी चुकाय तो अनंत भव पर्यंत संसारसागरमां परिभ्रमण करवू पडे. ढूंकमां समजवानुं एटलुं के आ काळमां तो श्रावकना व्रत पाळवा तेज उत्तम अने श्रेष्ठ मार्ग छे. तेनाथी देवलोकनी प्राप्ति थाय छे. __ आ प्रमाणे कहेवाथी कोई चारित्र लेवानो जिज्ञासु होय तो ते नाशी जाय, पूर्वे कोईए दीक्षा लीधेल होय तो पण ते चंचळ चित्तवाळो थाय अने विचारे के-चारित्रमा दोष तो बहु लागे छे माटे ते करतां तो दीक्षा छोडी देवी सारी. आ प्रमाणे ऊंचे चढवानो प्रयत्न करतो प्राणी पण अध:पतन पामे. आवो विचार अज्ञानीने आवे. जो ज्ञानी होय तो ते विकथा करनारनी जाळमां न सपडाय. ते तो श्रीभगवतीसूत्रना पाठनो विचार करे. श्रीभगवतीसूत्रमा का छे के बहुसनियंट्ठो- ते दोषीलो ज होय अर्थात् जे दोषने आलोवे, पापनी गर्दा करे ते साधु चारित्रपात्र ज गणाय. परन्तु जे अज्ञानी, अस्थिर मनवाळो अने दुःखगर्भित वैराग्यवाळो होय ते आ चारित्रभेदिनी कथाथी विपरीत मार्गे वळी जाय माटे तेवी कथा कदापि पण न करवी. हे गौतम ! आ सात प्रकारनी विकथा करतो प्राणी वृथा कर्मबंध करे छे, राग-द्वेषथी जकडाय छे, अनेक प्रकारनी वातो करतां पोताना मंतव्यनी पुष्टि करवा माटे सदा तत्पर रहे छे अने पोतानुं कर्तव्य चूकी जाय छे. आवा लक्षणवाळाने तारे उन्मार्गगामी जाणवो. गुणवंत आचार्ये पण परनी साक्षीए पोताना अतिचारादिक दोषोनी आलोयणा लेवी, पोताना पाप प्रकाशी शुद्ध थर्बु ते नीचेनी गाथाथी स्पष्ट थशे. छत्तीसगुणसमण्णा-गएण तेणवि अवस्स कायव्वा । परसक्खिया विसोही, सुट्ठवि ववहारकुसलेण ।। १२ ।। [षट्त्रिंशद्गणसमन्वागतेन तेनापि अवश्यं कर्त्तव्या । परसाक्षिका विशोधिः, सुष्ठ्वपि व्यवहारकुशलेन ॥ १२ ॥ गाथार्थ - छत्रीश गुण युक्त तेमज अतिशय व्यवहारकुशळ आचार्य महाराजने पण अन्य आचार्योनी साक्षीए स्वदोषनी निःशल्यपणे आलोचनारूपविशुद्धिकरवी-प्रायश्चित ग्रहण करवू. १२ विवेचन - आचार्यना छत्रीश गुण कहेला छे. तेवा गुणयुक्त अने पांच प्रकारना व्यवहारमा विचक्षण आचार्ये पण बीजा आचार्य अथवा गीतार्थ प्रमुख पासे पोताना पाप, प्रकाशन करी आलोयणा ग्रहण करवी. आवा गुण युक्त आचार्यने पण प्रायश्चित ग्रहण करवानुं विधान छे-शास्त्राज्ञा छे तो सामान्य साधुनी तो वात ज शी करवी? आचार्यना छत्रीश गुण वर्णवतां कहे श्रीगच्छाचार–पयन्ना-५६ . Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ के "देस १ कुले २ जाति ३ रूवी ४ संघयणी ५ धिइजुओ ६ अणासंसी ७ । अविकत्थणो ८ अमाई ९, थिरपरिवाडी १० गहिअवक्को ११ ॥१॥ जिअपरिसो १२ जिअनिद्दो १३, मज्झत्यो १४ देस १५ काल १६ भावन्नू १७ ।आसन्नलद्धपइभो १८, नाणाविहदेसभासन्नू १९ ।। २ ।। पंचविहे आयारे २०-२४ जुत्तो, सुत्तत्थतदुभयविहिन्नू २५ । आहरण २६ हेउ २७ उवणय २८-नयनिउणो २९ गाहणाकुसलो ३० ॥३।। ससमयपरसमयविऊ ३१, गंभीरो ३२ दित्तिमं ३३ सिवो ३४ सोमो ३५ ॥ गुणसयकलिओ ३६ जुग्गो, पवयणसारं परिकहेउं ॥ ४ ॥ १. देश - साडापचवीश जे आर्य क्षेत्र कहेवाय छे तेमां जन्मेलो होय-आर्य देशमा जन्म्यो होय तो ते आचार्य लोकोने प्रतिबोध थाय एवं वर्णन करी शके. आर्य देशनी भाषा जाणे अने तेवी रम्य वाग्धाराथी जनसमूहने रीझवी वैराग्यवासित बनावी शके. २. कुल- श्रेष्ठ कुलवाळो होय. पितानो जे वंश ते कुल कहेवाय. उत्तम कुळमां उत्पन्न थयेल प्राणी पोताने शिरे जे बोजो आवे तेने सरलताथी ने सहनशीलताथी वहन करे तेम आचार्य जो उत्तम कुलमा जन्मेल होय तो आचार्यपणामां गच्छनी सारसंभाळरूपी जे भार तेने सम्यक् प्रकारे वहन करे. ३. जाति- उत्तम जातिवाळो होय. मातानुं गोत्र ते जाति कहेवाय. उत्तम जातिनी मातानी कुक्षीमां जन्म धारण करवाथी-जातिवंत होवाथी विनय, विवेक, सरलता आदि गुणो स्वाभाविक ज प्राप्त थाय अने शासननुं रूडी रीते पालन करे. ४. रूवी - रूपवंत होय. पांचे इंद्रियो सरस अने देखावडी होय. हाथ, पग अने उदरादिक अवयवो कांतिवाळा तथा घाटीला होय. रूपवत व्यक्तिमां आदेयवचनपणुं होय छे एटले लोको तेनुं कथन शीघ्र स्वीकारे छे. रुपवंतमां नैसर्गिक रीते ज गुणसमूह होय छे. ५. संघयणी - दृढ संघयणवाळो होय. शरीरनो बांधो जो मजबूत होय तो व्याख्यानादि देवामां, उग्र विहार करवामां तेमज धार्मिक महोत्सवोमां ग्लानि न अनुभवे, प्रमादने परवश न पडे अने उत्तम प्रकारे शास्त्राध्ययन करी सारी वाचना आपी शके. ६. धृतिवंत - चित्तनी स्थिरतावाळा होय. शास्त्रना गहन तत्त्वो अथवा अर्थो न समजाय तो पण तेमां भ्रांति न लावे, तेमां पोतानी अल्पबुद्धिने कारणभूत माने. ७. अनाकांक्षी - कोई पण प्रकारनी कोई पण पासेथी वांछा न राखे. जेम अन्य मतावलंबीओ-द्विजो विगेरे पोताना भक्तजन या तो यजमान पासेथी सुंदर भोजन अने वस्त्रादिनी अपेक्षा राखे छे तेम आचार्यमहाराज कशी पण तृष्णा न ज राखे. ८. अविकत्थणो-बहु न बोले. वाचाळता न दाखवे. पारकी वातो विशेष न करे. आ प्रमाणे वर्तवाथी लोको पर तेमनी प्रमाणिकपणानी सुंदर छाप पडे. ९. अमायी-कपट न राखे. माया प्रपंचने दूर करे. कोईना कावत्रामां-मायाजालमां या तो षड्यंत्रमा-राजसंबंधी दंभमा सामेल न थाय. आ प्रमाणे वर्तवाथी लोकोनो सविशेष विश्वास थाय अने तेने कारणे शासनोद्योतनां अनेक कार्यो निर्विघ्ने परिपूर्ण थाय. १०. स्थिरपरिपाटी-जेटलुं जेटलुं पोते शास्त्रावगाहन कर्यु होय तेटलुं तेटलुं उपस्थित-स्थिर होय. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ५७ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई पण व्यक्ति सूत्रार्थनो गमे तेवो प्रश्न करे तो शीघ्र जवाब आपी तेना मननुं समाधान करे. ११. गृहीतवाक्य-तेमनी आज्ञा सर्व माने, तेनो पड्यो बोल सर्व झीले तेवा समर्थ होय-प्रतिभाशाळी होय. १२. जितपर्षदा-पर्षदा सभाने जीतनार होय. राजा प्रमुखनी सभामां जवानो प्रसंग प्राप्त थाय तो मनमां क्षोभ न पामे. 'हुं शुं कहीश?' तेवो विचार न लावतां धर्मचर्चा करी राजाने प्रतिबोधवाने समर्थ होय. अगर तो व्याख्यानादि कळामां एवा कुशळ होय के समग्र सभा रंजित थाय अने आचार्यना गुणानुवाद करे. वादविवाद करवानो प्रसंग प्राप्त थाय तो पण क्षोभ न पामे अने शास्त्रवचन के युक्ति-प्रयुक्तिओथी सत्य धर्मनुं स्थापन करी प्रतिवादीने परास्त करे. १३. जितनिद्राअल्पनिद्रावाळा होय. आपणामां श्वाननिद्रा वखणाय छे. श्वानने अल्प ज निद्रा होय छे. लेशमात्र अवाज थाय के तरज ज श्वान शीघ्र जाग्रत बनी जाय एवी रीते आचार्यनी निद्रा पण अल्प ज होय. सूत्रादिकनी अर्थगवेषणामां चित्त राखे, तेनुं वारंवार परिशीलन कर्या करे एटले पण अल्प निद्रा होय. १४ मध्यस्थ-तटस्थ वृत्ति धारण करवावाळा होय. सर्व शिष्यो परत्वे समभाव राखी सर्वेनी सारसंभाळ सरखी रीते ज राखे. १५ देशज्ञाता मरुधर, मेवाड अने गुर्जरादि राष्ट्रो संबंधी संपूर्ण ज्ञान धरावनार होय. ते ते देशने अनुलक्षीने साधुओने विचरवानी आज्ञा आपे. १६.कालज्ञ-समयने जाणनार होय. आ वर्षमा चोमासामां धर्मोनत्ति यावर्षा थशे ते शास्त्रज्ञानथी जाणे अने तेने अनुसरीने स्वपरीवारने विचरवानी अनुमति आपे. १७. भावज्ञ-सामा माणसना अभिप्रायने जाणनार होय, अथवा क्षयोपशमादि भावना पण जाणनार होय. आ गुणने आधारे सुखपूर्वक देश-विदेशमा विहार करी शके. १८. हाजरजवाबी - कोई अन्यतीर्थी परीक्षार्थे प्रश्न करे तो तेने हृदयस्पर्शी सचोट जवाब आपे तेवा बुद्धिमान होय. १९. अनेक देशभाषाओने जाणनार-जुदा जुदा देशोनी भाषा जाणे. मारवाडी, गुजराती, हिंदी इत्यादिक भाषा जाणनार होय. विहार दरमियान अनेक भव्यप्राणीओने दीक्षा आपी होय एटले ते ते देशोना शिष्योने सरलताथी शास्त्राध्ययन करावी शके तेमज ते ते देशोमां विचरवाना प्रसंगे ते ते लोकोनी भाषामां उपदेश आपवाथी अनेकगुणो लाभ थाय. २०-२४. पंचाचारयुक्त - पांच प्रकारना आचार युक्त होय. ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार अने वीर्याचार-ए पांच आचार छे. ज्ञानाचार एटले ज्ञानसम्यक् प्रकारे आराधन करे, दर्शनाचार एटले शुद्ध रीते समकित पाळे, चारित्राचार एटले पांच समिति अने त्रण गुप्ति ए अष्टप्रवचनमातानुरूडी रीते पालन करे-अतिचार न लगाडे, तपाचार एटले छ अभ्यंतर अने छ बाह्य ए बार प्रकारना तपनुं सारी रीते आराधन करे अने वीर्याचार एटले संयमयोग्य धर्मक्रियामा पोतानो पुरुषार्थ दाखवे, प्रमाद न सेवे, आवश्यक क्रिया उमंगपूर्वक करे. आप्रमाणे पंचाचार युक्त आचार्य, वचन ग्रहणीय बने छे. २५. सूत्रार्थतदुभयज्ञाता-सूत्रनो, अर्थनो अने तदुभय एटले सूत्रार्थ बनेनो ज्ञाता होय. सूत्रनो उच्चार तथा परंपरामुजब अर्थ-एसर्व हकीकतना ज्ञाता होय. आ उपरांत उत्सर्ग अने अपवाद ए बन्ने मार्गना प्ररूपक होय. २६. आहरणक-दृष्टांत आपवामां विचक्षण-कुशळ होय. एकला तत्त्वनी वातथी लोकोने गळे बोध उतरी शकतो नथी, श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ५८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान निरस जणाय छे परंतु तेनी साथोसाथ कथा-वृत्तांत कहेवामां आवे तो लोकोने मनरंजन थवा साथे ज्ञान पण थाय छे. सरस प्रतिपादक शैली साथे कथा-निरूपण थाय तो लोकोने व्याख्यान के उपदेश श्रवणनो उत्साह वधे छे. दृष्टांतपूर्वक समजाववाथी अल्प प्रयासे लोकोना हृदयमां सुंदर असर उपजावी शकाय छे. २७. हेतु- हेतुपूर्वक समजावे-उपदेश आपे. हेतु बे प्रकारना छे–(१) कारकहेतु अने (२) ज्ञापकहेतु. घडानो बनावनार कुंभार छे, एटले जे घडा घडे ते कुंभार अथवा प्रजापति कहेवाय, एम कारण दर्शावी समजावे ते कारकहेतु कहेवाय. अन्धकारमा रहेल घटादिकने जणावनार दीपक छे, दीपक तेने प्रगट करे छे तेवी रीते हेतुओने समजावे ते ज्ञापकहेतु कहेवाय. २८. उपनयज्ञ-कोई पण प्रकारनी कथा-वार्ता कहीने तेनो उपनय घटावे-सरखामणी करी बतावी सारांश-रहस्य समजावे. २९. नयनिपुण नैगमादि सात नयोना ज्ञाता. नयज्ञ होय तो एकांत वात न करे, अनेकांत - स्याद्वादनुं स्वरूप यथार्थ समजावी शके. अने नयना भेदोने आश्रयीने व्याख्या करवाथी तेमनो कोई पण प्रकारनो दोष न काढी शके. छवीशमा गुणथी प्रारंभी ओगणत्रीशमा गुण सुधी जे गुणो दर्शाव्या तेनाथी श्रोताजनने जेम ज्ञान थाय तेवी रीते वर्णवे. प्रथम दृष्टांत कहे, पछी तेनो हेतु समजावे, पछी तेनो उपसंहार करे एटले संक्षेपमा सारांश समजावे अने कथामा प्रसंग आवे त्यारे नयनुं सुंदर स्वरूप समजावी तेने कथाना प्रवाहमां घटावे. ३०. स्थापनाकुशळ-जे वात करे तेनी स्थापना करवामां, तेने स्पष्ट समजाववामां अने श्रोताजनना गळे उतराववामां कुशळ होय. ३१. स्वपरसमयविज्ञ-पोतानो मत-जैनमत अने अन्य मतो-परतीर्थिक मतो, ते सर्व मतना जाणनार होय. पोताना सिद्धांतनुं स्वरूप सुंदर रीते वर्णवी शके तेमज चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, मीमांसक अने वैदिक मतवादीओ पोतानो मत पूछे तो पण तेना मतनुं पण स्वरूप कही शके अर्थात् षड्दर्शनना ज्ञाता होय. ३२. गंभीर-गंभीर हृदयवाळा होय. तुच्छ स्वभावनो त्याग करे. कोई पण व्यक्ति गमे तेवो प्रश्न करे, तो पण कषाय न करतां, आक्रोश न करतां शांतिथी धैर्यपूर्वक जवाब आपे. ३३. दीप्तिमान-अत्यंत तेजस्वी होय. तेमनुं भव्य मुख जोतांज वाद करवा आवनार अगर तो अन्य मतवादीओ क्षोभ पामी जाय. आ व्यक्तिने नहीं जीती शकाय एम मनमां निर्णय करी ले अने गुपचुप थई अन्य वातो करवा लागे. ३४. शिवकर-महामारी, भूत-प्रेतादिकनो उपद्रव, शाकिणी डाकिणीना विघ्नोनो विनाश करवामां शक्तिमान होय, जनसमूहर्नु कल्याण करवावाळा होय. ३५. सौम्य-शांत दृष्टिए जोनार, वैरीजन प्रत्ये पण शांतिथी-स्नेहथी निहाळनार तेमज आचार्यने जोतां पण सामा शख्सने प्रेम उत्पन्न थाय. ३६. गुणशतकलित-उदार, सहनशील, शास्त्रज्ञ, कृतज्ञ, शास्त्रावगाहनरक्त इत्यादि इत्यादि सेंकडो गुणोथी विभूषित होय. आवा प्रकारना छत्रीश गुणोवडे युक्त आचार्य प्रवचननो सार एटले रहस्य यथार्थ कही शके, आवा गुण सहित आचार्यमहाराजे पण पोताना पापर्नु-अतिचारनुं अन्य गीतार्थ आचार्य महाराज पासे प्रकाशन करी प्रायश्चित ग्रहण करवं. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-५९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यनां छत्रीश गुण दर्शाव्या बाद तेमना बीजा विशेषण- पांच प्रकारना व्यवहारना ज्ञातानुं स्वरूप दर्शावतां कहे छे के “ आगम १ सुय २ आणा ३ धारणा ४ य जीयं ५ च होइ ववहारो । केवलिमणोहिचोद्दस-दसनव-पुव्वी अ पढमत्थो ॥ १ ॥ * १ आगमव्यवहारी, २ श्रुतव्यवहारी, ३ आज्ञाव्यवहारी, ४ धारणाव्यवहारी अने ५ जीतव्यवहारी - आ पांच प्रकारना व्यवहारी होय छे. केवळज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, चौदपूर्वी, दशपूर्वी तेमज नवपूर्वी- ए प्रथम एटले आगमव्यवहारी कहेवाय छे. तेओ प्रत्यक्ष ज्ञानवाळा होवाथी प्रायश्चित लेवा आवनार व्यक्तिने जेवो अतिचार लाग्यो होय ते जाणीने जेवो घटे तेवो दंड-प्रायश्चित आपे छे. श्रुतव्यवहारी छेदग्रन्थोनो ज्ञाता होय अथवा वर्तमानकाळमां जेटलुं श्रुत वर्ततुं होय तेनो पारगामी होय तेवा आचार्यनी पासे आलोयण स्वीकारे. आज्ञाव्यवहारी एटले गीतार्थ बीजा देशमां विचरता होय तो तेनी पासे साधुने मोकलीने, गुप्त रीते आलोयण मंगावीने ते प्रमाणे प्रायश्चित ग्रहण करे. धारणाव्यवहारी- पूर्वे कहेला त्रणेना अभाव होय अने आलोचना लेवानी होय त्यारे गीतार्थ पासे रहेल, तेनी वैयावच्च करेल, अनेक शख्सोने आलोचना अपायेल होय ते सांभळेल होय तेवा साधुने कहे के– 'मने आलोयण आपो.' ते जे प्रायश्चिच जणावे ते गीतार्थे आप्या बराबर धारीने तपश्चर्यादिक आलोचन करे ते धारणाव्यवहार अथवा तो कोई वृद्ध साधु होय, दीर्घ चारित्रपर्यायवाळो होय अने गीतार्थ पासे रहीने अनेक शख्सोने आलोयण आपतां समये ते अवधारी लीधुं होय तेवा मुनि समीपे पण आलोयण लेवी ते धारणाव्यवहार जीतव्यवहार-काळनो प्रभाव जाणी उग्र तपश्चर्या करवा असमर्थ एवा साधुओने मर्यादामां ज-ते पाळी शके तेवी रीते आलोयण आपवी के जेथी तेनी साधुपणा विषेनी श्रद्धा टकी रहे. काळप्रभावथी चारित्रमां दोषो तो घणा लागे अने उग्र तपश्चर्या थई शके नहीं एटले साधु विचारे — “ दोषापत्ति तो वधु थाय छे, तप, जप थतो नथी माटे हवे चारित्र पालवं शा कामनुं ? आवी विचारणाथी अनाचारमां प्रवर्ते अने सर्वथा चारित्रनो त्याग करवा प्रेराय माटे आचार्ये साधुने नबळा जाणीने तेने उचित आलोचना आपवी अथवा तो श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणे जीतकल्प रच्यो छे तेमां जे प्रमाणे तपश्चर्या करवानुं विधान दर्शाववामां आव्युं छे तेने अनुसरवुं ते पण जीतकल्पव्यवहार कहेवाय. आवी रीते ऊपर जणावेल पांचे व्यवहारना ज्ञाता होय, पोते अनेक प्राणिओने प्रायश्चित आप्युं होय तेवा आचार्ये पण अन्य गीतार्थ पासे पोताना दोषोअतिचारोनुं प्रायश्चित ग्रहण करवुं जोईए, करण जो कोई वैद्यने व्याधि थयो होय तो ते अन्य वैद्य पासे औषधोपचार करावे छे अने तेम करवाथी तेनो रोग पण नाश पामे छे तेवी रीते दोषित थयेल आचार्य अन्य वैद्य सदृश अन्य गीतार्थ पासे प्रायश्चित ग्रहण करे त्यारे तेनुं पापरूपी शल्य विनाश पामे छे. अहीं जे वैद्यनुं दृष्टांत आप्युं तेने पुष्ट करवा माटे सूत्रकार महाराज जणावे छे के जह सुकुसलो वि विज्जो, अण्णस्स कहेइ अत्तणो वाहिं । विज्जुवएसं सुच्चा, पच्छा सो कम्ममायरइ ॥ १३ ॥ [ यथा सुकुशलोऽपि वैद्यो ऽन्यस्य कथयति आत्मनो व्याधिम् । वैद्योपदेशं श्रुत्वा, पश्चात् स कर्म आचरति ॥ १३ ॥] श्रीगच्छाचार - पयन्ना—- ६० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ-जेवी रीते अतिशय कुशळ वैद्य पण पोतानो व्याधि बीजा वैद्यने जणावे छे अने ते अन्य वैद्ये दर्शावेल व्याधिना प्रतिकाररूप कर्मने आचरे छे तेवी रीते आलोचना ग्रहण करनार सूरि पण पोताना पापर्नु अन्य आचार्यमहाराज पासे प्रकाशन करे अने तेमणे जणावेल तपश्चर्यादि क्रिया विधिपूर्वक अंगीकार करे. विवेचन-वैद्य विचक्षण होय, वैदकशास्त्रादिकमां प्रवीण होय, अनेक प्रकारना औषधो-भस्म, अवलेह, चूर्ण विगेरेमा प्रवीणता धरावतो होय, अनेक व्यक्तिओना व्याधिओ, निवारण कर्यु होय, अनुभवी होय, वृद्ध वयनो होय, चिकित्सा करवानी प्रणालिकामां पारंगत होय, निदान करवामां निपुण होय-आवो कुशळ वैद्य पण जो बीमार पडे, मांदो थाय तो ते तरत ज अन्य वैद्यनी सलाह ले छे, पोताना व्याधिनो सर्व व्यतिकर कहीने तेनो उपाय पूछे छे अने पोतानी पासे विविध प्रकारनां उत्तम औषधो होवा छतां पण तेनी पासेथी ज औषध ले छे अने परिणामे पूर्ववत् स्वास्थ्य प्राप्त करे छे तेम ज्ञानवंत, आलोयण आपनार, शास्त्रादिकमां कुशळ एवा आचार्ये पण पोताने लागेला अतिचारनी आलोयणा अन्य गीतार्थ पासे ज लेवी ए ज हितकर अने आत्मकल्याणनो मार्ग छे. हवे सद्गुरुनु स्वरूप दर्शावतां कहे छे के देसं खित्तं त जाणित्ता, वत्थं पत्तं उवस्सयं । संगहे साहुवग्गं च, सुत्तत्थं च निहालई ॥ १४ ॥ [देशं क्षेत्रं तु ज्ञात्वा, वस्त्रं पात्रं उपाश्रयम् । संगृहणीत साधुवर्गं च, सूत्रार्थं च निभालयति ॥ १४ ॥ गाथार्थ-देश, क्षेत्र, द्रव्य, काळ अने भावने जाणीने वस्त्र, पात्र अने (स्त्री, पशु के पंडक-नपुंसक वगरनो) उपाश्रय संग्रहे तथा साधु-साध्वीना समूहनुं सारी रीते संरक्षण करे तेमज सूत्रार्थनु चितवन करे तेने सारा-मोक्षमार्गवाही आचार्य जाणवा. विवेचन-सारा आचार्य देश, क्षेत्र, द्रव्य, काळ अने भावने सारी रीते जाणे, अने जाणीने वस्त्र, पात्र, वसति तथा साधु-साध्वीना समूहने संग्रहे-तेनुं परिपालन करे. माळवादि देशोनुं स्वरूप जाणे. क्षेत्र संबंधी विचार करे के क्षेत्र लुखं छे के रसाळ एटले के सर्व प्रकारनी वस्तुओ मळी शके तो रसाळ अने न मळे तो लूटुं समजवं, अथवा तो जैनधर्म प्रत्ये श्रद्धाळु छे के अश्रद्धाळु ते पण जाणे. विविध क्षेत्रमा बौद्ध, सांख्यादिक कया कया धर्मनो विशेष प्रचार छे तेनुं ज्ञान धरावे. ग्लानादिक साधुओने वसवा लायक छे के नहीं अगर तो ग्लानादिकने योग्य आवश्यक पदार्थो प्राप्त थई शकशे के नहीं ते जाणे. वळी द्रव्य एटले आहारादि वस्तुओ मळी शकशे के नहीं तेनो विचार करनारा होय. काळ संबंधी विचारणा करतां सुकाळ के दुष्काळनो विचार करे-जाणे भाव एटले भिन्न भिन्न क्षेत्रवासी जनो उदार छे के कृपण, साधुओने जोईने रंजित थाय तेवा छे के मुख मरडे तेवा छे ते संबंधी ज्ञान धरावे. ऊपर जणावेल व्यतिकरना ज्ञाता आचार्य वस्त्र, पात्र अने उपाश्रय (साधुओने योग्य निवासस्थान) संग्रही राखे-तेनी व्यवस्था करी मूके कोई क्षेत्रमा वस्त्रादिक मळे, श्रीगच्छाचार-पयन्ना-६१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई क्षेत्रमा न पण मळे त्यारे तेनो संग्रह करी राख्यो होय तो साधुओने उपयोग माटे आपी शकाय. जो आ प्रमाणे व्यवस्था न करी होय तो साधु सीदाय. देशस्वरूपना ज्ञाता आचार्य शीत शरीरवाळा साधुने सौराष्ट्रादि शीतप्रधान देशोमां न मोकले. मरुधरादि देशोमां मोकले. वळी वायुप्रधान देहवाळाने मेवाड देशमा विचरवानी आज्ञा न आपे कारण के ते देशमां मकाई अने चोखानो आहार मळतो होवाथी वायुप्रकृतिवाळा साधुने माफक न आवे, तेवा शरीरवाळाने मालवदेशमां मोकले. क्षेत्र संबंधी विचारणा करे के उज्जैनी नगरीमां अन्य मतनुं प्राबल्य विशेष छे, माटे त्यां ओछा पांडित्यवाळा शिष्यने न मोकले, कारण के तेम करवाथी शासननी लघुता थाय. तेवा अल्पज्ञ शिष्योने मारवाड, गुर्जर, सौराष्ट्र आदि देशोमां मोकले. सूंठ प्रमुख द्रव्यादिकना जाणकार होय. ग्लानादिकने आ वस्तुनी जरूर छे, आ वस्तु तेमने उपयोगी थई पडशे तेम जाणे. वळी साधु स्थूळशरीरी होय तो तेमने घृतादिक पुष्टि करनारां द्रव्यो विशेष न आपे. एवी रीते द्रव्यना पण विचारक होवा जोईए. अमुक देशमां सुकाळ थशे के दुष्काळ पडशे ते पण जाणनार होवा जोईए, कारण के दुष्काळवाळा देशमां विचरे तो गोचरी पण न मळे, संकटमां सपडावं पडे अने धर्मसाधन के स्वाध्यायादि न थाय. एवी रीते काळने विचारीने शिष्यादिक परिवारने विचरवानी आज्ञा आपे. साधु प्रत्ये लोकोना स्वभाव-श्रद्धाने जाणी ते प्रमाणे विहारनी अनुमति आपे. दूरना स्थळोमां विहार थोडो करावे परन्तु गुर्जर, सौराष्ट्रादि देशोमां साधुओ प्रत्ये अत्यन्त प्रीतिभाव के बहुमानभाव होय तेवा स्थळमां साधुओने विचरवानी आज्ञा आपे. आ प्रमाणे सुगुरु पांच प्रकारना यथास्थित ज्ञाता होय. वस्त्र, पात्रादिकनो संग्रह करे पण ते प्रच्छन्न-गुप्त राखे; गृहस्थने न जणावे. आनुं कारण दर्शावतां कहे छे के-भद्रिक-भोळो गृहस्थ होय तो एम पण कदाच विचारे के-साधु पासे घणा वस्त्र-पात्रादिक होय तो तेमां दोष नहीं होय परन्तु विचक्षण गृहस्थ तो समजे के आटला बधां वस्त्र-पात्रना उपकरण राखे छे तो साधु शा माटे थया? आटला बधा परिग्रहधारीने साचा साधु कई रीते कही शकाय? आवी अश्रद्धा उत्पन्न न थाय माटे शास्त्रकार महाराज कहे छे के आचार्ये आ संग्रह गुप्त राखवो. आ हकीकत प्रत्ये शंका दर्शावतां प्रतिवादी प्रश्न करे छे के–“आचार्ये आवो संग्रह गुप्त राखवो तेवो कोई पण शास्त्राधार छे?” तेनो जवाब आपतां श्रीस्थानांगसूत्रना सातमा स्थानकनी टीकानो उल्लेख करी जणावे छे के –“आयरियउवज्झायाणं गणंसि सत्तसंगहठाणा पं. तं.-आयरियउज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा सम्म पउंजित्ता भवति १, आयरियउवज्झाए गणंसि अहाराइणिआए कितिकम्मं वेणइअंसम्म पउंजित्ता भवइ २, आयरियउवज्झाए गणंसि जे सुअएज्जवजाए धारेति ते काले काले सम्म अणुप्पवाएत्ता भवइ ३, आयरियउवज्झाए गणंसि गिलाणसेहे वेआवच्चं अब्भुट्ठित्ता भवति ४, आयरियउवज्झाए गणंसि आपुच्छित्तचारी आविहवइ णो अणापुच्छित्तचारी ५, आयरियउवज्झाए गणंसि अणुप्पन्नाइं उवगरणाई सम्मं उप्पाएत्ता भवइ ६, आयरियउवज्झाए गणंसि पुव्वप्पण्णाइं उवगरणाइं सम्म सारक्खित्ता संगोवित्ता भवति ७ ॥" श्रीगच्छाचार-पयन्ना-६२' Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- आचार्यउपाध्यायना गणमां- गच्छमां ज्ञानादि संग्रहना सात हेतुओ दर्शावेला छे, ते प्रमाणे – १ - आचार्यउपाध्यायना गच्छमां रूडी रीते आज्ञा तथा धारणा करे एटले के- 'हे साधु ! आ प्रमाणे तमे करजो' एवी रीते गुरुना आदेशथी ते प्रमाणे ज करे तेम ज 'हे साधु ! आवात न करवी' एम आज्ञा आपे तेने धारी राखे-ते प्रमाणे ज वर्ते. २ - आचार्यउपाध्यायना गच्छमां जेओ गुण अथवा तो दीक्षापर्यायमां ज्येष्ठ होय तेना प्रत्ये वांदणां विनयादि उचितता जाळवे एटले के तेमने विधिपूर्वक वंदन करे, वैयावच्चादिक करे. ३- आचार्यउपाध्यायना गच्छमां जे साधुओ सूत्र भणवाने योग्य थया होय तेओने अवसरे सूत्र संबंधी शिक्षा आपे, अध्ययन करावे, समय प्रमादमां व्यर्थ व्यतीत थवा न दे. ४ - आचार्यउपाध्यायना गच्छमां व्याधिथी पीडित ग्लान साधु हो अगर तो लघु शिष्य होय तो तेने गोचरी लावी देवी, हाथ-पग दाबवा, औषधोपचार करवो इत्यादिक प्रकारे वयावच्च करनार होय. ५ - आचार्यउपाध्यायना गच्छमां शिष्यने बहार गोचरी, स्थंडिल तथा विहारार्थे जवुं होय तो आज्ञा लईने गुरुनी संमतिपूर्वक ज जाय परंतु पूछ्या विना एक पगलुं पण भरे नहीं. ६ - आचार्यउपाध्यायना गच्छमां न मळे तेवा वस्त्र, पात्रादिक उपकरणोने सम्यक् प्रकारे लावे, ज्यां त्यांथी मेळवीने एकत्र करे अने आचार्यने सोंपे. ७ - आचार्यउपाध्यायना विषे पूर्वे प्राप्त करेल वस्त्र, पात्रादिक उपकरणोनुं चोरादिकथी सारी रीते रक्षण करे अने सारी रीते गोपवे. आ छेवटे जणावेल सातमा प्रकारनी गच्छाचारनी टीकामां जणाव्युं छे के– 'सारक्खित्ता' - संरक्षयितोपायेन चौरादिभ्यः, 'संगोवित्ता' - संगोपयिताऽल्पसागारिककरणेन मलिनतारक्षणेन चेति । अर्थात् चोर प्रमुख चोरी न जाय तेम उपकरणोने सारी रीते साचववा अगर तो कोई चोरवा, तोडवा के फाडवा देवा नहीं तेमज गृहस्थ देखी न जाय तेवा प्रकारे गोपवीने राखे अने तेने जेम तेम वापरीने मलिन न करे. I आ रीते श्रीस्थानांगसूत्रना पाठथी साबित थयुं के आचार्ये गृहस्थ जोई शके तेमज जाणी न शके तेवी रीते वस्त्र. पात्रादिक उपकरणो गुप्त राखवा. हवे वस्त्रनो प्रसंग आव्याथी वस्त्र संबंधी विशेष विवेचन कर्तुं छे. वस्त्र संबंधी विवरण - जे वस्त्र प्राप्त थाय ते वस्त्रना प्रथम त्रण भाग कल्पे एटले त्रण पुट बराबर करे, पछी एक-एक पुटमां त्रण त्रण भाग कल्पे एटले के एवी रीते नव विभाग थाय. ते जे नव खूणा थया ते पैकी चार खूणाना चार भाग देव संबंधी जाणवा, चेडाना बे भाग मनुष्यने लगता जाणवा, ऊपर नीचेना जे बे भागो असुर संबंधी जाणवा अने मध्यमां जे एक भाग बाकी रह्यो राक्षसने लगतो जाणवो. तेनो स्थापना यंत्र नीचे प्रमाणे जाणवो. देव असुर देव मनुष्य राक्षस मनुष्य देव असुर देव ऊपर जणावेल हकीकतनो संबंध दर्शावनारी गाथा नीचे प्रमाणे छे " चउरो दिव्विआ भागा, दुवे भागा य माणुसा । आसुरा यदुवे भागा, मज्झे वत्थस्स रक्खसो ॥ १ ॥ " एटले के-देवोना चार, मनुष्यना बे, असुरना पण बे अने राक्षसनो मध्यनो एक एम नव विभागो जाणवा. आ नवे विभाग श्याम वर्ण, अंजन तथा श्रीगच्छाचार - पयन्ना— ६३ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कादवथी खरडायेल होय, ऊंदरे करड्या होय, कंसारीए खाधा होय, अग्निथी बळी गया होय, तूटी गया होय, धोबीवडे धोवाता छिद्र पडी गया होय, जीर्ण (जूना) थई गया होय, अथवा जाडो धागो (दोरो) आवी गयो होय तो तेना शुभ या अशुभ विविध प्रकारनां फळनी प्राप्ति थाय छे. तेना फळ-स्वरूपनुं दिग्दर्शन करावतां जणावे छे के–“दिव्वेसु उत्तमो लाभो, मणुस्सेसु अमज्झिमो । असुरेसु अ गेलन्नं, मज्झे मरणमाइसे ॥ १ ॥" अर्थ – देव संबंधी विभागमां जो वस्त्र अंजनादिवडे खरडायु होय अगर तो ऊंदर विगेरेवडे करडायुं होय तो (चारित्रपालननो) श्रेष्ठ लाभ थाय, मनुष्य संबंधी विभागमां ते प्रमाणे बन्युं होय मध्यम-अल्प लाभ थाय अने असुरना विभागवाळा विभागमां ते प्रमाणे बन्युं होय तो व्याधि उद्भवे, बीमारी आवे, अनेक प्रकारनां रोगो थाय. जो मध्यनो राक्षसवाळो विभाग ते प्रमाणे खरडायो के करडायो होय तो ते वस्त्र पासे राखवाथी अवश्य मृत्यु ज थाय. एटले साधुए नव भाग पैकी असुरना बे अने राक्षसनो एक एम त्रण भागथी दूषित वस्त्र ग्रहण न करवू. कदापि कोई साधु आq वस्त्र स्वीकारे तो तेने संपूर्ण चारमासी-प्रायश्चित आवे, कारण के तेवो साधु आत्मानी विराधना करनारो तेमज श्रीजिनेश्वर भगवंतनी आज्ञानो भंग करनारो थाय छे, माटे निर्दोष, शुद्ध अने सुलक्षणवाळु वस्त्र ज ग्रहण करवू. वस्त्र संबंधी विशेष समजण आपतां शास्त्रकारमहाराजा पुन: जणावे छे के-आखं वस्त्र न ग्रहण करवं. कृत्स्न (आलु) वस्त्र चार प्रकार- कहेलुं छे, ते आ प्रमाणे – १ द्रव्यकृत्स्न, २ क्षेत्रकृत्स्न, ३ काळकृत्स्न अने ४ भावकृत्स्न. १. द्रव्यकृत्स्न-बंने बाजुना छेडा दशीयुक्त एटले संपूर्ण तेमज प्रमाणथी अधिक होय. २. क्षेत्रकृत्स्न- जे क्षेत्रमा वस्त्र अति किंमती तेमज दुर्लभ होय. ३. काळकृत्स्न- अमुक अमुक काळमां माग्युं वस्त्र न मळे अथवा तो दुर्लभ होय. जेमके उनाळामां काषायिक-रंगेलुं वस्त्र दुर्लभ होय. शीत ऋतुमां कंबल-धाबळादिक दुर्लभ होय तेमज वर्षाऋतुमां केशरमिश्रित-रंगित वस्त्र दुर्लभ होय. ४ भावकृस्नना बे प्रकार छ (१) वर्ण अने (२) मूल्य. वर्ण एटले पांच प्रकारना वर्णवाळु; जेमके मयूरनी ग्रीवा-डोक सरीखं श्यामवर्णी, पोपटनी पांख सरखं नीलवर्णी, इंद्रगोपकनी जेवू रक्तवर्णी, सुवर्ण सरखं ते पीतवर्णी अने शंख सरखं ते श्वेतवर्णी आ प्रमाणे जो वर्णकृत्स्न अने द्रव्यकृत्स्न वस्त्र साधु स्वीकारे तो ते साधुने उत्कृष्ट चार लघुमासी, मध्यम एक लघुमासी अने जघन्य पांच कल्याणकोनुं प्रायश्चित आवे. मूल्यकृत्स्ननां पण त्रण प्रकार छे– (१) जघन्य, (२) मध्यम अने (३) उत्कृष्ट अढार रुपियानी किंमतनुं होय ते जघन्य, एक लाख रुपियानी किंमतनुं होय ते उत्कृष्ट अने ते बंनेनी वचगाळानुं एटले के अढार रुपिया करतां वधारे अने लाख रुपिया करतां न्यून किंमतनुं होय ते मध्यम जाणवू. हवे आरुपियो केवा प्रकारनो जाणवो ते संबंधे जणावे छे के-द्वीप संबंधी बे रुपियानो उत्तरापथनो एक रुपियो जाणवो. ए रुपियो पाटलिपुत्रनो जाणवो. दक्षिणापथना बे रुपियाना कांचीपुरीना एक रुपियो थाय अने कांचीपुरीना बे रुपियानो पाटलीपुत्रनो एक रुपियो थाय. आ रुपिया आश्रयीने किंमतनो संबंध जाणवो. हवे आ प्रमाणे ओछी-वधती किंमतनुं वस्त्र साधु स्वीकारे तो तेने केटलो केटलो दंड आवे ते जणावतां कहे छे के अढार रुपियानी किंमतनुं वस्त्र साधु स्वीकारे तो लघुमास प्रायश्चित आवे, वीश रुपियानुं ले श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ६४ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो चार लघुमासी प्रायश्चित आवे, एक सो रुपियानुं ग्रहण करे तो चार गुरुमासी दंड आवे, अढीसो रुपियानी किंमतवाळु वस्त्र ग्रहण करे तो छ लघुमास प्रायश्चित आवे, पांचसो रुपियानी किंमतवाळु स्वीकारे तो छ गुरुमास प्रायश्चित आवे, हजार रुपियानी किंमतवाढु वस्त्र ले तो तेने छेद ' आपवो, दश हजार रुपियानी किंमतनुं वस्त्र ग्रहण करे तो मूळ दंड करवो एटले के पुन: नवु चारित्र आपq, जो पचास हजार रुपियानी किंमतवाळु वस्त्र ग्रहण करे तो अनवस्थाप्यनो दंड करवो अने जो लाख रुपियानी किंमतनुं वस्त्र ग्रहण करे तो पारांचित नामर्नु प्रायश्चित आपq. प्रतिवादी आ प्रायश्चित परत्वे शंका उठावतां कहे छे के-किंमती आखा वस्त्र माटे आटलो बधो दंड शा माटे? तेनो जवाब आपतां शास्त्रकार कहे छे के-जो किंमती वस्त्र देखवामां आवे तो चोरने चोरी करवानुं मन थाय, आत्मविराधना थाय, परिग्रह-ममताभाव वृद्धिगत थाय अने वीतरागनी आज्ञानुं उल्लंघन कर्यु कहेवाय. आ संबंधमां एक राजानुं नीचे लखेल दृष्टांत विशेष प्रकाश पाडे छे__कोई एक राजाने एक आचार्यनो सुयोग थयो. आचार्यना हृदयंगम उपदेशथी राजानी धर्मरुचि वधी. क्रमे क्रमे राजा सम्यक्त्वीनी कोटिमां आव्यो. एकदा राजाने भावना थई के– “गच्छना दरेक साधुओने रत्नकंबल वहोरावू.” आ प्रमाणे विचार थतां ज तेणे आचार्य समीपे जई रत्नकंबल वहोराववानो पोतानो विचार जणाव्यो. आचार्य राजाने निषेध को अने जणाव्यु के–“मूल्यवान वस्त्र-रत्नकंबल ग्रहण करवानो अमारो आचार नथी.” आचार्य- आकुंकथन छतां पण राजाए अतीव आग्रह को एटले एक रत्नकंबल राख्युं आ प्रमाणे रत्नकंबल लईने जतां एक चोरे जोयु. ते चोरनुं १थयेला अपराधनी शुद्धि करवी ते प्रायश्चित, अथवा विशेष प्रकारे चित्तनी विशुद्धि करवी तेनुंनाम प्रायश्चित. प्रायश्चित दश प्रकारनां छे. १ आलोचना, २ प्रतिक्रमण, ३ मिश्र, ४ विवेक,५ कायोत्सर्ग,६ तप,७ छेद,८ मूळ,९ अनवस्थाप्य अने १० पारांचित. आलोचना एटले करेला पापनो गुरु आदि समक्ष प्रकाश करवो. प्रतिक्रमण प्रयाश्चित एटले थयेल पाप पुन: नहीं करवा माटे 'मिच्छा मि दुक्कडं' देवो. मिश्र एटले करेल पापनो गुरु समक्ष प्रकाश करवो तेमज मिथ्या दुष्कृत पण आपq. विवेक प्रायश्चित एटले अकल्पनीय अन्नपानादि विगेरेनो विधिपूर्वक त्याग करवो. कायोत्सर्ग एटले कायाना सावध व्यापारनो परित्याग करी शुभ ध्यान करवू. तप: प्रायश्चित एटले करेल पापना दंडरूपे नीवी,आयंबिल, उपवासादि तप करवो. छेद एटले महाव्रतनो घात-खंडन थवाथी चारित्रपर्यायनो छेद करवो. जेमके कोई एक साधुने चारित्र ग्रहण कर्या बाद पंदर वीस वर्षनो समय व्यतीत थई गयो होय अने ते साधु प्रायश्चित्तनो भागी थाय तो तेना अमुक वर्षना दीक्षापर्यायनो दंड करे एटले के घटाडी नांखे तेने छेद आलोयण कहेवाय. दात. पंदर वर्षना दीक्षा पर्यायने बदले घटाडीने बार, दस, आठ वर्षनो, जेम आलोयण आपनारने योग्य लागे तेम, दीक्षापर्याय ओछो करे मूळ प्रायश्चित एटले अपराध थवाथी चारित्रनो संपूर्ण छेद करी पुन: नूतन चारित्र आपq ते. २ अनवस्थाप्य-करेला अपराधमुंप्रायश्चित ग्रहण न करे त्यां सुधी महाव्रत न उच्चराववा. आप्रायश्चित उपाध्यायने ज होय. उपाध्याये कोई पण प्रकारनो महाअतिचार लगाड्यो होय तो आआलोयणा स्वीकारवी पडे एटले के उपाध्यायपदेथी दूर करी, सामान्य गृहस्थ बनावी, आचार्यना मनमां आवे तेटलो समय तेवा गृहस्थवेषमा राखे अने पछी योग्य समये नूतन दीक्षा आपे ते अनवस्थाप्य प्रायश्चित कहेवाय. ३ पारांचित-साध्वीना शीलनो भंग करवाथी, राजराणी साथे अनाचार सेववाथी अथवा शासनने उपघातक कार्यना दंड माटे आ प्रायश्चित अपाय छे. आ प्रायश्चित आचार्यने ज होय छे. उत्कृष्टमां उत्कृष्ट प्रायश्चित आ छे. आ प्रायश्चितमां गुप्त वेषे बार वर्ष सुधी गच्छ बहार रही, वेषनो त्याग करी कोई पण तीर्थनो उद्धार या तो समर्थ राजवीने प्रतिबोध पमाडवार्नु, शासनप्रभावना करवानुं कार्य बजाववानुं होय छे. बाद पुन: दीक्षा लई गच्छमां आवे. श्री. सिद्धसेनदिवाकरसूरिए आ प्रायश्चितना पालनरुपे उज्जैनना महाकाळ तीर्थनो उद्धार कयों हतो अने वीर विक्रमादित्य नृपने प्रतिबोध पमाड्यो हतो. न श्रीगच्छाचार-पयन्ना-६५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन रलकंबल प्रत्ये ललचायुं अने कोई पण प्रकारे ते चोरी लेवानो मनसूबो को. मध्य रात्रिनो समय थयो अने सर्व लोको निद्रावश थई गया हता त्यारे चोर वसतिमां आव्यो अने आचार्यने का के–“रत्नकंबल आपो, नहीं तो मारी नाखीश." त्यारे आचार्ये का के–“ते रत्नकंबलना तो बे टुकडा करी नाख्या छे.” चोरने आ वात पर विश्वास न आवतां तेणे का के–“देखाडो.” आचार्ये बेककडा देखाड्या त्यारे चोरे फरी का के–“ए बने ककडा सांधीने आपो, नहीं तो तमारो शिरच्छेद करीश.” मृत्युभयथी आचार्ये ते रत्नकंबलना बंने टुकडा सांधी आप्या अने चोर ते लईने चालतो थयो. आ प्रमाणे बहु मूल्यवाळू वस्त्र पासे राखवाथी मरणांत उपसर्ग उत्पन्न थवानो भय रहे छे. आ प्रमाणे अनेक कष्टना कारणभूत जाणीने तीर्थंकर परमात्माए अढार रुपियाथी विशेष किंमतनुं वस्त्र राखवानो साधुने माटे निषेध कयों छे आ प्रमाणेनो अधिकार श्रीसोमप्रभसूरिकृत 'यतिजीतकल्प' नामना प्रकरण ऊपर श्रीसाधुरत्नसूरिए रचेल टीकामां जणावेल छे. वस्त्रगवेषणा - गच्छवासी एटले स्थविरकल्पी साधु वस्त्रनी गवेषणा कई रीते करे? ते संबंधी विधि दर्शावतां जणावे छे के - ज्यारे कोई पण साधुने कांबली प्रमुख कोई पण वस्त्रनी जरूरत होय त्यारे ते साधु गच्छमां रहेला प्रवर्तकने कहे के–“ मारे अमुक प्रकार, वस्त्र जोईए छीए.” आ हकीकत सांभळी प्रवर्तक आचार्यमहाराजने जणावे के–“अमुक साधुने वस्त्रनी जरूरत छे.” आ प्रमाणे सांभळी आचार्य गच्छमां अभिग्रहधारी जे साधु होय तेने बोलावे अने जरूरियातनी वस्तु सूचवी ते लाववा माटे सूचन करे. “जे कोई पण साधुने वस्त्र, पात्रादिक वस्तुनी ज्यारे जरूरत होय त्यारे मारे लावी आपवी.” आ प्रमाणे जे साधु अभिग्रह धारे तेने अभिग्रहधारी साधु कहेवाय. कदाच गच्छने विषे तेवा अभिग्रहधारी साधु न होय तो आचार्यमहाराज बीजा साधुने कहे के– “अमुक साधु माटे अमुक वस्त्र लावी आपो.” आ अभिग्रहधारी अथवा तो अन्य साधु कई रीते वस्त्र-याचना करे ते संबंधे जणावतां कहे छे के- सूत्रपौरूषी अने अर्थपौरूषी करीने गोचरी माटे जाय. गोचरी अर्थे जतां ज वस्त्रनी गवेषणा करे. गोचरीमां वस्त्र न मळे तो बीजे पहोरे अर्थपौरुषीमां लेवा जाय. ते समये पण न मळे तो सूत्रपौरूषीमां पण लेवा जाय एटले के सूत्रपौरूषीनो समय थई जवा छतां ते न करे अने वस्त्र लेवा जाय. आ समये पण कदाच वस्त्रादिकनी प्राप्ति न थई तो आचार्यमहाराज सर्व संघाडाने उद्देशीने कहे के–“तमे गोचरी अर्थे जाओ त्यारे वस्त्र मांगीने लावजो.” आ प्रमाणे अलग-अलग संघाडाओए याचना करवा छतां पण वस्त्रादिकनी प्राप्ति न थाय त्यारे आचार्य सर्व साधुओने एकत्र करीने कहे के– “तुमे गोचरी अर्थे जाओ त्यारे वस्त्रनी याचना करजो.” आ प्रमाणे एक पछी एक उपायनो आचार्यमहाराज उपयोग करे परन्तु पोते याचना करवा न जाय. जो जाय तो चार गुरुमासी प्रायश्चित आवे अने ते उपरांत श्रीवीतराग परमात्मानी आज्ञाभंग आदि अनेक दोषापत्ति आवे. लोकव्यवहारमा पण आचार्यनी लघुता थाय. बीजा साधुओ जो गीतार्थ होय तो श्रीगच्छाचार-पयन्ना-६६ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व वस्त्र अर्थे जाय परंतु जो एक ज गीतार्थ होय अने बीजा साधुओ अगीतार्थ होय तो गीतार्थ अग्रेसर-मुख्य बनावीने वस्त्र लेवा जाय. कदाच मानो के एक मात्र आचार्यमहाराज सिवाय बीजा बधा साधुओ अगीतार्थ होय तो अगीतार्थने विषे पण जे लब्धिसंपन्न होय एटले वाक्कलामां कुशळ होय, सामा माणसना भाव पारखनार होय तेने आचार्यमहाराज कहे के—“हे साधु ! तमे आ प्रमाणे निपुणताथी बोलीने वस्त्रनी याचना करजो.” एवी रीते अगीतार्थने पण वस्त्र याचवानी आज्ञा आपे परंतु आचार्यमहाराज स्वयं वस्त्रनी याचना करवा कदापि न जाय. वस्त्र याचना संबंधी आ विधि विस्तृत छे परंतु ग्रंथ विस्तारना भयथी अहीं संक्षेपमां ज जणावी छे, विस्तारपूर्वक विधि निशीथचूर्णीना पांचमा उद्देशामां वर्णवेल छे त्यांथी जोई लेवी. जे स्थाने चातुर्मास रह्या होय त्यां चातुर्मास पूर्ण थया बाद बे मास पर्यन्त वस्त्रादिक उपकरणो मांगवा नहीं. कदाच त्यांथी विहार करी अन्यत्र गया होय तो पण बे मास सुधीमां याचना करवी नहीं. वळी जे स्थानमां शुद्ध चारित्रपात्र क्रियाशील मुनिवरनुं चातुर्मास थयुं होय तेवा क्षेत्रमां तेमज पोते करेल चातुर्मासना स्थानथी पांच गाउना विस्तारमां जे क्षेत्र होय त्यां पण वस्त्रपात्रादिकनी याचना करवी नहीं; कारण के अगत्यना कारण सिवाय तेवी याचना करवानो शास्त्रकारो निषेध करेल छे. आम छतां पण जे स्थळे पासत्थादिक चातुर्मास रह्या होय त्यां उपकरणोनी याचना करवान निषेध फरमावेल नथी. चातुर्मास सिवायना शेष काळमां जे स्थाने मासकल्प कर्तुं होय ते स्थळे पण खास प्रयोजन सिवाय बे मास पर्यन्तना समयमां उपगरणो न ग्रहण करवा. आ संबंधी विशेष वर्णन जाणवाना इच्छुके श्रीनिशीथसूत्रना चौदमा उद्देशानी चूर्णी जोवी. उत्सर्गमार्ग प्रमाणे ते वस्त्रने थीगडुं न देवानुं फरमाव्युं छे कारण के कह्यं छे के – “जे भिक्खू वत्थस्स एगं पडिआणिअं देइ देन्तं वा साइज्जइ । ” अर्थात् जे साधु वस्त्रने एक थीगडुं आपे अगर तो अन्य मुनि थीगडुं देतो होय तेनी अनुमोदना करे तो तेने दोषापत्ति थाय. साधुए सुतरना बे अने ऊननुं एक-एम त्रण वस्त्रो राखवा. वर्षाऋतुमां ऊननुं वस्त्र वापरतुं परन्तु वर्षाऋतु सिवायना शेष समयमां फक्त एकलुं ऊननुं वस्त्र न वापरवुं. अंदर एक सुतरनुं वस्त्र पण साथे राखवुं अने तेनी ऊपर ऊननुं वस्त्र ओढवुं. आ प्रमाणे जो साधु न वर्ते तो अविधिनो दोष आवे, कारण के फक्त एकला ऊनना वस्त्रना परिधानथी शरीर ऊपर थता प्रस्वेदथी अगर तो शरीरना संलग्नपणाथी जूं विगेरे जीवनी उत्पत्ति थाय अने परिणामे दोषोत्पत्ति संभवे. साधुनुं वस्त्र जो फाटी जाय तो कारणप्रसंगे त्रण थीगडा देवाय परन्तु जो ते उपरान्त चोथुं थीगडुं आपे तो प्रायश्चित आवे. श्रीनिशीथसूत्रमां कह्यं पण छे के– “जे भिक्खू वत्थस्स परं तिह पडिआणिआणं देइ देन्तं वा साइज्जइ । ” अर्थात् जे भिक्षु - साधु वस्त्रने त्रण थीगडा उपरांत चोथुं थीगडुं आपे अगर तो देनारनी अनुमोदना करे - प्रोत्साहन आपे तो प्रायश्चित आवे. आ संबंधमा विशेष हकीकत जणावतां कहे छे के आवी ज रीते वस्त्रने रंगे तेमज धोवे तो पण आलोयण आवे. कारणवशात् रंगवानुं अगर धोवानुं बने तो त्रण खोबा जेटला जळनो उपयोग करवो, परन्तु तेथी विशेष जळ वापरे तो प्रायश्चित आवे. श्रीगच्छाचार - पयन्ना— ६७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “जे भिक्खू अविहीए वत्थं सिव्वइ, सिव्वंतं वा साइज्जइ, जे भिक्खू वत्थस्स एगं फालिअं गंठिअंकरेइ करेंतं वा साइज्जड़, जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं फालिअगंठियाणं करेइ करें। वा साइज्जइ, जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठेइ गंठेतं वा साइज्जइ, जे भिक्खूवत्थं अतज्जाएण गंठेइ जे भिक्खू अइरेगं वत्थं गवेसइ गवसंतं वा साइज्जइ जे भिक्खू अइरेगगहिअं वत्थं परेण दिवड्डाओ मासाओ धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ।" [निशीथसूत्रप्रथमोद्देशके] - अर्थात् जे साधु अविधिपूर्वक वस्त्रने सीवे अगर तो सीवनारने सारो जाणे तो तेने आलोयण आवे. जेवी रीते गृहस्थो वस्त्रना बंने पडखाने मेळवीने सीवे छे तेवी रीते सीवे तो अविधिपूर्वक सीव्यु कहेवाय. तेवी रीते न सीववं. जे साधु वस्त्र फाट्या पछी तेने विशेष फाटतुं अटकाववा माटे फाटेला छेडानी गांठ वाळे अगर तो गांठ वाळनारनी अनुमोदना करे तो पण प्रायश्चित ग्रहण करवू पडे. आम छतां पण अपवाद मार्ग जणाववामां आव्यो छे के- कारणवशात् बीजं वस्त्र उपलब्ध न थाय तो निरुपाये त्रण गांठ वाळी शकाय, परन्तु ते उपरांत चोथी गांठ वाळीने राखे तो दोष लागे. वळी जे साधु अविधिए वस्त्रनी गांठ वाळे अने गांठ वाळनारनी अनुमोदना करे तो तेने अतिचार लागे. जे साधु श्वेत वस्त्रनी साथे रक्तवर्ण वस्त्र सीवे अगर तो नवी नवी जातना - वस्त्रोनी साथे सीवे तो पण दंड लागे. जे साधु पोतानी जरूरीयात करतां वधारे वस्त्र याचे अगर तो याचनारनी प्रशंसा करे तो पण तेने दोष लागे. कदाच कोई साधुए विशेष वस्त्र ग्रहण कर्यां होय -राख्यां होय तो तेणे ते वस्त्रो पोतानी पासे दोढ मास करतां विशेष समय न राखवा. राखे अगर तो राखनारने सारो कहे तो आज्ञाभंगनो दोष लागे. ऊपर जणावेल आज्ञानो अमल न करतां भंग करे तो एक मासनो गुरुदंड आवे. आ वस्त्र संबंधी विशेष हकीकत श्रीनिशीथसूचना प्रथम उद्देशामां जणावेल छे. पात्रविवरण - जो साधु एक रुपियाथी ते त्रण रुपियानी किंमतनुं पात्र ग्रहण करे तो 'लघुमास' नुं प्रायश्चित आवे अने चार रुपियानी किंमतथी प्रारंभी अढार रुपियानी किंमत सुधीनुं स्वीकारे तो 'गुरुमास'नी आलोयणा आवे. आ उपरांतनी किंमतनुं पात्र ग्रहण करे तो जेम जेम विशेष किंमत तेम तेम दंड प्रायश्चित पण विशेष समजी लेवू. पात्रोना प्रकारो वर्णवतां कहे छे के – “तुंबयदारुअमट्टिअ- पायं उक्कोसमज्झिमजहन्नं । उप्परिवाडी गहणे, चाउम्मासा भवे लहुगा ॥१॥" अर्थात् पात्रो त्रण प्रकारनां छे - (१) तुंबक -तुंबाना, (२) दारुक-काष्ठना (लाकडाना) अने (३) मृत्तिक-माटीना. आ त्रण प्रकारना पण त्रण त्रण भेदो छ- (१) उत्कृष्ट, (२) मध्यम अने (३) जघन्य. आ पात्रोने विपरीत रीते ग्रहण करवाथी चार लघुमासी प्रायश्चित आवे. काष्ठनु उत्कृष्ट पात्र नंदिपात्र, मध्यम मात्रक अने जघन्य टोप्परक जाणवू. माटीनुं उत्कृष्ट पात्र गोळो, मध्यम पात्र घडो अने जघन्य पात्र कुलडु (कुंडु) जाणवू. आ प्रमाणे तेना नव भेदो थया. आ प्रत्येकना पण त्रण त्रण भेदो छे. (१) यथाकृतं, (२) अल्पपरिकर्म अने (३) बहु परिकर्म. (१) यथाकृतं-जे- मुख पूर्वे करेल होय तेने लेपादि करीने कृत्रिकारुपे मळे तथा पडिमाथी निवृत्त थयेल कोई पण श्रावक अथवा तो निह्नवे करेल होय अने श्रीगच्छाचार-पयन्ना-/ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते आपे ते यथाकृतं कहेवाय. (२) जे पात्रनुं मुख अर्धांगुल प्रमाण छेदवुं पडे ते अल्पपरिकर्मित कहेवाय अने (३) जेनुं मुख अर्धांगुलथी विशेष छेदवुं पडे तेने बहुपरिकर्मित कहेवाय. आवा प्रकारना जे पात्रो छे तेने विपरीत प्रकारे ग्रहण करे तो चार लघुमासीनुं प्रायश्चित आवे. उपलक्षण लघुमास तथा पांच अहोरात्रिनुं प्रायश्चित पण जाणवुं. पात्र कई रीते ग्रहण करवुं ? यथाकृत पात्र ग्रहण करवाने माटे जाय त्यारे तेनी गवेषणा निमित्ते त्रण वार परिभ्रमण करवुं जोईए. आवुं फरमान छतां तेम न वर्ततां अल्प परिकर्मित उत्कृष्ट पात्र ग्रहण करे तो चउमासी लघुदंड आवे, अगर जो बहुपरिकर्मित पात्र प्रथमथ्री ज स्वीकारी ले तो पण चउमासी लघुदंड आवे. यथाकृत पात्रने माटे त्रण वार पर्यटन करवा छतां पण उपलब्ध न थाय तो अल्पपरिकर्मित पात्रनी गवेषणा करे अने ते समये प्रथम ज बहुपरिकर्मित पात्र मळी जाय अने ते ग्रहण करी ले तो पण चा लघुदंड आवे. आवी ज रीते मध्यम पात्रना संबंधमां जाणवुं परंतु दंड परत्वे चार मासी लघुदंड बदले त्रण लघु मास दंड जाणवो. आवी ज रीते जघन्य पात्र परत्वे पण जाणवुं, परंतु दंड पांच अहोरात्रिनो जाणवो. पात्र संबंधी आटलुं विवरण जणाव्या पंछी कहे छे के— जे प्रकारनुं पात्र लेवा नीकळ्या होय अने तेने बदले बीजा पात्रनुं ग्रहण करे तो पण नीचे जणाव्या मुजब प्रायश्चित आवे. उत्कृष्ट पात्र गवेषणा अर्थे नीकळ्या बाद तेना संबंधी गवेषणा कर्या विना ज मध्यम पात्र ग्रहण करे तो एकमासी दंड अने जघन्य ग्रहण करे तो पांच अहोरात्रिनो दंड आवे; मध्यम पात्र लेवा नीकळ्या बाद त्रण वखत गवेषणा कर्या विना ज उत्कृष्ट पात्र ग्रहण करे तो चार लघुमासी अने जघन्य पात्र ग्रहण करे तो पांच अहोरात्रो दंड आवे; जघन्य पात्र लेवा नीकळ्या बाद गवेषणा कर्या विना ज उत्कृष्ट पात्रनो स्वीकार करे तो चार लघुमास दंड आवे अने जो मध्यम पात्र स्वीकारे तो चार लघुमास दंड आवे अने जो मध्यम पात्र स्वीकारे तो एक मासी प्रायश्चित लागे. आ संबंधे विशेष अधिकार श्रीयतिजीतकल्प प्रकरणनी टीकामां दर्शावेल छे. उत्सर्गमार्गने अंगे श्रीनिशीथसूत्र आ संबंधे विशेष शुं जणावे छे ते पण संक्षेपमां तपासी जईए. “जे भिक्खू पायस्स एगं तुडिअंतड्डेइ, तड्डेतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू पायस्स परं तिण्हं तुडिआणं तड्डे, ततं वा साइज्जइ । " जे साधु पात्राने एक थीगडी आपे अगर तो आपनारने सारो कहे तेने आज्ञाभंगनो दोष लागे. जे मुनि पात्राने त्रण उपरांत थीगडी आपे अगर तो आपनारनी अनुमोदना करे तेने पण प्रायश्चित आवे. उत्सर्गमार्गथी पात्राने एक पण थीगडी लगाववानो अधिकार नथी परंतु अपवादमार्गथी कारणवशात् त्रण थीगडी लगाववानुं फरमान छे, परंतु ते उपरांत चोथी थीगडी लगाडी शकाती नथी. जो लगाडे तो आलोयण आवे. आ आज्ञाभंगना दोषमांथी बचवा माटे शास्त्रकार महाराज फरमावे छे के- परिकर्मित पात्र ग्रहण ज न करवा, शेष बीजा प्रकारनां ग्रहण करवा; कारण के तेने रंगवा पडता नथी तेमज थीगडी पण देवानी जरूरियात पडती नथी छतां पण श्रीगच्छाचार-पयन्ना— ६९ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाकृत पात्रना अभावमा परिकर्मित पात्र ग्रहण करवा पडे तो ज ग्रहण करवा अने अपवादरूपे त्रण वार थीगडी लगाइवी अने लेप करवो. ते उपरांतने माटे निषेध समजवो. आहारादि ग्रहण करती वखते पात्र पातळ होय अने भांगी पडवानो भय रहेतो होय तो बीजानुं पात्र मांगीने ते समये चलावq परंतु तेनु पात्र पुन: पाछु आपी देवू. जे पात्रमा थोडो आार समाय ते लघु पात्र समजवू. कदाच कोई देशमां तुंबानुं तथा काष्ठनुं पात्र मळतुं होय परंतु त्यां जवानो मार्ग विषम-भयावह होय तो पोताना भांगेल पात्रने थीगडी दईने राखq. __ हवे थीगडी देवानो अधिकार जणावतां कहे छे के - “जे भिक्खू पायं अविहीए बंधइ बंधेतं वा साइज्जइ जे भिक्खू एगेणं बंधेणं बंधइ, बंधेतं वा साइजइ, जे भिक्खू पायं परं तिण्हं बंधाणं बंधइ बंधेतं वा साइज्जइ।" एटले के जे साधु पात्राने अविधिए बांधे अगर तो बांधनारने सारो जाणे तेने दोष लागे. जे साध एक बंध (थीगडी) थी बांधे अगर तो बांधनारने अनुमोदे तेने आलोयण आवे. जे साधु पात्राने त्रण करतां वधारे थीगडी लगावे अगर तो लगाडनारनी अनुमोदना करे तो तेने दोष लागे. स्वस्तिकबंध अने स्तेनबंध ए अविधि छ; ज्यारे मुद्रिका तथा नौ (जहाज) बंध ए विधिपूर्वकनो बंधछे. बंध न करवो पडे एवं पात्र ग्रहण करवं, अने ते न मळे तो एक थीगडी लगाववी पडे तेवू पात्र स्वीकारवू. तेवू पात्र पण न मळे तो बे अगर त्रण बंध बांधवा गडे तेवू ग्रहण करवू परंतु तेथी वधारे बंध बांधे तो आज्ञाभंगनो दोष लागे अने प्रायश्चित स्वीकारवू जोईए. आ संबंधमां अपवाद मार्गनुं सूचन करतां कहे छे के–“जे भिक्खू अइरेगबंधणं पायं दिवडाओ मासाओ परेण धरइ धरेंतं वा साइज्जइ ।” अर्थात् कारणवशात् त्रण बंध उपरांतनुं पात्र राखq पड्यु होय तो तेने दोढ मासथी (४५ दिवसथी) विशेष समय राखवू नहीं. जो राखे तो अन्य उपकरणोनो नाश थाय, ज्ञानादिकनी विराधना थाय, शरीरने पीडा उपजे अने भिक्षा-गोचरी न मळे, वळी चारित्रविराधना थाय अने मरणांत उपसर्ग पण आवी पडवानो भय रहे माटे समचोरस अगर तो गोळ पात्र ग्रहण करवं, जे भूमि पर रही शके. वळी आ वस्त्र तथा पात्र साधुए केटला केटला राखवा अने केटला मोटा राखवा ते संबंधी विशेष वर्णन श्रीनिशीथसूत्रनी चूर्णीना सोळमा उद्देशामां, बृहत्कल्पना त्रीजा उद्देशानी टीकामां तथा ओघनियुक्तिमा जणावेल छे, माटे विशेष जाणवाना जिज्ञासुए त्यांथी जोई ले. वसति संबंधी विवरण - ज्यारे मुनि समुदाय विशेष होय अने वसति (उपाश्रय) सांकडी होय त्यारे एक, बे अगर तो त्रण वसति पडिलेहवी. चातुर्मासमां पण त्रण वसति पडिलेहवी. हवे केवी वसति शोधवी अगर तो पसंद करवी ते संबंधे जणावतां कहे छे के–“मूलुत्तरगुणसुद्धं थीपसुपंडगविवज्जियं वसहिं। सेवेज्ज सव्वकालं, विवज्जए हुंति दोसाओ ॥१॥" मूळ अने उत्तरगुणथी शुद्ध, स्त्री, तिर्यंच अने नपुंसकथी रहित होय एवी वसतिमां ज हमेशने माटे निवास करवो, तेनाथी विपरीत-मूळ अने उत्तरगुणथी रहित अने स्त्री, तिर्यंच तथा नपुंसकवाळी वसतिमां जो रहे तो दोषोत्पन्न थाय. आवी श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ७० Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोषवाळी वसतिमां साधुए रहेवू नहीं. मूळ गुणवडे अशुद्ध सात प्रकारनी वसति वर्णवतां कहे छे के–“पिट्टीवंसो १ दो धारणीउ २-३, चत्तारि मूलबेलीओ४-७ । मूलगुणे हुववेया, एसा अहागडा वसही ॥ २ ॥" १ पृष्टिवंश - मध्यवलक एटले आडवलो (ताटी), २-३ धारणी - वडीवेली (वळीओ) एटले आडवलने धारण करनारी, ४-७ मूळवेळी घरने चारे बाजु लगाडे छे ते वल अर्थात् स्थंभ आ प्रमाणे सात प्रकारनी वसती साधुने माटे करे-चणावे तो ते आधाकर्मी वसति जाणवी. साधुए आवी वसतिनो त्याग करवो. उत्तरगुण वसति बे प्रकारनी छे -१ मूलोत्तरगुणवसति अने २ उत्तरोत्तरगुणवसति. मूलोत्तरगुणवसतिना सात प्रकार छे. “वंसग १ कडगु २ क्कंबण ३, छायण ४ लेवण५ दुवार ६ भूमीय७ । परिकम्मविप्पमुक्का, एसा मूलुत्तरगुणेसु ।। ३ ॥" १ वंसक - वांस (दांडा), २ कटक - घरने चारे तरफ कंतान लगाडीने कराती भीत, ३ कंबण - वासनी ऊपर बांधवानी कांबीओ, ४ छायण - कांबीनी ऊपर छाया माटे तृण अगर तो केलुनु आच्छादन करे ते, ५ लेपण - छाण, गारो विगेरेवडे करेल लीपण, ६ दुवारक - घरना बारणां मोटा करे अगर तो बीजा करे. बारणुं मोटुं होय तो नानु करे, नानु होय तो मोटुं करे अथवा तो एक बारणाना बे बारणा करे. ७ भूमिक - भूमिकर्म करे एटले घरनी जमीन ऊंची-नीची होय तो सरखी करे, खाडा पड्या होय तो पूरे, टेकरा जेवू होय तो खोदी नाखीने सरखं करे- आ प्रमाणे साधुने निमित्ते करे-चणावे तो तेवी वसति साधुने कल्पे नहीं. आ प्रमाणे ऊपर जणावेल पृष्टिवंश विगेरे सात अने वंशक विगेरे सात-ए प्रमाणे चौद दोषवर्जित वसति साधुए शोधवी पसंद करवी. हवे उत्तरोत्तरगुणवसतिना उपघातो जणावे छे के–“दूमियधूवियवासिय-उज्जोवियबलिकडा अवत्ता य। सित्ता सम्मट्ठावि य, विसोहिकोडीगया वसही ॥४॥" १ दूमिय - खडी प्रमुखथी भीत विगेरेने धोळ करावे, घठारी मठारी शोभायमान करे, २ धूविय - धूपित एटले वसतिने धूपद्वारा सुवासित करे दुर्गंधमय वसति जाणी धूप, अगरादि उखेवीने सुवासित करवी. ३. वासित - पुष्प प्रमुख पथरावीने - बीछावीने दुर्गंधी दूर करवी, ४. उज्जोविय- वसतिमां अंधकार जाणी प्रकाश करवा माटे दीपक विगेरे स्थापन करे अगर तो प्रकाश माटे नवा जाळिया करावे, ५ बलिकडा - प्रथम वसति भोगवनारने भातनो बलि अर्पण करे अने पछी वसतिमां वास करे, ६ अव्यक्त-छाण, माटी, जळ अगर तो गारावडे आंगणाने लिंपे अगर तो पवन आवतो होय तेने अटकाववा माटे सचित्त वस्तुओ बांधे,७ सित्ताधूळ न उडे ते माटे पाणीनो छंटकाव करावे, ८ सम्मट्ठा - कचरो काढीने साफ करी होय सन्मार्जित थयेल होय अगर तो जाळा थयेल होय ते साधु निमित्ते साफ करावेल होय- आ आठ प्रकारो साधुने निमित्ते जे वसतिमा कर्या होय ते वसतिमां साधुए निवास न करवो. आ प्रमाणे चउशालादिक वसतिने विषे पण मूलोत्तर गुणनो विचार जाणवो. वसतिने अंगे ऊपर जणाव्या ते दूषणो उपरांत श्रीआचारांगसूत्रने विषे कालातिक्रांत विगेरे दोषो दर्शाव्या छे, जे- संक्षिप्त स्वरूप नीचे प्रमाणे छे– “कालाइक्कंत १ उव-ट्ठाण २ अभिक्कंत ३ अणभिकंता ४ य । वज्जा५ य महावज्जा ६, सावज्जा ७ मह ८ प्पकिरिया ९ य ॥१॥"१ कालातिक्रान्त-जे स्थाने चातुर्मास रह्या होय तथा बाकीना समयमां (शेष काळमां) जे वसतिमां श्रीगच्छाचार-पयन्ना-७१ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासकल्प कर्यो होय ते वसतिमां साधुए न रहेवुं एटले के चातुर्मास करेल स्थानमां चातुर्मास उपरांत एक दिवस पण न रहेवुं, जो रहे तो कालातिक्रान्त वसतिनो भोगवनार बने अने दंड-प्रायश्चित आवे. आवी ज रीते मासकल्प उपरांत एक दिवस वधु रहे तो पण ते दोष लागे. २ उपस्थापना - जे वसतिमां चातुर्मास करेल होय ते वसतिमां आठ मास वर्ज्या विना तेमज मासकल्प कर्तुं होय ते वसतिमां बे मास पहेला आवे तो उपस्थापना दोष लागे एटले के जे स्थानमां चोमासुं कर्तुं होय ते स्थानमां आठ महिना व्यतीत थया पूर्वे आवे तो वास न करवो तेमज मासकल्प कर्यु होय तो बे महिनानो समय पसार थया बाद आववुं. आ प्रमाणे न वर्ते तो उपस्थापना दोष लागे अने आलोयण आवे कोई कोई आचार्य एम कहे छे के- जे वसतिमां चातुर्मास करेल होय ते स्थानमां बे चातुर्मा जेटलो बीजो समय व्यतीत थई जवा बाद रहेवुं. ते प्रमाणे न वर्ते तो पण उपस्थापन दोष लागे. ३ अभिक्रांत - जेटली वसतिनुं बीजाए सेवन करेल होय ते अभिक्रांत वसति कहेवाय, तेवी दोषव्याप्त वसतिमां साधु रहे तो ते अभिक्रांत दोषनो भागी थाय ४. अनभिक्रान्त आधाकर्मी दोषवाळी वसतिमां बीजा कोईए वास करेल होय ते. ५. वज्जा - कोई गृहस्थे पोताना निमित्ते मकान चणाव्यं होय ते साधुने वसति माटे आपे अने पोते पोताना माटे नवुं चणावे तो ते वसतिमा रहेनार साधु वज्जा दोष लागे अगर तो कोई गृहस्थे पोताने माटे तंबू ऊभो कराव्यो होय अने ते तंबू साधु वसति माटे आप्या पछी पोताने माटे बीजो नवो तंबू ऊभो करावे तो पण साधुने आ दोष लागे. ६ महावज्जा अन्यतीर्थिक, सन्यासी, बावा, पाखंडी निमित्ते आरंभ करीने जे वसति चणावी होय तेवी वसतिमां साधु जो वास करे तो आ दोष लागे, ७ सावद्य - कोई पण एक साधुने निमित् . करेल वसतिमां रहे तो आ दोष लागे, ८ महासावद्य - सर्व साधुओने माटे करेल वसतिमां पोते एकलो ज रहे तो आ दोष लागे, ९ अल्पक्रिया-जे वसतिमां पूर्वे कही गयेल मूळगुण, मूळोत्तरगुण अने उत्तरोत्तरगुणना जे दोषो वर्णव्या ते न होय, तेमज कालातिक्रांतादि दोष रहित होय अने गृहस्थे पोताने माटे बनावीने तेमां साधु निमित्ते कई पण आरंभ समारंभ न कर्यो होय अगर तो कई पण वस्तु अघी - पाछी न करी होय, काजो पण न लीधो होय तेवी वसति अल्पक्रिया वसति जाणवी. आवी वसतिमां निवास करतां साधुने कोई पण प्रकारनो दोष न लागे. अहीं 'अल्प' शब्द अभाववाचक छे, एटले अल्पक्रियानो अर्थ क्रियारहित अगर तो सर्व दोष रहित वसति जाणवी. आ जणावेल नव प्रकारनी वसति पैकी छेल्ली नवमी 'अल्पक्रिया' वसतिनी पसंदगी करवी. आ वसति मळे त्यां सुधी आठ प्रकारनी वसतिनो उपयोग पण न करवो. आ प्रमाणे उत्सर्गमार्ग जाणवो. - - हवे अपवादमार्ग दर्शावतां कहे छे के अल्पक्रिया नामनी नवमी वसति न मळे तो प्रथम कालातिक्रांत वसति ग्रहण करवी, ते प्रथम वसति पण न मळे तो बीजी उपस्थापना वसति स्वीकारवी. ते बीजी न मळे तो त्रीजी, त्रीजी न मळे तो चोथी, चोथी न मळे तो पांचमी, पांचमी न मळे तो छट्ठी, छट्ठी न मळे तो सातमी अने सातमी न मळे तो आठमी वसति ग्रहण करवी; परन्तु प्रमाद राखी वसतिनी गवेषणा कर्या विना रहे तो दंड आवे - प्रायश्चित लेवुं पडे. जे आचार्य आवा प्रकारनी वसतिनो संग्रह करे तेने सदाचार्य जाणवा. श्रीगच्छात्चार—पयन्ना— 192 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यारपछीनुं नवं विशेषण जणावतां कहे के-साहुवग्गं. साधुओना समुदायने संग्रहे एटले के आचारवंत, क्रियापात्र, संयमप्रेमी साधुओ होय तेने राखे, तेनुं रक्षण करे, तेनी गोचरी, पात्र तथा वस्त्रादिकनी सारसंभाळ राखे, औषध विगेरेनी तपास राखे परन्तु जे हीनाचारी होय, संयमथी पतित थयेला होय तेवा साधुने न राखे. फक्त पोतानी प्रतिष्ठा के वाहवाहने माटे ज्यांत्यां जेवातेवा शिष्योनो समुदाय वधार्या न करे. हवे सदाचार्य- छेल्लुं विशेषण जणावतां कहे छे के - सूत्रार्थनें चितवन करे एटले के-आचारांग, सुयगडांगादि सूत्रोना अर्थ, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, संग्रहणी, वृत्ति तथा टिप्पनादिक जे पूर्वाचार्योए रचेला छे तेने अवधारे-जाणे-सूत्रार्थ चिंतवे अने शिष्यपरिवारने पण ते आपे-समजावे, परन्तु दुर्विनीत शिष्य होय तेने न भणावे-न शीखवे. आवा लक्षणवाळा जे आचार्य होय ते सदाचार्य एटले के मोक्षमार्गवाही जाणवा. आनाथी विपरीत रीते वर्तनारा अनाचारी जाणवा. तेवा भ्रष्टाचारी सूरि शिष्यना वैरी-शत्रु समान जाणवा. शत्रु सदृश आचार्यनां लक्षणो केवा होय बेगावलडे दर्शावतां कहे छे के संगहोवग्गहं विहिणा, न करेइ अजो गणी । । समणं समणिं तु दिक्खित्ता, सामायारिं न गाहए ।। १४ बालाणं जो उ सीसाणं, जीहाए उवलिंपए। न सम्ममग्गं गाहेइ, सो सूरी जाण वेरिओ ।। १६ ॥ [संग्रहोपग्रहं विधिना, न करोति च यो गणी। श्रमणं श्रमणीं तु दीक्षित्वा, सामाचारी न गाहयेत् ॥१५४। बालानां य: पुन: शिष्याणां, जिह्वया उपलिम्पेत् । । न सम्यग्मार्गं ग्राहयति, सः सूरिर्जानीहि वैरी ।। १६ ॥] गाथार्थ: – जे आचार्य आगमोक्त विधिपूर्वक ज्ञानादिक उपकरणो तेमज शिष्यनो तेमना संरक्षणपूर्वक संग्रह न करे, तेमने आहारपाणी प्रमुख के ज्ञान प्रमुखनी प्राप्ति थाय तेवो आश्रय न आपे, साधु-साध्वीओने दीक्षा आपी तेमने अष्ट प्रवचनमाता- पालन करवानी समजण पडे तेवी सामाचारी नि:स्वार्थपणे न शीखवे, वळी बाळ-अज्ञ-अबोध शिष्यो प्रत्ये, गाय जेम वाछरडाने जीभवडे चाटे-चुंबन करे तेम मोहपूर्वक चुम्बनादिक चेष्टा करे, यथार्थ मोक्षमार्ग न बतावे- न समजावे अने कोई साधु शिखवता होय तो तेनुं निवारण करे-आवा लक्षणवाळा सूरि-आचार्यने जैनशासनना शत्रु जाणवा. आवा आचार्यो मोक्षमार्गभंजक होय छे. १५-१६ विवेचन - सारा आचार्यना लक्षणो जाण्या तेम भ्रष्टाचारीना पण जाणवा उचित छे, कारण के तो ज कनक अने पीतळ वच्चे रहेलो तफावत समजाय. बाह्य देखाव परथी कोई पण प्रकारसाचुं अनुमान न थई शके, तेने माटे तो तेमनी रहेणीकरणी अने अनुष्ठानोनी बारीक तपास करवी जोईए. आवा मोक्षमार्गना भंजक आचार्यना पाशमां पडनार व्यक्तिना आत्मानो उद्धार थई शकतो भसा-भा. श्रीगच्छात्तार-पयन्ना-193 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नथी, कारण के लोढानो गोळो गळे बांधी तरवानी आशी राखीए ते क्याथी पार पडे? लोढानो गोळो पोते डूबे छे अने पोताना आश्रयभूतने पण डुबाडे छे. दुःशील आचार्य शिष्यादिनो संग्रह न करे, तेनुं संरक्षण न करे, आगममां दर्शाव्या प्रमाणे आहार-पाणीनी सारसंभाळ न राखे तेमज सूत्र-सिद्धान्तनुं अध्ययन पण न करावे. अर्थ न शीखवे, साधु-साध्वीने तथा * प्रतीच्छक गणीने दीक्षा आपीने सामाचारी पोताना गच्छनी रीतभात, आचार-विचार तेमज पंचांगीमां दर्शावेल मार्ग, रात्रि संबंधी क्रिया, दिवस संबंधी क्रिया-अनुष्ठानो न शीखवे. वळी बालशिष्यो-लघुशिष्योने लाड लडावे, पोताना मोहनीयकर्मना उदयथी तेना मस्तक तथा कोमळ हाथ प्रमुखने, जेम गाय पोताना वाछरडाने चाटे तेम, चुंबन करे. आ उपरांत तेने ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप मोक्षमार्ग न दर्शावे एटले के तेना प्रत्ये वात्सल्य राखे, तेने लाड लडावे, रमत करावे पण शुद्ध मार्ग न देखाडे, शास्त्र पण भणावे नहीं. आवा आचार्यने शिष्यादिकनो शत्रु जाणवो; कारण के साधु थवा छतां, संसारसागर तरवानो हेतु पार पडतो नथी तेमज भवभ्रमण वधे छे अने उभय आत्मानुं अकल्याण थाय छे. - अहीं कोई शंका करतां प्रश्न करे के–“बालादिकने दीक्षा देवानो शास्त्रमा निषेध छे अने तमे तो बालशिष्यनी वात करा ते कई रीते घटी शके? आ शंका- समाधान करतां शास्त्रकार जणावे छे के-“शास्त्रमा बाल दीक्षा देवानो निषेध कर्यो छे ते आठ वर्षथी ओछी वयनी दीक्षा माटे जाणवो एटले के छ-सात वर्षनी वयनो होय तो तेने बाल जाणवो, आठ के तेथी विशेष उम्मरनो होय तो तेने बालशिष्य न जाणवो. अहीं बालशिष्य एटले आठ वर्ष करतां विशेष वयनो जाणवो. आम छतां पण शास्त्रमा अपवाद तरीके छ-सात वर्षनी वयना बाळकने पण दीक्षा देवानो अधिकार दर्शावेल छे. अही प्रसंगने लगतुं विशेष वर्णन करतां जणावे छे के–“बाले १ वुड्ढे २ नपुंसे य ३, जड्डे ४ कीवे य ५ वाहिए ६ । तेणे ७ रायावगारी य ८, उम्मते ९ य अदंसणे १० ॥१॥ दासे ११ दुढे य १२ मूढे य १३, अणत्ते १४ जुंगिए १५ इय । ओबद्धए य १६ भयए १७, सेहनिफेडिया १८ इय ॥२ ।। गुब्विणी सबालवच्छा, पव्वावेउं न कप्पए। कायव्वा दुपयसंजुत्ता, एएसि तु परूवणा ॥३॥" १ बालक, २ वृद्ध, ३ नपुंसक, ४ क्लीब, ५ जड, ६ व्याधिग्रस्त, ७ स्तेन-चोर, ८ राजद्रोही, ९ उन्मत्त-यक्ष विगेरना दोषथी गांडो बनेल, १० अंध, ११ दास, १२ दुष्ट, १३ मूढ-विवेक रहित, १४ ऋणात, १५ जुंगित (हलका कुळनो), १६ अवबद्ध - ऋणादिकथी परवश पडेल, १७ भृत्य अने १८ शिष्यनिष्फेटिका-मातापितादिनी आज्ञा विना-आ अढार प्रकारना पुरुषोने दीक्षा न आपवी. स्त्रीओमां आ अढार प्रकार उपरांत बे भेद (ओगणीश तथा वीश) विशेष जाणवा. १९ गर्भवंती अने २० स्तनपान करतां बाळकवाळी. तेमने पण दीक्षा न देवी; छतां कारणवशात् * बीजा गच्छमाथी सूत्रार्थ जाणवा माटे आवेल साधु. १.त्रण प्रकारना ज छे. भाषाजड, शरीरजड अने इंद्रियजड २. दृष्टिविहीन अथवा तो स्त्यानर्धि उदयवाळो पण जाणवो. ३.त्रण प्रकारना मुंगित छे. जातिहीन, कर्महीन अने अंगहीन, चांडालांदि अस्पृश्य ते जातिहीन, कसाई, माछीमार विगेरे कर्महीन अने अवयवथी हीन ते अंगहीन जाणवा. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-७४ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा देवी ज पडे तो अपवाद तथा उत्सर्गमार्गनो विचार करवो. १ बालक - छ सात वर्षनो होय ते बालक कहेवाय. आवा लघुबाळने दीक्षा आपे तो जैनशासननी हीलना थाय संयमविराधना थाय स्वाध्यायनी हानि थाय तेमज आत्मघाती पण बने. बाळस्वभावसुलभ चंचळ चित्तना कारणे विशेष हलन-चलनथी अगर तो आवा-जावाथी जीवोनी विराधना थाय, संयमनी पण विराधना थाय, लोकमां पण अपभ्राजना-निंदा थाय. लोको कहे के–“आवा लघु बालकने दीक्षा आपी पण ते बालक तेमां शुं जाणे? खावा-पीवाथी आ बालक दुःखी थाय तो पण आ साधुओने दया आवती नथी. आ साधुओ तो निर्दय बनीने पोताना स्वार्थने माटे शिष्योनु जूथ वधारे छे.” लोकनिंदाना भय उपरांत दीक्षित बालकना मातपिता तेनी पासे आवे त्यारे पण ते तेना पुत्रने प्रलोभन आपतां नथीने? एवी शंकाथी ते लघुशिष्यनी बराबर तपास राखवी पडे, अने तेने परिणामे स्वाध्यायनी हानि थाय. जो बालकना माता-पिता रोषावेशमां आव्या होय तो दीक्षा - गुरुने हणवानो - मारवानो पण प्रयत्न करे अने तेथी आत्मविराधना पण थई जाय. आ बधा दोषोनो विचार करी बालदीक्षा न आपवी ते ज उचित छे. आ संबंधमां बालदीक्षाना हिमायती कोई कहेशे के–“अतिमुक्तने छ वर्षनी उमरे अने श्रीवज्रस्वामीने पण लघुवयमा ज दीक्षा केम आपी?" आनो प्रत्युत्तर ए छे के–“तेमने दीक्षा आपनारा आचार्य आगमव्यवहारी तेम ज ज्ञानी हता. कोई बालकने श्रेष्ठ लक्षणवंत जाणी, तेना द्वारा शासननी प्रभावना उद्योत थशे एम विचारी श्रेष्ठ आचार्य दीक्षा आपे तो तेमां दोष न जाणवो ए अपवाद मार्ग छे कारण के तेवो उल्लेख पंचकल्पभाष्य तथा चूर्णीमां करेल छे. कोईनी देखादेखीथी बालदीक्षा न आपवी ए उत्सर्गमार्ग छे. अइमुत्ता मुनि तथा श्रीवज्रस्वामीनु संक्षिप्त वृत्तांत नीचे प्रमाणे छेअतिमुक्तक कुमारनी कथा भारतवर्षना विशाळ नगरोमा पोलासपुरनुं स्थान महत्त्व- गणातुं. राजवी श्रीविजय अने राणी श्रीमती पोतानी प्रजाने स्वसंतान सदृश जाणीने तेनुं सारी रीते पालन करतां. वशपरंपराथी चाल्या आवता जैन धर्मना संस्कार उभय दंपतीमां एटला बधा सुदृढ हता के शासननी प्रभावना निमित्ते अवारनवार धार्मिक महोत्सवो योजाता. दीन के दरिद्र नजरे पडतां के तेनुं श्रवण थतां ज राजवी तेना दारिद्रय़ निवारणनो मार्ग योजतो अने ए रीते समग्र प्रजा राजवीनी राज्यप्रणालिकाथी संतुष्ट रहेती. पोलासपुरनी यश-पताका. पण देश-देशांतरमा विजयध्वजनी माफक, राजवीना गुणगान गाती फरफरवा लागी हती. ___ आ संस्कारसंपन्न दंपतीना जीवनमा समग्ररीते सुख होवा छतां एक मात्र खामी हती. 'सोनानी थाळीमां लोढानी मेख' ए उक्तिनी माफक संसारसुख भोगवतां बहु वर्षों व्यतीत थई जवा छतां संसारसुखना फलस्वरूप संतान तेमने प्राप्त थयुन हतुं. कर्मना अगम ने अचळ सिद्धांतोना जाणकार तेओ हता, तेथी न तो ग्लानि अनुभवता के चिंतामग्न रहेता. ऊलटुं प्रतिदिन तेओनी धर्मभावना ने धर्मकरणी वृद्धिगत भावने प्राप्त थती. कर्मराजा केवा केवा तमासा योजे छे अने पराधीन जगज्जीवो श्रीगच्छाचार–पयन्ना- ७५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नटनी माफक आ संसार-रंगभूमि ऊपर केवा नाच-नृत्य करे छे ते समभावपूर्वक उभय निहाळता. संतसमागम अने तेमना उपदेशनुं श्रवण ए पण तेमनुं अहोनिश आवश्यक कर्तव्य बनी गयुं हतुं. छेवटे भाग्य योगे तेमना संसारजीवननी ऊणप-कमी पण दूर थई. राणी श्रीमती ए दिव्य कांतिवाळा पुत्ररत्नने जन्म आप्यो. पुत्रजन्मनी वधामणीमां राजवीए द्रव्यने जळप्रवाहनी माफक वहेतुं मूक्युं राजाने पितावत् गणनारी प्रजाए पण पूर्ण उत्साहथी आ आनंद-प्रसंगमां पोतानो साथ पूर्यो. राजकुमारनुं नाम अतिमुक्तक राखवामां आव्यु. शुक्लपक्षनी द्वितीयाना चंद्रनी माफक ते प्रतिदिन वृद्धि पामवा लाग्यो. बालसुलभ काली-घेली वाणीथी अने विविध क्रीडा-कुतुहळथी ते राजकुमार सौ कोईने आनंद उपजावी पोता प्रत्ये आकर्षी लेतो. ___ भाग्यवान आत्मानी पूर्व तयारी ज अनेरी होय छे. तेमना आचार-विचार अने वर्तन विलक्षण रीते भिन्नभिन्न नजरे पडे छे. एकादो प्रसंग सांपडतां तेओ पोतानुं उच्च कक्षाए चडवानुं अधूरुं रहेखें कार्य पुन: शुरु करे छे अने सर्प जेम कांचळीनो त्याग करे तेम संसारसुखभोगोनो क्षण मात्रमा त्याग करे छे. दारुगोळाथी भरपूर तोपने एक मात्र चीनगारीनी ज जरूर रहे छे, चीनगारी प्राप्त थतां ज ते पोतानुं कार्य शरू करी दे छे तेम पूर्वजन्मना संस्कारी आत्माओने निमित्त मळतां ज पोतानुं मोक्षमार्ग प्रतिनुं प्रयाण लंबावे छे. बाळवय ए निरीक्षण वय छे. आ वयमां बाळक दरेके दरेक पदार्थोनुं निरीक्षण करी तेमांथी शिक्षण ग्रहण करे छे, अमुक प्रकार- तेनुं वलण निश्चित बनी जाय छे एटले ज लोकोक्ति छे के–“कुमळा छोडने जेम वाळीए तेम वळे." अतिमुक्तक कुमारनी वय हवे छ वर्षनी थवा आवी हती, छतां तेनी निपुणता, चालाकी अने वाक्कुशळता दीर्घअनुभवी वृद्ध पुरुष जेवी हती. एकदा ते पोतानी उम्मरना बाळको साथे क्रीडा करी रह्यो हतो तेवामां गणधर श्रीगौतमस्वामी मंद मंद पगलां भरतां ईर्यासमितिपूर्वक ते बाजु ज आवी रह्या होय तेम जणायु. श्रीगौतमस्वामी नजीक आवतां ज तेणे भावपूर्वक नमस्कार को. उभयना नेत्रो मळतां ज अतिमुक्तकथी सहसा बोलाई जवायु के–“हे भगवन् ! हुं तमारा जेवो थईश.” पूर्वभवनी तैयारी विना, कुदरतना कोई अगम्य संकेत वगर आईं कथन शुं शक्य छ ? खरेखर ज्ञानीना रहस्यपूर्ण वचनो अने कर्मराजनी गहनता अज्ञ जनथी परखाती नथी. बाळकनी इच्छानो जवाब आपतां श्रीगौतमस्वामीए का के–“वत्स ! तारी हजु लघुवय छे. चारित्र तो खांडानी धार जेवू उग्र छे. चारित्रपालन एटले मीणना दांतथी लोढाना चणा चाववा जेवू छे.” कुमारे प्रत्युत्तर आपतां का के–“भगवन् ! जो के हुँ शिशुं छु छतां मारो आत्मध्वनि कहे छे के - हुं जरूर तमारा जेवो थईश. आप मारे त्यां गोचरी अर्थे पधारो. आपने अनुकूळ अन्नपान तैयार छे. आपना पुनित पगलां करी मारा प्रासादने अने साथोसाथ मारा हृदयरूपी आवासने पवित्र बनावो.” अतिमुक्तकना आग्रहथी श्रीगौतमस्वामी तेनी साथे गया अने उचित आहार वहोरी पंथे पड्या . श्रीगौतमस्वामी गणधर महाराजना गमन बाद अतिमुक्तकना हृदयमां मंथन शरू थयु. विचारधारा वेगपूर्वक शरु थई गई. एक ज मात्र लक्ष्यबिन्दु तेमनी नजर सामे तरवरवा लाग्यु- हुं श्रीगच्छाचार–पयन्ना– १६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतमस्वामी जेवो कई रीते बर्नु ? श्रेष्ठ पंक्तिना विचारो करवामां कईं मुश्केली नथी, हवाई तरंगो तो मन कल्प्या ज करे छे परंतु तेनो अमल करवामां ज मानवनी महत्ता छे. श्रीगौतमस्वामी जेवा बनवानो विचार करवामां कईं मुश्केली नहोती परंतु चारित्र स्वीकारी, शुद्ध रीते तेनुं पालन करी, साधुजीवनना परीषहो सहन करी तेमना जेवा थq ए कई नानीसूनी वात नहोती. परंतु मक्कम मन शुं नथी साधी शकतुं ? मनना आवेग ने आवेगमां अतिमुक्तक ऊभो थयो अने शीघ्र गतिए श्रीगौतमस्वामीनी पाछळ गयो. तेमने पोतानी चारित्र स्वीकारनी मनोभावना जणावी. श्रीगौतमस्वामी तेने प्रभु श्रीमहावीर समीपे लई गया. प्रभुए मात-पितानी संमति लई आववा कॉ. अतिमुक्तके मातपिता पासे आवी सर्व हकीकत जणावी पोतानी मागणी मूकी के–“मने परमात्मा श्रीमहावीर देव पास प्रव्रज्या अपावो.” । ___ मात-पिताने मन अतिमुक्तकनी मागणी धरती कंपना आचंका जेवी हती. विद्युत्पात क्षणमात्रमां बाळीने भस्म करी मूके तेम राजकुमारना आ विचारथी राजदंपतीनो आशा - महेल भांगीने भूक्को थई जतो हतो. एकना एक लाडकवाया पुत्र पर तेमणे केटलाय मनोरथ-महेल चण्या हता; ज्यारे पुत्रनी दिशा तो अनोखी ज मालूम पडी. संस्कारसंपन्न राजवीने आना कानी करवानुं कईं कारण नहोतुं, ऊलटुं पुत्रना आसन्नसिद्धित्व अने पूर्वसंस्कारित्वमाटे मान उपज्युं हृदय प्रसन्नता अनुभववा लाग्युं छतां पुत्रनो संयम-रंग पतंगना रंगजेवो क्षणजीवी छे के मजीठना रंग जेवो दृढ छे ते तपासवा माटे तेमणे कां के ___ "वहाला पुत्र ! आ तुं शुं बोले छे ? अंधपुरुषनी लाकडी समान अने निराधारना आधार तुल्य तुं अमारो लाडकोडमां उछरेलो एकनो एक ज पुत्र छे. तुं तो अमारी आंखनी कीकी. कीकी नष्ट थई जतां जेम आंख निरुपयोगी थई जाय छे तेम तारा विना अमने पण आ राज्यवैभव नकामा थई पडशे. अमारी वृद्धावस्थामां पण तारा सिवाय अमारी सारसंभाळ कोण लेशे? आ विशाळ राज्य अमे कोने सुप्रत करशुं? दीक्षाग्रहणनो समय अमारो छे के तारो? तेनो तो जरा विचार कर. अमारा केश श्वेत थया छे अने तुं तो विकास पामता कुसुम सरखो छे माटे उतावळ न कर. आ राजवैभव भोगवीने पछी तारुं मनोवांछित साधजे." ___ “वहाला जनक तथा जननी ! विशिष्ट ज्ञान वगर केम जाणी शकाय के तमे वृद्ध छो अने हुं बाळक छु ? शुं यमराज केश- श्वेतपणुं निरखी आमंत्रण मोकले छे? चक्षु सामे आपणे जोई रह्या छीए के पग जेना शक्तिहीन थई गया छे, नेत्र जेना वही रह्या छे अने गात्र जेना गळी जवा लाग्या छे एवा वृद्धने पडतो मूकी, जेने संसारने निहाळ्या पूरा पांच चोमासा पण नथी थया, अरे ! जेना केशनी काळाश पण मनोहरताने धारण करवा लागी होय छे अने जे हजु दुनिया कई चिडियानुं नाम छे ए जाणतो पण नथी एवा अर्भकने शुं यमराज नथी उपाडी लेतो? माटे ज नाना-मोटाना के वयना विचार नकामा छे. वळी पूज्य पिताश्री ! विचारो के कोण पुत्र छे ने कोण माता के पिता छे ? संसारभ्रमणमां आ जीवने एवा केटलाय संबंधो थई गया तेनी कईं नोंध छे ? आ जे माता छे ते भूतकाळमां पिता, श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ११ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्राता के पुत्रना संबंध थी केटली य वार जोडाई चूकेल छे. कर्मराजनी जाळमां संबंधनी सरखाई शोधी पण जडे तेम नथी. वीतरागना वचन मुजब सर्वे आत्मा पथिक तुल्य छे, ए सिवाय न तो माता के न तो पिता, नथी तो प्रिया के नथी तो संतान, अने तेवी ज रीते तो न भाई के न तो बहेन शरण आपनार थई शके छे. ज्यां पोते ज पराधीन छे त्यां बीजाने शरणभूत थाय पण केवा प्रकारे? रंक आत्मा कोटि द्रव्यनुं दान क्याथी करी शकवानो? शरण तो ते महात्मानुं लेवू घटे के जेणे त्रण लोकमां परम ऐश्वर्यता साधी छे. एवी ऐश्वर्यतानी साधना अर्थे हे शिरछत्र ! हुं आपनी अनुज्ञा चाहुं छु. आपना हार्दिक आशीर्वाद वगर मारु ईप्सित कार्य सधाय तेम नथी, तेथी आप उभय राजीखुशीथी मने रजा आपो. तमे सारी रीते समजो छो के आप वडिलोनी अनुज्ञा विना भगवंत इंद्रभूति मारो स्वीकार करे तेम नथी. वळी विनय प्रधान जैनधर्ममां मारा जेवानुं स्वच्छंदी वर्तन तलमात्र चाली शके तेम पण नथी. एम करवू ते मारो पुत्र तरिकेनो धर्म पण नथी; माटे आप अंतरना उमळकाथी हर्षपूर्वक मने अनुज्ञा आपो." ____ मातपिता पण अरिहंतदेवना उपासक हता. संसारनी परिस्थितिने समजनारा हता तेथी तेओए महोत्सवपूर्वक पुत्रने श्रीमहावीरस्वामीने हस्ते प्रव्रज्या अपावी. कुमार पण गुरुजी- बहुमान करवापूर्वक शास्त्रना अध्ययनमा तेम ज क्रियाकलापमा तद्रूप बन्यो. अंतरना उल्लासथी साधुधर्मपालन करवा लाग्यो. वयमां बाळ छतां ज्ञानथी अबाळ (पंडित) बन्यो, स्खलना वगर चारित्रधर्ममां दिवसानुदिवस विशुद्धिने धारण करी गुरु साथे विहरवा लाग्यो. आम छतां बाळस्वभावसुलभ केटलीक स्खलनाओ-त्रुटीओ थई जती. ___ एकदा प्रात:काळमां क्षुधातुर थवाथी कोई श्रेष्ठीना घरमां अतिमुक्तक मुनि गोचरी लेवा गया. ज्यां 'धर्मलाभ' शब्दनो उच्चार करी ऊभा त्यां शेठनी पुत्रवधूए हास्य करतां प्रश्न कयों के–“हे क्षुल्लक मुनिवर ! आटली जल्दी उतावळ केम करी?" तेनी आवी अपूर्व ने मार्मिक वाणी सांभळी चमत्कार पामेला कुमारे जवाब आप्यो के–'यज्जानामि तन्न जानामि शेठनी पुत्रवधूने आ वाक्यमुं रहस्य न समजायुं एटले तेणे पुन: प्रश्न को–“आपे शुं का ? मने बराबर समजावो.” “भगिनी ! तमारा प्रश्ननो आशय तो ए हतो के ‘मने आटली नानी वयमां दीक्षा लेवानी उतावळ केम थई आवी ?' में जणाव्यु के 'यज्जानामि' एटले मृत्यु गमे ते समये जरूर आववानुं छे ए वात हुं जाणुं छं परंतु 'तन्न जानामि' फक्त जे नथी जाणतो ते एटलुंज के ए कई अवस्थामां आवशे? बाल्यकाळ एने माफक आवशे के वृद्धावस्थाने ते पसंद करशे? अने ज्यां आ स्थिति होय त्यां पछी उतावळनो प्रश्न ज केवो? मारी पासे एवं कोई विशिष्ट ज्ञान नथी के जेथी मृत्युना आगमननी चोक्कस तिथि वार अवधारी शकाय तेथी उतावळ कहेवाय पण केम?" शेठनी पुत्रवधूए बाळसाधुना आ रहस्यपूर्ण वचनो श्रवण करी सम्यक्त्वमूळ बार प्रकारना व्रतयुक्त श्रावकधर्म ग्रहण करीने शुद्ध अन्नपानादिकथी मुनिश्रीने प्रतिलाभ्या. एकदा वर्षाऋतुमां धरती पर चोतरफ जळ पथराई रह्यं छे, विजळीओना चमकार ने वादळाना गर्जारव पछी मुशळधार वरसाद वरसी रह्यो छे, जाणे सृष्टिसुंदरी हर्षभर्यु स्नान करी रही होय तेवू श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ७८ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र नजर सन्मुख खडुं थाय छे. जनता पोताना आवासमांथी वर्षाकाळनं आ हृदयंगम दृश्य निहाळी रही छे. पौषधशाळाना मकानमांथी बाळसाधु अतिमुक्तकनी दृष्टि पण आ तरफ स्वाभाविक खेचाय छे. घडीभर स्वाध्याय बाजु पर मूकी उपाश्रयमांथी नीचे उतरे छे अने पाणीना वह्या जतां प्रवाह पर नजर मंडाय छे. वरसाद अटकतां जाणे कारागृहना बंधनमांथी छूट्या होय एम नानी वयना केटल य बाळको घरमाथी बहार आवी, पाणीना नाना नाना खाबोचीयामां कागळनी होडीओ बनावी सागरमां वहाण हंकार्या तुल्य आनंद माणी रह्यां छे. आ दृश्य जोतां ज अतिमुक्तक मुनिवर पण बाळवयनी ऊर्मि जागृत बनतां ज समान वयना शिशुओनी साथे शरत करी काचलीनी होडी तराववामां लीन बने छे. पोते कई कक्षामां वर्ते छे, पोते सचित्तना त्यागी साधु छे ए वात तद्दन स्मृति बहार जाय छे. आ समये ज्ञानी सिवाय, कोण जाणी शके तेम छे के जळमां काचलीनुं नाव तरावनार आ बाळसाधु अल्प काळ पछी संसारसागरमा आत्म- नाव तरावी आत्मसिद्धि प्राप्त करनार छे ! अज्ञानी जनता तो उघाडी आंखे जोई रही छे के – मुनिपणाने न छाजे, एमां दूषण लागे तेवुं अतिमुक्तकनुं वर्तन छे. उपाश्रयनी बारीएथी जोई रहेला श्रीगौतमस्वामीनी दृष्टि अकस्मात् आ लघु शिष्य पर पडी. तरत ज तेओश्री त्यां जई पहोंच्या. गुरुश्रीने जोतां ज अतिमुक्तक शरमाया. उभय प्रभु श्रीमहावीरदेव समीपे गया. ज्यां प्रवेश करी ईर्यापथिकी पडिकमवा लाग्या त्यां अतिमुक्तक साधुए 'दगमट्टी दगमट्टी' ए पदना अर्थमा पुष्कळ विचारणा करी. पोते साधु जीवनना सूत्रोने अभराई ऊपर चढावी, नाव तराववामां हमणां ज पाणी तथा माटीना जीवाने जे किलामणा पहोंचाडी छे ए आखुं य दृश्य चक्षु सामे खडुं करी एनी साचा मनथी क्षमापना आरंभी. खरूं ज कह्यं छे के– 'मन एव मनुष्याणां, कारणं बंधमोक्षयोः ।' कर्मबंध के मुक्तिनुं कारण मनुष्य मात्रने पोतानुं एक मन ज छे. ‘दगमट्टी' नी विचारणामां ने विचारणामां ज अतिमुक्तक मुनि लयलीन बनी गया. विचारधारा वी एकाग्र बनी गई के पोतानी आसपास शुं चाली रह्यं छे तेनुं पण तेमने भान न रह्यं पश्चात्तापनो पावक विशेष प्रदीप्त थयो अने ए पावकनी ज्वाळामां कर्मसमूह दग्ध थवा लाग्यो. छेवटे क्षपकश्रेणीनुं अवलंबन ग्रहण करी, सकल कर्मनो क्षय करी अल्पकाळमां केवळज्ञान प्राप्त कर्यु. समीपस्थ देवोए तेमनो केवळज्ञान महोत्सव कर्यो. जे तीव्र कर्मों कोटि जन्म सुधीना तीव्र तपथी बाळी शकाता नथी ते अर्धी क्षणमा आत्मभावनारूपी तीव्र तपबळ ने समतानुं अवलंबन लई बाळी शकाय छे. बाद अतिमुक्तक केवळीए पृथ्वीतळ पर विहार करी, घणा भव्य जीवोने उपदेशवारिथी सिंचित करी, अधोगतिमां पडतां अटकावी तेओनो उद्धार कर्यो. आवी रीते विचरतां विचरतां, जुदा जुदा गाम-नगरोमां फरतां फरतां सूर्यपुर समीप आवी ते नगरना बहारना उद्यानमां समवसर्या. जितशत्रु राजा श्रेष्ठ जन समूहयुक्त आवी, प्रदक्षिणा दई, वंदन करी, धर्मश्रवण करवा बेठो मुनिना मुखद्वारा उपदेशधारा वहेवा लागी– “ज्यां लगी आ देह स्वस्थ छे अने वृद्धावस्था आवी नथी तेमज इंद्रियो श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ७९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिथिल थई नथी ने आयुष्यनो अंत आव्यो नथी त्यां सुधीमां आत्मकल्याण अर्थे हे भव्यो ! जरूर यत्न करो. आग लाग्या पछी कूवो खोदवो जेम मूर्खतानुं कारण छे तेम आ स्थिति पलटाया पछी-बाजी हाथमांथी गया पछी-उद्यम शुं कामनो? जेने तमो पोताना मानो छो ते तमारा रहेवाना नथी. लक्ष्मी चंचळ छे, क्षणभंगुर छे, आयुषनो भरोसो नथी, देह व्याधिग्रस्त क्यारे बनशे ते जाणी शकाय नहीं, पुत्र पत्नी आदि परिवार पण स्वार्थपरायण छे. आवा असार संसारमाथी साररूप संयमर्नु ज ग्रहण करवू ते सर्व श्रेष्ठ छे.” __ प्रतिष्ठासंपन्न अने अतिशयताने वरेला अतिमुक्त केवळीनी देशना फळवती बने एमां शुं आश्चर्य? केटला य भव्यात्माओए साधुधर्मनो स्वीकार को. बीजाओए बार व्रतयुक्त श्रावकधर्मनो स्वीकार को. आत्मकल्याणनी आवी केटली य परंपरा प्रवर्तावी प्रांते अतिमुक्तकुमारे मुक्तिपुरीमां पगलां कर्या. श्रीअंतकृत्दशांग सूत्रना छठ्ठा वर्गमा एमनो १५मो अधिकार छे. तेमां अंतकृतकेवळी थईने मोक्षे गयानु कहेलुं छे. तत्त्व केवळीगम्य. बालवयमां भागवती दीक्षा स्वीकारी, इरियावही पडिक्कमतां ज जेमणे केवळज्ञान प्राप्त कर्यु ते महात्मा अतिमुक्तकुमारने अनेकश: वंदन हो ! श्रीवज्रस्वामीनुं वृत्तांत सुप्रसिद्ध मालव देशमां तुंबवन नामनुं नगर हतुं. ते नगरने विषे धन नामनो व्यवहारविचक्षण अने श्रद्धाळु श्रावक वसतो हतो. तेने धनगिरि नामनो सद्गुणी पुत्र हतो. सत्समागमने कारणे धनगिरिनुं मन प्रथमथी ज वैराग्य प्रति ढळेलुं हतुं परंतु युवावस्थाना आंगणामां प्रवेश करतां ज पिताना आग्रहथी सुनंदा नामनी सुशील सुकन्या साथे पाणिग्रहण कर्यु. सुनंदाना भाई आर्य समिते संसारनी विलक्षणता निहाळी संयम स्वीकार्यु हतुं. "कार्येषु मंत्री करणेषु दासी" नी माफक बनेनो संसार सुखपूर्वक चालवा लाग्यो. धनगिरि साथे संसारसुख भोगवता सुनंदा सगर्भा बनी. तिर्यग्नुंभक देवनो (जे देवे अष्टापद पर्वत पर श्रीगौतमस्वामीना मुखद्वारा पुंडरीक अध्ययन सांभळ्युं हतुं तेनो) जीव च्यवीने सुनंदानी कुक्षिमां अवतो. उत्तम गर्भना प्रभावथी सुनंदा धर्मकरणीमा अतिशय आसक्ति धरवा लागी. तेने उत्तम प्रकारना दोहदो उपजवा लाग्या, जे सर्व धनगिरिए पूर्ण कर्यां. पोतानी भार्याने सगर्भा निहाळी धनगिरिनो अत्यार सुधी सुषुप्त रहेलो वैराग्यभाव जागृत बन्यो. एकदा प्रसंग जोई तेणे पोतानी प्रियाने का के–“हे सुलक्षणी ! तारुं अने तारा गर्भनुं कल्याण थाओ. तारा जीवनना आधाररूप संताननी तने प्राप्ति थई चूकी छे. हुं हवे मारूं आत्महित साधवा तारा भाई आर्यसमित्ते जेमनी पासे दीक्षा ग्रहण करी छे ते श्रीसिंहगिरि पासे सर्वविरति स्वीकारीश." सुनंदाए घणा आग्रहपूर्वक आजीजी करी छतां अमृतपाननी इच्छावाळो धनगिरि तेणीना वचनरसमां आर्द्र न बन्यो. पत्नीने विशेष समजावतां छेवटे तेणे अनुमति आपी अने धनगिरिए चारित्र ग्रहण कर्यु. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-८० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्य समये सुनंदाए एक सुंदर अर्भकने जन्म आप्यो. पूर्वजन्मना संस्कारने योगे तेनी देह-कांति देव सरखी देदीप्यमान हती. पुत्रमुखनुं अवलोकन करी सुनंदा अतिशय हर्ष पामी. घडीभर ते पोताना पतिनुं वियोगदुःख पण भूली गई. कुळना विभूषणरूप आत्मजने निरखी कई माताने हर्षाश्रु न आवे ? पण भावीना गर्भमां शुं छुपायुं छे तेनी सामान्य मानवीने शुं खबर पडे छे? सुनंदा पोताना संतानप्राप्तिना सुख ऊपर मनोरथना किल्ला चणवा मंडी पडी पण तेने खबर न हती के लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः ? अगर तो विधिरेव तानि घटयति यानि पुमान् नैव चिन्तयति । जन्मसमये पासे रहेली कोई एक सखीए तेने उद्देशीने कह्यं के— “ वहाला तनुज ! तारा पिताए जो संयम न स्वीकार्युं होत तो तारो जन्मोत्सव एक राजकुमारना जन्म जेवो उजवात.” आ शब्दो कर्णपट पर अथडातां ज शिशु चमक्युं. सखीए उच्चारेला शब्दो पर विशेष ऊहापोह करतां तेने जातिस्मरण ज्ञान थयुं. पोतानो देव-भव स्मृतिपटमां आव्यो. बस, बाळकनी मनोवृत्ति तरत ज बदलाई गई. देव संबंधी दिव्य सुखो जेणे भोगव्या होय तेने आ संसार असार ज जणाय ने ? तेने देवसुख आकर्षण करवा लाग्युं परंतु संयमपालन विना देवसुख क्यांथी प्राप्त थाय ? विचारणाने अंते तेणे चारित्र-ग्रहणनो निराधार कर्यो परन्तु जन्म धारण कर्याने मात्र गणत्रीना ज दिवसो व्यतीत थया हता.. आ स्थितिमां शीघ्र चारित्र स्वीकार कई रीते थई शके अने एक मात्र आधाररूप पोताने माता रजा पण केम आपे ? आकाशपुष्पनी माफक तेनी आशा मनमां ने मनमां ज शमी गई. तेणे विचार्युं के माताने कंटाळो आपुं तो ते नक्की मारो त्याग करशे, नहीं तो एकना एक पुत्र परत्वेनो तेनो मोहभाव घटशे नहीं. तेणे बालोचित्त रूदन शरू कर्यु. रुदन सांभळी सुनंदा तेनुं रंजन करवा लागी, तेने छानो राखवा विधविध प्रयत्न करवा लागी, परन्तु बाळकनुं रुदन बंध न थयुं. जाणी जोईने रुदन करतुं होय ते क्यांथी समजे ? बाळक थोडी वार शांत थतुं परंतु पार्छु तेनुं रुदन शरू थई जतुं. सुनंदा आ जातना प्रतिदिनना कल्पांतथी कंटाळी गई. धीमे धीमे बाळक छ महिनानो थयो, परंतु तेटलो समय सुनंदाने तो छ वर्ष जेटलो दीर्घ थई पड्यो. भाग्यानुयोगे श्रीसिंहगिरि पोताना धनगिरि तथा आर्यसमिति प्रमुख शिष्यो साथे आज नगरमां आवी चढ्या. गोचरीसमय थतां धनगिरिए गुरु आज्ञा मागी. ज्ञानातिशयथी भावी जाणी गुरु धनगिरिने जणाव्युं के—“आजे तमोने जे गोचरी प्राप्त थाय ते लावजो. सचित्त के अचित्तनो विचार न करशो.” धनगिरि मुनि गोचरी माटे परिभ्रमण करता करतां सुनंदाना गृहे ज जई चढ्या. सुनंदा पोताना प्रतिदिन रुदन करतां पुत्रथी परिताप पामी हती. धनगिरिने जोतां ज तेनो स्वाभाविक क्रोध प्रगटी निकळ्यो अने कह्यं के— “हुं तो तमारा पुत्रथी कंटाळी गई छु. हवे तमे तेने लई जाव अने पाळो-पोखो” आ प्रमाणे बोलीने आवेश ने आवेशमां तेणे पुत्रने वहोरावी दीधो. धनगिरि तरत ज गुरु पासे आवी पहोंच्या. पुत्रना वजनथी धनगिरिनो हाथ नमी जतो हतो ते जोई गुरुए कह्यं “आ पुत्र वज्र जेवो मजबूत ने शक्तिशाळी थशे माटे तेनुं वज्रस्वामी एवं नाम राखो.” लालनपालन माटे गुरुए तेने साध्वीओने सोंप्यो अने साध्वीओए पण शय्यातरीओ (उपाश्रय आपनार श्राविकाओ) ने सोंप्यो. तेओ पुत्रवत् तेनुं लालनपालन करवा लागी अने क्रमश: वज्रस्वामीनी वय त्रण वर्ष लगभगनी ७ श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ८१ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थई. साध्वीओ अगियार अंगनी आवृत्ति करती तेने एकाग्र चित्तथी अवधारी लेवाथी वज्रस्वामी पण तीव्र प्रज्ञाशक्तिना प्रभावे अगियार अंगना ज्ञाता बनी गया. खरेखर का छे के -'बुद्धिर्यस्य बलं तस्य।' अमुक समय पसार थया बाद श्रीसिंहगिरि प्रमुख साधुओ पाछा ते ज नगरमां आवी चढ्या. पुत्र सोंपता तो सोंपाई गयो परन्तु त्यारबाद सुनंदाना पश्चातापनो पार न रह्यो. कोई पण हिसाबे पुत्रने पाछो मेळववा तेणे महेनत करवा मांडी पण पाणी वळोववानी माफक ते सर्व वृथा थयुं छेवटे गुरु सन्मुख आवी पोतानो पुत्र पाछो माग्यो. संघ पासे पण वात मूकाई अने तेमां निष्फळ नीवडतां छेवटे सुनंदाए राजदरबारमा पण फरियाद करी. राजवीए योग्य तोड काढतां फरमाव्यु के–“राजसभा भरवी अने तेमां पुत्रने बंने वच्चे ऊभो राखवो. जे तरफ पुत्र जाय तेनो कबजो जाणवो.” सुनंदाने आ पसंद पड्युं कारण के ते जाणती हती के - लघु - अज्ञ पुत्रने मिष्ट भोजन के द्रव्य आदिना प्रलोभनथी ते पोता तरफ आकर्षी लेशे अने पोतानी धारणा पार पडशे. सुनंदाए तरत ज विविध तरेहनां सुंदर रमकडां अने अन्य मनगमता पदार्थों दर्शावी प्रलोभन आपवामां कशी कचाश न राखी छतां वज्रस्वामीए तेनी सामे नजर सरखी पण करी नहीं. गजेन्द्र पर आरोहण करनार शुं गर्दभ पर बेसे? छेवटे धनगिरिए फक्त रजोहरण बतावतां ते तरत ज तेमना तरफ दोडी गयो अने राजवीए सिंहगिरिनी तरफेणमां अभिप्राय आप्यो. सुनंदाए पण छेवटे समजी जई दीक्षा लीधी. धीमे धीमे वय वधवानी साथे शास्त्राभ्यास करतां, वज्रस्वामी पण व्याकरण, काव्य, सिद्धान्त अने तर्क विगेरेमां घणा ज निष्णात थया. ___ वज्रस्वामी एकदा गोचरी लेवा जता हता त्यारे तेना एक मित्र देवे तेमनी बुद्धिनी परीक्षा करी. रस्तामां देवे सूक्ष्म देडकीओ विकुर्वी. पोते सार्थवाहनुं रूप धारण करी पोतानी पर्णकुटीमां वहोरवा पधारवा माटे आग्रह को. वज्रस्वामी ईर्यासमितिपूर्वक गया अने जोयुं तो सार्थवाहना पग भूमिने स्पर्शता न हता, नेत्रो पण निर्निमेष हता. बुद्धिशाली वज्रस्वामीने मालूम पड्यु के - आ सार्थवाह नथी, पण कोई देवे आ बधी जाळ रची छे. तेमणे तरत ज शांत शब्दोमां का के–“महानुभाव अमने देवपिंड न कल्पे.” श्रीवज्रस्वामीनू कथन सांभळी देव अत्यंत विस्मित थयो अने स्वस्वरूपे प्रत्यक्ष थई वज्रस्वामीने वैक्रियलब्धि आपी. आवी ज रीते बीजे प्रसंगे घेवर संबंधी परीक्षा करतां देवे प्रसन्न थई आकाशगामिनी विद्या आपी हती. एकदा वज्रस्वामीमा रहेल जवाहीर गुरुनी नजरे चढ्युं. वात एम बनी के तेओ स्थंडिलभूमि गया हता अने अन्य सर्व शिष्यो गोचरी गया हता. वज्रस्वामी बधा उपकरणोने क्रमबद्ध गोठवी पोते वचमां बेठा अने समर्थशास्त्रवेत्ता गुरु स्वशिष्योने वाचना आपे तेम मोटे सादे अगियार अंगनी वाचना उपकरणोने उद्देशीने आपवा लाग्या. गुरुमहाराज वसति नजीक आव्या तेवामां तेमणे मेघ जेवो गंभीर ध्वनि सांभळ्यो. सांभळतां ज तेमनां कर्णो चमक्या. छिद्रद्वारा जोतां श्रीवज्रस्वामीनू उक्त आचरण निरखी अत्यंत हर्ष पाम्या. बालमुनि श्रीवज्रस्वामी क्षोभ न पामे ते माटे तेमणे दीर्घ स्वरे निसीहि उच्चारी शब्द सांभळतां ज वज्रस्वामीए शीघ्र सर्व उपकरणो जेम हता तेम गोठवी श्रीगच्छाचार–पयन्ना-- ८२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीधा अने बहार आवी गुरुमहाराजनी चरणरज दूर करी. वज्रस्वामीनी आवी प्रज्ञाशक्ति अने विनयशीलपणुं जोई आ बालसाधुनी कोई अवज्ञा न करे तेमज तेमनी शक्तिनो अन्यने ख्याल आवे ते माटे तेमणे एक उपाय शोधी काढ्यो. केटलाक शिष्योने बोलावी का के–“अमो आसपासना गामडामां विचरीए छीए. अल्प समयमां पाछा आवशुं, माटे तमो सर्व अत्रे रहो अने धर्मध्याननी वृद्धि करो.” शिष्योए प्रश्न कयों के–“आपनी गेरहाजरीमां अमने वाचना कोण आपशे?" गुरुए शांत रीते जवाब आप्यो के “श्रीवज्रस्वामी तमने वाचना आपशे.” गुरु सत्य कहे छे के आपणो श्रवणभ्रम छे एम विचारी तेओए पुन: पुछ्युं छतां गुरुए प्रथमनी माफक ज जवाब आपवाथी सर्व कोई आश्चर्यना सागरमां लीन बनी गया. वज्रस्वामीनी वय क्यां अने क्या वाचना आपवा जेवू भगीरथ कार्य ? क्या दीर्घ चारित्रपर्यायवाळा साधुओ अने क्यां एक बालसाधु ? आवी शंका धरावता छतां गुरुए कहेल मिथ्या न होय तेवी भावनाथी तेओए ते संबंधी विशेष पृच्छा न करी. प्रभाते श्रीवज्रस्वामीए एवी उमदा रीते वाचना आपी के मंद बुद्धिवाळा साधु पण सहेलाईथी समजी शके. श्रीवज्रस्वामी वाचना आपता त्यारे शिष्योने एवो भ्रम थई गयो के गुरुमहाराज वाचना आपवा माटे पाछा आव्या के शं? शिष्यो श्रीवज्रस्वामीनी मुक्त कंठे प्रशंसा करवा लाग्या. अल्प समयबाद ज्यारे श्रीसिंहगिरि आव्या त्यारे तेओए का के -"हवेथी हमेशां श्रीवज्रस्वामी ज अमोने वाचना आपे तेवो बंदोबस्त करो. तेमनी समजावटी जेम मेघागमन समये मयूर नृत्य करे तेम अमारा हृदयरूपी मयूरो हर्षभरपूर बने छे." __वज्रस्वामीनो अभ्यास वधतां वधतां पूर्वोनो थई गयो. ते समये दश पूर्व सुधीनुं शास्त्राध्ययन शेष रह्यं हतुं अने तेनुं संपूर्ण ज्ञान श्रीभद्रगुप्तसूरिने हतुं. एकदा श्रीसिंहगिरिने विचार स्फूर्यो के-श्रीवज्रस्वामीने भद्रगुप्तसूरि पासे मोकलीए अने सकल शास्त्रपारंगत बनावीए. गुरु आज्ञा थतां ज तेओए विहार को अने रात्रि थई जतां तेओ नगर बहार रातवासो रह्या. आ बाजु भद्रगुप्तसूरिने स्वप्न आव्यु के तेमना हाथमांथी दूधपूर्ण पात्र कोईए लई लीधुं अने तेनुं पान करी प्रमोद अनुभव्यो. श्रीवज्रस्वामीए आगमन-हेतु दर्शावी अभ्यास कर्यो अने अल्प समयमां ज पारंगतपणुं प्राप्त करी गुरु समीपे आवी पहोंच्या. गुरुए दश पूर्वमां निष्णात थया जाणी आचार्यपद आपी गच्छनो भार पण तेमना शिरे नाख्यो. एकदा वज्रस्वामी विहार करतां करतां पाटलीपुत्र नगरे आव्या. त्यां विद्याप्रभावथी कदरूपी काया बनावी सुन्दर देशना आपी. देशना सांभळ्या बाद नगरजनो टीका करवा लाग्या के देशनाने अनुकूळ रूप नथी. बीजे दिवसे कामदेव सदृश रूप बनावी देशना आपी. आ व्यतिकर सांभळी ते नगरना धनश्रेष्ठीनी रुक्मिणी नामनी कन्याए मनथी निरधार कर्यो के “परणुं तो वज्रस्वामीने ज; नहीं तो काष्टभक्षण (मृत्यु) श्रेष्ठ छे.” धनश्रेष्ठीने आ वात काने आवतां ज तेमणे श्रीवज्रस्वामीने का के–“हुं आपने एक करोड रत्न कन्यादानमां आपीश माटे मारी आजीजी स्वीकारो.” बाद श्रीवज्रस्वामीए रुक्मिणीने समजावी अने पोताना साध्वीसंघमां एक लायक व्यक्तिनो उमेरो कयों. __एकदा ते प्रदेशमां भयंकर दुष्काळ पड्यो. प्राणीओ दुःखी थवा लाग्या अने सकल संघ पण श्रीगच्छाचार–पयन्ना-८३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूखमरा तेमज अनेक आपत्तिओने कारणे त्रासी उठ्यो. साधु-समुदायमां पण भूखमराए स्थान जमाव्युं आ आफतमांथी बचाववा माटे श्रीसंघे वज्रस्वामीने विज्ञप्ति करी. श्रीवज्रस्वामीने स्ववीर्य फोरववानो प्रसंग प्राप्त थयो. तेमणे तरत ज पोतानी शक्तिथी विशाळ पट विकुयो अने तेना ऊपर सकल संघने बेसाडी महापुर नामना नगरमां पहोंचाड्यो.. -.. महापुर नगरमां बौद्धोनुं साम्राज्य चालतुं हतुं. बौद्ध लोको जैनोनी सारी रीते निन्दा तथा ईर्ष्या करता. धीमे धीमे ते नगरना राजाना कर्णमां झेर रेडवामां आव्युं अने कोई पण प्रकारे जैनोने हेरान करवानो मनसूबो को. पर्युषण पर्व आवतां राजवीए मालीओने गुप्त रीते कहेवराव्यु के “जैनोने एक पण फूल न आपशो.” पर्युषण जेवा पवित्र दिवसोमां एक पण पुष्प न मळवाथी श्रीसंघ, मन संताप अनुभववा लाग्यु. श्रीसंघे वज्रस्वामीने आ वृत्तांत जणाव्यो. शासनप्रभावना अर्थे श्रीवज्रस्वामी आकाशमार्गे माहेश्वरी नगरीए गया. अने त्यां तेमनो मित्र तडिग नामनो माळी रहेतो हतो तेणे वीश लाख पुष्प ते ज समये अर्पण करू. क्षुद्रहिमवंत पर्वत परथी लक्ष्मीदेवीसहस्रपत्रवाळु कमळ जिनपूजा माटे लाव्या. आ चमत्कार जोई बौद्ध लोको झंखवाणा पडी गया अने राजा पण जैन धर्मावलंबी बन्यो. आ प्रमाणे तेओश्रीए जैनशासननी महाप्रभावना करी. ___ एकदा वज्रस्वामीने श्लेष्म रोग थयो. तेथी सुंठनो कटको उपयोगमा लई, तेमांथी थोडो वापरी बाकीनो सांजे वापरवा माटे कानना भाग पर राखी मुक्यो. दैवयोगे तेनी विस्मृति थई गई. सांजे पडिलेहण करतां मुहपत्ति द्वारा ते ककडो नीचे पड्यो. सुज्ञ वज्रस्वामी समजी गया के हवे पोतार्नु आयुष्य ओछु छे. ____ एवामां बीजो भयंकर द्वादशवर्षीय दुष्काळ पड्यो. श्रीवज्रस्वामीए अणशण करवानो विचार कर्यो अने एक पर्वत पर गया. अणशण करी स्वर्गे संचर्या एटले तेमना प्रत्येना भक्तिभावथी इंद्रमहाराज त्यां आव्या अने पोताना रथने चारे तरफ फेरवी वृक्ष तथा गहन वनने सरखा कर्या. ते पर्वतर्नु नाम त्यारथी रथावर्त पड्युं छे. अत्यारे दक्षिण मालवामां विदिशा (भेल्सा)नी पासे आ पर्वत आव्यो होवानुं मनाय छे. __ तेमना स्वर्गगमननी साथोसाथ ज (१) दशपूर्व (२) चोथु संहनन अने (३) चोथु संस्थान-ए पण वस्तुओ विच्छेद पामी. तेमनाथी वज्रशाखा शरू थई. तेमनो समय संयमप्रधान हतो अने पुष्पनी खातर तेमणे कमर कसी ते परथी फलितार्थ ए थाय छे के चैत्यपूजा ए धर्मर्नु अति आवश्यक अंग २. वृद्ध - जेनी वय ७० वर्ष उपरांतनी होय तेने वृद्ध कहेवाय. केटलाक आचार्यो एम पण कहे छे के जेनी इंद्रियो शिथिल-निर्बल-शक्तिहीन थई गई होय ते ६० वर्ष उपरांतनी उम्मरवाळो होय तो पण वृद्ध जाणवो. तेनी वैयावच्च करवी पडे, ते साधु आचारनुं सारी रीते पालन करी शके नहीं. वळी तेनामा स्वाभाविक रीते हुंपद-अभिमान होय के हुं वृद्ध छु, बीजा तो लघु छे, तेओने हुं केम नमस्कार करूं? इत्यादि इत्यादि. आम छतां पण कोई दृढ मजबूत संघयणवाळो होय अने श्रीगच्छाचार-पयन्ना-८४ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुना आचार-विचार बराबर पाली शके तेम जणातुं होय तो अपवादरूपे तेवा वृद्धने पण दीक्षा आपी शकाय. आ संबंधमां विशेष वर्णन पंचकल्पभाष्यमां जणावेल छे. ३. नपुंसक - जे पुरुषमां पण न होय अने स्त्रीमां पण न होय तेने नपुंसक जाणवो. ते बीजा साधुओने दुराचारी बनावे, संयमनी विराधना करे, लोकोमा हांसी करावे माटे तेवा नपुंसकने दीक्षा न आपवी. कदाच अजाणतां अपाई गई होय तो तेने काढी मूकवो. कदाच ते स्वयं न चाल्यो जाय तो तेने भोळवीने-समजावीने पण काढवो. कदाच ते नपुंसक राजा पासे पोताने काढी मूक्या संबंधी फरियाद करे अने राजा तेनो पक्ष लई तेने गच्छमा राखवा आग्रह करे त्यारे सुज्ञ आचार्ये अगर तो मुनिराजे राजाने समजाववा माटे कहेवू के–“आपना कोशागारमां कोई दुष्ट माणस होय तो आप तेने माटे केवां पगलां भरो? राजा जवाब आपे के तेने तरत ज काढी मुकुं. राजानो आवो जवाब सांभळी सुज्ञ साधु कहे के आ नपुंसक अमारा ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूपी भंडारने लूटनार-दोषित करनार छ माटे तेने अमारे बहिष्कृत करवो ज जोईए.” आ प्रमाणे छेवटे राजाने पण समजावे. कदाच वैयावच्चादिक कोई कारण प्रसंगने अंगे नपुंसकने दीक्षा देवी पडे तो कार्य सधाय त्यां सुधी राखे, पण तेने क्रिया-कलाप कई पण न शीखवे. पछी काढी मूके. न चाल्यो जाय तो योगीनो वेष पहेरावी अन्यत्र मूकी आवे. आ संबंधी विशेष विवरण आवश्यक चूर्णीमां तथा वृत्तिमां 'पारिद्वावणियाना अधिकारमा आपवामां आवेल छे. ४. क्लीब- स्त्रीना निमंत्रणथी, स्त्रीना अंगोपांगादिना दर्शनथी, स्त्रीओ साथेना मिष्ट वार्तालापथी जेने काम उत्पन्न थाय, स्त्री साथे भोग भोगववा तीव्र अभिलाषा उद्भवे, कामना वेगने रोकी शके नहीं-विह्वल बनी जाय परन्तु कामभोगने भोगवी शके नहीं ते क्लीब जाणवो. ते स्त्रीओनी पाछळ अंध थईने फर्या करे, शासननी हेलना करावे, लोकोमा निदानु पात्र बने माटे तेवा क्लीबने दीक्षा न आपवी. कदाच अपवाद तरीके दीक्षा आपी होय तो पण काढी मूकवो. ५.जड-त्रण प्रकारना जड छे–१ भाषाजड, २ शरीरजड अने ३ करणजड. (१) जे भाषा बराबर न बोली शके ते भाषाजड कहेवाय. तेना पण त्रण भेद छे-(अ) जलमूक (आ) मन्मनमूक अने (इ) एलकमूक जळमां कोई डूबवा मांडे त्यारे जेवो वलवल' ध्वनि थाय तेनी माफक बोले ते जलमूक. जे बोलता थकां वच्चे हबकी खाईने - खंचकाई बोले तेने मन्मनमूक जाणवो. तेम ज जे बकराओनी माफक अव्यक्त बोले, तेनुं वचन न समजाय, फक्त शब्द मात्र करे तेने एलकमूक जाणवो. आवा जडने दीक्षा न आपवी. कदाच वैयावच्चादिने कारणे दीक्षित कर्या होय तो पण तेने काढी मूकवो. आ संबंधी विशेष स्वरूप पंचकल्पभाष्यमां अने आवश्यक सूत्रनी वृत्तिमां आपवामां आवेल छे. (२) शरीरजड-शरीरे विशेष स्थूल होय, हृष्टपुष्ट होय, तथा वांकाचूंका अवयववाळो होय तो ते विहारमां जल्दी चाली शके नहीं, गोचरी लाववामां पण उपयोगी न नीवडे तेम ज आवश्यक क्रिया करतां वांदणां देवाना समये ऊठ-बेठ न करी शके माटे तेवा शरीरजडने दीक्षा न आपवी. पोते एकला होय अने सहयोगी तरीके बीजा साधुनी जरूर ज होय तेवे समये तेने दीक्षा आपे परन्तु कार्य पूर्ण थये तेने काढी मूकवो. (३) करणजङ-साधुना आचारने अंगे जे जे क्रिया बतावीए ते श्रीगच्छाचार–पयन्ना-८५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूली जाय, स्मरणमां न रहे, पडिलेहण न करी शके, प्रतिक्रमणादि आवश्यक क्रिया वारंवार भूली जाय, बतावीए त्यारे लक्ष न राखे-आवा शख्सने दीक्षा न आपवी. कारणवशात् आपी होय तो कार्यनी समाप्ति थये तेने काढी मूकवो. ... ६. व्याधिग्रस्त - अतिसार, भगंदर, कोढ, शूळ, दीर्घज्वर, जीर्णज्वर इत्यादि व्याधिवाळाने दीक्षा न आपवी. तेथी संयम तथा स्वाध्यायादिदनी हानि थाय. ७.स्तेन(चोर) - चोरी करे,मार्गमां लोकोना खीसा कातरे तेवा स्तेन (चोर)ने दीक्षा न आपवी, छतां कोई चोर पोतानुं व्यसन मूकी दे, चोरी न ज करे, चोरी न करवानी प्रतिज्ञा करे तो तेने कारणवशात् दीक्षा आपे परंतु जेनुं चोरी करवानुं व्यसन न ज छूटे तेने कदापि दीक्षा न आपवी. ८. राजद्रोही - राजानो गुन्हेगार होय, राजानो भंडार लूट्यो होय, राजानो घात को होय, राजपुत्रनो द्रोह करनार होय, अगर तो कोई पण प्रकारे राजदंडने पात्र होय तेने दीक्षा न आपवी. ९. उन्मत्त - जेना शरीरमां भूत, प्रेत अगर तो यक्षादिकनो प्रवेश थयेल होय अथवा महामोहनीयनो जेने उदय होय, मिथ्यादृष्टि होय, जेनुं मन परवश-पराधीन होय तेने दीक्षा न आपवी. १०. अंध - जे अंध होय, थीणद्धी निद्रावाळो होय, काणो होय, लुठो होय, नकटो होय तेने दीक्षा न आपवी. थीणद्धी निद्राना उदयथी हस्ती प्रमुखना दांत खेंची काढे, जीवोनी हिंसा करे, साधुओनो पण घात करी नाखे. वळी आंधळो होय ते जीवदया न पाळी शके, लोकमां निंदा थाय. अपवादथी थीणद्धी निद्रावाळाने दीक्षा आपी होय तो तेने दूर करवो-काढी मूकवो. अपवाद मार्गे काणाने दीक्षा आपी शकाय परन्तु आंधळाने तो सर्वथा दीक्षा न ज आपी शकाय. जो आपे तो विराधक गणाय. आ संबंधी विशेष हकीकत पंचकल्पभाष्य विगेरे ग्रंथोद्वारा जाणवी. ११. दास-दासीनो पुत्र होय, कोईए वेचातो लीधो होय, बान (जामीन) तरीके राखेलो होय अगर तो कोईनो रोकेल होय तेवा दास-चाकरने दीक्षा न आपवी. कदाच दासनो मालीक कहे केदीक्षा आपो तो दीक्षा आपवी पण ते अपवाद मार्ग जाणवो. १२. दुष्ट - बे प्रकारनां दुष्ट छ- (१) कषायदुष्ट अने (२) विषयदुष्ट. महाक्रोध करे, अभिमानी होय, माया - प्रपंचमां पूरो होय ते कषायदुष्ट जाणवो. आ संबंधमां एक संक्षिप्त दृष्टांत आपे छे. कोई एक आचार्यने एक कषायदुष्ट शिष्य हतो. एक वखत गोचरी माटे जतां ते शिष्यने सरसवनी स्वादिष्ट भाजी मळी. गोचरी लई पाछा वळतां तेणे मनमां विचार कर्यो के - आजे तो आ भाजी हुं ज खाईश. साधुना नियम प्रमाणे. उपाश्रये आवी तेणे लावेल सर्व गोचरी गुरुने बतावी. गुरुए ते सरसवनी बधी भाजी पोताना आहारार्थे लई लीधी. ते समये तो शिष्यथी कंई पण बोली शकाय नहीं पण ते क्रोधी शिष्ये मनमां संकल्प कर्यो के आ गुरुए मारी लावेली स्वादिष्ट गोचरी आरोगी छे माटे तेना दांत पाडी नांखुं तो ज हुँ खरो. आ प्रमाणे मानसिक प्रतिज्ञा करी ते गुरुने हेरान करवानां छिद्र जोवा लाग्यो, परंतु दांत पाडी नाखवानो प्रसंग प्राप्त न थयो. धीमे धीमे आ शिष्यनी हीलचाल अने तेना मनोभाव गुरुना जाणवामां आव्या. तेणे पोतानी पासे बीजो शिष्य राख्यो अने तेने श्रीगच्छाचार-पयन्ना-८६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भलामणपूर्वक कह्यं के-पेला कषायदुष्ट' शिष्यने मारी समीपे न ज आववा देवो. एवामां गुरुए अंतसमय नजीक जाणी पोते अणशण स्वीकारवानो निरधार कर्यो अने पासे रहेला अन्य शिष्यने सूचना आपी के-“हुं जीवुं त्यां सुधी ते कषायदुष्ट शिष्यने मारी पासे न लाववो तेमज न आववा देवो.” आ प्रमाणे कहीने गुरु तो सूई गया. आ बाजु पेलो कषायदुष्ट शिष्य कोई कारण प्रसंगे बीजे गाम बीजा संघाडामां गयो. आ समय दरमियान गुरु काळधर्म पामी गया. शिष्यो मना देने वोसिरावी आव्या. पेलो शिष्य आवतां तेणे आ समाचार जाण्या. तेना उद्वेगनो पार न रह्यो. तेने गुरुना स्वर्गवासनो शोक नहोतो थतो, मात्र पोतानी प्रतिज्ञा अधूरी रही गई तेनो शोक थतो हतो. कोई पण हिसाबे पोतानी प्रतिज्ञा पूर्ण करवाना निरधारथी तेणे अन्य शिष्यने पुछ्यं के— “क्या स्थळे गुरुनी कायाने वोसरावी छे ? ” भयभीत बनेला शिष्योए जे स्थाने गुरुना शरीरने वोसिराव्युं हतुं ते स्थान दर्शाव्यं एटले कषायदुष्ट शिष्य शीघ्र ते स्थळे गयो अने गुरुना शरीर ने दांत शोधी काढीने पाडी नांख्या अने पोतानी प्रतिज्ञा पूर्ण करी-आवा कषायदुष्टने दीक्षा न ज आपवी. (२) जे परस्त्रीमां लंपट होय, विषयासक्त होय ते विषयदुष्ट कहेवाय, तेवाने दीक्षा न आपवी. १३. मूढ - अज्ञानी होय, परवश होय, वस्तुने वस्तुस्वरूपे न जाणे, अतिशय स्नेह राखे, शून्यमनस्क होय तेने दीक्षा न आपे. १४. ऋणार्त्त - जे कोई राजादिकनो देवादार होय, जेने माथे घणाओनं देवुं होय तेने दीक्षा न आपवी. आवी व्यक्तिने दीक्षा आपवाथी लोको निंदा करे के- देवाळियो थई गयो, घरमा खावानुं कईं न रह्यं एटले हवे दीक्षा लीधी. वळी घणा लेणदार शख्सो एकत्र थईने वेष झुंटवी ले, हांसी करे माटे दीक्षा न आपवी. १५. जुंगित - त्रण प्रकारना जुंगित छे. १ जातिजुंगित, २ कर्मजुंगित अने ३ शरीरजुंगित (१) जे हलकी-नीच जातिना होय ते जातिजुंगित कहेवाय. भंगी, चंडाल, कोळी, चमार, वणकर, भील, दरजी विगेरे. (२) कर्मजुंगित - स्त्रीना पोषक भडवा प्रमुख, मयूर, कुकडादिना पालक-पोषक, वांस ऊपर चढीने नृत्य करनार, शिकारी कूतरा प्रमुख राखनार तेमज वागुरी- जाळ नाखनार विगेरे. (३) शरीरजुंगित- हाथ, पग, नाक तथा कानरहित तेमज पांगला, कूबडा, ठींगणा तथा कांणा, टुंठा विगेरे. दशमा भेदमां नकटानो पण उल्लेख करेल छे एटले अहीं जणावेल नथी, परंतु ते पण समजी लेवो. जाति तथा कर्मजुंगित बनेने दीक्षा न देवी, कारण के हलका कुळना होवाथी लोकमां निंदा थाय, आहारादिक न मळे तेमज तेना कारणे श्रेष्ठ जातिना शिष्यो प्राप्त न थाय. त्रीजो प्रकार तो सर्वथा निषेधने पात्र ज छे. १६. अवबद्ध - कोई विद्या भणवा अगर तो शास्त्र जाणवा तथा अमुक समय पर्यन्त उदरपूर्ति रवा माटे गुरु कहे - हुं अमुक समय पर्यंत दीक्षा लईश अने शास्त्राध्ययन करीश, पछी चारित्र मूकी दईश. आवा धनार्थीने पण दीक्षा न आपवी कारण के आवा देखावथी लोको भ्रममां पडे के . साधुओ तो आवा ज वर्तनवाळा हरो, लोकोने निंदा करवानुं कारण मळे. श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ८७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. भृत्य - जे कोई रुपियाने माटे धनिक गृहस्थनी नोकरी करतो होय तेने दीक्षा न आपवी. तेनो स्वामी आज्ञा आपे तो आपवी. १८. शिष्यनिष्फेटिका - मात पितानी आज्ञा सिवाय नसाडीने जे दीक्षा अपाय ते शिष्यनिष्फेटिका (शिष्यनी चोरी ने अपहरण) कहेवाय, आवी रीते शिष्य चोरी करी दीक्षा आपे तो शासनहीलना थाय, संयमथी पतित करावे, संयमनी विराधना थाय, राजदरबारमा फरियाद थतां भय उत्पन्न थाय, आत्मविराधना थवानो पण प्रसंग आवे माटे शिष्य अपहरण करी दीक्षा न देवी. अपवाद तरीके शिष्यहरण करवू पडे तो तेनी विधि श्रीनिशीथचूर्णी प्रमुख ग्रन्थमां छे. आवा प्रकारनी शिष्यनिष्फेटिका तोसलिपुत्र आचार्ये आर्यरक्षितसूरिनी करी हती जे संबंधी संक्षिप्त वृत्तांत नीचे प्रमाणे छे. श्रीआर्यरक्षितसूरिनुं वृत्तांत - दशपुर नामना सर्व ऋद्धिसिद्धिसंपन्न नगरमा उदायन नामनो समर्थ अने प्रतापशाळी राजवी राज्य करतो हतो. तेने पंडित-शिरोमणि अने व्यवहारज्ञ सोमदेव नामनो पुरोहित हतो. सोमदेवने सुशील अने संस्कारी रुद्रसोमा नामनी सद्गुणी पत्नी हती. जेना द्वारा तेने आर्यरक्षित अने फल्गुरक्षित नामना पुत्ररत्नोनी प्राप्ति थई हती. जन्मथी ज बुद्धिशाली आ बंधुबेलडीने सुशिक्षित बनाववा सोमदेवे पूरो प्रयत्न कर्यो अने पोतामा रहेल सर्व ज्ञान तेने विषे ठालव्युं, परंतु ज्ञानसागरमां तरवानी इच्छावाळा आर्यरक्षितने आटला मात्रथी तृप्ति न थई. तेणे मातापितानी संमति मेळवी विशेष विद्याभ्यास माटे पाटलीपुत्र नगरे प्रयाण कर्यु. __पाटलीपुत्र ते समये आर्यवर्तना प्रथम पंक्तिना शहेरोमां अग्रस्थाने हतुं. षड्दर्शनना ज्ञाता विद्वान पंडितो त्यां रहेता. अत्यारे जे स्थान काशीनुं छे तेवूस्थान ते समये पाटलीपुत्रनुं हतुं. सारा आचार्यना हाथ नीचे रही आर्यरक्षिते वेदोपनिषदनो अभ्यास कर्यो अने पोतानी उत्कृष्ट प्रज्ञा तेमज शीघ्र ग्राह्यबुद्धिथी तेणे पोताना सहाध्यायीओ तेमज आचार्यनो पण चाह मेळवी लीधो. अभ्यास संबंधी कार्य पूर्ण थतां ते स्वजन्मभूमि प्रत्ये पाछो फर्यो. सोमदेवने मन आ प्रसंग महोत्सवरूप हतो. एक तो पोतानों पुत्र अने विद्याभ्यास करी पाछो आवतो हतो. तेना बहुमानने माटे तेने लागणी उत्पन्न थई. राजाने आ समाचारनी जाण थतां पोताना पुरोहितपुत्रना आदरसत्कारार्थे राजा पण हाथी पर बेसी सामे गयो अने बहुमानपुरस्सर राज-रियासत साथे तेनो नगर प्रवेश कराव्यो. आर्यरक्षितने माटे पण जीवनमां आ अमूल्य पळ हती. सोमदेव पुरोहित हतो छतां रुद्रसोमा जैनधर्मानुयायी हती. साध्वी समूहना संसर्गथी जैनमत माटे अपूर्व सद्भाव उपज्यो हतो. धीमे धीमे अभ्यास करतां तेणी जीवाजीवादिक तत्त्वोना स्वरुपने समजनारी श्राविका बनी हती. सोमदेव आ जाणतो हतो छतां ते पण सर्वधर्म प्रत्ये समभाववाळो होवाथी वच्चे न आवतो. आर्यरक्षितनो पुर-प्रवेश थयो त्यारे ते सामायिक लईने बेठी हती. आर्यरक्षिते स्वगृहे आवीने माताने विनयपुरस्सर प्रणाम कर्यो परंतु सांसारिक व्यापारनो त्याग करी श्रीगच्छाचार-पयन्ना-८८ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिकमां बेठेल रुद्रसोमा तो पोताना एक ध्यानमां जलयलीन रही. आर्यरक्षितने माताना आवा वर्तनथी कंईक खेद उपज्यो. तेने विचार थयो के - मारा पांडित्यने कारणे राजाए अने पौरजनोए मारो सविशेष आदर सत्कार कर्यो त्यारे माता मारा माटे पोताना मुखमांथी आशीर्वादनो एक अक्षर सरखो पण उच्चारती नथी. तेने खबर न हती के सामायिक एटले सावध व्यापारनो त्याग. एक मात्र धर्मध्यान सिवाय तेमां व्यवहारोपयोगी कार्यनो निषेध होय छे. सामायिक पूर्ण थवा बाद योग्य समये आर्यरक्षिते माताने हर्ष नहीं थवानु कारण पूछ्युं. रुद्रसोमाए जाण्यु के पुत्रने सन्मार्गे चढाववानो आ उचित समय छे एटले नम्र वाणीमां का के – “पुत्र ! दुर्गतिदायक तारा अभ्यासथी के पांडित्यथी हुं शी रीते संतुष्ट थाउं?" माताना आ वचनो सांभळतां ज आर्यरक्षित चमक्यो. तेने माताना कथनमां कंई ऊंडो मर्म समजायो. विशेष पृच्छा करतां रुद्रसोमाए का के–“पुत्र ! आ भौतिक ज्ञान तने बहुमान अपावशे, तारी कीर्ति फेलावशे परंतु साचुं ज्ञान तो ते ज छे के जे आत्मानी उन्नति करे. आत्माने सन्मार्गना पंथे वाळे, जैनदर्शनना अभ्यास विना तारुं ज्ञान अपूर्ण ज रहेवानं. जेम जळ विनानं सरोवर शोभे नहीं तेम दृष्टिवाद विनानुं तारुं ज्ञान शोभशे नहीं." दृष्टिवाद ए शुं कहेवाय तेम पूछसां माताए का के–“आपणा नगरने विषे तोसलीपुत्र नामना जैनाचार्य छे, तेनी पासे जजे अने ते तने सर्व वस्तु समजावशे.” “प्रात:काळे जईश” एम कहीने मातानो आदेश आर्यरक्षिते मस्तके चढाव्यो. ___माता साथेना वार्तालाप पछी आर्यरक्षितनुं मन चकडोळे चढ्यु. तेणे विचार्यु के–“आटला वर्षोनी विद्याप्राप्ति माटेनो परिश्रम मातानी दृष्टिए तो वृथा ज नीवड्यो. कई माता पोताना पुत्रना हितने माटे उत्कंठित न होय? खरेखर माताए मने सन्मार्गे लाववाज आ प्रयास कर्यो छे, कारण के माता कडवू ओषध बाळकने पीवडावे छे ते तेना स्वास्थ्यने माटे ज. माताए जणावेल तोसलिपुत्र आचार्य पासे जवू अने तेनी पासे अवश्य अभ्यास करवो. पण तोसलिपुत्र पासे केवी रीते जवू? केम बोलवू? जैनाचार्यनां शुं आचार-विचारो ने विधिप्रणालिका हशे?" आ प्रमाणे विचार-मंथनमां ज तेणे अर्धी रात्रि व्यतीत करी अने ते ज विचारमा तेने निद्रा पण आवी गई. प्रात:विधि आटोपी लईने जेवामां गृहमांथी बहार निकळे छे तेवामां पोताना मित्रनो मित्र शेरडीना साडानव सांठा लईने सामो मळ्यो. आ शुभ शुकन थया जाणी आर्यरक्षित आगळ वध्यो अने उपाश्रय पासे आवी पहोंच्यो. केवी रीते ऊपर जवू अने शुं करवू? तेनो विचार करे छे तेवामां ढढ्डर नामनो श्रावक गुरुने वंदन निमित्ते आव्यो अने तेनी पाछळ-पाछळ आर्यरक्षित पण गयो. ढढ्डरनी माफक तेणे पण तोसलीपुत्र आचार्यने वंदन कर्यु, नवो आगंतुक जाणी आचार्ये तेने तेनुं नाम, गोत्र अने कुळ संबंधी पृच्छा करतां जणायुं के राजाए जेनो बहुमानपुरस्सर नगर-प्रवेश कराव्यो हतो ते ज आ पुरोहित पुत्र आर्यरक्षित छे. बाद तेना आगमन- कारण पूछतां आर्यरक्षिते माता साथेनो संपूर्ण वार्तालाप कही संभळावी दृष्टिवाद भणाववा माटे प्रार्थना करी. तोसलीपुत्र आचार्ये पण आ सांभळी ज्ञानोपयोग दीधो. ज्ञानदृष्टि द्वारा तेमने जणायुं के श्रीवज्रस्वामी पछी श्रीगच्छाचार-पयन्ना-८९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यरक्षित प्रभावक आचार्य थशे एटले तेने शांत वाणी द्वारा जणाव्यु के–“आर्यरक्षित ! तारो उत्साह प्रशंसापात्र छे. तारी तेजस्विता पण आ अभ्यासनी लायकात पुरवार करे छे, परंतु अमारी । शास्त्राज्ञा प्रमाणे जे जैनी दीक्षा स्वीकारे तेने ज दृष्टिवादनो अभ्यास करावी शकाय." ___ आर्यरक्षितने तो कोई पण प्रकारे विद्याभ्यासनी लगनी लागी हती अने तेनी पछवाडे पूज्य मातानी प्रेरणा हती एटले विशेष विचार कर्या वगर तेणे गुरुने पोतानी दीक्षा लेवानी संमति दर्शावी. आचार्यश्रीए विचार्यु के–“आर्यरक्षित हमणा ज पाटलीपुत्रथी सुपंडित पदवी लई आवेल छे,प्रजानो पण तेना परत्वे पूरेपूरो चाह छे. पुरोहितपुत्र छे अने तेने कारणे राजवीने पण बहुमान्य छे. एटले जो तेने दीक्षा आपीने अहीं ने अहीं राखीश तो तेना प्रत्ये प्रेम धरावनारा विघ्नकारक थशे.” आ प्रमाणे विचारी तेणे आर्यरक्षितने ते वात जणावी का के–“दीक्षा लईने आपणे अहींथी गुपचुप अन्यत्र विहार करवो पडशे.” आर्यरक्षिते ते पण स्वीकार्यु अने योग्य मुहूर्तमां आर्यरक्षित संसारी मटी मोक्षमार्गना मुसाफर बन्या. जैनशासनमां आ प्रमाणे आ पहेल-वहेली ज शिष्यनिष्फेटिका बनी.. जाणे पूर्व तैयारी ज होय तेम आर्यरक्षिते अल्प समयमांज पूर्वोनो अभ्यास अवधारी लीधो. विशेष विद्याभ्यास माटे तोसलीपुत्रे तेमने श्रीवज्रस्वामी पासे मोकलवानो विचार को अने आज्ञा पण आपी. आबाज श्रीवज्रस्वामीने स्वप्न आव्य के-पायसथी भरेलपात्रद्वारा में कोई पण अतिथिने पारणु कराव्यु परंतु पात्रमा शेष अल्प ज पायस बाकी रह्य. आर्यरक्षित तेमनी सेवागां हाजर थया अने अभ्यास कराववा माटे प्रार्थना करी. श्रीवज्रस्वामीए तैमने अध्ययन करावतां तेओ नवपूर्वना ज्ञानी बन्या. ___ आ बाजु आर्यरक्षितना चाल्या जवा बाद नगरमां स्हेज खळभळाट मच्यो परंतु आर्यरक्षितनी संमतिथी ज आ बनाव बनेल होवाथी तेनो विशेष ऊहापोह न थयो. रुद्रसोमाए पुत्रवात्सल्यथी दृष्टिवादनो अभ्यास करवा कही नाख्युं परंतु लांबा समयना विरहथी तेनुं वात्सल्य आर्यरक्षितनी जंखना करी रह्यं हतुं. रुद्रसोमाने आर्यरक्षितने मळवानी उत्कंठा थई एटले फल्गुरक्षितने तेमने तेडवा माटे मोकल्यो. ___ फल्गुरक्षिते आवी आर्यरक्षितने मातृस्नेहनु स्मरण कराव्यु. आर्यरक्षिते जणाव्यु “आ क्षणभंगुर संसारमा स्नेह ने मोह केवा? हाथिए बहार काढेला दांत शुं पाछा अंदर जाय छे? आ संसार ज आवी विचित्र बीनाओथी भरपूर छे. मोहराजा आ जीवने विविध रूपे नचावे छे अने आपणे नटनी माफक आ संसार-रंगभूमि ऊपर नाचीए छीए.” बाद फल्गुरक्षितने पण प्रतिबोधी प्रव्रज्या ग्रहण करावी. नव पूर्वनो अभ्यास तो सरळताथी कर्या बाद आर्यरक्षिते दशमा पूर्वनी शरूआत करी, परंतु अत्यार सुधी न जणायेल तेवो श्रम हवे तेमने जणावा लाग्यो. कठिन भांगाओ, दुर्गम गमक, दुष्कर पर्याय अने समान शब्दोना अर्थ शीखतां तेमनी बुद्धि हवे थाकवा लागी, छतां पण दृढ मनोबलथी अध्ययन शरू राख्यं परन्तु कंटाळो प्रतिदिन वधवा लाग्यो. एकदा तेमणे श्रीवज्रस्वामीने एकांतमां पूछ्युं के–“हे भगवन् ! हजु मारे केटलुं अध्ययन करवू शेष रह्यं छे?” वज्रस्वामीए तेमनो हृदयगतभाव जाणी लई एटलुंज का के–“तेनो विचार न करो, अभ्यास शरू राखो. मनने चंचळ श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ९० Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न बनवा द्यो.” आ प्रमाणे केटलोक समय व्यतीत थया बाद पुन: पूछ्युं त्यारे श्री वज्रस्वामीए शांतवाणी द्वारा जणाव्यु के “हजुसरसव प्रमाण भण्या छो अने मेरुपर्वत प्रमाण बाकी छे. अध्ययनमा कंटाळो न लावो.” लज्जाने लीधे आर्यरक्षिते अध्ययन शरू तो राख्युं परन्तु मन पार्छ हठतुं जतुं जणायु. छेवटे माताने मळवा जवाना आशयथी तेमणे श्रीवज्रस्वामी पासे विहार करवानी आज्ञा मांगी. श्रीवज्रस्वामीए ज्ञानदृष्टिथी जोयुं तो तेमने जणायु के आर्यरक्षित हवे विशेष अभ्यास करी शकशे नहीं, कारण के स्वप्न फळ मिथ्या न थाय. समग्र पायसमांथी शेष बाकी रह्य हतुं एटले आर्यरक्षित समग्र दशे पूर्वनो मारा द्वारा लाभ प्राप्त करी शकशे नहीं. माझं आयुष्य हवे अति अल्प छे अने आर्यरक्षित पुन: आ स्थळे आवशे ते पहेलां तो हुं काळधर्म पामी जईश.” भाविभाव जाणी श्रीवज्रस्वामीए तेमने आज्ञा आपी. आर्यरक्षित विहार करी पाटलीपुत्र आव्या अने दीक्षागुरु तोसलीपुत्र आचार्यने मल्या. त्यांथी विहार करी जन्मस्थान दशपुर आव्या. राजार अत्यंत बहुमानपूर्वक सामैयुं कर्यु. केटलाक समयनी स्थिरता दरमियान तेमणे पोताना माता, पिता, स्वजनसंबंधीवर्ग तेम ज केटलाक भव्य प्राणीने पारमेश्वरी दीक्षा आपी. श्रीवज्रस्वामीना काळधर्म पाम्याना समाचार आर्यरक्षितने मळतां तेमने पोताना अपूर्ण रही गयेला अभ्यास माटे पश्चाताप थयो, परंतु ज्यारे पोते प्रथम वार ज तोसलीपुत्र आचार्यने मळवा जता हता त्यारे ज साडानव शेरडीना सांठा मळ्या तेनुं तारतम्य हवे तेमने समजायुं साडानव सांठा ए सूचन करता हता के साडानव पूर्व पर्यंतनुं ज्ञान तमने प्राप्त थशे. पूर्वना अभ्यासने लीधे आर्यरक्षितनी शक्ति अनेक दिशाओमां विस्तृत थई हती. तेमनुं ज्ञान-बळ अनेक शंकाना समाधान करवा शक्तिमान नीवडतुं. एकदा महाविदेह क्षेत्रमा श्रीसीमंधरस्वामीने वंदन करवा गयेल शकेंद्रे प्रभुने पृच्छा करी के-“हे स्वामिन् ! आपना जेवू निगोदनुं सूक्ष्म स्वरूप भरतक्षेत्रने विषे कोई जाणे छे?" परमात्माए श्रीआर्यरक्षितसूरिनुं नाम आप्युं, एटले तेमने जोवानी इच्छाथी इंद्र वृद्ध ब्राह्मणरूप धारण करी मथुरानगरीमां आव्या अने गुरु समीपे जई निगोदनुं स्वरूप पूछ्युं एटले भगवंतना कथन मुजब ज सूरिश्रीए यथास्थित निरूपण कर्यु, इंद्र तेमनी आवी शक्तिथी अत्यंत रंजित थयो. बाद विशेष परीक्षा माटे तेमने स्व आयुष्य संबंधी पृच्छा करी त्यारे गुरुश्रीए चिह्न, आकृति अने लक्षण विगेरे ज्ञानथी जाणीने सागरोपमनुं आयु जणाव्यु. आ सांभळी अत्यंत हर्ष पामेला शक्रंद्रे श्रीसीमंधरस्वामीए कहेल सर्व व्यतिकर तेमने संभळाव्यो अने पोताना आगमननी निशानी तरीके वसतिनुं द्वार फेरवी दीधुं. बहार गयेला शिष्यो ज्यारे आव्या त्यारे तेओ विस्मय पाम्या अने उपाश्रयनुं द्वार शोधवा लाग्या त्यारे गुरुना दर्शाववाथी शिष्योए प्रवेश कर्यो. ज्यारे गुरुए तेओने इंद्र-आगम संबंधी व्यतिकर कही संभळाव्यो त्यारे शिष्योना आत्मामां आश्चर्यनी अवधी ज न रही. तेमना जीवननुं सर्वश्रेष्ठ कार्य ते शास्त्रज्ञानने चार अनुयोगमा विभक्त करवू-द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग अने धर्मकथानुयोग*.श्रीआर्यरक्षितसूरिना समय पूर्वे साधुओ साधु पासे अने साध्वीओ साध्वी पासे आलोचना ग्रहण करती परंतु त्यारबाद * आ चार अनुयोगने विभक्त करवानी तेम ज निगोदना सत्य स्वरूप संबंधी हकीकत केटलाक आचायों श्रीकालकाचार्यना नामे चढावे छे. ते तत्त्व केवलिगम्य छे. श्रीगच्छाचार–पयन्ना-९१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीओए पण साधु पासे ज प्रायश्चित ग्रहण करवानो नियम कर्यो. श्रीआर्यरक्षितसूरि शासनप्रभावना करी स्वर्गे संचर्या. तेमना शिष्यो पैकी दुर्बलिकापुष्पमित्र, फल्गुरक्षित अने विंध्यमुनि विगेरे महाप्राज्ञ अने विलक्षण मुनिवरो हता. । आ अढार प्रकारो पुरुषने दीक्षा देवा संबंधी विचारवाना छे. ऊपर जणावेल अढार प्रकारनां पुरुषोने दीक्षा न आपवी. आ अढार प्रकारो स्त्रीसंबंधी पण जाणवा, परंतु स्त्री नपुंसक कोने जाणवी ते संबंधी जणावतां कहे छे के-ते पुरुष नपुंसकने सेवे तथा सेवावे तेमज पुरुषनो वेष धारण करी सेवे तेम ज सेवावे तेने स्त्री नपुंसक जाणवी. ते स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेद एम बंने वेदनी वेदनारी होय छे. स्त्रीओने माटे ऊपर जणावेल अढार भेद उपरांत बीजा पण बे भेद होय छे, जे नीचे प्रमाणे १९. गर्भवंती- गर्भवंती स्त्रीने दीक्षा न देवी कारण के असतीपोषणनो दोष लागे, बाळकने त्यजी देवू पडे तेमज ऊंचा उदरने जोईने लोको निंदा करे. २०. सवत्सा- जे स्त्रीने बाळक धावतुं होय तेने दीक्षा न आपवी. अंतराय दोष लागे, लोको अवर्णवाद बोले. हवे नपुंसक संबंधी वर्णन करतां शास्त्रकार जणावे छे के- नपुंसको सोळ प्रकारना छे, ते पैकी दीक्षा माटे दश योग्य नथी, ज्यारे छ योग्य छे. जे दश अयोग्य छे ते नीचे प्रमाणे जाणवा “पंडए १ बाइए २ कीबे ३, कुंभी ४ ईसालुए ५ त्तिया-सउणी ६ तक्कम्मसेवी य ७, पक्खियापक्खिए ८ इय ॥ ४ ॥ सोगंधिए अ९ आसत्ते १०, दस एए नपुंसगा । संकिलिट्ठ त्ति साहूणं, पव्वावेउं अकप्पिया ॥५॥ १ पंडक, २ वातिक, ३ क्लीब, ४ कुंभिक, ५ ईर्ष्याळु, ६ शकुनी, ७ तत्कर्मसेवी, ८ पाक्षिकापाक्षिक, ९ सौगंधिक अने १० आसक्त - आ दश प्रकारना नपुंसको अशुभ परिणामवाळा होवाथी दीक्षा आपवा योग्य नथी. १.पंडक-जे पुरुष पुरुषाकार लिंगधारी होय परंतु जेनो हावभाव, गति विगेरे स्त्री जेवो होय ते पंडक-नपुंसक कहेवाय. तेना छ भेद छे- (अ) महिला स्वभाव- चालवानी गति मंद होय, चालतां चालतां पार्छ वाळी जुए, शंकापूर्वक चाले, शीतळ अने कोमळ शरीर होय, स्त्रीनी माफक हाथ हलाववा पूर्वक बोले, स्त्रीनी पेठे हाथना लटका-मटका-चेनचाळा करे, पेट ऊपर तिच्छो जमणो हाथ राखें, तथा डाबा हाथनी कोणी पेट ऊपर स्थापन करी, हथेली ऊपर मुख राखी ऊभो रहे, पोताना वस्त्रने वारंवार हाथथी स्पर्श करे, शरीरे वस्त्र धारण न करेल होय तो हाथवडे छाती, हृदय विगेरे ढांके, बोलवाना समये आंखना ध्रुवां ऊंचा-नीचा करे, स्त्रीना घरेणां पहेरवानुं विशेष मन करे, पुरुषोनी सभामां बेसतां भय पामे-संकोच थाय, स्त्रीनी सभामां बेसे तो आनंद पामे, स्त्रीना काम जेवा के-रांधवू, पीरसवं, खांडवं, सांधवं विगेरे कार्य करवामां कुशळ होय ते महिलास्वभाव (आ) स्वरभेद-स्त्री जेवो अगर तो पुरुष जेवो स्वर न होय.(इ) वर्णभेद - स्त्री तथा पुरुषथी भिन्न वर्ण होय श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ९२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ई) पुरुषचिन्ह मोटु तथा जाडु होय (उ) स्त्री सरखी कोमळ वाणी होय अने (ऊ) स्त्रीनी माफक पेशाब करे एटले के 'छरछर' ध्वनि करता स्त्रीना पेशाबनी माफक मातरुं करे तेमज तेना पेशाबमां फीण न होय- आ छ प्रकार पंडक-नपुंसकना लक्षण जाणवा. . २. वातिक-जे- लिंग कारणे अगर तो वगर प्रयोजने पण स्तब्ध-शांत होय, स्त्रीनी साथे भोग भोगवतां दीर्घ समये मैथुन कर्म करवा लायक थाय. ३. क्लीब-तेना चार प्रकार छे. (१) नग्न स्त्रीने निरखीने जेनं मन क्षोभ पामे, मननो वेग रोकी न शके ते दृष्टिक्लीब, (२) जे स्त्रीनो ध्वनि मात्र सांभळी मननो वेग न रोकी शके ते शब्दक्लीब, (३) जे स्त्रीनो स्पर्श सहन न करी शके ते अश्लिष क्लीब अने(४) स्त्रीए बोलाव्या मात्रथी जे मैथुनना मनोरथवाळो ते आमंत्रित क्लीब. ४. कुंभिक - जेने मोहनीयना प्रबल उदयथी धातु निकळवाना समये लिंग तथा अंड बने कुंभनी माफक फूली जाय-विकारवंत बनी जाय ते. ५. ईर्ष्याळु- कोई बीजाने स्त्री साथे भोग भोगवतो जोईने तेनी ईर्ष्या करे. ६.शकुनी- चकला, पारेवानी माफक वारंवार मैथुन सेवन कर्या करे तेम ज हमेशां विषयमां ज आसक्त रहे. ७. तत्कर्मसेवी - पोताना लिंगमांथी वीर्य निकळ्या पछी, जेवी रीते कृतरो पोताना लिंगने चाटे छे तेनी माफक स्वलिंगने चाटे. ८. पाक्षिकापाक्षिक-शुक्लपक्षमा काम भोगनो तीव्र अभिलाष होय. परंतु कृष्णपक्षमां शांत होय अगर तो कृष्णपक्षमां भद्रकामेच्छावाळो होय परंतु शुक्लपक्षमां शांत होय एटले के एक पक्षमां नपुंसक अने एक पक्षमा पुरुष अर्थात् जे पक्षमा उदय ते पक्षमा अत्यंत वेदोदय होय ते पाक्षिकापाक्षिक वळी केटलाक मास तथा छ मासमां बे पखवाडिया स्त्री तथा पुरुषवेदना उदयवाळा होय छे, तेमज नसकवेदना पण होय छे ते पाक्षिकापाक्षिक. ९. सौगंधिक - पोताना लिंगने सारं जाणीने तेमज लिंगने आंगळी लगाडीने सूंघे ते. १०. आसक्त - भोग भोगवतां वीर्य स्खलित थई गयु, हवे बीजी वार भोग करवानी शक्ति नथी त्यारे पोते स्त्रीने आलिंगन आपीने रहे. आ दशे प्रकारना नपुंसको दीक्षा आपवाने लायक नथी. कोई शंका करतां कहे छे के– पुरुषमां पण नपुंसक कह्या अने अहीं पण नपुंसक कह्या तो ते बन्ने वच्चे शो तफावत छे? आनो जवाब जणावतां कहे छे के पूर्वे तो पुरुषना जेवी आकृतिना नपुंसक कह्या छे अने अहीं तो नपुंसक जेवी आकृतिना नपुंसको वर्णव्या छे. स्त्रियो संबंधी पण एम ज जाणी लेवं. हवे दीक्षाने लायक छ नपुंसको जणावतां कहे छे के–“वद्धिए १ चिप्पिए २ चेव, श्रीगच्छाचार-पयन्ना-९३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंतओसहिउवहए ३-४ । इसिसत्ते ५ देवसत्ते ६, पव्वावेज्ज नपुंसए ॥६॥" १ वर्द्धितक, २ चिप्पिक, ३-४ मंत्रौषधिसमुपहत, ५ ऋषिशापित अने ६ देवशापित - आ छ प्रकारनां नपुंसकोने प्रव्राजित करवा. १. वर्द्धितक- राजाना अंत:पुरमांचोकी करनार (कञ्चकी) नी बाळवयमांथी ज अंडगोलकने छेदी नाखवामां आव्या होय ते कृत्रिम नपुंसको वर्द्धितक जाणवा. २.चिप्पिक- जन्मतां थकांज जेना अंड आंगळीवडे मसळी नाख्या होय ते. आ बने जणावेल भेदमां चोक्कस नपुंसकवेदनो उदय थाय तो शामाटे दीक्षा आपवी जोईए? ए शंकाना निरसन माटे कहे छे के- तेओमां केटलाकने उपशम थई जाय छे एटले तेओ कृत्रिम नपुंसक छे पण संक्लिष्ट (अशुभ) परिणामी नथी माटे दीक्षाने लायक छे. ३-४. मंत्रौषधिसमुपहत - मंत्रना प्रभावथी पुरुषवेद हणावाने कारणे नपुंसकवेद थयो होय. एवा केटलाक मंत्र, जंत्र होय छे जेना योगथी कुलडी प्रमुख जमीनमा दाटे तो लिंग नि:सत्त्व बनी जाय अने कृत्रिम नपुंसक बने. एवी ज रीते औषधी खवरावीने पण नपुंसक बनाव्यो होय. आ बंने प्रकारना नपुंसको दीक्षाने लायक छे. ५. ऋषिशापित-कोई तपस्वी ऋषिए श्राप आपतां का होय के–“मारी तपश्चर्याना प्रभावथी तुं नपुंसक थई जा.” ए प्रमाणे जे नपुंसक बनेल होय ते पण प्रव्रज्या लई शके छे. ६. देवशापित - देवे श्राप आपीने नपुंसक बनावेल होय. आ रीते विचारतां अडताळीश भेदो दीक्षा देवाने योग्य नथी. आ संबंधमां अपवाद अने उत्सर्गमार्ग जाणवो होय तो निशीथचूर्णी, पंचकल्पभाष्यचूर्णी, व्यवहारचूर्णी प्रमुख पंचांगीना सूत्रो तथा ग्रंथो जोवा. जे आचार्य सामाचारी न भणावे ते शत्रु समान जाणवा. आचार्य जिह्वा द्वारा चेलाने चाटे, लाड लडावे तेने पण वैरी सदृश ज जाणवो. ते संबंधे विशेष वृत्तांत जणावतां कहे छे जीहाए विलिहतो, न भद्दओ सारणा जहिं नत्थि । दंडेण वि ताडंतो, स भद्दओ सारणा जत्थ ।। १७ ।। [जिह्वया विलिहन्, न भद्रक: सारणा यत्र नास्ति । दण्डेनापि ताडयन्, स भद्रक: सारणा यत्र ॥ १७ ॥ गाथार्थ-जे आचार्य शिष्योने स्नेहपूर्वक चुंबन करे छे, परंतु हितमार्गमा प्रवृत्ति करावनार तथा स्वकर्तव्यनु स्मरण करावनार सारणा, वारणा, चोयणा अने पडिचोयणा न करावे-न समजावे ते आचार्य श्रेष्ठ नथी-कल्याणकारी नथी; परंतु जे सद्गुरु समीपे रहेता छतां सारणा, वारणादिक थता होय अने कदाचने दंड आदिवडे ताडना करे तो पण ते श्रेष्ठ- हितकारी छे. १७ विवेचन - सुवर्णनी शृंखला शा कामनी? शृंखला सोनानी होवा छतां पण ते बंधनकारक ज छे. कोई आचार्य शिष्य प्रत्ये गमे तेटलो वात्सल्यभाव धरावता होय, स्नेहभाव राखता होय, श्रीगच्छाचार-पयन्ना-९४ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तक पर चुंबनादिवडे प्रेम दर्शावता होय छतां पण जो ते शिष्यने संयममार्गमां प्रवर्तावे नहीं, सारणा, वारणा, चोयणा अने पडिचोयणारूप धर्मकृत्य समजावे नहीं तो ते आचार्य शुभेच्छक न गणाय. सारणा, वारणा इत्यादिक क्रिया जो न थाय तो साधु प्रमादी बने, सुखशीलियो थाय अने धीमे धीमे अध:पतनना मार्गे आगळ वधे. सारणा हितकारी कार्यमां प्रवर्तावे, उपदेश आपे के– 'तारे गमन करती वखते ईर्यासमितिपूर्वक चालवुं, आ कार्य तें खोटं कर्तुं, तेनुं स्मरण राखजे अने फरी तेवुं अकार्य न करीश.' वारणा - विपरीत मार्गथी निवर्तवारूप 'हे साधु ! आवुं अशुभ कार्य हवेथी करो नहीं, आ कार्य तमारे करवा लायक नथी, आ कार्यथी तमारुं अहित-अकल्याण थशे.' आ प्रमाणे पापकारी कार्यथी पाछो वाळे ते वारणा. चोयणा - ' तमारा जेवाने आम करवुं अयुक्त छे' एम जे कहेवुं ते चोयणा. दा. त. 'हे साधु ! आवुं अकार्य न करशो, एम में कह्या छत कर्यं तो तमे दोषना भागी थया, चारित्रमां स्खलन थयुं, अतिचार लाग्यो, तमारा जेवाए तो आ अकार्य-अशुद्ध आचरण न करवुं जोईए.' आ प्रमाणे वारंवार कराती प्रेरणा ते पडिचोयणा. - आवी चारे प्रकारनी प्रणालिका जे गच्छमां नथी ते आचार्य हितसाधक न जाणवा. वळी जे आचार्य दंडे-ताडन-तर्जनादि करे परंतु सारणा, वारणादिक करे ते आचार्य सारा जाणवा. ते ताडनादिक करे छे ते पण शिष्यना हितने माटे, वळी चारित्रमां विराधना थवा देता नथी. ताडन- तर्जन करे तो पण सारणादिक करतां होय तेवा आचार्य समीपे रहेवुं परंतु लाड लडावतां होय, रमत करावता होय परंतु चारित्रना आधाररूप सारणादिक न होय तो तेवा आचार्यनी पासे न रहेवुं ए आ गाथानो भावार्थ छे. ऊपर पंदर तथा सोळमी गाथामां आचार्य शिष्य- शत्रु क्यारे कहेवाय ते जणाव्यं, हवे शिष्य गुरुनो वैरी केवी रीते बने ? ते जणावे छे: सीसो वि वेरिओ सोड, जो गुरुं न विबोहए । पमायमइराघत्थं, सामायारीविराहयम् ॥ १८ ॥ [ शिष्योऽपि वैरी सतु, यो गुरुं न विबोधयति । प्रमादमदिराग्रस्तम्, सामाचारीविराधकम् ।। १८ ।।] गाथार्थ - निद्रा, विकथादिक प्रमादरूपी मदिरावडे जेनुं ज्ञान आवृत्त थई गयुं छे तेवा तेमज सामाचारीना विराधक गुरुने हितोपदेश द्वारा जे धर्ममार्गमां स्थापन न करे ते शिष्य पण शत्रु सदृश ज छे. १८ विवेचन - पंदर तथा सोळमी गाथामां शत्रुसदृश आचार्य संबंधी वर्णन कर्तुं, हवे आ गाथामां शिष्य शत्रु जेवो क्यारे बने - शिष्यने शत्रु क्यारे जाणवो ? ते संबंधी निरूपण करवामां आव्युं छे. आचार्य अथवा गुरु निद्रा, विकथादिक पांच प्रकारनी प्रमादरूपी मदिरामां आसक्त होय, तेमां जरच्यापच्या रहेता होय तो तेने साचो उपदेश आपवो, ज्ञानमार्गनी प्रेरणा करवी तेमज श्रीवीतराग परमात्माए प्ररूपेल सामाचारीनुं यथार्थ पालन न करे तो तेने पंचाचार, प्रतिक्रमण अने पडिलेहणादि क्रियामां प्रवर्तावी, बीजाने पण प्रवर्ताववा प्रेरणा करवी - आ प्रमाणे जो शिष्य गुरुने सन्मार्गे न लावे श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ९५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो ते शिष्य शत्रुसदृश जाणवो. आपणे आ ज ग्रंथमां शेलकाचार्यनी कथामां (पृ. २५ थी ३४) जोई गया छीए के प्रमादी अने क्रियाशून्य बनेला शेलकाचार्यने तेमना पंथक नामना शिष्ये पुन: संयममार्गमां स्थिर कर्या हता. जो आ प्रमाणे शिष्य स्वगुरुने पुन: स्थिर न करे तो ते शिष्य पण शत्रुसदृश ज मनाय. माता-पितानो प्रत्युपकार कदी करी शकातो नथी तेम दीक्षागुरु के विद्यागुरुनो पण प्रत्युपकार कोई पण प्रकारे करी शकतो ज नथी. मात्र जो गुरुने स्वधर्ममां स्थिर करे, तेने पतित थतां अटकावे अने मोक्षमार्गना पथिक बनावे जो ज कईंक अंशे तेमना उपकारनो बदलो वळी शके. श्रीस्थानांगसूत्रमा (स्था. ३, उद्देशो १, सू. १३५) आ संबंधी विवेचन करतां जणाव्यु छे के"तिण्हं दप्पडियार समणाउसो! तं.-अम्मापिउणो १, भट्टिस्स २, धम्मायरियस्स ३, संपातोऽवि य णं केइ पुरिसे अम्मापियरं सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अब्भंगेत्ता सुरभिणा गंधवट्टएणं उव्वट्टित्ता तिहिं उदगेहिं मज्जावित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता मणुन्नं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भोयावेत्ता जावज्जीवं पिट्टिवडेंसियाए परिवहेज्जा, तेणावि तस्स अम्मापिउस्स दुप्पडियारं हवइ।" त्रण जणा दुष्प्रतिकार छे एटले ते त्रणनो प्रत्युपकार करवो ते अति कठिन छे. १ मातपितानो, २ भर्ता-स्वामी-मालीकनो, आपणने सुखी करे तेनो अने ३ धर्मपिता-धर्मगुरुनो, जेणे आपणने समकित पमाड्युं होय तेनो. . (१) कोई पुरुष पोताना मातपितानुं सहस्रपाक तेलवडे मर्दन करे, एम करीने तेनो संताप-कष्ट दूर करे, पछी सुगंधी पदार्थवडे उवट्टण करे-पीठी करे, पछी शुद्ध सुगंधी जळवडे त्रण वखत स्नान करावे, पछी उत्तम आभूषणो अने श्रेष्ठ वस्त्रो पहेरावे, पछी मनपसंद पडे तेवो स्वादिष्ट अढार व्यंजन (पदार्थ) युक्त भोजन करावे, तेमनी जिंदगी पर्यंत पगचंपी इत्यादिक वेयावच्च करे, पोताना स्कंध पर बेसाडी चाले अर्थात् तेमने लेशमात्र पण दुःखी न थवा दे छतां पण शास्त्रकार भगवंत कहे छे के ते पुत्र मातपिताना उपकारनो बदलो वाळी शके नहीं. परंतु जो ते पुत्र मातपिताने केवलिप्ररुपित धर्म समजावे, तेमां स्थिर करे, धर्मक्रियामां अनुमोदन आपे तो ते पुत्र मातपिताना करेल उपकारनो बदलो वाळी शके, कारण के का छे के- धर्मस्थापनस्य महोपकारकत्वात् ! अर्थात् धर्मप्राप्ति कराववाथी महाउपकार थाय छे. आ प्रथम दुष्प्रतिकार जाणवो. __ (२) कोई एक श्रेष्ठी पोताना दरिद्री गुमास्ताने-नोकरने पोतानी संपत्तिथी धनवंत बनावे, पछी ते भृत्य क्रमे क्रमे अनेक प्रकारे धनप्राप्ति करी अतुल समृद्धिवाळो बने अने विविध प्रकारना भोगविलासो भोगवे. त्यारबाद जे प्रथम श्रेष्ठी हतो ते कर्मप्रभावे निर्धन-दरिद्री बनी जाय अने विचारे के–'मारो नोकर विपुल धनराशिवाळो थयो छे माटे ते मने कईंक आपशे' - आ प्रमाणे धारणा करीने पोताना पूर्वना गुमास्ता पासे जाय. त्यारे ते नोकर विचारे के-'हुं दरिद्री हतो त्यारे आ शेठना ज प्रतापथी धन-संपत्तिवाळो थयो छु माटे आ सर्व संपत्ति तेमने आपी दउं?' आ प्रमाणे विचारी सर्व साहिबी शेठने अर्पण करी दे तो पण पोताना शेठना उपकारनो बदलो न वळी शके. परंतु जो ते शेठने श्रीजिनेश्वरभगवंतभाषित धर्म पमाडे, तेने समकिती बनावे तो तेना उपकारनो श्रीगच्छाचार-पयन्ना-९६ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदलो वाळी शके आवी जरीते स्त्री पोताना पतिने धर्म पमाडे, प्रधान राजाने धर्म पमाडे इत्यादिक बीजो दुषतिकार जाणवो... (३) कोई शुद्ध चारित्रपात्र, क्रियातत्पर, पांच महाव्रतो, यथार्थ पालन करनार साधु होय, तेनी पासे कोई पण भव्य प्राणी आवी चढे अने तेमनी पासेथी वीतराग धर्मनुं वचन सांभळीने, तेनी सद्दहणा करीने, तेनो रूडी रीते स्वीकार करीने, तेनुं यथार्थ रीते पालन करीने तेमज पोताना आयुक्षये मृत्यु पामीने चार निकाय पैकी (भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी अने वैमानिक) कोई पण एक निकायमां देव तरीके उपजे. बाद अवधिज्ञानथी जोतां तेने जणाय के-मारा धर्मगुरु अमुक क्षेत्रमा छे, परंतु त्यां दुष्काळ वर्ते छे एटले पोताना गुरुने लेशमात्र कष्ट न पडे ते माटे तेमने त्यांथी उपाडीने सुभिक्षसुकाळवाळा देशमां मूके अथवा तो भयंकर अटवीमां भूला पड्या होय त्यांथी उपाडीने वसतिवाळा स्थानमां मूके अगर तो तेमना शरीरमां घणा समयनो व्याधि होय ते दूर करीने तेमने निरोगी बनावे तो पण ते धर्माचार्ये करेला उपकारनो बदलो वळी शके नहीं; परंतु कदाच ते धर्मगुरु संयमथी पतित थया होय, तेमनी धर्मश्रद्धा ओछी थती जती होय, उन्मार्ग- सेवन करी रह्या होय त्यारे देवलोकथी आवीने, केवलीभगवंतप्ररूपित धर्म कहीने तेमां तेमने पुन: स्थिर करे तो पूर्वे करेला तेमना उपकारनो बदलो वळी शके. .... आ संबंधमां विशेष बीना जणावतां कहे छे के-मातापिता विगेरेनो प्रत्युपकार थई शके छे परंतु धर्मगुरुनो तो आ लोक अने परलोकमां पण पूरेपूरो प्रत्युपकार थई शकतो नथी, एटले के आ सर्वमां गुरु सविशेष दुष्प्रतिकारक छे. श्रीउमास्वाति वाचक-महाशये श्रीप्रशमरति ग्रंथमां का छे के :- “दुःप्रतिकारौ माता-पितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन्। तत्र गुरुरिहामुत्र च, सुदुष्करतरप्रतीकारः ।" एटले के मातापिता, पोषण करनार शेठ तथा धर्मगुरु आ लोकने विषे दुष्प्रतिकार छे, तेमां पण धर्मगुरु तो आ लोक अने परलोकमां पण दुःखे करीने प्रतिकार करवा योग्य छे अर्थात् मातापिता विगेरेने जो धर्ममा स्थापन करीए तो आ लोकमां अनृणी थवाय परंतु गुरुना अनृणी आ लोक ने परलोकमां पण थई शकवू मुश्केल छे. ___ आटला माटे ज आअढारमी गाथामां का छे के- जो आचार्य उन्मार्गगामी थया होय,विपरीत क्रिया करता होय तो तेना शिष्ये तेमने पुन: धर्ममार्गमां स्थापन करवा, तेमने स्थिर न करे तो तेवा चेलाने वैरी-शत्रु सदृश जाणवो. आ अढारमी गाथामां गुरुने प्रतिबोध आपवानो शिष्य माटे निर्देश कयों, परंतु शिष्ये पोताना प्रमादी गुरुने केवी रीते समजाववा ते माटे नीचेनी गाथा दर्शावतां कहे छे के तुम्हारिसा वि मुणिवर !, पमायवसगा हवंति जइ पुरिसा । तेणन्नो को अम्हं, आलंबण हुज्ज संसारे ? ॥ १९ ॥ [युष्मादृशा अपि मुनिवर !, प्रमादवशगा भवन्ति यदि पुरुषाः । तेनाऽन्यः के ऽस्माकमा-लम्बनं भविष्यति संसारे ? ॥ १९ ॥] श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ९७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ-हे स्वामिन् ! हे गुरुदेव ! आपना जेवा पुरुष पणजो प्रमादवश थई जाय तो पछी आ अपार संसारसागरमां पडतां मंदभागी एवा अमने नौका सरखा आप सिवाय बीजा कोनो आधार? अर्थात् अमने भवदुःखमांथी कोण छोडावशे? विवेचन - आपणामां कहेवत प्रचलित छे के -“जेनो नायक आंधळो तेनुं कटक (सैन्य) कूवामां" आ उक्ति बराबर प्रमादी गुरुने लागु पडे छे. जो उत्तम पुरुष-गच्छनायक पुरुष प्रमादवश थई जाय त्यारे तेमनो बोध कशुं पण फळ निपजावी शके नहीं अने तेमना आचारविचार जोई केटलाक शिथिल बनतां शिष्यो पण विशेष पतित थाय, माटे सारा शिष्यनी ए फरज छे के तेणे गुरुने प्रतिबोधवा-समजावी पुन: शुद्ध मार्गमां स्थापित करवा. समजाववाना प्रसंगे शिष्य कहे के–“हे गुरुदेव ! तमो तो आ चार गतिरूप अगाध भवसागरमांथी अमारो उद्धार करवामां जहाज समान छो. जहाज ज समुद्रमा अवलंबनरूप छे. जो जहाज तूटे अगर डूबे तो तेना आश्रये रहेला पथिको पण पीडा पामे अगर तो डूबी जाय एवी रीते जो आप प्रमादवश बनशो तो पछी अमारे कोनुं शरण स्वीकारवू? " आ प्रमाणे विविध मिष्ट वचनथी गुरुने प्रतिबोधवा प्रयत्न करवो परंतु कठिन के कडवू वचन न कहेवू. स्तुति के प्रार्थनापूर्वक कहेवामां आवे तो तेनी गुरु प्रत्ये शीघ्र सारी असर थाय छे. तेमनी स्तुति केवी रीते करवी अगर तो गुरुना केवी रीते गुण दर्शाववा ते संबंधी वर्णन करतां कहे छे के - पुढवीविव सव्वसहं, मेरुब्व अकंपिरं ठियं धम्मे । चंदुव्व सोमलेसं, तं आयरियं पसंसन्ति ॥ १ ॥ अप्परिसावं आलो - यणारिहं हेउकारणविहिन्नुम् ।। गंभीरं दुद्धरिसं, तं आयरियं पसंसंति ॥ २ ॥ कालन्नु देसन्न, भावन्नु अतुरिअं असंभंतम् ।। अणुवत्तयं अमायं, तं आयरियं पसंसंति ॥ ३ ॥ लोइयसामइएसुं, सत्येसुं जस्स नत्थि वक्खेवो । ससमयपरसमयम्मि अ, तं आयरियं पसंसंति ॥ ४ ॥ बारसहि वि अंगेहिं सामाइयमाइपुव्वनिबद्धे । लद्धद्धं गहियटुं, तं आयरियं पसंसंति ॥ ५ ।। आयरियसहस्साइं, लहइ अजीवो भवेहि बहुएहिं । कम्मेसु य सिप्पेसु य, धम्मायरणेसु नो कहवि ॥ ६ ॥ जे पुण जिणोवइवे, निग्गंथे पवयणंमि आयरिया । संसारमुक्खमग्गस्स, देसगा ते हु आयरिया ॥७ ॥ देवा वि देवलोए, निग्गंथं पवयणं अणुसरंता । अच्छरगणमझगया, आयरिए वंदया इंति ॥ ८ ॥ श्रीगच्छाचार–पयन्ना- ९८ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जह दीवो दीवसयं, पइप्पए दिप्पई व सो दीवो । दीवसमा आयरिया, अप्पं च परं च दीवन्ति ॥९॥ देवा वि देवलोए निच्चं दिव्वोहिणा वियाणंता । आयरियमणुसरंता, आसणसयणाणि मुञ्चन्ति ।। १० ।। अर्थात् पृथ्वीनी पेठे सर्व प्रकारना मानापमान सहन करे, धर्मने विषे मेरुपर्वतनी माफक अकंपित-अडग-दृढ रहे, चंद्रनी सरखी सौम्यता-शीतळता अपें, कोईनी पण रहस्यमय वात अन्यने न करे, आलोयण देवा योग्य श्रीजैनशासनना सूत्रने विषे दर्शावेला हेतु तथा कारणो जाणे अगर तो संयम आराधननी विधि जाणे, सागरनी समान गांभीर्य गुणधारक होय, पाखंडी-मिथ्यात्वीओने दुर्धर एटले के परवादी जो वाद करवा आवे तो जीती शके नहीं, पूर्वेचर्णवेल सुकाळ अगर तो दुष्काळ विगेरेने जाणनार होय, विविध देशोने जाणे, मनुष्यना भावो जाणे, वगर विचार्यु कार्य न करे, भ्रान्ति रहित होय, श्रीतीर्थंकरपरमात्मानी आज्ञामां पोते वर्तता होय अने पारकाने वर्तवा प्रेरणा करता होय, माया-कपट रहित होय, लौकिक सर्व व्यवहार तेमज स्वशास्त्र अने परदर्शनना जाणनार होय, सामायिकादि चौदपूर्व संयुक्त द्वादशांगीश्रुतना ज्ञाता होय अने तेना अर्थने जाणनार तेमज परंपरा प्रमाणे पृच्छा करीने अर्थनो निर्णय करनार होय-आवा प्रकारना गुणवाळा आचार्यनी श्रीतार्थंकर परमात्मा पण प्रशंसा करे छे. अन्य प्रकारना आचार्य एटले शिल्पाचार्य, कर्माचार्य एम बोतेर कला शिणवाडनारा तथा लुहारीकाम, सुतारीकाम विगेरे हुनर शिखवाडवावाळा आचार्यो तो हजारो भवोमां भमे छे परंतु धर्माचार्य एटला बधा भवोमां भ्रमण न करे. श्रीजिनेश्वरप्ररूपित निग्रंथ मार्ग- प्ररूपण करनार होय एटले के एवो उपदेश आपनारा होय; जेम के-कोई हिंसादि पांच आश्रवोमां रक्त रहेशे ते संसाराब्धिमां डूबशे अने पांचे आश्रवोनो जे त्याग करशे तेमज भगवंतना फरमान मुजब तप अने धर्मानुष्ठान करशे ते मोक्षमार्गनी प्राप्ति करी शकशे. वळी अप्सराओनी मध्यमां सुखविलास भोगवतां देवो पण निग्रंथ प्रवचननी प्रशंसा करे छे के - आ वीतरागभाषित धर्मना अनुसरणथी अमे आवी दिव्य देव-ऋद्धि पाम्या. आ उपरांत आचार्यनो पोता प्रत्ये थयेल उपकार जाणी ज्यां आचार्य विचरता होय त्यां सपरिवार आवीने तेमने ते देव वांदे छे अने ए रीते शासनप्रभावना करे छे. आवा गुणशाळी आप आचार्य छो. वळी आप जळहळता दीपक समान छो. जेम एक दीपक अन्य सेकडो दीवाने प्रकाशित करे तेम आप पोते दीपो छो अने शिष्यसमुदायने दिपावो छो. अर्थात् आ लोकमां जैनधर्मने प्रकाशीने दीपो छो अने परलोकमां देवगति प्राप्त करो छो तेवी रीते अन्य भव्य प्राणिओनो उद्धार करी परलोकमां तेमने देवगतिना भाजन बनावो छो. वळी देव अवधिज्ञान युक्त होय छे अने ज्यारे तेना विचारवामां अगर तो देखवामां उपकारी आचार्य आवे त्यारे ते पोताना सिंहासनादिनो त्याग करी, सात-आठ डगला आगळ चाली वंदन करे छे तेवा समर्थ शक्तिशाळी आचार्यपदमां आप विराजो छो माटे आप जेवा स्वपरउपकारीए प्रमादवश बनवु उचित ज नथी. हे प्रभो ! जो आप प्रमादाचरण करशो तो अमारो उद्धार कोण करशे? (१-१०) आ दश गाथा चंद्रकवेध्यक प्रकीर्णकनी छे. आ प्रमाणे मधुर वाणीथी शिष्ये प्रमादी बनतां आचार्य, शिथिलपणुं दूर कराववं. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ९९ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे उत्तम आचार्य अने अधम आचार्य वच्चेना तफावतनुं वर्णन बार गाथाओ द्वारा दर्शाववामां आवे छे. नाणम्मि दंसणम्मिय, चरणम्मि यतिसु वि समयसारेसु । चोए जो ठवेडं, गणमप्पाणं च सो अ गणी ॥ २० ॥ [ ज्ञाने दर्शने चरणे च, त्रिष्वपि समयसारेषु । नोदयति यः स्थापयितुं, गणमात्मानं च स च गणी ॥ २० ॥] गाथार्थ - श्रीजिनशासनमां प्रधान श्रेष्ठ स्वरूप ज्ञानाचार, दर्शनाचार तथा चारित्राचार तेमज तपाचार अने वीर्याचारने विषे पोताना साधुसमूहने, पोताने तेमज श्रोतासमूहने स्थिर करवा खंभरी प्रेरणा करे तेने ज श्रीतीर्थंकर तथा गणधर प्रमुख आप्तजनोए आचार्य कहेल छे. - विवेचन - आठ प्रकारनो ज्ञानाचार छे, दर्शनाचार पण आठ प्रकारनो छे, 'च'कार शब्दथी बार प्रकारनो तपाचार पण समजवो, आठ प्रकारनो चारित्राचार अने बीजा 'च'कार शब्दथी छत्रीश प्रकारनो वीर्याचार जाणवो. आ प्रमाणे आचार तो पांच थया अने मूळ गाथामां तो 'तिसु वि' शब्दथी त्रणनी ज संख्या दर्शावी छे तो कोईने शंका उद्भवे के त्रणने बदले पांचनी संख्यानुं ग्रहण केम कर्तुं ? आ शंकानो उत्तर ए छे के-ग्रंथकारे त्रणनी अंतर्गत ज तपाचार अने वीर्याचारने जणाव्या छे: अलग पाड्या नथी माटे मूळ गाथामां जणावेल शब्द 'तिसु' त्रणवाचक बराबर घटित ज छे. आवा त्रण प्रकारना सिद्धांतना सारभूत एटले जैनदर्शनमा जेना करतां विशेष कोई नथी वा प्रकारोमां जे पोताना आत्माने, पोताना साधुसमुदायने तेमज 'च' शब्दथी श्रोतासमूहने. पण प्रवर्तावे प्रेरणा करी आचरणमां उत्साहवंत बनावे तेवा आचार्यने तीर्थंकर भगवंतोए उत्तम आचार्य जणावेल छे. " हवे प्रथम ज्ञानाचारनुं स्वरूप दर्शावतां कहे छे के – “काले १ विणए २ बहुमाणे ३, उवहाणे ४ तह अनिह्नवणे ५ । वंजण ६ अत्थ ७ तदुभए ८, अट्ठविहो नाणमायरो ॥ १ ॥ ” १. काळे - अंगप्रविष्ट अने अनंगप्रविष्ट 'एम बे प्रकारनं जे सूत्र छे तेनी सज्झाय माटे जे काळ जणाव्यो होय ते समये ज स्वाध्याय करवो परंतु अकाळे सज्झाय न करवी. जो अकाळे स्वाध्याय करवामां आवे तो प्रायश्चित लागे. आ संबंधमां शंका करतां कोई कहे के - “ज्ञाननुं पठन-पाठन करवामां काळ-अकाळनो विचार शा माटे करवो ? ए तो प्रतिदिन पठन करवा योग्य ज छे एटले तेने माटे काळ-अकाळनो प्रतिबंध न होई शके.” आना जवाबमां जणाववामां आवे छे के - अकाळे करेल स्वाध्याय निष्फळ नीवडे छे. वर्षाऋतुमां क्षेत्र खेड्युं होय तो ते क्षेत्र सारो पाक निष्पन्न करी शके परंतु वर्षाऋतुमां प्रमादी बनी, खेडूत कार्तिक मासमां क्षेत्र खेडवा मांडे तो तेने कशो लाभ न थाय ते अकाले करेल सज्झाय पण निष्फळ ज नीवडे. आ उपरांत अकाले स्वाध्याय करवाथी मिथ्यात्वी देव छळ करे, बुद्धिबळ घटे, विद्या फळ न आपे, आयुष्य ओछं थाय, तीर्थंकर भगवंतनी आज्ञानो भंग थाय इत्यादि दोषापत्ति आवे. आ संबंधमां एक संक्षिप्त दृष्टांत जणावतां ग्रंथकार कहे श्रीगच्छाचार - पयन्ना—- १०० Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - छे के- एक साधु हता. तेमणे शास्त्राभ्यास ठीक कर्यो हतो परंतु तेओ हंमेशां अकाले ज स्वाध्याय करता. एकदा नगरनी देवीने आ हकीकतनी जाण थतां तेणे विचार्य के कोई मिथ्यात्वी देव आव जो तो साधुने पीडा करशे माटे तेमने समजाववा जोईए, परंतु साधु स्पष्ट कहेवाथी मानशे नहीं एम विचारी नगरदेवीए एक भरवाडणनुं रूप धारण कर्तुं अने संध्यासमये छाशनुं वासण मस्तक पर लई ज्यां आगळ पेला साधु सज्झाय करी रह्या हता ते स्थाननी आसपास " कोई छाश ल्यो, कोई छाश ल्यो" ए प्रमाणे ऊंचे स्वरे बोली परिभ्रमण करवा लागी आ प्रमाणे वांरवारना शब्दोच्चारथी साधुना स्वाध्यायध्यानमां व्याघात थवा लाग्यो एटले तेमने स्वाभाविक क्रोध उद्भव्यो. तेमणे आक्रोशपूर्वक पेली भरवाडणने कह्यं के- “हमणां तारी कोण छाश लेशे ? शुं आ संध्यासंमय छाश वेचवानो काळ छे ? छाश क्यारे वेचाय तेनुं पण तने भान नथी ? अत्यारे तने कोण ग्राहक मळशे ? तारी महेनत वृथा जशे.” आ प्रमाणे सांभळी देवीस्वरूप भरवाडणे कह्यं के - “हमणां तमे अध्ययन करवा मांड्युं छे तो शुं ते योग्य छे ? अध्ययन करवानो आ समय होई शके ? शुंआ अकाले कराती सज्झायनुं फळ मळशे ?” साधुने पोतानी भूल समजाई. देवीए तरत ज प्रत्यक्ष थईने साधुने समजावतां कह्यं के – “हुं नगरदेवी छु. तमने समजाववा माटे मारे आ रूपांतर करवुं पड्यं. अकाले स्वाध्याय करवाथी मिथ्यात्वी देवना उपद्रवनो भय रहे छे, अकाले मरण पण थाय छे, माटे हवेथी अकाले सज्झाय न करशो." साधु देवी-वचनथी समज्या अने त्यारबाद काले ज स्वाध्याय ध्यान शरू राख्युं. २. विनय - जे श्रुत-सिद्धांतनुं अध्ययन करावे ते गुरुनो विनय करवो, ते आवे त्यारे ऊभा थवुं. तेओनुं पाद- प्रक्षालन करवुं, तेमनी आज्ञानो तर ज अमल करवो इत्यादि. ३. बहुमान - जे सूत्र भणावे तेने पोताना हृदयगत भाव जणावी, तेमने उच्च आसने बेसारी शास्त्राभ्यास शीखवो. ते प्रमाणे करवाथी विद्या तथा विद्यादाता गुरुनुं पण बहुमान थाय छे अने तेने परिणामे सुखपूर्वक विद्या प्राप्त थाय छे. ४. उपधान उपधान तप करवो. सूत्रो भणवा माटे जे जे प्रकारनो तप शास्त्रमां जणावेल होय ते तप करीने भणवु तेनुं बीजुं नाम जोग पण कहेवाय छे. जे जे शास्त्राध्ययनोने माटे आगाढजोग अने अनागाढजोग कह्या होय ते ते अध्ययनोना पठन निमित्ते जोग करीने पछी सूत्र भणे - शीखे तो तेनुं ज्ञान जल्दी प्राप्त थाय छे. उपधान कर्या विना अभ्यास करे तो विराधक थाय. ५. अनिह्नव - गुरुने ओळववा नहीं. जेमनी पासे शास्त्राभ्यास कर्यो होय तेनुं ज नाम ग्रहण करवुं परंतु भण्या होईए कोईकनी पासे अने नाम लईए अन्य कोईनुं तो दोष लागे, माटे गुरुनुं सत्य नाम जाहेर करवु. ६. व्यंजन - शास्त्राभ्यासमां अगर तो श्रुतमां जे अक्षरो होय तेनो भेद-फेरफार न करवो. जे प्रमाणे भाषाबद्ध होय ते प्रमाणे ज उच्चार करवो परंतु तेमां परिवर्तन न करवुं दृष्टांत तरीके 'धम्मो मंगलमुक्किटं' एवो पाठ छे तेने बदले तेवा ज भाववाळो पाठ फेरवीने बोले के 'पुण्णं कल्लाणमुक्कोसं' तो दोष लागे. एटला माटे आवो व्यंजनोनो फेरफार कदापि न करवो. ७. अर्थ - अर्थभेद न करवो एटले सूत्रनो जे अर्थ थाय तेथी विपरीत-ऊलटो अर्थ न करवो. दृष्टांत स्वरुपे श्रीआचारांगसूत्रनो पाठ छे के - “आवंती (यावंती) लोगंसि विप्परामुसन्तीति” - अर्थात् केटलाएक पाखंडी लोको छक्कायना जीवोने अनेक प्रकारे श्रीगच्छाचार — पयन्ना- १०१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हणी रह्या छे, एटले के जेटला पाखंडी मिथ्यात्वी लोको छे तेज छक्कायना हणनारा छे. आ प्रमाणे आ सूत्रनो अर्थ होवा छतां तेनो विपरीत अर्थ करता कहे के - अवंतीदेशमा जे लोको छे ते एकबीजाथी दूर रहे छे. आ प्रमाणे ऊलटो अर्थ करे तो दोष लागे. ८. तदुभय - सूत्र अने अर्थ बनेनो विपरीत अर्थ करे. दा. त. धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टः, अहिंसापर्वतमस्तक- एटले धर्म ए उत्कृष्ट मंगल छे अने अहिंसा ते पर्वतमस्तक (शिखर) छे. आमां बनेनो भेद (फेरफार) कई रीते थयो ते आपणे तपासीए. प्रथम तो पाद प्राकृत होवा छतां तेने फेरवीने संस्कृतमा का अने अर्थ पण शुद्ध संस्कृत कहेवाथी पाठभेद थयो. बीजा पादमां पाठभेद अने अर्थभेद बंने छे माटे कदापि आ प्रमाणे फेरफार न करवो; कारण के व्यंजननो फेरफार थाय एटले अक्षर फरी जाय, अक्षर फरी जाय एटले अर्थ फरी जाय अने आ प्रमाणे अर्थभेद थाय तो क्रियाभेद पण थाय, क्रियामा परिवर्तन थतां मोक्षनो अभाव थाय, मोक्षनो अभाव थतां संयम - ग्रहण निष्फळ नीवडे. आ प्रमाणे परंपराए आचारहीन बनी जवाय, केवलिभगवंतभाषित मार्गना लोपक थई जवाय अने महापातक लागे माटे कदापि अर्थ तथा सूत्रनो भेद न करवो. दर्शनाचार पण आठ प्रकारनो कह्यो छे–“निस्संकिय १ निक्कंखिय २ निव्वितिगिच्छा३ अमूढदिट्ठी अ४ । उववूह ५ थिरीकरणे ६, वच्छल्ल७ पभावणे ८ अट्ठ ॥२॥" १. नि:शंकित - देशशंका अने सर्वशंका रहित. देशशंका एटले जीव तो बधा सरखा छे, तो सूत्रमा भव्य अने अभव्य एम वे प्रकारना जीवो केम कह्या ? सरखा स्वरूपमां भेद न होवो घटे-आ प्रमाणेनी जे शंका ते देशशंका कहेवाय. शास्त्रकार कहे छे के - आ देशशंका न करवी, कारण के जीवनुं लक्षण तो एक ज छे परंतु स्वभावनुं विचित्रपणुं होवाथी भव्य अने अभव्य बने प्रकार घटी शके छे. स्त्रीओ घणी होय परंतु केटलीएक वांझणी होय छे ज्यारे केटलीएक संतानवाळी होय छे. सर्वशंका एटले शुं? ते दर्शावतां कहे छे के-जैनसूत्रो तो बधा प्राकृत भाषामां छे माटे कोण जाणे कोणे ते बनाव्या हशे? ठंडा प्रहरना गपाटा लागे छे. शास्त्रमा जणावेल अंगुलना असंख्यातमां भागनुं शरीर, समयप्रमाण इत्यादिक बुद्धिमां न उतरे तेवी हकीकत छे-आवी शंका ते सर्वशंका कहेवाय. आवी शंका कदापि न करवी, केम के तेम करवाथी जैनशासन परत्वेनो प्रेम अलोप थई जाय छे. वळी विचारवं के-गणधरमहाराजाओ परोपकारी अने एक मात्र परहित साधवामां तत्पर हता. तेमने अंशमात्र पण स्वार्थ न हतो. तेमणे जाण्यु के संस्कृत भाषा बालजनोने, स्त्रीवर्गने, मंदबुद्धिवाळा तेमज अल्पबुद्धिवाळा प्राणिओने समजवामां कठिन पडशे-आवडशे नहीं माटे सुगम एवी प्राकृत भाषामां ज सूत्रग्रंथोने गुंफित कर्या. संस्कृतभाषाना तो तेओ पारंगत हता परंतु आ उपकारक बुद्धि लक्षमा राखीने ज तेओए प्राकृतभाषामां ज सूत्ररचना करी छे. वळी देशशंका अने सर्वशंका बीजी रीते पण जणावतां कहे छे के-पाणीमां असंख्याता जीव कह्या छे ते हशे के नहीं ? एवी शंका ते देशशंका अने जैनधर्म आ ज छे के बीजो पण हशे? एवी शंका ते सर्वशंका जाणवी. आ बने प्रकारनी शंकाओ रहित जीव अरिहंत परमात्मानुं शासन पामीने दर्शनाचार- शुद्ध रीते आचरण करी शके श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १०२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे-आ प्रमाणे समकिती अने सम्यक्त्वनो अभेद दर्शाव्यो. २. निष्कांक्षित-अन्य मतनी वांछा रहित. वांछा-कांक्षा बे प्रकारनी छे-(१) देशकांक्षा अने (२) सर्वकांक्षा. देशकांक्षा एटले बुद्धधर्म पण सारो जणाय छे; कारण के तेमां पण दयाधर्मर्नु प्ररूपण करवामां आव्यु छे-आ प्रमाणेनी इच्छा ते देशकांक्षा. सर्वकांक्षा एटले वेदधर्म, शिवधर्म, बुद्धधर्म इत्यादि सर्व धर्मो सारा छे कारण के बधा धर्ममां मोक्षमार्ग कह्यो छे-आ सर्वकांक्षा जाणवी. आ बंने प्रकारनी कांक्षा रहित वर्तन राखवू. वळी विचारवू के-केवळी भगवंतना मार्ग (जैनधर्म) सिवाय कोई बीजा मतमां मोक्ष नथी ज. पंदर प्रकारे जे सिद्ध थया छे ते सर्व समभावभावित आत्मा थईने मुक्तिस्थानमा विराज्या छे अने तेवा समभावभावित आत्माए उपदेशेलो धर्म ते फक्त जैनधर्म ज छे माटे ते सिवायना अन्य सर्वकोई धर्मों मिथ्यात्वी मार्ग छे. ३. निर्विचिकित्सा- धर्मफळना संदेह रहित, तथा साधु - साध्वीना मलिन गावनी दुगंच्छा न करनार. प्रतिक्रमण, पडिलेहणादिक धार्मिक अनुष्ठान करूं छु. परंतु ते क्रिया कठिन छे अने तेनुं शुं फळ प्राप्त थशे? फळ प्राप्त थशे के नहीं? कारण के परलोकथी आवीने कोई एम कहेतुं नथी के अमुक क्रियाना फळथी मने आवी शुभ गति प्राप्त थई. बीजा धर्ममां पण पाप करनारा लोको सुखी जणाय छे अने आपणे तो आवी कष्ट क्रिया करीए छीए छतां सुख भासतुं नथी. वळी आटला वर्षी सुधी आ पडिलेहण, प्रतिक्रमणादिक क्रियाओ करी छतां तेनुं कशुं फळ प्राप्त था जणा नथी-आ प्रमाणे फळनो संदेह कदापि न करवो. तेमज साध या साध्वीनी ‘आ तो स्नानादिक करता नथी तेथी मलिन गात्रवाळा छे, दंतधावन पण करता नथी तेथी तेमनु मुख दुर्गंधवाळु होय छे' आ प्रमाणे तेमनी दुर्गच्छा पण कदापि न करवी ते निर्विचिकित्सा. ४. अमूढदृष्टि-मिथ्यात्वीना अज्ञान तपस्यादिक कष्ट तथा चमत्कार देखी व्यामोहित न थनार. अन्य मतना कोई बाल तपस्वीने उग्र तपश्चर्या (अज्ञान कष्ट) करतो निहाळी तेना प्रत्ये आदरभाव न दाखवे तेमज तेवा कोई संन्यासी, बावा इत्यादिकना मंत्र-तंत्रना चमत्कार देखी व्यामोहित न थाय एटले के स्वधर्ममां ज स्थिर रहे. 'आ इतर धर्म पण सारो छे माटे आपणे तेनुं पण अनुकरण करीए. आ इतर धर्म प्रभाववाळो जणाय छे तो तात्कालिक फळनी अपेक्षाए ते धर्म- सेवन करवू सारुं छे.' एम पण न विचारे. जो ते प्रमाणे स्वधर्ममां स्थिर न रहे तो समकित चाल्युं जाय. अन्यधर्मी तपस्वीओनी तपस्या ए खरेखर समजणपूर्वकनी तपश्चर्या नथी, ते तो अज्ञान तप मात्र छे. तथा प्रकारना देहदमनपूर्वक जो वीतरागमार्ग- अनुकरण करे तो अज्ञान तपद्वारा थती सिद्धि करतां अनेकगणुं पुण्य उपार्जन करे. अज्ञान तप अने जयणापूर्वकना तप वच्चे मेरु अने सरसव जेटलुं अंतर छे. ५. उपबृंहक- सरखा धर्म पाळवावाळा साधर्मिक बंधुना गुणनी प्रशंसा करवी. कोई पण साधर्मिक बंधुए अष्टाह्निक महोत्सव कों होय, सारी तपश्चर्या करी होय, प्रतिष्ठादि महोत्सव आरंभ्यो होय, साधर्मिक वात्सल्य कर्यु होय, दीक्षामहोत्सव योज्यो होय- आवा आवा धार्मिक शुभ प्रसंगोए ते ते कृत्य करनारनी प्रशंसापूर्वक कहेवू के-“धन्य छे तमने. तमे तमारी संपत्तिनो आवा पुण्यकार्यमां सदुपयोग को. तमारा जेवा महानुभावथी.ज शासनशोभा वधे छे.' आ प्रमाणे गुणानुवाद करवाथी ते ते कृत्य करनारनी भावना वृद्धि पामे छे तथा हृदय प्रफुल्लित बने छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १०३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. स्थिरीकरण-साधर्मीबंधुने धर्ममां स्थिर करवो. कोई दीन माणस आजिविका चलावी शकतो न होय अने दुःखने कारणे बीजो धर्म पालुं तो सुखी थईश-मने मदद मळशे.' एवी आशाथी स्वधर्म त्यागतो होय तो तेने धंधो-रोजगार आपी, सहाय आपी स्वधर्ममां स्थिर करवो. आधुनिक जमानामां घणा लोको स्वधर्मनो त्याग करी मुस्लीम अगर तो क्रिश्चियन धर्म स्वीकारे छे तेमने तेम करता अटकावी स्वधर्ममां स्थिर करवा अथवा तो कोई शंका करीने धर्मनो त्याग करवा इच्छतो होय तो तेने पण उपदेश आपीने सम्यक्त्वमा दृढ बनाववो.७. साधर्मिक वात्सल्य- साधर्मी बंधु प्रत्येनी प्रीतिथी पोतानी शक्ति प्रमाणे तेना पर उपकार करे, भोजन करावे, पहेरामणी आपे, बक्षीस आपे, सहाय आपे. ८. प्रभावना - धर्मना उपदेशद्वारा, धर्मकथाद्वारा धर्मनो प्रचार करे, लोकोने सत्य धर्म समजावे, रथयात्रादि महोत्सवो योजे, तीर्थनी स्थापना करे इत्यादिक प्रकारोथी सम्यकत्वने दिपावे. आ जणावेल आठ प्रकारो पैकी प्रथम चार अभ्यंतर दर्शनाचार छ ज्यारे छल्ला चार बाह्य दर्शनाचार छे. चारित्राचार पण आठ प्रकारनो दर्शाव्यो छे–“पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समिइहिं तिहिं गुत्तिहिं । एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होई नायव्वो ॥३॥" प्रणिधान एटले चित्तनी चंचळता रहित अने जोग एटले आहारादिक व्यापार अर्थात् आहारादिक कार्य करवामां चंचळता रहित व्यापारवाळो. आ बाबतमां शंका दर्शावतां कहे छे के आवी व्यक्ति तो अविरतसम्यग्दृष्टि पण होय. आ दोषापत्ति टाळवा माटे कहे छे के-१-५. पांच समिति अने ६-८ त्रण गुप्ति युक्त होय. १. ईर्यासमिति–मार्गमां जतां-आवतां जीवोनी रक्षा अर्थे साडात्रण हस्तप्रमाण आगळ नजर राखीने उपयोगपूर्वक चाले. २. भाषासमिति-निरवद्य-पापरहित, कोई पण जीवने दुःख न थाय तेम विचारपूर्वक बोले, जेमतेम अव्यवस्थित न बोले तेमज उघाडे मुखे न बोले. ३. एषणासमितिबेंतालीश दोष रहित गोचरी ले, वस्त्र, पात्र पण विधिपूर्वक ग्रहण करे. ४. आदानभंडमत्तनिक्षेपणासमिति-वस्त्र-पात्रादिक जग्या जोई, प्रमार्जी ले-मूके. ५. पारिष्ठापनिकासमिति-लघुनीति तथा वडीनीति तेमज श्लेष्मादिक शुद्ध जग्या जोईने परठवे.६.मनोगुप्ति - मनने अंकुशमां राखवू. पापकार्यना विचारथी मनने गोपवq.७. वचनगुप्ति-विना कारणे निरवद्य वचन पण न बोलवू. ८. कायगुप्ति-कायाने गोपववी अर्थात् यतनापूर्वक जग्या पूंजी-प्रमार्जी ऊठवू, बेसवं, जवं, आवq इत्यादि. ___ बार प्रकारनो तपाचार कहेल छे–“बारसविहम्मि वि तवे, सब्भितरबाहिरे कुसलदिढे । अगिलाइ अणाजीवी, नायव्वो सो तवायारो ॥४॥ अणसण १ मूणोअरिया २, वित्तीसंखेवणं ३ रसच्चाओ ४ । कायकिलेसो ५ संलीणया य ६, बज्झो तवो होई ॥५॥" श्रीतीर्थंकर परमात्माओए छ प्रकारनो बाह्य अने छ प्रकारनो अभ्यंतर एम बार प्रकारनो तप उपदेशेलो छे. ते तप ग्लानि रहित अने आजीविकाना दोष रहित करवो. बाह्य तपना छ प्रकार आ प्रमाणे जाणवा. १. अणशण-चारे प्रकारना आहारनो त्याग. अणशण बे प्रकार- छे-१ इत्वर अने २ यावत्कथिक, इत्वर अणशण एटले केटलोक काळ आहारनो त्याग कर्या पछी आहार करे ते. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१०४ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमां कह्यं छे के – “ इत्तरियमरणकाला य, अणसणा दुविहे भवे । इत्तरिया सावकंखा, निरवकंखा वितिज्जिया || १ || ” अर्थात बे प्रकारना अणशण कहेल छे-१ इत्वर अने २ यावत्कथिक. इत्वर ते सावकांक्ष छे अने बीजुं निरवकांक्ष छे इत्वर अणशण नवकारशीथी प्रारंभीने (श्रीऋषभदेवस्वामीना समयमां) एक वर्ष पर्यंतना उपवासवडे थाय छे. यावत्कथिक एटले जिंदगी पर्यंतनुं अणशण. ते त्रण प्रकारनुं दर्शाव्युं छे. (१) पादपोपगमन, (२) इंगितमरण अने (३) भक्तपरिज्ञा. (१) पादपोपगमन चारे प्रकारना आहारना त्याग करवापूर्वक, हाथ-पग इत्यादिक हलाववानी चेष्टा रहित, आंखनुं मटकुं पण मार्या वगर अने शरीरना प्रतीकार सिवाय एटले के कोई पासे शरीर मसळाववुं इत्यादिक वेयावच्चनी क्रिया रहित, जेवी रीते वृक्षनी शाखा भूमि पर पडी होय तेनी माफक चेष्टा रहित पड्या रहेवुं ते पादपोपगमन अणशण कहेवाय. तेना बे भेद छे - (१) सव्याघात अने (२) निर्व्याघात, सिंह, व्याघ्र सर्प इत्यादिक हिंसक प्राणिओनो उपद्रव थये छते पादपोपगमन अणशण ग्रहण करवुं ते सव्याघात जाणवुं. सूत्र अने अर्थना ज्ञाता, जेणे घणा शिष्योने संलेखना करावी होय तेवा मुनिराज पोते संलेखनापूर्वक चारे आहारनो त्याग करीने जे पादपोपगमन अणशण स्वीकारे ते निर्व्याघात समजवु. आ संबंधमां ए हकीकत ध्यानमा राखवी संलेखना विना आ अणशण न करवुं. कदाच करे तो आर्त्तध्यान थवानो भय रहे. (२) इंगितमरण - भूमिप्रदेशनुं प्रमाण बांधीने जे अणशण करवुं ते. 'आटली भूमिमां मारे रहेवुं,' ए प्रमाणे निरधार करीने संहनननी अपेक्षाए रहेवु. पादपोपगमन अणशण करवाने जे अशक्त होय ते आणण स्वीकारे छे, कारण के प्रथम पादपोपगमन अणशणमां शरीरप्रतिक्रिया न करी शकाय, ज्यारे आ बीजा अणशणमां तो जो पोताना शरीरे कंईपण बाधा - उपद्रव थाय तो स्वहस्ते तेलमर्दनादि थाय, परंतु बीजा पासे तेवी क्रिया न करावाय. आ अणशणमां पण चारे आहारनो त्याग करवामां आवे छे. (३) भक्तपरिज्ञा - इंगितमरण स्वीकारवाने असमर्थ अने श्रेष्ठ संहननहीन तिविहार अथवा चोविहारवडे आ अणशण करे. आ अणशण करनार सप्रतिकर्मा होय छे एटले शरीरने विषे व्यथा थती होय तो बीजा पासे वेयावच्च करावे, तेलमर्दनादि करावे. आने भक्तपरिज्ञा कहो के भक्तपच्चक्खाण कहो-बनेनो अर्थ एक ज छे. आ त्रणे प्रकारना अणशणो निहारिम अने अनिहारिम एम बे प्रकारना होय छे. काळधर्म पाम्या पछी जे देहने उपाडीने जंगलमां वोसराववुं पडे ते निहारिम अने जे शरीरने न वोसराववुं पडे ते अनिहारिम जाणवुं. जे अणशण करवाने अशक्त होय तेने माटे २. ऊणोदरिका कहे छे. ऊणोदरिका ऋण प्रकारनी छे. श्रीस्थानांगसूत्रमां कह्यं छे के - "तिविहा ओमोयरिया पं. तं. उवगरणोमोयरिया १, भत्तपाणगोमोयरिया २, भावोमोयरिया ३ ।' अर्थात् त्रण प्रकारनी ऊणोदरिका कहेली छे. (१) उपकरण-ऊणोदरिका, (२) भत्तपाण (आहार) ऊणोदरिका अने (३) भाव-ऊणोदरिका टीकाकार आ संबंधमां जणावे छे के (१) पहेली उपकरणऊणोदरिका जिनकल्पी साधुओने ज होय, कारण के ९/१२ अगर तो मात्र बे ज उपकरण राखे तो तेमने चाले परंतु स्थविरकल्पीने आ ऊणोदरिका न होय. जो स्थविरकल्पी शास्त्रोक्त उपधि न राखे तो तेनाथी चारित्रपालन कठिन बने, एटले तेमने चौद उपकरणो राखवा पडे, परन्तु तेथी विशेष श्रीगच्छाचार-- पयन्ना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न राखवा ते उपकरण-ऊणोदरिका. (२) बीजी ऊणोदरिका भत्तपाणऊणोदरिका-आहारपानीमां कमी करवी ते. तेना पांच प्रकार छे" अप्पाहारउवढ, दुभागपत्ता तहेव किंचूणा । अट्ठ दुव सोलस, चवीस तहिक्कतीसा य ॥ १ ॥ " (१) अल्पाहार-एक कवळथी प्रारंभीने आठ कवळ सुधी आहार करे ते अल्पोणोदरी. एक कवळनी जघन्य अल्पोणोदरी, बे कवळथी सात कवळ सुधीनी मध्यमोणोदरी अने आठ कवळनी उत्कृष्टोणोदरी. (२) अपार्द्धऊणोदरी-नवथी बार कवळ सुधी आहार करवो ते. (३) द्विभागऊणोदरी- तेरथी सोळ कवळ सुधी आहार करवो ते. (४) प्राप्तऊणोदरी-सत्तर कळवथी चोवीश सुधी आहार करवो ते. (५) किंचिन्यूनोदरी - पचवीश कवळथी एकत्रीश कवळ सुधी आहार करवो ते. आ बंधा प्रकारोमा जघन्य तथा मध्यम भेदो स्वमतिअनुसार समजी लेवां. बत्रीश कोळिया लेवा ते प्रमाणोपेतभोजन कहेवाय, तेथी वधारे एक पण कवळ ले तो ते अतिमात्राहारी कहेवाय. एकत्रीश कवळ सुधी ज ऊणोदरिका जाणवी. आवी ज रीते पाणी पीवामां पण ओछ्रं पीवुं ते पाणऊणोदरिका. (३) भावऊणोदरिका-क्रोध, मान, माया अने लोभ विगेरेनो उदय समये तेने वश न थतां तेनो त्याग करवो. ३. वृत्तिसंक्षेप वृत्तिनो संक्षेप करवो. जे द्रव्यादिक राख्यां होय तेमां घटाडो करवो, चौद नियमादिक धारवा - आ श्रावकने माटे समजवु. साधुने माटे तो गौचरीनी वृत्ति छे तेथी तेनो ज संक्षेप करवो. श्रीउववाइसूत्रमां कह्यं छे के- “भिक्खायरिया अणेगविहा पं.तं. दव्वाभिग्गहचरए, खेत्ताभिग्गहचरए, कालाभिग्गहचरए भावाभिग्गहचरए ।' भिक्षाचर्या अनेक प्रकारनी कहेली छे- (१) द्रव्याभिग्रह, (२) क्षेत्राभिग्रह, (३) कालाभिग्रह अने (४) भावाभिग्रह. (१) द्रव्याभिग्रह- द्रव्यनो अभिग्रह - करवो ते-लेपकृत द्रव्यनुं प्रमाण करवुं एटले लेप लागेला भाजनवडे आपे तो लेवुं; घी आदिथी खरंटित (लेप लागेल) लेवुं; बीजुं न लेवुं तेमज अखरंटित लेवुं इत्यादिक अभिग्रह ते द्रव्याभिग्रह. (२) क्षेत्राभिग्रह-क्षेत्रना अभिग्रहपूर्वक गोचरी करवी, अमुक संख्याना घरे ज वहोरवा माटे जवु, तेथी विशेष संख्यावाळा घरे भिक्षार्थे न जवं इत्यादिक विविध प्रकारे क्षेत्रना अभिग्रहपूर्वक गोचरी ग्रहण करवी ते. (३) कालाभिग्रह - काळनो अभिग्रह करवो ते. बीजा पहोर पहेलां मळे तो आहार लेवो तथा त्रीजा पहोरे मळे तो ज आहार लेवो ए रीते मनमां चिंतवेला समये आहार मळे तो ग्रहण करवो, परंतु ते समय व्यतीत थई गया बाद आहार ग्रहण न करवो ते कालाभिग्रह. (४) भावाभिग्रह-एवो अभिग्रह करवो के संगीत करतो थको, अगर तो हसतो थको, अगर तो रुदन करतो छतो कोई पण मनुष्य अगर तो तथाप्रकारनी स्त्री आहार वहोरावे तो ज ग्रहण करवो. अथवा तो कोई सौभाग्यवती स्त्री, आभूषण पहेरेली स्त्री अगर तो तिलकवाळी स्त्री आहार वहोरावे तो ज ग्रहण करवो इत्यादि विविध प्रकारे अभिग्रह धारण करी तेनी पूर्ति थाय त्यारे ज आहार ग्रहण करवो ते भावाभिग्रह. आ भावाभिग्रह चरमजिनपति श्रीमहावीर परमात्माए कर्यो हतो के राजकुमारी होय, हाथपगमां बेडी होय, रुदन करती होय, त्रण दिवसनी भूखी होय, मस्तके मुंडन करेल होय तेवी स्त्री अडदना बाळा वहोरावे तो ज आहार ग्रहण करवो अने आपणे जाणीए छीए तेम चंदनबाळाए परमात्मानो ते श्रीगच्छाचार- पयन्ना- १०६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाभिग्रह पूर्ण कर्यो हतो. ४ रसत्याग - विगयादि रसनो त्याग करवो. आ रसत्याग अनेक प्रकारनो छे. श्री औपपातिक सूत्रमां कह्यं छे के - “ णिव्वित्तिए पणीयरसपरिच्चाई आयंबिलिए आयामसित्यभोई अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लुहाहारे ।” निवि, आयंबिल, अरसाहार, विरसाहार, अंताहार, पंताहार, लूखाहार इत्यादि चीकणा रसनो त्याग करवो ते निवि, आयंबिलमां जळमां बोळीने आहार करवो ते आयंबिलआयामसित्थभोजन, रसरहित ते अरसाहार, जेनो रस बगडी गयो होय ते विरसाहार, छेल्लुं बळ्युं-जळ्युं तथा खरडायेलुं भोजन करवुं ते अंताहार, तुच्छ आहार लेवो ते लूखाहार. ५. कायक्लेश- कायाने कष्ट उपजे तेवी क्रिया, वीरासने तथा उभडक बेसवुं, एक ज आसन पर स्थिर, कायोत्सर्गमां, तडकामां, ठंडीमा अने वस्त्रविहीन रहेवुं, खरज आव्यां छतां खणवुं तथा थूकवुं नहीं, लोच करवो, शरीरनी कोई पण प्रकारनी शुश्रूषा न करवी इत्यादिक कायक्लेश जाणवो. ६. संलीनता - इंद्रियादिकने गोपववी. तेना चार प्रकार छे- १ इंद्रिय संलीनता - पांचे इंद्रियांना त्रेवीश विषयोमां राग-द्वेष न करे. प्रशंसात्मक निंदात्मक शब्द सांभळी, स्वरूपवान या कदरूपं रूप जोईने, कडवो या मीठो रस चाखीने, सुगंध दुर्गंध सुंघीने, शीत तथा उष्ण स्पर्श करीने तेने सारा नारा न कहे तेमज खराब पण न कहे, तेने विषे हर्ष या तो शोक धारण न करे. २ कषायसंलीनता - क्रोध, मान, माया अने लोभादिना प्रसंगे - उदयसमये तेने उपशमावे. ३ जोगसंलीनता - अशुभ कार्यमा मन, वचन तथा कायाना योगने रोके परंतु शुभ कार्यमा योगोने प्रवर्तावे. ४ विवक्तचर्या संलीनता - आराम, उद्यान, उपवन, चैत्य प्रमुख ज्यां स्त्री, पशु के नपुंसक न होय तेवा एकांत स्थानमा रहे तेमज शय्या-संथारादिकना दोषो दूर करे. - आ प्रमाणे छ प्रकारनो वाह्य तप जाणवो. आ तप करनारने अन्य लोको जाणी शके छे माटे तेने बाह्य तप जाणवो. आ तप अन्यतीर्थिक पण करे छे, पण विपरीतपणे करे छे - विधिपूर्वक करता नथी. हवे छ प्रकारनो अभ्यंतर तप कहे छे के – “ पायच्छितं १ विणओ २, वेयावच्चं ३ तहेव सज्झाओ ४ । झाणं ५ उस्सग्गो ६ वि य, अब्भितरओ तवो होइ || ६ || ” १. प्रायश्चित - जे अतिचार लाग्या होय ते दूर करवा माटे गुरुए कहेल तप करवो ते. २. विनय - गुरुने वांदणादिक देवारूप विनय तप, तेथी कर्म-मळ दूर थाय छे. ३. वैयावच्च - विनयशाली होय. ते ज वेयावच्च करे. भात-पाणी लावी आपवा, पगचंपी करवी, गुरुप्रमुख वडील जनना कार्य करवा. ४. सज्झाय - शुभ मनथी शास्त्रपाठोनो स्वाध्याय करवो. ५. ध्यान- धर्म तथा शुक्लध्यान ध्यावत्रा ध्यान ध्याववाथी त्यागबुद्धि थाय छे. ६. कायोत्सर्ग - कायाने वोसराववी अर्थात् काया परत्वे ममत्वभाव दूर करवो. आ छ प्रकारनो शब्दार्थ जणाव्या पछी हवे तेनुं विवेचन करतां टीकाकार जणावे छे के— . प्रायश्चित - प्रायश्चित्त दश प्रकारनां छे. “आलोयणारिहे १ पडिक्कमणारिहे २ तदुभयारिहे ३ विवेगारिहे ४ विउस्सग्गारिहे ५ तवारिहे ६ छेदारिहे ७ मूलारिहे ८ अणवट्टप्पारिहे ९ पारंचियारिहे १०।” १ आलोचना-प्रायश्चित्त- गोचरी आदिमां जे दोषो लाग्या होय ते मननी शुद्धिपूर्वक श्रीगच्छाचार- पयन्ना- १०७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुमहाराज समक्ष जाहेर करवा अने गुरु जे आलोचना फरमावे ते करवी. २. प्रतिक्रमणप्रायश्चित - जं अतिचार्गादक दापो लाग्या हाय त शुद्ध मनथी गुरु समक्ष प्रकाशवा अने गुरु कह के 'मिच्छामि दुक्कडं' आपो त्यारे शुद्ध हृदयी मिथ्या दुप्कृत आपवा. ३ तदुभयप्रायश्चित्त- आलोचना पण करवी अने प्रतिक्रमण पण करवं ते. ४ विवेकप्रायश्चित्त - अशुद्ध भात-पाणी प्रमुखना त्याग करवा. ५ कायोत्सर्गप्रायश्चित्त - कायोत्सर्ग करवो ते. ६ तपप्रायश्चित्त - ऊपर जणावेलां पांच प्रकारोथी जे दोपानी शुद्धि न थाय ते माटे गुरुमहाराज तपप्रायश्चित्त आपे छे. ते प्रमाणे तप करे तो लागेला दोषो दर थाय. तपमा निवि अगर आयंबिल करवाना होय छे. ७ छेदप्रायश्चित्त-तपश्चर्याद्वारा पण जो दोषोनी शुद्धि न थाय तो तेने माटे पांच दिवसना छेद आपे एटले दीक्षापर्यायमां एटला दिवस आछा कर. ८ मूळप्रायश्चित्त - छेद प्रायश्चित्ती पण ज्यारे दोपोनुं निरसन न थाय त्यारे नवी ज दीक्षा आपे अन नवदीक्षितनी माफक तेना चारित्रपर्याय गणाय एटले के पूर्व गर्म तेटलो दीक्षापर्याय पाळ्या होय ते सर्व निष्फळ बने. ९ अनवस्थाप्य-प्रायश्चित्त – ज्यां सुधी आपेल आलोयणनो तप पूरा न कर त्यां सधी व्रतपालन न गणाय ते. १० पारांचिकप्रायश्चित्त-पूर्व कहला प्रायश्चित्ताथी पण शुद्धि न थाय तो छल्लुं पारांचिकप्रायश्चित्त आपवामां आवे छे. आ प्रायश्चित्तमां बार वर्ष सुधी गुप्त वेश रही शासनप्रभावनानुं महाकार्य करवानुं अगर तो राजाने प्रतिबोधवानुं होय छे. कोई आचार्यना घातकने, राजाने हणनारने अगर तो उत्सूत्रप्ररूपकने आ जातनुं प्रायश्चित्त आपवामां आवे छे. २. विनय-पृज्य व्यक्ति, तरफ मन, वचन अने शरीरथी नम्र भाव दर्शाववो. विनय सात प्रकारना छे.. “णाणविणए १ दंसण २ चरित्त ३ मण ४ वय ५ काय ६ लोगोवयारविणए ७ ।” १ ज्ञानविनय, २ दर्शनविनय, ३ चारिविनय, ४ मनविनय, ५ वचनविनय, ६ कायविनय अने ७ लोकापचारविनय (१) ज्ञानविनय पांच प्रकारनो छे– १ मतिज्ञाननो, २ श्रुतज्ञाननो, ३ अवधिज्ञाननो, ४ मन:पर्यवज्ञानना अने ५ केवळज्ञाननो विनय आ पांचे प्रकारना ज्ञाननुं विपरीत वर्णन न करवू ते ज्ञानविनय. (२) दर्शनविनय वे प्रकारनो छे– १ शुश्रुषाविनय एटले के समकिती जीवनी शुश्रूषा करवी, समकितीनी साम जईने आदर अने सन्मान आपq, हाथ जोडी प्रणाम करवा, उठीने जाय त्यारे सात-आठ डगला वळाववा जवू इत्यादि अनेक प्रकारे जाणवू. २ अनाशातनाविनय- ते पिस्तालीश प्रकारनो छे, ते आ प्रमाणे-१ अरिहंतनी आशातना करवी, २ अरिहंते कहेल धर्मनी, ३ आचार्यनी, ४ उपाध्यायनी, ५ स्थविरनी, ६ कुलनी, ७ गणनी, ८ साधुनी, ९ क्रियावादीनी, १० संभोगी एक सामाचारीनी, ११ मतिज्ञाननी, १२ श्रुतज्ञाननी, १३ अवधिज्ञाननी, १४ मन:पर्यवज्ञाननी अने १५ केवळज्ञाननी- आ पंदरेनी आशातना टाळवी अने भक्ति करवी. भक्ति एटले बाह्यप्रतिपत्ति अर्थात् ऊभा थवादिक विनय साचववो, ए ज प्रमाणे ए पंदरेनुं बहुमान करवू एटले के निर्जराने अर्थे प्रीतिपूर्वक क्रिया करवी, तेवी ज रीते ए पंदरेनो वर्णवाद-तेनी प्रशंसा करवी, कीर्ति फेलाववी. आ प्रमाणे पीस्तालीश प्रकारे बीजो भेद जाणवो. (३) चारित्रविनय पांच प्रकारनो छे, ते आ प्रमाणे-१ सामायिक, २ छेदोपस्थापनीय, ३ परिहारविशुद्धि, ४ सूक्ष्मसंपराय अने ५ यथाख्यात चारित्रनो विनय करवो. आ श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १०८ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचे चारित्रनी विपरीत प्ररूपणा न करवी ते तेनो विनय क्यों कहवाय छे. (४) मनविनय वे प्रकारना छे- १ अप्रशस्तमनविनय अनं २ प्रशस्तमनविनय अप्रशस्तमनविनय बार प्रकारनो कहेल छे–'जे य मणे सावज्जे, १ सकिरिए २ सकक्कसे ३ कडुए ४ निठुरे ५ फसे ६ अण्हयकरे ७ छेयंकरे ८ भेयकरे ९ परितावणकरे १० उद्दवणकरे ११ भूतोवघाइए १२ तहप्पगारं मणं नोपधारेज्जा, से तं अप्पसत्थमणविणए ।। " १ सावद्यहिंसादिकमां मन वर्ते ते, २ सक्रिय-कायिकादिक पांच क्रियामां मन वर्ते ते, ३ कर्कश कठोर, ४ कटुक-बीजाने तथा पोताने कडवं लागे, ५ निष्टर- कोमळ नहीं तेवुं ६ परुष - स्नेह विनानुं ७ अशुभ कर्माश्रवमां रक्त, ८ छेदक- हस्तादिक छँदन करवानुं मन, ९ भेदक-नासिकादिनु भेदन करवानुं मन, १० परितापकारक-जीवोने संताप - संकट उपजाववानुं मन, ११ उपद्रवकारी- कोईने मारणांतिक कष्ट उपजात्रत्रुं अगर तो धन हरण करी उपद्रव करवानुं चित्त अने १२ भूतोपघात-प्राणिओना वन इच्छा. आवी रीते असंयतनी माफक जे मन ते अप्रशस्तमनविनय कहेवाय अने आ बार प्रकार रहित जेनुं मन होय ते बीजो प्रशस्तमनत्रिनय जाणवो. (५) वचनविनय - ऊपर मन संबंधे जे वार प्रकारो दर्शाव्या ते यथालिखित वचनविनय संबंधी पण जाणी लेवा. (६) कार्याविनय वे प्रकारे छे- १ अप्रशस्त कायविनय अने २ प्रशस्तकार्याविनय अप्रशस्तकायविनय सात प्रकारनो छे.- " अणाउत्तं गमणे १, अणाउत्तं ठाणे २, अणाउत्तं निसीदणे ३, अणाउतं तुयट्टणे ४, अणाउतं उल्लंघणे ५, अणाउत्तं पल्लंघणे ६, अणाउतं सव्विंदियकायजोगजुंजणता ७, से तं अप्पसत्थकायविणाए ।” १ उपयोग विना जेमतेम चाले, २ ज्यां त्यां ऊभा रहे, ३ बेसवानी जग्याए पूंज्या - प्रमार्ज्या विना बेसे, ४ पंज्या विना शयन करे, ५ उपयोग रहित उल्लंघन करे या फाळ मारीने जाय, ६ वारंवार आ प्रमाणे उल्लंघन करे अने ७ इंद्रियोंने विषयादिकमां प्रवर्तावे - आ प्रमाणे अप्रशस्तकायविनय कहवाय. आज सात प्रकारंनो बराबर उपयोग राखी प्रवृत्ति करे ते प्रशस्तकायविनय कहेवाय. (७) लोकोपचारविनय सात प्रकारनो छे - " अब्भासवत्तियं १, परछंदाणुवत्तियं २, कज्जहेउं ३, कयपडिकिरिया ४, अत्तगवेसणया ५, देसकालण्णुया ६, सव्वत्थेसु अप्पडिलोमया ७ ॥". १ अभ्यासवर्तिता- समीप रहेतुं ते, २ पराभिप्रायवर्तन-बीजा साधुनो जे प्रमाणे अभिप्राय होय ते प्रमाणे वर्तवुं (एवी ज रीते गृहस्थ संबंधी पण समजी लेवें). ३ कार्यहेतु-ज्ञानाध्ययनादि कार्य निमित् आहार- पाणी वहोराववा ते ४ कृतप्रतिक्रिया आमणे मने ज्ञानदान आप्युं छे एवी बुद्धिथी आहार-पाणी वहोराववा ते. ५ आर्त्तगवेषणा- दुःखी जाणीने वार्ता संभारे. ६ देशकालज्ञ - जेवो देश होय तेने अवसरोचित वर्तन राखे ७ सर्व अवसरे सर्व प्रयोजनाने विषे संबंधीओने अनुकूळपणे वर्तीने रहे. ३. वेयावच्च-आहार- पाणी विगेरे लावी आपवा, व्याधिप्रसंगे शरीर चांप, चोळवु वि. दश प्रकारे कहेल छे. “आयरियवेयावच्चे १, उवज्झाय २, सेह ३, गिलाण ४, तवस्सि ५, थेर ६, साहम्पिय ७, कुल ८, गण ९, संघवेयावच्चे १० ।” १. आयरियवेयावच्च - आचार्यनी, २ उपाध्यायनी, ३ नूतन दीक्षा लेनार शिष्यनी ४ ग्लान, रोगी, निर्वळ तेमज अपंग साधुनी, ५ श्रीगच्छाचार- पयन्ना- १०९ ن Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठ्ठमादिक तपस्वीनी अने ६ स्थविरनी वेयावच्च स्थविर त्रण प्रकारना छे- (अ) वयस्थविर - वृद्ध (ब) चारित्रस्थविर एटले वीश वर्ष जेटला चारित्रपर्यायवाळा अने (क) श्रुतस्थविर एटले श्रीस्थानांगसूत्रना ज्ञाता. ७ साधर्मिक- एक सामाचारी पाळता साधु-साध्वीनी वेयावच्च. कारण प्रसंगे बीजा सामाचारीवाळा साधु-साध्वीनी पण वेयावच्च करवी. ८ एक आचार्यना समुदायनी, ९ अनेक आचार्योनो समुदाय एटले के गण तेनी अने १० घणा गणोनो समुदाय ते संघ तेनी वेयावच्च करवी. आ दश प्रकारे वेयावच्च जाणवी. आ प्रमाणे वेयावच्च करवाथी कर्मनी सारी री निर्जरा थाय छे. कोई स्थळे चैत्यवेयावच्च पण जणावेल छे एटले के जिनप्रतिमानी वेयावच्च करवी. ४. सज्झाय-पांच प्रकारे कहेल छे - वायणा १, पडिपुच्छणा २, परियट्टणा ३, अणुप्पेहा ४, धम्मकहा ५ ।” १ वाचना- नवीन नवीन शास्त्रपाठ करे, २ पृच्छना - तेमां उद्भवेली शंका पूछे, ३ परावर्तन - करेल अभ्यासनुं वारंवार पुनरावर्तन करे, ४ अनुप्रेक्षा-पोते जे शास्त्राभ्यास कर्यो होय तेनो अर्थ (रहस्य) विचारे अने ५ धर्मकथा - पोते समजेल शास्त्र बीजाने समजावे - व्याख्यानादिक वांचे अने प्रतिबोध पमाडे. ५ ध्यान - चार प्रकारे छे. “ अट्टज्झाणे १, रुद्दज्झाणे २, धम्मज्झाणे ३, सुक्कज्झाणे ४ ।।” १ आर्त्तध्यान- शोक, दुःख, आक्रंद अने विलाप करवो ते. आर्त्तध्यानना चार प्रकार छे. १ अनिष्टसंयोगार्त्तध्यान- पोताने गमे नहीं तेवानो संयोग थाय त्यारे तेने दूर करवानो विचार कर्या करवो. स्त्री कुभार्या मळी होय, पुत्र कुपुत्र नीवड्यो होय, ते प्रतिदिन दुःख आपतो होय त्यारे विचारीए के 'आ दुःखमांथी हुं क्यारे छूटीश ?' अथवा तो खराब गाममां वसवाट थयो होय अगर तो शब्दादि पांच विषयोनो अशुभ संबंध मल्यो होय त्यारे तेओना वियोगनो विचार करे ते. २ इष्टवियोगार्त्तध्यान-स्त्री, पुत्र, ग्राम तेमज शब्दादि विषयो सारा प्राप्त थया होय त्यारे विचारखुं के 'आ सर्वनो वियोग न थाय तो सारुं' अने भाग्ययोगे वियोग थई गयो तो तेनुं स्मरण कर्या करवुं एटले के 'मारी भार्या सुलक्षणी हती, पुत्र विचक्षण ने कमाउ हतो' ते प्रमाणे याद कर्या करवुं ते ध्यान बीज प्रकार छे. ३ रोगचित्तार्त्तध्यान- वात, पित्त अने श्लेष्मना संनिपातरूप निमित्तथी उत्पन्न थती शूळ, मस्तकपीडा, ज्वर, अतिसार, संग्रहणी इत्यादि अनेक प्रकारना रोगो थया होय त्यारे 'आ रोगो क्यारे शमी जशे ? कया कया औषधोपचारथी आ व्याधिओ नाश पामशे ? आ रोगो मने क्यांथी थया इत्यादि प्रकारे चिंता कर्या करें ते त्रीजो प्रकार ४ अग्रशोचार्त्तध्यान-कामादिकथी व्याकुळ बनेला प्राणिओ देवेन्द्र, चक्रवर्ती विगेरेनी ऋद्धि भवांतरमां प्राप्त करवाना हेतुपुरस्सर नियाणुं बांधे, भविष्यमा पौद्गलिक सुख मळे ते माटे निदान करे ते चोथो प्रकार आर्त्तध्यानना चार लक्षण छे- १ कंदणया- मोटो पोकार करे, २ सोयणया- दीन थईने बेसी रहे, ३ तिप्पणया-रुदन कर्या करे अने ४ विलवणया विलाप कर्या करे, क्लिष्ट भाषण करे, अट्टहास्य करे इत्यादि. रौद्र ध्यान - महाअशुभ परिणाम तेना पण चार प्रकार छे १-हिंसानुबंधीरौद्रध्यान-प्राणिओना वध, बंधन, परिताप-कष्ट संबंधी अथवा अमुक प्राणीने मारी खुं तो मारी कार्यसिद्धि थाय तेम विचार कर्या करवो. २ मृषानुबंधी रौद्रध्यान-असत्य बोलीने श्रीगच्छाचार - पयन्ना— ११० - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजाने फांसामां फसाववानो, पारकानुं धन हरी लेवानो विचार कर्या करवो. ३ अदत्तानुबंधी रौद्रध्यान- द्रव्यनी या अन्य पदार्थनी चोरी करवानो सतत विचार कर्या करवो. लोभ कषायना उदयने कारणे व्यग्र चित्तथी धन-प्राप्तिना विचारो कर्या करवा. ४ रक्षणानुबंधी रौद्रध्यान- प्राप्त थयेल द्रव्यादिक वस्तुओना संरक्षणनो विचार कर्या करवो. 'चोर जो मारुं धन चोरी जशे तो मारी नाखीश, बीजा कोई लूंटी जशे तो फरियाद करीश' इत्यादि विचार कर्या करवो. आ रौद्रध्यानना चार प्रकार आ प्रमाणे छे— “ ओसन्नदोसे १ बहुदोसे २ अन्नाणदोसे ३ आमरणंतदोसे ४ ।” १. आसन्नदोष-घणुं करीने हिंसा, असत्य, स्तेय विगेरेमां रक्त रह्या करे, २. बहुदोष घणा हिंसादिक कार्यमां वर्ततो रहे, ३ अज्ञानदोष - कुशास्त्रना सांभळवाथी, शीखवाथी हिंसादिक अधर्म प धर्मबुद्धिथी करे. दाखला तरीके अश्वमेधादि यज्ञोमां हिंसानुं साम्राज्य होवा छतां तेने धर्म जाणी करे. ४ आमरणांतदोष-कालकसूरिया कसाईनी माफक जिंदगी पर्यंत जे हिंसादिक कार्यमा लयलीन रहे, मनमां लेशमात्र पण दया न राखे. आ बने प्रकारना (आर्त्त अने रौद्र) ध्याननो त्याग करवो, कारण के ते बंने अगाध संसार-सागरमा प्राणीने परिभ्रमण करावे छे. आ ध्याननो त्याग साधु तो धर्म अने शुक्लध्याननुं ज अवलंबन लेवु. आ संबंधमां शंका करतां प्रतिवादी कहे छे के-'तमे आर्त्त अने रौद्रने ध्यान शामाटे कहो छो ? तेने ध्यानना भेदमां शा माटे गणाव्या ? अभ्यंतर तपमां तो ध्यान करवानुं जणावे छे तो आर्त्त अने रौद्रनो तो त्याग करवानो होवाथी तेनो समावेश अहीं शा माटे कर्यो ?' आनो जवाब आपतां शास्त्रकार जणावे छे के ध्यान एटले चित्तनी एकाग्रता. आर्त्त, रौद्र तेमज धर्म, शुक्ल ए चारेमां चित्तनी एकाग्रता थाय छे माटे ध्यान शब्दनी व्याख्यानुसारे तेने गणवा तो जोईए, पण प्रथमना बे अशुभ होवाथी ते त्याज्य छे. वळी केटलाक मंदबुद्धिवाळा प्राणिओ ध्यानने विषे रहेल तफावत जाणी शकता नथी. वळी अन्यमतिवा ध्यानवाळा प्राणिओमां धर्म जाणी तेमनी सेवा करे छे तेमना बोधने माटे पण विवेचन करवुं पड्युं छे. हवे धर्मध्याननुं स्वरूप दर्शावतां कहे छे के धर्मध्यानना चार प्रकार छे. “ आणाविजए १, अवायविजए २, विवागविजए ३, संठाणविजए ४ ।” १ आज्ञाविचय- जिनराजनी आज्ञानुं रहस्य विचारवुं, तेना गुणोनी प्रशंसा चिंतववी. दा. त. खरेखर जिनेश्वर परमात्माए असावद्य निवृत्ति घणी ज रूडी रीते दर्शावी, जैनधर्म जेवो उत्कृष्ट कोई धर्म नथी, तेना आगमग्रंथो खरेखर श्रेष्ठ अने सत्य तत्त्वोथी भरपूर छे, इत्यादि. अगर तो वीतराग परमात्मानी आज्ञा ते ज धर्म छे एवी भावनापूर्वक तेमनी आज्ञाओनो विचार करवो. २ अपायविचय- गारव, विकथा, प्रमाद, परीषह इत्यादिकथी पतित न थवाय ते माटे चिंतन कर्या करवुं. अथवा मिथ्यात्वथी आवृत्त थयेला प्राणिओ तेवा उन्मार्गथी केवी रीते दूर रहे तेनो विचार करवो ते. ३ विपाकविचय- शुभाशुभ कर्मनुं फळ भोगव्या सिवाय छूटको नथी ते संबंधी विचार करवो ते अने संस्थान- विचय-चौद राजलोकनो आकार तेज द्वीप समुद्रोनुं स्वरूप चिंतववुं ते. धर्मध्यानने ओळखावनारा चार लक्षणो छे, ते आ प्रमाणे- “ आणारुई निसग्गरुई २ उवदेसरुई ३ सुत्तरुई ४ ॥” १ आज्ञारुचि - सूत्र, निर्युक्ति, भाष्य इत्यादि पंचांगीमां श्रीगच्छाचार - पयन्ना- १११ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहेल तत्त्वनी श्रद्धा, २ निसर्गरुचि-जेने स्वभावथी ज तत्त्वनी श्रद्धा प्रगटी एटले के उपदेश विना ज तत्त्वज्ञान थयु, ३ उपदेशरुचि- मुनिराज समीपे धर्मोपदेश सांभळीने तत्त्वनी श्रद्धा थई ते अने ४ श्रुतरुचिसूत्रो वांचवाथी, तत्त्वनी प्रतीति थई ते. हवे धर्मध्यानना चार आलंबन दर्शावतां कहे छे के–“वायणा १, पिच्छणा २, परियट्टणा ३, धम्मकहा ४।" आनं वर्णन अगाउ आवी गयं छे. जेम महेल पर चढवा माटे आलंबननी जरूर पडे तेम मुक्तिरूपी महेलमां जवा माटे आ चारे आलंबनो छे. हवे धर्मध्याननी चार अनुप्रेक्षा एटले विचारणा जणावे छे–“अणिच्चाणुप्पेहा १ असरणाणुप्पेहा २ एकत्ताणुप्पेहा ३ संसाराणुप्पेहा४।" १ अनित्यानुप्रेक्षा- धर्म विना सर्व अनित्य छे, २ अशरणानुप्रेक्षा- संसारमा जैनधर्म सिवाय बीजा कोईनुं शरण साचुंनथी. ३ एकत्वानुप्रेक्षा-आ जीव एकलो ज छे, संसारमा एनुं बीजं कोई नथी. ४ संसारानुप्रेक्षा - आ जीव संसारमा अनादिकाळथी परिभ्रमण करे छे अथवा आ संसार चार गतिरूप छे. हवे जीव जे शुक्लध्यान करे छे तेनुं वर्णन करतां कहे छे के-ते शुक्लध्यान पण चार प्रकारे छे. “पहत्तवियक्के सवियारी १, एगत्तवियक्के अवियारी २, सुहुमकिरिए अप्पडिवाई ३, समुच्छिन्नकिरिए अनियट्टी ४ ।" १ पृथक्त्ववितर्कसप्रविचार शुक्लध्यान-चौद पूर्वना श्रुत संबंधी अर्थ, व्यंजन अने योगना परस्पर संक्रमण परत्वे विचार करवापूर्वक द्रव्य, पर्याय अने गुणोना संचार संबंधी विचार अर्थात् परनो आश्रय लीधा सिवाय निर्मळ अने शुद्ध आत्मस्वरूपनुं सतत चिंतन अथवा जीव अने अजीवना स्वभाव तेमज विभावने पृथक् पृथक् करवापूर्वक द्रव्य अने पर्यायनो भिन्न भिन्न विचार करतां पर्यायनो गुणमां अने गुणनो पर्यायमा संक्रमण करवारूप सतत विचार. ढूंकमां कहीए तो द्रव्यानुयोगमां ज जेमना मन प्रमुख रक्त रहे ते. २ एकत्ववितर्कप्रविचार-अर्थथी व्यंजनमां अने व्यंजनमाथी अर्थमां अथवा मन, वचन अने कायाना योगमांथी एक-बीजामां नहीं जवारूप ध्यान. अर्थात् पवन न लागता दीपकनी पेठे स्थिर थवारूप ध्यान. ३ सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती-मन अने वचननो संपूर्ण रोध करी फक्त कायव्यापारनुं जे ध्यान ते. वेगथी चालता चक्रने कोई अटकावे तो जेम किंचित् चलनस्वभाव रहे छे तेम किंचित् काययोग रहे छे. अप्रतिपाती शब्द लगाडवानो हेतु ए छे के-पाछा पडवानो स्वभाव नथी. आ ध्यान मोक्षे जवाना अवसरे ज प्राप्त थाय छे. ४ समुच्छिन्नक्रियाअनिवृत्ति-कायानी जे सूक्ष्म श्वासोश्वासरूप क्रिया हती ते रुंधीने, जेम पर्वत निष्पकंप रहे छे तेम त्रणे योग रुंधीने शैलेशी अवस्थाने प्राप्त थईने अ, इ, उ, ऋ अने लु ए पांच ह्रस्व स्वरो बोलतां जेटलो समय लागे तेटला काळ पर्यंतनुं ध्यान. शुक्लध्यानना चार लक्षणों छे–विवेगे १, विउस्सग्गे २, अव्वहे ३, असम्मोहे ४ ।" १ विवेक-आत्माने शरीरथी भिन्न जाणवो अने सर्व संयोगथी विमुक्त मानवो. २ व्युत्सर्ग-आत्माने कोईनो संग नथी एम विचारीने देहरूपी उपाधिनो त्याग. ३ अव्यथा- देवादिकनो उपसर्ग थाय तो पण चळायमान न थाय अने ४ असंमोह-देवादिकना माया-प्रपंचथी सूक्ष्म पदार्थना विषयमा शंका लावीने मूढ न थई जाय. हवे शुक्लध्यानना चार आलंबन जणावतां कहे छे के–“खंती १, मुत्ती २, अज्जवे ३, मद्दवे ४ ।" १ क्षमा, २ निर्लोभता, श्रीगच्छाचार–पयन्ना-११२ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ सरलता-माया रहित पणुं अने ४ मान रहित होय. एवी ज रीते चार अनुप्रेक्षा जणावे छे के– “ अवायाणुप्पेहा १, असुभाणुप्पेहा २, अणंतवत्तियाणुप्पेहा ३, विपरिणामाणुप्पेहा ४ । १ अपायानुप्रेक्षा - हिंसादिक पापकृत्यथी कर्मबंध थाय, तेथी जीवने कष्ट थाय छे, २ अशुभानुप्रेक्षा - संसार मिथ्या छे, ३ अनंतवृत्तितानुप्रेक्षा- संसारनी परंपरानो पार नथी अर्थात् जीव आ संसाररूपी उदधिमां अनंता भव करे छे अने ४ परीणामानुप्रेक्षा-जे विपदार्थों छे ते क्षणक्षण पलटन-स्वभाववाळा छे एवो सदा विचार करवो ते. ६. कायोत्सर्ग-कर्मक्षयार्थे शरीरनो त्याग अर्थात् देह परथी ममत्वभाव त्याग करवो ते बे प्रकारनो छे - १ द्रव्यव्युत्सर्ग अने २ भावव्युत्सर्ग चार प्रकारे कहेल छे. “ सरीरविउस्सग्गे ९१, गणविउस्सग्गे २, उवहिविउस्सग्गे ३, भत्तपाणविउस्सग्गे ।” १ शरीरनो अने २ गच्छनो त्याग करवो एटले स्थविरकल्पीपणानो त्याग करी जिनकल्पीपणुं ग्रहण करवुं, ३ उपधिनो त्याग करे एटले जिनकल्पीपणुं स्वीकार अने अभिग्रह पण करे अने ४ भात-पाणीनो त्याग करे. भावव्युत्सर्ग त्रण प्रकारनो छे. “कसायविउस्सग्गे १, संसारविउस्सग्गे २, कम्मविउस्सग्गे ३ ।” १ चार प्रकारना क्रोधादि कषायोनो त्याग, २ चारे गतिनो त्याग एटले नारक गतिना हेतुरूप मिथ्यात्वादिकनो त्याग करवो, तिर्यंचगतिना हेतुरूप कारणनो त्याग, मनुष्यपणुं प्राप्त थाय तेवा निमित्तोनो त्याग तेमज जेनाथी देवगति प्राप्त थाय तेवा पुण्यकर्मनो पण त्याग ते संसारव्युत्सर्ग जाणवो. ३ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतराय-ए आठ प्रकारना कर्मों बांधवाना हेतुरूप कारणोनो त्याग. भावव्युत्सर्गना आ त्रण भेद पैकी कोई शंका करतां पूछे छे के बीजो संसारव्युत्सर्ग अने त्रीजो कर्मव्युत्सर्ग शा माटे जुदा जुदा दर्शाव्या ? संसारनो व्युत्सर्ग करवाथी आपोआप कर्मव्युत्सर्ग थई जाय छे अथवा कर्मव्युत्सर्ग थवाथी स्वयमेव संसारव्युत्सर्ग थई जाय छे. आ शंकाना समाधान माटे शास्त्रकारभगवंत जणावे छे के-ते बने भेदो अलग दर्शावीने कार्य तथा कारणनुं भिन्नपणुं दर्शाव्यं छे. आ प्रमाणे अभ्यंतर तप छ प्रकारनो दर्शाव्यो. लोकोना जाणवामां आ तप आवतो नथी, मिथ्यात्वी-अन्यतीर्थिको आवा प्रकारना तपनुं सेवन करी शकता नथी तेमज मोक्षप्राप्तिना अंतरंग कारणभूत होवाथी तेने अभ्यंतर तप कहेवामां आवे छे. हवे वीर्याचारना त्रण भेदो कहे छे– “अणिगूहियबलवीरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ य जहाथामं, नायव्वो सो वीरियायारो ॥७ ॥” पोतानुं बल एटले शरीरनुं सामर्थ्य अने वीर्य एटले मननो उत्साह या तो बाह्य सामर्थ्य अने अभ्यंतर सामर्थ्यने गोपव्या विना तीर्थंकर परमात्मा उपदेशेल छत्रीश प्रकारना आचारमां (ज्ञानाचार ८, दर्शनाचार ८, चारित्राचार अने तपाचार १२ = ३६) पोतानी शक्ति प्रमाणे प्रवर्ते, उद्यमशील रहे, उपयोगवंत रहे, चेतनने आघो- पाछो न थवा दे ते वीर्याचार जाणवो. आ प्रमाणे छत्रीश प्रकारना आचारमां पोतानुं (१) बल अने (२) वीर्य गोपव्या विना (३) यथाशक्ति प्रवर्तन ए त्रण प्रकारो थया. आ पांच प्रकारना आचारने पोते पाळे अने बीजाने श्रीगच्छाचार - पयन्ना — ११३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पळावे ते सुआचार्य जाणवा. आ पांच प्रकारना आचारमा जे चारित्राचार कह्यो ते शुद्ध पिंडादिकना ग्रहणथी थाय छे, माटे तेनुं स्वरूप दर्शावतां कहे छे के पिण्डं उवहिं सिज्जं, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धम् । चारित्तरक्खणट्ठा, सोहिंतो होइ स चरित्ती ॥ २१ ॥ [पिण्डमुपधिं शय्यां, उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धम् । चारित्ररक्षणार्थ, शोधयन् भवति स चारित्री ॥ २१ ॥ गाथार्थ- चार प्रकारनो पिंड उपधि (संयम-चारित्र पाळवामां उपयोगी उपकरणो) अने शय्या (वसति) - आ त्रणे वस्तुने उद्गम, उत्पादन अने एषणावडे शुद्ध, चारित्रनी रक्षा माटे ग्रहण करे ते ज साचो चारित्रवान छे. ___ विवेचन – १ अशण, २ पाण, ३ खादिम अने ४ स्वादिम-ए चार प्रकारनो पिंड छे. उपधिना बे प्रकार छे-(१) औधिक अने (२) औपग्रहिक. औधिक उपधि त्रण प्रकारे छे– १ जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट. १ मुहपत्ति, २ पात्रानी पूंजणी ते पात्रकेसरिका, ३ गुच्छक एटले पात्र ऊपर बांधवानो वस्त्रखंड अने ४ पात्रने मूकवानो वस्त्रखंड- आ प्रमाणे जघन्य उपधि जाणवी. मध्यम उपधि छ प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-१ पटल, २ रजस्राण-पात्रा राखवानी झोळी, ३ पात्राने बांधवानी झोळी, ४ चोळपट्टो, ५ मात्रक एटले नंदिपात्र अने ६ रजोहरण - ओघो. उत्कृष्ट उपधि चार प्रकारे छे-१ पात्रा अने २-४ त्रण वस्त्रो (वे सूतरना अने एक ऊन). आ प्रकारनी औघिक उपधि स्थविरकल्पी मुनिने होय. बीजी औपग्रहिक उपधि पण जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट ए प्रमाणे त्रण प्रकारनी छे. १ पीठ-पाछल राखवा- पाटियु, २ पादप्रोञ्छन, ३ दंडक-प्रमार्जन, ४ डगल (माटीनु), ५ सोय, ६ नखहरणी (नख कापवानी नरणी) अने ७ कर्णशोधनी-कानमांथी मेल काढवानी कानखोतरणी-आ सात प्रकारनी जघन्य जाणवी. मध्यम नव प्रकारनी छे, ते आ प्रमाणे-१ संथारो, २ संथारा ऊपर पाथरवानो उत्तरपट्ट, ३ दांडो, ४ मातरुं करवानुं भाजन, ५ स्थंडिलनुं भाजन, ६ मलश्लेष्मनुं भाजन, ७ योगपट्ट-उपधि ऊपर बांधवानुं वस्त्र, ८ सन्नाहपट्ट-शरीरे बांधवानुं वस्त्र अने ९ चिलमिली-मच्छरादिकथी रक्षा करवानो पडदो. उत्कृष्ट औपग्रहिक उपधि बे प्रकारनी छे -१ स्थापनाचार्य अने २ पांच प्रकारना पुस्तको. आने लगतुं विशेष वर्णन बृहत्कल्प तेमज यतिजीतकल्पनी टीकाद्वारा जाणवू. जे उपधि पासे ज रहे, गृहस्थनी मांगेली लेवी-देवी न कल्पे ते औधिक उपधि अने जरूर पड्ये गृहस्थ पासेथी मांगी ले अने पछी पाछी पण आपे ते औपग्रहिक उपधि जाणवी. शय्या-वसति-रहेवानुं स्थानक. आ १ पिंड, २ उपधि अने ३ शय्या उद्गम, उत्पादन अने एषणाना दोष रहित स्वीकारवा. उद्गमना सोळ दोष छे अने ते गृहस्थथी उत्पन्न थाय छे, उत्पादनमा पण सोळ अने ते साधुथी ज उत्पन्न थाय छे अने एषणाना दश दोष तो साधु अने गृहस्थ बंनेथी थाय छे. आ दश दोष पैकी बे शंकित अने अपरिणत साधथी लागे छे अने बाकीना आठ गृहस्थथी लागे छे. आ प्रमाणे बेतालीश दोष रहित पिंड, उपधि अने वसति ग्रहण करे ते आचार्य श्रीगच्छाचार-पयन्ना-११४ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रवंत जाणवा. हवे बेतालीस दोष कया कया ते जणावे छे सोळ उद्गम दोष -“आहाकम्पु १ देसिय २, पूइकम्मे ३ य मीसजाए य ४ । ठवणा ५ पाहुडियाए ६, पाओयर७ कीय ८ पामिच्चे ९ ॥१ ॥ परियट्टिए १० अभिहडु ११ - • ब्भिन्ने १२ मालोहडे य १३ अच्छिज्जे १४ । अणिसिट्ठ १५ ज्झोयरए १६, सोलस पिंडुग्गमे दोसा ॥ २ ॥ * १. आधाकर्म - केवळ साधुने माटे ज छकाय जीवनी विराधनावडे अशनादिक आहार तैयार करवानी क्रिया. आ प्रमाणेनी पापक्रियाथी तैयार थयेल आहार दोष अने दोषवाननी अभेद विवक्षाए दूषण. प्रमाणे आगळना दरेक दोषोमां पण समजी लेवु. २. औद्देशिक सर्व साधुओने उद्देशीने करवामां आवेल. ३. पूतिकर्म - शुद्ध आहारमा अशुद्ध आहारनो संयोग, शुद्ध आहारमा आधाकर्मिक आहारनो एक पण कण मिश्र थाय तो ते पूतिकर्म थई जाय. ४. मिश्रजात - शरूआती ज गृहस्थ अने साधु बनेने माटे भेगो बनावेल. ५. स्थापना - केटलोक समय साधुने अर्थे आहारादि राखी मूकवा. ६. प्राभृतिका - साधुनो लाभ लेवा माटे विवाहादिनो काळ आगळ-पाछळ राखवो. ७. प्रादुष्करण- साधुने वहोराववाना स्थानमां वस्तुने प्रगट करवा माटे दीपक करे, बारी-बारणा होय तो उघाडे. ८. क्रीत-साधु वहोराववा निमित्ते द्रव्यादिथी वस्तुओ खरीदवी. ९. प्रामित्य-वहोराववा माटे वस्तु उधार लावे. १०. परिवर्तित - साधुने वहोराववा निमित्ते वस्तुनो अदला-बदलो करे. ११. अभ्याहृत-साधुने वहोराववा निमित्ते ज्यां साधु वसता होय त्यां सामो आहार लई जाय अथवा बीजा गामथी मंगावे, एक स्थानथी बीजे स्थाने लई जाय. १२. उद्भिन्न- माटी विगेरेथी छांदेल घडाने खोलीने आहार आपे. १३. मालाहत - भोंयरामांथी, कोठारमाथी अगर तो माळ ऊपरथी लावीने आपे. १४. आच्छेद्य - पोताना पुत्रादिकनी साधुने वहोराववानी अनिच्छा छतां तेना पाथी बळजबरीथी ग्रहण करीने आपे. १५. अनिसृष्ट कोई एक पदार्थनी मालीकी घणाओनी होय छतां ओनी अनुमति विना आपे अने १६. अध्यवपूरक- गृहस्थे पोतानी रसोईनी शरूआत कर्या पछी 'साधु आवशे' एम विचारी साधुने निमित्ते विशेष रसोई रांधवी. उत्पादन सोळ दोष - " धाई १ दूई २ निमित्ते ३, आजीव ४ वणीमगे ५ तिगिच्छा ६ य । कोहे ७ माणे ८ माया ९, लोभे १० य हवन्ति दस एए ॥१ ॥ पुव्विपच्छासंथव ११, विज्जा १२ मंते य १३ चुन्न १४ जोगे १५ य । उप्पायणाइदोसा, सोलसमे मूलकम्मे १६ य ।। २ ।।” १. धात्री-बाळकने रमाडीने आहार लेवो. २. दूती - एक बीजाना संदेशा परस्पर कहीने आहार लेवो. ३. निमित्त- भूतकाळ तथा भविष्यकाळ संबंधी निमित्त कहेवुं. ४. आजीविका - दातार पुरुषनी पासे पोतानी जात्यादिकनो प्रकाश करवो. ५. वनीपक- अन्य भिक्षुकनी माफक लोकने गमती प्रशंसा करे या दातार व्यक्तिने जे साधुपुरुष पूज्य होय तेनो पोते भक्त छे तेम दर्शावे. ६. चिकित्सा - कोई पण प्रकारनी व्याधि दूर करीने अशनादि स्वीकारे. ७. क्रोध - घेबरीया * साधुनी माफक क्रोध * हस्तीकल्प नगरमा एक मुनि मासक्षमणने पारणे गोचरी माटे नीकळ्या. फरतां फरतां एक ब्राह्मणने त्यां मृत्युभोजन . हतुं त्यां जई चढ्या. मृत्युभोजनमां घेबर करवामां आव्या हता. मुनिए त्यां जई 'धर्मलाभ' आप्यो परंतु जैनमुनि प्रत्येना द्वेषथी द्विजे तेमने आहार वहोराव्यो नहीं एटलें मुनि क्रोधपूर्वक बोल्या के" कांई नहीं, बीजी वारना मृत्युभोजन समये वहोरावजे." श्रीगच्छाचार- पयन्ना- ११५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करीने आहार ग्रहण करे. ८. मान- संविया क्षुल्लक साधुनी माफक मान अभिमान करीने आहार स्वीकारे. ९. माया- आपादाभूतिनी + माफक कपट करीने आहार ले. १०. लोभ # सिंहकेसरिया मुनिनी माफक सारा आहारनी इच्छाथी गृहस्थ श्रीमंत लोकोना घरे गोचरीए जाय. ११. पूर्वपश्चात्संस्तव - आहार ग्रहण कर्या पूर्वे अने आहार ग्रहण कर्या पछी पण दातार पुरुषनी प्रशंसा करे के - “ तुमने धन्य छे. तमे साधुओनी रूडी भक्ति करनारा छो. इत्यादि. १२. विज्जा - विद्या शीखवा माटे साधना बतावे. १३. मंत्र - देवाधिष्ठित मंत्र शीखवे. १४. चूर्ण नेत्रांजनादिक चूर्ण दई · आहार स्वीकारे. १५. योग- अभ्युदय करनार, सुख अर्पनार एवो द्रव्यसमूह प्राप्त करवा माटेनो योग दर्शात्रे अने १६. मूलकर्म दश प्रकारना प्रायश्चितो पैकी आठमुं मूळ नामनुं प्रायश्चित्त जेथी प्राप्त थाय ते. गर्भपात कराववा माटे औषध करे अथवा वनस्पतिनुं छेदन करी लोकोने आपे अने 'आ मूळियाना जळथी स्नान करवाथी संतानप्राप्ति थाय' तेवो उपदेश आपे तेने आ प्रायश्चित प्राप्त थाय छे. - आ प्रमाणे रोपपूर्वक कहने मुनि चाल्या गया. थोडा दिवसाने आंतर ते ज ब्राह्मणने त्यां बीजुं मरण थयुं अने तेना मृत्युभोजन समय दैवयोगे तेज मुनि आवी चढ्या, परंतु ते समयं पण ते द्विजे तेमन आहार बहोराव्यो नहीं एटले विशेष क्रुद्ध भई तमगे कह्यं के—“कांई नहीं, त्रीजा मृत्युभोजन समये वहांरावजे." भाग्यवशात् बन्युं एवं के ते द्विजने त्यां त्रीजुं मरण पण थयुं अने नाँ मृत्युभोजन समये पुनः ते ज मुनि अचानक त्यां आवी चढ्या ते समये पण ते द्विजे तेमने आहार बेहोरात्र्या नहीं एटले रोपपूर्वक मुनि पाछा जता हता एवामां द्वारपाळनी तमना पर नजर पड़ी तंग बराबर मुनिने ओळखी लोधा, तरत ज पोताना मालीक पासे जई कहा के "आ साधु ते ज मुनि छे, जेमना कथन प्रमाणे बराबर मृत्यु या करे मातम मन वर आपी संतोषी." द्विजे द्वारपालनु कथन मान्युं अने बहुमानपूर्वक मुनिने पाछा बाळीने वर बहोराव्या. आ प्रकार क्रोध करीने पिंड ग्रहण करवी ते दूषित छे. वर बरखाने अंग ते मुनि घेवरीया' मुनि तरीके प्रसिद्ध था. X कोशलदेशना गिरिपुष्पित नगरमां कोई एक उत्सव निमित्तं गृहे गृह सेवनुं भोजन थयुं हतुं. ते समये ते नगरमा रहेला साधुआंए विचार्य के "आजे गोचरीमा सेव मळशे, पण कोई साधु पातानी शक्तिथी घी, साकर विगेरेथी युक्त सेव वेळासर लावीने आहार करावे तो ते श्रेष्ट गणाय." आ वात सांभळी एक क्षुल्लक साधुए अभिमानपूर्वक प्रतिज्ञा करी के "हुं घृत- साकारथी मिश्रित सेचनी आहार लावी हह्मणां ज तमने भोजन करावं छु." बाद ते फरता फरता इंद्रदत्त नामना शेठने घर या. त्यांनी प्रियंगुमती नामनी स्त्रीए कशुं वहोराव्यं नहीं त्यारे साधुए तेने मानपूर्वक कहां के " तारे घेरथी आहार ग्रहण कयें छूटको." प्रियंगुमतीए स्त्रीहठपूर्वक कहां के "आहार न वहोरातुं तो ज हुं स्त्री जाति खरी." आ प्रमाणे वात वी usai क्षुल्लक साधुए कहां के "हुं खरो साधु हईश तो तारे त्यांथी ज घी-साकरयुक्त संवनुं यथेच्छ भोजन ग्रहण करीश." त प्रमाणे कही ते साधु घर बहार चाल्यां गया. तपास करतां इंद्रदत्त सभामा छ तेत्रा समाचार मल्या. सभामा जईने साधुए पृछ्यु के - " अही कोई इंद्रदत्त श्रेष्ठी छ ? " त्यां हाजर रहेल अन्य व्यक्तिओए कह्य के " ते कृपणनुं शुं काम छे ? " कृपण शब्द सांभळी बाळमुनि चमक्या परंतु प्रतिज्ञानुं पालन तो करवुं ज हतुं, एटले पुनः कह्य के "मार तेमनुं काम छे, परंतु आघातजनक छ अधम पुरुष जेवो न होय तो तेनी पास मांगणी करू." बीजाआए कह्य के "ते तेवो ज छे" आ प्रमाणे पोतानी प्रतिष्टानुं लीलाम धतुं नीहाळी इंद्रदत्तनेचानक चडी एटले एकदम मुनि समीप आवी कह्यं के-" हुं तमे कहो त करीश, परन्तु प्रथम तमे मने छ प्रकारना अधम पुरुषोनी बात करो. " क्षुल्लक मुनिए १. श्वेतांगुली, २. बाँड्डायी ३. तीर्थस्नातक, ४. किंकर, ५. हृदनक अने ६. गृधावरिखी-ए छ प्रकारना दृष्टांत कह्या एटले इंद्रदत्तने पोतानी श्रेष्ठता साबित करवा इच्छा जागृत थई अने ते मुनि साथै गृह प्रति चाली नीकळ्यो मार्गमां क्षुल्लक मुनिए तेनी स्त्री साथे थयेल सर्व वृत्तांत कही संभळाव्यो. इंद्रदत्ते तेनो योग्य रस्तो शोधी काढ्यो गृह पासे आवी पहोंचतां मुनिने बहार राखी, घरमा दाखल थई पोतानी त्रीने कां के " जल्दी थी घी, साकर विगेरे मेडा परथी लाव."त्री जेवी नीसरणी मुकी मेड़ा पर चढी के तरत ज इंद्रदते नीसरणी लई लोधी. आ बाजु मुनिए प्रवेश करी घी साकर युक्त सेवनी आहार ग्रहण कर्यो. एवामां स्त्री जुए छे तो जे मुनिने श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ११६ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोते निषेध कयों हतो ते ज मुनिने आहार वहोरावतां देखी तेणे इंद्रदत्तने नवहोराववा आग्रह कयों एटले बाळमुनिए पोतानी नासिका पर आंगळी मूकी चुप रहवा सुचव्यं अने साथीसाथ गर्भित रीते सूचन पण कर्यु के-में तारुं नाक काप्यं छे. आ प्रमाणे मानपूर्वक आहार ग्रहण करवो ते दूषित छे. सेव वहोरी लाववाथी ते मुनि त्यारथी सेविया मुनि'तरीके प्रसिद्धि पाम्या. + राजगृहीमां कोई आचार्यना परिवारनी साथे आषाढाभूति मुनि पण विहार करता करतां आवी चढया. एकदा गोचरीसमये आषाढाभूति विश्वकर्मा नामना नटना घरमां दाखल थया अने 'धर्मलाभ' कही ऊभा रह्या. गोचरीमा मोदक मळ्या. ते लई बहार गया पछी तेमने विचार थयो के-'आ मोदक तो आचार्य ग्रहण करशे' एटले बीजा मोदकनी इच्छाथी रुप परिवर्तन करी, एक आंखे जाणे काणा होय तेवो देखाव धारण करी पुनः आव्या अने बीजो मोदक ग्रहण को. बहार निकळी विचार्यु के-'आ तो उपाध्याय ग्रहण करशे' एटले बीजा मोदकनी इच्छाथी कुबडानुं रूप धारण करी आव्या अने त्रीजो मोदक वहोर्यो. वळी 'आ तो संघाटक ग्रहण करशे.' एम विचारी रूप परिवर्तन करी चोथी वार आव्या अने मोदक वहोर्यो, आ बधुं दृश्य गोखमां बेठेला विश्वकर्मा नटे नीहाळंयु. तेने विचार आव्यो के-आवो माणस जो नट थाय तो मने सारी द्रव्यप्राप्ति थाय, एटले तेमने फसाववानी इच्छाथी ते एकदम नीचे आव्यो, पुन: आग्रह करीने बधा मोदक वहोरावी दीधा अने वारंवार पोताना घरे लाभ देवानो आग्रह कर्यो. मुनिराजना जवा बाद नटे तेमनी कुशलताना वखाण करी पोतानी पत्नी तथा बे पुत्रीओने का के–“कोईपण उपाये तमे तेने वश करजो." वारंवारना आषाढाभूतिना आवागमनथी अने पुत्रीओना आदरसत्कारथी छवटे आषाढाभूति साधु-मार्ग चूक्या अने नट-पुत्रीओ साथे संसार-व्यवहार शरू को. तेमनी कुशलताथी विश्वकर्माने सारा द्रव्यनी प्राप्ति पण थई. राजा पासे पण आषाढाभूतिनुं मान अत्यंत वधी गयु. विश्वकर्माए पोतानी पत्रीओने चेतवणी आपी हतो के-“तमे कदि मदिरापान करशो नहीं, नहीं तो आषाढाभूति तमारो त्याग करशे." एकदा बन्यु एवं के-आषाढाभूतिने राजसभामां नाटक करवानुं आमंत्रण मल्युं ते प्रसंगनो लाभ लई बंने नटपुत्रीओए यथेच्छ सुरापान कर्यु तेना घेनमां वस्त्रविहीन बनीने माळ ऊपर जईने सूई गई.आ बाजु राजसभामां परराष्ट्रनो दूत आववाथी विक्षेप पड्यो अने नाटक-समारंभ मुल्तवी रह्यो. आषाढाभूति गृहे आवतां पोतानी पत्नीनी स्थिति जोई आश्चर्यमां गरकाव थई गयो. तेने पोतानी मुनि अवस्था याद आवी, पोतानी भूल समजाई अने पोते चाली नीकळ्या. विश्वकर्माने आ हकीकतनी खबर पडतां ज तेणे पोतानी पुत्रीओने ठपको आपतां का के–“जाव, अने आषाढाभूति पासे जीवननिर्वाह माटे द्रव्यनी याचना करो." आषाढाभूति पासे काई हतुं ज नहीं, परंतु पत्नीओनी मागणी स्वीकार्या सिवाय छूटको न हतो. छेल्ले एक नाटक भजवी तेनी उपज स्त्रीओने आपवानो विचार करी तेमणे भरत चक्रवर्तीनुं नाटक भजववा निर्णय कों. राजा पासे पांच सो राजपुत्रोनी मांगणी करी, नाटकनी शरूआत सुंदर करी अने प्रेक्षको हेरत पामी गया. छेवट भरत महाराजाना आरिसाभुवनमां आवतां आंगलीमांथी मुद्रिका नीकळी पडतां जे भावना भावी हती तेवीज भावना भावतां आषाढाभूतिने तत्क्षणे केवळज्ञान उत्पन्न थयं पांचसो राजपुत्रोने पण केवळज्ञान उपज्यु. देवोए आषाढाभूतिनो केवळज्ञान-महोत्सव कयों, आवी रीते मायाथी आहार ग्रहण करवो ते पण दुषित छे. # चंपानगरीमा आवेला कोई एक मुनिए एकदा गोचरीसमये मनमा अभिग्रह कयों के जो आजे सिंहकेसरिया मोदक मळे तो ज ग्रहण करवा.' आ प्रमाणे निर्णय करी एक गृहथी बीजे गृहे परिभ्रमण करवा लाग्या परंतु वांछित भिक्षा मळी नहीं. सिंहकेसरीया मोदक मेळववानी एक मात्र तल्लनीताने कारणे केटलो समय पसार थई गयो छे तेनुं पण तेमने भान न रा. संध्यासमय थई जवा आव्यो छतां तेमने मनोवांछित गोचरी प्राप्त न थई. कोईएक सुज्ञ श्रावके तेमनी आवी स्थिति नीहाळी मनमां निर्णय कों के-मुनिए मोदकनो अभिग्रह को जणाय छे अने ते प्राप्त न थवाथी समयना पण ज्ञान वगर तेओ एक घरथी बीजे घेर भमी रह्या छे. श्रावके तरत ज सिंहकेसरीया मोदक तैयार करावी मुनिने पोताने गृहे आमंत्रण आप्यु. मुनि पण छेवटे मोदक मळवाथी हर्षित थया. विचक्षण श्रावके तेमने समयनुं भान कराववा माटे का के–“मुनिराज, पुरिमुढ़ना पच्चक्खाणने केटलो समय छे?" आ शब्द सांभळतां ज मुनिए आकाश प्रत्ये दृष्टि करी तो चंद्र अने तारा गगनपटमां प्रकाशित थई गया हता. रात्रि पड़ी गई हती. हवे ज तेमने पोतानी विह्वल स्थितिनुं साचुं भा मोदक परठववो ज रह्यो. तरत ज ते मोदक लई परठववा गया अने परठवतां परठवतां आत्मनिंदा करतां केवलज्ञान प्राप्त कर्यु. आ प्रमाणे लोभथी पण भिक्षा ग्रहण करवी ते पण दूषित छे. ... श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ११७ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणाना दश दोष-“संकिय १ मक्खिय २ निक्खित्त ३- पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६ म्मीसे ७। अपरिणय ८ लित्त ९ छड्डिय १०, एसणदोसा दस हवंति ॥१॥" १. शंकित - आधाकर्मादिक दोषनी शंकावाळा अशनादि स्वीकारे. २. म्रक्षित-सचित्तादिथी खरंटित (लींपायेल). ३. निक्षिप्त-सचित्त पदार्थ पर स्थापन करेल.-४. पिहित-सचित्तादिकथी ढांकेल. ५. संहृत-सचित्तवस्तुवाळा भाजनमांथी ते सचित पदार्थो बीजा भाजनमां काढी नाखी प्रथमना भाजनद्वारा आहार वहोरावे ते. ६. दायक-शास्त्रमा दान आपवा माटे निषिद्ध करायेल बाळक, गर्भवती स्त्री, सचित्त पदार्थवाळी, खांडती, दळती, कांतती एवी स्त्री उठी दान आपे ते अथवा तो आंधळी, कंपती स्त्री उठी दान आपे ते. ७. उन्मिश्र-सचित्त वस्तुओ युक्त. ८. अपरिणत-अचित्त नहीं बनेल. भावथी तो सृतकादि होय अगर तो दातार पोताना भाव विना आपे ते पण अपरिणत जाणवू. ९. लिप्त-लेपद्रव्यथी खरडायेल भाजन अगर हस्तद्वारा अपाय ते अने १०. छर्दित-आहार वहोरावती वखते दातारना हाथमाथी छांटो भूमि ऊपर पड्यो छतां स्वीकारे तो आ दोष लागे. ____ हवे प्रसंगथी ग्रासैषणाना पण पांच दोषो दर्शावे छे–“संजोयणा १ पमाणे २, इंगाले ३ धूम ४ कारणे ५ पढमा। वसहिबहिरंतरे वा, रसहेडं दव्वसंजोगा ॥१॥" १. संयोजना-रसनी लोलुपताथी कोई द्रव्यमां रस वधारवा माटे बीजू द्रव्य नाखे. दा.त. दूधनो रस वधारवा तेमां साकर नाखे. २. प्रमाण-बत्रीश कवळथी विशेष खाय. ३. इंगाल-रागपूर्वक आहार करे. ४. धूम्र-आहार द्वेषपूर्वक खाय अने ५. कारणिक-कारण विना एटले के वेयावच्च प्रमुख छ कारण सिवाय भोजन करे. प्रथम भेद संयोजना के प्रकारनो छे. १. अंतरसंयोजना अने २. बहिर् संयोजना. उपाश्रये आवीने संयोजना करे ते अंतरसंयोजना अने वसति बहार दूध मळ्या पछी साकरनी इच्छाथी परिभ्रमण कर्या करे ते बहिर् संयोजना आ प्रमाणे सुडतालीश दोषोनुं विशेष विवरण पिंडनियुक्तिनी टीका विगेरेद्वारा जाणवं. जेवी रीते आ दोषो पिंडने आश्रयीने जणाव्या तेवी जरीते उपधि तेमज वसतिनी अपेक्षाए पण जाणी लेवा. ___ हवे आ सुडतालीश दोष पैकी कया कया दोष मोटा अने लघु छे ते दर्शावे छे–मूळकर्म सौथी महादोष छे, तेनुं प्रायश्चित १८० उपवासद्वारा थाय. अन्य ग्रंथमां नवी दीक्षा पण जणावेल छे. तेनाथी ओछा दोषवाळा-आधाकर्म औद्देशिकना भेदो पैकी छेल्ला त्रण, मिश्रना छेल्ला बे भेदपासंडमिश्र अने घरमिश्र, बादरप्राभृतिका, सप्रत्ययअपायअभ्याहृत, लोभपिंड, अनंतकायमा निक्षिप्त, पिहित, संहृतमिश्र, अपरिणत, छर्दित, संयोजना, अंगार, वर्तमान तथा भविष्यकाळ संबंधी निमित्त, आनु प्रायश्चित मूल प्रायश्चितथी उपवास पर्यंत जाणवू. तेनाथी ओछा दोषवाळा-कर्मोद्देशिकनो पहेलो भेद, मिश्रनो प्रथम भेद, धात्री, दूती, भूतकाळनुं निमित्त, आजीविका, वनीपक, बादर चिकित्साकरण, क्रोध तथा माननो पिंड, संबंधी संस्तव, विद्या, चूर्ण, बे प्रकारनं प्रकटीकरण, द्रव्यक्रीत, भावक्रीत, लौकिक प्रामित्य, परावर्तित, बीजा गामथी लावेल ते प्रत्यपाय, पिहितउद्भिन्न, कपाटउद्भिन्न, उत्कृष्ट मालापहृत, सर्व प्रकारचं आच्छेद्य, सर्व प्रकारचें अनिसृष्ट, पुरकर्म, पश्चात्कर्म, सूतक संबंधी गर्हित, संसक्तम्रक्षित, प्रत्येक वनस्पतिमा निक्षिप्त, पिहित, संहृतमिश्र, अपरिणत, छर्दित, प्रमाण रहित भोजन, श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ११८ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सधूम, कारण विना भोजन करे- आनुं प्रायश्चित उपवासथी आयंबिल पर्यंत जाणवुं तेनाथी ओछा दोषवाळा-अध्यवपूरकना छेल्ला वे भेद, कृतकना चारे भेदो, भक्तपानपूर्तिक, मायापिंड, अनंतकायव्यवहित, निक्षिप्त, पिहित विगेरे आनुं आयंबिलथी एकासण पर्यन्त प्रायश्चित जाणवु. तेनाथी ओछा दोषवाला - औदेशिक उद्दिष्टना चार भेद, उपकरणपूतिका, घणा काळनी स्थापनानुं प्रकटकरण, लोकोत्तर परावर्तित, अप्रामित्य, परभावक्रीत, पोताना गामथी सामे लावेल आहार, दर्दरोद्भिन्ने, जघन्यमालापहृत, प्रथम अध्यवपूरक, सूक्ष्मचिकित्सा, गुणसंस्तवकरण, मिश्रकर्दम, लवण तथा खडीथी प्रक्षित, अल्प दायक दोष, प्रत्येक वनस्पतिमां परंपर रहेल, मिश्रमा अंतर रहेल-आनुं प्रायश्चित्त एकासणाथी पुरिमड्ड पर्यन्त जाणवुं, तेनाथी ओछा दोष वाळा- चार प्रकार स्थापना, सूक्ष्मप्राभृतिका, स्निग्घ सहजम्रक्षित, प्रत्येक मिश्रमा परंपर रहेल-आनुं प्रायश्चित्त पुरिमड्डी विगयना त्याग पर्यन्त जाणवुं. हजु पण आचार्यना गुणो दर्शावतां कहे छे के अप्परिस्सावी सम्पं, समपासी चेव होइ कज्जेसु । सो रक्खड़ चक्खुं पिव, सबालवुड्ढाउलं गच्छम् ।। २२ ।। [ अपरिश्रावी सम्यक्, समदर्शी चैव भवति कार्येषु । सरक्षति चक्षुरिव, सबालवृद्धाकुलं गच्छम् ॥ २२ ॥ ] गाथार्थ - अन्यनी गुह्य वातने प्रकाशित न करनार तेमज आगम व्याख्यानादिक सर्व कार्योमां समदृष्टि राखनार आचार्यमहाराज, जेम चक्षु खाडादिकमां पडतां जीवोने बचावी शके छे तेम बाळ तथा वृद्ध साधुओथी युक्त गच्छने दुर्गतिरूपी खाडामां पडतां राखी शके छे. विवेचन - जेवी रीते पोतानुं गुह्य कोई कहे नहीं तेम बीजाए कहेल रहस्य प्रकाशित न करे. जेवी रीते जलना द्रहनी चतुर्भंगी श्रीआचारांग सूत्रमां कही छे तेना त्रीजा भंग तुल्य आचार्य भगवंत जाणवा. ते चतुर्भंगी आ प्रमाणे समजवी - १. शीता - शीतोदानो द्रह जेमां पाणी आवे छे अने पाणी बहार वहे पण छे, जेथी नदी नीकळे छे. २. पद्मद्रह जेमां नवीन पाणी आवतुं नथी पण बहार नीकळे छे. ३. लवणसमुद्र के जेमां पाणी आवे छे परंतु बहार नीकळतुं नथी अने ४. मनुष्य लोकनी बहार रहेल समुद्रो के जेमां बहारथी पाणी आवतुं पण नथी अने तेमां रहेल पाणी बहार जतुं पण नथी. आ चतुर्भंगी आचार्य आश्रयीने आ रीते घटावी शकाय. १ सूत्रने आश्रयीने प्रथम भंग सरखा कारण के पोते श्रुत भणे अने बीजाने पण भणावे. २. कषायनी अपेक्षाए बीजा भंग तुल्य कारण के कषायनो उदय न होय त्यारे कर्मग्रहणनो अभाव होय छे अने कायोत्सर्गादिक तपश्चर्याथी कर्मनो क्षय करे छे. ३. आलोचनानी अपेक्षाए त्रीजा भांगा सरखा कारण के पोते आलोचना जाणे छे परंतु बीजाने जणावता नथी तेमज ४. कुमार्गने आश्रयीने चोथा भंग सरखा केम के तेमने कुमार्गमां जवानो अने निकळवानो अभाव ज छे. केवळ सूत्रने आश्रयीने पण चार भांगा घटावी शकाय. १. स्थविरकल्पी. . २. तीर्थंकर भगवंतो. ३. यथालन्दिक (जेओने कोई वातनो निर्णय न थयो होय तो आचार्यादिकने पूछीने निर्णय करे ते) अने ४ प्रत्येकबुद्ध- तेमने कोईने कांई कहेवुं पण नथी (उपदेश आपवो नथी) अने कोईने कांई पूछवापणुं पण नथी. वळी सारा आचार्य सर्व कार्योंने विषे यथास्थित देखनारा श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ११९ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होय. व्याख्यान, साधुओनी बारीक तपास इत्यादिक शास्त्रोक्त कार्योमा पोते प्रवर्ते अने अन्यने प्रवर्तावे. जेम नेत्र विना पोतानुं तेमज परनुं रक्षण न थई शके तेम बाल, वृद्ध, ग्लान तपस्वी इत्यादिक साधुओथी व्याप्त गच्छर्नु रक्षण करवामां सुआचार्य नेत्र सरखा छे. आ प्रमाणे सारा आचार्यस्वरूप दर्शावी हवे अधम आचार्य- वर्णवे छे. कारण के पीतळनी धातु ज जो न होत तो सुवर्णनी किंमत कई रीते आंकी शकाय? सीयावेइ विहारं, सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धीओ । सो नवरि लिंगधारी, संजमजोएण णिस्सारो ॥२३ ।। [सीदयति विहारं, सुखशीलगुणैर्योऽबुद्धिकः । स नवरि लिग्डधारी, संयमयोगेन निस्सार : ॥२३ ।।] गाथार्थ – सुखशीलपणुं तथा शिथिलपणुं आदि गुणोवडे जे नवकल्पी तेमज गीतार्थरूप विहारने शिथिल करे छे ते आचार्य संयमयोगवडे नि:सार अने केवळ द्रव्य लिंगधारी छे. विवेचन- तत्त्वज्ञान रहित अने आचारनो अनभिज्ञ आचार्य साध्वाचारथी भ्रष्ट थाय छे अने पासत्थादिकना सुखशीलपणाथी नवकल्पी तेमज गीतार्थ प्रमुखनो विहार करतो नथी. श्रीबृहत्कल्पसूत्रमा विहारनुं वर्णन जणावतां का छे के–“से गामंसि वा जाव पुडभेयणंसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमन्तगिम्हासु एक्कं मासं वत्थए ।” जे गाम, नगर यावत् शब्दथी पुर, पाटण इत्यादिक किल्लायुक्त होय अने किल्लानी बहार वसति न होय तेवा गाम-नगरादिकमां शियाळामां (मागशर, पोष, माह अने फागण) तेमज उनाळामां (चैत्र, वैशाख, जेठ अने असाड) फक्त एक मास पर्यंत ज स्थिरवास करवो कल्पे; तेथी विशेष समय रहेदूं कल्पे नहीं. “से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु दोमासे वत्थए, अंतो एक्कं मासं बाहिं एक्कं मासं, अंतोवसमाणाणं अंतोभिक्खायरिया बाहिंवसमाणाणं बाहिभिक्खायरिया ।" जे गाम, नगर यावत् राजधानी प्रमुखने फरतो किल्लो होय अने ते किल्लानी बहार पण वसति होय तो ते गाम-नगरादिकमां शियाळा तेमज उनाळामां साधुओने बे मास पर्यंत रहे, कल्पे. एक मास किल्लानी अंदर अने एक मास किल्लानी बहार रहे. वळी जे मासमां किल्लामा रह्या होय ते मासमां किल्ला अंदरनी वसतिमां गोचरी करे, बहार न जाय; अने बहार रह्या होय त्यारे त्यां ज गोचरी करे, किल्लानी अंदर गोचरी लेवा न जाय. परंतु एक मासमां किल्लानी अंदर तेमज बहार बंने स्थळे गोचरी करी होय तो ते गाम-नगरादिकमां एक मासज रहेदूं कल्पे; विशेष नहीं. साध्वी संबंधी पण शियाळा तेमज उनाळमां आ प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के-जेनी बहार वसति न होय तेवा कोटवाळा नगरमां बे मास अने बहार पण वसति होय तो बे-बे मास एटले चार मास रहेदूं कल्पे अने गोचरी पण बे मास कोटमां अने बे मास कोट बहारनी वसतिमां करे."कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमे णं जाव अंगमगहाओ एत्तए १, दक्खिणे णं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा जाव कोसंबीओ एत्तए श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१२० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २, पच्चत्थिमे णं जाव थूणाविसयाओ एत्तए ३, उत्तरे णं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए ४, एतावता व कप्पड़ एत्तावता व आयरियखेत्ते णो से कप्पड़ एतो बाहिं तेण परं जत्थ णाणदंसणचरित्ताइं उस्सप्पंति । " साधु या साध्वीने पूर्व दिशामां अंग तथा मगधदेश सुधी विचरकुं कल्पे, दक्षिण दिशामां कौशांबी नगरी सुधी, पश्चिम दिशामां थुणानी सीम सुधी अने उत्तर दिशामां कुणालानी सीम पर्यंत विहार करवी कल्पे. आटलुं ज आर्यक्षेत्र होवाथी तेमां विचरतुं, परन्तु तेथी विशेष क्षेत्रमां नहीं कारण के ते अनार्यक्षेत्र छे. अपवादमार्गथी तो जणाव्युं छे के जो ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी वृद्धि थती होय तो आर्यक्षेत्र उपरांत पण विहार करवो. आ प्रमाणे बृहत्कल्पसूत्रना पहेला उद्देशामां जणावेल छे. आ बाबतमां शंका करतां कोई कहेशे के-आ मासकल्पी विहार तो चोथा आरामां हतो, हमणा तो नथी. तेने जवाब आपतां श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजा पोताना पंचस्तु ग्रंथनी टीकामा 'निरंतरनी क्रिया' नामना द्वारमा पडिलेहण तथा प्रमार्जनाना अधिकारमां जणावे छे के- “अवलंबिऊण कज्जं, जं किंचि समायरन्ति गीअत्था । थोवावराहबहुगुण, सव्वेसिं तं पमाणं तु ।।१।।” आगमना ज्ञाता गीतार्थ आचार्य कोई महाकार्यने अंगे अल्प दोष अने बहु गुणनो संभव जाणीने जे आचरण करे ते सर्व जिनमतानुयायीओए प्रमाणभूत मानवुं जोईए. कहेवानो आशय ए छे के-कोई एक गच्छमां विद्वान् साधु भणवाना उधमवाळा छे. हवे जो ते मासकल्पी विहार करे तो तेना अध्ययनमां अंतराय पडे तेथी गीतार्थ आचार्य तेने मास उपरांत रहेवानी अनुज्ञा आपे. आ आचरणमां दोष अल्प छे अने गुण विशेष छे एटले तेने प्रमाणभूत मानवुं; कारण के श्रीजिनेश्वर भगवंतनो मार्ग तो उत्सर्ग तेमज अपवादरूप छे; पण तेनो अर्थ एवो नथी के मासकल्पी विहार न करवो. अपवाद तो कारणरूप छे; अने तेने जे ते गीतार्थ वारंवार अंगीकार कर्या करे तो ते जोईने अन्य गीतार्थो पण तेनुं अनुकरण करे अने उत्सर्गमार्गनुं उत्थापन थाय. आ ऊपरथी साबित थाय छे के-श्रीहरिभद्रसूरिजीना समयमां (स्वर्गवास वी. सं. १०५५) पण मासकल्पी विहार हतो. हवे गीतार्थनिश्राए विहार करवा संबंधी वर्णन करतां कहे छे के- “गीअत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिओ । इत्तो तइयविहारो, नाणुन्नाओ जिणवरेहिं ।। १ ।। ” १. गीतार्थ जेणे सूत्रनो अर्थ रूडी रीते जाण्यो छे ते जिनकल्पी मुनिनो पोतानी इच्छामां आवे ते प्रमाणे विहार, २ गीतार्थ निश्रित एटले आचार्य, उपाध्याय आदिनी आज्ञामां रहीने, गच्छमां वसीने करवानो विहार. आ बने प्रकारना विहार उपरांतनो त्रीजो एटले स्वच्छंदाचारी, अगीतार्थ, पासत्थादिकनी जेम विचरे ते विहारनो श्रीजिनेश्वरभगवंतोए निषेध करेल छे. नियुक्तिनी गाथाद्वारा गीतार्थ विगेरेनुं स्वरूप वर्णवंता कहे छे- “गीअं मुणितेगहूं, विदियत्थं खलु वयंति गीयत्थ । गीएण य अत्थेण य, गीयत्यो वा सुबं गीयं ॥ १ ॥” गीत अने मुणित शब्दनो अर्थ एकज छे एटले जे छेदसूत्रादिनो अर्थ सम्यकू प्रकारे जाणे ते गीतार्थ कहेवाय, अथवा गीत अने अर्थथी जे युक्त होय ते गीतार्थ. गीत एटले शुं ? श्रुत-सूत्र. " गीएण होइ गीई, अस्थी अत्थेण नायव्वो । गीएण य अत्थेण य, गीयत्थं तं विजाणाहि ।।१ ॥।” आना रहस्यार्थ संबंधमां चतुर्भंगी जणावे छे - १. सूत्रने जाणे छे पण अर्थ श्रीगच्छाचार - पयन्ना — १२१ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणतो नथी, २. अर्थन जाणे छे पण सूत्रने जाणतो नथी, ३. सूत्रने पण जाणे छे तेमज अर्थने जाणे छे अने ४. सूत्र तेमज अर्थ बनेने जाणतो नथी. आ चार भांगामां चोथो भांगो तो शून्य छे, वस्तुस्वरूप नथी. जे त्रीजा भांगाने धारण करे छे ते ज गीतार्थ छे. एकलुं जे सूत्र भणे छे ते गीती कहेवाय, जे एकलो अर्थ जाणे ते अर्थिक कहेवाय अने जे सूत्र तेमज अर्थ बने जाणे ते गीतार्थ कहेवाय. गीतार्थ अने गीतार्थनिश्रित विहार संबंधी कहे छे के- “जिणकप्पिओ गीयत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो । गीयत्थे इड्रिदुगं सेसा गीयत्थनीसाए ॥१॥" जिनकल्पी, परिहारविशुद्धि चारित्रवाळा, 'अपि' शब्दना ग्रहणथी पडिमाधारी तेमज यथालंदकल्पी कारण के तेओ जघन्यथी नव पूर्वनी आचार नामनी त्रीजी वस्तु पर्यंतना ज्ञाता होय छे, अने गच्छमां ऋद्धिमंत एटले आचार्य तथा उपाध्याय-आटलाने गीतार्थ विहार होय छे, बाकीना साधुओने गीतार्थनिश्रित विहार होय. छे. "आयरियगणी इड्डी, सेसा गीता वि होन्ति तन्नीसा। गच्छगयनिग्गया वा, ठाणनिउत्ताऽनिउत्ता वा ॥१॥” आचार्य अने उपाध्याय गच्छमां ऋद्धिमंत-श्रेष्ठ छे अने बाकीना साधुओ गीतार्थ होय तो पण तेमणे आचार्य-उपाध्यायनी आज्ञामां ज विचर. बाकीना साधुओ कोण ते संबंधी गाथाना त्रीजा तथा चोथा पादमां जणावे छे के-गच्छमां रहेल, कोई कारणे गच्छमांथी बहार निकळी एकला विचरनारा, कोई कारणे प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक इत्यादि पदवीधर साधुओने आचार्य उपाध्याये स्थानकमा राख्या होय ते तेमज पदवी विनाना साधुओ-आ सर्व आचार्य-उपाध्यायनी आज्ञामां ज विचरे. तेओ केवी रीते विचरे ? ते संबंधमां जणावे छ के- “आयारपकप्पधरा, चोद्दसपुव्वी अ जे य तं मज्झा। तन्नीसाइ विहारो, सबालवुडस्स गच्छस्स ॥१॥" १. आचारप्रकल्पधर-निशीथ अध्ययनना जाणकार ते जघन्यगीतार्थ, २. चौदपूर्वी-चौद पूर्वना ज्ञाता ते उत्कृष्टगीतार्थ अने ३. आ जघन्य तथा उत्कृष्टगीतार्थनी मध्यना ते मध्यमगीतार्थ, तेओ व्यरहारसूत्र, दशाश्रुतस्कंधना ज्ञाता होय छे-आ त्रण प्रकारना गीतार्थोनी निश्रामां बाल तथा वृद्ध साधुवाळा गच्छे विहार करवो कल्पे. आ त्रण प्रकारना गीतार्थोने पण स्वच्छंदपणे विहार करवो योग्य नथी. आचार्यनी निश्राए ज विहार शामाटे करवो? ते शंकाना समाधानमा जणावे छे के“एगविहारी अज्जाय-कप्पिओ जो भवे चवणकप्पे। उवसंपन्नो मंदो, होहिइ वोसट्टतिट्ठाणो ॥१॥” एकलविहारी अगीतार्थ जाणवो तेमज तेने चारित्रथी भ्रष्ट थवाने अंगे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र ए रत्नत्रयीने त्यजी देवानो भाव थाय छे अने पासत्थादिकपणे विचरवाथी बुद्धिहीन पण बने छे. आ गाथा नियुक्तिनी छे तेथी तेना पर विवरण करतां कहे छे के- “मुत्तूण गच्छनिग्गय, गीयस्स वि एक्कगस्स मासो उ। अविगीए चउगुरुगा, चवणे लहुगा य भंगट्ठा ॥१॥" गच्छथी निकळेला जिनकल्पी साधु सिवायना गीतार्थ जो एकला विचरे तो एक मास लघुदंड, अगीतार्थ एकलो विचरे तो चारमासी गुरुदंड अने जे मनमां पासत्थादिकपणे विचरवानी इच्छा मात्र करे तेने चारमासी लघुदंड आवे, अर्थात् आ गाथामां गच्छनी निश्रा सिवाय विचरवानो सदंतर निषेध को छे. आ संबंधमां बृहत्कल्पवृत्तिनी पीठिकानी गाथा 'गीअत्यो अ विहारो.' अन तेनो अर्थ (पृ. १२४) ऊपर जणावी गया छीए. वळी ओघनियुक्तिमां पण तेनी तेज श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१२२ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा जणावी विशेष जणाव्यं छे के- “संजमआयविराहण, नाणे तह दंसणे चरित्ते य । आणालोव जिणाणं, कुव्वइ दीहं च संसारम् ॥२॥" एकला विचरवाथी संयम तेमज आत्मानी विराधना थाय, ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ए रत्नत्रयी- खंडन थाय, तीर्थंकर भगवंतनी आज्ञानो लोप थाय तेमज दीर्घ काळ पर्यन्त संसार परिभ्रमण वधे. आ सर्व कई रीते थाय? “संजमओ छक्काया, आया कंठद्विजीरगेलन्ने । नाणे नाणायारं, दंसणचरगाइवुग्गाहे ॥३॥" एकलविहारीने उपयोग सरखो न रहे तेथी छक्कायना आरंभ लागवाथी संयम विराधना, इंद्रियो बळवत्तर बनवाथी कोई स्थळे मार खाय, लोभथी वधारे पडतो आहार करवाथी अजीर्ण थाय, व्याधिग्रस्त थाय तो कोण उपचार करे ? वळी अनर्थ करतो होय तो कोण अटकावे? आ प्रकारे आत्मविराधना थाय, वळी आठ प्रकारनो ज्ञानाचार रूडी रीते न पाळे, चरक, परिव्राजकादि मिथ्यात्वीओ भ्रमित बनावीने समकितथी भ्रष्ट करे तेथी दर्शनाचार पण शुद्ध न रहे अने चारित्र तो शुद्ध पळे ज नहीं, माटे कदापि एकला न विचरवं. सुखशीलियो साधु केवो होय? तेना लक्षण संबंधी उपदेशमालाना चोथा शतकमां विस्तारथी का छे के- “बायालमेसणाओ, न रक्खई धाइसिज्जपिंडं च । आहारेइ अभिक्खं, विगईओ सन्निहिंखाइ ॥१॥ सूरप्पमाणभोई, आहारेई अभिक्खमाहारम् । न य मंडलीइ भुंजइ, न य भिक्खं हिंडई अलसो ॥२ ।। कीवो न कुणइ लोयं, लज्जइ पडिमाइ जल्लमवणेइ। सोवाहणो य हिंडइ, बंधइ कडिपट्ट्यमकज्जे ॥३॥ गाम देसं च कुलं, ममायए पीठफलगपडिबद्धो । घरसरणेसु पसज्जड़, विहरइ सक्किचणो रिक्को॥४॥ नहरंतकेसरोमे, जमेइ उच्छोधोयणो अजओ। वाहेइ अ पलियंकं, अरेगपमाणमच्छरइ ॥५॥ सोवइ य सव्वराई, नीसटुमचेयणो न वा सरइ। न पमज्जंतो पविसइ, निसीहिआवस्सियं न करे ॥६॥ पाय पहे न पमज्जइ, जुगमायाए न सोहए इरियं । पुढविदगअगणिमारुय-वणस्सइतसेसु निरविक्खो ॥७॥ सव्वं थोवं उवहिं न पेहए न य करेइ सज्झायं । सद्दकरो झंझकरो, लहुओ गणभेयतत्तिल्लो ॥८॥ खित्ताईयं भुंजड़, कालाईयं तहेव अविदिनिम्। गिण्हइ अणुइयसूरे, असणाई अहव उवगरणं ॥९॥ ठवणकुले न ठवेई, पासत्येहिं च संगयं कुणइ। निच्चमवज्झाणरओ, न य पेहपमज्जणासीलो ॥१० ।। रियई य दवदवाए, मूढो परिभवइ तह च रायणिए। परपरिवायं गिण्हइ निठुरभासी विगहसीलो ॥११ ।। विज्जं मन्तं जोगं, तेगिच्छं कुणइ भूइकम्मं च। अक्खरनिमित्तजीवी, आरंभपरिग्गहे रमइ ॥१२ ।। कज्जेण विणा उग्गह-मणुजाणावेइ दिवसओ सुयइ । अज्जियलाभं भुंजइ, इत्थिनिसिज्जासु अभिरमइ ॥१३ ।। उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए अणाउत्तो। संथारगउवहीणं, पडिक्कमइ वा सपाउरणो ॥१४ ॥ न करेइ पहे जयणं, तलियाणं तह करेइ परिभोग। चरइ अणुबद्धवासे, सपक्खपरक्खओमाणे ॥१५॥” एषणाना बंतालीश दोष रहित आहार न ले. साधुना सोळ दोष पैकी प्रथम जे धात्रीपिंड ते खाय, शय्यातरनो पिंड खाय, वारंवार विगयनो आहार करे, रात्रिने विषे चार प्रकारनो आहार राखीने खाय, सूर्योदयथी प्रारंभी सूर्यास्त सुधी वारंवार आहार करे, साधुनी मंडलीमा आहार करवा बेसे नहीं, कारण के तेमां तो जेवो आहार आवे तेवो खावो पडे, आळसने श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १२३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगे गोचरीए न जाय, लोच करतां दुःख थसे एम जाणी लोच न करे, शरमथी काउसग्ग न करे, मेल उतार्या करे, पगमां मोजडी मोजादिक पहेरे, विना कारण कटिसूत्र बांधे, देश, गाम, कुल मारा छे एवी जातनो ममत्वभाव धरावे, शेष समयमां पण पाट-पाटलादिक सेवे, गृहस्थावस्थामां भोगवेल भोग याद करी प्रसन्न थाय, सोनुं-रूपुं इत्यादिक परिग्रह राखे, नख, दांत, केश, शरीरना रोम तथा शरीरने बराबर साफसुफ राखे, अंगादिक मसळे, स्नान करे, गृहस्थनी माफक भोगविलास करे, संथारा उत्तरपट्टा उपरांत शय्या पाथरे अने शय्या पण प्रमाणथी मोटी पाथरे, समग्र रात्रि सूई रहे, प्रमादी बनीने निष्कर्म बेसी रहे, वसतिमांथी निकळतां 'आवस्सही' अने प्रवेश करतां 'निसीहि' न कहे, गाममां के वसतिमां पेसतां पग प्रमार्जे नहीं, इर्यासमितिपूर्वक (धूंसरा प्रमाण आगळ दृष्टि राखीने) न चाले, पृथ्वी, अप्, तेउ, वाउ, वनस्पति अने त्रसकाय - ए छकायना जीवनी रक्षा न करे, उपधिनी थोडी पण पडिलेहण न करे, स्वाध्याय न करे, विकाले एटले रात्रिए अथवा अकाले ऊंचे स्वरे स्वाध्याय करे, कलहकंकास करे जेथी अन्यने स्वाध्यायमां अंतराय थाय, गच्छने विषे भेद पडाववामां हुशियार, बे गाउथी विशेष दूर आहार लेवानो निषेध छे छतां जाय, पहेली पोरसीमां लावेलो आहार चोथी पोरसीमां वापरे, अणदीधो आहार ले, सूर्योदय थया अगाउ आहार तेमज उपकरण वहोरे, स्थापनाघरमा रहे नहीं, पासत्यानो संग करे, निरंतर दुष्ट वृत्ति राखे, पूंजवा - प्रमार्जवामां प्रमादी रहे, उतावळो चाले, मूर्ख होय, आचार्यादिकनो पराभव करे - तेमनी आज्ञामां न रहे, पारकानी निंदा करे, कंकास-क्लेश करे, कठोर भाषा बोले, विद्या, मंत्र, तंत्र, चूर्ण तथा चिकित्सा करे, कामण- टूमण करे, चीठी दोरा करे, छोकरा भणावे, निमित्त जोई आपे, आरंभ - परिग्रह करे, कारण विना अवग्रह मांगे, दिवसे पण शयन करे, साध्वीए लावी आपेल आहार करे, ज्यां स्त्री बेटी होय त्यां बे घडी थया अगाउ बेसे, स्थंडिल, मातरुं, बडखो (कफ) तथा श्लेष्म विगेरे जयणा रहित परठवे, संथारा उपधि ऊपर बेठो बेठो क्रिया करे अगर शरीर ढांकी प्रतिक्रमण करे, मार्गमां चालतां जयणा न पाळे, पगरखां पहेरी चाले, वर्षाकाळमां पण विहार करे, एक ज गाममां वारंवार चोमासा करे, पोताना या पारका पक्ष पर ममत्व राखे, -आ बधा लक्षणो पासत्थाना छे. आवा प्रकारनी नवकल्पीनी तेमज गीतार्थनी विहारमर्यादाने जे आचार्य पालतो नथी ते केवळ वेषधारी साधु ज छे. जेम चावीने नाखी दीधेल शेलडी नि:सत्त्व बनी जाय छे तेम आवा आचार्य संयमभ्रष्ट होवाथी नि:सार छे. हजु पण तेवा आचार्यना विशेष लक्षणो दर्शावतां कहे छे के— कुलगामनगररज्जं, पयहिब जो तेसु कुणइ हु ममत्तं । सो नवरि लिंगधारी, संजमजोएण निस्सारो ॥ २४ ॥ [कुलग्रामनगरराज्यं, प्रहाय यस्तेषु करोति हु ममत्वम् । स नवरि लिङ्गधारी, संयमयोगेन निस्सारः ॥ २४ ॥] गाथार्थ-जे कुळ (घर), गाम, नगर अने राज्यसाह्यबी त्यजी दईने पुनः तेने विषे ज श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १२४ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्वभाव धरावे-'ते सर्व मारां ज छे' एम माने तो ते आचार्य संयमयोगवडे नि:सार - शून्य छे; मात्र साधुवेषने ज धारण करनार छे. विवेचन- कुळ एटले घर, रहेवानुं स्थान, जेमां कर आपवो पडे अथवा बुद्धिने हीन करे ते गाम, जेमा अढार प्रकारे कर न लेवाय ते नगर, जेमां राजा रहे तेमज ज्यां सप्तांग होय ते राज्य कहेवाय. आ उपरांत टीकाकार बीजा पण जणावे छे के-धूळना किल्लावाळू ते खेटक, खोटुं नगर ते कर्बट, जेनी चारे बाजु अढी गाउ सुधीमां बीजं गाम न होय ते मडंब (कृत्रिम), जळमां थईने जे स्थळे जवातुं होय ते जळपत्तन (द्वीप), स्थळमां थईने मार्ग जतो होय ते स्थल पत्तन, लोढा प्रमुख धातुओनी ज्यां खाण होय ते आकर, जेमां स्थान तेमज जळमार्गे जवाय ते द्रोणमुख, ज्यां विशेष वणिक वसता होय ते निगम, आ सर्वनो त्याग करीने साधु थया बाद तेना विषे ममत्वभाव-आसक्ति राखे तो तेवा आचार्यने पण द्रव्यलिंगी ज जाणवा. हवे सारा आचार्यना लक्षणो दर्शावतां कहे छे के विहिणा जो उ चोएड, सुत्तं अत्थं च गाहई । सो धन्नो सो अ पुण्णो अ, स बंधू मुक्खदायगो ॥२५ ।। [विधिना यस्तु चोदयति, सूत्रमर्थं च ग्राहयति । स च धन्य: स च पुण्य एव, स बंधुर्मोक्षदायकः ॥२५॥] गाथार्थ - जे आचार्य शिष्यसमूहने करवालायक सारणा वारणादिकमां प्रेरणा करे छे तेमज सूत्र ने अर्थ भणावे छे ते ज आचार्य धन्य, पवित्र, बंधु समान अने मुक्तिदायक छे. विवेचन- सूत्रोक्त विधिवडे शिष्यादिकने प्रेरणा करवी. ते विधि कई ? ते माटे कहे छे के–“धम्ममइएहि अइसुंदरेहिं कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो अमणं, सीसं चोएइ आयरिओ ॥१॥" धर्मबुद्धिथी मिष्ट भाषावडे शिष्यादिकना मनने हर्ष उपजावीने प्रेरणा करे-शुद्ध धर्मक्रिया करवा कहे. सूत्र भणवानी विधि व्यवहारसूत्रना उद्देशामां आ प्रमाणे जणावी छे–“णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुडगस्स वा खुड्डियाए अवंजणजायस्स आयारपकप्पे णामं अज्झयणे उद्दिसित्तए १, कप्पति णिग्गथाणं वा णिग्गंथीण वा खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा वंजणजायस्य आयारपकप्पे नाम अज्झयणे उद्दिसित्तए २... वीसवासपरियाए समणे निग्गंथे सव्वसुआणुवादी भक्तीत्यादि ॥ जेने मूंछ, दाढी के काखमां रोम नथी तेवा लघु शिष्यने तेमज जेने स्तन उपस्या नथी तेवी लघु साध्वीने आचारांग सूत्र न भणाववं. जेने त्रण वर्षनो दीक्षापर्याय थयो होय तेवा सुयोग्य शिष्यने आचारांग भणावq. चार वर्षनी दीक्षावाळाने सुयगडांग, पांच वर्षवाळाने दशाकल्प अने व्यवहारसूत्र, आठ वर्षवाळाने स्थानांग अने समवायांग, दश वर्षवाळाने भगवती, अगियार वर्षवाळाने खुड्डियाविमानप्रविभक्ति, महल्लियाविमानप्रविभक्ति, अंगचूलिया, वंगचूलिया अने विवाहचूलिया, बार वर्षवाळाने अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात अने वेलंधरोपपात, तेर वर्षवाळाने उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१२५ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेंद्रोपपात, नागपरियावलिका, चाँद वर्षवाळाने महासुमिणभावना, पंदर वर्षवाळाने चारणभावना, सोळ वर्षावाळाने आशीविषभावना, सत्तर वर्षवाळाने दृष्टिविषभावना, ओगणीश वर्षवाळाने दृष्टिवाद अंग अने वीस वर्षना चारित्रपर्यायवाळाने सर्व सूत्र भणाववुं. आ तो सूत्र भाववानो समय कह्यो परंतु ते संबंधी उपधान- जोगनी जे विधि कहेली छे ते प्रमाणे योग वहन करावीने सूत्र भणाववुं. आ प्रमाणे सूत्राभ्यास कराव्या पछी अनुक्रमे निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णी, संग्रहणीवृत्ति अने टिप्पनिका-ए पंचांगी प्रमाणे अर्थ भणावे, परंतु पोतानी मतिकल्पनाथी न भणावे. जे पंचांगीने न माने ते मिथ्या दृष्टि गणाय. श्रीभगवतीजीना पचीशमां शतकना त्रीजा उद्देशामां कह्यं छे के - 'सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ । तइओ अ निरवसेसो, एस विहौ होइ अणुओगे ॥१ ॥ ' प्रथम सूत्रनो अर्थ वंचावे, बीजो नियुक्ति युक्त वंचावे अने त्रीजो वाकीना एटले भाष्य, चूर्णी अने टीका सहित भणावे. वळी श्रीनंदिसूत्र तेमज आवश्यकनिर्युक्तिमां जणावेल विधि प्रमाणे भणावे. आवा जे आचार्य होय ते ज धन्य, पुन्यवंत- पवित्र, कुमतिनुं निवारण करी सुमतिमा जोडनार बंधु तेमज शिवसुखना कारणभूत ज्ञान, दर्शन अने चारित्र अने चारित्रनी प्राप्ति करावनार होवाथी मोक्षदाता पण छे. हजु पण लक्षण-गुण संबंधी विशेष वर्णन करतां जणावे छे के स एव भव्वसत्ताणं, चक्खूभूए विआहिए । दंसेइ जो जिणुद्दिनं, अणुट्ठिणं जहद्विअं ॥ २६ ॥ [ स एव भव्यसत्त्वानां, चक्षुर्भूतो व्याहतः । दर्शयति यो जिनोद्दिष्ट - मनुष्ठानं यथास्थितम् ।। २६ ।।] गाथार्थ - श्रीजिनेश्वर परमात्माए प्रकाशित रत्नत्रयी अनुष्ठान यथास्थित दर्शावे छे ते ज आचार्य भव्य प्राणिओने चक्षु समान कहेल छे. विवेचन - नेत्रहीन ने सर्व विश्व अंधकारमय भासे छे, तेने सत्पथ सूझतो नथी. सर्व कार्योमां सर्वप्रथम नेत्रनी ज जरूर पडे छे एटले बधी इंद्रियोमां तेने अग्रस्थान मळ्युं छे. सुआचार्य तीर्थंकर परमात्माना सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररूपी रत्नत्रयीना दर्शावनारा होवाथी तेमने चक्षुनी उपमा आपी छे. हवे नीचेना श्लोकमां बे पादवडे गुणी आचार्यने तीर्थंकर सदृश अने बाकीना बे पादमां आज्ञाभंगी आचार्यने नीच पुरुष-कापुरुष सदृश दर्शावे छे तित्थयरसमो सूरी, सम्मं जो जिणमयं पयासेइ । आणं अइक्कमंतो सो, काउरिसो न सप्पुरिसो ॥२७॥ [ तीर्थंकरसमः सूरिः, सम्यग् यो जिनमतं प्रकाशयति । आज्ञामतिक्रामन् स, कापुरुषः न सत्पुरुषः ॥ २७ ॥ ] गाथार्थ - जे आचार्य जिनेश्वर मत अनेकांत दर्शन प्रकाशे छे ते तीर्थंकर समान छे अने जे (जमालीनी माफक) परमात्मानी आज्ञानुं उल्लंघन करे छे ते अधम पुरुषनी गणनामां आवे छे. विवेचन- गुणो युक्त आचार्यने तीर्थंकर सदृश शा माटे कह्या ? तीर्थंकर परमात्माने तो चोत्रीश श्रीगच्छाचार-पयन्ना— १२६ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय होय छे. तेमनी अतुल ऋद्धिनी कोई कल्पना पण थई शकती नथी तो आचार्यने तेमनी उपमा कई रीते आपी शकाय ? आवी शंका करनारने शास्त्रकार कहे छे के जेम तीर्थंकर अर्थ प्रकाशे तेम ज आचार्य अर्थ कहे छे, वळी केवळज्ञान प्राप्त थया पछी जेम तीर्थंकर गोचरीए जता नथी तेम आचार्य पण भिक्षार्थे जता नथी इत्यादि अनेक प्रकारोनी साम्यताथी आचार्यने तीर्थंकर तुल्य कही शकाय. श्रीमहानिशीथ सूत्रना पांचमा अध्ययनमां भावाचार्यने तीर्थंकर सदृश का छे - " से भयवं ! किं तित्थयरसंतिअं आणं नाइक्कमिज्जा, उदाहुआयरियसंतिअं ? गोयमा ! चव्विहा आयरिया भवंति, तं० - नामायरिया ठवणायरिया दव्वायरिया भावायरिया, तत्थ णं जे ते भावायरिया ते तित्थयरसमा चेव दट्ठव्वा, तेसिं संतिअं आणं नाइक्कमेज्ज" त्ति. हे भगवन् ! तीर्थंकर संबंधी आज्ञा न उल्लंघवी के आचार्य संबंधी ? हे गौतम! नामाचार्य, स्थापनाचार्य, द्रव्याचार्य अने भावाचार्य एम चार प्रकारना आचार्य कह्या छे ते पंकी भावाचार्य तीर्थंकर सदृश होई तेमनी आज्ञानुं कदापि उल्लंघन न करवुं; कारण के तेवा आचार्य सात नय, चार निक्षेप, उत्सर्ग अने अपवादमार्गना ज्ञाता तथा निश्चय अने व्यवहारना जाण होय छे. सावद्याचार्यनी कथा जे तीर्थंकरनी आज्ञानुं उल्लंघन करे ते आ लोकमां तो अधम पुरुष कहेवाय छे अने परलोकमां पण दुःखदायक स्थिति भोगववा उपरांत तेने अनंत संसारमा परिभ्रमण करवुं पडे छे. आ संबंधमां महानिशीथना पांचमा अध्ययनमां सावद्याचार्यनुं वृत्तांत जणावेल छे, ते आ प्रमाणे - गौतमस्वामी श्रीमहावीर परमात्माने पूछे छे के–'हे भगवंत ! सावद्याचार्य संसारमा अनंता काळ सुधी शा माटे भम्यो ?' परमात्मा तेनो वृत्तांत जणावतां कहे छे के 'हे गौतम! श्रीऋषभदेवथी प्रारंभी जे वर्तमान चोवीशी छेतेनी पूर्व अनंती चोवीशीओ थई गयेल छे. तेवी कोई अनंतमी चोवीशीमा धर्मश्री नामना चोवीशमां तीर्थंकर बराबर मारा जेवा थया. तेमना तीर्थमां सात आश्चर्यो थया, तेमां असंयतिनी पूजा पण एक आश्चर्य थयुं. असंयतिओ श्रावकोने उपदेश आपी, द्रव्यव्यय करावी जिनचैत्य करावे अने पछी तेमां पोते वसवाट करे. साधुओए जिनचैत्यमां वास करवो उचित नथी, कारण के तेथी महाआशातना थाय. व्यवहार तथा कल्पभाष्यमा जणाव्युं छे के - साधुओए उत्कृष्ट चैत्यवंदन करवा जेटलो समय ज चैत्यमां गाळवो, तेथी विशेष समय रोकावुं नहीं. तेमना समयमां घणा असंयतिओ चैत्यवासी बनी गया. आ बाजु ग्रामानुग्राम विहार करतां करतां घणा शिष्योना परिवारयुक्त कुवलयप्रभ नामना उग्र विहारी अने तपस्वी आचार्य त्यां आवी चढ्या, एटले चैत्यवासीओए तेमने वंदन करीने विज्ञप्ति करी के-'आप अहीं चातुर्मास करो, तेथी अतीव उपकार थशे. तमारा उपदेशथी घणा नूतन चैत्यो बंधाशे.' आचार्य कह्यं के 'आ सावद्य कार्य छे. तेमां हुं वचन मात्रथी पण संमति न आपुं तो उपदेश देवानी वात ज शी करवी ?' हे गौतम! आप्रमाणे कहेवाथी ते कुवलयप्रभाचार्ये तीर्थंकरनामकर्म उपार्जन कर्यु, अने एक भव जेटलो ज तेमनो संसार शेष रह्यो. बधा चैत्यवासीओए आ कथन सांभळीने ते आचार्यनुं नाम “सावद्याचार्य” राख्युं. श्रागच्छाचार- पयन्ना- १२७ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावद्याचार्यने तेथी लेश मात्र पण द्वेष न थयो अने त्यांथी विहार करी गया. एकदा ते वेशधारी चैत्यवासीओमां सूत्रार्थ संबंधमां परस्पर विवाद उद्भव्यो. एटले एके कह्यं -'श्रावक न होय तो साधु चैत्यनी संभाळ राखे, समरावे तेमज चैत्यमां कांई करवा योग्य होय ते करवामां तेने दोष नथी.' बीजाए कह्यं——आ प्रमाणे करवाथी मोक्षप्राप्ति नथी. शुद्ध संयमना आराधनथी ज मोक्ष मळे छे.' त्रीजाए कहाँ–‘पूजा, सत्कार, बलिविधान अने वैद्यादि चिकित्सा करीने चैत्यनी उपज वधारवी अने तेथी ज मोक्षप्राप्ति थशे.' आ प्रमाणे विवादनो अंत न आव्यो त्यारे सर्वेए नक्की कर्यं के-आप सावद्याचार्यने बोलाववा अने तेओ जे कहे ते प्रमाण मानवुं. सावद्याचार्य ते समये दूर देशमा हता छतां तेओना आग्रहथी सात मास पर्यंत उग्र विहार करीने त्यां आवी पहोंच्या. चैत्यवासीओ सामे गया अने बहुमानपूर्वक वंदन कर्यु. ए समये एक साध्वीए पण प्रदक्षिणा आपीने सावद्याचार्यने वंदन कर्यं तेवामां तेनुं मस्तक तेमने अडी गयुं. चैत्यवासीओए आ संघट्टानो दोष नजरे निहाळ्यो. 1 एकदा चैत्यवासीओनी पर्षदामां सूत्रार्थ करतां ते सावद्याचार्ये महानिशीथना पांचमा अध्ययननी आ – “जत्थित्थीकरफरसिं, अंतरियं कारणे वि उप्पन्ने । अरिहा वि करिज्ज सयं, तं गच्छं मूलगुणमुक्कं ॥ १ ॥” गाथानी व्याख्या करतां पूर्वे विचार्य के मने वंदन करतां साध्वीनो घट्ट थयो छे अने ते आ सर्व चैत्यवासीओए नजरे निहाळ्यो छे. आ गाथानो जेवो अर्थ छे तेवो ज अर्थ कहीश तो पूर्वे तो मने सावद्याचार्यनुं उपनाम आप्युं छे पण हवे तो बीजुं ज कंई उपनाम आपशे. जो जेवो छे तेवो अर्थ कहीश नहीं तो अरिहंतपरमात्मानी आज्ञाभंगनो दोष लागशे, तो हवे मारे शुं करवुं ? छेवटे तेणे निर्णय कर्यो के-जे थवानुं होय ते थाय पण खोटो अर्थ तो न ज करवो. बाद तेणे अर्थ करतां कह्यं के— 'महाकारण आवी पड्ये छते पण जे गच्छमां साधु स्त्रीना हस्तनो स्पर्श करे छे ते गच्छ मूलगुण रहित (भ्रष्ट) जाणवो.' आ कथन सांभळी चैत्यवासीओए कह्यं के-'हे आचार्य ! तोतो पण मूलगुण रहित ज छो, कारण के साध्वीए तमने वंदन करतां तेनो स्पर्श थई गयो छे.' आ सांभळी सावद्याचार्ये विचार्य के हवे शुं उत्तर आपवो ? आचार्यपणामांत्रण योग त्रण करणवडे कोई पण पापस्थानक सेववुं घटे नहीं आ प्रमाणे तेमने विचारमां पडेला जोईने चैत्यवासीओए कह्यं के—- ' केम बोलता नथी ? शुं विचारमां पडी गया छो ?' त्यारे सावद्याचार्ये मनमां विचारीने कह्यं के— ' अयोग्यने सूत्रार्थ न समजाववो. आमे घडे निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ । इअ सिद्धून्तरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥ १ ॥ जेम काचा घडामां नाखेलुं जळ घडानो ज विनाश करे छे तेम अल्पबुद्धिवाळा प्राणीने कहेल सूत्रार्थ तेनो ज नाश करे छे अर्थात् जड प्राणियोने सूत्रार्थ न समजाववो.' आ सांभळीने चैत्यवासीओए कह्यं के—'आवुं अव्यवस्थित ने समज विनानुं शुं बोलो छे? सत्य हकीकत कहो, नहीं तो अहींथी चाल्या जाओ.' पोतानो आ प्रमाणे अपयशवाद थतो जाणीने सावद्याचार्ये अनंतसंसारना हेतुभूत वचन उचार्यं के—' एगंतं मिच्छत्तं, जिणाण आणा अणेगत्तम् । उत्सर्ग अने अपवाद एम बे प्रकारनो जिनागम कह्यो छे. एकांतवादमां मिथ्यात्व छे, जिनेश्वरनो आदेश तो अनेकांत छे माटे एकांत आग्रह न करवो.' सावद्याचार्यना आ कथनथी चैत्यवासीओए मान्युं के-खरेखर एम ज हशे. अनेकांत धर्मवाळा जिनागममां साध्वीश्रीगच्छाचार - पयन्ना— १२८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघट्टाने माटे एकांत निषेध नहीं होय. तेओए सावधाचार्यनी आगमज्ञाता तरीके घणी ज प्रशंसा पण करी परंतु आचार्ये तो एक मिथ्या वचन कहेवाथी अनंतसंसार-परिभ्रमण वृद्धि पमाड्यु. तीर्थंकरनामकर्मने उपार्जन करनार आचार्य एक मात्र उत्सूत्र-प्ररूपणाथी अनंतसंसार भमे छे, अहो ! उत्सूत्रीयतानी भयंकरता केवी ? बाद ते दोषने आलोच्या विना मृत्यु पामवाथी सावधाचार्य मरीने व्यंतर निकायमां उपज्या. त्यांथी च्यवीने वासुदेवना पुरोहितनी विधवा पुत्रीनी कुक्षिमां उपज्या. कलंकना भयथी पुरोहिते पुत्रीने घरमांथी काढी मूकी. कोई पण स्थळे तेने आश्रय न मळ्यो एटले तेणी कल्पपाल (मद्य-मांस वेचनार) ना घरे दासी तरीके रही. त्यां तेने गर्भ-प्रभावथी मद्य, मांस मदिरा पीवानो दोहलो उपज्यो. मद्य-पान पीनारा घणा लोकोना एठवाडमां आवतां मद्य-मांस ते खावा लागी छतां तेनी तृप्ति न थई एटले शेठना घरमांथी वासण तथा वस्त्र चोरी-चोरीने तेना द्रव्यद्वारा मांसभोजन करवा लागी. आ वातनी तेना मालिकने खबर पडतां तेणे राजाने फरियाद करी. राजाए तेने गर्भवती जाणीने चांडालने सोंपी अने का के - ‘प्रसव थया बाद तेने मारी नाखजे.' चांडाल लोकोनी पण ए मर्यादा छे के -गर्भवती स्त्रीने मारवी. नहीं. पुरोहितनी पुत्री पण पुत्रने जन्म आपीने त्यांथी शीघ्र नाशी गई. राजाए चांडालने पांचसो द्रव्य आपीने पुत्रने उछेराव्यो. कालक्रमे ते चांडाल मृत्यु पामतां आ बाळकने तेना स्थान पर नियुक्त को. आ प्रमाणे चांडालनो बीजो भव थयो. (२) त्यांथी मृत्यु पामीने त्रीश सागरोपमना आयुष्यथी सातमी नारकमां उपज्यो. (३) त्यांथी निकळी अंतीपमां ‘एकोरुक' जातिमां उपज्यो. (४) त्यांथी मृत्यु पामी पाडो थयो. (५) त्यांथी छव्वीस वर्षनो थया बाद मरण पामी मनुष्य थयो. (६) त्यांथी मरी वासुदेव थयो. (७) मरीने सातमी नरके गयो. (८) त्यांथी निकळी मांसाहारी गजकर्ण मनष्य थयो. (९) त्यांथी सातमी नारकना प्रतिष्ठान नामना नरकावासमां उपज्यो. (१०) त्यांथी मरी पाडो थयो. (११) त्यांथी बालविधवा बंधकी' नामनी ब्राह्मणीनी कुक्षिमां उपज्यो. त्यां गर्भ पाडवा माटे अनेक औषधोपचार करवाथी अनेक रोगोथी व्याप्त अने कोढियो थयो. शरीरमां कीडा पडी गया. आ प्रमाणे महादुःखी थई, सातसो वर्ष, बे महिना अने चार दिवसनुं आयु भोगवी मृत्यु पाम्यो. (१२) त्यांथी व्यंतरदेव थयो. (१३) त्यांथी चांडालनो स्वामी मनुष्य थयो. (१४) बाद सातमी नरके गयो. (१५) त्यांथी भाडं करवावाळाने घरे बळद थयो. (१६) गाडानो भार वहन करावतां तेनी कांध सडी गई तेथी मालिके तेने काढी मूक्यो. कागडा तेने चुंटवा लाग्या, कीडाओ खावा लाग्या अने कूतराओ बचका भरवा लाग्या. आवी दु:खद स्थितिमां ओगणत्रीश वर्ष- आयु पूरुं करीने एक श्रेष्ठीने घरे महारोगी पुत्र तरीके जन्म्यो. (१७) त्यां अतिशय झाडा अने उलटी आदिना दुःखने भोगवतां मनुष्य भव पूरो को. आ प्रमाणे चौद राजलोकमां अनंतो काळ परिभ्रमण कर्या बाद पश्चिम महाविदेह क्षेत्रमा मनुष्य तरीके उपज्यो. त्यां लोकोनी देखादेखीथी तीर्थंकरपरमात्माने वांदवा गयो. प्रतिबोध पामी चारित्र स्वीकार्यु अने चालु चोवीशीना श्रीपार्श्वनाथ तीर्थंकरना समयमां ते सिद्ध थया.' आ हकीकत सांभळी गौतमस्वामीए भगवंत महावीरने प्रश्न कों के–'हे स्वामिन् ! शामाटे सावधाचार्ये आटलुंबधुं दुःख भोगव्यु ?” “हे गौतम ! तेणे उत्सर्ग अने अपवादथी आगममार्ग छे एम का तेथी. जो के सिद्धांतमां अपवाद अने उत्सर्गमार्ग अनेकांत श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१२९ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूपे कहेल छे छतां पण (१) सचित्त जळ, (२) अग्निकायनो परिभोग तथा (३) मैथुनसेवननो तो एकांत निषेध ज छे. आ आज्ञाना भंगथी अनंत संसारी थयो.” “हे भगवंत ! शुं सावद्याचार्ये मैथुन सेव्यु हतुं ?” “हे गौतम ! तेणे मैथुन सेव्यु नथी परंतु साध्वीनो संघट्टो थयो त्यारे तेणे पोतानो पग खेंची लीधो नहीं, जेम हतो तेम ज राख्यो त्यारे तेथी ते सेव्या सदृश ज गणाय.” “हे भगवंत ! सावधाचार्ये तो तीर्थंकरनामकर्म उपायुं हतुं अने एक ज भव बाकी हतो तो शा माटे आटलो अनंत संसार भम्यो?” “हे गौतम ! पोताना प्रमादथी, का छे के–चोद्दसपुव्वी आहारगा वि, मणनाणिवीयरागा य । हुंति पमायपरवसा, तयणंतरमेव चउगइआ ॥१॥ चौदपूर्वी, आहारक शरीरधारी, चार ज्ञानना धणी अने वीतराग एटले उपशांतकषायी पण प्रमादना परवशपणाथी चार गतिमां भम्या छे माटे आचार्ये तो सदा अप्रमत्तपणे ज रहे." वळी श्रीभगवतीसूत्रना अढारमा शतकना सातमा उद्देशामां मड्डआ श्रावकने उद्देशीने का छे के– “जे णं मड्डआ ! अटुं वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा अन्नायं वा अदिटुं वा अस्सुयं पा अपरिन्नायं वा बहुजणमझे आघवेइ पण्णवेइ परुवेइदंसेइ निदंसेइ, उवदंसेइ, सेणं अरिहंताणं आसायणाएवट्टइ, अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वट्टइ, केवलीणं आसायणाए वट्टइ केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वट्टइ केवलीणं आसायणाए वट्टइ केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वट्टइ। हे महुआ श्रावक ! जे कोई अर्थ, हेतु, प्रश्न तथा एकवचन जाण्या विना, जोया विना, सांभळ्या विना, तेना संपूर्ण ज्ञान विना बहु लोकोनी मध्यमां कहे, प्रकर्षपणे जणावे, प्ररुपे, 'आ अर्थ आम ज छे' तेम देखाडे साक्षात् देखाडे ते अरिहंतनी, अरिहंतप्ररुपित धर्मनी, केवळीनी अने केवळीप्ररुपित धर्मनी आशातना करे छे." वळी श्रीनंदिसूत्रमा का छे के–“इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं तीए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिसु १। इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पन्नकाले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरिअटुंति २ । इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरतं संसारकतारं अणुपरियट्टिस्संति ३ । इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं तीए काले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीइवइंसु ४। इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पन्नकाले परित्ता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीइवइंति५ । इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीइवइस्संति ६ ॥" द्वादशांगीना भणनार छतां पण आज्ञाना विराधक थवाथी अनंत संसारमा भम्या १, वर्तमानकाळमां पण आज्ञा-विराधक चार गतिमां भमे छे. वर्तमान काळमां संख्याता ज होय माटे मूळमां परित्ता शब्द कह्यो छे २, भविष्यकाळमां भमशे ए बीजो भेद छे ३, आज्ञापूर्वक बार अंगनुं अध्ययन करतां केटलाय भव्य जीवो मोक्षे गया ४, वर्तमानकाळमां पण संख्याता जीव आणाने आराधीने मोक्षे जाय छे ५ अने भविष्यकाळमां पण अनंता जीवो मोक्षे जशे. ६.” अरिहंतनी आज्ञा विराधवामां केटलुं भयंकर जोखम रहेलुं छे तेनो आ श्लोकद्वारा विचार श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१३० Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करी मोक्षाभिलाषी आचार्य, उपाध्याय तेमज प्रवर्तके आगमनो अर्थ यथार्थ जणाववो पण पोतानी मतिकल्पनानो उपयोग न करवो. केवा आचार्य भगवंतनी आज्ञानुं उल्लंघन करे ते जणावे छेभट्ठायारो सूरी १, भट्ठायाराणुविक्खओ सूरी २ । उम्मग्गठिओ सूरी ३, तिन्नि वि मग्गं पणासंति ॥ २८ ॥ [ भ्रष्टाचारः सूरिर्भष्टाचारापेक्षकः सूरिः । उन्मार्गस्थितः सूरिस्त्रयोऽपि मार्गं प्रणाशयन्ति ॥ २८ ॥] गाथार्थ - ज्ञानाचारादिक आचार जेना शिथिल थई गया छे ते भ्रष्टाचारी अधमाचार्य, आचारभ्रष्ट थयेला साधु-साध्वीओनी उपेक्षा करनार मंदाचार्य तेमज उन्मार्गमां रहेल - उत्सूत्र प्ररूपनार अधमाधम आचार्य आ त्रणे प्रकारना आचार्य मोक्षमार्गनो विनाश करनारा छे. विवेचन - जेना नायकमा ज शिथिलपणुं होय तेना आश्रित जनोमां स्वाभाविक रीते ज मंदता आवी जाय छे. आपणामां कहेवत प्रचलित छे के - “ जेनो नायक आंधळो तेनुं कटक कूवामां " एटले के गच्छना अग्रणीए तो ज्ञानाचारादिक आचारोमां सतत प्रयत्नशील ज रहेवुं जोईए. तेमने क्रियावंत जोईने कंईक मंद पडेला साधु-साध्वीओ पण फरीथी स्वधर्ममां स्थिर थई जाय छे. आ गाथाना अर्थमां आपणने त्रण प्रकारना आचार्य जणाव्या. हवे तेने सेवनारनी शी स्थिति थाय ते जणावतां कहे छे के— उम्मग्गठिए सम्मग्ग-नासए जो उ सेवए सूरी । निअमेणं सो गोअम !, अप्पं पाडेइ संसारे ॥ २९ ।। [उन्मार्गस्थितान् सन्मार्ग-नाशकान् यस्तु सेवते सूरीन् । नियमेन स गौतम !, आत्मानं पातयति संसारे ॥ २९ ॥] गाथार्थ - उन्मार्गगामी अने सद्मार्गनो नाश करनार आचार्यने जे सेवे छे तेमना कहेल अनुष्ठानोने जे करे छे ते हे गौतम! पोताने आ संसारसागरमां रझळावे छे. विवेचन - सन्मार्गना लोपक आचार्य पासेथी आत्मकल्याणनी कई वात संभळाय ? ते पोते तो पतित थयेला ज छे अने पोतानी उपासना करनारा, पासे रहेनाराओने पण पतित बनावे छे, माटे पत्थरना जहाज तुल्य तेओ स्वयं संसारसागरमां डूबे छे अने अन्यने पण डुबावे छे. ऊपरनी ज हकीकतनुं दृष्टांतद्वारा समर्थन करतां कहे छे के— उम्मग्गठिओ एक्को वि, नासए भव्वसत्तसंघाए । तं मग्गमणुसरंतं, जह कुत्तारो नरो होइ ॥ ३० ॥ [ उन्मार्गस्थित एकोऽपि नाशयति भव्यसत्त्वसङ्घातान् । तन्मार्गमनुसरन्तः, यथा कुतारो नरो भवति ॥ ३० ॥] गाथार्थ - जेम नबळो तरवावाळो पोताने तेमज पोताना आश्रित बनेला जनोने नदी विगेरे श्रीगच्छाचार - पयन्ना — १३१ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जळाशयमांडूबाडे छे तेमकुमत-कदाग्रहथी भरपूर आचार्य पोताने अनुसरनारा भव्य प्राणिओने संसारसागरमां रझळावे छे. विवेचन- जे पूरेपूरुं तरवार्नु जाणतो न होय ते पोतानी पाछळ लागेला प्राणिओनो विनाश करे छे तेम उत्सूत्र भाषण करनार, कदाग्रही आचार्य पोताना आश्रित साधुओने तेमज भक्तवर्ग श्रावकजनोने अनंता भवोमां रझळाववाना हेतुभूत थवाथी खरेखर तेना विनाशभूत थाय छे. उन्मार्गे गमन करनार, शुं अहित थाय छे? ते दर्शावतां कहे छे उम्मग्गमग्गसंपढिआण, साहूण गोअमा! नूणम् । संसारो अ अणंतो, होइ य संमग्गनासीणं ॥३१ ।। [उन्मार्गमार्गसम्प्रस्थितानां, साधूनां गौतम ! नूनम् । संसास्थानन्तो, भवति सन्मार्गनाशिनाम् ॥३१॥] गाथार्थ-उन्मार्गेवर्तनारा अनेसन्मार्गनो नाशकरनारासाधुओने हे गौतम!जरूर संसारमा अनंती वार परिभ्रमण करवू पडे छे. विवेचन- गोशालाए प्ररुपेलो मत, दिगंबरोए प्रवर्तावेल मत ए उन्मार्ग कहेवाय. तेवा उन्मार्गे चालनारा निह्नवोनो संसारमा भमतां भमतां पण पार आवे नहीं. एकला परिभ्रमण मात्रथी ज बस नहीं, परंतु अनेक प्रकारनां दुःखो-कष्टो सहन करवा पडे. शुद्धमार्गना छेदनारा साधुओ पण अनंतसंसारी थाय छे. आ संबंधमां श्रीमहानिशीथसूत्रमा कहेल मुनिचंद्र मुनिनुं वृत्तांत जाणवा योग्य छे. भगवंत श्रीमहावीर गौतमस्वामीने उद्देशीने कहे छे के–'हे गौतम ! आवा साधु आचार्यो मात्र लिंगधारी-साधुवेशने धारण करनारा ज जाणवा.' कदाच कोई प्रमादपणाथी जिनेश्वरभाषित क्रिया न आचरी शके परंतु जो भव्यजनोने यथार्थ जिनमार्ग दर्शावे तो ते पोताने क्या मार्गमां स्थापे ? ते जणावतां कहे छे के सुद्धं सुसाहुमग्गं, कहमाणो ठवइ तइअपक्खम्मि । अप्पाणं इयरो पुण, गिहत्यधम्माउ चुक्क त्ति ॥३२॥ [शुद्धं सुसाधुमार्ग, कथयन् स्थापयति तृतीयपक्षे । आत्मानमितरः पुनो, गृहस्थधमोद् भ्रष्ट इति ॥३२॥] गाथार्थ- शुद्ध साधुमार्गनी प्ररूपणा करनार पोताना आत्माने संविज्ञपाक्षिक नामना त्रीजा (साधु अने श्रावकनी अपेक्षाए) पक्षमा स्थापे छे अने तेथी विपरीत - उत्सूत्रभाषक गृहस्थ अने साधु उभय धर्मथी भ्रष्ट थाय छे. विवेचन- एक साधु धर्म, बीजो गृहस्थ धर्म अने त्रीजो संविज्ञपाक्षिकनो धर्म छे. पोते शरीरनी अशक्तिथी अथवा प्रमादशीलताथी शुद्ध अनुष्ठान, आचरण न करी शकता होय परंतु ते प्रत्येना अंतरंग भावथी शुद्ध धर्मनी प्ररूपणा करता होय तो तेने त्रीजा पक्षमां गणवो. तेथी विपरीत प्ररूपणा श्रीगच्छाचार–पयन्ना-१३२ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनार पासत्थो जाणवो. प्रसंगवशात् त्रणे पक्षनुं वर्णन करतां कहे छे के–“सुज्झइ जई सुचरणो, सुज्झइ सुस्सावओ वि गुणकलिओ । ओसन्नचरणकरणो, सुज्झइ संविग्गपक्खरुई ॥१॥ संविग्गपक्खियाणं, लक्खणमेयं समासओ भणियं । ओसन्नचरणकरणा वि, जेण कम्म विसोहंति ॥२ ।। सुद्धं सुसाहुधम्मं, कहेइ निदइय निययमायारम् । सुतवस्सियाण पुरओ, होइ य सव्वोमराइणिओ ॥३॥ वंदइ न य वंदावइ किइकम्मं कुणइ कारवे नेव । अत्तट्ठा न वि दिक्खइ, देइ सुसाहूण बोहेउं ॥४॥ओसण्णो अत्तट्ठा, परमप्पाणं च हणइ दिक्खंतो। तं छुहइ दुग्गईए, अहिययरं बुड्डुइ सयं च ।।५ ।। सावज्जजोगपरिवज्जणाउ सव्वुत्तमोजई धम्मो । बीओ सावगधम्मो, तइओ संविग्गपक्खमहो ॥६॥ सेसा मिच्छट्ठिी, गिहिलिंगकुलिंगदव्वलिंगेहिं । जह तिन्नि उ मुक्खपहा, संसारपहा तहा तिन्नि ॥७॥" शुद्ध चारित्रनो धारक साधु, गुणवान् श्रावक अने कर्मना उदयथी चरणसित्तरी के करणसित्तरी पाळवामां शिथिल थयेल परंतु श्रद्धायुक्त शुद्ध प्ररूपणा करनार संविज्ञपाक्षिक शोभे छे. (१) संविज्ञापाक्षिक लक्षण संक्षेपथी आ प्रमाणे का छे के–जे चरण अने करणसित्तरीथी पतित थवा छतां शुद्ध मार्गनो उपदेश करवाथी कर्मक्षय करी रह्या छे.(२) शुद्ध धर्मनो उपदेश आपी पोतानी निंदा करतां कहे के–'हुँ आचरूं छु ते तो मिथ्या मार्ग छे, शुद्ध साधुधर्म माराथी पाळी शकातो नथी.' (३) वळी पोते न वंदावे परंतु शुद्ध साधुने पोते वांदे तेमज स्वउपदेशथी कोई प्रतिबोध पामी दीक्षानो अभिलाषी थाय तो स्वयं दीक्षा न आपे पण शुद्ध साधुओने सोंपे (४) कारण के जो ते पोते पोताना स्वार्थने अंगे अन्यने प्रतिबोध आपी दीक्षा आपे तो ते संविज्ञपाक्षिक तेने संसाररूपी महागर्तामां नाखे छे अने स्वयं पण संसारसागरमां अनेक वार बूडे छे. (५) सर्व पापकारी कार्यना निषेधरूप १ यतिधर्म सौथी उत्तम छे. २ गृहस्थनो धर्म अने ३ संवेगपक्षनो मार्ग ए त्रण मोक्षमार्ग जणावेल छे. (६) आ त्रण मार्गथी विपरीत १ गृहस्थलिंगी, २ चरकादि कुलिंगी अने ३ पासत्थादिक द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि छ, संसारमा परिभ्रमण करावनारा छे. (७) छेल्ला सातमा श्लोकना अर्थ संबंधी शंका करतां पूछे छे के–'गृहस्थलिंगी अने कुलिंगी तो संसारमा भमाडे ते तो ठीक परंतु पासत्थो तो भगवंतनो भेख धारण करनार छे ते केम संसार वधारे?" तेनो जवाब आपतां कहे छे के–“संसारसागरमिणं, परिब्भमंतेहिं सव्वजीवहिं। गहियाणि य मुक्काणि य, अणंतसो दब्बलिंगाइं ॥८॥" संसारसागरमां परिभ्रमण करतां सर्व जीवोए (मनुष्य भव पामेला जीवो, अव्यवहारी जीवो नहीं) अनंती वार द्रव्यलिंगो धारण कर्या अने मूकी पण दीधा; परंतु ज्यां सुधी सम्यक्त्वरूपी जहाज प्राप्त न थयुं त्यां सुधी जीवोनो उद्धार थाय नहीं एटले पासत्थानो मार्ग ए संसारमार्ग छे, मोक्षनो मार्ग नथी. शंका-मोक्षना त्रण अने संसारना त्रण एम छ मार्ग तमे कह्या, परंतु जे प्राणि साधुपणे घणा काळ सुधी विचर्या बाद कर्मना वशवर्तीपणाथी शिथिल थईने पासत्थापणे रहे छे तेने कया पक्षमां गणवा? उत्तर-“सारणचइया जे गच्छनिग्गया य विहरंति पासत्था। जिणवयणबाहिरा विय, ते उपमाणं न कायव्वा ॥९॥" मार्ग, उल्लंघन करीने जे पासत्थापणे विचरे छे ते जिनमार्गथी भ्रष्ट थयेला जाणवा, तेमनुं कोई पण वचन प्रमाणभूत न मानवं. आ संबंधमां दृष्टांत आपतां कहे छे के-किल्लो, मंदिर विगेरे अनेक श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१३३ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 रमणीय स्थानोथी शोभित तुंगिया नगरीमा क्षमावंत, दयावंत, इंद्रियोने जीतनार, पांच समिति तथा त्रण गुप्तिना धारक, अढार हजार शीलांगना धरनार - ब्रह्मचर्य पाळनार, ममता अने कंचन रहित, एकांते रहेनार, मिथ्यात्वग्रंथीने छेदनार, आश्रवनो रोध करनार, पापरूप लेप रहित, शंखनी माफक निरंजन - राग रहित, जीव जेम कोई स्थळे न रोकाय तेम अप्रमत्त विहार करनार - आ प्रमाणे अनेक गुणोवाळा एक साधु मध्याह्नसमये गोचरी अर्थे भ्रमतां भमतां एक श्रावकने घेर गया. मुनिने आवेला जो श्राविका घणो हर्ष पामी अने वहोराववा अर्थे आहार लेवा रसोडामां गई तेवामां नजर करतां द्वार नीचुं जोईने मुनिवर्य आहार ग्रहण कर्या विना ज चाल्या गया. श्राविका बहार आवी जुए छे तो साधु न मळे; तेथी ते घणो ज अफसोस करवा लागी तेवामां एक बीजा साधु आवी चढ्या. तेमने आहार वहोरावीने श्राविकाए तेमने पहेला साधुनो समग्र वृत्तांत कही 'तेमणे न वहोरवानुं अने वहोरवानुं' कारण पूछ्युं. जवाबमां ते बीजा साधुए कह्यं के— 'जगतमा दंभी लोको घणा छे. ते ओ भोळा लोकोने ठगे छे. आ प्रमाणे एक घरे वहोरे अने एक घरे न वहोरे एटले जगतमां जश प्रसरे के 'अमुक साधु तो घणा ज शुद्ध चारित्रपात्र छे,' परंतु हुं तो ढोंगने तिरस्कारुं छं एटले जे स्थळे जेवी गोचरी मळे तेवी ग्रहण करी लउं छु' बीजा मुनिनी आवी वात सांभळी श्राविका घणी दुःखी थई विचारवा लागी के - 'साधु-साधु वच्चे पण संप नथी. एक बीजानी निंदा करे छे.' आ प्रमाणे विचारे छे तेवामां त्रीजा साधु आवी चढ्या. तेमने पण गोचरी वहोरावीने श्राविकाए उपर्युक्त बने साधुओनी हकीकत कही कारण पूछ्युं. जवाबमां त्रीजा मुनिए कहां के - 'हे श्राविका ! तमारा रसोडानुं द्वार नीचुं छे अने प्रकाश आवतो नथी तेथी प्रथम साधुए आहार वहोर्यो नथी, कारण के कह्यं छे के–“नीयदुवारं तमसं, कोट्ठगं परिवज्जए । अचक्खूविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ॥१ ॥” जे घरमां द्वार नीचुं होय, अंधकार होय, कोठार होय ते घरमा साधुए गोचरी माटे न जवुं कारण के तेवा गृहमां आंखथी बराबर देखातुं न होवाथी जीवोनी जयणा थती नथी.' श्राविकाए तेमने पुन: पूछ्धुं के—'तो पछी तमोए शामाटे आहार ग्रहण कर्यो ?' मुनिए उत्तर आप्यो के-'हुं तो मात्र वेशधारी छु, माराथी साध्वाचार पळातो नथी. मारुं जीवितव्य निष्फळ छे. प्रथम मुनिने धन्य छे ! ते मुनिना आचार पाळे छे अने महातपस्वी पण छे.' आ प्रमाणे कहीने ते त्रीजा साधु पण गया. आज दृष्टांत धन्यकुमार चरित्रमां पण आपेल छे परंतु तेमां फेर एटलो ज छे के - ऊपर जे बीजा साधु छे ते त्यां त्रीजा तरीके वर्णव्या छे. आ कथानो उपनय ए छे के प्रथम साधु शुक्लपाक्षिक हंस जेवा छे. हंसनी पांखो बने बाजु श्वेत होय छे तेम शुक्लपाक्षिक साधु बाह्य अने अभ्यंतर निर्मळ होय छे. बीजा साधु कृष्णपाक्षिक कागडा जेवा छे. कागाडानी पांख बने बाजु श्याम होय छे तेम कृष्णपाक्षिक साधु बाह्य अने अभ्यंतर मलिन होय छे. त्रीजा संविज्ञपाक्षिक साधु चक्रवाक पक्षी जेवा होय छे. तेनी पांख ऊपरथी मलिन होय छे पण अंदर श्वेत होय छे तेनी जेम साधु बाह्यथी शुद्धाचारहीन होय छे पण तेनुं अंत:करण निर्मळ होय छे. एटले ज ग्रंथकारे आ गाथाना अर्थमां तेने त्रीजी कोटिमां जणावेल छे. कोईथी शुद्ध चारित्र न पाळी शकाय तो तेणे शुं करवुं ? ते संबंधी श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १३४ - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हकीकत दर्शावतां कहे छे के जइ नवि सक्कं काउं सम्मं जिणभासिअं अणुट्ठाणम् । तो सम्मं भासिज्जा, जह भणिअं खीणरागेहिं ॥३३ ।। [यदि नापि शक्यं कर्तुं सम्यग् जिनभाषितमनुष्ठानम् । तत: सम्यग् भाषते, यथा भणितं क्षीणरागैः ॥३३॥] गाथार्थ – कदाच कोई साधु पोतानी दुर्बळताने अंगे त्रिकरण शुद्धिपूर्वक सर्वज्ञभाषित क्रियाकलापने आचरी न शके तो पण वीतराग परमात्माए जे सत्य कथन कर्यु छे ते प्रमाणे सम्यक् प्रकारे तत्त्व- निरुपण करे. विवेचन-कर्मोदयने कारणे शरीरसंपत्तिना अभावथी पोते चारित्रनुं त्रिकरण शुद्धिपूर्वक पालन न करी शकतो होय छतां पण केवळी भगवंतोए प्ररूपेल तत्त्वस्वरूपने कूडकपट रहित-मायाभाव विना उपदेशे तो पण ते स्वात्मकल्याण साधी शके छे. परंतु पोताथी पालन न थतुं होय तेथी पोतानी मानहानि थवाना भयथी पोताने अनुकूळ ज उपदेश आपे तो अनंतसंसारनी वृद्धि थाय. पोते प्रमादी होय छतां शुद्ध मार्गनो उपदेश आपतो होय तो ते साधुने शुं फलप्राप्ति थाय? ते जणावतां कहे छे के ओसन्नो वि विहारे, कम्मं सोहेइ सुलभबोही य । चरणकरणं विसुद्धं, उववूहितो परूवितो ॥३४ ।। [अवसन्नोऽपि विहारे, कर्म शोधयति सुलभबोधिश्च । चरणकरणं विशुद्धं उपबंहयन् प्ररूपयन् ॥३४॥] गाथार्थ- साधु योग्य क्रियाकलाप करवामां पोते शिथिल होय छतां निर्दोष चरणसित्तरी अने करणसित्तरीनी प्रशंसा करनार तेमज अंशमात्र वांछा रहित तेनी शुद्ध प्ररूपणा करनार ज्ञानावरणीयादि कर्मने पातळा करे छे-क्षय करे छे अर्थात् सुलभबोधि थाय छे. विवेचन-चरणसित्तरी अने करणसित्तरीना भेदोनी क्रमपूर्वक बे गाथा-"वय ५ समणधम्म १० संजम १७, वेयावच्चं १० च बंभगुत्तीओ ९ । णाणाइतियं ३ तव १२ कोह-निग्गहाइ४ य चरणमेयम् ॥१॥ पिंडविसोही ४ समिई ५, भावण १२ पडिमा १२ य इंदियनिरोहो ५ । पडिलेहण २५ गुत्तीओ ३, अभिम्गहा४ चेव करणंतु ॥२॥" ५ व्रत, १० यतिधर्म, १७ प्रकारनो संयम, १० प्रकारनी वैयावच्च, ९ ब्रह्मचर्यनी गुप्ति, ३ ज्ञान, दर्शन अने चारित्र, १२ प्रकारनो तप, ४ क्रोधादि निग्रह-आ प्रमाणे चरणसित्तरीना ७० भेद थाय छे. ४ प्रकारनी पिंडविशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ प्रतिमा, ५ इंद्रियोनो निरोध, २५ प्रकारनी पडिलेहण, ३ गुप्ति, ४ अभिग्रह-आ प्रमाणे करणसित्तरीना ७० भेद थाय छे. हवे क्रमपूर्वक तेनुं संक्षिप्त स्वरूप कहे छे-पांच व्रत-१. मन, वचन अने कायाथी हिंसानो त्याग एटले पोते न करे, न करावे तेमज करनारने सारो न कहे ते श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१३५ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वथी प्राणातिपातविरमण, २. एवी ज रीते मृषावादविरमण-जूटुं न बोलवं, ३. अदत्तादानविरमण-चोरी न करवी. ४. मैथुन-विरमण-स्त्रीसंसर्गनो त्याग अने ५. परिग्रहविरमण-धन, धान्यादिकनो त्याग. दश यतिधर्म-१. क्षमा-क्रोधने जीते, २. मुक्ति-लोभन राखे, ३. आर्जव-कपट न राखे, ४. मार्दव-अहंकारनो त्याग, ५. लाघव-परिग्रह (अधिक उपकरण) नो त्याग, ६. सत्य बोले, ७. संयम-जयणापूर्वक वर्ते, ८. तपश्चर्या करे, ९. सुविहित साधुओने पोताना वस्त्रादिक वहोरावे अने १०. ब्रह्मचर्य पाळे. सत्तर प्रकारनो संयम-१. पृथ्वीकायनी रक्षा करे ते पृथ्वीकायसंयम, २-५. एवी रीते अपकाय(जळ), तेउकाय (अग्नि), वाउकाय (पवन) अने वनस्पतिकाय (लीलोतरी)नी जयणा, ६-९. बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चौरेइन्द्रिय तेमज पंचेंद्रियनी जयणा, १०. अजीवसंयम-पंचपुस्तक तथा पंचचर्मनो उपभोग न करे, कदाच करे तो जयणापूर्वक करे अथवा सुवर्णादिकनो त्याग, ११. प्रेक्षा-ऊभा रहेता, बेसतां, शयन करतां नेत्रद्वारा तपासवू - जोवू, १२. उपेक्षा-ते बे प्रकारनी छे. (१) कोई साधुने चारित्रमा शिथिल देखे तो तेने प्रेरणा करे पण तेने अशुद्ध क्रिया करतो जोई उपेक्षा न करे तेमज कोई गृहस्थ आरंभचें कार्य करे तो तेने प्रेरणा न करे, १३. प्रमार्जना-भूमिनी, पोताना चरणनी तथा वसतिनी प्रमार्जना, १४. परिष्ठापना-अशुद्ध गोचरी आवी गई होय तो तेने तेमज लघुनीति अने वडीनीतिने विधिपूर्वक परठवे, १५-१७. मन, वचन अने कायानो संयम-मिथ्या कार्यमा मन न परोवे, पापकारी वचन न बोले तेमज आरंभना कार्यमां सहयोग न दे. वाचकवर्य उमास्वातिवाचके श्रीप्रशमरति ग्रंथमां का छे के–“पञ्चाश्रवाद्विरमणं, पंञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजय: । दण्डत्रयविरतिश्चे-ति संयम: सप्तदशभेदः ॥१॥" पांच आश्रवनो त्याग, पांच इंद्रियोनो निग्रह, चार कषायनो जय, मनदंड, वचनदंड अने कायदंड-ए त्रण दंडनो त्याग-ए सत्तर प्रकारनो संयम छे. परमार्थथी तो बंने प्रकारो सरखा छे. दश प्रकारनी वैयावच्च-१ आचार्यनी, २ उपाध्यायनी, ३ स्थविरनी, ४ तपस्वीनी, ५ ग्लान साधुनी, ६ लघु अथवा तो नूतन दीक्षितनी, ७ कुलनी, ८ गणनी, ९ संघनी अने १० साधर्मिकबन्धुनी. नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुप्ति-१ स्त्री, पशु अने नपुंसक रहित स्थानमां वसवू, २ स्त्री साथे कथा न करवी, एकली स्त्रीओनी ज सभा होय तो तेवी सभामां धर्मकथा पण न करवी, जे जे स्थाने स्त्री बेठी होय ते ते स्थळे बे घडी पूर्वे न बेसवु, ४ स्त्रीओनी इंद्रियो जोवी नहीं, ५ भीतने आंतरे स्त्री-पुरुष कामक्रीडा करी रह्या होय त्यां न रहेवू, न सांभळवं६ गृहस्थपणामां पूर्वे भोगवेला भोगो याद न करवा, ७ सदा छ विगयादिक स्निग्ध आहार न करवो, ८ घणो एटले बत्रीश कोळिया उपरांत आहार न करवो, ९ शरीरनी विभूषा-टापटीप न करवी. त्रण ज्ञानादिक-ज्ञान, दर्शन अने चारित्र. बार प्रकारे तपनुं वर्णन अगाउ पृष्ठ (१०७) पर आवी गयेल छे. क्रोध, मान, माया अने लोभ-ए चार कषायोनो निग्रह-आ प्रमाणे चरणसित्तरीना सित्तेर भेद. हवे करणसित्तरीना भेदो कहे छे. ४ पिंडविशुद्धि-१. वस्त्र, २ पात्र, ३ वसति अने ४ चार प्रकारनो (अशन, पान, खादिम अने स्वादिम) आहार दोष रहित ग्रहण करे. पांच समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदानभंडमत्तनिक्षेपणा अने पारिष्ठापनिका) रूडी रीते पाळे, बार श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१३६ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारनी भावना भावे-१ अनित्य-संसारने अनित्य विचारे, २ अशरण- संसारमां कोई कोईनुं नथी, ३ संसार-अनंता भव कर्यां अने अशुभ कर्मसंचयथी करवा पडशे, ४ एकत्व- हुं एकलो आव्यो छु अने एकला जवानुं छे, ५ अन्यत्व - आबधी देखाती वस्तुओ अन्य छे, मारी नथी, ६ अशुचि-संसारमां कोई चिपवित्र स्थान नथी, ७ आश्रव-पापथी जीवने कर्मबंध थाय छे, ८ संवर-पापने अटकाववाना मार्गनी विचारणा, ९ निर्जरा - कर्मोनी क्षय करवानी भावना, १० धर्मस्वाख्यातता-केवलिभाषित धर्मनुं स्वरूप, ११ लोकभावना-चौद राजलोकनुं स्वरूप अने १२ बोधिभावना - समकित संबंधी भावना. भिक्षुनी बार प्रतिमा - १ एकमासिकी एक दात आहार अने एक दात पाणी लेवुं, २ बे मासनी मां बेबे दात, ३ त्रण मासनी तेमां त्रण त्रण दात, ४ चार मासनी, ५ पांच मासनी, ६ छ मासनी, ७ सात मासनी, ८ पहेला सात रात्रिदिवसनी, ९ बीजा सात रात्रिदिवसनी, १० त्रीजा सात रात्रिदिवसनी, ११ एक अहोरात्रिनी अने १२ एक रात्रिनी. पांचे इंद्रियोने दमे वश करे अने तेना विषयो पर राग - द्वेष न करे. पचीश प्रकारनी पडिलेहणा - " दिट्ठिपडिलेह एगा, छउड्डपक्खोडतिगतिगंतरिआ । अक्खोडपमज्जणया, नव नव मुहपत्तिपणवीसा ॥ १ ॥ " १ दृष्टिपडिलेहणा - मुहपत्ति खोलीने देखवुं. २-७ ते मुहपत्तिने ऊंचे पकडी राखीने त्रण वार आ बाजु अने त्रण वार पेली बाजु खंखेरवी - झाटकवी, ८-२५. पछी हथेळीने अडे नहीं तेवी रीते नव अक्खोडा करवा अने पछी हथेलीने स्पर्शाने प्रमार्जना करता नव पक्खोडा करवा - ए प्रमाणे मुहपत्तिनी पचीश प्रतिलेखना जाणवी. शरीरनी पचीश प्रतिलेखना आ प्रमाणे – “पायाहिणेण तिअतिअ, वामेयरबाहुसीसमुहहिअए । अंसुड्डाहोपिट्ठी, चउछप्पयदेहपणवीसा ||२ ||” डाबी भुजानी त्रण, जमणी भुजानी व्रण, मस्तकनी त्रण, मुखनी तथा हृदयनी त्रण-त्रण, डाबा तथा जमणा पडखानी बब्बे, डाबा तथा जमणा पनी त्रण कुल २५, त्रण गुप्ति - १ मनगुप्ति, २ वचनगुप्ति अने ३ कायगुप्ति, चार अभिग्रह १ द्रव्याभिग्रह-द्रव्यनो नियम, २ क्षेत्राभिग्रह - क्षेत्रनुं प्रमाण, ३ काळाभिग्रह - काळनुं प्रमाण अने ४ भावाभिग्रह - अन्य व्यक्तिना भाव (परिणाम) नो विचार करवो ए प्रकारे करणसित्तरीना सर्व भेदो ७० थया, हवे संविज्ञपाक्षिकनुं कर्त्तव्य दर्शावतां जणावे छे के— सम्मग्गमग्गसंपट्टि आण, साहूण कुणइ वच्छल्लम् । ओसहभेसज्जेहि य, सयमन्नेणं तु कारेइ ।। ३५ ।। [ सन्मार्गमार्गसंप्रस्थितानां, साधूनां करोति वात्सल्यम् । औषधभेषज्यैश्च, स्वयं अन्येन तु कारयति ॥३५ ।।] गाथार्थ- संयममार्गनुं सावधानपणे सेवन करता साधुजनोनुं संविज्ञपाक्षिक मुनि औषध - भेषजवडे वात्सल्य पोते करे अने बीजा पासे पण करावे. विवेचन- भवभीरु महात्मा पुरुषोए सेवेला अने प्रकाशित करेला संयम धर्मने विषे जे साधुओ प्रवर्तमान होय तेवा साधुने कर्मवशात् कोई पण प्रकारनो व्याधि थयो होय तो तेमनी समाधिने माटे श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १३७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा 'शरीर धर्मायतन छे' ए हेतुने लक्षमां राखीने औषध अथवा भेषज आपीने शाता पमाडे. एक द्रव्यवाळु औषध कहेवाय अने जेमां अनेक द्रव्यो मिश्रित थयां होय ते भेषज कवाय अथवा बहारना उपयोगमां आवे ते औषध अने अंतरमां भोज्य वस्तु तरीके वपराय ते भेषज कहेवाय. ए बे तो मुख्य गणाव्या, परंतु तदुपरांत अनेक प्रकारे साधुओंने साता उपजे तेवा कार्यों करे. वळी 'महामुनिनी भक्ति करवाथी कर्मनी निर्जरा थशे' ए प्रमाणे अन्यने पण उपदेशी बीजा पासे पण औषधादि करावे अने पोते अनुमोदना करे. आवा प्रकारनुं अंतरंग भक्तिभावथी वात्सल्य करनार संविज्ञपक्षी जाणवो, परंतु आवी रीते पारकानुं वात्सल्य करनार थोडा ज होय छे ते दर्शावे छे भू अस्थि भविस्संति, केइ तेलुक्कनमिअकमजुअला । जेसिंपरहिअकरणिक्क- बद्धलक्खाण वोलिही कालो ॥ ३६ ॥ [ भूताः सन्ति भविष्यन्ति, केचित् त्रैल्योक्यनतक्रमयुगलाः । येषां परहितकरणैक-बद्धलक्षाणां व्यतिचक्राम कालः || ३६ ।।] गाथार्थ – स्वर्ग, मृत्यु अने पाताळवासी लोकोए जेमना चरणकमळने नमस्कार करेल छे एवा केटलाक श्रेष्ठ जीवो भूतकाळमां थई गया, वर्तमानकाळे विद्यमान छे अने भविष्यकाळमां थशे के जेओनो काळ (समय) मात्र अन्यनुं हित करवा मात्रना लक्षपूर्वक व्यतीत थाय छे. विवेचन- राधावेध साधवानी इच्छावाळानं एकमात्र लक्ष जेम ऊंचे फरती पूतळीना हलन-चलनमां ज मग्न होय छे, पोतानी आसपास एकत्र थयेल विशाळ सभासमूह प्रत्ये तेनुं दुर्लक्ष होय छे तेवी रीते अन्य प्राणिओना हितमां रक्त बनेला श्रेष्ठ साधुपुरुषोनुं मनमात्र परमार्थमां ज लयलीन होय छे. पोते दीक्षापर्यायमा मोटा होय छतां पण रत्नत्रयीनुं आराधन करवा उजमाळ बनेला अल्पपर्यायवाळा मुनिनी पण वैयावच्च निरभिमानपणे उत्साहपूर्वक करे छे, परंतु आवा नि:स्वार्थ भाववाळी अने परहिताभिलाषी व्यक्तिओ अल्प संख्यामां ज होय छे, केटलाक तो एवा साधुओ होय छे के जेनां नामस्मरणथी पण प्राणी दुःखने अनुभवे छे. ती आणागयकाले, केई होहिंति गोयमा ! सूरी । जेसिं नामग्गहणे वि, होइ नियमेण पच्छित्तम् ॥३७॥ 1 [ अतीतानागतकाले, केचिद् भविष्यन्ति गौतम ! सूरयः । येषां नामग्रहणेऽपि भवति नियमेन प्रायश्चित्तम् ॥३७॥] गाथार्थ हे गौतम् ! भूत, भविष्य अने वर्तमानकाळमां एवा केटलाक आचार्यपद नामधारक साधुओ होय छे के जेमना नामस्मरण मात्रथी प्रायश्चित्त लागे अर्थात् तेमनो परिचय करवाथी तो प्राप्त थती दुःखपरंपरानुं वर्णन शुं करवुं ? विवेचन - श्रीमहानिशीथसूत्रना पांचमा अध्ययनमां कह्य छे के – “इत्थं चायरियाणं, पणपण्णं होंति कोडिलक्खाओ । कोडिसहस्से कोडी-सए य तह एत्तिए चेव ॥ १ ।। सं श्रीगच्छाचार - पयन्ना — १३८ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्झाओ, एगे निब्बुड्डुइ गुणगणाइण्णे। सव्वुत्तमभंगेणं, तित्थयरस्साणुसारिगुरु ॥२॥" पंचावन लाख क्रोड, पंचावन हजार क्रोड, पांच सो क्रोड अने पंचावन क्रोड एटला आचार्यों पैकी केटलाक आचार्यों आ संसाररूपी समुद्रमां डूबशे अने सर्वरीते उत्तम एवा तीर्थंकरभगवंतना मार्गने जेओ अनुसरशे तेओ तरी जशे. एवा तरी जनारा आचार्योने ज खरेखरा गुरु जाणवा. बीजा आचार्यो तो पोते डूबनारा अने बीजाने डूबाडनारा होवाथी तेनुं नामस्मरण पण पापकारी छे तो तेवा आचार्योनो परिचय कराय ज केम? जओ-सयरी भवन्ति अणविक्खयाइ जह भिच्चवाहणा लोए । पडिपुच्छाहिं चोयण, तम्हा उ गुरु सया भयइ ॥३८॥ [यत:-स्वेच्छाचारीणि भवन्ति अनपेक्षया, यथा भृत्यवाहनानि लोके। प्रतिपृच्छाभिचोदनाभिः, तस्मात्तु गुरुः सदा भजते ॥३८॥] गाथार्थ-जेम नोकर-चाकर तथा हाथी, घोडा अने वृषभादिक शिक्षा विना स्वेच्छाचारी बनी जाय छे तेम शिष्य पंण स्वच्छंदाचारी बनी जाय छे माटे गुरुए प्रतिपृच्छादिद्वारा शिखामण आपी तेमने हमेशां काबूमा राखवा. विवेचन- हस्तीने पण अंकुशनी जरूर छे. प्राणीनो स्वभाव ज एवो छे के तेने स्वच्छंदता प्रिय थई पडे छे, परंतु तेने सन्मार्गे वाळवामां आवे, केळववामां आवे तो ते सुंदर परिणाम निपजावी शके छे. आपणे जाणीए छीए के-अश्व, वृषभ विगेरेने प्रथम पलोट्या पछी ज वाहनमा जोडे छे, परंतु तद्दन नवीन ज बळद के अश्वने जोड्यो होय तो ते गाडाने के घोडागाडीने अवळे मार्गे लई जई भांगी नाखे छे. तेनी माफक शिष्यने पण स्वेच्छाचारी विचरवा न देवा. तेमने पण पृच्छा, प्रतिपृच्छादिकथी पोताना अंकुशमा राखवा अने हितशिखामण आपवी. जो आ प्रमाणे आचार्य न करे तो शिष्य उन्मार्गे चढी जई दुर्गतिमां जाय अने तेना पापना भागीदार आचार्य पण बने. आवा प्रकारनी प्रेरणा आचार्य न करे तो तेवा आचार्यने शुं फळ प्राप्त थाय? ते जणावे छे— जो उपमायदोसेणं, आलस्सेणं तहेव य। सीसवग्गं न चोएड, तेण आणा विराहिया ॥३९॥ [यस्तु प्रमाददोषेणा-लस्येन तथैव च। शिष्यवर्गं न प्रेरयति, तेनाज्ञा विराधिता ॥३९॥] गाथार्थ- जे आचार्य, उपाध्याय अने गणावच्छेदकादिक प्रमाद अथवा आळसथी शिष्यवर्गने संयमानुष्ठान माटे प्रेरणा करता नथी ते जिनाज्ञाना विराधक जाणवा. विवेचन-वडीलवर्गनं कार्य हमेशां सत्कार्यनी प्रेरणा करवानं छे. आचार्य, उपाध्याय विगेरे गच्छनी मुख्य व्यक्तिए पोतानी निश्रामा रहेल शिष्यसमूहने सारणा, वारणा, चोयणा, पडिचोयणादिक प्रेरणा कर्या ज करवी जेथी शिष्यवर्ग प्रमादी के शिथिल न बने. परंतु आचार्य प्रमुख प्रमाद, आळस, श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१३९ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय, शोक, कुतुहल विगेरे तेर काठियाना पाशमा फसाईने प्रेरणा न करे, बेदरकारी दर्शावे तो तेवा आचार्य प्रमुख जिनाज्ञाना विराधक होईने अनंतसंसारी थाय छे. आ प्रमाणे गुरुनां लक्षणो दर्शाव्या बाद तेनो उपसंहार करी, हवे गच्छनां लक्षण वर्णवतां कहे छे संखेवेणं मए सोम !, वत्रियं गुमलक्खणम् । गच्छस्स लक्खणं धीर !, संखेवेणं निसामय ॥४०॥ [संक्षेपेण मया सौम्य !, वर्णितं गुरुलक्षणम् । गच्छस्य लक्षणं धीर !, सुक्षेपेण निशामय ॥४०॥] गाथार्थ – हे सौम्य गौतम ! आ प्रमाणे संक्षेपथी में गुरुना लक्षणो कह्या. हे धीर ! हवे हुं गच्छर्नु लक्षण कहीश ते तुं एकाग्रपणे सांभळ. आचार्यस्वरूपनिरूपण नामनो प्रथम अधिकार समाप्त. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१४० Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ यतिस्वरूपनामा द्वितीयोऽधिकारः ॥ गी अत्थे जे सुसंविग्गे, अणालस्सी दढव्वए । अक्खलियचरित्ते सययं, रागद्दोसविवज्जिए ॥४१ ।। निट्ठविअअट्ठमयट्ठाणे, सोसिअकसाए जिइंदिए । विहरिज्जा तेण सद्धिं तु छउमत्थेण वि केवली ॥४२ ॥ [ गीतार्थो य: सुसंविज्ञः, अनालस्यी दृढव्रतः । अस्खलितचारित्रः सततं रागद्वेषविवर्जितः ॥ ४१ ॥ [निष्ठापिताष्टमदस्थानः, शोषितकषायो जितेन्द्रियः । विहरेत्तेन सार्धं तु, छद्मस्थेनापि केवली ॥ ४२ ॥] गाथार्थ - जे गीतार्थ संवेगवान, वैयावच्च करवामां आळस रहित उद्यमी, दृढव्रती, निर्दोष चारित्रवाळा, निरंतर राग-द्वेष रहित, आठमद रहित, पातळा पडी गयेल कषायवाळा अने जितेन्द्रिय होय तेवा छद्मस्थ गुणशाळी साधुनी साथे केवळी भगवंत विचरे छे. - विवेचन - पहेला अधिकारमां आचार्यनां लक्षणो दर्शाव्या परंतु आचार्य होय तो ज गच्छ कहेवाय माटे हवे गच्छ - यतिओना समुदायनुं वर्णन करे छे. जे छेदसूत्रना अर्थने बराबर जाणे अथवा सूत्र तेमज अर्थ उभयना सारी रीते ज्ञाता होय ते गीतार्थ कहेवाय. गीतार्थनी विशेष समजण माटे श्री बृहत्कल्पभाष्यपीठिकानी बे गाथा “गीअं मुणितेगद्वं विदिअत्थं खलु वयंति गीयत्थम् । गीएण य अत्थेण य, गीअत्थो वा सुअं गीअं ॥ १ ॥ गीएण होइ गीई, अत्थी अत्थेणं होई नायव्वो । गएण य अत्थेण य, गीअत्थं तं विआणाहि ॥ २ ॥ पृ. १३४ ऊपर दर्शावाई गई छे. आवो गीतार्थ जो अतिशय संवेगवाळो, वैयावच्चादिकमां अप्रमादी, निश्चळ उत्तरगुणवाळो, अतिचार रहित चारित्रवाळो अर्थात् शुद्ध मूळगुणवाळो, आठ * मद रहित, चार कषाय क्रोध, मान, माया अने लोभ तथा नव नोकषाय- हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंछा, स्त्री, पुरुष अने नपुंसक वेद जेमणे पातळा- क्षीण करी नाख्या होय, तेमज पांचे इंद्रियोना देवीश विषयोने जेणे जीत्या होय तेवा प्रकारना गीतार्थ साधु छद्मस्थ होय एटले केवळज्ञान प्राप्त न कर्तुं होय छतां पण तेमनी साथे केवळज्ञानी मुनि विचरे तेमज वास करे. छद्मस्थ साधु तो केवळी साथे विचरे तेमां विशेषता नथी * १. . जाति - हुं ऊंची जातिनो छु, २. कुल-हुं श्रेष्ठ कुळमां जन्म्यो छु, ३. रूप - मारुं सौंदर्य अतिशय रुडुं छे, ४. बळहुं अतिशय बळवंत छु, ५. लाभ-मारे घणो लाभ छे, ६. श्रुत- हुं सर्व शास्त्रमां पारगामी बनी गयो छु, ७. तप-मारा जेवो कोई तपस्वी नथी अने ८. ऐश्वर्य-मारी जेटली कोईने ऋद्धिसिद्धि नथी. आ प्रमाणे अभिमानना आठ स्थानक छे. श्रीगच्छाचार - पयन्ना — १४१ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण जे त्रण जगतना भावाने पोतानी हथेलीमां रहेला जळबिंदुनी जेम समये समये जाणे छे तेवा केवळी भगवंत पण उपर्युक्त गुणशाळी गीतार्थ मुनि साथे विचरे ते ज खरेखर आश्चर्यकारक घटना छे. हवे केवा साधुओ साथे विहार न करवो ते जणावे छे जे अणही अपरमत्थे, गोअमा ! संज तम्हा ते वि विवजिज्जा, दुग्गइपंथदायगे ॥४३ ॥ [ येऽनधीतपरमार्था, गौतम ! संयता भवन्ति । तस्मात्तानपि विवर्जयेत्, दुर्गतिपथदायकान् ॥ ४३ ॥] गाथार्थ - हे गौतम! संयममां वर्ततां छतां जेणे शास्त्रनो परमार्थ जाण्यो नथी अने तेने परिणामे जे प्राणिओने दुर्गतिना मार्गे दोरी जाय छे तेवा अगीतार्थ साधुथी सदंतर वेगळा ज रहेवुं. विवेचन— आगमना रहस्य केटला प्रकारना छे ते संबंधी श्रीआचारांगसूत्रना चोथा अध्ययनमां कह्यं छे के–“जे आसवा ते परिस्सवा १, जे परिस्सवा ते आसवा २, जे अणासवा ते अपरिस्सवा ३, जे अपरिस्सवा ते अणासवा ४ ।। " जेनाथी आठ प्रकारनां कर्मों बंधाय ते आश्रव कहेवाय, अने काणा घडामांथी जेम पाणी झरे तेम कर्म झरे तेने परिश्रव कहीए. जे आश्रव छे ते परिश्रव छे, १, जे परिश्रव छे ते आश्रव छे २, जे अनाश्रव छे ते अपरिश्रव छे ३ अने जे अपरिश्रव छे ते अनाश्रव छे ४. तेनो परमार्थ एछे के – (१) गृहस्थ जेम माला, पुष्प, चंदन, विलेपन, स्त्री तेमज भोगोपभोगना पदार्थोने सुखनुं कारण जाणी तेमां ज रक्त रहे तो ते आश्रव छे, ज्यारे तत्त्वना जाणारा कर्मबंधनाते ज कारणो असारभूत जणाय छे अने विरक्ति पामे छे एटले निर्जराना स्थानक थाय छे. (२) जैन मुनिनो तप, चारित्र तथा दशविध चक्रवाल सामाचारी इत्यादिक निर्जराना कारण छे परंतु कोइक अशुभ अध्यवसायवाळाने अशुभ कर्मना उदयथी मिथ्या परिणाम थाय तो ते संवर घणो करे छे तो पण मन व्याकुळ होवाथी आश्रव करे छे. (३) जेमां अनाश्रव थाय - कर्मबंध न थाय तेवा महाव्रतादिकने विषे पण अशुभ कर्मोदयथी अध्यवसाय बदलाय त्यारे ते तेने कर्मबंधनुं कारण था. दृष्टांत तरीके- प्रसन्नचंद्र राजर्षि. प्रसन्नचंद्र राजर्षि काउस्सग्ग ध्यानमां स्थित रह्या छे तेवामां दुर्मुख नामनो दूत त्यांथी निकळ्यो अने बोल्यो के–“तमारा बाळपुत्रनुं राज्य झंटवी लेवामां आव्युं छे.” आ वचन सांभळतां ज पोतानी मुनि अवस्थानुं विस्मरण थई जवाथी तेनी ते स्थितिमा शत्रुराजा साथे मानसिक युद्ध करवा लाग्या. आ प्रमाणे पंचमहाव्रतधारी होवा छतां अशुभ अध्यवसायथी तेमने कर्मबंध थयो. (छेवटे तो पाछी विचारधारा बदलाई अने क्षण मात्रमा सकल कर्मनो क्षय करी केवलज्ञान प्राप्त कर्यु.) (४) कर्मबंधना कारण होवा छतां कर्मबंध न थाय. दा. त. शासननी हीलना अटकाववा माटे कणेरनी कामडी फेरवनार लघु शिष्य अथवा शासननी उन्नति करवा माटे करातो प्रयास. परंतु तेमां पोतानी पूज्यता के महत्तानो अंश मात्र रह्यो होय तो अवश्य पापबंध थाय. आवा प्रकारना आगमना रहस्यने जे जाणे नहीं तेने अगीतार्थ जाणवो. वळी श्रीगच्छाचार- पयन्ना— १४२ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न इ वा १ विगमे इ वा २ धुवे इ वा ३ । आ विपीना अर्थ बरावर जाणे उत्पत्ति चार प्रकारनी छ-१ जावी जीवनी उत्पत्ति, जम मातापिताथी पत्रनी उत्पान, २ जीवथा अजावना उत्पनि, जावता माणसना शरीरथी नख, केशनी उत्पत्ति, ३ अजीवथी जीवनी उत्पत्ति, काप्ट (लाकडा)थी घुणाना उत्पत्ति अथवा द्राक्षथी ईयळनी उत्पत्ति तेमज ४. अजीवथी अर्जीवनी उत्पत्ति प्रयोग वड त्रांवामांथी सोनानी उत्पत्ति. विनाश पण चार प्रकारना छ. १ जीवथी जीवना विनाश, सर्पडंसथी माणसनं मृत्यु, २ जीवथी अजीवनो विनाश-नाळियाना संचारथी दूध अथवा चीभटाना योगी लोटर्नु विणसी जवं, ३. अजीवथी जीवनो विनाश, झेरथी प्राणी मृत्यु पामे अने ४ अजीवथी अजीवनो नाश, छाशथी दृधना नाश. ध्रुवपणुंपण आ प्रमाणे जाणवं-सोनाना कंकण भांगीने कयूर वनावराव्या तमां कंकणनो विनाश थयो, केयरनी उत्पत्ति थई परंतु सान तो ध्रुवपणे रां ज. छाशना योगथी दृधनं दही थy तेमां दृधनो विनाश ने दहीनी उत्पत्ति थई परंतु जे स्निग्धपणाना पुद्गला हता ते तो ध्रुवपणे रह्या ज अथवा जीव. मेरुपर्वत, देवलोकना विमानो विगेरेथी द्रव्यास्तिक नयना मतथा ध्रुवपणं साबित ज छ. आ प्रमाणे त्रिपदीनो गंभीरार्थ छे. हवे उत्सर्ग अने अपवाद संबंधा वर्णन करतां कहे छे के–“उस्सग्गसुअं किंची, किंची अववाइअं भवे सुत्तं । किंची तदुभयसुत्तं, सुत्तस्स गमा मुणेयव्वा ॥१॥" उत्सर्ग, अपवाद अने तदुभय एटले उत्सर्ग अपवाद अने अपवाद उत्सर्ग-ए प्रमाणे आगमना चार प्रकार छे. वळी आगमना केटलाक पदो वे वार न बोलाय ते माटे उत्सर्ग-उत्सर्ग अने अपवादापवादिक ए वे भेद मळवतां कल छ भेट दर्शाव छे. १ गोचरी करवा निकळला साधन व घरनी वचमा बेसबुं न कल्प ते उत्सर्ग, २ व्रण साधुआने वेसवं कल्प ते अपवाद, ३ रात्रिने विष अथवा विकाले साधु सावाने शय्या-संथारो ग्रहण करवा न कल्पे परंतु एक दिवस पूर्वे जो ते पडिलेहीने राख्यो होय तो ग्रहण करवो कल्पे ते उत्सर्गअपवाद, ४. केळा प्रमुख लांबा-फल पाका ने विधिपूर्वक छेदन-भेदन करायेल होय ते कल्पे पण अविधिए छेदन-भेदन करायेला न लेवा ते अपवादउत्सर्ग, ५. प्रथम पोरसीमां ग्रहण करेल गोचरी चोथी पोरसी पर्यंत न राखवी, कदाच रही गई होय तो तेने पोते खाय नहीं, बीजाने खवरावे नहीं अने खानारनी अनुमोदना करे नहीं; करे तो चारमासी प्रायश्चित लागे. ते उत्सर्गउत्सर्गिक, ६. जे सूत्रमा अपवाद दर्शावीने तेओने विषे वळी अर्थथी आज्ञा थाय ते अपवादापवादिक. आ हकीकतने लगतुं विशेष वर्णन श्रीबृहत्कल्पनी वृत्तिमां जणावेल छे. वळी आ सूत्रनी छ भंगी निशीथचूणींना सोळमा उद्देशामां पण वर्णवेल छे. आ प्रमाणे गीतार्थ शास्त्र-रहस्यना जाण होय. वळी सात नयना गंभीरार्थने पण जाणवावाळा होय-“नेगम १ संगह २ ववहारु ३-ज्जुसुए४ चेव होइ बोधव्वे । सद्दे ५ असमभिरूढे ६, एवंभूए७ अमूलनया ॥१॥" १ नंगम-सामान्य विशेषनो भेद पाडीने न बोले. २. संग्रह-सर्व वस्तुओने सामान्य रूपे कहे. ३. व्यवहार-सर्व द्रव्योनो भेद पाडीने कहे. ४. ऋजुसूत्र-वर्तमान काळमां जेवू छे तेवू कहे. ५ शब्द-वर्तमानमा जे वर्ते छे तेने ज प्रमाण माने. ६ समभिरूढ-वस्तुनुं वीजी वस्तुमा संक्रमण थाय. ७ एवंभृत-शब्दने अर्थवडे विशेष प्रकारे दर्शावे अने अर्थने शब्दवडे विशेष वर्णवे-आ प्रमाणे मूळ श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १४३ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात नय छे. तेना दरेकना १००-१०० भेदो एटले सात सो भेटो थाय छे. बीजा मत प्रमाणे पांच सो भेद जणाव्या छे-नंगम, संग्रह, व्यवहार अने ऋतुसूत्र - आ चारना सो भेद तथा शब्द, समभिरुढ अ एवंभूत एत्रण एक होवाथी तेना सो गणतां पांचसो. वळी छ सो, चार सो अने बसो भेद पण दर्शावेला छे, ते आ प्रमाणे संग्रह अने व्यवहारने एक गणवाथी छ सो संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र अने शब्द ए चार एक होवाथी १०० अने बाकीना त्रणना त्रण सो कुल ४००. नैगम, संग्रह, व्यवहार ऋजुसूत्र ए चार द्रव्यास्तिक नयना १०० अने शब्द, समभिरुढ अने एवं भूत पर्यायास्तिक नयना १०० कुल २००. ज्यारे चरण, धर्म, संख्या अने द्रव्य- आ चारे अनुयोग संयुक्त हता त्यारे परस्पर विसंवाद दूर करवा माटे आ प्रमाणे गणत्री थई शकती; परंतु ज्यारथी श्री आर्यरक्षितसूरि (वृत्तांत माटे जुओ पृ. ८९) ए अनुयोग विभक्त कर्या त्यारथी श्रोता आश्रयथी नय-वर्णन करवुं. सर्व नयोनो समावेश बेमां थाय छे-व्यवहारनय ने निश्चयनय अथवा द्रव्यनय अने भावनय या ज्ञान अने चारित्र. आ सर्वनयोना प्रकारनो सार शुं ? ते जणावतां कहे छे के - “ सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरणगुणद्विओ साहू ॥ १ ॥ " सर्व प्रकारना नयो घणा प्रकार छे ते सांभळीने अवधारीने जे चारित्रपात्र साधु होय तेने ज सर्व नयविशुद्ध जाणवो, अर्थात् चारित्रनय अने ज्ञाननयमां ज सर्वे नयोनो समावेश थई जाय छे. श्री आवश्यकनिर्युक्तिमा आसात नयने समजावतुं एक दृष्टांत आप्युं छे. ते आ प्रमाणे-देवदत्त नामनो कोई पुरुष कुहाड़ी लईने अटवी प्रत्ये चाल्यो तेवामां तेने कोई अन्य पुरुष मळ्यो. तेणे पुछ्धुं 'क्यां जाओ छो ?' देवदत्ते जवाव आप्यो-'पायला (एक जातनुं लाकडानुं माप) माटे जाउं छं.' आ जवाब ते अविशुद्ध नैगमनय जाणवो. बाद अटवीमां लाकडुं कापतां बीजो कोई पूछे छे -'शुं करो छो ? शुं छेदो छो ?' ते बोल्यो-'पायलो कापुं छं.' आ विशुद्धनैगम. बाद ते लाकडाने छोली रह्यो छे तेवामां कोईक त्रीजाए पूछयु - 'शुं छोलो छो ?' तेणे जवात्र आप्यो-'पायलो छोलुं छं.' आ विशुद्धतर नैगम. वळी कोईक बीजाए तेने पायलो खोदता जोईने पूछ्धुं -'शुं खोदो छो ? ' तेणे जवाब आप्यो-'पायलो खोदुं छं. ' आ विशुद्धतर नैगम, पछी तेने समारतां देखीने कोईके पूछ्धुं - 'शुं समारो छो ?' त्यारे जवाब आपतां कं के–'पायलो समारुं छं.' आ विशुद्धतर नैगम. आ प्रमाणे पायलो तैयार करीने ते बेठो छे तेवामाँ कोईके पूछ्यु–‘शुं लईने बेटा छो ?' तेणे कह्यं-'पायलो लईने बेठो छु.' आ प्रमाणे नामनिर्देशपूर्वक कहे ते विशुद्धतर नैगम छे. छेल्लो प्रकार विशुद्ध छे अने ते प्रथम नय कहेवाय आ प्रमाणे पायलाने पायलो जणाववो ते बीजो व्यवहार नय छे, एटले के ज्यांसुधी पायलो न थयो होय त्यांसुधी ने पायलो न माने परंतु पायलो थया पछी ज माने ते बीजो नय. ते पायलो धान्यथी भरेल होय अगर तो माप मापवाना काममां आव्यो होय त्यारे संग्रहनय. पहेला बे नयमां तो पायलो थयो एटले पायलो कह्यो परंतु संग्रहनय तो ज्यारे ते पायलानुं कार्य करतो थयो एटले के धान्यादिकनुं मान कर्यं त्यारे पायलो कहे छे. ऋजुसूत्र तो जे पायलो छे तेने अने तेना द्वारा अपाता धान्यादिकने पण पायलो माने छे. छेल्ला ऋण शब्द, समभिरूढ अने एवंभूत - ए त्रण नय तो पायलानो अधिकार श्रीगच्छाचार- पयन्ना — १४४ - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणवावाळाने पण पायलो जणावे छे, आ भावनय छे; वळी श्रीअनुयोगद्वार सूत्रमा जणावेल बीजा दृष्टांतद्वारा आ ज विषय जणावे छे - देवदत्त नामना पुरुषने कोईए पुछा के–'तमे क्या रहो छो?' तेणे जबाब आप्यो-'लोकमां रहुं छु.' आ अविशुद्धनंगम. प्रश्नकारे पुन: पूछ्युं-'अधोलोक, ति लोक अने ऊर्ध्वलोक-एम त्रण लोक छे ते त्रणमां तुं वसे छे?' त्यारे तेणे का - 'ति लोकमां रहुं छु.' आ विशुद्धतर नंगम. तेणे फरी पृछा-'तिमलोकमां तो जंबूद्वीपी प्रारंभीने स्वयंभूरमण समुद्र सुधी असंख्याता द्वीप समुद्र छे ते सर्वमा तुं रहे छ ?' देवदत्ते का-हुं जंबूद्वीपमा रहुं छु,' आ विशुद्धतर नैगम. 'जंबूद्वीपमां तो भरत, ऐरवत, महाविदेहादि क्षेत्रो छे ते सर्वमां तुं वसे छे?' जवावमां तेणे का के–'हुँ भरतक्षेत्रमा रहुं छु.' विशुद्धतर नैगम. तेणे वळी पूछ्युं- भरत तो बे छे दक्षिणार्द्ध अने उत्तरार्ध तो ते बनेमां तुं रहे छ ? तेणे का-दक्षिणार्द्ध भरतमां रहुं छु.' विशुद्धतर नैगम. तेणे फरी पूछयु-दक्षिणार्द्ध भरतमा तो अनेक नगर, ग्राम तथा संनिवेशादि छे ते सर्वमां तुं रहे छ ?' तेणे जवाब आप्यो– 'हुं पाटलीपुत्र नगरमा रहुं छु.' विशुद्धतर नैगम तेणे पुन: पूछ्युं 'पाटलीपुत्र नगरमां तो सेंकडो घर छे ते सर्वमां तुं रहे छे?' देवदत्ते जवाब आप्यो-'देवदत्तने घरे वसुं छु.' विशुद्धतर नैगम. प्रश्नकार वळी पूछ्यु- देवदत्तना घरमां तो अनेक कोठा(ओरडा) छे ते सर्वमा तुं रहे छे?'देवदत्ते जवाब आप्यो-'हुं मध्यगर्भमा रहुं छु.'आ विशुद्धतर नंगम नय जाणवो. जेना घरमा वसे ते तेनुं ज घर होय ते व्यवहार, पूर्वे पूछ्या तेम सर्व प्रश्नो पूछीने छेवटे पूछे के तारा घरमा तुं सर्वत्र वसे छे? त्यारे जवाबमां ते जणावे के-गादीतकिया पर के ढोलिया पर बेसं छ-आ संग्रहनय. ऋजसत्रद्वारा तो जेटला आकाशप्रदेशने अवगाहीने रह्यो होय तेटला मात्रमा ज वसतो कहे. अने पोताना आत्मभावमां वसतो कहे ते भावनय एटले शब्द, समभिरूढ अने एवंभूत जाणवा. ए ज प्रमाणे सप्तभंगीनुं स्वरूप जाणे, ते आ प्रमाणे-१. स्यादस्ति-द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव ए चार पोतानी अपेक्षाए स्यादस्ति, २. स्यान्नास्ति-पारकानी अपेक्षाए स्यानास्ति, ३. स्यादस्तिनास्ति-बनेनी अपेक्षाए, ४. स्यादवक्तव्य-बनेना एक काळनी अपेक्षाए, ५. स्यादस्ति अवक्तव्य-एक पक्षमां अस्ति छे पण कहेवामां न आवे, ६. स्यान्नास्तिअवक्तव्य-एम ज नास्ति छे पण कही न शकाय अने ७ स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य-आ प्रमाणे सात नय, सप्तभंगी, चार निक्षेपा इत्यादिकना रहस्यने जाणे ते गीतार्थ कहेवाय. हवे गीतार्थनो उपदेश सर्वने हितकारक थाय छे ते संबंधे बे गाथा दर्शावे छे गीअत्थस्स वयणेण, विसं हालाहलं पिबे । निम्विकप्पो य भक्खिज्जा, तक्खणे जं समुद्दवे ॥४४ ।। परमत्थओ विसं तो तं, अमयरसायणं खुतं । निव्विग्धं जं न तं मारे, मओऽवि अमयस्समो ॥४५ ।। [गीतार्थस्य वचनेन, विषं हालाहलं पिबेत् । निर्विकल्पश्च भक्षयेत्, तत्क्षणे यत् समुद्रावयेत् ॥४४ ।। श्रीगच्छाचार–पयन्ना-१४५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थतो विषं न तद-मृतरसायनं खलु तद्विषं । निर्विघ्नं यद् न तद् मारयति, मृतोऽपि अमृतसमः ॥४५॥ गाथार्थ- गीतार्थ पुरुषना वचनथी बुद्धिमान तरत मरण निपजावनाएं हळाहळ झेर पण नि:शंकपणे पी जाय अने तेवो पदार्थ पण खाई जाय कारण के परमार्थथी तो ते झेर झेर नथी परंतु निर्विघ्नकारी अमृत समान रसायण ज होय छे कारण के ते विष खानारने मारतुं नथी, अने कदाच मरण निपजे तो पण ते अमर ज मनाय छे. विवेचन- गीतार्थ साधुपुरुष हलाहल तालपुट विष विगेरे पीवायूँ कहे तो पण शंकारहितपणे पी जवं. ते झेर न जाणवू पण अमृत जाणवू कारण के गीतार्थ तो महाउपकारी छे अने तेना उपदेशद्वारा कराती क्रिया अजरामरस्थानने-शाश्वतसुखने आपनार छे. माटे तेना वचनमां कदापि शंका न करवी. आवा गीतार्थ साधु अने संवेगा केवा होय ? केवा लक्षणवाळाने तेवा जाणी शकाय? तेने माटे चाभंगी दर्शाव छ–“संविग्गा नाम एगे नो गीअत्था १, नो संविग्गा नाम एगे गीयत्था २, संविग्गा णाम एगे गीयत्यावि ३, नो संविग्गा णाम एगे नो गीयत्थावि ४ ॥१॥ १ चारित्रवान छे पण गीतार्थ नथी, २ गीतार्थ छे पण चारित्रपात्र नथी, ३. चारित्रपात्र छे अने गीतार्थ पण छे, ४. गीतार्थ पण नी अने चारित्रपात्र पण नथी. पहेलो भांगो कामनो नथी, कारण के का छे के–“पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही, किंवा णाही सेयपावगं ॥१॥" पहेलं ज्ञान अन पछी दया ए प्रमाण संयममा वर्त. साधुमार्गनो अजाण शुं हित साधी शकशे? ज्ञान थया विना जीवदया केवी रीते पाळी शकाय? ज्ञान होय तो ज संयममार्गमा यथेच्छ राते प्रवृत्ति करी शकाय माटे ज प्रथम ज्ञान अने पछी चारित्र कहेल छे. वळी “जो हेउवाय.... सिद्धतविराहगो अन्नो ॥१॥" जे हेतु तेमज परपक्षने जाणे तेने आगमिक-आगमज्ञाता कहीए परंतु जे पोताना सूत्रनी प्ररूपणा करे अने बीजो उपाय न जाणे तेने सिद्धांतनो विराधक कह्यो छे, एटले के जाण्या विना क्रिया करे, तेनी प्ररूपणा करे पण ते संबंधी ज्ञान न होय तो विराधक गणाय. वळी पूर्वे वर्णवेला छ प्रकारना अपवादादिक सूत्रो न जाणतो होय तो ते केवी रीते चारित्रनु पालन करी शके ? वळी “सावज्जण... देसणं काउं ॥१॥" जे ‘आ वचन सावद्यकारक छ अने आ निरवद्य छे' ते जाणां शकता नथी तो तेओ उपदेश देवाने-व्याख्यान वाचवाने कई रीते अधिकारी थई शके? माटे ज्ञान-प्राप्ति विना बोलवू-उपदेश देवो ते साधुने माटे वय॑ छे. आगमना रहस्यी अज्ञात साधु गच्छना त्याग करीने विचरे ते पोते संसारमा डूबे छे अने बीजा भव्य प्राणिओने पण डूबाडे छे. भवरूपी अंधारा कृवामाथी पोते बहार निकळता नथी अने बीजाने निकळवा देता नथी. विशेष शुं कहीए? छ-छ मासनी अति दुष्कर तपश्चर्या करवा छतां पण जो ते अगीतार्थ होय तो, विषनो जेम त्याग करीए तेम तेनो त्याग करवो, सर्पथी जेम दूर नासीए तेम तेनाथी दूर भागवू, लुच्चा पुरुपनो संसर्ग न करीए तेम तेनो संग न करवी. वळी अकुलीन बंधु, भयंकर श्मशान, महादुष्ट पिशाच तथा बळता अरण्यनी माफक तेनो त्याग ज करवो इष्ट छे. आ प्रथम भांगो अशुद्ध छे– श्रीगच्छाचार-पयन्ना– १४६ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अस्वीकार्य छे. बीजा भांगो पण निष्फळ छे, कारण के सूत्र, भणे, अर्थ जाणे, नूतन अध्ययन कर्या करे परंतु चारित्र - पालन विनानुं ते सर्व निष्फळ छे. कारण के तेथी तो फक्त कंठशोष ज थाय छे. कोई कहेशे के तेथी अन्नपाणी तो मळे छे ने ? तो शास्त्रकार कहे छे के धर्मना नामे जेना घरना आहार- पाणी वापरे छे तेने त्यां ऊंट, पाडो विगेरे थईने भार वहन करवो पडे छे माटे चारित्र विना ज्ञान कई पण कामनुं नथी. आ संबंधमां कह्यं छे के– “जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सुग्गईए ||१ ||" गधेडो पोतानी पीठ पर चंदननो भार वहन करे छे पण चंदननी शीतळतानो - सुगंधनो तेने लाभ मळतो नथी तेम घणुं भणेल होवा छतां ज्यां सुधी चारित्रपालन करतो नथी त्यां सुधी ते सद्गतिरूपी शीतळतानो लाभ मेळवी शकतो नथी. वळी “आउज्जनट्ट... चरणहीणो ॥ " नाच-तानमां प्रवीण एवी नटी जो जोनार लोकोने हर्ष न पमाडी शके, पोताना अवयवोनो हावभाव न दर्शावे अने नृत्य तथा संगीत न करे तो ते लोकोने रीझवे के पोतानी निंदा करावे ? तेवी ज रीते साधु पण नटीनी माफक बेसी रहे, कोई पण आवश्यक क्रिया न करे एटले चारित्र न पाळे तो मोक्षसुखने प्राप्त न करे पण उलटी पोतानी, पोताना गच्छनी निंदा करावे अने संघनी हीलना थाय. वळी तरियो जाणे छे के हाथ- पग हलाववाथी ज नदीमां तरी शकाय परंतु नदीमा पड्या पछी हाथ-पग न हलावे तो जेम डूबी जाय तेम संसाररूप नदीना प्रवाहमां पड्या पछी चारित्रपालनरूपी क्रिया (तरवानी क्रिया) न करे तो ते गीतार्थ पण संसार-नदीमां डूबी जाय, एटले पण एकलुं ज्ञान काम न आवे. साथसाथ क्रिया पण जोईए. जेम महाकष्टपूर्वक शालि निपजाव्या होय, तेने कोठारमां भरी मूक्या होय, जो तेनो उपभोग न करे तो तें संग्रह निष्फळ निवडे तेम ज्ञानवडे हेय, उपादेय अने ज्ञेयने जाणीने ते प्रमाणे आचरे नहीं तो ज्ञान पण शालिसंग्रहनी माफक निष्फळ छे. आवो संविज्ञपक्षी पोते जो अन्य साधुने वंदावे नहीं पण पोते वांदे तो भविष्यमां ते सुलभबोधि थाय. त्रीजो भांगो श्रेष्ठ छे. गणधर भगवंत चौदपूर्वधारीओ आ भांगामां समावेशित थाय छे. वर्तमानकाळे तो जेटलुं ज्ञान छे तेनो सूत्रार्थ जाण्यो होय, तेनुं ग्रहण कर्तुं होय, परमार्थ जाण्य होय तेने गीतार्थ कहीए. ‘पांचमो आरो तो दुसम छे, छेवट्टं संघयण छे माटे केम करीए ?' एम शिथिल बनी वीर्यने गोपवे नहीं, पण चारित्रमां छतुं बल-वीर्य फोरवे तेने संविज्ञ कहीए. कह्यं छे के– “को, वा......... जईण सया ॥ २ ॥” तीर्थंकर परमात्माए कह्या प्रमाणे सर्व करवाने अशक्तिमान होय पण यथाशक्ति (पोताना सामर्थ्य प्रमाणे) चारित्र पालन करे एटले के आहारपाणी लेवामां अने आरोगवामां शूरो शरीरे पुष्ट बनवामां प्रवीण अने प्रतिक्रमण - पडिलेहणादि क्रियाओ करवामां शिथिल न होय परंतु चारित्र पालन करवामां दृढ प्रतिज्ञावाळो होय, काळ प्रमाणे जयणापूर्वक वर्ते, ईर्ष्यारहितपणे उद्यमवंत होय अने लोकदेखाव माटे क्रिया न करे ते ज साचा यति-साधु छे. जयणा करतां छतां पण क्वचित् प्रमादना योगथी, दुसमकाळ, हीनबुद्धि अने छेवट्ठा संघयणना कारणथी दोष लागी जाय तो पण तेने चारित्रपात्र समजवा, पण विराधक न समजवा; कारण के पोताना बळवीर्य प्रमाणे चारित्र पाळे छे, दोष लगाडवाना इच्छुक नथी, सूत्रोक्त अपवाद श्रीगच्छाचार- पयन्ना— १४७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवे छे तेने आलोवे छे. आ संबंधमां दृष्टांत जणावतां कहे छे के कांटावाळा मार्गमां चालता घणी ज सावचेती राखे तो पण चूकी जाय तेम चारित्र मार्ग कंटकव्याप्त छे. कोईक अपवादमार्गनुं पण सेवन करी शके छे, कारण के काउस्सग्ग ऊभा ऊभा करवानुं कथन छे छतां असमर्थ होय तो बेसीने करे अने तेम पण करवाने अशक्तिमान होय तो सूतां सूतां पण करे. आ प्रमाणे करवाथी ते चारित्रनो विराधक गणातो नथी. आ संबंधमां विशेष वर्णन श्राद्धप्रतिक्रमण चूर्णीमां करेल छे. चोथो भांगो लिंगधारीने ज होय छे, जे वेषमात्र धारण करीने पेट भरे छे तेवा लिंगियाने गुरु मानवाथी तो मिथ्यात्व लागे. आ चार भांगा पैकी त्रीजा भांगावाळा ज साधु खरेखर गीतार्थ छे अने तेमना वचननुं मरणांत कष्ट आवे तो पण पालन करवुं ज. आ प्रमाणे गीतार्थनी महत्ता जणावी, हवे अगीतार्थ उपदेश केवो दुःखदायक थाय छे ते जणावे छे— अगीयत्थस्स वयणेणं, अमियंपि न घुंटए । जेण नो तं भवे अमयं, जं अगीयत्थदेसियं ॥ ४६ ॥ परमत्थओ न तं अमयं, विसं हालाहलं खु तं । न तेण अजरामरो हुज्जा, तक्खणा निहणं वए ॥४७॥ [ अगीतार्थस्य वचनेना-मृतमपि न पिबेत् । येन न तद् भवेदमृत्तं यदगीतार्थदेशितम् ||४६ ॥ परमार्थतो न तदमृतं, विषं हालाहलं खलु तत् । न तेनाजरामरो भवेत्, तत्क्षणात् निधनं व्रजेत् ॥४७ ।।] गाथार्थ - अगीतार्थना वचनवडे कोई अमृत पण न पीवे कारण के ते पोते ज दोषित होवाथी ते अमृत वास्तविक अमृत होतुं नथी. परमार्थथी तो ते अमृत पण हलाहल विष जेवुं होय छे, जेथी अजरामर थवातुं नथी तेमज मृत्युने पण दूर हटावी शकातुं नथी- तत्काळ मृत्यु ज निपजे छे. विवेचन - ऊपरनी गाथामां दर्शावेला चार भांगा पैकी चोथा भांगावाळो साधु अगा जाणवो. तेना द्वारा उपदेशाती तपश्चर्यादि क्रिया पण, खरेखर तो ते अमृतस्वरूप छे तो पण, झेर सदृश ज बने छे. तेना द्वारा तपनुं पच्चखखाण पण न लेवुं तो पछी तेनी पासे व्रतादि उच्चरवानी तो वात ज क्यांथी संभवे ? दूधनो गुण तो तेनो ते ज होय छे, परंतु ज्यारे ते सर्पना उदरमां जाय छे त्यारे झेररूपे परिणामे छे तेम तपस्या, व्रत इत्यादिक धार्मिक अनुष्ठानो तो अमृतस्वरूप छे परंतु ज्यारे ते अगीतार्थद्वारा उपदेशाय छे त्यारे झेर सदृश बनी जाय छे. तेनाथी अजरामर पद-मोक्षनी प्राप्ति थती नथी परंतु अनंत संसारमां भ्रमणरूप मृत्यु ज थाय छे. श्रीउपदेशमालामां कह्यं छे के— “जं जयइ अगीयत्थो, जं च अगीयत्थनिस्सिओ होइ । वट्टावेइ य गच्छं, अणंतसंसारिओ होई ॥१ ॥ कहउ जयंतो साहू, वट्टावेइ य जो उ गच्छं तु । संजमजुत्तो होडं, अणंतसंसारिओ भणिओ ॥ २ ॥ दव्वं खित्तं कालं, भावं पुरिसपडिसेवणाओ य । न वि जाणइ अगीओ, उस्सग्गववाइयं चेव श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १४८ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३ ।। जहठियदव्वं न याणइ सच्चित्ताचित्तमीसियं चेव । कप्पाकप्पं च तहा, जोगं वा जस्स जं होइ ॥४॥" जे अगीतार्थ होय अने पोतानो गच्छ वधारे ते तेमज अगीतार्थनी निश्राए पण जे रहे ते अनंतसंसारी थाय छे. गच्छने वधारतो उद्यमवंत अगीतार्थ अनंतसंसारी केम थाय? ते प्रश्नना जवाबमां कहे छे के-द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव, पुरिस, प्रतिसेवणा (कारणे दोष लगाडवो) आ छ प्रकार अगीतार्थ न जाणे,तेमज अपवाद अने उत्सर्ग मार्ग न जाणे, जेवा द्रव्य होय तेवा यथास्थित न जाणे, सचित्त, अचित्त अने मिश्र न जाणे, ‘आ कल्पे अने आ न कल्पे' ते पण न जाणे, जोग पण न जाणे-आ प्रमाणे ते पोते ज अज्ञानी होवाथी स्वयं अनंत संसारमा परिभ्रमण करे छे अने पोताना आश्रितने पण परिभ्रमण करावे छे. आवा अगीतार्थनो संग न करवो ते जणावतां कहे छे– अगीयत्थकुसीलेहिं, संगं तिविहेण वोसिरे । मुक्खमग्गस्सिमे विग्घे, पहम्मि तेणगे जहा ||४८ ।। [अगीतार्थकुशलैः, सङ्गं त्रिविधेन व्युत्सृजेत् । मोक्षमार्गस्येमे विघ्नाः, पथि स्तेना यथा ॥४८॥] गीतार्थ- मन, वचन अने कायाथी अगीतार्थ तथा कुशीलियानो संग सदा त्यजी ज देवो, कारण के चोर अथवा डाकुओ जेम मुसाफरीमां विघ्नकारक छे तेम ते पण मोक्षमार्गमां हानिकारक छे. विवेचन- पांच प्रकारना अगीतार्थ छे. पासत्थो, ओसन्नो, कुशीलियो, संसक्त अने यथाच्छंदनक. जेम त्राजवानी मध्य दांडी ऊंची करता आपोआप बन्ने बाजुना त्राजवा ऊंचा नीचा थाय ज छे तेम अहीं मुळगाथामा अगीतार्थ कशीलमध्यमां सुचववाथी स्वयमेव पूर्व अने पश्चिमना बे-बे अगीतार्थो ग्रहण कराई ज जाय छे. आ पांचे प्रकारना अगीतार्थोनो संग त्रिविधे त्रिविधे (मन, वचन, कायाथी करवं, करावq अने अनुमोद) कदापि करवो नहीं. श्रीमहानिशीथसूत्रना छठ्ठा अध्ययनमां का छे के-आंखो जेनी फूटी गई छे तेवी स्थितिमां लाख वर्ष रहेवू सारुं परंतु अगीतार्थनी पास एक क्षण (दश सेकंड) के अडधी क्षण पण न रहे. कोई शंका करवापूर्वक पूछे के पोताना गुरु पाछळथी पासत्था थई गया होय तो शिष्ये शुं करवू? आ संबंधमां श्रीउपदेशमालानी ३७६मी गाथानी हेयोपादेय नामनी टीकामां का छे के -“गीयत्थं संविग्गं, आयरियं मुयइ वलइ गच्छस्स । गुरुणो य अणापुच्छा, जं किंचि वि देइ गिण्हइ वा ॥१॥" मोक्षना अभिलाषी संविज्ञगीतार्थ आचार्यने विना कारण छोडे, गच्छनो त्याग करे,तेमज आज्ञा विना कंई पण दे अगर तो ले तो दोषभागी थाय; परंतु आ अगीतार्थनो त्याग करवामां दोषनो लेशमात्र संभव नथी. श्री स्थानांगजीना त्रीजा स्थानकमां पण का छे के-प्रमादी आचार्यनो त्याग करवो. आवा अगीतार्थ साधुओने चोर, लूटारा सरखा जणाव्या छे. एक नगरथी बोजा नगरे जतां रस्तामां डाकुओ मळे तो ते विघ्न करे अने संपत्ति होय तो लूटी ले तेम आ अलार्थ साधुरूपी चोरो मोक्षमार्गरूपी नगरमां पहोंचता उपद्रव करे छे अने शुद्ध धर्मरूपी आलि पनि लूंटी लई अगाध श्रीगच्छाचार–पयन्ना-१४९ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारसागरमा रझळावे छे माटे आवा विघ्नकारक अगीतार्थनो संग सदा वर्जवो. पज्जलियं हुयवहं दद्वं, निस्संको तत्थ पविसिउं । अत्ताणं निद्दहिज्जाहिँ, नो कुसीलस्स अल्लिए ॥४९ ॥ [ प्रज्वलितं हुतवहं दृष्ट्वा, निःशङ्कं तत्र प्रविश्य । आत्मानं निर्दहेत्, नैव कुशीलमालीयेत् ॥४९ ।।] गीथार्थ— धगधगती अग्नि-ज्वालामां नि:शंकपणे प्रवेशीने पोताना देहने भस्मसात् करी नाखवो सारो परंतु कुशील अगीतार्थनो संग न ज करवो. -- विवेचन- अग्निमां पात करवाथी एक ज वखत मृत्यु प्राप्त थाय छे ज्यारे कुशीलिया पासत्थादिकना संसर्गथी अनंत संसारमां अनंत वार जन्म-मरण करवा पडे छे, अत्यंत दुःख-कष्टपरंपरा सहन करवी पडे; माटे ज कह्यं छे के एक वार मरण पमाडे तेवो अग्नि सारो. श्रीमहानिशीथ सूत्रना बीजा अध्ययनमां कह्यं छे के– “जीवे संमग्गमाइण्णे, घोरं वीरं तवं चरे । अचयंतो इमे पञ्च, कुज्जा सव्वं निरत्ययं ॥ १ ॥ पासत्थोसन्नहाछंदे, कुसीले सबले तहा । दिट्ठीए वि इमे पंच, गोयमान निरक्खि ॥ २ ॥ " हे गौतम ! कोई व्यक्ति सन्मार्गमां रहीने तीव्र तपश्चर्यादि धर्मकरण करे परंतु जो ते पासत्थो, ओसन्नो, कुशीलियो, यथाच्छंदनक अने संसत्तो - ए पांचनो संसर्ग करे तो तेनी धर्मकरणी निष्फळ छे. ते पांच प्रकारना लिंगियो तो दृष्टिमात्र थी जोवा लायक नथी तो तेना परिचयनी तो वात शा माटे करवी ? कुशीलियाना संग संबंधमा श्री महानिशीथना चोथा अध्ययनमां भगवंत श्रीमहावीरस्वामीए गौतमस्वामीने सुमतिनुं जणावेल दृष्टांत विचारणीय छे. ! अगीतार्थना संगथी महाविषम फल सुमतिनुं वृत्तांत कुशस्थल नामना नगरमां नागिल अने सुमति नामना बे भाईओ रहेता हता. तेओ जीवाजीवादि नव तत्त्वना ज्ञाता हता. बनेए संपत्ति पण सारा प्रमाणमां मेळवी हती, परंतु कोईक समये अंतरायकर्मना उदयथी तेमनुं धन नाश पाम्युं. आम छतां पण तेओनी धर्मश्रद्धा अचल हती. व्यापारमां कूड कपट करता नहीं, असत्य बोलता नहीं, दानादिक चार प्रकारना धर्मनुं यथार्थ पालन करता, मत्सर, द्वेष, ईर्ष्यादि कंई करता नहीं, स्वजन-संबंधी ओने धर्मोपदेश आपता- आ प्रमाणे वर्तन राखवा छतां अशुभ कर्मना उदयथी तेमने धन प्राप्त न ज थयुं. आवी रीते केटलाक वर्षो व्यतीत थई गया एटले स्त्री-पुत्रादि पण तेमनो अनादर करवा लाग्या. तेमना प्रत्ये कुटुंबीजनोनो सत्कार पण ओछो थई गयो. एकदा एकांतमां ते बने भाईओ विचारवा लाग्या के– “जा विहवो ता पुरिसस्स, होइ आणापडिच्छओ लोगो । गलिओदयं घणं, विज्जुला वि दूरं परिच्चयइ ॥ १ ॥ " ज्यां पुरुष पासे धन होय त्यां सुधी तेनी आज्ञा पुत्र-परिवारादिक माने परंतु धनविहीन स्थितिमां तो तेनी अवज्ञा थाय. जेम जळयुक्त मेघ होय तो वीजळी तेनो संग करे छे, परंतु जळ रहित स्थितिमां ते पण श्रीगच्छाचार - पयन्ना — १५० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेना त्याग करी जाय छे. वाद नागिले कां—“पुरिसेण माणधणवज्जिएण, परिहीणभागधिज्जेण । ते देसा गंतव्वा, जत्थ सवासी न दीसन्ति ॥१॥" आदर भाव तथा धन रहित अने हीनभाग्यवाळा पुरुष पोताना देशनो त्याग करीने जे देशमां पोताना गामनो वसनारो कोई न हाय तेवा गाममां वसवाट करवो जोईए. “आ कथन सांभळी सुमतिए कह्यं – “जस्स धणं तस्स जणो, जस्सत्यो तस्स बंधवा बहवे । धणरहिओ अ मणूसो, होइ समो दासपेसेहिं ॥१॥" जेनी पासे धन छे तेने घणो परिवार छे, धनवानना बंधुओ पण घणा थाय छे; परंतु जे धन रहित छे तेने तो सेवाभाव स्वीकारवो पडे छे माटे आपण देशांतर जईए. जो संयोग सारा मळशे तो ठीक, नहीं तो चारित्र अंगीकार करशं." आ प्रमाणे परम्पर विचारीने वंने भाईओ कुशस्थळना त्याग करी चाली निकळ्या. ___ मार्गमा चालता तेमणे पांच साधु अने एक श्रावकने चाल्या जतां जोया एटले नागिले का-“भाई ! साधुनो साथ मल्यो छे तो आपणे तेमनी याथे जईए.” समतिए संमति दर्शावी. आ प्रमाणे चालतां ही एक मुकाम पूर्ण थयो नहीं तेवामां नागिले सुमतिने का के–“हरिवंशना तिलकसमा वावीशमा तीर्थंकर श्रीअरष्टनेमिए एकदा फरमाव्यु हतुं ते मुजब आपणे जेनी साथे चाली रह्या छे तेवा साधुओ कुशीलिया होय छे. कुशीलिया साधुने दृष्टिमात्रथी निरखवा पण योग्य नथी तो तेमनो संग तो केम ज कराय? आ साधुओ कुशीलिया जणाय छे माटे आपणाथी हवे श्रणमात्र पण तेमनी माथे रहेवाशे नहीं." आ प्रमाणे कहीने, समतिनो हाथ खेंचीने नागिल तेने वीजी वाजु लई गया. त्यां आगळ शुद्ध भूमि तपासीन बन्न बैठा त्यार समतिए जणाव्य के-हे भाई ! गरुन, माता, पिता, ज्येष्ठ भाई अने मोटी भगिनीन उनर न आपवो (सामं न बोलव) एवी आज्ञा छे तो हे वडील बंधु ! हुं हवे तमने शुं कहुं ? ऊपर कहेला शख्यो जे कहे तेने (तहत्ति) प्रमाणभूत मानवं; ते खरुं छे के खोटुं छे ? ते संबंधी विचार न करवो. आम कहीने सुमतिने नागिल प्रत्ये कंईक कहे हतुं छतां बोली शक्यो नहीं. इंगिताकार जाणवामां कुशळ नागिले विचार्यु के-सुमतिने कंईक कहेवू छे, पण लज्जाथी कही शकतो नथी ने वृथा कषाय करे छे. हमणा तेनो क्रोध शांत थवा दो. हमणा हुं कंई तेने हित-शिखामण आपीश तो ते मानशे नहीं. वळी विशेष विचार करतां तेने जणाव्यु के-तेना मननी शंका हमणा ज टाळवी सारी छे, कारण के ते भोळा हदयनो होवाथी पापकृत्यने जाणी शकतो नथी. आ प्रमाणे विचारी तेणे सुमतिने फरी का के–“भाई ! हुं तने दोष आपतो नथी. कर्मनो ज दोष छे, कारण के सगाभाईने पण शिखामण आपतां विपरीत लागे छे अने बोध पण थतो नथी. आ सर्व राग, द्वेष, अने मिथ्या आग्रह-मिथ्यात्वनी ज चेष्टा छे." नागिलनं आवं वचन सांभळी सुमतिए का-“भाई ! तुं सत्यवादी अने सूत्रनो सांभळनार छे, पण तुं ते साधुओना अवर्णवाद करे छे ते योग्य नथी. ते साधुओ तो छ?, अट्ठम तथा मासखमणादि तपक्रिया करे छे, वीरासन, उत्कटुकासन प्रमुख कप्रक्रिया करे छे. वळी अनेक प्रकारना अभिग्रह करे छे. आवा साधुओने तु कुशीलिया कहे छे तो तारुं ज्ञान केर्बुजाणवू?" नागिले जवाबमां का-“भाई ! एवी बाह्य तपस्याथी तुं ठगाईश नहीं. बाल तप अने आ उत्सूत्रप्ररूपणामां शो फरक छे? मारे शुं तेओना श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १५१ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर द्वेष छ के हं एमना अवर्णवाद बोलू? तीर्थंकर भगवंतनी आज्ञा मुजब ज हुं कहुं छं के -आवा कुशीलिया जावा योग्य नथी.” सुमतिए आ प्रमाण सांभळी कईंक उश्कराईन का-“जवा तुं बुद्धिहीन छ तम तने तेवू कहनारा तीर्थकर पण बुद्धिहीन हशे." आ कथन सांभळतां ज नागिले सुमतिना मुख आगळ पातानो हस्त आडो धरी बोलवानो निषेध कयों अने का-“भाई ! आम न बोल. तेथी तो तीर्थंकर परमात्मानी आशातना थाय. मने तारे जेम कहे होय तेम कहे पण तीर्थंकरनी निंदा कदापि न करीश." आ सांभळी सुमतिए नागिलने पुछ्यु-“आ साधुओ कुशीलिया हता तो जगतमां कोई सुशील साधु छ के नहीं ?" आ प्रमाणे रोपित सुमतिने शांत करतां नागिले का–“भाई ! एम न बोल. तीर्थकर परमात्माना शासननी हीलना न कर. जिनेश्वर भगवंतनुं वचन कदापि लंघनीय ना. तमना शासनमां तो अनेक शुद्ध चारित्रपात्र मुनिपुंगवो विद्यमान होय छे. ते साधुओ कालिया हता तेना कारण तं सांभळ-अधिक उपकरण राखवा ते परिग्रह छे. साधुओए तो परिग्रहपरिमाण नामनुं व्रत स्वीकारेलुं होय छे; छतां आ साधुओए बीजी मुहपत्ति राखी छे. एक मुहपत्ति खोवाई जाय अगर तो फाटी जाय तो बीजी उपयोगमां आवे तेवा विचारथी तेओए राखी छे; परंतु शुद्ध संयम-पालन करनार साधुने कदी पण उपकरणनी चिता भोगवी पद्धती ज नथी. आ तेमनुं उन्मार्ग आचरण छे. बळी ते हमणा ज जोयु के मोटा केशवाळा ते साधुए लोच करवा निमित्ते वहोराव्या सिवाय ज भरम लीधी. वळी पेला संघटित कानवाळा मुनिए सूर्य न ऊग्या छता सूर्योदय थई गयो, चालो आपणे जईए' एम कहीने मृपावादनुं सेवन कर्यु ते तो तुं जाणे ज छे. वळी पेला साधुए रात्रिसमये अग्निकायना ज्योतमां कपडो सांध्यो, प्रात:काळमां लीली वनस्पति अने वीजो चाप्या-आ वधी उपयोगशून्य क्रिया ज तेमनी चारित्रहीनता सूचबवा माटे पर्याप्त छे. सुविहित साधुए तो छक्कायना सूक्ष्म बादर जीवानी जयणापूर्वक चालवू, सूq विगेरे क्रिया करवी जोईए. आ साधुओ पैकी एक पण तेवा शुद्धाचारवाळो जणातो नथी. छक्काय- मर्दन करनार साधु करतां कसाई पण सारो, माटे हे भाई सुमति ! आवा कुशीलिया साधुने जाणीने वंदन करवानी वात पण केम घटी शके? आवा साधुना संसर्ग के वंदनथी आपणुं पण चारित्र भ्रष्ट बने अने अनंत संसारभ्रमण वधे." आ प्रमाणे नागिले समजाव्या छतां सुमति बोल्यो के–“मारे तो तेमनी पासे दीक्षा लेवी छे. तुं जेवो धर्म कहे छे तेवो धर्म आजे कोण पाळी शके तेम छे ? माटे हवे मने रोक नहीं." आ प्रमाणे कहीने सुमति गयो अने दीक्षा लीधी. दीक्षा लीधाने पांच मास व्यतीत थया तेवामां बार वर्षनो भयंकर दकाळ पड्यो अने आलोयण, प्रतिक्रमण कर्या विना ते कशीलिया साधओ काळधर्म पामीने वाणव्यंतरजातिना भूत, यक्ष, राक्षस अने पिशाचना वाहन तरीके उत्पन्न थया. त्यांथी च्यवीने म्लेच्छ थया. त्यां मांसाहार करीने सातमी नरकमां उपज्या. त्यांथी निकळीने त्रीजी चोवीशीमां समकित पामशे. समकित पाम्या पछी बीजे भवे चार जणा मोक्षे जशे पण पांचमो जे ते कार्यमा अग्रेसर हतो ते एकांत मिथ्यादृष्टि ने अभव्य होवाथी मोक्ष नहीं पामे. आ प्रमाणे सांभळी गौतमस्वामीए पछ्यु के-“हे भगवन् ! सुमति मरीने क्या उपज्यो?" भगवंते का-“परमाधामी देव थयो.” गौतमस्वामीए पुन: पूछा-“हे भगवंत ! क्या कारणथी श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १५२ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव परमाधामी देव तरीके उपजे?" भगवंते को–“जे प्राणी तीव्र राग, द्वेष तेमज महामिथ्यात्वनुं सेवन करे छे तथा शास्त्रना गंभीरार्थने समज्या विना उत्स्थापना करे छे ते परमाधामी देव थाय छे. नागिले कशीलिया संबंधी कहेवा छतां समतिए का-'ते कशीलिया नथी, जो तेओ कशीलिया होय तो जगतमां सुशील कोण होई शके? मारे तो तेनी पासे दीक्षा लेवी छे' - आ प्रमाणे का ते उत्थापना करी. वळी तेणे नागिलने का के–'तुं जेवो निर्बुद्धि छे तेवा तीर्थंकर भगवंत पण बुद्धिहीन हशे.' आ प्रमाणे आशातना करवाथी दीर्घ तपश्चर्या करवा छतां पण तेना चीकणा कर्म छूट्या नहीं अने परमाधामी देव थयो. बाद गौतमस्वामीए पूछ्यु के-हे स्वामिन् ! सुमति परमाधामी देवमांथी क्यां उपजशे? भगवंते का हे गौतम ! अनाचारनी प्रशंसा करवाथी अने सन्मार्गउत्थापन करवाथी ते मंदभागी सुमतिए अनंत संसार उपार्जन को. तेना जन्म मरण नो छेडो नथी. तेना केटला कष्टो तने वर्णq? अनंत पुद्गलपरावर्तो सुधी ते चार गतिरूप संसारमा रझळशे, छतां पण तने संक्षेपथी कहुं छु ते तुं सांभळ-परमाधामी देवमांथी च्यवीने ते जळमनुष्य थशे. आ जळमनुष्य क्या थाय छे? तेने केवा संतापदायक कष्टो भोगववां पडे छे ते तुं ध्यानपूर्वक समजी ले. आ जंबूद्वीपनी फरतो चारे बाजु लवणसमुद्र वीटळायेलो छे. ते लवणसमुद्रने जे स्थळे सिंधु तथा गंगा नदी मळे छे तेनी दक्षिणमां पंचावन योजन दूर वेदिकानी मध्यमां हाथीना कुम्भस्थळना. आकारवाळं साडाबार योजनप्रमाणवाळु पडिसंतापदायक नामनुं स्थान छे. ते स्थानमा अत्यंत भयंकर, अंधकारवाळी अने घडियाळना जेवा आकारवाळी सुडतालीश गुफाओ छे. ते गुफामां. निरंतर वारंवार जळचारी मनुष्य रहे छे. ते मनुष्यो वज्रऋषभनाराचसंघयणवाळा, महाबलिष्ठ, पराक्रमी, साडाबार हस्तप्रमाण देहमानवाळा, संख्याता वर्षना आयुष्यवाळा, मध, मदिरा अने मांसना अत्यंत लोलुपी, स्त्रीमां आसक्त, खराब वर्णवाळा, अस्निग्ध ऊंचा शरीरवाळा, हस्तीना जेवा मुखवाळा, सिंहनी जेवी भयंकर दृष्टिवाळा, यमराजना जेवा बीहामणा, मजबूत पीठवाळा तेमज अत्यंत अभिमानी होय छे. तेओनी अंतरंडगोळी (अंडजनी गोळी) ने ग्रहण करीने, ते गोळीने चमरी गायना श्वेत वाळथी गुंथीने जे माणस पोताना कर्णमां पहेरी राखे ते समुद्रना अगाध जळमां जाय तो पण कोई पण मगरमच्छ, महामत्स्य, जळघोडा विगेरे शिकारी प्राणियो लेशमात्र उपद्रव करी शके नहीं. ते अंडगोलकना प्रभावथी ते हिंसक प्राणियो नजीक आवी शकता नथी अने तेथी ते अंडगोलकने धारण करनार मानवी इच्छा प्रमाणे जळमां विचरी जातिवंत-रत्न ग्रहण करी शके छे. आ अंतरगोलकना कारणे ज जळमनुष्यने अतीव कष्ट भोगवq पडे छे. तेओ एटला बधा पराक्रमी होय छे के तेनी पासेथी अंडगोलक सहेलाईथी मेळवी शकातुं नथी एटले तेने अतीव कष्टमां पाडीने, तेने शक्तिहीन करीने पछी तेना पासेथी अंडगोलक मेळवी शकाय छे. ते समये ते जळचर मनुष्यने नारकीना जेवू घोर कष्ट भोगवq पडे छे. हे गौतम ! अंडगोलकने कोण ग्रहण करे ते हवे तने जणाएं छु. लवणसमुद्रने विषे ते पडिसंतापदायक स्थानथी एक सो एकत्रीश योजन दूर रत्नद्वीप नामनो द्वीप छे. तेमां वीस, ओगणीस, अढार, आठ अने सात धनुष्यना प्रमाणवाळी, घंटीना आकारवाळी यंत्रयुक्त वज्रशिलाओ छे. ते शिलाओने उघाडीने, पूर्वसिद्ध क्षेत्रना स्वभावथी तेने सिद्ध करीने, ते श्रीगच्छाचार–पयन्ना- १५३ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलाओने मांस-मदिरा अने मधुथी लिप्त करे छे. आ जळचर मनुष्यो मांस-मदिरामां अत्यंत आसक्त होय छे. तेने कब्जे करवा माटे रत्नद्वीपवासी लोको मांस अने मदिराना कुंडा भरीने पडिसंतापदायक स्थानमा जाय छे. जेवामां जळचर मनुष्यो रत्नद्वीपवासी मानवीओने जुवे छे के तरत ज तेने मारवा दोडे छे. रत्नद्वीपना लोको मांस-मदिराना कुंडा त्यां मूकी दईने रत्नद्वीप तरफ पाछा वळी जाय छे. जळचर मनुष्यो ते कुंडाने जोईने त्यां थंभी जाय छे अने तेमाना पदार्थ खाई जाय छे. खाई लीधा पछी पण तरत ज रत्नद्वीपवासी प्राणियोनी पाछळ दोडे छे एटले तेओ पाछा मांस-मदिराना कुंडा मूकी दूर नाशी जाय छे. आ प्रमाणे करता करतां तेओ रत्नद्वीप समीप जळचर मनुष्योने खेंची जाय छे. ते लोकोए वज्रशिलाओमां पण मांसना लोचा चोंटाडेला होय छे, माछलिओ राखी मूकी होय छे, मधनुं चारे बाजु लेपन करेल होय छे. रत्नद्वीप पासे आवतां ज आ शिलाओ जळचर मनुष्यनी नजरे पडे छे एटले तेओ मांस-मदिरानी आसक्तिथी ते शिलामा दाखल थाय छे. आ शिलाओनो आकार फाडेला मुख जेवो होय छे. जळमनुष्यो ते मांस-मदिराने जोईने अत्यंत प्रसन्नपणे सुखपूर्वक तेमां रही आरोगे छे. आ प्रमाणे दश-पंदर दिवस व्यतीत थाय छे तेवामां रत्नद्वीपना मनुष्यो बाण, खड्ग, भाला प्रमुख शस्त्रास्त्रोथी सज्ज थईने ते शिलाओ फरतां सात-आठ वखत वीटळाई वळे छे. बीजा केटलाक ते शिलाओमां रहेला जळचर मनुष्योने एकत्र करावे छे. जो जळचर मनुष्य पैकी एक पण वज्रशिलानी घंटीमांथी छटकी जाय तो ते रत्नद्वीपवासी समग्र प्राणियोनो संहार करी नाखे. बाद यंत्रद्वारा वज्रशिलामय घंटीना पड एकठा करीने ते जळचर मनुष्योने दळवा लागे. तेओना हाड एटला मजबूत होय छे के-आ प्रमाणे एक वर्ष पर्यंत सतत पीसावा छतां हाथ फाटी जाय नहीं के पीसाय पण नहीं. शरीरना बधा सांधाओ शिथिल थई जाय त्यारे घंटीनी पाछळ आंगळीनु हाडकुं जोईने रत्नद्वीपवासी मनुष्यो अत्यंत आनंद पामे. पछी दळवानो परिश्रम छोडी दई, घंटीनी शिलाओ अळगी करी ते जळचर मनुष्योना अंडगोलक लई ले. पछी ते अंडगोलक पुष्कळ द्रव्यवडे वेची नाखे. वज्रशिलानी मध्यमां एक वर्ष पर्यंत पीसाता ते जळमनुष्योने नारकीय भयंकर यातनानो अनुभव थाय छे.” आ प्रमाणे हृदय-विदारक वर्णन सांभळी गौतमस्वामी पुन: भगवंतने पूछे छे के–“हे भगवंत ! आ प्रमाणे एक वर्ष पर्यंत वज्रशिलानी घंटीमां पीसावा छतां आहार-पाणी विना ते जळचर मनुष्यो केम जीवी शके?" भगवंते जवाब आप्यो के–“हे गौतम ! करेला कर्मना स्वभावथी तेओने आवं कष्ट सहन करवू पडे छ, अर्थात् करेला को भोगववा माटे तेओ एक वर्ष पर्यंत जीवंत रहे छे.” आ संबंधी विशेष अधिकार प्रश्नव्याकरणनी टीकामांथी जोवो. वळी गौतमस्वामीए पछ्यं के “हे भगवंत ! सुमतिनो जीव जळचर मनुष्यमांथी मरीने क्या क्या उपज्यो?" भगवंते का के–“जळमनुष्यपणामां उपार्जेला कर्मोने कारणे तेना ज सात भवो कर्या बाद तेनो जीव १ शिकारी श्रनि थशे, पछी २ कागडानो भव करशे, पछी ३ वाणव्यंतर, ४ लींबडाना वृक्षमां, ५ मनुष्यनी स्त्री, ६ छट्ठी नारकीमां, ७ कोढियो मनुष्य, ८ यूथाधिपति हस्ती, ९ त्यां मैथुनमां आसक्त थईने अनंतकाय (साधारण वनस्पति), १० बाद अनंतकाळ परिभ्रमण करीने नैमित्तिक, ११ सातमी नरक, १२ श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १५४ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामत्स्य, १३ सातमी नरक, १४ बळद, १५ मनुष्य, १६ वृक्ष काकिल, १७ जलोग, १८ तंदुल मत्स्य, १९ सातमी नरक, २० गधेडो, २१ श्वान. २२ कीडो, २३ उंदर, २४ अग्निकाय, २५ कुन्थुओ, २६ मधुकार, २७ चकला, २८ उधइ, २९ वनस्पतिकाय, ३० स्त्रीरत्न, ३१ छट्ठी नरक, ३२ हस्ती. ३३ वेसामंडिय नामना नगरमा उपाध्यायना घर पासे लीवडाना वृक्षरूपे वनस्पतिकायमा उपजशे, ३४ कुञा स्त्री, ३५ नपुंसक मनुष्य, ३६-३७ दरिद्री मानव, ३८ पृीकाय, ३९ मनुष्य, ४० मनुष्यभवमां बाळतपस्वी, ४१ वाणव्यंतर, ४२ पुरोहित, ४३ सातमी नरक, ४४ मत्स्य, ४५ सातमी नरक, ४६ बळद, ४७ मनुष्य तरीके महासमकिती अविरति चक्रवर्ती, ४८ पहेली नरक, ४९ श्रेष्ठी, ५० साधु, ५१ अनुत्तर विमानमां देव, ५२ चक्रवर्ती थई, कामभोगोनो त्याग करी दीक्षा अंगीकार करशे अने तीर्थंकर भगवंते उपदेशेला चारित्र प्रमाण तेन यथार्थ पालन करी मोक्षे जशे. हे गौतम ! आ प्रमाणे जे साधु-साध्विओ तथा श्रावक-श्राविका पाखंडीनी प्रशंसा करे, निह्नव अथवा तो उत्सूत्रप्ररूपकनी पुष्टि करे, तेवानी साथे बोले-चाले, तेवाने भणावे, तेओने वसति आप, तवाए रचेला शास्त्रने प्ररूपे, तेओना कायक्लेश, तप, संयम, ज्ञान अने विद्रुताना वखाण करे ते पण समतिनी माफक परमाधामी थाय.” विशेष वृत्तांत महानिशीथना चोथा अध्ययन थी जाणवू. आ प्रमाणे सुमतिनी भवपरंपरा सांभळी गौतमस्वामीए नागिलनी गति संबंधी पृच्छा करी एटले भगवंते जणाव्यं के–“कुशीलियानो संग त्यजी दईने ते नागिल सिंह तथा विशाळ वृक्षोथी व्याप्त ते भयंकर अटवीमा परमात्माना वचनने परम हितकारी समर्जी जीव रहित पृथ्वीपीट पर पादपापगमन अनशन स्वीकारीने रह्यो. तनी तवा स्थिति जाणीने, तने भव्य जीव जाणीने वावीशमा तीर्थंकर श्रीअरिष्टनेमि तेना पर उपकार करवानी वद्धिथी आकर्षाई त्यां पधार्या अने मेघ जेवी गंभीर गिरावडे उपदेश आप्यो. ते उपदेशने सद्दहतो, शुभ अध्यवसायपूर्वक क्षपक श्रेणीए चढीने नागिल अंतकृत्केवली थयो अने मोक्षे गयो. हे गौतम ! कुशीलिया अगर तो पासत्थानो संग के भवभ्रमण करावे छे ते सुमति अने नागिलना दृष्टांत परथी सारी रीते समजी शकाय छे, माटे अग्निमां झंपापात करवा सारो परंतु कदापि पासत्थानो परिचय न करवो.” हवे केवा गच्छने सारो गच्छ न जाणवो ते सूचवे छे पजलंति जत्थ धगधग-स्स गुरुणा वि चोइए सीसा । रागदोसेण वि अणु - सएण तं गोयम ! न गच्छम् ।। ५० ॥ | प्रज्वलन्ति यत्र धगधगायमानं, गुरुणापि नोदिति शिष्या: । रागद्वेषेणापि अनुशयेन, स गौतम ! न गच्छः ॥ ५० ॥ गाथार्थ- हे गौतम ! 'तमारा जेवाने आम करवू उचित नथी' ए प्रमाणे गुरुए प्रेरणा-सूचना कर्या छतां पण जे गच्छमां शिष्य रागी, द्वेषी अने जाज्वल्यमान अग्निनी माफक क्रोधी होय तेमज दीक्षा लीधा संबंधी पश्चाताप करे ते गच्छ वास्तविक नथी. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१५५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचन- आचार्यनी फरज छे के-शिष्य उन्मार्गे चालतो होय, चारित्रनी शुद्धि न जाळवतो होय तो तेने सूचना करवा-हिशिखामण आपवी परंतु शिष्य शिखामण अंगीकार न करतां गुरु प्रत्ये द्वेष करे, उलटो क्रोधी वन अने मनमां विचार के-साधुपणुं तो पळातुं नथी, माथु न मुंडाव्यं होत तो सारुं हतुं, सुखपूर्वक भोजन करत अने आ प्रतिक्रमण, पडिलेहण तथा वैयावच्चादिक कडाकूट मटी जात. आवा अविचारी शिष्योवाळो गच्छ सुगच्छ न कहेवाय. पोतानी भूल होय अने गुरु शिखामण आपे तो पोतानी भूल कबूल करी गुरुनो उपकार मानवो ते ज सुविहित शिष्यनी फरज छे. पश्चाताप न करता ‘पोते क्या दीक्षा लीधी ?' एवो कुविचार मनमां लाववो ए पोतानी अधमगतिनी निशानी छे. आवा रोषी अने अविनीत शिष्यों स्वपरर्नु हित साधी शकता नथी, माटे तेवा शिष्योवाळा गच्छने सारो गच्छ न समजवो. आ संबंधमां कोईक कहे के-गच्छमां वसवूज नहीं, कारण के क्रोधादिकना प्रसंगी कर्मबंध थाय माटे एकलविहारी थर्बु शुं खोटं छे ? तो तेनो जवाब ए छे के-कदाच वक्रजडना कारणी राग-द्वेप या तो क्रोध उद्भवे तो पण गच्छनो त्याग करवो उचित ज नथी, कारण के एकला विचरवाथी स्वच्छंदता आवी जाय छे, द्रव्य चारित्र पण जतु रहे अने महाअनर्थन कारण प्रगटे माटे जो गच्छमां रहे तो आलोयणादिकथी अगर तो हितशिखामणथी शुद्धि थाय ती गच्छनो तो कदापि त्याग न करवो पण सारा गच्छमां ज निवास करवो. गच्छमां रहेवाथी शुं फायदो थाय छे ते जणावतां कहे छ के गच्छो महाणुभावो, तत्थ वसंताण निज्जरा विउला । सारणवारणचोअण-माईहिं न दोसपडिवत्ती ।।५१ ।। .. [ गच्छो महानुभाव-स्तत्र वसतां निर्जरा विपुला । स्मारणावारणाचोदना - दिभिर्न दोषप्रतिपत्ति: ॥५१॥] गाथार्थ - गच्छ महाप्रभावशाळी छे कारण के तेमां निवास करवाथी महानिर्जरा थाय छे तेमज सारणा, वारणा अने प्रेरणादिकवडे नवा दोषोनी उत्पत्ति थती नथी. विवेचन - सविहित साधुओनो समुदाय ते गच्छ कहेवाय. परस्परना आलंबनथी शुद्ध संयम-क्रियामा चित्त संलग्न रहे एटले बहु निर्जरा-कर्मक्षय थाय. वळी निरंतर सारणादिकथी पण जागृति रहे एटले नवीन कर्मबंध न थाय. सारणा एटले स्मरण करावq-स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, पडिलेहण, चैत्यवंदन, ध्यान इत्यादिक न कर्यां होय तो याद करी आपवा. वारणा-संयमक्रियामा स्खलना करता होय तेने उद्दशीने कहे के-आ काम करवू तमने घटतुं नथी, मातरुं प्रमुख बराबर परठवजो-आ प्रमाणे कहेवू ते वारणा. चोयणा-चारित्र अंगीकार कर्या छतां न करवा योग्य कार्य करे तो तेने उपदेश आपे, कठोर तेमज मिष्ट वचनथी समजावे अने पडिचोयणा- वारंवार समजावे अने विशेषमां कहे के-आ प्रमाणे जो तमारु अनुचित वर्तन रहेशे तो प्रायश्चित आवशे, माटे महामूल्यवंत चारित्रधर्म बराबर शुद्धिपूर्वक पाळो. आ प्रमाणे गुरु आदिकना सारणा-वारणादिकथी संयम-पालनमां जागृति रहे अने कर्मबंध न थतां कर्मनिर्जरा थाय ते निर्जरा केवा साधुओने थाय श्रीगच्छाचार–पयन्ना-१५६ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते संबंधी चार गाथा दर्शावतां कहे छे के गुरुणो छंदणुवत्ती, सुविणीए जिअपरीसहे धीरे । नवि थद्धे नवि लुद्धे, नवि गारविए विगहसीले ॥५२ ।। खंते दंते गुत्ते, मुत्ते वेरग्गमग्गमल्लीणे । दसविहसामायारी, आवस्सगसंजमुज्जुत्ते ॥५३ ।। खरफरुसकक्कसाए, अणिट्ठट्ठाइ निट्ठरगिराए । निब्भच्छणनिद्धाडण-माईहिं न जे पउस्सति ॥५४ ।। जे अन अकित्तिजणए, नाजसजणए नाकज्जकारी अ । न पवयणुड्डाहकरे, कंठग्गयपाणसेसे वि ॥५५॥ [गुरो: छंदानुवर्तिनः, सुविनीता जितपरीषहा धीराः । नापि स्तब्धा नापि लुब्धा, नापि गौरविला विकथाशीला: ॥५२॥ शान्ता दान्ता गुप्ता, मुक्ता वैराग्यमार्गमालीना: । दशविधसामाचारी-आवश्यकसंयमोद्यता: ॥५३ ।। खरपरुषकर्कशया, अनिष्टदुष्ट्या निष्ठरगिरा । निर्भत्सननिर्धाटना-दिभिः न ये प्रद्विन्ति ॥५४॥ ये च नाकीर्तिजनका, नायशोजनका नाकार्यकारिणश्च । न प्रवचनोड्डाहकरा:, कण्ठगतप्राणशेषेऽपि ॥५५॥] गाथार्थ- आचार्यना आशयने अनुसरनार, विनयी, परीषहने जीतनार, धैर्यशाली, निरभिमानी, लोलुपता रहित, गारव रहित, विकथानो त्याग करनार, क्षमावान, जितेन्द्रिय, गुप्तिवंत (ब्रह्मचारी), निर्लोभी-संतोषी, वैराग्यवासित, दशविध सामाचारी तथा आवश्यक करणी तेमज संयमयोगोमां सावधान, खर (आकरी) , परुष (कठोर) , कर्कश(करवत जेवी असहा) , अनिष्ट तेमजदुष्ट वाणी द्वारा अगर तो तिरस्कार के गच्छबाह्य करवा छतांजे लेशमात्र द्वेष न करे, अपकीर्ति न करे, अकार्य न करे तेमज प्राणनो संशय आवी पडे तो पण शासननी हीलना थाय तेवू कार्य न करे तेवा शिष्यो-साधुओ निर्जरा करे छे. विवेचन-बावीश प्रकारनां परिषहो छे, तेना बे विभाग छे. १ शीतपरीषह अने २ उष्ण परीषह. आचारांगसूत्रनी नियुक्तिमां का छे के–“इत्थीसक्कार-परीसहाय, दो भावसीयला एए। सेसा वीसं उण्हा, परीसहा होन्ति णायव्वा ॥१॥" स्त्री परीसह अने सत्कारपरीषह ए बंने परीषह शीत-ठंडा छे एटले ते शरीरादिकने कष्ट उपजावता नथी परंतु चारित्रमा स्खलना पमाडे छे; ज्यारे बाकीना वीश परीषहो उष्ण छे एटले ते चारित्र तथा शरीरने दुःख उपजावे छे. जो चारित्रथी चलायमान थाय तो दुःख अने न चलायमान थाय तो दुःख नथी परंतु शरीरने तो दुःख छ ज. वळी श्रीगच्छाचार-पयन्ना– १५७ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ संबंधी बीजी गाथा दर्शावे छे के– “जे तिव्वपरिणामा, परीसहा ते भवन्ति उण्हाओ । जे मंदपरिणामा, परीसहा ते भवे सीया ॥ २ ॥” जेनाथी राग-द्वेषादिक अधिक थाय ते उष्णपरीसह अने जेनाथी मंदकषाय थाय ते शीतपरीषह. आवा परीषहने जीतनार शिष्य कर्म निर्जरा करी शके छे. गारव त्रण जातनां छे - १ रस, २ ऋद्धि अने ३ साता. 'मारा प्रभावथी सरस आहार मळे छे' तेवुं गौरव करवुं ते रस- गारव, 'मारा उपदेशथी श्रावको बोध पाम्या, साधुओनी संख्या वध' कहेवुं ते ऋद्धिगारव अने ‘मारा प्रभावथी शय्या, वसति संबंधी सुख प्राप्त थाय छे' तेवुं गौरव लेबुं ते सातागारव. आत्रण प्रकारना गारव रहित मुनि कर्मक्षय करी शके छे. वळी 'स्कंदकाचार्यना पांच सो शिष्य अगर तो 'स्कंदक मुनिनी जेम क्षमाशील होय, 'धन्ना अणगारनी माफक इंद्रियने जीतनार होय, ज्ञातासूत्रमां वर्णवेल कूर्मना दृष्टांतनी माफक इंद्रियने गोपाववावाळा होय, 'जंबूस्वामी अगर M १. वीसमा तीर्थंकर श्रीमुनिसुव्रतस्वामी पासे स्कंदक नामना राजपुत्रे दीक्षा लीधी. अल्पकाळमां सतत शास्त्राध्ययनथी तेओ आगमज्ञ थया. तेमने पांच सो शिष्योना आचार्य बनाववामां आव्या. एकदा पोताना बनेवीने प्रतिबोधवा माटे कुंभारकटनगरे जवानी गुरु समक्ष आज्ञा मांगी. गुरुए ज्ञानबळथी जोई कह्यं केत्यां जवाथी तमारा सर्वनो नाश थशे. स्कंदकमुनिए पुनः प्रश्न कर्यो लाभ थशे के हानि ? गुरुए कह्यं के-तमारा सिवाय सर्वने लाभ थशे. स्वशिष्योने लाभ जाणी ओ विहार करी कुंभारकटनगरे आव्या. त्यांना राजा दंडकनों प्रधान पालक पूर्वे ज्यारे स्कंदक राजपुत्रनी राजधानीमां गयेल त्यारे कुमारे तेने वादमां पराभव पमाड्यो हतो त्यारथी ते तेमना प्रत्ये रोषे भरायेलो हतो. स्कंदकने सपरिवार आवेला जाणी वेरनो बदलो लेवानो तेणे मनसूबो कर्यो. जे उपवनमां ते उतरवाना हता ते उद्यानमां पोताना गुप्त माणसोद्वारा रात्रिमां ने रात्रिमां ज शस्त्रो भूमिमां दटाव्या. बीजे दिवसे राजवीने उलटुं समजाव्यं के-हे राजन् ! आ साधुओ नथी पण ते साधुओना छुपा लेबाशनी नीचे महासुभटो छे. तेओ प्रसंग जोई तमारुं राज्य ग्रहण करवा इच्छे छे. जो ते हकीकतनी खात्री करवी होय तो तेओ ज्यां उतर्या छे त्यां तपास करावो. आपने संताडेला शस्त्रो मळी आवशे. राजाए ते प्रमाणे तपास करावी अने साधुओनं आकारस्थान छे एम समजी प्रधानने उचित शिक्षा करवानो हुकम आप्यो. पालकने जोईतुं हतुं ते मळी गयुं. तेणे तरत ज घाणी मंगावीने साधुओने तेमां पीली नाखवानो आदेश आप्यो. खंधक मुनिने आ समये गुरुना वचनो याद आव्यां. खंधक मुनि पालक क के सौथी प्रथम मने पीली नाख जेथी मारे मारा शिष्योनुं दुःख जोवुं न पडे. प्रधानने तो तेमने ज विशेष कष्ट आप हतुं एटले शिष्योने एक पछी एक तेमनी नजर समक्ष पीलवा मांड्या. दरेक शिष्यो अजब क्षमा धारण करी राजहुकमने मान आपता रह्या. ४९९ तो पीलाई गया. छेल्ला एक बाळसाधु बाकी रह्या त्यारे खंधकमुनिए पुनः विज्ञप्ति करी - आ बाळसाधु पहेला मने पीली नाख, तेमनुं दुःख मारी नजरे नहीं जोवाय. प्रधाने आवी नजीवी मांगणी पण नामंजुर खंधकमुनिनो अत्यार सुधी शांत रहेलो क्रोध ऊछळी आव्यो. तेणे त्यां ने त्यां ज नियाणुं कर्यु. प्रधाने बाळसाधुने अने छेवटे खंधकमुनिने पीली नाख्या. नियाणाना प्रभावे खंधकमुनि अग्निकुमार निकायमां देव थया. पूर्वभवना द्वेषथी तेणे समस्त नगरी बाळी दीधी. आजे ते दंडकारण्यना नामे ओळखाय छे. जीवनना प्रांतभागे खंधकमुनिनो रोष शांत न रही शक्यो, परंतु तेमना ५०० शिष्योए तो अजब शांति अने क्षमा धारण करी स्वहित साध्यं. २. श्रावस्ती नगरीना कनककेतु राजाना तेओ पुत्र हता. वैराग्यभीना बनी तेओए संयम स्वीकार्यं. दीक्षा स्वीकार्याबाद स्कंधक राजकुमारे पृथ्वी-पर्यटन शरु कर्या. विहार करतां करतां तेओ पोताना बहेन बनेवीना राजनगर नजीक आवी पहोंच्या. राजा-राणी आ समये राजमहेलनी अगासीमां बेसी वार्ता विनोद करी रह्या हता. अचानक राणीनी नजर पोताना भाई ऊपर पडी. साधुवेषमां रहेला पोताना साळाने राजा ओळखी शक्यो नहीं. भाई प्रत्येना वात्सल्यथी राणीना नेत्रमांथी आंसुना बे-चार बिन्दु सरकी पड्या. राजाए ते जोतां ज तेना मनमां शंकाए स्थान लीधुं. राजाए वातनो खुलासो कर्या सिवाय ज मानसिक निर्णय करी लीधो के साधुना वेषमां आवेल आ नवीन आगंतुक राणीनो पूर्वनो प्रेमी हशे सर्व झेर करतां प्रेमनुं झेर विशेष कातील होय छे. आवेशमां ने आवेशमां तत्काळ त्यांथी ऊभा थई राजाए चांडालने बोलाव्या अने स्कंदक मुनिनी जीवतां ज चामडी उतारी लेवानो आदेश आप्यो. चांडालो मुनिराज पासे गया अने राजानो आदेश सांभळाव्यो. क्षमाशील मुनिराज आ हकीकत सांभळीने लेशमात्र खंचकाया सिवाय बोल्या- " तमे तमारुं कार्य खुशीथी बजावो. कहो हुं केवी रीते ऊभो रहुं तो तमने ओछी महेनत थाय." चांडालो तो मुनिनी अमृत झरती वाणी अने क्षमाशीलता जोई आश्चर्यमां गरकाव थई गया. श्रीगच्छाचार- पयन्ना— १५८ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता वज्रस्वामी (जुओ आ ज ग्रंथर्नु पृ. ८१)नी माफक निलोभी होय, तेमज 'गजसुकुमाल अथवा अतिमुक्तकुमारनी (जुओ पृ. ७६) माफक वैराग्यरसमां भीना होय-आवा गुणवाळा शिष्य स्वहित साधी शके छे. श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमा दश प्रकारनी सामाचारी वर्णवी छे, ते आ प्रमाणे “आवस्सिया नामं पढमा १, बिइया होइ निसीहिया २ । आपुच्छणा य तइया ३, चउत्थी पडिपुच्छणा ४ ॥१।। तेमना शस्त्रो पण स्थंभाई गया होय तेम जडवत् स्थिर थई गया परंतु राजानो हुकम अलंघनीय हतो. तेमणे पोतानं कार्य पूर्ण कर्य, मनिराजने वेदनानी सीमा नहोती. परंतु पूर्वकर्मन प्राबल्य विचारी तेआए समभावपूर्वक सर्व वंदना सही लीधी. शुभ ध्यानारुढ थतां तमन कवळज्ञान थयुं अने तमना आत्मा शाश्वतस्थानमां चाल्यो गया. राणी आ सर्व घटनाथी बीनवाकेफ हती परंतु ज्यारे एक समळीए आ प्रकरण परनो पडटो ऊंचक्यो त्यारे राजा तेमज राणी उभयना पश्चातापनो पार न रह्यो, वात एम बनी के-चांडालो पोतानं कार्य करीने चाल्या गया बाद एक समळीए लोहीथी भींजायेला ओघाने मांसनो लोचा समजी पोतानी चांचमा पकड्या, परंतु वजन विशेष होवाथी ते लाबो समय पकडी शकी नहीं अने बराबर राजमहलनी अगासी नजीक आवतां ज त तनी चांचमाथी सरकोन त अगासीमां पड्या. राणी आ दृश्य जातां जव्याकुल बनी गई. नगरमां बीजां कोई मुनिराज आव्या ज नहोता. पोताना भाईनो ज आ ओघो छ एम निर्णय करी, आ अधम कार्य करनारने शिक्षा करवा माटे तणे राजवी पासे फरियाद करी. राजा आ सर्व घटना सांभळतां ज शोकना सागरमा डुबी गया. राणी आगळ पाताना बचाव चाल तमन हतो. तण पातानं सर्व कृत्य तन कही संभळाव्यू.बंन्त्रन अतिशय खद थया पण हवे तो नदीनं पर वही गया पछी बंध बांधवा जेवं निर्रथक हतुं. स्कंधक मुनिए अजब क्षमा धारण करी पोतानुं स्वहित साध्यं. ३.काकंदी नगरीना नेओ रहीश हता. धन्यश्रेष्ठी तमन्नाम, भगवान महावीर पासे तमण चारित्र लोधा वाद उग्र तपश्चर्या शा करी. कठोर तपश्मनि कारण तेमन शरीर कश बनी गयं. एकदा भगवंत महावीरन श्रेणिक.राजाए प्रश्न कयों क-हे भगवत :आपना आटला विशाळ साधुसमूहमा साथी श्रेष्ट कोण छ? भगवने धन्ना अणगारनं नाम सूचव्यू. श्रेणिक तमने वंदन करवा गया अने जोयं तो मात्र हाइकान् हाइपिजर हाय तेवो तेमना देह हतो, छतां अजब उत्साह अने श्रद्धाथी तेओ पातानी इंद्रियान दमन करी रह्या हता. आ धन्ना काकंदी कवाय छे, जेनी परमात्माए पोते स्वमुखे प्रशंसा करी हती. शालिभद्रना बनेवी धन्यकुमार अन्य जाणवा. ४. चरमकवळी जंबूस्वामीनुं वृत्तांत तो प्रसिद्ध ज छे. एटले तेमना विशेष वर्णननी जरूर नी. नवाणं क्रोड सानैयाना दायजा साथे पत्नीओ आववा छतां ते सर्वना प्रत्ये नि:स्पृहभाव दावी, स्त्रीआने समजावी तेमणे गणधर श्रीसधास्वामी पासे प्रवज्या अंगीकार करी हती. श्री वज्रस्वामी, वृत्तांत आ ज ग्रंथमां पृष्ट ८१ पर आलेखेल छे. श्रेष्ठीए एक क्रोड सुवर्ण अने पोतानी कन्या आपवानी इच्छा दर्शाववा छतां संयमसाहेलीमा रक्त, बनेला श्रीवज्रस्वामीए तेनो अनादर कयों, ते ज तमनी निर्लोभतानो पुरावो छे. ५. गजसुकुमाल राजवी कृष्णना लघु बंधु हता, सोमिल विप्रनी कन्या साथे तेमनं सगपण कर्य हतं. एवामां भगवान श्रीअरिष्टनेमिनी देशना सांभळी गजस्कुमालने वैराग्य उद्भव्यो. वैराग्यनी प्रचरतामा संसारवास केदखाना जंवो जणायो जथी तमणे दीक्षा लीधी. दीक्षा लीधा बाद भगवंतने का के-मने जल्दी मोक्ष मळे तवा उपाय दर्शावो. भगवंते का के एकांतवासमा कायोत्सर्ग ध्यानमा रही अने मन, वचन तथा कायाने पवित्र वनावो. गजस्क्माले तरत ज श्मशानभूमिना राह लीधो. श्मशानभूमिमा जई, निर्जीव स्थान जोई कायोत्सर्ग ध्यानमां ऊभा रह्या. भाग्ययोगे त्यांथी तेमनो ससरो सोमिल निकळ्यो. सोमिलने पोताना जमाई गजसुकुमालने मनिवेशमां जोई अत्यंत आश्चर्य थयं. बालकद्धि समजी तेणे तेमने समजाववा अतीव प्रयास कयों. विविध प्रलोभनो आप्यां, पोतानी कन्याना रूपराशि अने सौदर्यना वखाण पण कर्या; परंतु जेने संयमरंग नसे-नसमां परिणमी गयो होय तेने कोण चलायमान करी शके? छेवट सोमिले क्रोधावंशमां आवी, माटीना घडामा सळगता अंगारा भरी तेमना मस्तक पर मृकी दीधा. ताजो ज केश-लोच करेलो होवाथी मस्तक पर अग्निनो तीव दाह थवा लाग्यो, गजसुकुमाल तो क्षमाना सरोवर हता. तेमनों देह ज्वलतो हतो छतां मनमा विचारवा लाग्या के-ससरो तो बहु बहु तो पाघडी पहेरावी विशेष द्रव्य आपे अगर अतीव प्रसन्न थयो होय तो राज्य आपे परंतु मारा ससराए तो मोक्षमार्गरूपी पाघडी मने पहेरावी. आ प्रमाण शुक्लध्यानमा आरुढ थई तेओ तरत ज काळधर्म पामी शिवगामी थया. आवो मरणांत उपसर्ग आव्यां छतां तेओ पोताना वैराग्य-रंगथी अंशमात्र पण चलित थया नहीं. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१५९ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंदणा पंचमा होड़ ५, इच्छाकारो य छडओ ६ । सत्तमो मिच्छकारो य ७ तहक्कारो य अमो ८ ।। २ ।। अब्भुवाणं च नवमा ९, दसमा उवसंपया १० । एसा दसंगा साहूणं, सामाचारी पवेदिया ।।३ ।। " १ आवश्यकी स्थंडिलादिक कार्य अप्रमत्तपणे अवश्य करवा योग्य छे, माटे उपाश्रयथी बहार निकळतां प्रथम आवश्यकी कहेवी. २ नेपेधिकी- उपाश्रयमा प्रवेश करतां पोतानो प्रमाद परिहरवा माटे बीजी नॅपधिकी कहेवी, अर्थात् तेनो अर्थ एछे के हवे मारे बहार जवानुं खास प्रयोजन नथी. ३ आपृच्छना-गोचरीसमये पोताना गुरु आदिक वडील जनने पूछीने आहार करवी.. ४ प्रतिपृच्छा-पोतानुं कार्य पडतुं मूकीने बीजानुं कार्य करवुं होय अने गुरुए बीजुं ज काम सोप्युं होय तो तेमने फरी पृच्छा करवी. ५ छंदना (निमंत्रणा)- गोचरी माटे परिभ्रमण करतां कोई उत्तम पदार्थ मळ्यो होय त्यारे बीजा साधुने 'आप स्वीकारो' एम कहेवु. ६. इच्छाकार- पोताना पात्रा प्रमुखने लेप विगेरे करवो होय त्यारे बीजा साधुने कहे के- आपनी इच्छा होय तो आ मारुं कार्य आप करी द्यो अगर तो आपनी सम्मतिपूर्वक हुं करुं. ७ मिथ्याकार - पोताने दूषण लाग्यं होय अने तेनुं कोई स्मरण करावे त्यारे मिथ्या दुष्कृत देवो अने मनमां 'मने धिक्कार हो !' एम चितवबुं. ८ तथाकार-गुरुमहाराज जे कहे तेने 'तहत्ति' कही स्वीकारखुं. ९ अभ्युत्थान- गुरुमहाराज आवे त्यारे ऊभा थईने आदर आपत्रो, तेमनुं बहुमान करवुं तेमज ग्लानादिक साधुनी वैयावच्च करवी, तेने आहार- पाणी लावी आपवा. १० उपसंपत्-पोताना आचार्य पासेथी बीजा आचार्य अगर तो उपाध्याय पासे रहेतुं होय तो कहे 'हुं आटला समय पर्यंत आपनी पासे रहीश श्री उत्तराध्ययनसूत्रमां ऊपर प्रमाणे दश प्रकारनी सामाचारी जणावी हे परंतु पंचवस्तुक तथा प्रवचनसारोद्धार प्रमुख ग्रंथोमां बीजी रीते पण दर्शावी छे, ते आ प्रमाणे- “पडिलेहणा १ पमज्जण २-भिक्खि ३ रिया ४ लोय ५ भुंजणा ६ चेव । पत्तगधुवण ७ वियारा ८, थंडिल ९ आवस्स्याइया १० ||१ || १ पडिलेहणा-विधिपूर्वक उपधिनी पडिलेहणा करवी. पडिलेहणा संबंधी विशेष वर्णन करतां जणावे छे के - प्रातःकाळमां तेमज चोथा प्रहरमा इरियावही कहीने मुहपत्ति पडिलेहवी. पछी काया पडिलेहवी. बाद रजोहरण तथा गुरुना उपकरण पडिलेहवा. बाद ग्लानसाधु तथा नवीन लघुशिष्यना उपकरण, पोताना वस्त्रो, उत्तरपट्टो, संथारो, पछी गुरुनो संथारो-एम अनुक्रमे पडिलेहवा. आ संबंधमा चार प्रकार कहे छे - (१) ऊर्ध्व-उत्कट आसने बेसी, नीचला छेड़ा पर्यंत वस्त्र ऊंचा करीने पडिलेहवं पण वस्त्रने भूमि पर स्पर्श करवा देवु नहीं. (२) स्थिर वस्त्रना त्रण भाग करीने स्थिर दृष्टिथी जोवं. (३) त्वरित - वस्त्रने एक बाजु तपासी बीजी बाजु तपासतां उतावळ न करवी, केम के तेम करवाथी वायुकायनी जयणा न सचवाय. (४) स्पर्श वस्त्रने सर्व बाजु स्पर्श करीने बराबर एक ध्यानथी तपासवुं. आ प्रमाणे सारी रीते वस्त्र न तपासे तो कीडी, कुंथुआ प्रमुख त्रसजीवनो नाश था जो जीवजंतु मालूम पडे तो विधिपूर्वक पूंजी तेने एकांत स्थानमां मूके. आ पछी पप्फोडा करवा. तेमां नीचेना चार दोषोनो त्याग करतो. (१) अणच्चाविअ-वस्त्रने चाळवु नहीं तेमज शरीरने हलाव नहीं. (२)अवलिअ-वस्त्रने वाळतुं नहीं. (३) अननुबंधि-निरंतर एक बाजु ज जोवु नही. (४) मोखलि-तिच्छे अगर तो ऊंची संघट्टी करती नहीं. बाद छ पुरिमा करे बने बाजु त्रण त्रण वार जुवे. श्रीगच्छाचार- पयन्ना - १६० Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद नव पप्फोडा करे तेत्रण त्रणने आंतरे हाथ ऊपर झटका आपे-आ प्रमाणे हस्तनुं प्रमार्जन करवाथी जीवनी रक्षा थाय. आ संबंधमा छ दोष जणावे छे-(१) आरभड-ऊपर कहेल विधि करतां विपरीत करे अथवा पप्फोडादिक आघा-पाछा करे, एटले के पहेला ओघो पडिलेहे, वच्चे बीजुं पडिलेहे अने पार्छ अन्य कार्य करे. (२) संमर्दना-पडिलेहण करेल वस्त्र अणपडिलेहेला वस्त्र साथे मूके, तेनी ऊपर बेसे अने मर्दन करे. (३) अस्थान-स्थापना-पडिलेहेल उपधि गुरुना अवग्रहमां मूके. (४) प्रस्फोटना-धूळ विगेरेथी मिश्रित वस्त्रने झापटे. (५) विक्षिप्त-पडिलेहीने ज्यां त्यां राखी मूके. (६) वेदिका दोष-तेना पांच भेद छे, ते आ प्रमाणे - (१) ऊर्ध्ववेदिका-ढींचण ऊपर हाथ राखी पडिलेहे, (२) अहोवेदिका-ढींचण नीचे हाथ राखी पडिलेहे. (३) एकवेदिका-एक हाथ ढींचणनी मध्यमां अने एक बहार राखी पडिलेहे. (४) दुहउ (उभउ) वेदिका-बने ढींचण वच्चे हाथ राखी पडिलेहे. (५) अंतोइया (अंतर्वेदिका)-बने ढींचणने मध्यमां राखीने पडिलेहे. पडिलेहण संबंधी बीजा पण दोष दर्शावतां कहे छे के- (१) प्रसिथल-पडिलेहेण वस्त्रने किनारथी ग्रहण न करे, (२) प्रलंब - पछवाडेथी ग्रहण करे, (३) लोला-भूमिए अडाडे, भूमि पर मूके अगर तो हस्त ऊपर मूके, (४) एगा मोसा - खेंचवा-मूकवामां, सामान्य वस्त्रने वीटवामां त्रण आंगळीथी पकडवाने बदले एक आंगळीथी पकडे, (५) अनेकधुणा-पप्फोडा करतां वस्त्रने धुजावे, घणा वस्त्रने धुजावे, अगर तो एक ज वखते घणा वस्त्रोने ध्रुजावे. (६) प्रमाणाप्रमाण-पप्फोडा करतां शंका करे के में एक वार कर्या के बे वार - आ प्रमाणेना प्रमादथी शंका थाय अने गणत्री करे. आ बधा प्रकारना दोष रहित पडिलेहण करे तो ज ते फळवती थाय. नियुक्तिकार कहे छे के -१ अन्यून, २ अनाधिक अने ३ अविपर्ययआ त्रिपदीना आठ भांगा थाय छे, ते पैकी प्रथम भांगो शुद्ध अने बाकीना बीजा अशुद्ध जाणवा. तेनी स्थापना नीचे प्रमाणे छे. । - - स्थापनाआवी लीटी शुद्ध अने । आवी लींटी अशुद्ध समजवी. पडिलेहण क्यारे करवी ते संबंधी जुदा जुदा मतो छे. एक कहे छे-प्रतिक्रमण करीने, बीजो कहे - सूर्योदय थाय त्यारे, त्रीजो कहे-प्रकाश थाय त्यारे, चोथो कहे-हस्तनी रेखा - देखाय त्यारे. आ संबंधमां वृद्धसंप्रदाय एवो छे के-सूर्य देखाय, हस्तनी रेखा देखाय विगेरे हकीकतो बराबर नथी. आवश्यक - - । कर्या पछी जे थोयो कहीए छीए त्यारे पडिलेहणनो समय आवे तेवी रीते आवश्यक करवा. ते समये दश वस्तुओ पडिलेहवी - | अने ते पडिलेहण पूर्ण करे त्यारे सूर्योदय थाय. दश वस्तुओ नीचे । । प्रमाणे समजवी-१ मुहपत्ति, २ ओघो, ३-४ बंने निशीथिया, ५ चोलपट्टो, ६ संथारियु, ७ उत्तरपट्टो, ८-१० त्रण कपडा. केटलाक अगियारमो डांडो पण जणावे छे. आ समय करतां वहेली-मोडी प्रतिलेखना करे तो अविपर्यय दोष श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१६१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागे. पुरुषविपर्यय पण न करवो, तेनो क्रम नीचे प्रमाणे छे-१ प्रथम गुरुना उपकरण पडिलेहे, २ तपस्वीना, ३ ग्लान साधुना, ४ अने पछी शिष्यादिकना. आ पडिलेहण-सामाचारीमा विराधना करे तो तीर्थंकरनी आज्ञानो विराधक कहेवाय माटे प्रथम पडिलेहण-सामाचारी यथायोग्य समजी लेवी. २ प्रमार्जना-पडिलेहण करीने प्रभाते वसति पूंजवी अने दिवसना चोथा प्रहरे प्रथम वसति पूंजवी अने पछी पडिलेहणा करवी. आप्रमार्जना चीकणा डंडासनथी न करवी. पछी काजो बराबर तपासवो. जो आ प्रमाणे प्रमार्जना न करे तो लोकमां निंदा थाय, जीवघात थाय, धूळनी वृद्धि थवाथी कपडा मेला थाय अने प्रक्षालननो आरंभ वधे वि. आत्मविराधना थाय. ३ भिक्षा-विधिपूर्वक पात्रा पडिलेहीने गोचरी अर्थे जाय. आ विधि पंचवस्तुक ग्रंथमां आपी छे एटले ते स्थळेथी जाणी लेवी. ४ ईर्यापथिकी-सूत्रना उच्चारपूर्वक कायोत्सर्ग करे. आ संबंधी पण विशेष विधि पंचवस्तुक ग्रंथमां जणावेल छे. ५ आलोचन-गोचरी लाव्या बाद अमुक अमुक स्थळेथी आ भिक्षा मळी छे. ते प्रमाणे गुरुमहाराजने जणावq. ६ भोजन-आ विषय तो प्रसिद्ध ज छे. ७ पात्रकधावन-पात्र विगेरे साफ करवा. ८ विचार-स्थंडिल विधिपूर्वक जाय. ९. स्थंडिल-स्थंडिल जवा माटे जीवरहित तेमज ज्यां बीजानुं अनागमन संभवे तेवी भूमि पसंद करवी. १० आवश्यक-प्रतिक्रमण विगेरे आवश्यक अवश्य करवां आवश्यक संबंधी सविस्तर वर्णन पंचवस्तक ग्रंथना बीजा द्रारमा जणावेल छे. आवश्यक एटले अवश्य करवा योग्य कार्य, अथवा आत्माने गुणथी वासित करे. आवश्यक संबंधी श्रीअनुयोगद्वार सूत्रमा स्वरूप वर्णव्युं छे, ते आ प्रमाणे-१ नाम आवश्यक, २ स्थापना आवश्यक, ३ द्रव्य आवश्यक अने ४ भाव आवश्यक. १ नाम आवश्यक-कोई पण जीव अथवा अजीवन, घणा जीवोनुं अथवा अजीवोनु, आवश्यक एवं नाम. २ स्थापना आवश्यकना दश भेदो छे. (१) काष्ठ (लाकडा)ने कोरीने साधु प्रमुखनुं स्वरूप दर्शावे, २ चित्रकर्म-साधु प्रमुखD चित्र आलेखे, (३) पोतकर्म-वस्त्रना छेडा प्रमुख वाळीने ढींगली प्रमुखनो आकार दर्शावे, (४) लेपकर्म-लेप करीने मूर्ति विगेरेनो आकार दर्शावे, (५) ग्रंथिम-चतुराईथी गुंथीने आकार दर्शावे दाखला तरीके पुष्पनी ज माळा. (६) वेष्टिम-पुष्प वीटीने अगर तो एक बे या त्रण वस्त्रो वीटाळीने कोई स्वरूप दर्शावे. (७) पूरिम-भरतचक्रवर्ती विगेरेए भरावेली पीतळनी मूर्ति विगेरेनी स्थापना (८) संघातिम-घणा वस्त्रना टुकडा एकठा करीने बनवायेल कंचुक (चोळी)नी जेम, (९) अक्ष-चंदनकनुं अक्ष एवं नाम स्थापq अने (१०) वराटक-कोडियानी स्थापना. आ प्रमाणे बीजा स्थापना आवश्यकना दश प्रकार दर्शावेल छे. मतांतरे दंतकर्म विगेरे स्थापना पण जणावेल छे. आ काष्ठकर्म विगेरे भेदोनी सन्मुख स्थापना स्थापीने जे क्रिया करे ते संबंधमां स्थापना बे प्रकारनी समजवी. १ सद्भावस्थापना अने २ असद्भावस्थापना, ते आ प्रमाणे समजवु-काष्ठ प्रमुखमां साधुनो आबेहुब-साक्षात् आकार कोतरे ते सद्भावस्थापना कहेवाय अने अक्षमा साधुना अवयवोनी आकार नथी तेथी ते असद्भावस्थापना कहेवाय. हवे प्रतिवादी पूछे छे के-नामआवश्यक अने स्थापनावश्यकमां विशेष तफावत शो छे? तेनो उत्तर ए छे के-नाम तो यावत्कथिक एटले सर्वकाळ रहेनारुं छे अने स्थापना तो अल्प समयनी पण होय अने सर्व काळनी पण होय. दाखला श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१६२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरीके-शाश्वती प्रतिमा यावत्कथिक कहेवाय, अने चैत्यमा रहेली जिनप्रतिमानो तो काळांतरे विलय थई जाय. बीजू दृष्टांत-श्रावकादिक स्थापना स्थापे ते इत्वरिक (अल्प काळनी) अने साधु पोताना गुरुनी स्थापना स्थापे ते यावत्कथिक कहेवाय. हवे त्रीजु द्रव्यआवश्यक जणावे छे-द्रव्यआवश्यक बे प्रकार- छे–(१) आगम अने (२) नोआगम. आगमद्रव्यावश्यक -आवश्यक सूत्रथी प्रारंभीने क्रिया सुधी सर्व शीख्यो होय, तेने भूले नहीं, हृदयमां स्थिर थई गयेल होय, अन्य कोई पूछे तो तत्काल कहे, श्लोक, पद तथा अक्षरनी संख्या पण जाणे, आदिथी अंत पर्यंत अने अंतथी आदि पर्यंत पाठ करी शके एटले क्रमोत्क्रम भणी शके, पोताना नामथी कोई बोलावे तो ऊंघमां पण जाणे के मारुं नाम कोईए लीधुं तेम शास्त्र-पाठ तेना हृदयमां जामी गयो. ज्यारे पूछे त्यारे जवाब मळे, जेवी रीते गुरु शीखवे तेवी रीते ज बराबर ग्रहण करी ले, एक पण अक्षर रही न जाय तेमज अधिक पण न बोले, एकबीजामां एकबीजा अक्षर मळी जाय तेम न बोले, अस्खलित-धाराबद्ध रीते बोले, सूत्र बोलतां पद भिन्न भिन्न बोले तेमज स्थान अने विरामनो बराबर ख्याल राखीने बोले, बिंदु के मात्रा पण न्यून न थाय तेमज अर्थ अध्याहार न रहे, घोषपूर्वक पूर्ण बोले, स्पष्ट रीते बोले अर्थात् मूंगो के बाळक बोले तेम न बोले, गुरु पासे वांचना लईने भणेल होय एटले के कोईनुं सांभळीने अगर तो पोतानी मेळे भणेल न होय, अर्थात वाचना, पृच्छना, प्रतिपृच्छना, धर्मकथा अने अनुप्रेक्षा-ए पांच प्रकारद्वारा शास्त्राध्ययन कर्यु होय. अही अनुप्रेक्षानो अर्थ उपयोगपूर्वक भणq ते थाय छे अने उपयोगपूर्वक पठन करवू ते द्रव्यआवश्यक नथी, भावआवश्यक छ तो विरोध नहीं आवे? आ शंकानो उत्तर आपतां जणावे छे के-उपयोग विना पूर्वे वर्णव्यां ते बधा गुणयुक्त बोले छे पण उपयोग नथी माटे तेने द्रव्यआवश्यक जाणवं. संबंधमां सात नयनो प्रसंग घटावी ते कथननी पुष्टि पण करे छे. १ नैगमनयना मते तो एक अनपयोगी ते एक आगमद्रव्यावश्यक तेवी रीते बे, त्रण अनुपयोगी ते बेत्रण आगमद्रव्यावश्यक. एवी जरीते जेटला अनुपयोगी तेटलां आगमद्रव्यावश्यक आगमद्रव्यावश्यक जाणवा. एवी ज रीते जेटला अनुपयोगी तेटलां आगमद्रव्यावश्यक जाणवा. २ एवी ज रीते व्यवहारनयनो पण मत जाणवो. ३ संग्रहनयनो मत एवो छ के-एक होय अथवा घणा अनुपयोगी होय तो पण एक ज द्रव्यावश्यक माने. ४ ऋजसूत्र पण एक ज कहे, तेथी विशेष न माने. ५-७ शब्द, समभिरुढ अने एवंभूत ए त्रण नयो तो आगमद्रव्यावश्यक मानता ज नथी, कारण के तेनुं कथन एवं छे के - जे जाणे छे ते अनुपयोगी होय ज नहीं. आ प्रमाणे आगमद्रव्यआवश्यकनुं स्वरूप संक्षिप्तमां जाणवू. हवे नोआगमद्रव्यावश्यकनुं स्वरूप दर्शावे छे. तेना त्रण भेद छे- (१) जाणगशरीरद्रव्यावश्यक, (२) भव्यशरीरद्रव्यावश्यक अने (३) जाणगशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त (भिन्न). १ जाणगशरीरद्रव्यावश्यक-आवश्यक सूत्रो, सुन्दर अध्ययन कर्यु होय तेवू शरीर, आ शरीर केतुं छे? अचेतन-जीव विनानु, श्वासोच्छ्वास रहित, अढी हाथनी शय्या प्रमाणवाळं, अणशण स्वीकारीने मोक्षे पहोंचेल-आवा शरीरने जोईने कोई विचारे के-पौद्गलिक देहद्वारा आत्महित साधी, कर्मनिर्जरा करी भूतकाळमां आ शरीरमा रहेला जीवे आवश्यकसूत्रनुं अध्ययन कर्यु शिष्यने ते सूत्रो शीखवाड्या पडिलेहणादिक क्रिया करी स्वशिष्योने दर्शाव्यु शिष्य श्रीगच्छाचार–पयन्ना-१६३ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई अर्थ न समजी शके तो तेना प्रत्ये अनुकंपा लावी वारंवार तेने समजाव्युं - आवा प्रकार गुण आ शरीरनो स्वामी आवश्यकनो जाण हतो तेम कथन करवुं ते जाणगशरीरद्रव्यावश्यक जाणवु. आ संबंधमां दृष्टांत आपे छे के-मध के घी भरीने लावेला घडामांथी मध के घी खाली कर्या पछी पण जे ते मधनो के घीनो कहेवाय छे तेम जीवरहित शरीर होवा छतां आवश्यकनो ज्ञाता आ देहमां हतो ते निरुपी शकाय छे. २ भव्यशरीरद्रव्यावश्यक - 'आ घीनो अने आ मधनो घडो थशे' एम घडाने जोईने भविष्यकाळनी कल्पना करवामां आवे छे तेम आ शरीर पण आवश्यक जाणनार थशे तेवो उपचार करवो. ३ जाणगशरीरभव्य शरीरव्यतिरिक्तना त्रण प्रकार दर्शाव्यां छे: (१) लौकिक-राजा, कोटवाळ, मांडलिक राजा, नगरशेठ, सेनापति, सार्थवाहक विगेरे सुंदर अने रम्य प्रभातकाळ थये छते मुखप्रक्षालन करे, दंतधावन करे, केश समारे, धूप करे, पुष्पमाळ पहेरे, सुंदर वस्त्रो धारण करे, विगेरे क्रियाओ करी राजसभामां, देहभुवनमां अगर तो उपवनमा जाय-आ लौकिक. (२) कुप्रावचनिक- १ जमतां जमतां चाले ते चरक, २ मार्गमां पडेला वस्त्रना कटकाओनी कंथा पहेरीने चाले ते चारिका, ३ चामड़ाना वस्त्र राखे ते चर्मखंडिका, ४ भिक्षा मळे ते खाय तेमज गाय प्रमुखनुं दूध ग्रहण करे ते भिक्षेडा, ५ शरीरे भस्म चोळे ते पामुरांगा, ६ नानकडा बळदने पगे लगाडवुं विगेरे कळा शीखवीने लोकोना चित्त वश करी भिक्षा मागे ते गौतमा, ७ गाय चाले तेम चाले, तेने अनुसरे, गाय ऊभी रहे तो ऊभो रहे, बेसे तो बेसी जाय, गाय तृण, पत्र-पत्रादिक खाय तोते पण तृणादिक खाय ते गोप्रतिका, ८ 'गृहस्थ धर्म ज सारो छे' एम कहीने तेनी प्ररूपणा करे ते गृहस्थधर्मी, ९ याज्ञवल्क्यादिक ऋषिओए बनावेल धर्मसंहिता - प्रमाणे व्यवहार चलावे ते धर्मचिंतका, १० देव, राजा, माता, पिता विगेरेनो विनय साचवे, ते वैनयिक, ११ पुण्य, पाप, परलोकादिक नहीं माननारा नास्तिक, १२ तापस इत्यादिक बीजा पण पाखंडीओ पूर्वे कह्यो तेवो सुंदर अने रम्य प्रभातकाळ थये छते इंद्र, रुद्र, शंकर, वैश्रमण, नाग, व्यंतर, विष्णु विगेरे देवो तेमज दुर्गा विगेरे देवीओनी मूर्ति समीपे जईने गंधोदक छांटे, धूप करे, पुष्पमाळा चढावे विगेरे क्रिया करे ते कुप्रावचनिक. (३) लोकोत्तर - प्रव्रज्या अंगीकार कर्या छतां साधुना गुण रहित (पासत्था), छक्कायनी अनुकंपा रहित, लगाम विनाना अश्वनी माफक उन्मार्गगामी, निरंकुश हस्तीनी माफक स्वच्छंदाचारी, केशने तेल तथा पाणीथी मिश्रित करनारा, शीतकाळमां फाटी गयेल ओष्ठप्रमुख माखण लगावनारा-आवा साधुओ लोकोने देखाडवा माटे ज उभय टंक आवश्यक क्रिया करे परंतु तेमने खरोखरी रीते तो आलोववानुं होतुं नथी केम के जिनाज्ञाने माननारने आलोचना करवानी होय परंतु आ पेटभराओने तो लोकोने देखाडवा पूरती ज क्रिया करवी छे-आवी क्रिया ते लोकोत्तरद्रव्यावश्यक. हवे चोथो भावावश्यक जणावे छे, तेना पण बे प्रकार छे. - (१) आगम अने (२) नोआगम. प्रथम आगमभावाश्यक आगमद्रव्यावश्यकनी जेम जाणी लेवो एटले आवश्यक सूत्रार्थने जाणवाथी वैराग्य, संवेग, विशुद्ध परिणामवाळो बने छे अने २ नो आगमभावाश्यकना पण द्रव्यावश्यकनी माफक ज त्रण भेद छे. (१) लौकिक- मध्यान्ह पहेलां श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १६४ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत वांचे अने मध्यान्ह पछी रामायण कहे, (२) कुप्रावचनिक- पूर्व कह्या ते चरकादिक पाखंडियो पूजा करे, होम करे, जाप करे, गायत्रीनो पाठ करे, वलद जेम गाजे; तेम महादेवनी मूर्ति समक्ष गान-तान इत्यादिक क्रिया करे. (३) लोकोत्तर चारित्रपात्र, तपस्या करनार साधु पासे सांभळे, अने श्रीजिनराजे प्ररुपेल पंचांगीमां कहेल शुद्ध सामाचारी साधु पासे सांभळे ते श्रावक अने श्राविका. आ प्रमाणे चतुर्विध संघ आवश्यक क्रियामां एकचित्त बने, शुभ लेश्या - परिणामवाळो बने, क्रिया करती वखते क्षणे क्षणे आनंदित थाय, शरीर थी जिनमुद्रा विगेरे साचत्रे, रजोहरण (श्रावक चरवला)थी प्रमार्जना करे, मुहपत्ति मोढे राखीने बोले विगेरे. उभय टंक आवश्यक करे. आ संबंधमा प्रतिवादी शंका करतां कहे छे के आवी हकीकत तो आगमद्रव्यावश्यक्रमां जणावी छे तो आ नोआगमना प्रकारमां पुन: केम जणावो छो ? तेनो जवाब एछे के मुखवस्त्रिका पडिले हवी, रजोहरणथी संडासा करवा इत्यादिक क्रिया करवानो जे देश छे ते नोआगमपणुं छे तेथी नोआगमावश्यकमां आ हकीकतनो समावेश थाय छे. आने लगती विशेष हकीकत आवश्यकचूर्णी . तथा तेनी टीकामा विस्तारथी जणावी छे, पण ग्रंथविस्तारना भयथी अहीं जती करी छे. आ प्रमाणे सामाचारीनुं स्वरूप दर्शावी संयमनुं वर्णन करतां जणावे छे– “पंचासववेरमणं, पंचिदियनिग्गहो कसायजओ । तियदंडविरमणाओ, सत्तरसहा संजमो होइ || १ || " सत्तर प्रकारनो संयम छे- पांच आश्रवनो त्याग करे, पांचे इन्द्रियोनो निग्रह करे-दमे, चार कपायोने जीते अने त्रण दंड (मानदंड, वचनदंड अने कायदंड) थी विरमे. आत्रा प्रकारना गच्छमा रहेल साधु निर्जरा करे. वळी गुरुमहाराज (१) सोय लागी जतां जेवी वेदना थाय तेवी वेदना उपजावनारी खर वाणी कहे. (२) वाण लाग्या जेवी परुष वाणी (३) भालाना प्रहार जेवी कर्कश वाणी (४) कागडानो शब्द न गमे तेवी रीते जे वाणी सांभळवी न गमे तेवी अनिष्ट वाणी (५) क्रोधित थयेल वाघ जेवो भयंकर शब्द करे तेवी भय उपजावनारी दुष्ट वाणी (६) पत्थर लागवा जेवी निष्ठर वाणी- आवा प्रकारनी वाणीवडे निर्भछना करे, तिरस्कार करे अगर तो गच्छमांधी बहार काढी मूकें तो पण जाय नहीं मनमा विचारे के 'मारा आत्महित खातर ज गुरु शिक्षावचन कहे छे' परन्तु एम विपरीत न विचारे के- 'आ गच्छ ऊपर क्या देवु कर्तुं छे, मने पण बीजे स्थाने रोटला मळी रहेशे' तेम मनमां न लावे. वळी अवर्णवाद न बोले, मरणांत कष्ट आवे तो पण शासनहीलना थाय तेवुं कार्य न करे ते ज सुशिष्य कर्मनी निर्जरा करी शके छे. आ प्रमाणे सुशिष्यनुं स्वरुप दर्शावी हवे गच्छनुं स्वरुप दर्शावे छ गुरुणा कज्जमकजो, खरकक्कसदुट्ठनिठुरगिराए । भणिए तकत्ति सीसा, भांति तं गोयमा गच्छम् ||५६ ।। [ गुरुणा कार्याकार्ये, खरकर्कशदुष्टनिष्ठरगिरा । भणिते तथोति शिष्याः, भणन्ति स गौतम ! गच्छः ॥५६ ।।] गाथार्थ -करवा लायक अगर न करवा लायक कार्योमां कठोर. कर्कश, दुष्ट अने निष्ठर भाषाद्वारा गुरुमहाराज जो कई पण कहे तो “हे प्रभो ! आप कहो ते वास्तविक ज छे” ए प्रमाणे श्रीगच्छाचार- पयन्ना — १६५ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यां शिष्यो विनयपूर्वक वर्ते छे ते गच्छ ज हे गौतम! खरोखर गच्छ छे. विवेचन - आ गाथा स्पष्टार्थवाळी होवाथी तेना विवेचननी विशेष जरूर नथी. खर, परुप विगेरे वाणीना प्रकारनो अर्थ उपयुक्त गाथामां आवी गयो छे. आचार्यना आदेश सामे क्रोधायमान न थाय, रोष न लावे अने सिंह. सूरिना शिष्यांनी माफक गुरुवचन 'तहति' कहीने अंगाकार करे एवा शिष्यो जे गच्छमां होय ते गच्छने तीर्थंकर भगवंतो तथा गणधरादिको सुगच्छ कहे छे. गच्छनुं विशेष स्वरूप दर्शावतां कहे छे के दूरुज्झिय पत्तसु ममत्तए निष्पिहे शरीरे वि । जायमजायाहारे बायालीसेसणाकुसले ।। ५७ ।। [दूरोज्झितपात्रदिममत्वो निःस्पृहः शरीरेऽपि । जाताजाताहारः द्विचत्वारिंशदेषणाकुशलः ॥ ५७ ॥] गाथार्थ वस्त्र पात्रादिकने विषे ममत्व रहित, शरीरने विषे पण स्पृहा विनाना, एषणाना बेतालीश दोष रहित शुद्ध आहार मळे तो ज ग्रहण करनारा अने तेना अभावमां तपस्या करनार होय ते जे कुशळ मुनि कहेवाय छे. विवेचन चारित्रपालन करवामां कुशळ मुनि तो शरीर प्रत्ये पण निर्मोही होय. आहार तो फक्त 'धर्मायतनं शरीरम्' ए वाक्य विचारीने तेना पोषणार्थे ज ग्रहण करे अने ते पण शुद्ध मळे तो ज. "अलब्धं तपसो वृद्धि-र्लब्धं देहस्य धारणे । " शुद्ध गोचरी न मळे तो विचारे के आजे तपमा वृद्धि थई, अने मळे तो माने के देह हशे तो संयम घणा काळ पर्यंत पाळी शकांश, स्वाध्याय पण सुखे थई शकशे. साधुपुरुपने ३२ कवल. साध्वीने २८ अने नपुंसक साधुने २४ कवलप्रमाण आहार होय. आटलो आहार करवाथी ते भूख्या न रहे. आधी विशेष आहार लेवानो निषेध छे. हवे कवल कोने कहेवा? ते संबंधी वर्णन करतां कहे छे के कुकडोना इंडा प्रमाणे एक कवल कहेल छे. कुक्कुटीना वे भेद छे- (१) द्रव्यकुक्कटी अने (२) भावकुक्कटी. द्रव्यकुक्कुटीना पण बे विभाग छे- (१) उदरकुक्कटी अने (२) गलकुक्कटी. उदरकुक्कटी एटले जे आहार करवाथी साधुनुं उदर न न्यून रहे के न वृद्धि पामे अर्थात् साधुने स्वोदरपूर्ति प्रमाणे ज आहार होय. गलकुक्कुटी एटले कवल लेतां सरलताथी गळामां प्रवेश करी जाय ते, अथवा बहु मुख फाडीने नहीं तेमज आंख, भृकुटी के कपाळ विकृति धारण न करे ते कवळने गलकुक्कुटी कहेवाय. भावकुक्कुटी एटले जे आहार करवाथी न भूख्यो रहे के न तो प्रमाद वधे परन्तु उदरने शांति थाय, देहमां निर्बलता न देखाय तेमज ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी आराधनामां उमंग रहे- तेटला प्रमाणवाळो जे आहार लेवाय तेने भावकुक्कुटी कहेवाय. आ आहारनो बत्रीशमो भाग ते अंडक (कवल) कहेवाय. श्रीपिंडनिर्युक्तिनी श्रीमलयगिरिजीकृत टीकामां तेमज श्रीभगवतीसूत्रना सातमा शतकना प्रथम उद्देशानी वृत्तिमां पण कह्यं छे के “कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ताणं" कुकडीना इंडाना प्रमाण जेटल आहार ते कुक्कुडीअंडगप्रमाण कहेवाय. तेनो बीजो अर्थ करतां ए पण सूचत्रे छे के-कुटी एटले श्रागच्छाचार-पयन्ना-- १६६ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानी झेंपडी. झुपडी जेम रहेवाना काममां आवे छे तेम जीवने रहेवाने माटे आ शरीररूपी झेंपडी. 'कु' शब्द कुत्सित अर्थ सूचवे छे के आ देहरुपी झंपडी मळ, मूत्र तथा अशुचिथी पूर्ण छे. आ शरीरने इंडाना प्रमाण जेटला आहारथी पोपवुं ते कुक्कुडी अंडक कहेवाय छे. वळ एक अभिप्राय एवो पण छे के-जे पुरुषने जेटलो आहार होय तो तेने तेटला आहार विना तृप्ति न थाय एटले तेना आहारना बत्रीशमा भागने कवळ कहेवो. वळी कोई पुरुष अल्प खातो होय, गळे न उतरतुं होय अने मंद पाचनशक्तिथी अधिक भोजन लई शकतो न होय तेने तेना आहारना प्रमाणमां चत्रीशमो भाग कवल समजवा. अगाऊ जे कह्य के 'गळामा सरल रीते उतरे 'तेने ज कवल कहेवो' ए वचन प्रायिक समजवं. 3 जायमजायाहारे (जातमजाताहार:) आनुं विशेष स्वरूप दर्शवतां कहे छे के साधु जातापारिष्ठापनिका अने अजातापारिष्ठापनिकानो जाण होय. श्री आवश्यकनियुक्तिमा कहाँ ले के“आहारम्मि उजा सा, सा दुविहा होइ आणुपुत्रीए । जाया चेत्र मुत्रिहिआ, नायव्वा तह अजाया य ।। १ ।। " आहारने विषे पारिष्ठापनिका वे प्रकारनी छे. (१) सदोष आहाग्ने विधिपूर्वक परववानी क्रिया ते जातापारिष्ठापनिका अने (२) निरवद्य आहार परठववानी विधि ते अजातापारिष्ठापनिका. जातापारिष्ठापनिकानी विधि जणावे छे के- “आहाकम्मे ए तहा, लोहविसे आभिओगिए गहिए । एएण होइ जाया, वोच्छं से विहीड़ वोसिरणं ॥ २ ॥ " आधाकर्मिक लोभथी अधिक ग्रहण करेलो. विपमिश्रित, मक्षिकादि पडेल होय तेत्रो कामणदमणवाळी अथवा अन्य रीते दोषित आहार होय तो तेने वासराववानी विधि नीचे प्रमाणे करवी. “एगंतमणावाए, अच्चिते थंडिले गुरुवइ । छोरण अक्कमित्ता, तिद्वाणं सावणं कुज्जा | ३ ||" ज्यां स्त्री. पुरुषनुं आगमन न होय तेवा एकांत स्थानमा गुरुमहाराजनी बतावेल अचित्त भूमिमा राखथी अशन मिश्रित करे अने पछी 'आहार अमुक दोपवाळो छे, माटे हुं तेने वोसरातुं छं.' आ प्रमाणे त्रण वार उच्चार करें. आ विधि खास करीने विपमिश्रित अने कामणटृमणवाळा. आहार माटे कराय छे. आधाकर्मादिक आहार माटेनुं वर्णन ७२ मी गाथामां दर्शात्राशे. आ प्रमाणे जातापारिठापनिका जाणवी. हवे अजातापारिष्ठापनिका जणावतां कहे छे के- “आयरिए अ गिलाणे, पाहुणए दुल्लहे सहसलाभे । एसा उ खलु अज्जाया, वोच्छं से विहीइ वोसिरणं ||४ ||" आचार्यने अर्थ, ग्लान साधुने निमिते अथवा अतिथि माधुना निमित्ते विशेष आहार ग्रहण कर्यो होय, दुर्लभ पदार्थ मळी जतां बधारे लीधो होय, विशिष्ट द्रव्य विशेष लीधुं होय तो ते अधिक आहार स्त्री-पुरुष रहित एकांत स्थानमा त्रम-स्थावरादिक जीव रहित भूमि शोधी त्यां शुद्ध आहार होय तो तेना त्रण पुंज करवा. मूळगुणदोपित आधाकर्मादिक आहार होय तो एक पुंज करवो अने उत्तरगुणदृषित होय तो वे पुंज करवा. पछी 'दोष रहित आहार अगर तो आधाकर्मादिक दोपवाळो आहार हुं बोसरावं छु' एम त्रण वार बोलवं. हालमा तो भस्ममां मिश्रित करीने आहार परववानी प्रणालिका प्रचलित छे. आ ज प्रमाणे वस्त्र पात्र परठववानी जात-अजातपारिष्ठापनिका जाणवी. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १६७ ७ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणाना बंतालीश तथा ग्रासैषणाना पांच-एम मुडतालीश प्रकारना दोप रहित आहार ग्रहण करवामां साधु चतुर होय. एपणा चार प्रकरनी छे. १ नामंषणा-स्त्री आदिक वस्तुनुं नाम. २ ठवणेषणा-एपणानो जोनार साधु प्रमुख स्थापे के- 'आ एषणा छे' ते स्थापनंषणा, ३ द्रव्यैप -सचित, अचित्त अ. मिश्र एम त्रण प्रकार छे, ४ भाषणा-गवेषण, ग्रहण अने ग्रास-एम त्रण प्रकारनी छ. गवेषणा एपणाना ३२ भेद छे-१६ दातारना अने १६ लेनारना. आ ३२ दोपार्नु वर्णन आ ज ग्रंथमा अगाऊ पृष्ट ११८ पर आवी गयुं छे. ग्रासंषणाना संयोजनादि पांच दोषो छे. हवे प्रसंगोपात देनार संबंधी दोषानुं वर्णन करतां कहे छे के-बालादिक चालीश जणना हाथथी आहार लेवो कल्प नहीं. अपवादथी २४ ना हाथथी लेवो परंतु पंदरना हाथथी तो लेवो ज नहीं, अपवादथी पर्चाशना हाथी लेवान का तेमां पण भजना जाणवी, ते भजना आ प्रमाणे -१ बाळक पासे थी आहार न वहोरवो परंतु बाळक चतुर होय, तेनी मातानी गेरहाजरी होय अथवा तेनी मा पाछळ बेठी होय अने पोत मुनिने वहोरावता होय, वळी आहार थोडो होय अने बीजाने खावानो छ तेना विचार वगर वहोरावे त्यारे साधु तेने कहे तुं आटलो बधो आहार वहोराव नहीं, बीजाने आहार करवानो हशे ते समये तेनी माता अनुकूळ वचन बोले के-तमो आहार वहोरवा, आहार घणो छे. आ प्रमाणे बधी सानुकूळता देखाय तो ज गोचरी लेवी कल्पे, नहीं तो न लेवी. २ वृद्धना हाथी आहार न लेवा, परंतु शक्तिशाळी होय अगर जो ते धूजतो होय अने तेना हाथ बीजाए पकड्या होय तो लेवो. ३ जे लेशमात्र मत्त होय परंतु अविह्वल (मन आपार्छ न होय तो) होय अने कोई अन्य गृहस्थ जातो न होय तो कल्पे. ४ उन्मत्त अने वाचाळ पासेथी न लेवो परंतु जो ते शुद्ध अने भद्रिकपरिणामी होय तो लवो कल्पे. ५ शरीर-कंपवाळा पासे थी न लेवो परंतु जो दृढ हस्तथी आपे तो कल्पे. ६ ताववाळा पास थी न लेवा परंतु ताव उतरी गयो होय तो कल्पे. ७ अंध पासे थी न लेवो परंतु बीजाए तेने पकड्या होय अने ते श्रद्धालु होय तो कल्पे. ९ पगरखा पहेरेलो त्यां ने त्यां ऊभो रहीने आपे तो कल्ये १० जेना पग बंधाया होय अगर तो रोगथी अकराई गयो होय परंत 3 जवामां समर्थ होय अने तेथी पीडा न थती होय तो लेवो कल्पे. कदाच आघापाछा जवामां अशक्तिमान होय परंतु त्यां वेठो वेठो ज आपे तो पण कल्पे, पण त्यां कोई बीजो गृहस्थ न होवो जोईए. बंने हाथे बांधेलो तो आहार वहोरावी शके ज नहीं, तेमा प्रतिबोध छे-भजना नथी. ११. हाथ कापेलो होय परंतु त्यां बीजो गृहस्थ न होय तो कल्पे. १२. पग कापेला होय तेनो आहार लेवो न कल्पे, जो ते बेटो थईने आपे अने अन्य गृहस्थ हाजर न होय तो कल्पे. १३. नपुंसकनो न कल्पे परंतु जो ते लिंग प्रमुखनुं सेवन करनार न होय तो कल्पे. १४. गर्भवती स्त्रीने नव मास थवा आव्या होय तो न कल्पे परंतु सात-आठ मासनो गर्भ होय अने ते सुखपूर्वक आपी शके तेम होय तो स्थविरकल्पी साधुओने कल्पे. १५. जेनुं बाळक स्तनपान करतो होय तेना हस्तथी आहार न कल्पे परंतु जो ते बाळक आहार पण करतां शीखी गयो होय तो कल्पे. जो धावता बाळकने त्यजीने वहोरावे तो न कल्पे. जिनकल्पी साधुओनो तो चौदमा तथा पंदरमा बंने प्रकारनो आहार लेवो कल्पे नहीं. १६. स्त्री जमवा बेटी होय परंतु • खमां कोळियो न नाख्यो होय तो तेना हाथर्नु कल्पे. १७. श्रीगच्छाचार-पयन्ना– १६८ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई स्त्री घउं, चणा आदिक शेकती होय अने शेकीने उतारी नाख्या होय अने नवा बीजा घउं, चणादिक लीधा न होय तेवामां साधु आवी पहोंचे तो तेना हाथनो आहार लेवो कल्पे. १८. सचित्त मग प्रमुख दळतां दळतां घंटी छोडी दीधी होय अने ते समये साधु आवी पहोंच्या होय तो तेने आहार लेवो कल्पे अगर तो अचित्त एटले भींजेला अथवा शेकेला मग प्रमुख दळती होय अने ऊभी थईने आहार वहोरावे तो पण कल्पे. १९. खांडवा माटे तैयारी करीने सांबेलु उपाड्युं होय अने ते सांबेलाने एक पण कण लागेलो न होय ते वखते ते स्त्री जीव रहित प्रदेशमा सांबेलाने मूकी आहार आपे तो कल्पे. २०. दळणुं पूरुं थई रह्यं होय अगर तो अचित्त दळणुं करती होय तो पण कल्पे. २१. सोळ पहोरनी अंदरनुं दही वलोवती होय तेवी स्त्रीना हस्तनुं कल्पे. २२. कांतती वखते तारने श्वेत करवाने माटे शंखनुं चूर्ण हाथे लगाड्युं न होय अने लगाड्युं होय तो पण तेने अशुद्ध मान्या विना हाथ धोया विना वहोरावे तो कल्पे. २३ कपास लोढती, २४ कपासने छूटो पाडती अने २५ कपासने पीजती ऊभी रही होय, तेवामां साधु आवे अने हस्त धोया विना वहोरावे तो पण कल्पे. बाकीना पंदरमा छक्कायथी व्याप्त हस्तवाळीनो आहार कदापि-खास अपवाद मार्ग सिवाय-वहोरवो ज नहीं आ प्रमाणे ग्रहण एषणानुं वर्णन करी हवे ग्रासैषणा संबंधी कहे छे बेंतालीस दोष रहित आहार लाव्या पछी तेनुं भोजन करतां ग्रासेषणाना पांच दोष वर्जवा. १. संयोजना, २. अप्रमाण, ३. इंगाल, ४. धूम अने ५ अकारण भोजन. आ पांच पैकी संयोजना तथा अप्रमाण-ए बनेनुं वर्णन करे छे. १. संयोजना-अतिशय स्वादने माटे दूध, दही, भातमां खांड, मसालो विगेरेनुं मिश्रण करवू. तेना बे विभाग छे-(१) वसतिमां करे ते अंत:संयोजना अने (२) वसति बहार करे ते बहिरसंयोजना. अंत:संयोजना त्रण प्रकारे जाणवी.(१) पात्र-पात्रामां रोटली, घी विगेरे मेळवीने खाय, (२) वदन-मुखमां कोळियो मूक्या पछी स्वाद माटे शाक, दाळ वापरे अथवा मुखमां रोटली प्रमुख मूक्या पछी गोळ, साकर- मिश्रण करीने खाय. (२) बहिरसंयोजना दूध मळ्या पछी खांडनी प्राप्ति माटे फर्या करे. उपकरण संयोजना आवी रीते जाणवी-उपकरणने माटे परिभ्रमण करतां साधुने चोलपट्टादिक मळ्या बाद शोभाने अर्थे अंतरकपडुं मांगीने भोगवे तो ते बहिरसंयोजना अने ए प्रमाणे वसतिमां आवीने ते प्रमाणे भोगावटो करे तो अन्तरउपकरणसंयोजना जाणवी. आ प्रमाणे संयोजनानुं स्वरूप दर्शाव्यु छतां टीकाकार कहे छे के-प्रसंगे तो संयोजना पण स्वीकारवी पडे छे. का छे के–“रसहेउं संजोगो, पडिसिद्धो कप्पए गिलाणट्टा। जस्स व अभत्तछंदो, सुहोचिओऽभाविओ जो य ॥१॥" रसगृद्धिनी कारणथी संयोजनानो निषेध छे, परंतु ग्लान साधुने आहारनी रुचि माटे करवी कल्पे. जेने भात खावानी टेव छे तेने तेना विना रुचि न थाय. वळी कोई राजपुत्रे दीक्षा लीधी होय अने ते सुखमां उछरेल होवाथी तेने भोजननी रुचि न थती होय तो ते संयोजना करे. वली कोई नवीन दीक्षित साधुनी रुचिने अर्थे संयोजना करवी कल्पे परंतु रसगृद्धिथी जो तेम करे तो कर्मबंध थाय. हवे बीजो अप्रमाण दोष दर्शावे छे-उदरना छ भाग कल्पवा. तेमांत्रण भाग जेटलो आहार करवो, बे भाग जेटलुं पाणी पीवं अने एक भाग वायुना संचालन माटे खाली राखवो. काळनी अपेक्षाए तेमां पण फेरफार करवो. अत्यंत शीतकाळमां पाणीनो एक भाग, आहारना श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १६९ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार भाग अने एक भाग खाली. अत्यंत उष्णकाळमां बे भाग पाणी, त्रण भाग आहार अने एक भाग खाली अने मध्यम उष्णकाळमां बे भाग जळ, त्रण भाग आहार अने एक भाग खाली राखवो. आ प्रमाणे आ सत्तावनमी गाथामां कुशळ मुनि निर्दोष आहार स्वीकारे तेम दर्शाव्यं पण आहार रूप, रस विगेरेनी वृद्धि माटे करवानो नथी ते माटे जाणवो छे के तंपि न रुवरसत्यं, न य वण्णत्थं न चेव दप्पत्थं । संजमभरवहणत्थं, अक्खोवंगं व वहणत्थम् ॥ ५८ ॥ [ तमपि न रूपरसार्थं, न च वर्णार्थं न चैव दर्पार्थम् । संयमभरवहनार्थं, अक्षोपाङ्गमिव वहनार्थम् ॥५८॥] गाथार्थ - ऊपर कह्यो निर्दोष आहार पण रूप तथा रसने माटे नहीं, शरीरनी कान्ति वधारवा माटे नहीं, काम-विषयवासनानी वृद्धि माटे नहीं परंतु अक्षोपांगनी माफक चारित्रनो भार वहन करवा निमित्ते शरीरने धारण करवा माटे ग्रहण करे. विवेचन - आहार करवाथी शरीरनी कांति वधशे, इंद्रियो सशक्त थशे तेवी इच्छाथी पण निर्दोष आहार न करे परंतु शरीर शक्ति हशे तो ईर्यासमिति आदि पाळी शकाशे, संयमनुं आराधन करी शकाशे एवी इच्छामात्रथी आहार करे. गाडाना पैडानी मध्यमां नाभिनी धरीमां माखण अगर तो जे तेल मूकवामां आवे छे तेथी गाडुं सुखपूर्वक चाली शके छे अने भार वहन थाय छे तेम आ शरीररूप शकटमा संयम - भार वहन करवाने माटे माखण अगर तेलरूप आहार स्वीकार्या विना चाले नहीं. जो देहने आधाररूप आहार न लेवाय तो दशविध सामाचारी न पळाय, स्वाध्याय ध्यान न थाय. आ प्रमाणे संयमना निर्वाहार्थे आहार लेवो उचित छे परंतु रूप, रसनी वृद्धि माटे लेवो नहीं. हवे या छ कारणथी साधु आहार स्वीकारे ते कहे छे वेण १ वेयावच्चे २, इरिअट्ठाए य ३ संजमट्ठाए ४ । तह पाणवत्तिआए ५, छट्टं पुण धम्मचिंताए ॥५९ ॥ [वेदनावैयावृत्त्ये- र्यार्थं च संयमार्थम् । तथा प्राणप्रत्ययार्थम् षष्ठं पुनो धर्मचिन्तार्थम् ।। ५९ ।।] गाथार्थ - क्षुधावेदना शमाववा, गुरु, बाल, ग्लान, वृद्ध तथा तपस्वी साधुनी वैयावच्च करवा, ईर्यासमिति जाळववा, संयम निर्वहवा, जीवितने राखवा तथा धर्मचिन्तन करवा माटे साधु आहार ग्रहण करे. विवेचन-‘नास्ति क्षुत्सदृशी वेदना' जगतमां भूखनी वेदना जेवी बीजी एक पण पीडा नथी. कह्यं छे के - “पंथसमा नत्थि जरा, दारिद्दसमो अ परिभवो नत्थि । मरणसमं नत्थि भयं, छुहासमा वेयणा नत्थि ॥१ ॥ तं नत्थि जं न वाहइ, तिलतुसमित्तंपि एत्थ कायस्स । सन्निज्झं सव्वदुहाइ दिति आहाररहिअस्स ||२ ||” चालवु- परिभ्रमण करवुं ते समान वृद्धावस्था नथी दारिद्रय समान कोई श्रीगच्छाचार - पयन्ना - १७० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराभव नथी, मृत्यु समान कोई भय नथी अने भूख समान वीजुं कोई दुःख नथी, आहार रह शरीरने तिल-तुस मात्र एवं कई नथी जे पीडा न उपजावे अर्थात् भृख्याने सर्व प्रकारना दुःख था छे. आवा प्रकारनी क्षुधाने निवारवा अर्थ ज साधु आहार करे, आहार करे तो ज स्वगुरु, बाळ साधु, ग्लान तेमज तपस्त्री मुनिराज विगेरेनी वैयावच्च करी शके. वळी तो ज ईर्यासमिति पगळवापूर्वक सत्तर प्रकारे संयम आराधी शंके. आहार लेवाय तो ज प्राणो टकी शंके अने स्वाध्यायादिकमां मन रक्त रहे. भूख्या भूख्या स्मरणशक्ति मंद थाय, धर्मचिंतनमां पण मन आसक्त न बने, आ प्रमाणे छ कारणो माटे साधु निर्दोष आहार करे. सवे प्रसंगोपात्त कया छ कारणथी साधु आहार न स्वीकारे ते पण जणावे छे- “आयंके ? उवसग्गे, तितिक्खया २ वंभचेरगुत्तीसु ३ । पाणिदया ४ तवहेउं ५, सरीरवोच्छेअणट्टाए ६ ।। १ ।। " १ आतंक - ज्वारादिक रोगो आव्या होय तो न खाय, २ उपसर्गपोताना कुटुम्बीजनो, राजा अथवा देव, तिर्यचादिक सिंहथी उपद्रव थये छते ते सहन करवा माटे आहारदिकनो त्याग करे. ३ ब्रह्मचर्यगुप्ति-ब्रह्मचर्यनी नव वाड पाळवा माटे आहार न वापरे ४ प्राणिदया-वर्षाद बहु वरसतो होय, झाकळ- धुंहरी पडती होय, सूक्ष्म डेडकीओ उपजी होय, कुंआदिकनी घणी उत्पत्ति थई गई होय तो तेनी विराधना टाळवा आहार न करे, ५ तपश्चर्याने निमित्ते आहार न वापरे अने ६ शरीरने वोसराववा अर्थ एटले के आयुनो संबंध जाणी अनशन स्वीकारे हवे गच्छनुं ज विशेष स्वरुप देखाडतां कहे छे के १ जत् य जिगुकणिट्ठो, जाणिज्जड़ जिद्रुवयणत्रहुमाणो । दिवसेण वि जो जिट्ठो, न य हीलिज्जइ स गोअमा ! गच्छो ॥ ६० ॥ [ यत्र च ज्येष्ठः कनिष्ठो, ज्ञायते ज्येष्ठवचनबहुमानः || दिवसेनापि यो ज्येष्ठो, न च हील्यते स गौतम ! गच्छः ||६० ।।] गाथार्थ - जे गच्छमां नाना-मोटानो तफावत जाणी शकाय, मोटाना वचननुं बहुमान थाय तेमज एक दिवसे पण दीक्षापर्यायथी मोटो होय अने लघुतर छतां गुणवृद्ध होय तेनी हीलना न थती होय तेवो गच्छ है गौतम ! वास्तविक गच्छ समजवो. विवेचन - नाना मोटा एटले वयमां नाना-मोटा नहीं परन्तु दीक्षापर्याये गुरु-लघु जाणवा. बे जणा साथे दीक्षा लेता होय तेमां प्रथम ले ते मोटो अने पछी ले ते नानो समजवो. आ प्रमाणे विनय- विवेकादिवडे नाना-मोटानो तफावत जणातो होय तेमज ज्येष्ठ स्थविर प्रत्ये बहुमानादिक ज्यां करवामां आवतुं होय ते गच्छ सुगच्छ जाणवो. वळी जेम सिंहगिरिना शिष्यो दीक्षापर्यायमां वृद्ध होवा छतां अल्प दीक्षापर्यायी श्रीवज्रस्वामीनुं बहुमान * कर्यु-तेमनी हीलना न करी तेम गुणवान छतां लघुपर्यायी साधु प्रत्ये आदरभाव दर्शावातो होय ते गच्छ ज वास्तविक कहेवाय. हवे साध्वीनो परिचय न करे ते गच्छ-ए हकीकत दर्शाववा माटे क्रमशः दश गाथा कहे छे. * श्रीवज्रस्वामीना वृत्तान्त माटे जुओ पृष्ठ ८९ श्रीगच्छाचार- पयन्ना- १७१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जत्थ य अज्जाकप्पो, पाणच्चाएवि रोरदुब्भिक्खे | नय परिभुज्जड़ सहसा, गोयम ! गच्छं तयं भणियम् ॥ ६१ ॥ [ यत्र चार्याकल्पः प्राणत्यागेऽपि रौरदुर्भिक्षे । न च परिभुज्यते सहसा, गौतम ! गच्छः सको भणितः ॥ ६१ ॥] गाथार्थ- भयंकर दुष्काळ होय तेवा समयमां प्राणत्याग जेवुं संकट आवी पडे तो पण साध्वीओए आणी आपेल आहार साधु वगरविचार्ये न वापरे, तेवा गच्छने हे गौतम! में वास्तविक गच्छ कहेल छे. ु विवेचन - महाभयंकर दुष्काळ प्रवर्ततो होय, गोचरी मळती न होय, क्षुधा-वेदनाथी प्राण कंठे आवी जता होय तो पण साधु वगरविचार्य साध्वी ओए आणी आपले आहार न स्वीकारे. सर्व प्रकारे संयमनी ज रक्षा करवी कही छे. आ संबंधमां ओघनिर्युक्तिमा कह्यं के-संयममां भंग पडवा छतां पण जो आत्मा रक्षातो होय तो रक्षवो- “सव्वत्थ संयमं संजमा ॐ अप्पाणमेव रक्खेज्जा । मुच्चड़ अड़वायाओ, पुणो वि सोही न याविरई ॥ १ ॥” सर्व प्रकारे संयमनी रक्षा करवी परन्तु कोई कष्ट आवी पडये संयम तथा आत्मा उभयनी हानि थती होय तो संयममां दूषण लगाडीने पण आत्मानी रक्षा करवी. संयमहानिथी जे दोष लागे ते प्रायश्चित्त लेवाथी दूर करी शकाय, परन्तु एम न विचार के-हुं अविरति थयो. मनमां तो सर्वविरतिना भाव होवाथी भावचारित्र तो छे ज अने द्रव्यचारित्रमां जे दोष लागे ते आलोयणद्वारा दूर थाय. अर्णिकापुत्र आचार्यनी माफक निरुपाये साध्वीनो लावेलो आहार खाय परन्तु वगर कारणे, पोताथी बनतुं होय त्यां सुधीमां जो साध्वीनो लावेलो आहार वापरे तो तेने पासत्थो जाणवो. वळी पोताना बचावमां अणिकापुत्रनुं दृष्टांत रजू करे तेने पण पास थो जाणवो. अर्णिकापुत्रनुं वृत्तांत नीचे प्रमाणे छे अर्णिकापुत्र आचार्यनुं वृत्तांत उत्तरमथुरामां देवदत्त नामनो वणिक रहेतो हतो. ते वाणिज्यार्थे एकदा दक्षिणमथुरामा गयो.. त्यां तेने जयसिंह नामना वणिकपुत्र साधे मित्रता थई. जयसिंहे एक दिवसे तेने भोजन माटे आमंत्रण आप्यु. जमती वखते जयसिंहनी बहेन अन्निका पीरसवा आवी, जेनुं रूप-लावण्य जोतां ज देवदत्त ना प्रत्ये अनुरागी थयो. वळते दिवसे देवदते जयसिंह पासे तेनी भगिनीनी मागणी करी. जयसिंहे ते कबूलता पहेला एक शरत मूकी के अन्निका मने प्राण करतां पण अधिक प्रिय छे. जे परणीने मारा घरने विषे रहे तेने हुं परणाववा इच्छु छु. देवदत्ते ते शरत कबूल करी अने शुभ दिवसे तेओ बने लग्नग्रंथीथी जोडाया. सांसारिक सुख भोगवतां ते दंपतीना दिवसो सुखपूर्वक व्यतीत थई रह्या छे तेवामां देवदत्तना वृद्ध पितानो तेने ते डाववा संबंधी पत्र आव्यो. पत्र वांचतां अने साथसाथ पोतानी प्रतिज्ञा संभारतां तेना नेत्रमांथी अश्रुधारा वही निकळी. अत्रिकाए कारण पूछयुं पण जयसिह जवाब न आपी शक्या त्यारे स्वयं पत्र वांच्यो अने पोताना भाईने समजाववानुं बीडं झडपी पतिने आश्वासन आप्यु. श्रीगच्छाचार-पंयन्ना- - १७२ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिकाए पोताना भाईने समजावी श्वशुरगृहे जवानी अनुमति मेळवी लीधी अने शुभ दिवसे सपरिवार प्रयाण पण कर्यु. ___ अनिका गर्भवती हती. रस्तामां ज तेने पुत्रप्रसूति थई. अनिकाए का के-पुत्रनुं नाम-मारा सासु-ससरा पाडशे परन्तु साथेनो स्वजनवर्ग तो तेने 'अर्णिकापुत्र' एवा नामथी संबोधवा लाग्यो. श्वसुरगृहे आवी पाँच्या बाद तेओ आनंदथी जीवन व्यतीत करवा लाग्या. पुत्रनुं संधीरण एवं नाम राख्यं पण लोकोमां तो ते 'अर्णिकापुत्र' ना नामथी विशेष प्रसिद्धि पाम्यो. अनुक्रमे ते यौवनवय पाम्यो. सद्गुरुसंयोगे तेनी धर्मभावना विशेष वृद्धि पामी अने छेवटे भोग विलासादिनी तृष्णाने तुच्छ मानी संधीरणे जयसिंह नामना सूरिवर्य पासे संयम स्वीकार्यु. एक चित्ते सतत शास्त्राभ्यासथी तेओ आगमज्ञानमां पारगंत थया. गुरुए तेमने आचार्यपदवी आपी. तेमनो शिष्यसमुदाय पण वृद्धि पाम्यो. पृथ्वीपीठ पर परिभ्रमण करी तेओ जनसमाज ऊपर उपकार करवा लाग्या. हवे तो तेमनी वृद्धवय पण थई गई हती तेवामां तेओ विहार करतां करतां गंगानदीना तट पर आवेल पुष्पभद्र नगरमां आवी पाँच्या अने त्यां ज रह्या. आ नगरनो राजा पुष्पकेतु हतो अने तेनी राणीनुं नाम पुष्पवती हतुं. पुष्पवतीए पुत्र-पुत्रीना एक युगलने जन्म आप्यो. पुत्र- पुष्पचूल अने पुत्री, पुष्पचूला एवं नाम राखवामां आव्युं बने साथे क्रिडा करतां अने वयमा वृद्धि पामतां. रुपमां पण तेओ बंने एक एकथी चढियाता हता. तेओ परस्परनो एक क्षणमात्रनो वियोग सहन करी शकता नहीं. आवी स्थिति निहाळी राजाए विचार्यु के जो पुष्पचूलाने बीजे परणावीश तो तेओ बंने एक-बीजानो वियोग सहन करी शकशे नहीं माटे ते बंना परस्पर विवाह कर्यां होय तो सारुं. आ प्रमाणे विचारी राजाए बीजे दिवसे राजसभाभां पंडितोने पूछ्यु के- “अंत:पुरमां जे रत्न उत्पन्न थाय तेनो स्वामी कोण?” राजाना गूढाशयने नहीं समजनारा तेओए जवाब आप्यो के - “स्वामिन् ! समग्र देशना रत्नोना आप स्वामी छो तो अंत:पुरना रत्नो माटे तो पूछवू ज शुं?" राजाए तरत ज पोताना पुत्र-पुत्रीना विवाहनो निश्चय जाहेर को. पंडितो दिग्मूढ जेवा बनी गया. राणीए सख्त विरोध जाहेर कयों परन्तु राजवी पासे तेनुं कशुं चाल्युं नहीं. राजाना तिरस्कारथी राणीए वैराग्य पामी दीक्षा स्वीकारी. उग्र तपश्चर्या करी पुष्पवती राणीनो जीव स्वर्गने विषे देवपणे उपज्यो. काळक्रमे पुष्पकेतु राजा मरण पाम्यो एटले पुष्पचूळ राजा थयो. पुष्पवतीनो जीव जे देव थयो हतो तेणे अवधिज्ञानद्वारा पोताना संतानोन अकृत्य जोई तेने प्रतिबोधवा माटे पुष्पचूलाने स्वप्नमां नरकनुं नीचे प्रमाणेनुं स्वरूप दर्शाव्यु, सांकडा मुखवाळा कुंभोमांथी परमाधामी देवो, जेम लोढाना तारने यंत्रमाथी खेंचे तेम, नारकजीवोने खेंचता हता, केटलाक नारकीओने कूटता हता, केटलाकनी छाती पर शिला मूकता हता, केटलाकने वज्र सरखा कांटा भोंकता हता, केटलाकना पग पकडी, धोबी जेम शिला पर वस्त्र पछाडे तेम पछाडता हता, जेम शेलडी पीले अने घाणीमां तल पीले तेम केटलाकने पीलता हता, करवतथी काष्ठने वेरे तेम श्रीगच्छाचार–पयन्ना- १७३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केटलाकने विदारता हता, केटलाकने तपावेला लोढानी स्त्री साथे आलिगन करावता हता, केटलाकना देहने कूतरा पासे करडावता हता, केटलाक भूख्या थयेला नारकोने धगधगता अंगारा खवरावता हता, केटलाकने तपावेला तेलनी कडाईमां भजिया पुडीनी माफक तळी रह्या हता, जेम पापड भांगे तेम केटलाकने मोगरना मारथी भांगी रह्या हता, केटलाकने वैतरणी नदीमा डुबाडी रह्या हता, ते वैतरणी नदी तपावेल तांबु तथा सीसाना उष्ण रस जेवी पाणीवाळी हती. - आवा आवा प्रकारनी घोर कष्टदायक यातनाओ आपता हता अंब विगरे पंदर प्रकारना परमाधामी देवोने अलग अलग कार्य करवानुं होय छे. १ अंब-केटलाक नारक जीवोने दोडावे, लाकडी प्रमुखथी प्रहार करे, दडानी पेठे आकाशमां उछाळे. २ अंबर्षी-नारकीना होठ, चामडी विगेरे कातरथी कापे, बेसारीने विदारे. ३. श्याम- नारकीओने ऊंचेथी नीचे पछाडे, तेमना हाथ- पग भालादिकथी वीधे. ४. सबळ-आंतरडाओ काढे, काळजूं तलवारथी कापे, गदा, भाला प्रमुखथी हणे. ५. रुद्र-तरवारथी माथु कापे, गदाथी मारे, त्रिशूलथी कापी सोयना काणामां प्रवेश करावे. ६. उपरुद्र-नारकीना हाथ, पग, प्रमुख अंगोपांग भांगे, कातरथी कापे ७. काळ-कुम्भीमां पकावे. ८. महाकाळ-सिंहादिकनुरूप धरीने खाय. ९. असि-हाथ, पग, जांघ, बाहु, शिर तेमज अंगोपांगने छेदे. १० असिपत्र धनु-कान, नाक, होट, पग विगेरे कापे, दांत पाडे, जांघ छेदे. ११ कुंभ-कुंभीमां नारकीओने पकावे. लोहीमां पचावीने पछी घात करे-कापे. वळी अग्निमां पण पकावे. १२ वालु-नारकीओने अत्यंत उष्ण रेतीमां फेंकी चणानी जेम शेके. वळी आकाशमां उछाळीने पछाडे. १३ वेतरणी-जेमां मांस, रक्त, केश, हाडकां छे अने तपावेला सीसाना उष्ण रस जेवू पाणी छे तेवी वैतरणी नदीमा डुबाडे, तेमां स्नान करावे. १४ खरस्वर-करवतथी कापे, शांबली नामना वृक्ष ऊपर चढावी तेना महाकंटकद्वारा वेदना पमाडे. अने पंदरमो १५ महाघोष-भय पामीने नासी जतां नारकीओने घेरो घालीने रोके, तेने तर्जना करी बहु कष्ट पमाडे. आवा प्रकार- रौद्र स्वप्न निहाळी पुष्पचूला राणी भय पामती जागी उठी. तेणे तरत ज पुष्पचूलने स्वप्ननी वात करी. पुष्पचूले शांति निमित्ते धार्मिक कार्यो कराव्यां. देवे तो निरंतर तेने नारकीना भयंकर दुःख देखाडवा शरू राख्यां एटले एकदा राजाए सर्व धर्मना आचार्योने बोलावीने नारकीनुं स्वरूप पृछयुं कोईके का-गर्भावास जेवू नारकीनु दुःख छे, कोईए दारिद्रय जेवू तो कोईए परतंत्रता जेवू का आ प्रमाणे विधविध अभिप्रायो दर्शाव्या परन्तु राणीए ते सर्व हकीकत सांभळी पोता- मुख मचकोड्यु-पोतानो आत्मसंतोष दर्शाव्यो नहीं. बाद अर्णिकापुत्र आचार्यने नारकीर्नु स्वरूप पूछतां तेमणे जणाव्यु के-साते नरकने विषे क्षेत्रवेदना तेमज प्रहरण वेदना विना शरीरथी थयेली अन्योन्यकृत वेदना छे. प्रहरणकृत वेदना तो पहेली पांच नरकमां ज छे. पहेली त्रण नरकने विषे परधामीकृत, प्रहरणकृत, अन्योन्यकृत अने क्षेत्रकृत वेदना छे. चोथी तथा पांचमी नरकने विषे प्रहरणकृत, अन्योन्यकृत अने क्षेत्रकृत वेदना छे तेम ज छठ्ठी तथा सातमी नरकमां अन्योन्यकृत अने क्षेत्रकृत वेदना छे. पहेली नरकमां जघन्य दस हजार वर्षनी अने उत्कृष्टी एक सागरोपमनी, बीजीमां जघन्य एक सागरोपमनी अने उत्कृष्टी त्रण सागरोपमनी, त्रीजीमां जघन्य त्रण सागरोपमनी अने श्रीगच्छाचार–पयन्ना– १७४ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्टी सात सागरोपमनी, चोथीमां जघन्य सात सागरोपमनी अने उत्कृष्टी दश सागरोपमनी, पांचमीमां जघन्य दस सागरोपमनी अने उत्कृष्टी सत्तर सागरोपमनी, छठ्ठीमां जघन्य सत्तर सागरोपमनी अने उत्कृष्टी बावीस सागरोपमनी तेमज सातमी नरके बावीस सागरोपमनी अने उत्कृष्टी तेत्रीस सागरोपमनी स्थिति छे. आ उपरांत परमाधामी विगेरेनुं वर्णन पण यथास्थित वर्णवी बताव्यं. गुरु नरक संबंधी आवुं सुंदर ने यथास्थित कथन सांभळी राजाए कह्यं ले - “शुं आपे पण स्वप्नमां नरक जोई छे ?” आचायें कह्यं - “ में स्वप्न जोयुं नथी, श्री जिनेश्वर भगवंतना आगमभाषित ज्ञानथी नरकादि स्वरूप यथार्थ समजाय छे." बाद पुष्पचूलाए पूछयुं- “हे भगवन् ! कया कर्मथी नरकगति पमाय ?” त्यारे अर्णिका पुत्र आचार्य कह्यं - "महारंभथी, महापरिग्रहथी, गुरुनी निंदा करवाथी, पंचेंद्रिय जीवना घातथी, मांसनो आहार तेमज रौद्र ध्यान करवाथी जीव नरकमां जाय छे." हवे देवे पुष्पचूलाने देवलोकनुं स्वरूप देखाडवा मांडयुं मणिमय विमानोनी शोभायमान श्रेणियो, शय्या, कल्पवृक्षोनो समूह विगेरे दर्शाव्या. वळी कानमा रत्नना कुंडलवाळा, मस्तक पर मुकुटवाळा, कंठमां हीराना हारवाळा, अतिशय कांतिवाळा, सर्व दिशाओने प्रकाशित करता, सदा सुशोभित वस्त्र सहित, निर्निमेष नेत्रवाळा, न करमाय तेवी पुष्पोनी माळा पहेरेला, देवी ओना परिवार शाथे विविध प्रकारनी लीला-क्रीडा करता, विधविध संगीतनो लाभ लेनारा, जळक्रीडा करनारा-आ प्रमाणे विविध विषयसुखो भोगवता देवोने पण तेणे स्वप्नमां दृश्यमान कर्या. आवुं स्वप्न जोई पुष्पचूला जागी उठी अने पूर्वनी माफक राजाने जणावतां तेणे सर्व दर्शनना पंडितोने बोलावी पुन: ते संबंधी प्रश्न कर्यो, त्यारे केटलाके कह्यं के- मिष्टान्न आहार करवो ते स्वर्गसुख समान छे, केटलाके उत्तम पटकुलादिनुं परिधान, केटलाकै उत्तम आसन के वाहनमां बेसवुं इत्यादि सासरिक सुखोने स्वर्गसुखनी उपमा आपी. आ सांभळी राणीए कह्यं के “आ सर्व पंडितो मिथ्या छे.” बाद अर्णिकापुत्र आचार्यने पूछतां ते ओए राणीए स्वप्नमां जे प्रमाणे जोयुं हतुं ते ज प्रमाणे सर्व हकीकत जणावी एटले राणी अतीव प्रसन्न थई. बाद राणीए देवलोकनी ऋद्धि अने तेनी प्राप्ति संबंधी प्रश्न करतां अर्णिकापुत्रे कह्यं के- “पहेला सौधर्म देवलोकमा बत्रीश लाख विमान छे, बीजा ईशानमां अट्ठावीस लाख, त्रीजा सनत्कुमारमां बार लाख, चोथा माहेंद्रमां आठ लाख, पांचमा ब्रह्म देवलोकमा चार लाख, छठ्ठा लांतकमा पचास हजार, सातमा महाशुक्रमां चालीश हजार, आठमा सहस्त्रारमा छ हजार, नवमा आनत अने दशमा प्राणत बन्नेमा चारसो अगियारमा आरण अने बारमा अच्युत ए बन्नेमां त्रणसो विमान छे. सम्यक् प्रकारे आराधेला बार व्रतरूप श्रावकधर्म अने पांच महाव्रतरूप साधुधर्मना पालनथी स्वर्गसुखनी प्राप्ति थाय छे. आ प्रमाणे वृत्तांत सांभळी राणी पुष्पचूला प्रतिबोध पामी एटले तेणे स्व-स्वामी पुष्पचूल पासे दीक्षा अपाववा माटे विज्ञप्ति करी त्यारे तेणे कह्यं के- “जो तुं दीक्षा लईश तो तारो वियोग हुं 9 श्रीगच्छाचार- पयन्ना- १७५ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणमात्र पण सहन करी शकीश नहीं जो तुं दीक्षा स्वीकारीने आ ज नगरमा रहे तो हुं तने आज्ञा आपुं.” राजानुं आ वचन अंगीकार करी तेणे दीक्षा लीधी अने बेतालीश दोष रहित आहार ग्रहण करवा लागी तेमज शुद्ध त्रण योगथी निर्दोष संयम पालवा लागी. अर्णिकापुत्र आचार्य हवे वृद्धावस्थाना शिखरे पहोंची गया हता. एवामां तेमणे ज्ञानद्वारा जाण्युं के “महाभयंकर दुकाळ पडशे.” तरत ज तेमणे पोतानी अशक्ति छतां समग्र शिष्यसमूहने देशांतर मोकलावी दीधो. पुष्पचूला तेमने निरंतर शुद्ध आहार आणी आपती. गुरुनी उत्तम प्रकारनी निरंतरनी वैयावच्चने कारणे तेने केवळज्ञान उत्पन्न थयुं छतां पण तेणे गुरुनी सेवा त्यजी नहीं. केवळ ज्ञान उत्पन्न थयुं छे एम छद्मस्थ न जाणे त्यां सुधी केवलीए शुद्ध- आहार- पाणी लावी आपी विनयादि करवुं एवी आगमाज्ञा छे. साध्वी पुष्पचूला पण आ आज्ञाने अनुसरी आहारादि लावी आपती. " एकदा मुशळधार वरसाद वर्षतो हतो छतां पण पुष्पचूला साध्वीए आहार आणि आप्यो. त्यारे अर्णिकापुत्रे तेमने कह्यं के- “हे श्रुतज्ञाने ! वरसाद वरसवा छतां तमे केम आहार आण्यो ?” तेणीए कह्यं- “ज्यां ज्यां अर्चित अप्काय (पाणी) हतुं त्यांथी यत्नपूर्वक हुं आवी छु.” गुरुए पुन: पूछयुं“तें अचित्त प्रदेश क्यांथी जाण्यो ? " जवाबमां तेणीए कह्यं - " आपना प्रसादथी." गुरुए वळी पूछयुं“शुं तमने ज्ञान थयुं छे ?” साध्वीए कह्यं- “हां, अप्रतिपाती (केवळज्ञान) थयुं छे.” आ कथन सांभळी गुरुए शीघ्र ऊभा थई, मिथ्यादुष्कृत आप्युं अने आत्मनिंदा करतां कहेवा लाग्या के- “ में केवळीनी आशातना करी.” बाद साध्वीने तेमणे पूछयुं के- “हुं सिद्धि पामीश के नहीं ?” साध्वीए कह्यं“धीरज राखो, आपने गंगा नदी उतरतां ज ज्ञान-प्राप्ति थशे.” बाद आचार्य घणा लोकोनी साथै गंगा नदी पार करवा नावमा बेठा जे जे स्थळे तेओ बेसवा जाय छे त्यां नाव नीचे बेसी जवा लाग्यं. लोको डुबवा लाग्या एटले लोकोए तेमने उंचकीने पाणीमां नाखी दीधा. तेमनी दुर्भागी पूर्वभवनी स्त्री जे मृत्यु पामीने व्यंतरी थई हती तेणे ज आ संकट ऊभुं कर्तुं हतुं. पाणीमां पडतां ज ते व्यंतरी मने शूळीमां परोवी लीधा. तेमना शरीरमांथी रुधिरनी धारा वहेवा लागी. पोताने असह्य वेदना थती हती तेने लक्षमां न लेतां तेओ विचारवा लाग्या के- “ अहो ! मारा रुधिरथी अप्कायना जीवोनी विराधना थशे. हुं केवो मंदभागी छु” आ प्रमाणे पश्चात्ताप ने आत्मनिंदा करवापूर्वक तेओ क्षपकश्रेणी पर आरूढ थया अने सर्व कर्म क्षय पामतां केवळज्ञान थयुं. आयुष पूर्ण थतां तेओ तरत ज अंतकृत् केवळी थई मोक्षे गया. देवोए आवी तेमनो केवळज्ञान महोत्सव कर्यो. आ कथानो सारांश ए थयो के - कारणे - अपवादमार्गे साध्वीए आणी आपेल आहार करवो उचित छे, परन्तु पोतानी सगवडनी खातर कारण विना साध्वीए लावी आपेल आहार ले तो तेने पासत्थो जाणवो. वळी साधु साध्वी साधे संभाषण न करे तेने ज गच्छ जाणवो, ते संबंधी गाथा कहे छे के जत्थ य अज्जाहि समं, थेरा वि न उल्लवंति गयदसणा । नय झायन्ति त्थीणं, अंगोवंगाइ तं गच्छम् ॥६२॥ श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १७६ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ यत्र चार्याभिः समं, स्थविरा अपि नोल्लपन्ति गतदशनाः । न च ध्यायन्ति स्त्रीणा-मड्गोपाङगानि स गच्छः ॥६२॥] गाथार्थ- वळी जे गच्छमां युवान तो शुं पण जेमना दांत पडी गया छे एवा वृद्ध मुनिजनो पण साध्वीओनी साथे निष्कारण वार्तालाप करता नथी तेमज स्त्रीओना अंगोपांगने सराग दृष्टिथी जोता नथी ते जगच्छ वास्तविक छे. विवेचन-गाथार्थ स्पष्ट छे. अंगो आठ छे- बे भुजा, बे साथळ, एक पीठ, एक मस्तक, एक हृश्य अने एक उदर (पेट). कान, आंख, नासिका, आंगळीओ प्रमुख उपांगो कहेवाय छे. सुगच्छवासी मोक्षार्थ मुनिजन साध्वी साधे संभाषण न करे तेम तेना अंगोपांगनुं स्मरण पण न करे. स्त्रीओना स्मरणथी चित्त व्याकुळ बने छे अने स्वधर्म के स्वाध्यायमा स्थिर रही शकातुं नथी. आज संबंधमां विशेष सावचेती राखवा शास्त्रकार फरमावे छे के वज्जेह अप्पमत्ता !, अज्जासंसग्गि अग्गिविससरिसी । अज्जाणुचरो साहू, लहइ अकित्तिं खु अचिरेण ॥ ६३ ॥ [ वर्जयताप्रमत्ता !, आर्यासंसर्गी: अग्निविषसदृशीः । आर्यानुचरः साधु-र्लभतेऽकीर्ति खु अचिरेण ॥ ६३ ॥] गाथार्थ - अरे अप्रमादी मुनिवरो ! तमे अग्नि अने विष ( झेर) नी जेवी अनर्थकारी साध्वीओनो संसर्ग त्यजी द्यो, कारण के साध्वीने अनुसरनारी साधु थोडा ज समयमा अवश्य सर्वत्र अपकीर्ति पामे छे. विवेचन - अप्रमादी मुनिओने पण साध्वी-संगनो निषेध कर्यो छे तो प्रमादी साधुओनी तो व जशा माटे करवी ? तेने पण संपूर्णतया निषेध समजी ज लेवो जोईए. जेम अग्नि पोताने अने पासे रहेनारने बाळे छे तेम साध्वीसंसर्ग उभयना चारित्रने दग्ध करे छे. झेरनुं कदापि पारखं करवामां आवतुं नथी, कारण के तेनो स्वभाव ज मृत्यु पमाडवानो छे तेम स्त्री-संसर्गनो दीर्घ दृष्टिथी विचार करीने ज शास्त्रकारोए निषेध कर्यो छे. वळी स्त्रीने वाघ अने सर्पनी पण उपमा आपवामां आवी छे. 'तंदुलवैचारिक प्रकीर्णकमां' कह्यं छे के- “जाओ चिय इमाओ इत्थियाओ अणेगेर्हि कइवरसहस्सेहिं विविहपासपडिबद्धेहि कामरागमोहेहिं वन्नियाओ वि एरिसाओ तं जहा - पगड़ विसमाओ, पियरूसपाओ, पियवयणवल्लरीओ, कइ अवपेमगिस्तिडीओ, अवराहसहस्सधरणीओ, प्रभवो रोगस्स.... असलिलप्पलावो समुद्दरओ ||” आ पाठथी स्त्रीने बाणुं विशेषणो आपवामां आव्या छे - १ विषम-कोईने खबर न पडे तेवा स्वभाववाळी, २ मनोहर रुसणावाळी-रोष, क्रोध करे तो पण भली लागे तेवी, ३ मिष्ट वचननी वेल, ४ कृत्रिम प्रेमनी नदी, ५ हजारो अपराधोनी भूमि, ६ रोगोना कारणभूत, ७ बळनो नाश करनारी, ८ पुरुषोनो विनाश करनारी होवाथी खाटकी सदृश, ९ लज्जानो नाश करनार, १० अविनयनो आवास, ११ कपटनी खाण, १२ वेरनुं निमित्त, १ ३ शोकनुं स्थान, १४ अमर्यादानो आश्रम, १५ रोगनुं घर, १६ दुष्ट चारित्री, श्रीगच्छाचार- पयन्ना- १७७ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ मोहादिकनी माता, १८ ज्ञानथी चळावनारी, १९ शीलनो नाश करनारी, २० धर्ममां विघ्नकारी, २१ साधुओनी शत्रु, २२ आचारशील प्राणिओने दूषित करनार, २३ कर्मरूपी रजना बगीचा समान, २४ मोक्षमार्गमां जनारने रोकवा माटे पाटिया समान, २५ दारिद्रय, स्थान, २६ सर्प समान अत्यन्त झेरवाळी, २७ कामदेवने परवश, २८ सिंह जेवी दुष्ट हदयवाळी, २९ घासथी आच्छादित कूवो जेम मालूम न पडे तेम अप्रगट आशयवाळी, ३० कपटीनी माफक सेंकडो बंधनोमां बांधनारी, ३१ काचमां पडेल प्रतिबिंब ग्रहण न थई शके तेम अग्राह्य मानसिक विचारवाळी, ३२ बळतरीया स्वभाववाळी, ३३ पर्वतना मार्गनी पेठे अनेक स्थळे विचरनारा चित्तवाळी, ३४ खोटा हृदयवाळी, ३५ कृष्ण सर्पनी माफक अविश्वसनीय, ३६ संध्याना रंग जेवी क्षणजीवी प्रीतिवाळी, ३७ समुद्रना तरंग जेवी चंचळ स्वभाववाळी, ३८ मत्स्यनी माफक गुप्त छळवाळी, ३९ वानरनी माफक चपळ चित्तवाळी, ४० मृत्युनी माफक विशेषता रहित, ४१ यमराजनी माफक निष्करुण, ४२ वरुणदेवनी जेम बंने हस्तमा पाशवाळी, ४३ नदीना माफक अधोगमन करनारी, ४४ कृपण जेवी, ४५ नरकनी जेवी त्रासदायक, ४६ गधेडानी जेम दुष्ट आचारवाळी, ४७ दुष्ट अश्वनी पेठे दमनीय, ४८ दुष्ट सर्पनी माफक अस्थिर अंत:करणवाळी, ४९ अंधकारमा जेम प्रवेशी न शकाय तेम न प्रवेश करी शकाय-जाणी न शकाय तेवा विचारवाळी, ५० विषवेलीनी माफक अस्वादनीय, ५१ ग्राह नामना मत्स्यवाळी वावमा प्रवेश न करी शकाय तेम अग्राह्य विचारवाळी, ५२ स्थलभ्रष्ट राजानी जेम अप्रशंसनीय ५३ किपाकना फळनी जेम मधर पण परिणामे द:खदायक. ५४जम खाली मठी बाळकने मोहित करे तेम लोभ पमाडनारी, ५५ मांसनी पेशीनी माफक उपद्रव करनारी, ५६ सळगती मसालनी माफक उग्र स्वभाववाळी, ५७ दुष्कर रीते रक्षणीय, ५८ घणो विखवाद करनारी, ५९ दुगंच्छा उपजावनारी, ६० खोटुं चालनारी, ६१ अगंभीर, ६२ अश्रद्धनीय, ६३ अस्थिर, ६४-६५ दुःखपूर्वक रखाय तेवी तेमज रक्षण कराय तेवी, ६६ असाताकारक, ६७ महाकर्कश-कठोर, ६८ दृढ वेर राखनारी, ६९ रूप तथा सौभाग्यने अंगे उन्मत्त, ७० सर्पनी माफक वक्रगतिवाळी, ७१ अटवीनी माफक विषम मार्गवाळी ७२ सज्जन तथा मित्रमा भेद पडावनारी, ७३ परदोषप्रकाशक, ७४ कृतघ्नी, ७५ बळने शोधनारी तथा छळने जोनारी, ७६ एकांतमां यमराज सरखी, ७७ चंचळ, ७८ जातिभ्रष्ट करावनार, ७९ क्षणमां राजी ने क्षणमा रोषित, ८० विपत्तिनुं स्थान, ८१ पुरुषने माटे दोरडा विनानो गळाफांसो, ८२ काष्ठ विनानी अटवी जेवी, ८३ वैतरणी नदी जेवी, ८४ अपूर्व व्याधि, ८५ नित्यनुं रुदन, ८६ अदृश्य उपसर्ग, ८७ क्षणमात्र रति-आनंदने उपजावनारी, ८८ चित्तनो भ्रम करावनारी, ८९ सर्व प्रकारना दाह स्वरूप, ९० कामने उत्पन्न करावनारी, ९१ वज्र जेवी तीक्ष्ण अग्नि सदृश, ९२ जळ रहित समुद्रना घोष जेवी भयप्रद.... विगेरे विगेरे केटलाक स्त्रीवाचक शब्दोनो अर्थ पण जाणवा जेवो होई अत्रे निर्देश्यो छे- १ नारी= न+ अरि-काम, भोग अने स्नेहरागी पुरुषने वध, बंधन विगेरे कष्ट पमाडे तेथी तेवी स्त्री पुरुषने माटे अरि एटले शत्रु सदृश छे. २ महिला= शिल्प विगेरे एनेक प्रकारनी कलाओ द्वारा पुरुषोने मोह उपजावे. ३ प्रमदा= पुरुषने मदोन्मत्त करे. ४ महिलिया = अत्यंत कलह उत्पन्न करे. श्रीगच्छाचार–पयन्ना- १७८ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ रामा = हावभावद्वारा पुरुषोने रमकडानी माफक यथेष्ट रमाडे ६ अंगना = प्राणियोने पोतानुं अंग देखाडी अनुराग उपजावे, ७ ललना = स्त्रीने अर्थे युद्ध करे, भूखे मरे, तडके दाझे इत्यादिक कष्ट सहन करवा छतां राजी न थाय. ८ योषित = पुरुषोने भोगवीने. वमे-त्याजे ९ वनिता = नाना प्रकारना भावोद्वारा पुरुषोने वंचे- टंगे. आ प्रमाणे स्त्रीवाळा शब्दोना अर्थ विविध रीते थाय छे. श्रीदशवैकालिक सूत्रमां कह्यं छे के- “विभूसा इत्थिसंसग्गी, पणीअं रसभोअणं । नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ १ ॥” विभूषा - शरीर तथा वस्त्रोनी शोभा करवी, स्त्रीसंसर्ग-स्त्रीनो परिचय करवो, तेनी साथे हळवुंमळवु, रसभोजन-घृत आदि विगयोनो आहार करवो-आ बधी क्रिया जेने आत्मानी गवेषणा करवी छे - आत्महित साधवुं छे तेवा प्राणीने माटे तालपुट झेर जेवी छे अर्थात् स्त्रीपरिचय कोई पण रीते हितकारक नथी ज. बीजा शास्त्रकारोपण कहे छे के आवर्तः संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानां दोषाणां सन्निधानं कपटशतगृहं क्षेत्रमप्रत्ययानाम्। स्वर्गद्वारस्य विघ्नो नरकपुरमुखं सर्वमायाकरण्ड, स्त्रीयन्त्रं केन सृष्टं विषमविषमयं सर्वलोकस्य पाशः ॥ १ ॥ नो सत्येन मृगाङ्क एव वदनीभूतो न चेन्दीवर - द्वन्द्वं लोचनतां गतं न कनकैरप्यङ्गष्टिः कृता । किंत्वेवं कविभिः प्रतारितमनास्तत्त्वं विजानन्नपि त्वङ्मांसास्थिमयं वपुर्मृगद्दशां मत्वा जनः सेवते ।। २ ।। यदेतत्पूर्णेन्दुद्युतिहरमुदाराकृतिधरं, मुखाब्जं तन्वङ्ग्याः किल वसति यत्राधरमधुः । इदं तत्किम्पाकद्रुफलमिवातीव विरसं, व्यतीतेऽस्मिन्काले विषमिव भविष्यत्यसुखदम् || ३ || व्यादीर्घेण चलेन वक्रगतिना तेजस्विना भोगिना, नीलाब्जद्युतिनाऽहिना वरमहं दष्टो न तच्चक्षुषा । दष्टे सन्ति चिकित्सका दिशि दिशि प्रायेण पुण्यार्थिनो, मुग्धाक्षी क्षणवीक्षितस्य न हि मे वैद्यो न वाऽप्यौषधम् ॥४ ॥ संसार ! तव निस्तार- पदवी न दवीयसी । अन्तरा दुस्तरा न स्यु-यदि रे मदिरे क्षणाः ॥ ५ ॥ नूनं हि रे कविवरा विपरीतबोधा, ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् । याभिर्विलोलतरतारकद्दष्टिपातैः, शक्रादयोऽपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः || ६ || जल्पन्ति सार्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः । हृदये चिन्तयन्त्यन्यं, प्रियः को नाम योषिताम् ? ॥७ ॥ स्मितेन भावेन च लज्जया भिया । पराङ्मुखैरर्द्धकटाक्षवीक्षितैः । वचोभिरीर्ष्याकलहेन लीलया समस्तभावैः खलु बन्धनं स्त्रियः ।।८ ।। शंकारूपी आवर्तवाळु (जळमां जेम आवर्त - भमर-वमळ पडे छे अने तेमां कोई प्राणी आवी जाय तो चक्कर खाईने डूबी जाय), अविनयनुं स्थान, महासाहसनुं निवास, दोषोना निधानरूप, सेंकडो कपटना घररूप, अविश्वासना क्षेत्ररूप, स्वर्गलोकमा जतां विघ्नभूत, नरकना दरवाजारूप, कपटना करंडियारूप स्त्रीरूपी यंत्र के जे सर्व जीवोने माटे पाश-फांसा समान अने अमृतमय झेर (देखावे अमृत सदृश लागे परन्तु परिणामे विष जेवुं मृत्युजनक) जेवुं छे ते कोणे सर्ज्जु ? अर्थात् स्त्री ऊपरना नव प्रकारोद्वारा दुःखकारक छे. (१) स्त्रीनुं मुख कंई चन्द्र जेवुं नथी, तेना बन्ने नेत्रो कमळ समान नथी तेमज तेनुं शरीर सुवर्ण सदृश पण नथी-आ तो कविनी कल्पना मात्र छे. ते जाणवा छतां पण मूढ माणसो चामडी, मांस अने हाडकावाळा आ स्त्री-शरीरने सेवी रह्या छे ते तेओनो खरेखर श्रीगच्छाचार- पयन्ना- १७९ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रम छे. (२) पूर्णिमाना चन्द्रनी कांतिने हरी लेनार स्त्रीना मुखकमळने विषे जे अधर (ओष्ठ) रुपी मध छे ते किंपाकना फळनी जेम अत्यन्त विरस छे अने यौवनकाळ अथवा मनुष्यभवरूपी काळ व्यतीत थई गये छते झेरनी माफक अत्यन्त दुःखदाता छे. विषमिश्रित मिष्टान्न प्रथम स्वादिष्ट लागे परन्तु परिणामे प्राणघातक निवडे तेम स्त्री, मुखकमळ इत्यादि परिणामे नरकदायक छे. (३) अतिशय लांबो, चपळ नेत्रवाळो, वांकी गतिवान तेजस्वी अने नील कांतिवाळो सर्प डसे तो सारो परन्तु स्त्रीना चक्षुथी डसावू सारुं नहीं. सर्प डसे तो कोई पण स्थळेथी वैद्य मेळवी उपचार करी शकाय परन्तु आ स्त्री-नेत्रथी वीधायेलाने माटे कोई पण वैद्य के औषध नथी. (४) आ संसाररूपी समुद्रने तरी जवो ए कई मुश्केल नथी-जो वचमां आ स्त्रीरूपी दुस्तर विघ्न न होय तो. (५) जे कविओ स्त्रीओने अबला (बळ विनानी) कहे छे ते बुद्धि विनाना जणाय छे कारण के स्त्रीओए पोताना चपळ नेत्रकटाक्षथी इंद्र जेवाने पण महात कर्या छे तो तेवी स्त्रीओने अबला केम कहेवाय ? (६) वळी ते कोईनी साथे वात करी रही छे, कोईनी साथे विभ्रमविलासपूर्वक देखी रही होय छे अने अंत:करणमां कोई अन्य पुरुष- ज चिंतन चाली रह्यं होय छे-आवी स्त्रीने पोतानो वल्लभ कोण होई शके ? (७) अल्प हास्यथी, हावभावथी, शरमथी, भयथी, परांगमुख बनवाथी, नेत्रकटाक्षथी, वचनथी, ईर्ष्याथी, कलहथी, क्रिडाथी अगर समस्त प्रकारना भावोथी स्त्री बंधनरूप निवडे छे. (८) आवी रीते स्त्रीओना अनेक प्रकारना दुर्गुणो विचारी साधुपुरुषे तो तेने नव गजना नमस्कार ज करवा. स्त्रीना परिचय मात्रथी * मुनि पतित थया. केटलाक पुरुष पण दुर्गुणी होय छे, तेथी साध्वीए पण तेवाथी सावचेत रहेQ आ संबंधमा + मणिरथनुं दृष्टांत जाणवा योग्य छे. आ हकीकतना बचावमां पासत्थादिक कोई कहे के-आवा दोषो तो जे अज्ञानी होय तेने लागे, परंतु बहुश्रुत होय, जेने ज्ञान परिणमी गयुं होय तेने दोषोत्पत्ति नथी, तो तेने जवाब आपतां ग्रंथकार कहे छे के .....___ * कोईएक आचार्यने अविनयी शिष्य हतो. आचार्य तेने तेना वर्तन संबंधी शिखामण आपे तो ते उलटो रोषे भरातो. गुरु एकदा रेवताचळनी (उत्तराध्ययनसूत्रमा श्रीसिद्धाचल कहेल छे) यात्राए गया त्यां पण आ शिष्य यात्राळ स्त्रीओ ऊपर कुदृष्टि करवा लाग्यो. गुरुए तेने निवार्यों एटले ते क्रोधित थयो. पोताने हितशिखामण आपनार गुरु ऊपर हवे तेने पूरो कंटाळो आव्यो एटले तेमने यमराज-सदनमां मोकली आपवानो निरधार करी तेणे यात्रा कर्या बाद पाछा वळतां गुरुमहाराज पर पाछळ रहीने एक पत्थरनो मोटो गोळो गबडाव्यो. परन्तु भाग्ययोगथी ते पत्थरनो गोळो आचार्यना बने पग वच्चे थईने निकळी गयो. गुरुए तेने उपालंभ आपतां कां के हे दुरात्मन् ! आ स्त्रीजातिथी ज तारो विनाश थशे. गुरुए निर्भर्त्सना करवाथी ते त्यांथी चाल्यो गयो अने स्त्री रहित एकांत स्थाननी शोध करतो एक नदीने सामे किनारे जई आतापना लेवा लाग्यो. तेने कोई पण प्रकारे गुरु-कथन मिथ्या करवं हतुं. तेनी तपश्चर्या तीव्र हती. तेना उग्र तपना प्रभावथी नदीनो प्रवाह, तेनी तरफ वहेतो हतो तेने बदले बीजी दिशामां वहेवा लाग्यो एटले लोकोए तेनी 'कुलवालुक' एवा नामनी प्रसिद्धि करी. देव-प्रभावयी श्रेणिक महाराजने दिव्यकंडल, अढार सरनो हार, दिव्य वस्त्रो अने सेचनक हस्तीनी प्राप्ति थयेल ते तेमणे पोताना पुत्र हल्ल-विहल्लने अर्पण करेल. कुणिकनी पत्नी पद्मावती हमेशां तेनी मागणी कर्या करती. श्रेणिकना मृत्यु बाद कुणिके हल्ल-विहल्ल पासे तेनी मागणी करी. कुणिक सर्वसत्ताधीश हतो एटले हल्ल-विहल्ल पोताना मातामह चेटक (चेड़ाराजा) ना आश्रये चाल्या गया. कुणिके तेओने सोंपी देवा कहेवराव्यु. चेटक महाराजाए शरणागत दोहित्रोने सोंपवानो इन्कार कयों, कणिके विशाला नगरी पर हल्लो कयों बने बाजु विपुल सैन्यसमूह एकत्र थयो. बंने महारथी अने समर्थ राजवी होईने एकबीजाथी गांठ्या जाय तेवा न हता. चेटक महाराजाने देवोए अमोघ बाण आपेल, के जेना प्रहारथी अवश्य मृत्यु श्रीगच्छाचार–पयन्ना—१८० Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थाय ज, तेमने हमेशां एक ज बाण मूकवानी प्रतिज्ञा हती. शरुआतना दश दिवसना युद्धमा हमेशना एक ए प्रमाणे चेटक महाराजाए कुणिकना काळ, महाकाळ विगेरे दश भाईओने हणी नाख्या. आ करुण बनावथी शोकग्रस्त बनी कुणिके अठ्ठमतपद्वारा सौधर्मेन्द्र अने चमरेंद्रनं आराधन कर्य. तेओए आवी का के चेटक महाराजा जैन होवाथी अमारा साधर्मी छे, अमे तेमने मारी शकशुं नहीं परन्तु तमारा बचावने माटे वज्रमय कवच करशुं. आ प्रमाणे कहीने तेने शिलाकंटक अने रथमूशळ आप्या. तेनो प्रभाव ए हतो के शत्रुसैन्यमां एक कांकरो नाख्यो होय तो ते मोटी शिला जेवो थईने अने एक कांटो शस्त्ररूप बनीने संहार करतो. तेना आवा प्रभावथी चेडा महाराजाना घणा सुभटो मरी गया. चेडा महाराजाए जाते युद्धमां आवी कुणिक ऊपर बाण छोड्युं पण ते वज्रमय कवचने कारणे निष्फळ गयुं बीजे दिवसे पण तेमज थयुं एटले त्रीजे दिवसे तेमणे विशाळा नगरीना दरवाजा बंध कराव्या. विशाळा नगरीनो गढ कब्जे करवो ते अत्यंत दुष्कर कार्य हतुं. कुणिके घेरो नाख्यो. बार वर्ष सुधी घेरो घाल्यो छतां परिणाममां शून्य कुणिक गहन विचारमा पडी गयो. तपासने अंते जणायुं के विशाळा नगरीमा जे श्रीमुनिसुव्रतस्वामीनो स्तूप छे तेना प्रभावथी विशाळानुं पतन थतुं नथी, जो ते स्तूपने जडमूळथी खोदी काढवामां आवे तो ज विशाळानुं पतन थाय. पण आ कार्य कोण करी शके? लोकोनी श्रद्धानो गेरलाभले तेवो कोई साधुपुरुष होय तो ज आ कार्य बनी शके, पण समरभूमि पर साधु लाववा क्याथी? तेणे पोताना चरपुरुषोने चारे दिशामां तपास करवा मोकल्या. तपासने अंते तेने कुलवालुक मुनिनी बातमी मळी. तेने पतित करवा अने कोई पण हिसाबे पोतानी पासे लाववा पोतानी चतुर मागधिका नामनी गणिकाने का. मागधिका पोताना मुश्केल कार्यथी अजाणी नहोती. तेणे साधुने पाशमां पकडवा श्राविकानो स्वांग सज्यो अने जे स्थळे कुलवालुकमुनि आतापना लई रह्या हता त्यां गई. मुनिने वंदना करी कह्य के हे मुनिवर्य ! स्थाने चैत्यो तथा मुनिओने वंदन करीने मारे भोजन लेवानो नियम छे तो आप कृपा करी, निर्दोष आहार-पाणी स्वीकारी मने कृतार्थ करो. कुलवालुक मुनिए तेनी विनति मान्य राखी आहार ग्रहण कर्यो. चतुराईथी मागधिकाए मोदकना आहारमा नेपाळाना चूर्णनी नानी नानी गोळीओ मिश्रित करी दीघी हती तेथी मुनिने ते आरोगतां अतिसार (झाडा) नो व्याधि उत्पन्न थयो. मागधिकानी युक्ति बराबर सफल थई. तेणे अन्य गणिकाओद्वारा कुलवालुक मुनिनी सेवाशुश्रूषा शरू करावी. मुनि पण झाडाना व्याघिथी अत्यंत पीडाता हता ते आ गणिकाओना उपचारथी प्रमोद अनुभववा लाग्या. प्रतिदिनना आ व्यवसायथी कुलवालुकमुनि चारित्रथी भ्रष्ट थया. पछी तो ते कुणिक पासे गया अने विशाळामां कपटथी स्तूपपण खोदावी नखाव्यो. विशाळा- पतन थयु. कुलवालुक मुनि पण दुर्गतिगामी बन्या. आ संबंधे विशेष वृत्तांत जाणवानी इच्छावाळाए उपदेशप्रासाद ग्रंथना प्रथम स्थंभ, चौदमुं व्याख्यान वांचq. + सुदर्शनपुर नामना नगरमां मणिरथ राजवी हतो. तेने युगवाह नामनो लघु बंधु हतो. ते युवराजने रूपमारंभा सरखी सौन्दर्यवती मदनरेखा नामनी स्त्री हती. तेना अत्यंत रूपराशिथी मोहित थयेल राजाए मनमां विचार्यु के- “आ मदनरेखाने मारे कोई पण प्रकारे ग्रहण करवी. तेना सिवायनो मारो जन्म अने राज्यसाह्यबी वृथा छे." तेणे मदनरेखाने पोतामां पाशमां फसाववा माटे एक विचक्षण दासीद्वारा उत्तम तांबूल, वस्त्राभरण, पुष्प विगेरे मोकलाव्या. मदनरेखा राजानो आशय समजी शकी नहीं. तेणीए राजानो “प्रसाद" समजी ते स्वीकारी लीधुं थोडा दिवस बाद राजाए ते दासीद्वारा पोतानी मदनातुर स्थिति कहेवरावी.दासीना वज्रजेवा कठोर वचन सांभळी तेणीए कह्यं के “गणिका प्रमुख स्त्रीओना बंधुजन पण भोग माटे तेओनी पासे जवा समर्थ थता नथी, तो तारा राजाने सुन्दर अंत:पुर छतां ते मूढ नारकी अपावनार परस्त्रीमां केम राचे छे? राजाए तो परस्त्रीनी कदी पण इच्छा न करवी; केमके विश्वने विषे लोको तेनुंज अनुकरण करे छे. जो कदाच राजा मारा पर बलात्कार करशे तो हुं मारूं शरीर आपवाने बदले मारा प्राण ज आपीश." दासीए आ सर्व हकीकत राजाने कही. राजा विशेष कामातुर थयो, परन्तु युगबाहुनी हैयातिमां ते कई करी शकवा समर्थ नहोतो एटले ते तेने हणवाना उपायो शोधवा लाग्यो. ___ एकदा युगबाहु मदनरेखा साथे क्रिडा करवा उद्यानमां गयेल. जळक्रीडा करी रात्रिना समये ते कदलीगृहमां सूतो एवामां मणिरथ पण युगबाहुने हणवानी बुद्धिथी खड्ग लई त्यां आव्यो. युगबाहु साथे कृत्रिम वार्तालाप करी, प्रसंग साधी तेना प्रत्ये तेणे खड्गनो प्रहार कर्यो. युगबाहु घायल थई नीचे पड्यो. मदनरेखाना हाहाकारथी पासेना सुभटो दोडी आव्या, पण युगबाहुए कह्यं के अरे सुभटो ! मारा सहोदरने हणशो नहीं. तेनो कंई दोष नथी, मारा पूर्व कर्मनुं ज आ परिणाम छे. मणिरथ पण पोतान कार्य सिद्ध थयुं जाणी हर्षित थई घरे आव्यो. त्यां तेने अकस्मात् सर्प-डंस थयो. का छे के अत्यन्त उग्र पुन्य के पाप- फळ आ लोकने विषे जत्रण मास, त्रण पक्ष, त्रण दिवस के त्रण प्रहोरमां ज मळे छे. मणिरथ मृत्यु पामी चोथी नरके गयो. श्रीगच्छाचार-पयन्ना– १८१ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थेरस्स तवस्सिस्स व, बहुस्सुअस्स व पमाणभूयस्स । अज्जासंसग्गीए, जणजंपणयं हविज्जाहि ॥ ६४ ॥ किं पुण तरुण अबहुस्सुओ अ, न य वि हु विगिट्ठतवचरणो । अज्जासंसग्गी, जणजंपणयं न पाविज्जा ॥ ६५ ॥ [ स्थविरस्य तपस्विनो वा, बहुश्रुतस्य वा प्रमाणभूतस्य । आर्यासंसर्ग्या, जनवचनीयता भवेत् ॥६४॥ किं पुनस्तरुणोऽबहुश्रुतश्च न चापि हु विकृष्टतपश्चरणः । आर्यासंसर्ग्या, जनवचनीयतां न प्राप्नुयात् ॥ ६५ ॥] गाथार्थ- वृद्ध तपस्वी, बहुश्रुत अने सर्व जनने मान्य मुनिराजने साध्वीनो संसर्ग लोकनिंदानो हेतु थाय छे तो पछी जे युवान, आगमबोध विनाना, विकृष्ट (अठ्ठम उपरांत) तप नहीं करनारा वा मुनि लोकनिंदाने पात्र केम न थाय ? विवेचन-विधविध प्रकारांनी उग्र तपस्या करनार, आगमना ज्ञाता अने पोताना चारित्र- पालनथी तेमज व्याख्यानशैली आदि कुशळताथी बहुमानने योग्य, पूज्य एवा साधु पण जो साध्वी साथे परिचय राखे, तेनो आणेलो आहार वापरे तो लोको निंदा करे छे के-तेओने परस्पर मेळ होवाथी कंईक हशे, स्नेहना कारण विना कोई संबंध धरावे नहीं आ प्रमाणे कुशंकाना वमळमां पडी लोको कर्मबंध करे छे अने साधुओ तेमां निमित्तभूत बने छे. साध्वीसंगथी आगमज्ञाता अने दीर्घपर्यायी साधु जो निंदाने पात्र बनी शकतां होय तो तरुण अने नूतन साधुनी तो वात ज शा माटे करवी ? आ युगबाहुने घायल थयेल सांभळी तेनो पुत्र चंद्रयशा पण त्यां आव्यो. तेणे तथा मदनरेखाए तेने शांत्वन आप्यु. अंतसमयनी आराधना करावी एटले शुभ ध्यानपूर्वक मृत्यु पामी युगबाहु ब्रह्मदेवलोकमां देव थयो. मदनरेखाए विचार्यं के हवे मणिरथ मने छोडशे नहीं, माटे गुप्त रीते ते उद्यानमांथी ज छटकी गई ते समये ते सगर्भा हती. त्यांथी कोई महाटवीमां जतां पुत्र - प्रसव थयो. तेने रत्नकंबलमां लपेटी, तरु नीचे मूकी सरोवरमां जतां जळहस्तीए तेने आकाशमां उछाळी. कोई विद्याधरे तेने पकडी लीधी. ते पण तेना रूपथी मोहित थयो छेवटे नंदीश्वरद्वीपे जतां विद्याधर प्रतिबोध पाम्यो. मदनरेखाए दीक्षा लीधी. प्रसव थयेल पुत्रने पद्मरथ राजा लई गयो. तेनुं नमि एवं नाम राख्यु पद्मरथे दीक्षा लेतां नमि राजवी थयो. तेना प्रतापथी सर्व राजाओ तेने वश थया. एकदा तेनो हस्ती आलानस्तंभ उखेडी नाखीने नाठो तेने चंद्रयशाए कब्जे करी सुदर्शनपुरमा राख्यो. नमिए ते सोंपी देवा कहेवराव्यं चन्द्रयशाए न मानतां बंने वच्चे अंत्यत युद्ध मंडायुं. आ वातनी साध्वी सुव्रता (मदनरेखा) ने खबर मळतां ते युद्धमेदान पर आवी अने बने भाई ओने समजाव्या. छेवटे बने प्रतिबोध पाम्या. नमिने राज्य सोंपी चन्द्रयशाए संयम लीघुं. आ रीते नमि विशाळ राज्यनो स्वामी बन्यो. तेने एक दिवस दाहज्वर थयो. तेना उपशमन निमित्ते तेनी राणीओ चंदन घसवा लागी. वलयनो ध्वनि अत्यंत थवा लाग्यो, ते कर्कश जणातां तेणे तेनो निषेध कराव्यो. छेवटे राणीओना हस्तमां सौभाग्यसूचक एक ज कंकण रहेवा दीधुं, एटले ध्वनि बंध थयो. तेवामां तेणे पुनः प्रश्न कर्यो-शुं राणीओ चंदन घसती नथी ? जवाबमां मंत्रीए कह्यं के-घसे छे परन्तु एक ज वलय हस्तमां होवाथी अवाज थतो नथी. नमि राजवी आ कथन सांभळी विचारवा लाग्या के एकमां ज शान्ति छे; एनेकमां उपाधि छे. जो हुं व्याधिमुक्त थईश तो आ सर्व • उपाधिनो त्याग करी दीक्षा लईश. भाग्ययोगे आवो विचार करतां ज तेमने ऊंघ आवी गई. अने ज्यारे जागृत थया त्यारे व्याधि नाश पाम्यो हतो. तेमणे तस्त ज संयम स्वीकार्यं देवोए तेमने रजोहरण आप्युं, अने तेओ नमि राजर्षि तरीके प्रसिद्धि पाम्या. चार प्रत्येकबुद्धोमां तेमनो नंबर प्रथम छे. आ संबंधी विशेष वृत्तांत जाणवाना इच्छके भरहेसरबाहुबली वृत्ति भाषांतरमां 'मदनरेखानी कथा' तेमज प्रत्येकबुद्ध चरित्र वांचवं. श्रीगच्छाचार - पयन्ना- १८२ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधी विशेष वर्णन जणावतां कहे छे के जइवि सयं थिरचित्तो, तहवि संसग्गिलद्धपसराए । अग्गसमीवे व घयं विलिज्ज चित्तं खु अज्जाए ||६६ || [ यद्यपि स्वयं स्थिरचित्तस्तथापि संसर्ग्या लब्धप्रसरया । अग्निसमीपे इव घृतं, विलीयते चित्तं खु आर्यायाः ||६६ ॥] गाथार्थ-कदाच साधु दृढ अंतः करणवाळो होय तो पण साध्वीनो संसर्ग वधवाथी, अग्नि समीपे जेम घी ओगळी जाय तेम तेमनुं चित्त जरुर डगी जाय. विवेचन - साध्वी साधु पासे वारंवार आवे - जाय के साधु साध्वी पासे वारंवार आवे - जाय त्यारे परस्पर संभाषण वधे, एक बीजाना अवयवो जोवानो प्रसंग प्राप्त थाय अने उभयमांथी कोई पण दृढ मनबळवाळा न होय तो स्खलना पामवानो प्रसंग उपस्थित थाय. शास्त्रकारोए सर्व व्रतोमां ब्रह्मव्रतने सर्वश्रेष्ठ कह्यं छे तेनुं कारण पण एमज छे के अग्नि समीपे घी मूकतां तरत ज ते पीगळवा मांडशे तेम मोहराजानी दूती समान स्त्री-संसर्गरूपी अग्नि पासे कोई विरल पुरुषनुं ज मनरूपी घी अक्षय रही शके. तेवा पुरुषो तो चरमकेवली श्रीजंबूस्वामी, स्थूलभद्रजी, श्रीवज्रस्वामी इत्यादिक आंगळीने टेरवे गणी शकाय तेटला ज होय छे. आ संबंधमां राजीमती ने रथेनेमिनुं दृष्टांत सारुं अजवाळं पाडी शके छे. बावीशमा तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमिए संयम स्वीकार्या बाद तेना वडील बंधु रथनेमि राजीमती पासे पोताना पाणिग्रहण संबंधी प्रस्ताव मूके छे. राजीमती दृढ मनोबळवाळी होवाथी तेने भोगविलासनी भावना जागृत ज थती नथी. रथनेमि वारंवार राजीमती पासे भोगनी इच्छा दर्शाववा लाग्या एटले एक दिवसे तेने प्रतिबोधवा माटे राजीमतीए एक उपाय योज्यो, मिष्टान्न आहार करीने ते बेठी हती तेवामां रथनेमि आव्या एटले मदनफळ (मीढोळ) सुंघीने तेणे तरत ज उलटी करी अने रथनेमिने कह्यं के- हे दियर ! आ अन्न तमे स्नेहपूर्वक आरोगो. रथनेमिए क के-वमन करेलुं धान्य तो कागडा - कूतरा खाय; बीजा तो तेनी इच्छामात्र पण न करे. आ जवाब सांभळी राजीमती बोली के- मने तमारा भाई अरिष्टनेमिए वमी छे तो तमे शा माटे मने इच्छो छो ? रथनेमि तरत ज प्रतिबोध पाम्या अने बनेए भगवंत पासे दीक्षा लीधी. रथनेमि द्वारिकानगरीमां गोचरी लई पाछा वळता हता तेवामां वृष्टि थवाथी तेओ एक पर्वतनी गुफामा आश्रय लीधो. राजीमती पण भगवंतने वांदी वसतिमां पाछा फरी रह्या हता तेवामां तेमना पण वस्त्र भींजाई जवाथी तेने सुकववा अने आश्रय लेवा जे गुफामां रथनेमि हता ते ज गुफामां दाखल थया. उतावळमां कोई छे के नहीं ? तेनी तपास कर्या विना ज वस्त्रो उतारीने सुकवी नाख्या अने पोते नग्न दशामा रह्या. आ दृश्य जोतां ज रथनेमिनो पूर्वनो सुषुप्त रहेलो काम उछळी आव्यो. तेओए तरत ज राजीमती पासे भोगनी प्रार्थना करी. राजीमती तरत ज शरमाई गया. वस्त्र परिधान करी तेभणे शांत चित्तथी कह्यं के- “अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगवह्निणो । मा कुले गंधणा होमो, संयमं निहुओ ु चर ॥१ ॥” हुं भोगकुळमां जन्मी छु, उग्रसेन जेवा मारा पिता छे, तुं समुद्रविजयनो पुत्र छे. आवा श्रीगच्छाचार- पयन्ना — १८३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम कुळमां उत्पन्न थईने आपणे गंधन सर्प जेवा अधम न थवं माटे निश्चयतापूर्वक संयमन पालन करो. बे जातिना सर्प छे-एक गंधन अने एक अगंधन. गंधन जातिनो सर्प कोईने डस्यो होय अने जो मंत्रवादी उपचार करे तो पाछो आवीने झेर चुसी जाय अने अगंधन जातिना सर्प वादी गमे तेटलो मंत्रोपचार करे तो पण मृत्यु पामवं पसंद करे पण झेर पार्छ न चूसे. तेम हे रथनेमि ! तमोए पूर्वे जे भोगविलासा वम्या छ तेने फरी वार ग्रहण करवानी वांछामात्र पण करवी उचित नथी. राजीमतीना आवा उत्तम बोधदायक वचनथी रथनेमिए परमात्मा पासे आवी प्रायश्चित्त स्वीकार्य, रथनेमि जेवा मुनीश्वर पण ज्यां चलायमान थई गया त्यां आ काळना सामान्य साधुओनी वात ज शामाटे करवी? सव्वस्थ इस्थिवग्गंमि, अप्पमत्तो सया अवीसत्थो। नित्यरइ बंभचेरं, तब्विवरीओ न नित्थरइ ॥६७ ॥ सव्वत्येसु विमुत्तो, साहू सव्वत्य होइ अप्पवसो। सा हाइ अणप्पवसो, अज्जाणं अणुचरतो उ ॥६८ ॥ खेलपडिअमप्पाणं, न तरइ जह मच्छिआ विमोएउं । अज्जाणुचरो साहू, न तरइ अप्पं विमोएउं ॥६९ ।। [ सर्वत्र स्त्रीवर्गेऽ-प्रमत्तः सदा अविश्वस्तः । निस्तरति ब्रह्मचर्ये, तद्विपरीतो न निस्तरति ॥१७॥ सर्वार्थेषु विमुक्तः, साधुः सर्वत्रात्मवशो भवति। स भवत्यनात्मवश: आर्याया: अनुचरन् तु ॥६८ ॥ फ्लेष्यपतितमात्मनं, न शक्नोति यथा मक्षिका विमोचयितुम् । आर्यानुचरन् साधु-नं शक्नोत्यात्मानं विमोचयितुम् ॥१९॥ गाथार्थ- सर्वत्र स्त्रीवर्गनी अंदर हमेशां अप्रमत्तपणे विश्वास रहित वर्तनार साधु ब्रह्मचर्य पाळी शके छे, विपरीतपणे वर्ते तो ब्रह्मचर्य गुमावी बेसे छे. सर्व पदार्थमां ममता रहित साधु स्वतंत्र-स्वाधीन होय छे परन्तु जो ते साध्वीना पाशमां बंधाय-साध्वीना कथन प्रमाणे अनुसरे तो ते परतंत्र-सेवक बनी जाय छे. जेम मळ (श्लेष्म) मां चोंटी गयेल माखी छुटी थई शकती नथी तेम साध्वीना स्नेहपाशमां झकडायेल साधु तेमांथी मुक्त थई अन्यत्र विहार करी शकतो नथी. विवेचन-कोई शंका करतां पूछे के-स्त्रीनो परिचय वधवाथी स्त्री पुरुषने शुं करे? तेनो जवाब ए छे के-स्त्री पोते तो कंई करती नथी परन्तु पुरुष तेने देखीने चळित थाय छे. पुरुषनी लागणीओ अने चित्तवृत्तिओ चपळ होय छे; ज्यारे स्त्रीने मैथुननी अभिलाषा विशेष होय छे तेमज तेने मोहनीयकर्मनो उदय अधिक होय छे माटे शास्त्रकारोए डगले ने पगले सावचेत रहेवानो उपदेश आप्यो छे. श्राविका करतां साध्वीनी स्थिति ऊंची ने आदरपात्र छे. तेणे जिनेश्वर भगवंतनो वेष धारण श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१८४ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्यो छे. तेने भ्रष्ट करवाथी तीर्थंकरनी आशातनारूप महादोष उपजे छे, समकितनो नाश थाय छे, संसार परिभ्रमण वधे छे. जेम खेतरनुं रक्षण करवा माटे तेने फरती वाड करवामां आवे छे तेम ब्रह्मचर्यरूपी क्षेत्रने सुरक्षित राखवा माटे शास्त्रकारोए * नव वाड उपदेशी छे. तेनुं जो यथार्थ पालन करवामां आवे तो व्रतशिरोमणि ब्रह्मचर्यथी कदी पण पतित न थवाय. श्लेष्ममां पडी गयेल मक्षिका जेम पोतानी जातने मुक्त करी शकती नथी तेम साध्वीमां अनुरागी बनेल साधु परतंत्र बनी जाय छे. नवकल्पी विहार के दोष रहित आहारनी गवेषणा करी शकतो नथी तेमज मोक्षमार्ग पण साधी शकतो नथी. मोक्षमार्गना पथिके तो सदैव साध्वी-संगने वर्ज्य ज गणवो. आ संबंधमां कोई कहेशे के साध्वी - बंधनरूप छे तो पछी तेने दीक्षा ज न देवी, तेने बधो आचारविचार शीखवो छो, अध्ययन अर्थे साधु पासे आवे, साधु तेनी सार-संभाळ लेवा माटे वसतिस्थानमां जाय इत्यादिक कारणोमां साध्वी-संसर्ग करवो पडे छे तो तेमां शो लाभ समजवो ? तेनो जवाब ए छे के-विधिपूर्वक साध्वी ओने राखवी. तेनी सारसंभाळ लेवी ते तो अतीव निर्जरानुं कारण छे. कहां छे के 3 साहुस्स नत्थि लोए, अज्जासरिसी हुं बंधणे उवमा । धम्मेण सह ठवतो, न य सरिसो जेण असिलेसो ॥ ७० ॥ [ साधोर्नास्ति लोके, आर्यासदृशी हु बन्धने उपमा । धर्मेण सह स्थापयतो, न च सदृशो जानीह्यश्लेषः ॥ ७० ॥] गाथार्थ-आ जगतमां साध्वीने अविधिए अनुसरनार साधुने तेना समान बीजुं बंधन नथी अने साध्वीने धर्ममार्गमां स्थापन करनारने एना समान बीजी कोई निर्जरा नथी. विवेचन - सर्व सावद्यनुं प्रत्याख्यान करी सर्वविरति स्वीकारनार साधुने आ जगतमा कोई पण वस्तु बंधनकारक नथी; फक्त एक साध्वी ज बंधनकर्ता छे. जो तेने न अनुसरे अने धर्ममां स्थिर करे तो साधुने अतीव निर्जरानुं कारण थाय. श्रीनिशीथसूत्रना पंदरमा उद्देशाना भाष्य तथा चूर्णिमां कह्यं छे के- “पुच्छ सहुभीअपरिसो, चउभंगे पढमगे अणुण्णातो । सेसतिगे नाणुण्णा, गुरुगा परियट्टणे जं च ॥ १ ॥” शिष्य पूछे छे के-हे गुरो ! साधु तथा साध्वीना वर्गने भिन्न भिन्न क्षेत्रम राखवानुं आगममां फरमाव्युं छे के जेथी दोष न लागे परन्तु साध्वीओ करीए ज नहीं तो दोषोद्भव क्याथी थाय ? वळी आगममां श्राविकाने दीक्षा देवानो निषेध कर्यो नथी तो पछी तेओने संभाळवी * शीलव्रतनी नव वाडो आ प्रमाणे जाणावी. १ स्त्री, पशु अने नपुंसक रहित स्थानमा रहेवुं २. स्त्रीनी साथै सरागपणे कथा करवी नहीं, ३. स्त्री बेठी होय ते आसने पुरुष बे घडी पर्यंत बेसे नही तेमज पुरुष बेठो होय ते आसने स्त्री त्रण प्रहोर पर्यंत बेसे नहीं, ४. सरागपणे स्त्रीना अंगोपांग जोवा नहीं, ५. ज्यां स्त्री-पुरुष सूता होय तथा कामक्रीडा विषे वातो करता होय त्यांत प्रमुख आंतरे रहेवुं नहीं, ६. पूर्वे स्वस्त्री साथे भोगवेला कामभोग संभारे नहीं, ७. विकार जागे तेवो सरस-स्निग्ध आहार करे नहीं, ८. नीरस अधिक आहार ले नहीं तेमज, ९. शरीरनी टापटीप - विभूषा पण न करे. श्रीगच्छाचार - पयन्ना — १८५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कई रीते ? आचार्य तेनो जवाब आपतां कहे छे के जुदा जुदा क्षेत्रमां ज राखवा एवो नियम नथी. दीक्षा लीधा बाद विधिपूर्वक प्रवर्तन करे तो महानिर्जरानो लाभ ज छे, जो अविधिए प्रवर्तावे तो महामोहनीय कर्म बंधाय अने संसारमां चिरकाळ पर्यंन्त भमे. केवो साधु संभाळ राखी शके ? साध्वीना पालननी विधि कई छे ? ते संबंधी हुं तेने संक्षिप्तमां समजावुं छु. सहू भीयपरिसो-ना चार भांगा थाय छे. १ सहू भीयपरिसो, २ सहू अभीयपरिसो, ३ असहू भीयपरिसो अने ४ असहू अभीयपरिसो. प्रथम भंगनो परमार्थ ए छे के- धैर्यवंत, बळवंत, जितेन्द्रिय, संग्रहशील (वस्त्र, पात्रादिकनो संग्रह करवामां समर्थ), स्थिरचित्त, अल्पाहारी, उपधिक्षेत्रना गवेषक होय ते सहु कहेवाय; तेमज जेनाथी सर्व साध्वीओ भय पामे, डरने अंगे कई पण अकृत्य न करी शके, तेनी मुखप्रतिभाथी धूजती रहे तेने भीयपरिसो कहेवाय. आवां साधुना कब्जामां साध्वीओ रही शके, बाकीना त्रण भांगावाळा साधुओ साध्वीओनुं यथार्थ पालन करी शके नहीं. जो तेओ तेने राखे तो चारमासी गुरु प्रायश्चित्त आवे. बीजा भांगावाळा साधु पोते धैर्यवंत विगेरे गुणवाळा छे परन्तु साध्वीओने अंकुशमां राखी शके नहीं, त्रीजा भांगावाळा पोते ज समर्थ नथी-शुद्ध चारित्रपात्र नथी तो साध्वीओने कई रीते अंकुशमां राखी शके ? अने चोथा भांगावाळा साधु तो समर्थ नथी तेम भय पण उपजावी शके तेम नथी एटले प्रथम भांग सिवायना छेल्ला त्रणे भांगावाळा शाधुओ साध्वीनी सारसंभाळ राखी शके नहीं. पहेला भांगावाळा साधुए यावज्जीव साध्वीओने राखवी जोईए; जो न राखी शके तो शके तो चारमासी गुरु दंड आवे. पहेला प्रकारना साधुए साध्वीने दीक्षा आप्या बाद जो तेनी इच्छा जिनकल्पीपणुं स्वीकारवानी थाय तो अन्य गच्छमां तेवा साधुनी निश्रामां साध्वीने सोप्या पछी ज ग्रहण करी शके एवो कोई योग्य साधु न होय तो शास्त्रकार जिनकल्पीपणुं स्वीकारवानो निषेध करे छे. जिनकल्पीपणामां जे निर्जरा थाय तेना करतां अधिक निर्जरा साध्वीओना संरक्षणथी थाय छे. कह्यं छे के- “जिणकप्पट्ठिअस्स जा निज्जरा तओ विधीए संजती अणुपालेंतस्स विउलतरा णिज्जरा भवति ॥” हवे प्रंसगोपात्त श्रीनिशीथसूत्रना आठमा उद्देशाना भाष्य तथा चूर्णिमां जणावेल साधु साथेना साध्वीविहारने लगतुं वर्णन करवामां आवे छे. एक क्षेत्रमांथी बीजा क्षेत्रमां साध्वीओने लई जवी होय अने मार्गमां भय के उपद्रव थवानी शंका न रहेती होय तो साधु पहेला ते क्षेत्रमां जाय अथवा तो अमुक अमुक आंतरे मुकाम करे. मार्गमां भय होय तो साधु आगळ अने पाछळ एम सर्व प्रकारे विचरे. साध्वीना संसारी पक्षना कोई संबंधीए दीक्षा लीधी होय तो तेने साथे राखीने आचार्य बीजा • बेण साधुओ साथे विचरे. वळी विघ्ननो भय होय तो सार्थनो आश्रय ले. सहस्त्रयोधी सुभटे दीक्षा लीधेल होय तो तेने साथे लईने जाय. कोईक आचार्य आ संबंधमां एम पण कहे छे के साध्वीओ आगळ जाय ते सारुं, कारण के लघुशंकादिनुं निवारण करवामां हरकत न आवे. आ तो सामान्य विहारनी वात थई; विशेष वृत्तांत तो बृहत्कल्पनी टीकाना पहेला खंडना प्रांतभागद्वारा जाणवी. श्रीस्थानांगसूत्रना पांचमा स्थानकमां कह्यं छे के पांच कारणे साधु-साध्वी एकठा रहे तो पण जिनाज्ञानुं उल्लंघन थाय नहीं - १. कोई महाअटवीमां साधु-साध्वी साथे रहे, बेसे, सूवे तथा नैषेधिकी श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १८६ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे, २. कोई गाममां, नगरमां अगर तो राजधानीमां जतां चातुर्मासमां साधुओने रहेवा वसतिस्थान मल्यु होय अने साध्वीओने न मळ्युं होय तो साथे रही शके अथवा साध्वीओने रहेवा उपाश्रय मल्यो होय अने साधुओने न मल्यो होय तो साथे रहे, बेसे, नैषेधिकी इत्यादि करे, ३. वर्षाद आवतो होय अने बीजी जग्या न मळी शकती होय तो साधु-साध्वी नागकुमार तथा सुवर्णकुमारना मंदिरमां एकत्र रही शके, ४. साध्वीओना वस्त्रो चोराई जवानो भय रहेतो होय तो साधु-साध्वी एकठा रही शके, ५. साध्वीओने युवान तथा रूपवती देखी कोई कामी पुरुष तेनी साथे मैथुन सेवननी अभिलाषा करे तो बन्ने एकत्र रही शके. आ पांच कारणो महामुनिओने सेववा घटे. सांप्रतकाळे तो भेगा रहेवं महामोहर्नु कारण छे तेथी ते प्रणालिकानो सर्वथा निषेध करवामां आव्यो छे. जिनकल्पी मुनि(जे वस्त्ररहित होय छे ते) पांच प्रसंगोमां वस्त्र सहित साध्वीओनी साथे रही शके-तेमां जिनाज्ञानो भंग थतो नथी. ते कारणो आ प्रमाणे-१. कोई साध्वी, चित्तभ्रम थई गयुं होय, २. कामातुर होय, ३. भूतादिकनो प्रवेश थयेल होय, ४. उन्मादी बनी गई होय अने ५. कोई साध्वीने दीक्षा आपी होय अने बीजी साध्वीओ ते स्थळे न होय. आ कारणोमां जो किंचित्मात्र दूषण लगाडे तो महादंडनो भाजन थाय. उपर्युक्त वृत्तांतना अनुसंधानमां ज कहे छे के वायामित्तेण वि जत्थ, भट्ठचरिअस्स निग्गहं विहिणा। बहुलद्धिजुअस्सावी, कीरइ गुरुणा तयं गच्छम् ॥७१ ।। [वाड्मात्रेणापि यत्र, भ्रष्टचरितस्य निग्रहो विधिना । बहुलब्धियुतस्यापि, क्रियते गुरुणा सको गच्छ: ।।७१ ॥] गाथार्थ-वचनमात्रथी पण चारित्रभ्रष्ट थयेल मुनि कदाच घणी जलब्धिवाळो होय तो पण ज्यां विधिपूर्वक तेनो निग्रह कराय छे तेने ज खरेखर सदाचारी गच्छ कहेवाय. विवेचन- शास्त्रकार कहे छे के-शिष्य गमे तेवो शक्तिशाळी या तो लब्धिधारी होय परन्तु जो ते व्रतमां दूषण लगाडे तो तेना प्रत्ये अंशमात्र स्नेह राख्या सिवाय तरत ज तेनो त्याग करवो अथवा उचित दंड (शिक्षा) करवो. आ संबंधमां एक क्षुल्लक साधुनुं दृष्टांत जाणवा जेवू छे. वसंतपुरमां देवप्रिय नामनो श्रेष्ठी हतो. तेनी स्त्री युवावस्थामां ज मृत्यु पामी. एवामां त्यां एक मुनिराज पधार्या. तेनी देशना सांभळतां तेने वैराग्य उपज्यो एटले श्रेष्ठिये पोताना आठ वर्षना पुत्र साथे दीक्षा लीधी. संयम-पालन करतां थोडा दिवसो पसार थया तेवामां बाल (क्षल्लक) साधए पिताने का के-पिताजी ! हुं पगरखां पहेर्या विना चाली शकतो नथी, मारा पगमां पीडा थाय छे. त्यारे पिताए का के-ठीक, तुं पगमां पगरखां पहेर. थोडा दिवस बाद पुत्रे का के-हुं ताप सहन करी शकतो नथी. पिताए कह्य-छत्र धारण कर. पुत्रे पुन: कां-हुं गोचरी लेवा जई शकतो नथी. पिताए गोचरी लावी आपवी शरू करी क्षुल्लेके वळी का-हुं भूमिशयन करी शकतो नथी. पिताए सूवा माटे पाटियुं लावी आप्यु, पुत्रे पार्छ का-हुं लोच करावी शकतो नथी. पिताए तेनुं मुंडन कराव्यु पछी तो ते सचित्त जळथी स्नान करवा लाग्यो. मलिन वस्त्रो धोवराववा लाग्यो. आ प्रमाणे श्रीगच्छाचार--पयन्ना– १८७ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाली रह्यं हतुं वामां तेणे एक दिवसे तेना पिताने कह्यं के हुं स्त्री विना रही शकतो नथी, मने परणावो. पिताए जाण्युं के आ अयोग्य छे. तेने हवे राखँवो उचित नथी, एम विचारी तेने काढी मूक्यो. ते पण चारित्र विराधी, मृत्यु पामी पाडो थयो. देवप्रिय श्रेष्ठी चारित्र पाळी, स्वर्गलोकमा गयो. अवधिज्ञानथी पोताना पुत्रनी स्थिति जोतां तेने प्रतिबोधवा तेणे सार्थवाहनं रूप लीधुं अने पाडाने खरीदी लई तेना पर अत्यंत भार भरवा लाग्यो. अतिशय भारथी पाडानी गति मंद पड़ी गई, तेने कष्ट थवा लाग्यं ते समये सार्थवाह 'हे पिता ! हुं उघाडे पगे चालवा समर्थ नथी, हुं गोचरी लेवा जई शकीश नहीं, हुं केशलुंचन करावी शकीश नहीं' विगेरे क्षुल्लकना भवना शब्दो वारंवार तेने संभळाववा लाग्यो, जे सांभळतां ज पाडाने जातिस्मरणज्ञान थयुं पछी ते पाड़ो पश्चात्ताप करी, अणशण स्वीकारी देव श्नयो. दृष्टांतनो परमार्थ ए छे के पिताए पुत्रमोह न करतां जेम तेनो त्याग कर्यो तेम शक्तिधारी, लब्धिधारी शिष्यनो मोह न करतां तेवा समर्थ शिष्यने पण प्रायश्चित्त आप . अहीं प्रसंगथी लब्धिओनुं वर्णन करतां कहे छे के आमोसही १ विप्पोसहि २, खेलोसहि ३ जल्लओसहि ४ चेव । सव्वोसहिसंभित्रे ५-६, ओही ७ रिउ ८ विउलमइलद्धी ९ ॥१ ॥ चारण १० आसीविस ११ केवली अ १२, गणधारिणो अ १३ पुव्वधरा १४ । अरिहंत १५ चक्कवट्टी १६, बलदेवा १७ वासुदेवा १८ य ॥ २ ॥ खीरमहुसप्पिआसव १९- कोट्ठयबुद्धी २० पयाणुसारी य । २१ । तह बीयबुद्धि २२ तेयग २३ - आहारग २४ सीयलेसा य २५ ॥ ३ ॥ वेडव्विदेहलद्धी २६, अक्खीणमहाणसी २७ पुलागा य २८ । परिणामतववसेणं, एमाई हुन्ति लद्धिओ ॥४ ॥ १. आमर्षौषधिलब्धि-मुनिना हाथ, पग विगेरे अवयवना स्पर्शथी रोगीना सर्व व्याधिओ नाश पामे. आ लब्धिधारी मुनिनो स्पर्श ज औषधि जेवो होय छे. २. विप्रुडौषधिलब्धि- मळ-मूत्रना स्पर्शथी अथवा व्याधिना स्थाने लगाडवाथी सर्व व्याधिओ नाश पामे. ३. खेलौषधिलब्धि- श्लेष्म एटले थूक, बडखा के लींटना स्पर्शथी सर्व रोग नाश पामे. ४. जल्लौषधिलब्धि-कर्णनो, दंतनो, नासिकानो, जिह्वानो तथा शरीरनो मेल ते जल्ल, तेनाथी व्याधियो विनाश पामे. ५. सर्वोषधिलब्धि-केश, रोम नख आदि सर्व शारीरिक पदार्थद्वारा रोगो नाश पामे. लब्धिवंत मुनिना केश, रोम, रुधिर विगेरे पदार्थो सुंगधी होय छे. कलिकालसर्वज्ञ- श्रीमद् हेमचंद्राचार्ये योगशास्त्रना प्रथम प्रकाशनी वृत्तिमां कह्यं छे के-“योगिनां कायसंस्पर्शः, सिञ्चन्निव सुधारसैः क्षिणोति तत्क्षणं सर्व-नामयानामयाविनाम् ॥ १ ॥ योगिनां योगमाहात्म्यात्, पुरीषमपि कल्पते । रोगिणां रोगनाशाय कुमुदामोदशालि च ॥ २ ॥ तथाहि योगमाहात्म्या-द्योगिनां कफबिन्दवः । सनत्कुमारादेवि, जायन्ते सर्वरुच्छिदः || ३ || मलः किल समाम्नातो, द्विविधः सर्वदेहिनाम् । कर्णनेत्रादिजन्यैको, द्वितीयस्तु वपुर्भवः ॥ ४ ॥ योगिनां योगसम्पत्ति-महात्म्याद् द्विविधोऽपिसः । श्रागच्छाचार-पयन्ना- १८८ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरिका परिमलो, रोगहा सर्वरोगिणाम् ||५ ॥ नखाः केशा रदाश्चान्य-दपि योगिशरीरगम् । भजते भेषजीभाव-मिति सर्वौषधिः स्मृता ॥ ६ ॥ तथाहि तीर्थनाथानां योगभृच्चक्रवर्त्तिनाम् । देहास्थिशकलस्तोमः, सर्वस्वर्गेषु पूज्यते ||७ ||” योगीपुरुषनो कायस्पर्श जाणे अमृतथी सिंच्यो होय तेवो होय छे. तेनाथी सर्व प्रकारनी व्याधियो नाश पामे छे. (१) साधुपुरुषना योगना माहात्म्यथी तेमनुं स्थंडिल पण कमळ जेवुं सुगंधी अने व्याधिविनाशक बनी जाय छे. (२) वळी योगप्रभावथी कफना बिंदुमात्रथी * सनत्कुमार चक्रवर्तीनी माफक सर्व रोगो नष्ट थाय छे. (३) सर्वदेहधारीओने मल बे प्रकारनो होय छे-एक कान तथा नेत्रादिकथी उत्पन्न थनारो अने बीजो शरीरथी उत्पन्न थनारो (प्रस्वेद) छतां पण योगीओनो बने प्रकारनो मल, योग- प्रभावथी, कस्तूरी जेवो सुंगधी अने व्याधिविनाशक होय छे. (४-५ ) योगीना नख, केश, दांत अने बीजा पण जे अवयवो छे ते औषधिभावने पामेला होय छे. (६) तेवी ज रीते धर्मचक्रवर्ती तीर्थंकरोना अस्थिओनो समूह एकदा देवसभामा नाटक थई रह्यं हतुं देवोनो राजा इंद्र तथा अन्य देवो ते जोई रह्या हता तेवामां एक अत्यन्त तेजस्वी देव त्यां आव्यो. तेने जोईने बीजा देवो अंजाई गया. थोडी वारे ते देव चाल्यो गयो. तेना गया पछी देवोए इंद्रने पूछयुं- आवो रुपवंत बीजो कोई देव हशे ? इंद्रे कह्यं सनत्कुमार चक्रवर्तीना रुप आगळ आ सौंदर्य शा हिसाबमां छे ? इंद्रकथननी साबिती माटे बे देवो ब्राह्मणनुं रूप लई मर्त्यैलोकमां आव्या. हस्तिनापुर आवी, राजाज्ञा मंगावी तेओ राजमहलमां गया. देवो चक्रवर्तीनुं रूप जोई चकित थई गया अने मस्तक धूजाव्युं. चक्रीए तेमने तेम करवानुं कारण पूछ्युं एटले तेओए कह्यं के विश्वमां तमारुं रूप वखणाय छे ते जोवा माटे अमे आव्या हता. खरेखर तमारा थतां वखाण करतां पण रूप अत्यंत मनोहर छे. चक्रीने आ शब्दो सांभळी अभिमान उद्भव्युं. गर्वना अतिरेकमां ज तेणे तेओने कह्यं - मारुं रूप जोवुं हतुं तो अत्यारे शामाटे आव्या ? स्नान करी, पोशाक पहेरी हुं राज सभामां जईश त्यारे मारुं खरेखरुं रूप जोजो. स्नानादि विधि पूर्ण करी चक्री राजसभामां गया. देवो पण आव्या परन्तु तेमना वदन ऊपर उल्लासने बदले उदासीनता छवाई गई. चक्री पोतानी प्रशंसा सांभळवा इंतेजार बनी रह्यो हतो तेवामां तेओना मुख ऊपर ग्लानि छवाई गयेल जोई तेणे ज सामो प्रश्न कर्यो- अरे ब्राह्मणो ! घडीक पहेला आनन्दमां हता अने हमणां उदास केम थई गया ? ब्राह्मणोए स्पष्ट कह्यं-राजन् ! तमारा देहमां अचानक फेरफार थई गयो छे, तमारुं रूप घणुं ज विकृत थई गयुं जणाय छे. अमने लागे छे के तमाँरा देहमां घणा रोगो उत्पन्न थशे. आ प्रमाणे कहीने देवो चाल्या गया. तेमना गया बाद सनत्कुमारे पोताना देह तरफ दृष्टि फेंकी तो शरीरनी कांति क्षीण थयेली जणाई. देहनी असारता विषे विचार करतां कलाको पसार थई गया. तेमने अविश्वासी देह प्रत्ये खरेखर घृणा उपजी. अने संयम स्वीकारी तेओ चाली निकळ्या. संयम-ग्रहण बाद तेमणे आ देहनो जेटलो लाभ लेवाय तेटलो लेवा मांड्यो छट्ट ऊपर छट्ठ करवा लाग्या अने पारणाना दिवसे पण मात्र चणा ने बकरीना दूधनी छाश लेवा लाग्या. तपश्चर्या ए ज तेमनो जीवन-मंत्र थई पड्यो. उग्र तपथी अने तुच्छ आहारथी तेमना शरीरमां भयंकर सात रोग लागु पड्या. आखा शरीरे खस फूटी निकळी, छतां पण तेमनुं रुंवाडुं य कंप्यं नहीं. तेमणे पूर्ववत् तपश्चर्या चालु ज राखी. आवा दृढ मनोबळथी अने तपश्चर्याथी तेमने अनेक प्रकारनी लब्धिओ प्राप्त थई. हवे पहेलानुं अभिमान ओसरी गयुं हतुं धारे तो तेमना रोगो लब्धिथी दूर करी शकत परन्तु आ निःसार देह प्रत्ये हवे तेमने ममत्वभाव नहोतो रह्यो. एकदा तेओ बेठा हता तेवामां बे वैद्यो आवीने कहेवा लाग्या के- अमे धर्मवैद्यो छीए, कई पण बदलानी आशा वगर मफत दवा करीए छीए, आपना आ भयंकर रोगोनी अमे चिकित्सा करवा मागीए छीए, सनत्कुमारे तेमने स्नेहभावे जवाब आयो भाई शेनी वात करो छो ? शरीरनी के आत्मानी ? शरीरना रोगो तो हुं मटाडी शकुं छु, आत्माना रोगोनो उपचार करी शकता हो तो करो. आम कही तेमणे पोतानी कोही गयेली आंगळी पर मात्र थूक लगाड्यु के तरतज ते आंगळी कनकवर्णी थई गई. वैद्यो तेमनी शक्ति जोई तेमना चरणमां नमी पड्या. तेओए कह्यं के अमे वैद्यना रुपमां देवो छीए, पहेला आपनुं रूप जोवा अमे आवेला आपना जेवा आ जगतमां कोई विरला ज होयँ छे. आ संबंधमां विशेष वृत्तांत जाणवाना इच्छुके त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र भाषांतर पर्व ४ सर्ग ७ मो, पृष्ठ १७६-१९३ पर्यन्त जोवुं. श्रीगच्छाचार - पयन्ना- १८९ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवलोकने विषे पण पूजाय छे. ते अस्थिओ पुण्य-परमाणुना निपजेला होय छे तेथी सर्व देवो तेनी पूजा करे छे अने उपद्रव थये छते तेनुं न्हवणजवळ छांटवाथी विघ्नोप शांति थाय छे. (७) वळी कहे छे के-जेम मेघवृष्टिनुं जळ नदीना जळमां मळवाथी जेम नदीचं पाणी रोग हरनारूं थाय छे तेम सर्व लब्धिधारी मुनिना शरीरने स्पर्शीने आवेला वायुद्वारा पण झेरथी मूर्छा पामेल प्राणी स्वयमेव सचेत थई जाय छे. विषमिश्रित आहार नजर सामे जोवामां आव्यो होय तो ते अन्न पण निर्विष थई जाय छे. वळी कोई पण जातनो विकार होय के वैर होय ते पण तुरत शमी जाय छे. हवे ६. सभ्भिन्नश्रोतस्लब्धि-सांभळवा- कार्य कर्ण, छे छतां कोई पण इंद्रियद्वारा सर्व इन्द्रियोना विषयो जाणवानी शक्ति. का छे के- “सर्वेन्द्रियाणां विषयान्, गृह्णात्येकमपीन्द्रियम्। यत्प्रभावेण सम्भिन्न-श्रोतोलब्धिस्तु सा मता ॥१॥" जे लब्धिना प्रभावथी एक इंद्रियवडे सर्व इंद्रियोना विषयोने ग्रहण करी शके ते संभिन्न श्रोतस् नामनी लब्धि जाणवी. वळी चार योजनमां पडेला चक्रवर्तीना सैन्यना विस्तारमा सर्व स्थळे एक साथे वाजिंत्रो वागतां होय ते सर्वने जुदा जुदा समजवानी शक्ति पण संभिन्नश्रोतस्लब्धि कहेवाय छे. ७. अवधिज्ञानलब्धि-इंद्रियोनी के मननी मदद लीधा विना आत्मा रूपी द्रव्योने आत्मसाक्षात् जाणे अथवा देखे. ८. ऋजुमतिमन: पर्यवज्ञानलब्धि-इन्द्रिय तथा मननी सहाय विना अढी आंगुल न्यून अढी द्वीपमा रहेला संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोना मनोगत भावोने जाणे ते मन:पर्यवज्ञानलब्धि कहेवाय परंतु तेमां जे सामान्यथी अल्प पर्याय जाणे ते ऋजुमतिमन: पर्यवज्ञानलब्धि कहेवाय. अढी आंगुल उत्सेधांगुल समजवा. ९. विपुलमतिमन: पर्यवज्ञानलब्धि-संपूर्ण अढीद्वीपना संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोना मनोगत भावो विशेषपणे जाणे. १०. धारणलब्धि आकाशमां गमन करवानी शक्ति, ते बे प्रकारनी छे-(१) जंघाचारण अने (२) विद्याचारण. वच्चे विसामो लीधा विना ज तेरमा रुचक द्वीप सुधी जई, त्यां शाश्वत चैत्यने वंदना करी, पाछा वळतां एक विसामे आतृमा नंदीश्वर द्वीपे आवी, त्यां शाश्वत चैत्योने वांदी, बीजूं उड्डयन करी स्वस्थाने आवे ते जंघाचारण कहेवाय. प्रथम उड्डयने मानुषोत्तर पर्वते जई, त्यां शाश्वत चैत्योनी वंदना करी, बीजा उड्डयने नंदीश्वरद्वीपे जई त्यां शाश्वत चैत्योने वांदे अने त्यांथी पाछा वळतां एक ज उड्डयने स्वस्थाने आवे. आ प्रमाणे ति गति संबंधी जाणवू. ऊर्ध्वगतिमां जंघाचारण मुनि एक ज उड्डयनवडे मेरुपर्वतना शिखर पर रहेल पांडुकवन सुधी जई, शाश्वत चैत्योने वंदना करी, पाछा वळतां एक उड्डयनथी नंदन वनमां आवी, त्यां शाश्वत चैत्योने वांदी बीजे उड्डयने स्वस्थाने आवे. विद्याचरण तो प्रथम उड्डयने भूमिथी ५०० योजन पर आवेला मेरुपर्वतना नंदनवनमां जई, त्यां शाश्वत चैत्योने वांदी, बीजा उड्डयनवडे मेरुना शिखर पर एटले नंदनवनथी ९८५०० योजन ऊपर रहेला पांडुकवनमां आवी, शाश्वत चैत्योने वांदी, पाछा उतरतां एक ज उड्डयनथी स्वस्थाने आवे. जंघाचारण मुनिनी गति जतीं वखते विशेष होय छे अने पाछा वळतां ओछी होय छे तेनुं कारण ए छे के जंघाबळ प्रथम वधारे प्रमाणमां होय छे अने पछी थाक लागे तेथी घटी जाय छे. विद्याचारणोने प्रथम विद्याभ्यास अल्प होय छे अने पछी जेम जेम विशेष श्रीगच्छाचार–पयन्ना– १९० Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाप करवामां आवे तेम तेम विद्या विशेष अभ्यस्त (ताजी) थवाथी गति वधे छे एटले प्रथम गति विसामावाळी होय छे अने स्वस्थानक तरत पाछा वळतां बीजी गति विसामारहित होय छे. वळी पद्मासनथी के कायोत्सर्गासनथी शरीरने हलाव्या विना आकाशमा उडवानी शक्तिवाळा व्योमचारण कहेवाय छे. आ उपरांत बीजा पण घणा भेदो छे. कां छे के- जल १ जा २ फल ३ पुष्प ४ पत्र ५ श्रेण्य ६ ग्निशिखा ७ धूम ८ नीहारा ९ वश्याय १० मेघ ११ वारिधारा १२ मर्कटकतन्तु १३ ज्योतीरश्मि १४ पवनाद्यलम्बनगतिपरिणामकुशलाः १५ । (१)जळचारण-वाव, नदी, सरोवर अने समुद्र विगेरे जळाशयोमां अप्कायनी विराधना कर्या विना जेम भूमि ऊपर पग उपाडीने मूकीने चाले तेम जळमां (जळनी सपाटी ऊपर) पग उपाडीने चाले. (२) जंघाचारण-भूमि ऊपर चार आंगळ ऊंचा रहीने चालवानी शक्ति. (३) फळचारण-अनेक प्रकारनां वृक्षो ऊपर रहेलां फळोने अवलम्बीने चालवा छतां फळना जीवने अंशमात्र बाधा न पहोंचे. (४) पुष्पचारण-अनेक वृक्षादिकनां फूलो ऊपर पग मूकीने चालवा छतां पुष्पना जीवने कंई पण पीडा न थाय. (५) पत्रचारण-पत्रो (पांदडा) ऊपर पग मूकीने चालवा छतां कष्ट न थाय. (६) श्रेणिचारण-चार सो योजन ऊंचा निषध अने नीलवंत पर्वतनी टंकछिन्न श्रेणिओना अवलंबनवडे (विषम टेकरीओ अने महाशिलाओने अवलंबीने) पग मूकीने चढे तेमज उतरे. (७) शिखाचारण अग्निनी ज्वाला पर पग मूकीने आकाशमां गमन करे तो पण अग्निकायना जीवने परिताप न थाय तेमज मुनिने दाह पण न थाय.(८) धूमचारण-धूमाडो ऊंचो जाय, तिच्छ• जाय तो पण तेने अवलंबीने आकाशमां अस्खलित गति करी शके. (९) नीहारचारण-धूमस के जे जळगें रूपान्तर छे तेने अवलंबीने अप्कायना जीवने किलामणा कर्या सिवाय विचरी शके. (१०) अवश्यायचारण-झाकळना पाणीने अवलंबीने दुःख उपजाव्या सिवाय आकाशमां विचरी शके. (११) मेघचारण-आकाशमां चढी आवेला पाणीवाळा वादळाना अप्कायना जीवोने कष्ट उपजाव्या सिवाय आकाशमां विचरी शके. (१२) वारिधाराचारण-वरसाद वरसतो होय त्यारे पण जळवृष्टिना अपकायना जीवने उपद्रव कर्या सिवाय विचरी शके. (१३) मर्कटतंतुचारण-वांका-तेडा वृक्षोना आंतराओमां करोळिया जे जाळ गूंथे छे ते जाळ ऊपर पग मूकीने चालवा छतां तेनो एक तांतणो पण तूटे नहि-तेवी रीते आकाशमां गमन करी शके (१४) ज्योतिरश्मिचारण-चंद्र, सूर्य, ग्रह नक्षत्र अने तारा विगेरेना किरणोनुं अवलंबन लई आकाशमां विचरी शके. श्रीगौतमस्वामी आ लब्धिप्रभावथी अष्टापद पर्वत ऊपर चढ्या हता ते प्रसिद्ध ज छे.(१५) वायुचारण-वायु ऊर्ध्व वातो होय, तिच्छों वातो होय, उत्कृट गतिए वातो होय, सीधी गतिए वातो होय के कोई पण दिशामां वातो होय ते दिशानी वायुश्रेणिने अवलम्बीने वायुकाय जीवनी विराधना कर्या विना विचरी शके. श्रीसमवायांग सूत्रमा का छे के-चारण मुनिओ कंईक अधिक सत्तर हजार योजन ऊर्ध्व गति करीने पछी तिर्छा गति कर. का छे के-“इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ साइरेगाइं सत्तरसजोअणसहस्साइंउड्ढं उप्पइत्ता तओ पच्छाचारणाणं तिरियगती पवत्तति त्ति० १० ११ आशीविषलब्धि मुनिना दांत-दाढोमां झेरना जेवी शक्ति उत्पन्न थाय छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१९१ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यने शिक्षा करवा माटे दांतथी करडतां ते मृत्यु पामे छे. १२ केवलज्ञानलब्धि इन्द्रियो अने मननी सहाय विना लोक अने अलोकना सर्व पदार्थोना वर्तेला, वर्तता अने वर्तनारा सर्व भावने जाणे. १३ गणधरलब्धि-गणधरपणुं प्राप्त थाय. १४ पूर्वधरलब्धि- चौदपूर्वरूप श्रुतज्ञान प्राप्त थाय. १५ तीर्थंकरलब्धि तीर्थंकरपदनी प्राप्ति थाय. १६ चक्रवर्तिलब्धि चक्रवर्तीपणुं प्राप्त थाय. छ खंड राज्य, चौद रत्नो, नवनिधि विगेरेनी प्राप्ति थाय. १७ बळदेवलब्धि- बळदेवपणुं प्राप्त थाय. १८ वासुदेवलब्धि वासुदेवपणुं प्राप्त थाय. चक्र वगेरे सात रत्नो तथा त्रण खण्ड भूमिनी प्राप्ति थाय. १९ क्षीराश्रवादिलब्धि- आलब्धि त्रण प्रकारनी छे. (१) क्षीराश्रव, (२) मध्वाश्रव अने (३) घृताश्रव शेरडीनो चारो चरनारी एक लाख गायोने दोहीने तेनुं दूध पचास हजार गायोने पाय, तेने पाछी दोहीने तेनुं दूध पशीच हजार गायोने पाय, तेनुं दूध पार्छ साडाबार हजार गायोने पाय. एम अर्थो अर्धा क्रम करतां छेवट एक गायने पाय अने तेने दोवाथी जे दूध प्राप्त तेनी मिठाश अजोड होय छे. आ लब्धिना प्रभावथी मुनिजननुं आq मिष्ट वचन थाय छे एटले श्रोता जो शारीरिक के मानसिक दुःख भोगवतो होय तो ते शीघ्र दूर थई जाय छे अने मिष्टान्न जम्या होय तेवो आनंद उद्भवे छे. एवी ज रीते मधु जेवा मिष्ट वचन जणाय ते मध्वाश्रव अने ऊपर जणावेल गायनी संख्याना क्रमे छेवट एक गायना दूधनुं घी जेम मिष्ट अने वीर्यवान् थाय छे तेम श्रोताजन पण शक्तिमान् अने सन्तुष्ट थाय छे. उपलक्षणथी इक्ष्वाश्रव अने अमृताश्रव नामनी लब्धिओ पण छे जेथी शेरडी अने अमृत जेवा मधुर वचन लागे. वळी मुनिना पात्रमा पडेलो तुच्छ आहार पण दूध विगेरेनी जेवो मिष्ट बनी जाय ते पण क्षीराश्रवादि लब्धिओ कहेवाय छे. २० कोष्टबुद्धिलब्धि धान्य भरवाना मोटा कोठारमा नाखेलुं अनाज जेम वर्षो सुधी विनाश पामतुं नथी अने तेनी ते ज स्थितिमा रहे छे तेम मुनिए शीखेला सूत्रार्थो वर्षो पर्यन्त स्थिर रहे-भुलाय ज नहीं. २१ पदानुसारिणी लब्धि-तेना त्रण प्रकार छे- (१) ग्रन्थनी शरूआतनुं पद सांभळीने संपूर्ण ग्रन्थनो बोध थाय ते अनुश्रोतपदानुसारिणी, (२) छेल्ला पदने सांभळवाथी संपूर्ण ग्रन्थनो बोध थाय ते प्रतिश्रोतपदानुसारिणी अने (३) मध्य पदने सांभळवाथी संपूर्ण ग्रंन्थनो बोध थाय ते उभयपदानुसारिणी. २२ बीजबुद्धिलब्धि- जेम सारा क्षेत्रमा वावेल बीज अनेक बीज प्रगटावे तेम बीजभूत एवा एक ज अर्थपदने सांभळीने बीजं सर्व श्रुत यथार्थ जाणी शके. कोई कहेशे के तो पछी पदानुसारी लब्धि अने आ लब्धिमा तफावत शो? तेनो जवाब ए छे के-पदानुसारीमां तो एक पद जाणवाथी बीजा पद जाणी शकाय ज्यारे बीजबुद्धिधारी तो एक पदार्थने जाणवाथी अनेक पदार्थोनो ज्ञाता थाय. आ बीजबुद्धि लब्धि गणधर भगवंतोने होय छे एटले तीर्थंकर भगवंतना मुखथी “उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा” ए त्रिपदी सांभळीने द्वादशांगीनी रचना करी शके छे. २३ तेजोलेश्यालब्धि अत्यन्त क्रोधने लीधे अनेक योजन प्रमाण क्षेत्रमा रहेल पोताना शत्रु विगेरे पदार्थोने दग्ध करी शके. अग्नि जेवा उष्ण पुद्गलोने फेंकवानी शक्ति ते तेजोलेश्या. जे साधु छट्ठने पारणे छट्ठ करे अने पारणाने दिवसे पण एक मुठी अडदना बाकळा खाय अने एक चुलुक मात्र पाणी पीए-आथी विशेष खाय-पीवे नहीं-आ प्रमाणे छ महिना पर्यंत तपश्चर्या करे त्यारे तेजोलेश्या लब्धि प्राप्त थाय छे. २४ आहारकलब्धि-चौद पूर्वधर श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१९२ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्रुतशंका टाळवाने अर्थे अथवा जिनेश्वरनी समवसरणादि ऋद्धि जोवाने माटे पोताना शरीरमांथी एक हाथ प्रमाण शरीर विकुर्वी शके. कार्य समाप्ति थये आ देहवें विसर्जन करे. एक भवमां बे वखत आ प्रमाणे थाय अने जो त्रीजी वार करे तो अवश्य मोक्षे जाय. २५ शीतलेश्यालब्धि- तेजोलेश्याथी बळता जीव प्रत्ये करुणा उत्पन्न थये छते आ लेश्या मूकवाथी बळता जीवो अगर तो पदार्थो जळना सिंचननी माफक शांति प्राप्त करे छे. २६ वैक्रियलब्धिविविध प्रकारनी क्रियाओ करवानी शक्तिवाळं वैक्रिय शरीर विकुर्वी शकाय. आ लब्धि अनेक प्रकारनी शक्तिवाळी छे. (१) अणुत्व-अत्यन्त सूक्ष्म शरीर बनावी, कमळनी नाळना छिद्रमां पण दाखल थई त्यां चक्रवर्तीना जेवा भोगो भोगवी शकाय.(२) महत्त्वमेरुपर्वत जे एक लाख योजन ऊंचो छे तेना करतां पण मोटुं शरीर बनावी शकाय. (३) लघुत्व-वायु करतां पण लघु एटले हलकुं शरीर बनावी शकाय. (४) गुरुत्व-वज्र करतां पण अत्यंत भारे शरीर बनावी शकाय के जेने इन्द्रादि देवो पण पोताना उत्कृष्ट बळथी उपाडी शके नहीं. (५) प्राप्तिभूमि ऊपर रहीने पोतानी हस्त एटलो बधो लंबावे के मेरुपर्वत ऊपरना शिखरने स्पर्शी शके. (६) प्राकाम्य-जळमां भूमि पर चालवानी माफक चाले तेमज भूमि पर डुबकी मारवानी माफक डुबकी मारता चाली शके. (७) ईशित्व तीर्थंकर, इन्द्र अने चक्रवर्त्यादिकनी ऋद्धि विकुर्वी शके. (८) वशित्व-सर्व जीवोने पोताने आधीन करी शके. (९) अप्रतिघातित्व-खुल्ला मार्गमां जेम अस्खलित गतिए गमन करी शकाय, तेम वच्चे पर्वतादि विघ्नो आववा छतां पण अस्खलित गमन करी शके. (१०) अन्तर्धानत्व-अदृश्य थई जाय के जेथी कोई पण जोई शके नहीं. (११) कामरूपित्व-एक साथे अनेक प्रकारना विविध रुपो बनावी शके. आ प्रमाणे वैक्रियलब्धि अनेक प्रकारनी समजवी. २७ अक्षीणलब्धि कोई पण पदार्थ खूटे नहीं. तेना बे प्रकार छे. (१) अक्षीणमहानसी-पोताना पात्रमा अल्प आहार होय तो पण आ लब्धिना प्रभावथी अनेक जणाने जमाडे तो पण खूटे नहीं परन्तु छेवटे ज्यारे पोते ज आहार करे त्यारे ज खूटे. श्रीगौतमस्वामीए अष्टापदथी नीचे उतरतां १५०३ तापसोने आ ज लब्धिना प्रभावथी पारणुं कराव्यु हतुं. (२) अक्षीणमहालय परिमित भूमिमां पण असंख्य देवो, तिर्यंचो अने मनुष्यो पोतपोताना परिवार सहित एकबीजाने पीडा उपजाव्या सिवाय सुखपूर्वक बेसी शके. जेमके श्रीतीर्थंकरादिकना समवसरणमां असंख्य देवादिक समाई शके छे. २८ पुलाकलब्धि चक्रवर्तीना सैन्यने पण चूर्ण करी नाखे. आ प्रमाणे अट्ठावीश लब्धिओनुं स्वरूप जाणवू बीजी पण मनलब्धि, वचनलब्धि, कायलब्धि विगेरे लब्धिओ अतिशय शुभ परिणामथी अने तपना प्रभावथी प्राप्त थाय छे. ज्ञानावरणीय तथा वीर्यान्तराय कर्मना असाधारण क्षयोपशमथी अन्तर्मुहूर्त मात्रमा सर्व श्रुतसमुद्रनुं अवगाहन करवानी शक्ति ते मनोलब्धि. श्रुतज्ञाननी सर्व वस्तुओने अन्तर्मुहूर्त मात्रमा उच्चारवानी जे शक्ति ते वचनलब्धि. आ लब्धिथी चौदपूर्व- परावर्तन (आवृत्ति) थाय छे अथवा पद, वाक्य अने अलंकार युक्त वचनो मोटा स्वरे बोलवा छतां वाणीनी धारा अस्खलित रहे, वचमां एक पण अक्षरादि तूटे नहीं तेमज प्रारंभमां कंठ जेवो होय तेवो अंतपर्यन्त श्रीगच्छाचार-पयन्ना– १९३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्तिवाळो रहे-हीन न थाय. वीर्यान्तरायना असाधारण क्षयोपशमथी बाहुबलिनी माफक वर्ष सुधी कार्योत्सर्गध्यानमां निश्चळ ऊभा रहे अथवा बेठा होय तो पण परिश्रम न लागे तेवी शक्ति कायलब्धि कहेवाय. श्रुतज्ञानावरण अने वीर्यान्तराय कर्मना उत्कृष्ट क्षयोपशमथी प्रगटेला असाधारण महाबुद्धिने अंगे मुनि द्वादशांगी के चौद पूर्व न भण्या होय तो पण चौदपूर्वधरनी माफक दुर्गम भावार्थो जाणी शके ते प्राज्ञश्रमण कहेवाय. अन्य विशेष भणेल होय अने पोते अल्प भणेल होय तो पण विद्यावेगने कारणे बीजाना वशमां न आवे ते विद्याधरश्रमण कहेवाय. ऊपर जणावेल अठ्ठावीश लब्धिओ पैकी केटली केटली लब्धि कोने होय ते जणावतां कहे छे के-भव्य पुरुषने अठ्ठावीश लब्धिओ होय. भव्य स्त्रीने (१) तीर्थंकर (२) चक्रवर्ती, (३) वासुदेव, (४) बळदेव, (५) संभिन्नश्रोतस्, (६) चारण, (७) पूर्वधर, (८) गणधर, (९) पुलाक अने, (१०) आहारक शरीरलब्धि- प्रमाणे दश लब्धिओ न होय, एटले अढार लब्धि होय छे. अनंतकाळे कोई कोई वखत अच्छेरारूपे स्त्री तीर्थंकर थाय छे, जेम के चालु चोवीशीना ओगणीशमा जिनेश्वर मल्लिनाथ, परन्तु तेने आश्चर्यमां गणवाथी स्त्रीने तीर्थंकरलब्धि न होय तेम दर्शाव्युं छे. अभव्य पुरुषने १५ लब्धि ज होय छे. ऊपर जणावेल दश लब्धिओ उपरांत (११) केवळी, (१२) ऋजुमतिमन: पर्यवज्ञान अने (१३) विपुलमतिमन: पर्यवज्ञान ए तेर लब्धि सिवायनी पंदर होय. अभव्य स्त्रीने १४ चौद लब्धिओ होती नथी अने चौद होय छे. ऊपर कहेल तेर लब्धिओ उपरांत (१४) मधुक्षीराश्रवलब्धि पण होती नथी. लब्धिओनुं विशेष स्वरूप प्रवचनसारोद्धार तेमज योगशास्त्रनी टीकामांथी जाणवुं. आव लब्धिवाळो शिष्य पण जो चारित्रमां दोष लगाडे तो तेने आचार्य दंड आपे. हजी पण शिक्षाप्रदान अने सद्गुणवर्णनवडे गच्छनुं स्वरूप कहे छे. जत्थ य संनिहिउक्खड - आहडमाईण नामगहणे वि । पूईकम्मा भीता, आउत्ता कप्पतिप्पे ॥ ७२ ॥ मउ निहुअसहावे, हासदवविवज्जिए विगहमुक्के | असमंजसमकरंते, गोअरभूमट्ठ विहरन्ति ॥ ७३ ॥ ari नाणाभिग्गह-दुक्करपच्छित्तमणुचरंताण । जायइ चित्तचमक्कं, देविंदाणं वि तं गच्छम् ॥ ७४ ॥ [ यत्र च संनिध्युपस्कृत- आहृतादीनां नामग्रहणेऽपि । पूतिकर्मणः भीता, आयुक्ताः कल्पत्रेपयोः ॥ ७२ ॥ मृदुका निभृतस्वभावा, हास्यद्रवविवर्जिता विकथामुक्ताः । असमञ्जसमकुर्वन्तः, गोचरभूम्यर्थं (गोचरभूम्यष्टकं विहरन्ति ॥ मुनीनां नानाभिग्रह- दुष्करप्रायश्चित्तमनुचरन्तानाम् । जायते चित्तचमत्कारो, देवेन्द्राणामपि स गच्छः ॥७४॥] गाथार्थ-जे गच्छमां रात्रिए अशनादि राखवामां तेम ज औद्देशिक, अभ्याहत, पूतिकर्म श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १९४ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगेरे आधाकर्मी उद्गम दोषोनुं नाम लेतां या स्पर्श थई जतां भय उपजतो होय तेम ज कल्प एटले पात्रा ने त्रेपमां-हस्तादिकने साफ करवामां सावधान, विनयवान, निश्चळ स्वभावी, हांसी-मश्करीथी विरमेल, विकथाथी दूर रहेनार, वगरविचार्यु नहीं करनार, गोचरी अर्थे परिभ्रमण करनार, विविध प्रकारना अभिग्रह तथा दुष्कर प्रायश्चित्त आचरनारा मुनिजनो होय छे ते इन्द्रोने पण आश्चर्ययुक्त करे छे. है गौतम! तथाप्रकारनागच्छनेज वास्तविक गच्छ जाणवो. विवेचन-साधु रात्रिए पोता पासे अशनादि राखी मूके ते संनिधि दोष कहेवाय. आ दोषना संबंधमां श्रीनिशीथसूत्रना अगियारमा उद्देशामां का छे के-“जे भिक्खू असणं वा पाणं वाखाइमं वा साइमं दिया पडिगाहेत्ता दिया भुंजइ १, जे भिक्खू असणं वा ४ दिया पडिगाहेत्ता राओ भुंजइ २, जे भिक्खू असणं वा ४ राओ पडिगाहेत्ता दिया भुंजइ ३, भिक्खू असणं वा ४ राओ पडिगाहेत्ता राओ भुजंइ ४। चउसु वि भंगेसु आणादिया य दोसा चउगुरुं च पच्छित्तं तवकालविसेसियं दिज्जति ।।" १ जे साधु-साध्वी अशनादिक चार आहार दिवसे ग्रहण करीने दिवसे खाय, २ दिवसे ग्रहण करीने रात्रे खाय, ३ रात्रे ग्रहण करीने दिवसे खाय अने ४ रात्रे ग्रहण करीने रात्रे खाय-आ चार भांगामा प्रथम भांगो शुद्ध छे अने त्रण रात्रिभोजनना दोषथी दूषित छे. आ प्रमाणे वर्तनारने जिनाज्ञाभंगनो दोष लागे, चारमासी गुरु प्रायश्चित्त लागे. वळी पण कहे छे के-“जे भिक्खू पारियासियं पिप्पलिं वा पिप्पलिचुण्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेरंवा सिंगबेरचुण्णं वा बिलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं आहारेइ आहारन्तं वा साइज्जइ ।।" जे साधु-साध्वी रात्रिए राखेल आखी पीपर के पीपरनुं चूर्ण, आखा तीखा के तीखानुं चूर्ण, सूंठ अथवा सूंठनूं चूर्ण, जे देशमां नमक (मीठु) न होय ते देशमां खारो पकवे छे तेनुं लूण (मीठु) थाय छे ते, समुद्रमा उत्पन्न थनारुं लूण (सिंधव) विगेरे चीजो रात्रे राखीने बीजे दिवसे वापरे अगर तो वापरनारने सारो जाणे ते आज्ञाभंगने पात्र थाय श्रीबृहत्कल्पना पांचमां उद्देशामां पण का छे के दिवसे लावीने रात्रिए राखी मूकेलो आहार अंशमात्र कल्पी शके नहीं. फक्त अपवादरूपे व्याधिग्रस्तने कल्पी शके, परन्तु अन्यने तो सर्वथा निषेध ज जाणवो. नियुक्तिकार आ संबंधमां विशेष अजवाळु पाडतां कहे छ के-अशनादिक रात्रिए राखेला जोईने नूतन शिष्य तथा कोई श्रद्वावान् मिथ्यात्व पामे तेना पापभाजन साधु थाय. वळी उपहासनु कारण थाय. जेमके जुओ आ निष्परिग्रही साधु रात्रिए आहार राखी मूके छे पाणीना घडा भरी राखे छे, घृतादिकनो संग्रह करे छे अने पाछा कहे के अमे तो अपरिग्रही-संचय विनाना छीए.' वळी संयमविराधना तथा आत्मविराधना पण थाय. रात्रे आहार राखी मूकवाथी ओरणिकादि प्राणियोनी उत्पत्ति थाय, रोटली आदिकमा लाळिया जीवो उपजे, ऊंदरो तेना भक्षण माटे आवे, तेने वळी बिलाडी प्रमुख खाई जाय, वळी जळ राखी मूक्युं होय तो तेमां कीडियो डूबी मरी जाय-आ प्रमाणे पापना भागीदार बनवाथी संयमविराधना थाय. वळी रात्रिए आहारमा सर्प तथा ऊंदरो लाळ नाखी जाय-आवो झेरी आहार वापरवाथी आत्मघात पण थाय. आ प्रमाणे संनिधि दोषनो विचार करी तेनो त्याग ज करवो. हवे उद्देशकनुं स्वरूप दर्शावतां कहे छे के-तेना बे भेद छे. (१) ओघउद्देशिक अने (२) विभाग-उद्देशिक. पोताने अर्थे रसोई पकावती वखते कोई आवशे तेने आपवाने माटे कंईक श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१९५ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारनी कल्पना करी राखे ते ओघ-उद्देशिक. बीजा विभाग-उद्देशिकना त्रण मूळभेद अने बार उत्तर भेद छे. (१) उद्दिष्ट, (२) कृत अने(३) कर्म ए त्रण मूळभेद छे. ते दरेकना उद्देश, समुद्देश, आदेश अने समादेशरूप चार-चार भेद छे एटले १ उद्दिष्टोद्देश, २ उद्दिष्टसमुद्देश, ३ उद्दिष्टादेश, ४ उद्दिष्टसमादेश, ५ कृतोद्देश, ६ कृतसमुद्देश, ७ कृताद्देश, ८ कृतसमादेश, ९ कमोद्देश, १० कर्मसमुद्देश, ११ कर्मोदेश अने १२ कर्मसमादेश एम बार भेद थाय. सर्वने उद्देशीने जे अशनादिक कराय ते उद्देश कहेवाय, ते गृहस्थ, भिक्षु अने पाखंडी विगेरेने निमित्ते करायेल. चरक, परिव्राजकादिने निमित्ते करेल अशनादिक समुद्देश कहेवाय. निग्रंथ, शाक्य, तापस, गैरिक, आजीविकोने निमित्ते करेल अशनादिक आदेश कहेवाय अने साधुओने निमित्ते करेल समादेश कहेवाय. हवे बार पेटाभेद वर्णवतां कहे छे के-विवाहादिक सारा प्रसंगे स्नेही संबंधीओ सर्व जमी गया पछी अशनादिक वधे त्यारे गृहस्थ मनमा चिन्तवे के- 'आ सर्व राखीने शुं काम छे? मिक्षु विगरेने आपशुं' आ प्रमाणे विचारीने जो भिक्षुओने माटे राखे तो (१) उद्दिष्टादेशिक, पाखंडीओने माटे राखे तो (२) उद्दिष्ट समुद्देशिक, साधुओने देवा माटे राखे तो (३) उद्दिष्टादेशिक अने निर्ग्रन्थोने माटे राखे तो (४) उद्दिष्टसमादेशिक कहेवाय. आवी जरीते अशनादिक वध्या पछी मोदक विगेरेमां नवो गोळ भेळववो पडे तो भेळवे, घी भेळवे, सेकवू विगेरे क्रिया करे, भातमां दहीं विगेरे नाखे अने पछी पूर्वनी माफक संकल्प करे त्यारे आ भिक्षुओने आपq एम कहे ते (५) कृतोद्देशिक, पाखंडीओने आपवानुं कहे ते (६) कृतसमुद्देशिक, साधुओने माटे कहे ते (७) कृतादेशिक अने निर्ग्रन्थोने अर्थे कहे ते (८) कृतसमादेशिक कहेवाय. आवी ज रीते विवाहादिक शुभ प्रसंगे अशनाद्दिक वध्या पछी ते वधेला लाडु, भात मग विगेरे पदार्थोने अग्नि पर पुन: तपावे, मोदकमां गोळ नाखे, मग वगेरेने पुन: राय-जीरा-मसालाथी वघारे इत्यादि क्रिया करीने पूर्व प्रमाणे संकल्प करे त्यारे भिक्षुओ माटेनो संकल्प ते (९) कर्मोद्देशिक, पाखंडीओने माटेनो (१०) कर्मसमादेशिक, साधुओने माटे (११) कर्मादेशिक अने निर्ग्रन्थोने माटे (१२) कर्मसमादेशिक कहेवाय. ___ अभ्याहृत दोषना बे प्रकार छे- (१) आचीर्ण अने (२) अनाचीर्ण. आचीर्ण अभ्याहृतना त्रण प्रकार छे. जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट. मोटा जमण समये सेंकडो माणस बेठा होय अगर तो मोटुं घर होय अथवा पंक्तिबद्ध त्रण घरो साथे होय तेवा प्रसंगे सो हाथनी अंदरना आंतरामांथी आहार वहोरावे ते उत्कृष्ट आचीर्ण, एक हाथ प्रमाणथी वहोरावे ते जघन्य अने ते बंने वच्चेनुं प्रमाण ते मध्यम आचीर्ण अभ्याहृत जाणवू. आत्रणे प्रकार कल्पी शके कारण के तेमां उपयोग रहेवानो संभव छे. अनाचीर्ण अभ्याहृत तो सो हाथ उपरांत दूरना स्थळेथी आहार आवेल होय तो कल्पे नहीं; कारण के तेमां संयमविराधना अने आत्मविराधना बने थाय छे. कोई गृहस्थ अन्य ग्रामादिकथी अशनादिक आहार लावता थका जळमार्गथी आवे तो अप्कायनी तेमज छक्कायनी विराधना थाय. स्थळमार्गे आवे तो पण छकायनी विराधना थाय, चोर हरण करी जाय, शिकारी पशु खाई जाय, मार्गना परिश्रमथी ज्वरादिक रोगोद्भव थाय, आ प्रमाणे दूषित होवाथी अनाचीर्ण अभ्याहृत आहार कदापि ग्रहण करवो नहीं. हवे पूतिकर्मनुं स्वरूप जणावे छे-आधाकर्मी, उद्देशिकना छेल्ला त्रण भांगा, मिश्रजात, श्रीगच्छाचार–पयन्ना-१९६ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यवपूरक, पृतिबादर अने प्राभृतिक आ बधा अविशुद्ध कोटिना छे. जेम क्षीरमां मूत्रनो छांटो पडी जतां सर्व क्षीर अशुद्ध थई जाय, शुद्ध आहारमा अविशुद्ध आहार- एक बिंदु जो आवी जाय तो सर्व शुद्ध आहार पण अशुद्ध बनी जाय ते पूतिकर्म कहेवाय छे, तेना बे भेद छे(१)सूक्ष्मपूतिकर्म-आधाकर्मी हींग प्रमुख अशनादिकनी गंध, आधाकर्मी अग्निनी ज्वाळा तथा धूमाडो शुद्ध आहारने लागे तो ते सूक्ष्मपूतिकर्म कहेवाय परन्तु ते आचीर्ण छे-साधुने वहोरवा योग्य छे कारण के आ दोषो अशक्यपरिहार छे.(२) बादरपूतिकर्मक-तेना बे प्रकार छे. एक उपकरण-चूलो, कडछी, तावडो, चमचो विगेरे रसोई करवाना साधनो तेमज घंटी, सांबेलुं विगेरे उपकरणो होय तेमाथी प्राप्त थयेल अशनादिक आहार शुद्ध होय तो पण दूषित छे. बीजो भक्तपानपूतिकर्म-आधाकर्मी वघार, हींग, निमक, जीरुं विगेरेथी व्याप्त. आ बन्ने प्रकार साधुओने कल्पे नहीं. हवे कल्पनो अधिकार दर्शावे छे-भोजन कर्या बाद पात्रा साफ करवा ते कल्प. सामान्यपणे सात वखत धोवानो कल्प छे. विशेषथी तो तेना जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट एम त्रण भेद दर्शाव्या छे. (१) भात, रोटली, मग, वाल, गोळ, चणा, तुर विगेरेनो आहार पात्राने विशेष लेप न करे एटले ते जघन्य कल्प. तमां पात्रा त्रण बार धोवा, एक वार अंदर, बीजी वार बहार अने त्रीजी वार अंदर अने बहार (२) मग तथा अडदनी दाळ, कांजी, दही विगेरेनो अल्प लेप लागे ते मध्यम कल्प, तेमां पात्रा पांच वार धोवा. वे वार बहार बे वार अंदर अने एक वार अंदर अने बहार. (३) दूध, दही, क्षीर, घी विगेरेनो विशेष लेप लागे ते उत्कृष्ट कल्प, तेमां पात्रा सात वार धोवा. त्रण वार अन्दर, बे वार बहार अने वे वार अन्दर बहार बधे. प एटले हस्तने मणिबंध (पहोंचा) सुधी जळादिकथी धोवो. स्थंडिल तथा मात्रादिक प्रसंगे हस्त धोवो पडे तेथी श्रीनिशीथसूत्रना चोथा उद्देशामां आ संबंधी वर्णन करतां जणाव्यु छ के- “जे भिक्खू २ साणुप्पाए उच्चारपासवणभूमि ण पडिलेहेइ न पडिलिहंतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू २ तओ उच्चारपासवणभूमिओ ण पडिलेहेइ न पडिलेहंतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू २ खुड्डागंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिठवइ परिठवंतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू २ खुड्डागंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिठवइ परिठवंतं वा साइज्जइ ॥" साधु या साध्वीए दिवसना चोथा भागना चोथा विभाग जेटलो दिवस रहे त्यारे स्थंडिल तथा मात्रानी भूमि प्रमार्जवी. जो ते प्रमाणे न पडिलेहे अने न पडिलेहनारनी अनुमोदना करे तो ते प्रायश्चित्तने पात्र बने छे. जे साधु या साध्वी त्रण उच्चारपासवण भूमि न प्रमाजे तेमज न पडिलेहनारने सारो कहे ते पण दंडने पात्र थाय छे. जे साधु या साध्वी क्षुल्लक स्थंडिलभूमिमां उच्चारपासवण वोसरावे अने वोसरावनारने सारो कहे ते पण प्रायश्चित्तने योग्य गणाय. जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट-एम त्रण प्रकार- स्थंडिलप्रमाण छे. त्रसादिक जीवथी रहित भूमि ते स्थंडिलभूमि. एक हाथ लांबी-पहोळी अने चार आगंळ ऊंडी अचित्त स्थंडिलभूमि जघन्य कहेवाय. आ प्रमाणथी एक आंगळ न्यून भूमिमां स्थंडिल-मातरूं परठवे तो दोषभाजन थाय. आ प्रमाण करतां विशेष भूमि ते मध्यम मान जाणवू. उत्कृष्ट स्थंडिलप्रमाण बार योजन- होय, कारण के चक्रवर्तीनी सेना बार योजन विस्तारवाळी होय छे. जे साधु या साध्वी श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१९७ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3m ठल्लो या मातरं अविधिपूर्वक परठवे तो एक मासी लघुदंड अने आज्ञाभंगना दोपपात्र बने तेनी विधि दर्शावतां कहे छ के-गृहस्थ प्रमुखनी दृष्टिनें निवारण करवू अने ते माटे ऊर्ध्व, अधो अने तिर्छा सर्व दिशामा अवलोकन कर्या पछी ठल्लो मातरं परठवq. जे लोको ते कार्य करतां जोवे तो तेओ हांसी करे अने आत्माने कलुपितता प्रगटे. वळी स्थंडिल प्रमुख वोसरावीने वस्त्रना कटकाथी गुह्यांग जो साफ न करे तो प्रायश्चित लागे, पण जो काष्ठथी, वांसना खपाटियाथी, अथवा लाकडानी सळीथी साफ करे अथवा साफ करनारने सारो माने तेने एकमासी लघुदंड आवे. वळी जो कोई साधु या साध्वी स्थंडिल प्रमुख परठवीने पछी जळद्वारा हस्त साफ करे नहीं के न करनारने सारो जाणे तो दंडपात्र बने. वळी स्थंडिल परठव्यानी जग्याए साधु या साध्वीए आचमन न लेवू. आचमन ले के लेनारनी अनुमोदना करे तो प्रायश्चित लागे परंतु सो हाथना आंतरामा तम करी शकाय, तेथी विशेष दूर आचमन करे तो पण दोपभागी थाय. स्थंडिल-मातरं परठवी त्रण खोवा प्रमाण जळथी शुद्धि करवी; विशेष जळ न वापर. विशेष जळ वपराय तो कीडी प्रमुख जावानी विराधना थाय, त्रसजीवने पीडा उपजे, वृक्षना फूल-पात्रादिक तेमां पडे अने पृथ्वीकायादिकनी पण विराधना थाय, केटलाक आचार्यो एम पण कहे छे के-अंजलिना त्रण भाग करवा, पहेला भागथी मळद्वार साफ करे, बीजा भागथी अवयवो साफ करे अने त्रीजा भागथी सर्व शुद्धि करे. जेने थोडे थोडे समयने आंतरे स्थंडिल जवू पडतुं होग्य, हरस' जेवो व्याधि होय तेवा आपवादिक मार्गमां विशेष जळ वापरी शकाय. संक्षिप्तमा एटलुं समजवायूँ के-दुर्गंध न रहे. मळनो लेप न रहे तेटला प्रमाणमा जळनो उपयोग करवो. कारणप्रसंगे मूत्रथी पण मळशुद्धि करी शकाय छे. बृहत्कल्पना पांचमां उद्देशामां का छे के णो कप्पइ निग्गंथाण वा अण्णमण्णस्स मोयं आइयत्तए वा आयमित्तए वा णण्णत्थ गाढेसु अगाढेसु वा रोगायंकेसु ॥ साधु या साध्वीने परस्परना मूत्रनो उपयोग करवो न कल्पे परंतु विशूचिका (उलटी) थई होय, सर्प करड्यो होय, ज्वरादिक रोगोद्भव थयो होय तो तेवा अनिवार्य प्रसंगोमां मूत्रनुं आचमन लेवू या मळशुद्धि माटे ग्रहण करवं कल्पे. आ विषयमां कोई शंका करतां कहे के-आ मूत्रनुं आचमन या ग्रहण अशुचिकारक न कहेवाय? तो तेने जवाब आपतां ग्रंथकार कहे छे के - वैद्यकशास्त्रमा पण मूत्र-पान उपयोगी जणाव्युं छे. वळी गोमूत्र तो पवित्र मनाय छे अने औषधमां पण वपराय छे. साधु तो कारण विना रात्रिए पाणी राखे ज नहीं, परंतु कोई नूतन दीक्षित होय, विवाहित न होय तेने मूत्र ग्रहण करवामां दुगंछा थाय माटे तेने अर्थे रात्रिए अचित्त जळ राखे, परंतु जे मातरानी विधिनो जाण होय, साधुपणुं बराबर परिणमी गयुं होय तेने अर्थ पछी पाणी राखवानी जरूर नथी. कोई शिष्य घणी वखत स्थंडिल जाय अने मूत्रथी शुद्धि करवामां अशक्त होय तेने माटे जळ राखवू पडे कारण के जो जळ न राखवामां आवे तो तेवा शिष्यने स्थंडिलनी शंका थवा छतां दुगंछाथी स्थंडिल जाय नहीं अने मळनो अवरोध करवाथी परिताप पामे, मृत्यु पण पामे माटे तेवा प्रसंगमां जळनो जोग राखवो. कोई कोई आचार्य कल्पत्रेपनो अर्थ चैत्र मासनी असज्झाय उतर्या पछी कर्त्तव्य करवान सूचवे छे. कोईक एम कहे छे के-आ परंपरागम्य छे अने सदैव कर्त्तव्य छे. वळी साधु विनयशाळी होय, निश्चळ-गंभीर स्वभाववाळा होय, जेथी प्रायश्चित्तादिकनो अन्य पासे प्रकाश करे नहीं श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१९८ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हास्य-बीजानो उपहास न करे. चार प्रकारनी विकथा (जुओ पृष्ठ १७)थी विरमेल होय. गुरुनी आज्ञा शिरोधार्य गणे-वगरविचार्ये स्वमतिथी विरुद्ध वर्तन न करे. वळी गोचरी अर्थे योग्य भूमिमां परिभ्रमण करे. आठ प्रकारनी गोचर भूमि कहेल छे, ते आ प्रमाणे- १ ऋज्वी, २ गत्वाप्रत्यागतिका, ३ गोमूत्रिका, ४ पतंगवीथिका, ५ पेटा, ६ अर्द्धपेटा, ७ अभ्यंतरशंबूका अने ८ बहिः शंबूका. वली अनेक प्रकारना अभिग्रहना धारक तेमज महाकठिन प्रायश्चितने लगती तपश्चर्या करनारा होय. आवा आचार-परायण अने संयमी साधुवने जोईने इंद्र सरखा पण चमत्कार पामे तो अन्य जननुं शुं कहेवुं ? अभिग्रह चार प्रकारना छे. १ द्रव्याभिग्रह, २ क्षेत्राभिग्रह, ३ काळाभिग्रह अने ४ भावाभिग्रह. १. द्रव्याभिग्रह - आज मारे लेपवाळा मग विगेरे अथवा लेप (रस) विनाना वाल, चणा विगेरे मळे तो ग्रहण करवा, आजे रोटलो के तेनो मांडो मळे तो ज भिक्षा ग्रहण करवी, कडछी, चमचो अथवा तो भालानी अणीद्वारा कोई वहोरावे त्यारे ज वहोरावुं. श्रीमहावीरस्वामीए जेम सुपडाना खूणामां रहेल अडदना बाकळा ग्रहण कर्यां हता तेम विधविध प्रकारना अभिग्रहो धारण करवा अने ते प्रमाणे ज जो भिक्षा मळे तो ग्रहण करवी, ते द्रव्याभिग्रह कहेवाय. २ क्षेत्राभिग्रह - पूर्वे कही ते आठ गोचरभूमिमां तथा जे गाममां होय तेमां अगर परगाममां अमुक मर्यादा बांधी गोचरी ग्रहण करवी ते क्षेत्राभिग्रह कहेवाय. हवे आठ गोचर भूमिनुं विशेष वर्णन करतां जणावे छे के - १ ऋज्वी एक दिशानो अभिग्रह करीने उपाश्रयमांथी नीकळ्या बाद सीधे मार्गे समश्रेणीमां आवतां गृहोने विषे भिक्षार्थे जतां ते पंक्तिना छेल्ला गृह सुधी जाय. तेटला गृहोमां जो उचित भिक्षा मळी जाय तो ग्रहण करे अने न मळे तो ते ज गतिए पाछा आवे. २ गत्वाप्रत्यागतिका - एक पंक्तिमां भिक्षार्थे फरतां तेना छेल्ला गृह सुधी जाय अने तेम करतां उचित गोचरी न मळे तो पाछा फरतां बीजा घरोनी श्रेणीमां परिभ्रमण करे. ३ गोमूत्रिका - जमणा घरनी पंक्तिमांथी डाबी पंक्तिमा अने डाबीमांथी पाछी जमणी पंक्तिमां तेम एक बीजी पंक्तिमां गोचरी अर्थे फरवुं. चालती गाय अने बळदना मूत्रना आकारे आ गोचरी थती होवाथी तेने गोमूत्रिका कहेवाय छे. ४ पतंगवीथिका-त्रण चार घर मूकीने वहोरे, वळी त्रण-चार घर आगळ जईने वहोरे. पतंगियुं उछळी उछळीने अनिश्चित गति करे छे तेनी माफक आ गोचरी थती होवाथी तेने पतंगवीथिका कहेवाय छे. ५ पेटा-पेटीना आकारे गोचरी करे ते पेटा. पेटीना चार खूणानी माफक चारे दिशाना गृहोने विषे जाय परंतु ते दिशाना मध्यमां रहेला गृहोने विषे न जाय. ६ अर्द्धपेटा - चार दिशाने बदले बे दिशाने निश्चित करीने भमे पण तेनी मध्यमां आवतां गृहोमां न जाय. ७-८. अभ्यंतरशंबूका ने बहि:शंबूका - शंखनी पेठे जे गोचरी करवी ते शंबूका. • शंखना मध्य भागना आवर्तनी माफक गोचरी करवी एटले मध्य घरोमां भमतां भमतां क्षेत्रना बहारना भागमां आववुं ते अभ्यंतरशंबूका अने क्षेत्रना बहारना भागमांथी गोचरी ग्रहण करता करतां मध्य भागमा आव ते बहि:शंबूका. वळी 'घरना उंबरा मात्रमां होय तो मारे गोचरी लेवी.' एवी जातनो पण अभिग्रह लेवो तेनो क्षेत्राभिग्रहमा समावेश थाय छे. श्रीमहावीर परमात्माए आवो अभिग्रह धारण कर्यो हतो अने एक पग उंबरमा अने एक पग बहार राखेल राजपुत्री वसुमती उर्फे चंदनबाळाए आ अभिग्रहण पूर्ण कर्यो हतो. वळी पोताना गाम संबंधी पण धारवुं के मारे अमुक संख्याना घरमा श्रीगच्छाचार - पयन्ना - १९९ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज गोचरी माटे जवं, अगर तो बीजे गाम भिक्षार्थे जवं आ सर्व प्रकार क्षेत्राभिग्रहना जाणवा. ३ कालाभिग्रहना त्रण प्रकार छे. आदि, मध्य अने अंत. गोचरीना समय पहेला पर्यटन करवू ते आदि, भिक्षा मळे तेवा समये गोचरी करवा जq ते मध्य अने गोचरीनो समय व्यतीत थई गया पछी वहोरवा जवू ते अवसान-अंत. आ संबंधी गुण-दोष दर्शावतां कहे छे के-आदि अने अंत ए बे प्रकारनी गोचरी अर्थे न जवं, कारण के वखत विन! आवेल साधु माटे वहोरावनार गृहस्थादिकनी अप्रीति थाय. वळी साधुने पुर:- कर्म अने पश्चात्कर्म इत्यादि दोषो पण लागे माटे मध्य कालाभिग्रह ज उचित छे. ४ भावाभिग्रह-जे वासणमां रांध्यु होय ते भोजनमांथी बीजाने माटे पूर्वे काढीने राखेल होय तेवो ज आहार लेवो, अमुक गणत्रीवाळो ज आहार लेवो, जेनी सामे नजर पडे ते ज आहार लेवो-आवी जातनो विविध प्रकारनो अभिग्रह ग्रहण करवो ते भावाभिग्रह कहेवाय. अथवा तो गायन गातो गातो वहोरावे तो लेवू, बेठो बेठो आपे तो लेवू, आभूषण पहेरेल व्यक्ति आपे तो ज आहार ग्रहण करवो इत्यादिक अभिग्रह धारवा ते पण भावाभिग्रह ज छे. तीर्थंकर भगवंतोए पण आवा अभिग्रहो धारण करेल छे, माटे खपी-संयमी साधुए अवश्य अभिग्रहो धारण करवा. (आ चार प्रकारना अभिग्रहनं स्वरूप प्रकारांतरे अगाऊ पृष्ठ १०९ ऊपर आवी गयं छे.) हवे दश प्रकारना प्रायश्चित्तनुं स्वरूप दर्शावे छे–१ आलोचना-आहारादिक ग्रहण करतां, स्थंडिल मा करतां, देहरे उपाश्रये जतां, पीठफलकादिक पाछा आपतां, उपाश्रपथी सो हाथ दूर जतां जे दोष लागे ते गुरुने जणावी, तेओ जे प्रमाणे प्रायश्चित जणावे ते आलोचना. २ प्रतिक्रमण-मिच्छादुक्कडं आपवाद्वारा दोषथी छूटे ते. अकस्मात् तथा उपयोगशून्यपणे पांच समिति तथा त्रण गुप्तिने विषे प्रमाद थाय, गुरुआज्ञा-भंग थाय, इच्छाकारादिक दश प्रकारनी सामाचारीमां दूषण लागे, लघुमृषावाद, अदत्तादान तथा परिग्रहनी मूर्छा थाय, अविधिपूर्वक श्वास ले, छींक खाय, बगासुं खाय, हास्यादिक विकथा करे इत्यादिक जे दोषो लागे ते माटे प्रतिक्रमण करवू लघुमृषावादना पंदर प्रकार श्रीनिशीथसूत्रनी पीठिकामां दर्शाव्या छे. अनिकाचितपणे (अचोक्कसपणे) बोले ते लघुमृषावाद अने निकाचितपणे बोले ते बादरमृषावाद कहेवाय. आज्ञा विना तृण, राख, लेप प्रमुख ग्रहण करे ते लघुअदत्तादान अने कपडा, सारा पात्रा, वसति, संथारो इत्यादिकने विषे ममत्वभाव राखे ते लघुपरिग्रह कहेवाय छे. प्रतिक्रमणद्वारा आ दोषो दूर थाय छे. ३ तदुभय-सहसात्कार एटले अचानक, अनाभोग-उपयोग रहितपणे, संभ्रम-भूलथी तेमज सिंहादिकना भयथी व्रतमा जे अतिचार लागे तेमज खोटुं चिंतववाथी अने ते प्रमाणे खोटं वर्तवाथी जे प्रायश्चित लागे ते आलोचना अने प्रतिक्रमण उभयद्वारा नाश पामे माटे तदुभय. ४ विवेक-अशन, पान, खादिम अने स्वादिम ए चार प्रकारनो आहार, वस्त्र, पात्र, उपधि, शय्या ग्रहण कर्या पछी 'आ तो अशुद्ध छे, कालाक्रांत छे एटले सूर्य ऊग्या पहेला अथवा तो सूर्यास्त पछी ग्रहण करेल छ' एम विचारी ते अशन प्रमुखने यथायोग्य स्थळे वोसरावे ते विनयप्रायश्चित. ५ काउसग्ग-उपाश्रयथी सो हाथ करतां विशेष दूर जाय के आवे, नावमां बेसे, नदी पार करे, सावद्य स्वप्न देखी जागी उठे-आ संबंधी लागेल अतिचार कायोत्सर्गथी दूर थाय.६ तप-छ प्रकारनो बाह्य अने छ प्रकारनो अभ्यंतर एम बार प्रकारना तपथी अतिचार दूर थाय ते तप प्रायश्चित्त (आनुं वर्णन अगाऊ पृष्ठ ११० श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २०० Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर आवी गएल छे.) ७ छेद- 'आटलो तप करवो ए शुं मात्र छे ?' एम गर्वोन्मत्त बनेलने अथवा तप करवामां असमर्थ साधुने पांच दिवसनी दीक्षानो छेद करवो ते. ८ मूळ-पंचेन्द्रियनो वध करे, मैथुन सेववानी अभिलाषा करे अगर तो सेवे, अभिमानथी पांचे महाव्रतोनो भंग करे तेने फरीथी दीक्षा आपवी. ९ अनवस्थाप्य - दुष्ट वर्तन करे, द्रव्यादिकनी इच्छाथी अष्टांग निमित्त प्रकाशे, ज्योतिष जोई आपे, कोईने विघ्न करवा अथवा विघ्न होय ते दूर करवा, धनादिकनी इच्छाथी मंत्रप्रयोग करे तेने आ प्रायश्चित अपाय छे. आ प्रायश्चित्तना भागी उपाध्याय ज होय छे. ज्यां सुधी आपेल आलोचना पूर्ण न करे त्यां सुधी तेनो चारित्रपर्याय न गणाय १० पारांचित्त - तीर्थंकर, आचार्य, उपाध्यायादिकनी आशातना करनार, राजानो वध करनार, श्रीणद्धि निद्रावाळाने, आ दशमुं पारांचित नामनुं प्रायश्चित्त होय छे. आ प्रायश्चित्तना भागी आचार्य ज होय छे. अनवस्थाप्य अने पारांचित्त ए वे प्रायश्चित्तो तो वज्रऋपभनाराच संघयणवाळाने अने चांदपूर्वीने होय छे. हालमा तो तेवो अभाव होवाथी विच्छेद समजवा. लिंगक्षेत्रकाळ-अनवस्थाप्य अने लिंगक्षेत्रकाळपारांचित तो ज्यां सुधी श्री वीरशासन प्रवर्तशे त्यां सुधी समजवा. आ दश प्रायश्चित्तनुं स्वरूप अगाऊ प्रकारांतरे अमे पृ. १११ ऊपर जणावी गया छीए. आ प्रमाणे जे गच्छमां साधु स्वच्छंदे न चालतां आचार्यना आदेशने आधीन रही दूपण लागे तो प्रायश्चित्त अंगीकार करे तेवा गच्छने ज सुगच्छ कहेवो. प्रायश्चित्त संबंधी विशेष वर्णन श्रीजीतकल्पमांथी जाणवुं. हवे छक्कायनी रक्षा संबंधी शिक्षा आपतां जणावे छे के पुढविदगअगणिमारुअ - वाउवणस्सइतसाण विविहाणं । मरणंते विन पीडा, कीरइ मणसा तयं गच्छम् ।। ७५ ।। [ पृथिवीदकाग्निमारुत - वायुवनस्पतित्रसानां विविधानाम् । मरणान्तेऽपि न पीडा, क्रियते मनसा सको गच्छः ।। ७५ ।।] गाथार्थ – पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वाउकाय, वनस्पतिकाय अने बेइंद्रियादिक त्रसकायने ज्यां मरणांते पण मनद्वारा पीडा करवामां न आवे- सर्व जीवोने स्वात्मा समान गणवामां आवे तेवा साधुसमुदायवाळो गच्छ ज सुगच्छ छे. विवेचन- अर्थ सुगम छे एटले तेना विशेष विवेचननी आवश्यकता नथी. चारित्रनो साचो खपी आत्मा तो त्रिकरण त्रिकरणथी कोई पण जीवनी हिंसा चिंतवे ज नहीं तो करे क्यांथी ? यज्ञादिक हिंसक क्रियाकांड करनारा अन्य दर्शनीयो माटे आ गाथा बोधरूप छे. पाषाण, रत्न, पारो, सर्व प्रकारनी माटी ते पृथ्वीकाय, पाणीना जीवो ते अपकाय, अग्नि, तणखा, विद्युत, अंगारा ए तेउकाय, झंझावात, मंदवायु, उद्भ्रामक वायु विगेरे वायुकाय कहेवाय छे, वनस्पतिकायना बे भेद छे. साधारण अने प्रत्येक, एक शरीरमां अनंता जीवो होय ते साधारण वनस्पतिकाय, कोमळ फळ, अंकुर, गाजर, बटाटा, मूळानी भाजी विगेरे कन्दमूळ साधारण वनस्पति कहेवाय छे. एक शरीरमा एक ज जीव होय ते प्रत्येक वनस्पतिकाय छे, काष्ठ, फळ, फूल, छाल, पांदड़ां विगेरे. शंख, कोडा, जळो, अळसीया विमेरे बेइंद्रिय (स्पर्श अने रसेंद्रिय), कीडी, मांकड, धनेडा, इयळ विगेरे तेइंद्रिय श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २०१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( स्पर्श रस अने घ्राणेन्द्रिय), वींछी, भमरो, मांखी, तीड विगेरे चौरेंद्रिय (स्पर्श, रस, घ्राण अने नेत्र) मज मनुष्य, नारक, देव अने तिर्यंचो (गाय, वळद, भेंस, पक्षी, सर्प, नोळीयो, मत्स्य) पंचेन्द्रिय (स्पर्श, रस, घ्राण, नेत्र अने श्रोत्रेंद्रिय) त्रसकाय कहेवाय छे. त्रस एटले जे पोतानुं रक्षण करवा हलन चलन करी शके ते. पृथ्वीकायादिक एकेंद्रियो स्थावर कहेवाय छे, ते स्थिर होय छे, ते पोतानुं रक्षण करवा हलन चलन (गति) करी शकता नथी. आ प्रकारना सर्व जीवो विषे अंशमात्र वैरभाव न दाखवे तेवा साधुवाळो गच्छ ज सुगच्छ छे. विशेष वर्णन करतां कहे छे के खज्जूरिपत्तमुंजेण, जो पमज्जे उवस्सयम् । नो दया तस्स जीवेसु, सम्पं जाणाहि गोअमा ! ॥ ७६ ॥ [ खर्जूरीपत्रेन मुंजेन, य उपाश्रयं प्रमार्जयति । न दया तस्य जीवेषु, सम्यग् जानीहि गौतम ! ॥ ७६ ।। ] गाथार्थ - खजूरीनी के मुंजनी सावरणीवती जे साधु उपाश्रयने साफ करे प्रमार्जे तेने जीवो प्रत्ये बिलकुल दया- अनुकंपा नथी, एम हे गौतम! तुं बराबर समजी ले. विवेचन – मुनिओ माटे खजूरीनी के मुंजनी सावरणी वापरवानो सदंतर निषेध छे, कारण के तेनी तीक्ष्ण अणीथी त्रसजीवोनो घात थाय छे. त्रसजीवोना संरक्षण माटे पुंजणीथी अथवा तो डंडासन (मोटी डांडीवाळा लांबा चरवळा) थी काजो लेवो जोईए अने ते पण पूर्णतया तपासीने ज्यां कोईनो विशेष पदरव - हालचाल न होय तेवा एकांत स्थानमां जयणाथी परठववो. जैनोनी आवीआवी प्रत्येक क्रिया जीवो प्रत्येनी अनुकंपानो अने अहिंसा धर्मनो आविष्कार करे छे. वळी विशेष जणावे छे के जत् य बाहिरपाणिअ-बिंदूमित्तंपि गिम्हमाईसु । तहासोसिअपाणा, मरणे वि मुणी न गिण्हन्ति ॥ ७७ ॥ [ यत्र च बाह्यपानीय-बिन्दुमात्रमपि ग्रीष्मादिषु । तृष्णाशोषितप्राणा, मरणेऽपि मुनयो न गृह्णन्ति ॥ ७७ ।।] गाथार्थ – जे गच्छमां ग्रीष्मादिक ऋतुओने विषे तृषाथी पीडित थयेला मुनिओ प्राणान्ते पण तळाव, कूवा, वाव के नदी प्रमुखनुं एक बिंदुमात्र सचित्त जळ क्षुल्लक साधुनी माफक ग्रहण करता नथी ते ज गच्छ साचो जाणवो. विवेचन - बावीश परीषहो पैकी पिपासा - तृषा परीषह बीजो छे. शास्त्रकार कहे छे - ग्रीष्मऋतु होय, मध्याह्न थयो होय, सूर्य अत्यंत तपतो होय, कंठे शोप पडतो होय छतां पण साधु सचित्त जळना बिंदुमात्रनी पण आकांक्षा न राखे-मरणांत कष्ट आवे तो पण स्वनियमथी चलायमान न थाय तेवा सुविहित साधुवाळो गच्छ ज सदाचारी गच्छ जाणवो. क्षुल्लक साधु आवो परीषह सहन कर्यो हतो, तेनुं वृत्तांत नीचे प्रमाणे जाणवु. श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २०२ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक साधुनी कथा -- मालवदेशनी उज्जैनी नगरीमा धनमित्र नामनो व्यवहारी हतो. तेने धनधर्म नामनो पुत्र हतो. व्यवहारीनी पत्नी मरण पामतां तेने वैराग्य उपज्यो. तेवामां एक मुनिवर त्यां आव्या, एटले तेमनी पासे पुत्र सहित प्रव्रज्या ग्रहण करी. एकदा अन्य मुनिवरोनी साथे विहार करतां तेओ एलगत्थ नगरना मार्गे चाल्या. मध्याह्न समय हतो, सूर्य पोतानी संपूर्ण कळाथी प्रकाशी रह्यो हतो, रणनो प्रदेश हतो, तृषा सर्व मुनिवरोने पीडा उपजावी रही हती, अत्यंत तृषाथी क्षुल्लक धनधर्मनुं मुख करमवा लाग्युं, गति मंद पडी गई अने वारंवार स्खलना थवाथी ते क्षुल्लक मुनि पाछळ रही जवा लाग्या. धनमित्रे जाण्यु के पुत्रने तृषा पूरेपूरी सतावी रही छे, पण थाय शुं? तेओ तेनी साथे रहेवा लाग्या. बीजा मुनिवरो धीमे धीमे आगळ वधतां सहेज आगळ निकळी गया. धनमित्र ने धनधर्म मंद गतिए पाछळ पाछळ चाल्या जाय छे तेवामां एक नदी आवी. नदी जोतां ज धनमित्रने पुत्र प्रत्ये स्नेहभाव प्रगट्यो. पुत्र परत्वेना वात्सल्यभावथी प्रेराई तेणे तेने का-“हे पुत्र ! अत्यार सुधी तें परीषह सारी रीते सहन को छे, पण भाग्ययोगे जळ आवी मळ्युं छे तो तुं नदीमांथी यथेच्छ जळ पी ले. ज्यारे राजमार्ग चीकणो थई गयो होय त्यारे लोको केडी (पगदंडी) नो आश्रय ले छे. तुं सचित्त जळ पी ले. प्राण टकशे तो चारित्रनुं पालन थशे अने आ व्रतभंगनी आलोयण पण कराशे.” आ प्रमाणे धनमित्रे पुत्रने का छतां ज्यारे तेणे नदीनुंजळ पीधुं नहीं त्यारे तेणे विचार्यु के–मारी लज्जाने कारणे पुत्र जळ-पान करतां अचकाय छे तेथी हूं दूर जतो रहुं. आ प्रमाणे निर्णय करी, नदी उतरी थोडे दूर जई बेठो पण क्षुल्लक साधुए जळपान न कर्यु अने त्यां ज शुभ ध्यानमा मृत्यु पाम्यो. केटलाको आ संबंधमां एम पण कहे छे के–धनमित्रना गया पछी धनधर्मे विचार्यु के पिताए का ते सत्य छे. प्राण हशे तो चारित्र पळाशे, प्रायश्चित पण लेवाशे अने अन्य धार्मिक अनुष्ठानो पण थशे, माटे पाणी तो पीउं. आम विचारी जळनो खोबो भर्यो के तरत ज अन्य विचार उद्भव्यो के–माराथी अप्कायना जीवोनो नाश केम कराय? एक जीवना रक्षण माटे असंख्य जीवोनो विनाश करवो ए कोई पण प्रकारे उचित नथी. श्रीतीर्थंकर भगवंतोए जेनो निषेध कर्यो होय तेनुं आचरण माराथी थाय ज केम? न्यायात् पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा: । धीरपुरुषोए कदापि काळे स्वप्रतिज्ञाथी अंशमात्र पण चलायमान न ज थq. का छे के–“एक्कम्मि उदगबिंदुम्मि, जे जीवा जिणवरेहिं पण्णत्ता । ते पारेवयमित्ता, जंबुद्दीवे न माएज्जा ॥१॥" पाणीना एक बिंदुमां जेटला जीवो छे तेटला जीवो पारेवा जेवईं रूप धारण करे तो समग्र जंबूद्वीपमां न समाय एम तीर्थंकर भगवंतो जणावे छे. वळी का छे के-“जत्थ जलं तत्थ वणं, जत्थ वणं तत्थ निच्छओ तेऊ। तेऊ वाउसहगओ, तसा य पच्चक्खया चेव ॥२॥ ता हंतुण परपाणे, अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं । अप्पाणं दिवसाणं, कएण नासेइ अप्पाणं ॥३॥"ज्यां जल होय त्यां वनस्पति होय, वनस्पतिकाय होय त्यां जरूर अग्निकाय होय ज. अग्निनी साथे हमेशां वायु होय ज अने त्रसकाय तो प्रत्यक्ष जणाय छे माटे सचित्त जळना पानथी विराधनानो पार ज न आवे. जे छक्कायना जीवोने हणीने श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २०३ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोताना आत्माने पुष्ट करे छे तेनो आत्मा पण थोडा दिवसमां ज विनाश पामे छे. अहो ! शुं हुं असंख्य जीवोने हणीने मारा आत्माने संसारमा भमाडं? आत्माने माटे हिंसा करवी ते अतीव दुःखदायी छे. अहिंसा ज खरेखर भगवती-पूज्य अने सुखदाता छे. ते भगवती अहिंसाने अपरिमित ज्ञान-दर्शन धारण करनार, शीलवंत, शुद्ध संयम पालक १ श्रीतीर्थंकर भगवंतोए रुडे प्रकारे जोई छे, २ अवधिज्ञानीए भला प्रकारे जाणी छे, ३ ऋजुमतीमन:पर्यवज्ञानीए जोई छे, ४ विपुलमतिमन:पर्यवज्ञानीए रूडा प्रकारे जाणी छे, ५ चौदपूर्वधरे पठित करी छे, ६ वैक्रियलब्धिधारीए प्ररूपी छे तेम ज ७ मतिज्ञानी, ८ श्रुतज्ञानी, ९ मन:पर्यवज्ञानी, १० केवळज्ञानी, ११ आम|षधिलब्धिधारी, १२ खेल्लौषधिलब्धिधारी, १३ नल्लौषधिलब्धिधारी, १४ विपुडौषधिलब्धिधारी, १५ सौषधिलब्धिधारी, १६ बीजबुद्धिलब्धिधारी, १७ कोष्ठबुद्धिलब्धिधारी, १८ पदानुसारीलब्धिधारी, १९ संभिन्नश्रोतस्लब्धिधारी, २० श्रुतधर, २१ मनबली, २२ वचनबली, २३ कायबली, २४ ज्ञानबली, २५ दर्शनबली, २६ चारित्रबली, २७ क्षीराश्रवलब्धिधारी, २८ मध्वाश्रवलब्धिधारी, २९ सर्पियाश्रवलब्धिधारी, · ३० अक्षीणमहानसलब्धिधारी, ३१ चारणलब्धिधारी, ३२ * विद्याधर, ३३ चतुर्थ भक्त (एक उपवास) करनार, ३४ छ मासी तपश्चर्या करनार, ३५ उत्क्षिप्तचर, ३६ निक्षिप्तचर, ३७ अंतर्चर, ३८ पंतचर, ३९ लूखचर, ४० समुदानचर, ४१ अग्लान, ४२ मौनचर, ४३ संसत्त्ककल्पी, ४४ तज्जातसंसत्त्वकल्पी, ४५ उपनिषद्या, ४६ शुद्धषणक, ४७ संखादत्ती, ४८ दृष्टलाभी, ४९ अदृष्टलाभी, ५० पुष्टलाभी, ५१ आयंबिल करनार, ५२ पुरिमड्ढ करनार, ५३ एकासन करनार, ५४ निवि करनार, ५५ भिन्नपिण्डचारी, ५६ परिमितपिण्डचारी, ५७ अन्ताहारी, ५८ पन्ताहारी, ५९ अरसाहारी, ६० विरसाहारी, ६१ लूखाहारी, ६२ अन्तजीवी, ६३ पन्तजीवी, ६४ लूखजीवी, ६५ तुच्छजीवी, ६६ उपसन्तजीवी, ६७ पसन्तजीवी, ६८ विविक्तजीवी, ६९ अक्षीणमधुसपी, ७० अमद्यमांसभोक्ता,७१ पठाणा,७२ प्रिमा स्थापनारा, ७३ एक स्थानके रहेनारा,७७ लंगडानी रहेनारा, ७५ निषद्याए रहेनारा, ७६ लाकडीनी माफक रहेनारा, ७४ वीरासने रहेनारा, ७५ निषद्याए रहेनारा, ७६ लाकडीनी माफक रहेनारा, ७७ लंगडानी माफक सूनारा, ७८ एक पडखे सूनारा, ७९ आतप लेनारा, ८० अप्पा, ८१ खंखार (श्लेष्म) नहीं करनारा, ८२ खाज नहीं खणनारा, ८३ मस्तक, दाढी, मूछ, काखली विगेरेना वाळ न कपावनार तथा न धोनार इत्यादि अनेक महापुरुषोए “अहिंसा" भगवतीने रूडी कही छे, रूडी जाणी छे अने हिंसाने मिथ्या ज वर्णवी छे तो मारा अल्प जीवितने माटे आवी घोर हिसा हुं केम करुं? आ अल्प जीवितव्यने अर्थे हिंसा करी भवोभव- परिभ्रमण कोण वधारे ? आ प्रमाणे विचारी, समभावी थई, विशिष्ट वैराग्यवंत बनीने हाथमां ग्रहण करेल जळ पार्छ नदीमां मूकी दीधुं. पछी नदी उतरी, सामे कांठे जई, तृषाथी पीडित बनीने अणशण स्वीकार्यु अने नवकार मन्त्रना एकमात्र स्मरणपूर्वक काळ करी स्वर्गवासी थयो. देवशय्यामां उपजतां ज तेणे अवधिज्ञानद्वारा जोयुं तो पोतानो पूर्वभव दीठो. तरत ज क्षुल्लकना पडेला देहपिंजरमां * आ लब्धिओनं वर्णन पृष्ठ १९२ ऊपर वर्णवाई गयं छे. श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २०४ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाखल थई जे साधुओ आगळ जई रह्या हता तेनी साथे थई गयो. पछी ते साधुओनुं तृषा तथा क्षुधा संबंधी कष्ट विचारी तेना निवारण माटे ते प्रदेशमां थोडे दूर पोतानी शक्तिथी एक गोकुळ विकुऱ्या साधुओ ते गोकुळ जोई त्यां भिक्षार्थे गया अने छाश विगेरे शुद्ध आहार वहोयो. ते स्थळमां एक साधुनो संथारानो वीटो देवे पोतानी शक्तिथी भूलावी दीधो. थोडे दूर गया पछी ज्यारे सर्व साधुओ आसन पाथरी बेसवा लाग्या त्यारे ते साधुने पोतानो संथारो याद आव्यो. तरत ज तेओ गोकुळवाळा स्थळे आव्या अने संथारानो पडेलो वीटो लई लीधो परंतु जुए छे तो गोकुळ ज न मळे. साधु आश्चर्यमां गरकाव थई गया. थोडा समय पहेला जे गोकुळमांथी छाश विगेरे आहार ग्रहण को हतो ते गोकुळ क्यां गयुं ? ते विचारमां ने विचारमा तेओ पोताना साधु-संघ पासे पहोंच्या अने वृत्तांत कही संभळाव्यो. आ कथन सांभळी सर्व साधुओ चमत्कार पाम्या. एवामां ते देव प्रत्यक्ष थयो अने धनमित्र सिवायना सर्व साधुगणने वंदन कर्यु, धन मित्रने वंदन केम न कर्यु ? एम पूछतां देवे पोतानो पूर्वभव कही संभळावी जणाव्यु के–तेमणे मने सचित्त जळ पीवानुं सूचव्यु हतुं, ए मारा पिता छे, पण मने खोटो उपदेश आपनार जाणी तेमने में वंदन न कर्यु. में पाणी न पीधुं तो देव थयो पण व्रतभंग करी दूषण लगाड्युं होत तो मारे संसारमा केटलुं य परिभ्रमण करवू पडत. खरेखर भगवती अहिंसानो प्रभाव चमत्कारी छे. तेना अल्प पालनथी हुं देवऋद्धि प्राप्त करी शक्यो. आ प्रमाणे कही देव अंतर्धान थई गयो. धनमित्रे पण पोताना कथननी आलोचना लीधी. हे गौतम ! आवो गच्छ होय ते ज सुविहित गच्छ जाणवो. इच्छिज्जइ जत्थ सया, बीयपएणा वि फासुयं उदयम् । आगमविहिणा निउणं, गोअम ! गच्छं तयं भणियम् ।। ७८ ॥ [इष्यते यत्र सदा, द्वितीयपदेनापि प्रासुकमुदकम् । आगमविधिना निपुणं, गौतम ! गच्छ: सको भणित: ॥७८ ॥] गाथार्थ- जे गच्छमां साधुओ अपवाद प्रसंगे पण शुद्ध (निर्जीव) जळ सदा शास्त्रोक्त विधिवडे डहापणद्वारा ग्रहण करवा इच्छे छे ते ज गच्छ प्रमाण छे. विवेचन- फासु एटले जेमांथी जीव च्यवी गया होय तेवू जळ. पाणीने तपाव्या मात्रथी नहीं परंतु त्रण उकाळाद्वारा पूरेपूरुं उष्ण करवाथी फासु थाय छे. शास्त्रकार कहे छे के-अपवादना प्रसंगे पण साधुने फासु जळ ज कल्पी शके तो उत्सर्ग मार्गने माटे तो कहेवू ज शु? श्रीदशवैकालिक सूत्रमा जे अनाचारो जणाव्या छे तेमां फासु जळ ग्रहण न करे तेने पण अनाचारी ज दर्शाव्यो छे. का छे के– “गिहिणो वेयावडियं, जाययाजीववत्तिया। तत्तानिव्वुडभोइत्तं, आउरस्सरणाणि य ॥१॥"गृहस्थनी सेवा आदि कामकाज करे, लोकने विषे पोतानी जाति तथा कुलादिकनो प्रकाश करे, शिल्पादिक कृत्य एटले छोकराओने भणावी आजीविका करे अने त्रण उकाळा विनानुं जळ ग्रहण करे ते सर्वनो अनाचारमा समावेश थाय छे. तपेलुं पाणी तो मिश्र होय छे पण ज्यारे त्रण उकाळा आवे त्यारे ज पाणी खरेखर प्रासुक (निर्जीव) थाय छे. आq प्रासुक जळ पण विधिपूर्वक श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २०५ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकारवानुं विधान छे. श्रीआचारांगसूत्रमा कां छे के–“सेभिक्खूवा भिक्खुणीवाजाव समाणे सेज्जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा तं जहा-उस्सेइमं वा १ संसेइमं वा २ चाउलोदगंवा ३ अन्नतरं वातहप्पगारं पाणगजातं अहुणा धोतं अणंबिलं अव्वोक्कंतं अपरिणतं अविद्धत्थं अफासुयंजाव णोपडिगाहेज्जा । अह पुणेवं जाणेज्जा चिरा धोयं अंबिलं वुक्कंतं परिणयं विद्धत्थं फासुयं जाव पडिगाहेज्जा ।।"पाणीनी भिक्षार्थे गयेला साधु-साध्वीए त्रण प्रकारना जळ जाणवा.१ उत्स्वेदिमआटा- धोवण अथवा लोटमिश्रित हस्तधोवण- जळ. २ संस्वेदिम-तल अथवा अरणादिकथी लेपित थयेल भाजनने धोवाथी प्रगटेल जळ. आ बन्ने प्रकारना जळy पहेली तथा बीजी वारनुं धोवण जळ अचित्त जाणवं. त्रीजी अने चोथी वार प्रगटेल जळ मिश्र (सचित्ताचित्त) होय छे, पछी काळांतरे (मुहूर्त पछी) अचित्त थाय छे. ३. चावलोदक-चोखानु धोवण. तेना त्रण अनादेश छे, ते आ प्रमाणे-१ ज्यां सुधी ते जळमां परपोटा होय, २ जे वासणमां चावल धोया होय तेना जळबिन्दुओ सुकाणा न होय अने ३ धोयेला चोखा चूले रंधाई गया न होय आ त्रण क्रियाओ न थई होय त्यां सुधी चावलोदक ग्रहण न करी शकाय. ज्यारे ते चावलोदक डहोळु मटी जई स्वच्छ थई जाय त्यारे ज ते ग्रहण करी शकाय. वळी जेनो स्वाद फरी न गयो होय, जीव च्यवी न गया होय, परिणत न थयु होय अने फासुक न थयुं होय एबुंऊपर जणावेल त्रणे प्रकार- जळ ग्रहणीय नथी. तेथी विपरीत अंबिलं, वुक्कंतं विगेरे प्रकार- जळ कल्पी शके आ उपरांत विशेष प्रकार- जळ कल्पी शके, ते आ प्रमाणे-४ तिलोदक-कोई प्रकारे तलद्वारा प्रासुक करेल, ५ तुषोदक-जुदी जुदी जातनी डांगरनुं धोवणजळ, ६ जवोदक, ७ आचाम्लोदक-ओसामण- जळ, ८ सौवीर-कांजी, जळ. कांजी मरुधरमां प्रसिद्ध छे. सोनी सुवर्ण, लोढुं विगेरे धातु तपावीने जे जळमां बोळे ते जळने पण कांजी कहेवाय छे. ९ शुद्ध विकट-त्रण वार उकाळेल पाणी, १० अंबपानक-आंबाना धोवण- जळ, ११ कविठ्ठपानक, १२ बीजोरानुं धोवण जळ, १३ द्राक्षना धोवण- जळ, १४ दाडमनुं धोवण जळ, १५ खजूर विगेरेनुं धोवण जळ, १६ नाळियेरनुं धोवण जळ, १७ केरडा- जळ, १८ नाना तथा मोटा बोर- जळ, १९ आमळानुं जळ तथा २० आंबलीना धोवण, जळ-आ प्रमाणे कुल वीश प्रकारना जळ दर्शाव्यां छे. आ उपरांत बीजा प्रकारो पण छे. आq एषणीय जळ जोया पछी श्रावक या श्राविकाने साधु कहे-‘मने आ जळ वहोरावो.' ज्यारे ते गृहस्थ अथवा गृहस्थिनी वहोरावे त्यारे ग्रहण करवूअथवा तेओ एम कहे के–'हे साधु ! आजळ तमे तमारा पात्रावडे अथवा लघु पात्रीवडे तेम ज पाणी, वासण उघाडीने तमारी इच्छा प्रमाणे ग्रहण करो.' आ प्रमाणे गृहस्थनी आज्ञाथी पण जळ ग्रहण करी शकाय. आ वीश प्रकारो पैकी द्राक्ष, बोर तथा आमळाना धोवण- जळ शीघ्र अचित्त थई जाय छे ज्यारे आंबा विगेरेनं जळ बे - त्रण दिवसे प्राशक थाय छे. वळी जे पाणीमां छाल, बीज विगेरे मिश्रित होय ते पाणी श्रावक साधुने निमित्ते चालणी तथा वस्त्रप्रमुख उपकरणोथी गाळे, वारंवार गाळे, बीजादिकने कष्ट पडे तेवू पाणी साधु समीपे लावीने वहोरावे तो ते पाणी कल्पे नहीं, कारण के ते उद्गमादि दोष युक्त छे. श्रीआचारांग सूत्रना चूर्णिकार आ संबंधमां लखे छे श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २०६ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के-गोल नामना देशमां आम्रफळना फाडिया करीने तेने सूकवे छे. ते कटकाओनुं धोवण ते दशमुं अंबपानक कहेवाय छे. आ विधि साधारण विधि जाणवी कारण के सदा काळ आ विधि प्रवृत्तिमां आवे छे, परंतु श्रीकल्पसूत्रमा वर्षाऋतुने आश्रयीने विशेष विधि कहेल छे. पर्युषण करीने रहेल तथा नित्य भोजन करनारा साधुने सर्व प्रकारना (उष्ण तथा धोवण जळना एकवीश प्रकार तेम ज अन्य) जळ कल्पी शके. उपवास करनारने १ उत्स्वेदिम, २ संस्वेदिम, ३ चावलोदक, छट्ठ करनारने १ तिलोदक, २ तुषोदक अने ३ जवोदक, अठ्ठम करनारने १ आचाम्लोदक, २ सौवीर अने ३ शुद्ध विकट, अठ्ठम उपरांत एटले चार उपवासथी प्रारम्भी छ मास पर्यंत तप करनारने फक्त उकाळेलुं अने ते पण गळेलुं जळ ज कल्पे. अणशण करनारने गळेलुं ने एक वखत उकाळेलुं पाणी कल्पे. त्रण उपवास उपरांत तप करनार- शरीर देवाधिष्ठित होय छे. तेणे गळेलुं जळ थोडं थोडं पीवं. विशेष पीवाथी अजीर्णादिक व्याधिओ थाय. वळी पाणीमां हरडे प्रमुख फळ नाखवाथी पण जळ प्राशुक बने छे. श्रीबृहत्कल्पना प्रथम उद्देशाना भाष्यमां का छे के–“तुंबरे फले अ पत्ते, रुक्खसिलातप्पमद्दणाईसु। पासंदणे पवाए, आयवतत्ते वहेयवहे ॥१॥” अटवीमां विचरण करतां साधुने शुद्ध जळनो योग न थयो होय, कांजी प्रमुख प्राशुक जळ उपलब्ध थई शके तेम न होय त्यारे जे जळमां हरडाना फळ के पांदडां, खाखराना पांदडां पड्या होय ते जळने परिणित एटले प्राशुक मानवं वळी वृक्षना कोटरमां कडवां फळ के पांदडांवडे अचित्त थयेल जळ ग्रहण करवू अने तेवू पण जळ न मळे तो शिला (पत्थर)ना वचला खाडामां सूर्यना तडकाथी तपी गयेल जळ पण ग्रहण करवू. श्रीनिशीथसूत्रना भाष्यनी पीठिकामां पण आ वात जाणावी छे, परंतु महान् कारण उपस्थित थाय त्यारे ज आ पद्धतिनो उपयोग करवो. आ हकीकत गीतार्थ साधुने माटे जणावी छे, अगीतार्थ के कोई अन्य प्रकारनो साधु, आवी छूट आपेल छे एम जाणी ते प्रमाणे वर्तन करे तो संसार-परिभ्रमण वधारशे. खरी वात ए छे के-प्राण जाय तो पण सचित्त जळ ग्रहण न करवू अने ते संबंधी दृष्टांत आपणे ऊपरनी गाथामां जोई गया छीए. अहीं तो प्रसंगथी आपवादिक मार्ग दर्शाव्यो छे. हवे अग्निकाय संबंधी वर्णन करतां कहे छे के जत्थ य सूलविसूइय, अन्नयरे वा विचित्तमायके । उप्पण्णे जलणुज्जालणाइ, कीरइ न मुणि ! तयं गच्छम् ॥७९ ।। बीयपएणं सारूविगाइ-सडाइमाइएहिं च । कारिती जयणाए, गोयम ! गच्छं तयं भणियम् ॥८० ॥ [यत्र च शूले विशूचिकायां, अन्यतरस्मिन् वा विचित्रातङ्के । उत्पन्ने ज्वलनोज्वालनादि, क्रियते न मुने! सको गच्छः ॥७९॥ द्वितीयपदेन सारूपिकादि-श्रद्धादिआदिभिश्च ।। कारयन्ति यतनया, गौतम ! गच्छ: सको भणित: ॥४०॥] श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २०७ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ- -शूळ, विशूचिका के अन्य अनेक प्रकारना प्राणघातक व्याधिओ उत्पन्न थये छते जे गच्छमां मुनियो अग्निनी आरंभादिक क्रिया करता ज नथी अने अपवादरूप आवश्यक प्रसंगे यतनापूर्वक अग्निनो आरंभ साधुवेषधारी सारूपिक पासे, तेना अभावमां सिद्धपुत्र पासे, तेना अभावमां चारित्रभ्रष्ट पश्चात्कृत पासे, तेना अभावे व्रतधारी श्रावक पासे, तेना अभावे भद्रिक परिणामी अन्यदर्शनीय गृहस्थ पासे करावे तेने हे गौतम! वास्तविक गच्छ जाणवो. विवेचन - उत्सर्ग मार्ग तो एवं सूचवे छे के जीवलेण विषम व्याधिओ थाय तो पण साधु पोताना निमित्ते अग्निकायनो आरंभ करावे नहीं. साचो साधु जाणे छे के-जे वस्तु आपणे आप शकता ज नथी ते अन्य पासेथी लई लेवानो आपणने अधिकार नथी. प्राण एवी चीज छे के जे आपणे कोईने पण आपी शकता नथी तो पोताना निमित्ते अन्य जीवोनी हिंसा करवानो आपणने क्यो अधिकार छे ? आषाढाचार्ये आ नियमनो भंग कर्यो हतो तेथी तेमनी अवहेलना थई हती. वेदनीय कर्मना उदयथी व्याधिओ थाय तो तेने समभावे सहन करी ते कर्म खपाववुं ए ज श्रेष्ठ मार्ग छे; छतां पण शास्त्रकार कहे छे के कोई साधुनी सहनशक्ति सविशेष न होय, शूळ, विशूचिका जेवो अत्यंत दुःखप्रद व्याधि थयो होय अने आत्मा आर्त्त के रौद्रध्यानने वश जातो होय तेवा प्रसंगे अपवादरूपे अग्निकायनो उपयोग करवो, परंतु ते पण खप पूरतो ज अने यतना युक्त. तेना संबंधां ग्रंथकार कहे छे के-तेवा प्रसंगमां कोनी कोनी सहाय लेवी तेनो क्रम नीचे प्रमाणे जाणवो के-१ सारूपिक-माथु मुंडावे, श्वेत वस्त्र पहेरे, चोळपट्टो राखे, स्त्रीनो त्याग करे अने भिक्षा मागीने खाय ते सारूपिक कहेवाय, २ सिद्धपुत्र - स्त्री राखे अगर न राखे, सफेद वस्त्रो पहेरे, माधुं मुडांवे पण. चोटली (शिखा) राखे, पात्रा न राखे पण लोकोना गृहने विषे जईने भोजन करे, ३ पश्चात्कृत-प्रथम चारित्र ग्रहण कर्या पछी तेनो त्याग कर्यो होय तेमज वेष पण त्यजी दीधेल होय, ४ श्राद्ध- अणुव्रत स्वीकार्या होय तेवो समकिती श्रावक, ५ भद्रिक परिणामी अन्यलिंगी गृहस्थ-आ प्रमाणे एक-एकना अभावमां अन्यनी अग्निकाय संबंधमां सहाय लेवी. आ क्रिया पण यतनापूर्वक करे, एटले अग्नि मी आवे तो त्यांथी लावे, अने न मळे तो ज पोते सळगावे, इत्यादि यतनानी सविशेष विधि श्रीनिशीथसूत्रनी पीठिकामां दर्शावेल छे. हवे वनस्पतिकायना संबंधमां वर्णवतां कहे छे केपुप्फाणं बीयाणं, तयमाईणं च विविहदव्वाणं । संघट्टणपरिआवण, जत्थ न कुज्जा तयं गच्छम् ॥८१ ॥ [ पुष्पानां बीजानां, त्वगादीनां च विविधद्रव्याणाम् । सङ्घट्टनं परितापनं, यत्र न कुर्यात् स गच्छः ||८१ ।।] गाथार्थ-पुष्प बीज तथा वृक्षादिकना मूळ, पत्र, अंकुर, फल, छाल प्रमुख सचित वस्तुनो संघट्ट के परिताप आदि जे गच्छमां मुनिओ न करे ते ज गच्छने प्रमाण मानवो. विवेचन - बे प्रकारना पुष्पो होय छे. एक जळमां अने बीजा स्थळमां उत्पन्न थनारा. कमळ विगेरे जळमां अने कोरंटकादिक स्थळमां थाय छे. स्थळमां थनारा पुष्पोनां पण बे प्रकार छे. (१) श्रीगच्छाचार—पयन्ना- २०८ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमुक्तादिक वृतबद्ध अने बीजा (२) नालबद्ध, पुष्पोमां नालबद्ध संख्याता अने वृंतवद्धमां असंख्याता जीवो होय छे. स्नुहोना प्रमुख पुष्पमा अनंता जीवो होय छे. शालि (डांगर), गोघूम (घउं) अने जव विगेरे बीजो कहेवाय. वळी छाल, मूळ अंकुरा अने फळ (बोर प्रमुख) तेमज अनेक प्रकारनी वनस्पतिकायनो साधुए स्पर्श करवो घटे नहीं, तेमज ते प्रकारना वनस्पतिकायना जीवोने लेशमात्र पीडा पण न उपजावे. आवामुनिओ जे गच्छमां होय ते गच्छ सुगच्छ कहेवाय. आ उत्सर्ग मार्ग दर्शाव्यो. प्रसंगे अपवाद मार्ग- सेवन करी शकाय. श्रीआचारांगसूत्रना बीजा स्कंधना तृतीय अध्ययनना बीजा उद्देशामां का छे के- “से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणानि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा गड्डाउ वा दरीउ वा सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेजा णो उज्जुयं गच्छेज्जा, केवली बूया आयाणमेयं, से तत्थ परक्कममाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा से तत्थ पयलमाणे पवडमाणे वा रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाउ वा वल्लीउ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय २ उत्तेरज्जा, जे तत्थ पाडिपहिया उवागच्छंति ते पाणी जाएज्जा, ततो संजयामेव अवलंबिय अवलंबिय उत्तेरज्जा, ततो संजयामेव गामाणुग्गामं दूइज्जेज्जा ॥"साधुने विचरतां मार्गमा किल्लो, गढ, रण, खाडा, गुफा आवे त्यारे ते मार्गनो त्याग करीने बीजे मार्गे जवू, कारण के अन्य मार्गे न जाय तो खाडामां पडतां के गुफामां जतां वृक्ष प्रमुखनो आश्रय लेवो पडे, परन्तु जो बीजो मार्ग ज न होय तो ते मार्गे जq अने तेमां पोतानी जातने पडती अटकाववा माटे वेल, वृक्ष प्रमुखनो आधार लेवो. वळी कोई पथिक जन मळी जाय तो तेना हस्तनुं अवलंबन लेवू. आ संबंधमां कोई शंका करतां कहेशे के- आ सूत्रनो आवो अर्थ न करवो. वनस्पतिनो संघट्टो थतां हिसा थाय माटे तेवा मार्गे गमन ज न करवू ते हितावह छे. टीकाकार तेने जवाब आपतां कहे छे. के- हिंसानी एकली गणत्री कामनी नथी. नदी उतरतां पण अप्कायनी विराधना थाय छे छतां आज्ञा आपी छे तेम आ संबंधमां पण आपवादिक छूट समजवी. हवे हास्यादिकना त्यागनुं वर्णन करे छे. हासं खेड्डा कंदप्प, नाहियवायं न कीरए जत्थ। धावणडेवणलंघण-ममकारावण्णउच्चरणम् ।।८२ ।। [हास्यं खेला कान्दी, नास्तिकवादोन क्रियते यत्र । धावनं डेपनलड्यनं, ममकारोऽवोच्चारणम् ।।८२॥] गाथार्थ-हास्य, बाळक्रीडा, कामकथादिक कुचेष्टा, नास्तिकवाद अकाळे (वर्षाकल्प) कारण वगर लुगडां धोवां, वंडी तथा खाडादिक ठेकवा, साधु या श्रावक प्रत्ये क्रोधादिकथी लांघण करवी, वस्त्र-पात्र ऊपर ममता राखवी तेमज पूज्य वडील जनना अवर्णवाद बोलवा-आ बधी क्रियाओ जे गच्छमां न थती होय ते गच्छ सम्यग् गच्छ जाणवो. विवेचन-सोगठां रमवा, कोडीथी रमवं ते क्रीडा कहेवाय. कोई कहे के- ज्ञानबाजी रमवामां हरकत शी छे? तेनो पण शास्त्रकार निषेध करतां कहे छे के-ते पण जुगारनो एक प्रकार छे, माटे श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २०९ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवी क्रीडा न ज करवी. इंद्रजालादिक क्रिया पण कौतुकरूप छे, माटे तेवी पण क्रीडा न ज करवी. कामकथादिक कुचेष्टा पांच प्रकारनी छे, ते आ प्रमाणे- १ कंदर्पी, २ आभियोगिकी, ३ किल्बिषिकी, ४ आसुरी अने ५ मोही. (१) कंदप- श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमां प्रांते कह्यं छे के- “कंदप्पकोकुयाई, तहसीलसहावहाविगहाहि । विम्हाविंतो अ परं, कंदप्पं भावणं कुणइ || १ || ” अत्यन्त हसवं, निरर्थक बोलवु गुरु प्रमुख वडील जन प्रत्ये निष्ठर वचन बोलवु कामभोगनी वातो करवी, तेनी प्रशंसा करवी ते कंदर्प्प कहेवाय. हसतो हसतो आँख या भृकुटी एवी करे जेथी अन्य जनो हसे कायकौकुच्य कहेवाय अने जे वाणी वदवाथी लोको हसी पडे अथवा बिलाडी, गाय, बकरी प्रमुखनी भाषा बोली अन्य जनोने हसावे ते वचन कौकुच्य कहेवाय छे. उपहास, ठठ्ठा-मश्करी करी लोकोने हसावे तेवो साधु तेवा अभ्यासने अंगे काळ करीने हलकी कोटिनो एटले कंदर्प जातिनो देव थाय. (२) आभियोगिकी-“मंताजोगं काउं, भूईकम्मं च जे पउंजंति । सायरसइड्ढिहेडं, अभिओगं भावणं कुणइ ।।२ ।।” वशीकरण आदि मन्त्र साधे, चूर्णद्वारा सुवर्णादिक सिद्धि करे, रक्षार्थे राखडी बांधे, मिष्ट भोजनार्थे या अन्य सुखाभिलाषाथी कौतुक करे ते आभियोगिक चेष्टा जाणवी अने तेना अभ्यासथी साधु काळ करी आभियोगिक (किंकरस्थानीय) देव थाय. ऊपरना श्लोकमा मन्त्रादिकनो प्रयोग पोताना सुखने अर्थे करवानो निषेध कर्यो छे, आपवादिक प्रसंगे शासनोद्योतना कार्यमां मन्त्रप्रयोग करवानो निषेध न जाणवो. (३) किल्बिषिकी- “ नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघसाहूणं । माई अवण्णवाई, किव्विसियं भावणं कुणइ || ३ |” ज्ञान, केवळी, धर्माचार्य (पोताने धर्म पमाडनार) तथा साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविकारूप चतुर्विधधर्मन अवर्णवाद (निंदा) ते किल्बिषिकी. तेज काया (शरीर) छे, तेज व्रतो छे, प्रमाद अने अप्रमाद विगेरे पण तेज छे तो मोक्षाभिलाषीए योनि तथा ज्योति विगेरेनुं ज्ञान प्राप्त शा माटे करवुं ? वळी ज्ञान भणीने शुं करवुं छे ? अज्ञानी होय तेने पाप न लागे अने घणुं भणेल घणुं अभिमान करे माटे ज्ञाननी रुरियात नथी आ प्रमाणे कहे ते ज्ञाननिन्दा, केवळज्ञान ने केवळदर्शननो क्रमे क्रमे उपयोग थाय छे एटले ज्यारे ज्ञाननो उपयोग होय त्यारे दर्शननुं आवरण अने दर्शननो उपयोग होय त्यारे ज्ञाननुं आवरण थाय. वळी जो बन्ने एक साथे थाय तेम मानशो तो ज्ञान ने दर्शन एक थई जशे तो तेने बे केम मानवा ? आ प्रमाणे बोले ते केवळीनी निन्दा, आ आचार्य हलका कुळमां जन्मेला छे, आचारविचारनुं तेमने भान नथी, नीच जातिमा जन्मेला विशेष शुं जाणे ? इत्यादिक प्रकारे कहे ते धर्माचार्यनिन्दा, घणा शियाळोनो समूह सिंहने शुं करी शके ? तेम आ संघ मने शुं करवानो छे ? एम विविध प्रकारे संघनी विडंबना करे ते संघनिन्दा, साधुओ परस्पर संपीने रही शकता नथी माटे जुदी जुदी दिशामा चाल्या जाय छे, वळी चालवामां घणा समर्थ होय छतां बगलानी पेठे कपट राखीने मंद गतिए चाले छे-आ प्रमाणे विविध प्रकारे साधु संबंधी विपरीत वर्णन करवुं ते साधुनिन्दा, एवीज रीते साध्वी, श्रावक अने श्राविकानी निंदा पण जाणी लेवी. आवा प्रकारनो निंदाखोर माणस काळ करीने अस्पृश्य जाति जेवा किल्बिषीया देवोमां उपजे छे. (४) आसुरी- “अणुबद्धरोसपसरो, तह य निमित्तंमि होइ पडिसेवी । एएहिं कारणेहिं, आसुरियं भावणं कुणइ ||४ ||” हमेशां क्रोधी श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २१० Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहेनारो अने कारण विना पण अतीत, अनागत अने वर्तमान ए त्रणे काळना निमित्तो कह्या करे ते आसुरी भावना कहेवाय, अने आवी भावनावाळो साधु काळ करीने असुर देवनिकायमां उपजे छे. (५) मोही-“सत्यग्गहणं विसभक्खणं च, जलणं च जलपवेसो अ। अणयारभंडसेवा, जम्मणमरणाणि बंधन्ति ॥५॥" खड्गादिक शस्त्रथी, विषभक्षणथी, अग्निमां झंपापात करवाथी, जळमां डूबी जवाथी पोताना आत्मानो घात करे तेमज शास्त्रमर्यादामां न रहेता उपकरण प्रमुख भोगवे तो सन्मार्ग मूकी उन्मार्ग- सेवन कर्यु कहेवाय अने तेथी संसारमा अनंता भवो करवा पडे. मोही भावनानुं लक्षण का छे के–“उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ, मग्गविप्पडीवत्ती। मोहणे य मोहित्ता, सम्मोहं भावणं कुणइ ॥१॥" मिथ्या मार्ग एटले हिंसादिनो मार्ग ग्रहण करे अने सन्मार्गनो नाश करावे-त्यजावे तेमज मोहथी मोहित थयो होय तेने मोही भावनावाळो कहेवाय. हवे आ बाबतमां कोई शंका करतां पूछे छे के-पूर्वे भावनानुं फळ देवगति जणावी छे अने पाछळथी अन्य (भवभ्रमण) फळ दर्शाव्युं छे तो परस्पर विरोध नहीं आवे? तेनो खुलासो आपतां ग्रंथकार जणावे छे के - अनंतर फळ देवगति जाणवी, परंपर फळ तो अनंत संसार परिभ्रमण ज जाणवू. साधुपणामां किंचित् द्रव्यक्रिया करे तेथी नीच देवपणुं प्राप्त थाय अने ते पापानुबंधी पुण्य खलास थई जाय त्यारे परंपर फळ पामे. का छे के–“एयाउ भावणाओ, भाविता देवदुग्गइंजंति । तत्तोय चुया संता, पडंति भवसागरमणंतम् ॥१॥"आवा प्रकारनी भावना भावीने साधु देवरूप दुर्गतिमां जाय एटले नीच देव थाय अने त्यांथी च्यवीने अनंत जन्म-मरणरूप भवसागरमां भटके. आवी भावनावाळा साधुओ जे गच्छमां न होय ते सुगच्छ जाणवो. जीवाजीवादिक पदार्थने न माने ते नास्तिक कहेवाय. तेओ कहे छे के–“सन्ति पंच महब्भूया, इहमेगेसिमाहिया । पुढवी १ आऊ २ तेऊ ३, वाऊ ४ आगासपंचमा ५ ॥१॥" १ पृथ्वी-कठिनतारूप, २ पाणी-द्रव (पातळापणा) रूप, ३ तेज-अग्नि उष्णतारूप, ४ वायु-हलनचलनरूप अने ५ आकाश-पोलाण, शून्यरूप-आ पांच प्रकारना महाभूतो सर्वत्र व्यापी रहेल छे. आ पांचे महाभूतो सर्व बाल-गोपालमांप्रत्यक्ष नजरे पडे छे; माटे कोई पण आ महाभूतोनो निरास करी शके तेम नथी. आ पांचे महाभूतो एकत्र थाय त्यारे शरीर, जीव एवो आत्मा थाय छे. आ भूतोथी भिन्न एवो कोई पदार्थ नथी तेम आत्मा पण नथी. आ प्रमाणे नास्तिकवादीनुं कथन छे, तेमां कोई शंका करी तेमने पूछे छे के-जो तमो एम कहेशो तो कोई जीव मरण पामे छे त्यारे तमे कोने मरण पामेलो मानशो? तेना जवाबमां नास्तिकवादी कहे छे के – कोईनुं देवदत्त एवं नाम होय अने ते मरण पामे त्यारे पांच महाभूतो पैकी अग्नि के वायुनो नाश थयो होय. लोको शरीरधारी देवदत्तनो नाश थयो एम कहे छे अने तेथी देवदत्त मरी गयो एम जणावे छे. जीव मरीने परलोकमां जाय एवो कोई जीव ज नथी. आवा प्रकारचं नास्तिक मतवादी- कथन श्रीसुयगडांगसूत्रमां विस्तारथी दर्शावेल छे. तेनो सचोट उत्तर ते ज स्थळे आपवामां आव्यो छे. वळी श्रीदशवैकालिक सूत्रनी नियुक्तिमां पण का छे के श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २११ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थि त्ति दारमहुणा, जीवो अत्थि त्ति विज्जए नियमा । लोगाययमयघायस्थ - मुच्चए तत्थिमो हेऊ ॥१॥ जो चिंतेइ सरीरे, नत्थि अहं स इव होइ जीवु त्ति। न हु जीवस्मि असंते, संसयउप्पायओ अन्नो ॥२॥ जीवस्स एस धम्मो, जा ईहा अत्थि नत्थि वा जीवो । थाणुमणुस्साणुगया, जह ईहा देवदत्तस्स ॥३॥ सिद्धं जीवस्स अस्थित्तं, सद्दादेवाणुमीयए । नासओ भुवि भावस्स, सद्दो होइ केवलो ॥४॥ अस्थि त्ति निव्विगप्पो, जीवो नियमाउ सद्दओ सिद्धी । कम्हा सुद्धपयत्ता, घडखरसिंगाणुमाणाओ ॥५॥ सुद्धपयत्ता सिद्धी, जइ एवं सुन्नसिद्धि अम्हंपि । तं न भवइ संतेणं, जं सुन्नं सुन्नगेहं व ॥६ ।। मिच्छा भवे उ सव्वस्था, जे केइ पारलोइया । कत्ता चेवोपभुत्ता य, जह जीवो न विज्जइ ॥७॥ पाणिदया तव नियमा, बंभं दिक्खा य इंदियनिरोहो । सव्वनिरत्ययमेयं, जइ जीवो न विज्जइ ।।८।। लोइआ वेइआ चेव, तहा सामाइआ विऊ। निच्चो जीवोपि हू देहा, इइ सव्वे ववत्थिया ॥९॥ लोए अच्छिज्जभिज्जो, वेए सपुरीसदड्ढगसियालो। समए अहमासि गओ, तिविहो दिव्वाइसंसारो ॥१० ।। अस्थि सरीरविधाता, पडिनिअताकारमाइभावाओ । कुंभस्स जह कुलालो, सो मुत्तो कम्मसंजोगा ॥११॥ फरिसेण जहा वाऊ, गिज्झइ कायसंसिओ। नाणाइहिं तहा जीवो, गिज्झइ कायसंसिओ ॥१२॥ अणिंदियगुणं जीवं, दुन्नेयं मंसचक्खुणा । सिद्धा पासंति सव्वण्णू, नाणसिद्धा य साहुणो ॥१३ ॥ हवे आस्तिकद्वार एटले जीव चोक्कस विद्यमान छे ते जणावे छे. नास्तिक मतना खंडन अर्थे जीवनी विद्यमानता जणावे छे. (१) जे कोई ‘हुं शरीरमां नथी' एवं चिंतवे छे ते चितवनारो कोण छे? ते ज जीव जाणवो. जीव विना संशय उपजावनार बीजो कोई नथी, कारण के भूतोमा तेवी शक्ति नथी ज. (२) 'विचार करवो' ए ज जीवनो धर्म छे, कारण के छता पदार्थनो विचार अजीव श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २१२ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करी शके ज नहीं. दा.त. दूरथी झाडनुं देखीने विचार थाय छे के आ पुरुष छे के ढूंछु ? आवो (इहा) विचार पुरुषने थयो पण लूंठाने न थयो तेथी जीवनो स्वभाव 'विचार' छे. (३) 'जीव' एवो शब्द बोलवाथी ज जीवनुं अस्तित्व साबित थाय छे. आ अनुमान खोटुं नथी कारण के जे अविद्यमान छे तेनो स्वतंत्र शब्द छ ज नहीं. जे केवळ शब्द छे ते पदार्थ अवश्य छे. दा.त. खर विषाण-गधेडाना शींगडा. आ वस्तु एक साथे घटी शके नहीं, कारण के गधेडाने शींगडा होता ज नथी, पण जो खर = गधेडो अने विषाण = शींगडा भिन्न भिन्न शब्दो लईए तो घटी शके. आ असंजोगी शब्द छे, एटले तेनी विद्यमानता न होय. तेवी जरीते आकाशपुष्प आकाश, फूल, आकाश अवकाशरूप होई त्यां कदापि पुष्पोत्पत्ति होई शके ज नहीं. आकाश अने पुष्प भिन्न भिन्न मानीए तो बंने घटी शके. जीव शब्द एकलो ज छे तेथी ते घटी शके छे. (४) शुद्ध घट, पट, खर इत्यादि शब्दोना अनुमानथी जीव छे, तेमां कांई पण विकल्प नथी. घट, पट इत्यादि शब्दो छे तेम निश्चयथी शब्दद्वारा जीवनी सिद्धि थाय छे. (५) आ संबंधमां नास्तिकवादी शंका करतां प्रश्न उठावे छे के-शुद्ध शब्द छे मारे जीवनी सिद्धि करो छो तो पण अमारा शून्य, नष्ट एवा शब्दो पण शुद्ध ज छे, माटे अमारु कथन पण सत्य ज छे. तेनो जवाब आपतां कहे छे के-शून्यने शून्य के नष्टने नष्ट कहीए ते बराबर कहेवाय परंतु जे विद्यमान होय तेने शून्य के नष्ट केम कहेवाय? देवदत्त घरमां न होय त्यारे ते गृह शून्य कहेवाय परंतु ते गृहमां बेठो होय छतां तेने शून्य केम कहेवाय? कोई पण एक स्थळे घडो न होय तो तेने नष्ट कहेवाय परंतु छते घडे नष्ट न कहेवाय. आ नयथी जीव शब्दनं छतापणं होवाथी तेनुं नास्तिपणुं केम कहेवाय? जो जीव न होय तो नास्ति कहेवाय पण वाच्यवाचकभाव छते ते नास्ति न कहेवाय. (६) जो जीव नथी एम मानीए तो परलोकादिक सर्व असत्य ठरे अने ते जूठा होय तो कर्ता अने भोक्ता कोई पण निर्णीत नहीं थाय. (७) जो जीव नथी तो जीवदया पाळवी, विवेक आचरवो, तपश्चर्या करवी, ब्रह्मचर्य- पालन करवू, दीक्षा ग्रहण करवी तथा इंद्रियोनो निरोध करवो इत्यादि सर्व निर्रथक ज निवडे. (८) पुराणना रचनाराओ, वैद्यो तथा वैदिकमतिओ, त्रिपिटकादि मतधारी अने शैवधर्मी पंडितो कहे छे के-जीव नित्य छे, अनित्य नथी. केटलाक एम पण अभिप्राय धरावे छे के-शरीरथी जीव भिन्न छे. जो जीव न मानो तो ते सर्वना मतमां बतावेल नीचे प्रमाणेजीवनुं लक्षण निष्फळ निवडशे. (९) भगवद्गीतामां जीवने अंगे का छे के-अच्छेद्योऽयमभेद्योऽय-मविकार्योऽयमुच्यते । नित्य: सततग: स्थाणू-रचलोऽयं सनातनः ।। वेदमां पण का छे के-शृगालो वै एष जायते य: सपुरीषो दहते-जे पुरीष सहित बळे छे ते मरीने शियाळ थाय छे. वळी त्रिपिटकमां का छे के-अहमासीत् गज: । एटले हुं हाथी हतो. वळी केटलाक अन्य मतिओ त्रण प्रकार नी (देव, तिर्यंच अने मनुष्य) अने केटलाक चार प्रकार नो (देव, मनुष्य, तिर्यंच अने नरक) संसार माने छे. जो जीव न मानीए तो ऊपर कहेल सर्व दृष्टांतो निष्फळ जाय. (१०) शरीर नो कर्ता अने शरीर थी भिन्न थनार कोई जीव छे. जेम कुंभार घड़ा नो कर्ता छे पण ते बने एक ज नथी. तेवी रीते जीव ज्यारे कर्मथी मुक्त थाय छे त्यारे सिद्ध बने छे. (११) कोई कहेशे के ते केवी रीते जाणी शकाय? अमने जीव तथा शरीर जुदा करी देखाडो. तेनो जवाब आपतां श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २१३ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहे छे – जेम वायु ने आपणे जोई शकता नथी छतां स्पर्श लागवाथी जाणी शकीए छीए के वायु छे तेमज्ञानादिक गुणोए करीने जीव जाणी शकाय छे. (१२) जीव अतींद्रिय छे एटले नेत्रथी जोवामां न आवे परंतु केवळी भगवंत तथा ज्ञानी साधु तेना स्वरूप ने जाणे- देखे छे तेथी ते प्रत्यक्ष सिद्ध छे. आपणी तो चर्मचक्षु छे तेथी आपणे जीव ने प्रत्यक्ष जोई शकीए ज नहिं, पण अनुमान थी जाणी शकाय. (१३) जेओ आ प्रमाणे जीवनी मान्यता स्वीकारता नथी ते नास्तिकवादी छे. हजी पण विशेष पुष्टि माटे संपूर्ण जीवस्थापन - कुलक जणावे छे जीवो अणाइनिहणो, अविणासी अक्खओ धुवो निच्चम् । दव्वट्टयाइनिच्चो, पारियायगुणेहि य अणिच्चो ॥१ ॥ जह पंजराउ सउणी, घडाउ बयराणि कंचुआ पुरिसो । एवं न चेव भिन्नो, जीवो देहाउ संसारी ॥ २ ॥ जह खीरोदगतिलतिल्ल कुसुमगंधाण दीसइ न भेओ । तह चेव न जीवस्सवि, देहादच्चंतिओ भेओ ॥३ ॥ संको अविकोएहि अ, जहक्कमं देहलोअमित्तो वा । हथिस्स व कुंथुस्स व, पएससंखा समा चेव ॥४॥ कालो जहा अणाई, अविणासी होइ तिसु वि कालेसु । तह जीवो वि अणाई, अविणासी तिसु वि कालेसु ॥ ५ ॥ गयणं जहा अरुवी, अवगाहगुणेण घिप्पई तं तु । जीव हा अरुवी, विन्नाणगुणेण घित्तव्व ॥ ६ ॥ जह पुढवी अविणट्ठा, आहारो होइ सव्वदव्वाणं । तह आहारो जीवो, नाणाईणं गुणगणाणं ॥ ७ ॥ अक्खयमणंतमउलं, जह गयणं होइ तिसु वि कालेसु । तह जीवो अविणासी, अवट्ठिओ तिसु वि कालेसु ॥८ ॥ जह कणगाओ कीरंति, पज्जवा मउडकुंडलाईया | दव्वं कणगं तं चिय, नामविसेसो इमो अन्नो ॥ ९ ॥ एवं चउग्गईए, परिब्भमंतस्स जीवकणगस्स । नामा बहुविहाई, जीवदव्वं तयं चेव ॥ १० ॥ जह कम्मयरो कम्मं, करेइ भुंजेइ सो फलं तस्स । तह जीवो वि अ कम्मं, करेइ भुंजेइ तस्स फलम् ॥११॥ उज्जोवेडं दिवसं, जह सूरो वच्चई पुणो अत्थं । नय दीसइ सो सूरो, अन्नं खित्तं पयासंतो ॥ १२ ॥ श्रीगच्छाचार - पयन्ना— २१४ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जह सूरो तह जीवो, भवंतरं वच्चए पुणो अत्रम् । तत्थ वि सरीरमन्नं, खित्तं व रवी पयासेइ ॥ १३ ॥ फुलुप्पलकमलाणं, चंदणअगरुण सुरहिगंधीगणम् । घिप्पड़ नासाइ गुणो, नय रुवं दीसए तेसिं ॥ १४ ॥ एवं नाणगुणेणं, घिप्पड़ जीवो वि बुद्धिमंतेहिं । जह गंधो तह जीवो, न हु सक्खा कीरए भित्तुम् ॥१५ ॥ भंभामउद्दमद्दल-पणवमकुंदाण संखसन्नाणम् । सद्दच्चिय सुव्वइ, केवलु त्ति न हु दीसइ रुवम् ॥१६ ॥ पच्चक्खं गहगहिओ, दीसइ पुरिसो न दीसड़ पिसाओ । आगरेहि मुणिज्ज, एवं जीवो वि देहट्टिओ ॥ १७ ॥। हसइ विरुसइ रुस, नच्चड़ गाएइ रुयइ सुहदुक्खम् । जीवो देहमइगओ, विविपयारं पयंसेइ ॥ १८ ॥ जह आहारो भुत्तो, जिआण परिणमइ सत्तभेएहिं । वस १ सोणिय २ मंस ३-ट्ठिअ ४, मज्जा ५ तह मेय ६ सुक्केहिं ७ ॥१९॥ एवं अट्ठविहं चिअ, जीवेण अणाइसहायं कम्मम् । जह कणग पाहाणे, अणाइसंजोगनिष्फन्नम् ॥२० ॥ जीवस्य कम्मस्स य, अणाइमं चेव होड़ संजोगो । सो वि उवाएण पुढो, कीरइ न बलाउ जह कणगम् ॥२१॥ ज(इ) ह पुव्वयरं कम्मं, जीवो वा जइ हविज्ज वइ कोइ । सो वत्तव्वो कुक्कुडि-अंडाणं भणसु को पढमो ।।२२ ।। जह अंडसंभवा, कुक्कुडि त्ति अंडं च कुक्कुडिड्भवं । नय पुव्वावर भावो, जह तह कम्माण जीवाणम् ॥ २३ ॥ अणुमाणपहे सिद्धं, छउमत्थाणं जिणाण पच्चक्खम् । गिहसु गणहर ! जीवं, अणाइयं अक्खयसरूवम् ॥२४॥ कत्थ य जीवो बलिओ, कत्थ य कम्माइ हुन्ति बलियाई । जीवसम्म, पुव्वनिबद्धाइ वेराइं ॥ २५ ॥ इति जीवस्थापनकुलकम् ॥ जीव अनादिअनंत छे, एटले तेनी आदि नथी तेम अंत पण नथी, अविनाशी, अक्षय, ध्रुव- अचलायमान अने द्रव्यार्थनयवड़े नित्य अने पर्यायार्थनयवड़े अनित्य छे. चारे गतिमां जन्म, मरणादिक पर्यायो करे छे ते हेतुथी पर्यायार्थिकनयवड़े अनित्य दर्शाव्यो छे. (१) प्रतिवादी शंका श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २१५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करतां कहे छ के-तो तमे जीवने जुदो करी बतावा, तेनो उत्तर ए छे के-जेम पांजरामा पक्षी, घड़ामां बोर अने कंचुक (चोळी) थी मानवी भिन्न छ तेम शरीरथी जीव भिन्न नथी तो केवी रीते देखाड़ी शकाय? अनुमानप्रमाणथी ज ते जाणी शकाय. (२) दूध अने पाणी, तिल ने तेल, पुष्प ने सुगंध साथे होवार्थी जेम ते भिन्न भिन्न देखाती नथी तेम जीव अने शरीरनो भेद देखातो नथी. (३) जीवनो संकोच-विकोच एटले ह्रस्व, दीर्घ थाय छे. जरूर पड्ये ते चांदराजलोकप्रमाण विशाळ थई शके छे. कुंथुआना शरीरमां तेना जेवड़ो ह्रस्व अने हस्तिना देहमां तेना जेवड़ो दीर्घ थाय तो पण बंने शरीरमां प्रदेश तो असंख्याता ज छे. (४) जेम काळ अनादि अने अविनाशी छे छतां त्रणे काळ-अतीत, अनागत अने वर्तमान-मां सदा काळ छ तेम जीव अविनाशी अने अनादि होवा छतां हमेश छे. (५) कोई कहे छे के-जीव अरुपी छे, तेने ज्ञान गुणद्वारा जाणी शकाय, दा.त. जेम आकाश अरूपी छे छतां तेनो गुण अवकाश छे तम जीवनो गुण ज्ञान छे. (६) जेम पृथ्वी सर्व द्रव्यना आधारभूत छे एटले रूपी द्रव्यनो आधार पृथ्वी छे तेम ज्ञानादिक गुणसमूहनो आधार जीव छे. (७) जेम अक्षय, अनंत ने निर्मळ आकाश त्रण काळने विषे छे, छे ने छ ज तेवी जरीते त्रण काळने विषे अविनाशी, अवस्थित एवो जीव छे, छे ने छे ज.(८) जीव मृत्यु पामीने जुदा जुदा प्रकारनो केम थाय छे ? तेना खुलासामां जणावे छे के-कोई सुवर्णना कडा, मुकुट, कुंडल विगेरे विविध प्रकारना घाट घडावे पण ते सर्वमां सवर्ण तो तेनं ते ज छे पण रूप-पर्याय नवा थया ते प्रमाण जीव मत्य पामीने नरक गति तिमां. तिर्यंचपणामां, मनुष्यमां, देवमां, स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण, क्षत्रिय-एम विविध प्रकारे उपजे ते तेना पर्यायो समजवा; जीव द्रव्य जे छे ते तो तेनुं ते ज छे; तेमां कई पण फेरफार थतो नथी. (९-१०) जे प्राणी जेवं कार्य करे ते तेवं कर्मफळ भोगवे तेम जीव पण कर्म बांधे तेनो रस-फळ भोगवे. (११) जेम सूर्य दिवसे प्रकाश करीने अस्त थाय अने पछी बीजा क्षेत्रमा प्रकाश करे पण नाश न पामे तेम जीव पण भवांतरमा जईने बीजा शरीर धारण करे छे, पण नाश पामतो नथी.(१२-१३) कोई कहे के-जीवनुं स्वरूप तो देखातुं नथी तेनुं केम? तेनो जवाब ए छे के - कमळ प्रमुखना पुष्पमां, चंदन तथा अगुरु धूपमा सुगंध होवा छतां ते जणाती नथी पण नासिकाद्वारा ते जाणी शकाय छे के-आ अमुक पुष्पनी सुगंध छे तेम बुद्धिवंत पुरुष ज्ञान-गुणद्वारा जीवने जाणी शके. जेम नेत्रथी सुगंध न पारखी शकाय तेम अज्ञानी प्राणी जीवने जाणी शकतो नथी. (१४-१५) भेरी, मृदंग, वीणा, ढोल विगेरे वाजिंत्रोना शब्द संभळाय छे, पण जोवाता नथी. वळी कोई माणसने भूत वळग्युं होय त्यारे ते माणसने आपणे जोईए छीए, भूत-पिशाचने जोई शकता नथी पण मानीए छीए के पुरुषना शरीरमां पिशाच छे तेम इलन चलन श्रासोनास विगरे कारणोथी आपण जाणी शकीए के शरीरमां जीव छे जे दाप्रिथी देखातो नथी.(१६-१७) वळी कोई प्राणी क्रोध करे, नाचे, गाय, रोवे, सुख-दुःख अनुभवे-आ प्रकारनां लक्षणोद्वारा शरीरमा रहेलो जीव जाणी शकाय छे. (१८) जे आहार आपणे करीए छीए ते सात प्रकारे-१ चरबी, २ लोही, ३ हाडकां, ४ मांस, ५ मज्जा, ६ भेद अने ७ वीर्यरूपे परिणमे छे तेवी रीते जीवने आटे कर्म लागेला छे. जेम सुवर्ण अने पाषाणनो संजोग अनादि छे तेम जीव अने कर्मनो संजोग पण अनादि छे. (१९-२०) जो अनादि संजोग छे तो तेने केम दूर करी शकाय? ते प्रश्नो उत्तर आपतां जणावे छे के-जेम पाषाण ने सुवर्णनो अनादि संयोग अग्निद्वारा छूटी जाय छे तेम श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २१६ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप-जपादिद्वारा कर्मनो जीव साथेनो अनादि संयोग पण नाश पामी जाय. (२१) कोई प्रश्न करे के-जीव पहेलो के कर्म? तेना जवाबमां तेने पूछवू के-कुकडी पहेली के इंडु ? तेना जवाबमां ते कहेशे के-तेमां पहेलुं अने पछी जेवू कंई नथी ते ज रीते जीवने कर्ममां पण पूर्वापर जेवू कंई नथी. (२२-२३) छद्मस्थ प्राणिओ जीवने अनुमान प्रमाणथी जाणे अने केवळी भगवंत तो प्रत्यक्ष देखे छे माटे जीव छे तेवू सिद्ध कथन ग्रहण कर. (२४) कोईक प्रश्न करे के-जीव बलवान के कर्म? तेनो खुलासो ए छे के-कोईक स्थळे जीव बळवान अने कोईकं स्थळे कर्म बळवान जाणवू. जीवने कर्मनो संबंध पूर्व काळनो छे, नवो संयोग नथी. (२५) जीवस्थापनाकुलक-माहेनो विचार जाणी कदापि नास्तिकवाद ग्रहण न करवो.. ___ नास्तिकवादनो बीजो अर्थ ए पण छे के-धूर्तनी माफक असंबद्ध के निर्रथक वचन उच्चारवा. ते संबंधमां धूतोंर्नु दृष्टांत आपतां जणावे छे के अवंती देशनी उज्जैनी नगरीनी उत्तर दिशामां जीर्ण नामना उद्यानमां घणा धूतों (ठगारा) भेगा थया. तेमां १ शशक, २ एलासाढ, ३ मूलदेव अने ४ खंडपाणा स्त्री-आ चार मुख्य हता. पहेला त्रण पांच सौ धूतॊना उपरी हता अने खंडपाणा पांच सौ स्त्रीनी स्वामिनी हती. एकदा अतिवृष्टि थवा लागी. सात दिवस पसार थई गया छतां वृष्टि चालु ज रही एटले चारे धूतों विचारवा लाग्या ते-आपणने भूख लागी छे. आ अतिवृष्टिना समयमां कोण खवरावे? त्यारे मूळदेव बोल्यो के-जेणे जेवू देख्यु के सांभळ्यु होय तेनी वार्ता कहे. ते कथा सांभळीने जे तेने जूठी कहे ते सर्व धूनि भोजन करावे. कथा सांभळीने बाकीना तेने उपनयथी घटावे-सत्य समजावे तो काई पण भोजन न करावे. धूर्तीए मूलदेवतुं कथन स्वीकार्यु अने पहेली कथा एलासाढे शरू करी-हुँ एकदा केटलीक गायोने लईने अटवीमां गयो. तेवामां त्यां केटलाक चोरो आव्या एटले में मारी कांबळी पाथरीने तेमां सर्व गायोने बांधी लीधी. पोटकुं माथे मूकी हुं चाळी नीकळ्यो. नजीकना गाममा गयो त्यां केटलाक गोवाळो रमता हता तेनी रमत जोवा ऊभो रह्यो तेवामां किलकिलाहट करतां ते चोरो पण मारी पाछळ त्यां आवी पहोंच्या एटले गोवाळो, गाम अने हुं एक चीभडामां पेसी गया. ते चीभडाने एक बकरी गळी गई. ते बकरीने एक अजगर गळी गयो. अजगरने ढींकण नामनुं पक्षी गळी जईने उड्युं अने वडलाना मोटा झाड ऊपर जई बेलु. एक पग झाड नीचे लटकतो राख्यो तेवामां राजाए पोताना लश्कर साथे झाडनी नीचे पडाव नाख्यो. पक्षीना लटकता पगने वडवाई समजी त्यां हाथी बांध्यो तेवामां ढींकण पक्षी उड्यु एटले हाथी पण आकाशमां उछळ्यो. आ प्रमाणे जोई सैनिकोए राजाने वात करी. राजाए शब्दवेधी बाण चलावनारने हुकम को एटले तेणे बाण चलाव्यु. पक्षी मृत्यु पामी भूमि ऊपर पड्युं. राजाए तेनुं पेट चीराव्यु तो अजगर नीकळ्यो. अजगरने फाड्यो तो बकरी नीकळी, बकरीमाथी चीभडुं नीकळ्यु. चीभडामांथी गाम, गोवाळो, गायो अने हुं नीकळ्या. सर्व लोक पोतपोताना स्थाने गया अने हुं पण गायोने मूकीने अहीं तमारी पासे आव्यो. कहो भाईओ, मारी वात साची के नहीं ? सर्व धूर्तीए का के-तारी वार्ता साची साची ज छे; तेमां कांई पण असत्य नथी. एटले एलासढे पुन: का के-गायो कांबळीमां केम समाई अने आखं गाम चीभडामां केम श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २१७ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रही शके? त्यारे बाकीना त्रणे धूर्तो बोल्या-भाई, तेमां शुं आश्चर्य छे? तें महाभारत सांभळ्यु नथी? तेमां का छे के-पहेला आ जगत् जळमय हतुं. तेमां एक इंडं उत्पन्न थयु. तेमांथी पर्वत, वन, नगर, सर्व उपज्यु. जेम इंडामां सर्व समा| तेम तारी कांबळमां गायो समाई. वळी तुं कहे छे के-ढींकणना पेटमां अजगर, अजगरना उदरमां बकरी, बकरीना पेटमां चीभडं अने चीभडामां गोवाळ, गाय विगेरे केम समाई शके? तेनुं कारण ए छे के-विष्णुना पेटमां सुर, असुर, तिर्यंच, वन, पर्वतादिक सर्व समाणा, ते विष्णु देवकीजीना उदरमा रह्या, देवकी पण शय्यामां समाया. आ सर्व पुराण कथा साची होय तो तारी वात केम असत्य मनाय? बाद शशक कहेवा लाग्यो के-अमे खेतरमा तल वाव्या. शरद् ऋतुमां एटले आसो मासमां अमे तल कापवा गया त्यारे जोयुं तो तलनुं झाड एवं विशाळ थयेलु के-कुहाडाथी कापीए तो पण कपाय नहीं तेथी हुं ते झाडनी चारे तरफ भमवा लाग्यो तेवामां एक हाथी त्यां आव्यो अने मने मारवा माटे दोड्यो एटले हुं नासवा लाग्यो, परंतु कोई पण आश्रयस्थान न मळवाथी हुं ते तलना झाड ऊपर चढी गयो. हाथी त्यां आव्यो पण हुं ऊपर होवाथी कंई करी शक्यो नहीं एटले गुस्से थईने तलना झाडने सुंढमां पकडीने धूजाववा लाग्यो. आम थवाथी झाड ऊपरना तल मेघवृष्टिनी जेम नीचे खरवा लाग्या अने तेमां हाथी चारे तरफ फरवाथी घाणीमां पीलाय तेम तल पीलाई गया. तेलनी महानदी वहेवा लागी. पृथ्वी ऊपर कचरो जामी गयो तेमां हांथी खुंची गयो अने मृत्यु पाम्यो एटले में नीचे उतरी ते हाथीनुं चर्म लई लीधुं. तेनो एक दडो बनाव्यो. मने भूख लागी होवाथी भार प्रमाण (पुष्कळ) खोळ खाधो अने दश घडा तेल पीएं. पछी तेल भरेलो दडो खभा ऊपर लईने हुं गाम तरफ चाल्यो. गाम बहार झाड ऊपर ते दडो मूकीने हुं घरे गयो. पुत्रने का के-गाम बहार झाड ऊपर दडो मूक्यो छे ते लई आव. मारो पुत्र गयो तो खरो पण तेने दडो मळ्यो नहीं एटले आलुं झाड उपाडीने घरे आव्यो. ते तेलनो दडो घरमां मूकीने अने ते झाड जोईने चाल्यो आq छु. बोलो भाईओ, आ वात साची के नहीं ? बधा धूर्तोए का के- तें कह्यं ते सत्य छे. त्यारे तेणे पुन: का के-कई रीते साची ते जणावो. बधा धूर्तीए का के-आवी घटना पूर्वे बनी गई छे. महाभारत तथा रामायणमां अमे सांभळी छे. का छे के-“तेषां कटतटभ्रष्टै-गजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥१॥" अर्थात् राम ज्यारे युद्ध करवा उद्युक्त थया त्यारे तेमनी साथे जे हाथीओ हता तेना गंडस्थळमाथी एटलो बधो मद झयों के तेनी नदी वहेवा लागी अने तेना प्रवाहमां हाथी, घोडा तथा रथो तणाई गया. आवी रीते मदजळनी नदी वही हती तो तें जे तलना तेलनी नदी वहेवानी वात करी तेमां आश्चर्य जेवू शुं छे? वळी तें कां के-में भार प्रमाण खोळ खाधो अने दश घडा तेलना पीधा, परंतु तेमां कई विस्मयजनक नथी. भीमे बक राक्षसने हण्यो त्यारे तेना बलि निमित्ते आवेल एक पाडो, सोळ खांडी अनाज अने मदिराना एक हजार घडा पीधा हता. वळी रावणनो भाई कुम्भकर्ण मदिराना एक हजार घडा पीतो अने अनेक मनुष्य तथा पशुओनुं भक्षण करी जतो तो तें कहेली वात खोटी केम कहेवाय? वळी तें तलना झाडनी वात करी पण पुराणमां तो अडदना वृक्षनो तोल कर्यानो उल्लेख छ एटले तेमां पण कंई आश्चर्यकारक नथी. वळी तें दडो श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २१८ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाड्यो अने तारो पत्र झाड उपाडी लई आव्यो तो तेमां पण कंई विशेषपणुं नथी, कारण के पुराणमां का छे के-श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत पोतानी कनिष्ठा आंगळी ऊपर उपाडी लीधो हतो. एटले तें कहीं ते वात सर्व सत्य छे. बाद त्रीजा मूळदेवे पोतानी कथा आरम्भतां का के-हुं ज्यारे युवान हतो त्यारे मने स्त्री परणवानी उत्कंठा थई एटले शंकरने प्रसन्न करवा हुं चाल्यो. मारा एक हाथमां छत्र, बीजा हाथमां कमंडळ तथा भाथु लईने चाल्यो जतो हतो तेवामां एक पर्वत जेवो महान् हाथी सामो मळ्यो. तेने जोतां ज हुं डरी गयो अने कोई पण स्थळे सन्ताई जवा हुं स्थान शोधवा लाग्यो, पण मने तेवू एक पण स्थान न मळ्युं एटले कमंडळना नाळचामा हुं प्रवेशी गयो. ते हाथी पण मने मारवा माटे मारी पाछळ ते नाळचामां दाखल थई गयो. हुं भयथी पाछो कमंडळमां भरायो तो हाथी पण मारी पाछळ आव्यो एटले में आमतेम दोडी-दोडीने छ मास पर्यंत ते हाथीने भमाड्यो, पण हुं हाथमां न आव्यो. छेवटे हुं नाळचामां थईने बाहार निकळी गयो एटले हाथी पण नाळचामांथी बाहार निकळवा लाग्यो, तेवामां ते आखो निकळी गयो पण तेना पूंछडानो एक वाळ तेमां भराई गयो. हं बहार निकळी आगळ चाल्यो तो सामे ज गंगा नदी आवी. ते नदी हुं सहेलाईथी तरीने उतरी गयो अने शंकरना मंदिरमा गयो. मने अत्यंत भूख अने तरस लागी हती छतां हुं त्यां छ मास सुधी रह्यो अने गंगा पडती हती तेने मारा मस्तक पर धारण करी. आ प्रमाणे छ मास सुधी करी, मारा स्वामी शंकरने नमस्कार करीने हमणां ज हुं चाल्यो आq . कहो भाईओ, मारी वात साची के नहीं ? साची होय तो दाखला आपो अने नहीं तो बधा भूख्या धूर्ताने भोजन करावो. त्यारे बाकीना धूर्तीए कह्यं के भाई मूळदेव ! तारी वात साची ज छे. ब्रह्माना मुखथी ब्राह्मण, हाथथी क्षत्रियो, साथळमांथी वैश्यो अने पगमांथी शूद्रो निकळ्या छे. जो आटला देशोना देशो भराय तेटला ब्राह्माणादिक ब्रह्माना उदरमां समाया हता तो पछी तुं अने हाथी कमंडळमां रह्या तेमां शुं आश्चर्य ? ब्रह्मा अने विष्णु महादेवना लिंगनुं माप करवा निकळ्या अने एक हजार वर्ष पर्यंत चाल्या ज कर्या तो पण शिवना लिंगनो अंत ज न आव्यो अने छेवटे ते लिंग पार्वतीनी योनिमां समायुं तो तुं अने हाथी कमंडळमां छ मास सुधी चाल्या कर्या तेमां शुं अधिक छे? वळी तुं पूछशे के-हाथी निकळी गयो अने वाळ केम भराई गयो ? तेनुं पण पुराणमां कथन छे. जगतना कर्ता विष्णु समुद्रमा शयन करीने रह्या. तेनी नाभिमांथी कमळनाळ प्रगट्युं अने तेमांथी ब्रह्मा उपज्या. आ प्रमाणे ब्रह्मा आदि सर्व निकळ्या अने कमळ तो नाभिने वळगी रह्यं तेम तुं अने हाथी निकळी गया अने हाथीना पूंछडानो वाळ अटकी गयो ए वात बराबर छे. वळी तें का के-हाथवडे हं गंगा नदी तरी गयो, तो तेमां पण कंई असत्य नथी. रामचंद्रनो दूत हनुमान सीताने शोधवा निकळ्यो हतो त्यारे समुद्र तरीने लंका गयो हतो अने सीतानी खबर लई पाछो राम पासे आव्यो हतो. सीताए हनुमंतने तेना आगमननो मार्ग पूछ्यो त्यारे हनुमंते पोते का के-समुद्र तरीने हुं आव्यो छु.आ संबंधी श्लोक छे के–“तव प्रसादात् वचस: प्रसादात्, भर्तुश्च ते देवि! तव प्रसादात् । साधुप्रसादात्च पितुः प्रसादात्, तीर्णो मया गोपदवत्समुद्रः ।।१।।" हे देवि ! तारी कृपाथी, तारा वचनना प्रभावथी, तारा स्वामी रामचन्द्रना प्रभावथी, साधुपुरुषना श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २१९ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावथी, तारा पिता जनक राजाना प्रभावथी आ समुद्रने हुं गायना पगलानी माफक तरी गयो. आवो पुराणमा उल्लेख छे तो गंगा नदीने तरवी तेमां शुं आश्चर्य? वळी तें गंगाने छ मास पर्यंत धारण करी ते पण सत्य छे कारण के पुराणमां कथन छे के-हजारो वर्षों सुधी तपश्चर्या करतां एवा लोको पर देवो तुष्टमान थई गंगाने कहेवा लाग्या के हे गंगादेवि ! तमे पृथ्वी पर जई लोकोने सुखी करो. त्यारे गंगाए का के- मने कोण धारण करी राखे? देवो विचारमा पडी गया त्यारे शंकरे का के हुं पडती एवी गंगाने धारण करी राखीश. बाद गंगाने शंकरे पोतानी जटामां देवोना हजारो वर्षों सुधी धारण करी राखी छे तो तारी वातमां काई आश्चर्य नथी. बाद खण्डपाणा कहेवा लागी के-हे धूर्ती ! तमे बधा मने हाथ जोडीने प्रणाम करो तो तमने सर्वने भोजन करावं त्यारे धूर्तीए का के-अमे यम जेवा समर्थ छीए तो तारी पासे आवा दीनताभर्या शब्दो केम बोलीए ? एटले खण्डपाणा हास्यपूर्वक कहेवा लागी के-हुं राजाना धोबीनी पुत्री छु. एक वखत मारा पिता साथे वस्त्रोनुं गाडं भरीने धोवा गई. हजार नोकरोने साथे लीधा. नदी ऊपर आवी, वस्त्रो धोई तडके सुकव्या. तेवामां झंझावात प्रकट्यो अने सर्व वस्त्रो उडी गया. नोकरो बधा नाशी गया. राजाना भयथी हुं पण नाशी गई. एक वनमां भराणी. त्यां घो थईने एक राते अशोकवृक्षना कोटरमां रही. वळी मने कोई मारी नाखशे तेवा भयथी आंबानी लता थई गई. आ बाज राजाना मनमां एवो विचार उद्भव्यो के-महावायुथी वस्त्रो उडी गयां तेमां धोबी बिचारो शुं करे ? तेथी न्यायी राजाए पडहो वगडाव्यो के-जे कोई धोबी होय ते बधा खुशीथी मारा राज्यमां रहो. राजानी आ घोषणा सांभळी बधा धोबी पाछा नगरमां आव्या. आ वात सांभळी हुं पण आम्रलतानुं रूप त्यजी दई, मारा मूळरूपे थई नगरमां आवी. मारो पिता गाडं लेवा गयो तो बळदोने वाघ के शियाळ खाई गया, तेथी वाघनी आजुबाजु तपास करतां एक उंदरनी पूंछडी मळी आवी. तेनाथी आखा गाडाने वीटीने ते घेर लई आव्या. आ सर्व सत्य साबित करी आपो, नहीं तो प्रतिज्ञा प्रमाणे बधा धूर्तीने जमाडो. धूर्तीए का के-तमे कहेली सर्व हकीकत सत्य छे. रामायणमां का छे के हनुमंते पोताना पुंछडावडे समस्त लंकाने वींटी लीधी हती अने पोताना पूंछडे गोदडा विगेरे वींटी लई, तेने तेलमां पलाळीने लंकाने सळगावी दीधी. वांदराना पूंछडां करतां उंदरनी पूंछडी तो मोटी होय तेथी गाडु केम न बंधाय? पछी तुं घो अने आम्रलता थई गई ते पण असम्भवित नथी. पुराणमां का छे के-गन्धार नामनो राजा कदरूपो थईने वनमा गयो. बीजा एक महापराक्रमी राजाए इन्द्रने जीती लीधो त्यारे इन्द्रे तेने श्राप आप्यो के-तुं अजगर थई जा. ते जंगलमां अजगर थईने रह्यो. तेवामां कोई वखत ते वनमां पांडवो आव्या. भीम जंगलमां आमतेम फरतो हतो तेवामां अजगर तेने गळी गयो. थोडीवारे युधिष्ठिर आव्या. तेने अजगरे सात प्रश्नो पूछ्या. युधिष्ठरे तेना जवाब आप्या एटले अजगरे राजी थईने भीमने पाछो आप्यो अने पोते पण राजा स्वरूपे थई गयो. आ वात सत्य छे तो तुं घो अने आम्रलता थई गई तेमां शुं आश्चर्य ? खण्डपाणाए पुन: कह्यं के हे धूर्ती ! हजु पण मने प्रणाम करो तो हुं सर्वने जमाईं. जो हुं तमने श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २२० Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीती लईश तो तमारी फूटी कोडी जेटली पण किंमत नहीं रहे. त्यारे अभिमानी धूतों बोल्या के-अमने जीतवा कोण समर्थ छे? बृहस्पति पण अमारी पासे रंक छे. त्यारे तेओनो गर्व उतारवा खण्डपाणाए का के-हे धूर्ती ! राजाए मने हुकम कयों छे के-उडी गयेला ते वस्त्रो लई आव अने नाशी गयेला चाकरोने पण तेडी लाव. तेथी हं तेओनी तपास करतां करतां अहीं आवी चढी छं. तमे बधा मारा नोकरो छो अने आ पहेरेला वस्त्रो पण ते ज छे. जो आ सत्य होय तो वस्त्रो काढी आपो अने राज्यमां चालो, अने जो असत्य होय तो बधाने जमाडो. धूर्तो तेनुं बुद्धिकौशल्य जोई नमी पड्या अने विनति करी के-हे खण्डपाणा ! तुं खरेखर बुद्धिमती छे. हवे अमने कोई पण प्रकारे तुं भोजन कराव. बाद खंडपाणा तरत ज श्मशानमां गई अने त्यां तरतना मरी गयेला एक बाळकने उपाडी लावी. तेने नवरावी, पोताना खोळामां लई उज्जैन नगरीमा एक श्रीमंतने त्यां गई. श्रेष्ठीनो व्यवसाय घणो हतो. जईने शेठने कालावालापूर्वक कहेवा लागी के-हुं अने मारो आ नानो पुत्र घणा वखतथी भूख्या छीए माटे अमने भोजन करावो. श्रेष्ठीए आ बलाने काढवा पोताना नोकरोने हुकम कर्यो. नोकरोए धक्को मारतां ज खंडपणा पडी गई अने 'मारो छोकरो आ शेठे मरावी नाख्यो' एवो कल्पांत करवा लागी. शेठने आ दृश्य जोतां ज कंपारी छूटी. राजा जो आ वात जाणशे ते दंडशे एटले कोई पण प्रकारे खंडपाणाने समजावी लेवा तेणे प्रयास को. छेवटे एक रत्नजडित मुद्रिका तेने आपी विदाय करी. ते मुद्रिका लई खंडपाणा बधा धूर्तो पासे आवीने कहेवा लागी के-जोई मारी बुद्धि ! हवे आ मुद्रिका वेचीने तमे बधा यथेच्छ भोजन करो. आ संबंधी विशेष वृत्तांत श्रीनिशीथसूत्रनी पीठिकामां जणावेल धूर्ताख्यान द्वारा जाणवो. आ लौकिक मृषावाद कहेवाय. सम्यग् गच्छमां आवो नास्तिकवाद-आवी कथा-वार्ता न होय. हवे वस्त्र-धोवननी हकीकत जणावतां कहे छे के-धावणना बे अर्थ छे. एक वस्त्रधोवण अने बीजो अर्थ निष्प्रयोजन उतावळी गति (चाल). विना काळे-अकाळे जे गच्छमां वस्त्र न धोवाता होय ते सम्यग् गच्छ जाणवो. बीजा अर्थ संबंधमां कौशिक तापसनो वृत्तांत जाणवा योग्य छ:चंडकौशिक- वृत्तांत भगवान् महावीरस्वामी छद्मस्थावस्थामा श्वेतांबी नगरी जवा लाग्या तेवामां मार्गमां गोवाळीयाए का के-भगवन् ! आप जे मार्गे जाओ छो ते मार्ग तो सीधो छे, परंतु रस्तामां कनकखल नामनौ तापसाश्रम आवे छे तेमां दृष्टिविष सर्प रहे छे, ते रस्ते पक्षी पण जता नथी तो आप ते मार्गे केम जई रह्या छो? ते दृष्टिविष सर्प सर्व कोईने पोतानी विषज्वाळाथी मृत्यु पमाडे छे. गोवाळोए आ प्रमाणे कह्या छतां भगवान् महावीर तो ते ज मार्गे चाल्या, कारण के तेमने तो ते चंडकौशिक सर्पने प्रतिबोधवो हतो. पोताना उपसर्गनी तेमने अंशमात्र पण चिंता न हती. भगवान् ते आश्रममां पहोंच्या अने यक्षमंडपमांकाउसग्गध्याने रह्या. पीडा के कष्टने तो तेओ गणता ज न हता. ते चंडकौशिक सर्प पूर्वभवमां कोण हतो ते तपासी जईए-पूर्वे ते मासखमणने पारणे मासखमण करनार उत्तम मुनि हतो. आ तपस्वी मुनि एकदा मासखमणने पारणे गोचरी जता हता तेवामां मार्गमां श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २२१ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेना पग नीचे एक देडकी चंपाईने मरी गई. साथे रहेल क्षुल्लक चेलाए तेमनुं ध्यान खेंच्यु के-तमारा पग नीचे देडकी मरी गई. तपस्वी साधुने क्रोध चढ्यो पण ए समये तो एटलुं ज का के-लोकोए मारी नाखी जणाय छे, छतां जो मारा पगथी मरी गई हशे तो सांजे प्रतिक्रमण समये आलोयण लइ लईश. सांज पडी, छतां तपस्वी साधु आलोचना कर्या विना ज प्रतिक्रमणमां बेठा एटले क्षुल्लक साधुए देडकी संबंधी आलोयणा लेवानु स्मरण कराव्यु, जेथी तेने अत्यंत क्रोध चड्यो अने तेने मारवा दोड्यो. क्षुल्लक साधु ऊभा थईने नाशवा लाग्या तेनी पाछळ दोडतां थांभला साथे तपस्वी साधुनुं मस्तक भटकायुं अने त्यां ज काळधर्म पामी ज्योतिषी देव थयो. त्यांथी च्यवीने पांचसो तापसोनो कुलपति, जे कनकखल आश्रममा रहेतो हतो तेना पुत्र तरीके उत्पन्न थयो. तेनुं कुल कौशिक होवाथी कौशिक एवा नामथी प्रख्याति पाम्यो. काळांतरे कुलपति मरण पाम्यो एटले कौशिक आश्रमपति बन्यो. ते अतिशय क्रोधी होवाथी तापसोए तेनुं चंडकौशिक एवं नाम राख्यु. तेने पोताना आश्रम प्रत्ये अत्यंत आसक्ति हती. कोईने पण ते फळफूल लेवा देतो नहीं, एटले धीमे धीमे सर्व तापसो चाल्या गया. एकदा चंडकौशिक लाकडी लेवा जंगलमा गयो तेवामां श्वेतांबिका नगरीना राजकुमारो तेना आश्रममा आवी चढ्या अने फळफूल विगेरे लई वाडीने भांगी नाखवा लाग्या. आ हकीकत कोईए चंडकौशिकने जणावतां तेने अत्यंत क्रोध चढ्यो अने कुहाडी लई ते कुमारोने मारवा माटे दोड्यो. तेने आवतो जोई राजकुमारो नाशी गया अने चंडकौशिक पण रस्तामा एक खाडो आवतां तेमां लपस्यो अने पोतानो ज कुहाडो पोताना मस्तकमां वागतां त्यां ने त्यां ज मृत्यु पाम्यो. मरीने ते ज स्थळे दृष्टिविष सर्प थयो. तेनी ज्वाळा एवी उग्र हती के नजरे थनारने पोतानी विषज्वाळाथी दग्ध करी नाखतो. तेना त्रासथी कोई पशु, पक्षी के मनुष्य पण ते स्थळमां आवी शकतुं नहीं. घणा काळे भगवानने आवेला जाणीने सर्प चिन्तववा लाग्यो के-शुं आ पुरुष मारु सामर्थ्य जाणतो नथी के अही आवीने ऊभो रह्यो छे ? पछी तेने सूर्य सामे नजर करी भगवान् प्रति पोतानी विषज्वाळा फेंकी पण तेनी कंई असर न थई. सर्प अचंबो पाम्यो. अत्यार सुधी पोतानी ज्वाळाथी कोई पण बच्यु नथी अने आ शुं? तेणे वारंवार सूर्य सामे जोई-जोईने विषज्वाळाओ परमात्मा प्रत्ये फेंकवी शरू करी पण जेम मृगथी सिंह पराजय न पामे तेम भगवन्त अचल रह्या एटले ते निर्दयीए दोडीने परमात्माना चरणमां डंख मार्यो अने विषथी व्याप्त थयेल परमात्मा मरण पामीने पोताना ऊपर न पडे तेम विचारी थोडे दूर जई ऊभो रह्यो परंतु महावायुथी जेम मेरु पर्वत चलायमान न थाय तेम प्रभु तो अकंप रह्या. हमणा विषनी असरथी भगवाननो देह पडी जशे तेम विचारतो सर्प वारंवार परमात्माना मुख प्रत्ये जोई रह्यो छतां भगवन्तनी मुखमुद्रा तो अमृत सरखी शांत अने सूर्य सरखी तेजस्वी हती. बाद परमात्माए सर्पने उद्देशीने का के- हे चण्डकौशिक ! प्रतिबोध पाम, मुंझा मा. परमात्माना वचन सांभळतां ज सर्पने ईहा प्रगटी अने छेवटे जातिस्मरण ज्ञान पण थयु. पोतानो पूर्वभव जाण्यो एटले पोताना कृत्योनी, अपराधनी निन्दा करता अने परमात्माने खमावता त्रण प्रदक्षिणा दईने तेणे अणशण स्वीकार्यु अने पोतार्नु मुख बिलमा राख्यु, रखेने कोई पण जीव पोतानी विषज्वाळाथी मृत्यु पामे. भगवन्तने घणा समय सुधी त्यां रहेला श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २२२ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणी गोवाळो त्यां गया तो परमात्माने निश्चळ काउसग्ग ध्यानमां ऊभेला जोया. सर्प पण अवळू मुख राखी बिलमा रह्यो हतो. गोवाळोने आq दृश्य निरखी अचंबो थयो. तेओए थोडा पत्थरना घा कर्या तो पण सर्प न हाले के चाले. छेवटे तेओ धीमे धीमे नजीक गया अने लाकडीवती हलाववा लाग्या तो पण सर्पने निश्चल जोई तेओ गाममां गया अने लोकोने वात करी. सर्वत्र वात प्रसरी जतां लोकोना टोळेटोळा त्यां आव्या. लोको परमात्मानो प्रभाव जाणी विस्मय पाम्या. केटलाक लोकोए घीवडे सर्पनी पूजा करी एटले सुगंधीथी आकर्षायेली कीडीओ सर्पना शरीरने करडवा लागी. सर्पने अतिशय वेदना थवा लागी तो पण ते समये तेना भावो बदलाई गया हता. ते विचारवा लाग्यो के-मारा कर्म-क्षयमां आ कीडीओ मने मदद करी रही छे. आ प्रमाणे समभावपूर्वक वेदना सहन करतो सर्प पंदर दिवसर्नु अणशण पाळी, मृत्यु पामी आठमा सहस्रार नामना देव लोकमां देव थयो. अतिशय वेगथी चालवाथी कौशिक तापस दुःख पाम्यो तेथी जे गच्छमां साधुओ संयमपूर्वक गति करनारा होय ते गच्छ ज सुगच्छ जाणवो. लंघन एटले खाडा, वाव, खाई विगेरे उल्लंघवा. वळी लंघननो बीजो अर्थ ए छे के - क्रोधना कारणथी अन्य साधु या तो श्रावकने उद्देशीने लांघण करवी-अन्नपाननो त्याग करवो. जे गच्छमां आ लंघन वर्ण्य होय ते सुगच्छ जाणवो. आ संबंधमां नीचे- दृष्टांत उपयोगी छेअर्हन्मित्र साधुनुं वृत्तांत क्षितिप्रतिष्ठित नगरने विषे अर्हन अने अर्हन्मित्र नामना बे भाईओ रहेता हता. मोटा भाईनी स्त्री पोताना दियर अर्हन्मित्र प्रत्ये अनुरागवाळी थई. अर्हन्मित्रे विचार्यु के-मोटा भाईंनी स्त्री साथे भोगविलास केम कराय? एटले ते तेणीना हावभावथी चळ्यो नहीं त्यारे अर्हननी स्त्रीए जाण्यु के-पोतानो भाई हैयात होय त्यां सुधी लघु बंधु अनुचित आचरण केम करे? माटे जो हुं मारा स्वामीने मारी नाखुं तो यथेच्छ भोगविलास करी शकुं. तेणे पोताना धणीने मारी नाखीने दियरने पोताना मनोभिलाषा तृप्त करवा का. पोतानी भाभीना आवा घोर कृत्यथी अर्हन्मित्रने वैराग्य उत्पन्न थयो अने तेणे दीक्षा लीधी. तेना वियोगथी मरण पामी अर्हन्नी स्त्री आर्त्तध्यानने अंगे एक गाममां कूतरी थई. अर्हन्मित्र विहार करतां करतां ते गाममां आवी चढ्या. कूतरीए तेमने जोया एटले जाणे पूर्वभवनो स्नेह प्रगट्यो होय तेम ते मुनिनी पाछळ पाछळ भमवा लागी अने तेमनो स्पर्श करवा लागी. अर्हन्मित्र साधु त्यांथी नाशी गया. पाछळ कूतरी मरण पामी कोईएक वनमां वांदरी थई. क्षेत्रस्पर्शना करता करतां अर्हन्मित्र मुनिवर ते वनमां नीकळ्या. तेने जोईने वांदरी तेनी आगळ जई भोगनी चेष्टा दर्शाववा लागी. महामुशीबते ते वांदरीनो त्याग करी मुनि चाल्या गया. त्यां पण तेमना वियोगथी मरण पामी अकाम निर्जराथी यक्षिणी थई. अवधिज्ञानथी जोयुं तो मुनिए पोताने अंगीकार न करी तेथी वारंवार मरण पामी तो हवे ते मुनिने हुं कष्टमां पाईं एवं विचारी यक्षिणी मुनिना छिद्रो जोवा लागी. कोई वार सरखे-सरखा साधु अर्हन्मित्र मुनिनी हांसी करता कहेवा लाग्या के-तमे तो कूतरी अने वांदरीने पण प्रिय छो. एकदा मुनि जळना नाळा पासे आव्या अने विचारवा लाग्या के श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २२३ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ नाळं उल्लंघी जाउं आम प्रमादथी आ प्रमाणे विचारी जेवी पग पहोळो कर्यो के तरतज ते यक्षिणीए छिद्र जोईने तेमनो पग साथळमांथी कापी नाख्यो अने मिथ्या दुष्कृत देतां देतां मुनि जळनी बहार उडी पड्या. आ दृश्य जोई नजीकमा रहेल सम्यग्दृष्टि देवीए ते यक्षिणीने नसाडी मूकी अने तेमना चरण सारां कर्यां. बाद ते समकिती देवीए ते मुनिने कह्यं के-तमारे कदापि वाव, कूवा के खालनुं उल्लंघन न करवुं. 9 वस्त्र- पात्र प्रत्ये ममत्वभाव पण न दर्शाववो तेमज अवर्णवाद पण न उच्चारवा, कारण के ते दुर्लभबोधिपणानं लक्षण छे. श्रीस्थानांगजीमां कह्यं छे के – “पंचर्हि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोहियत्ताए कम्मं पगरंति । ते अरिहंताणमवन्नं वदमाणे १, अरिहंतपन्नत्तस्य धम्मस्स अवण्णं वदमाणे २, आयरियउवज्झायाणमवन्नं वदमाणे ३, चाउवण्णास्स संघस्य अवन्नं वदमाणे ४, विवक्कतवबंभचेराणं देवाणं अवण्णं वदमाणे ५ ।” १ अरिहंतना, २ अरिहंतप्ररूपित धर्मना, ३ आचार्य तथा उपाध्यायना, ४ चतुर्विध संघना अने ५ तप तथा ब्रह्मचर्यनो जेने उदय आव्यो छे ते देवना अवर्णवाद बोलवाथी दुर्लभबोधिपणुं प्राप्त थाय छे. आ संबंधमां वराहमिहिरनुं वृत्तांत बोधदायक छे वराहमिहिरनुं वृत्तांत— प्रतिष्ठानपुरमा चौद विद्यानो पारगामी अने विचक्षण भद्रबाहु नामनो पंडित हतो. तेने वराहमिहिर नामनो लघुबंधु हतो. एकदा ते नगरना उद्यानमा चौद पूर्वधर, नव तत्त्वना ज्ञाता अने महाकल्याणकारी श्रीमान् यशोभद्रसूरि विराज्या एटले लोकोनो समूह तेमने वंदन करवा गयो. लोकोने जतां जोईने हर्ष पामीने भद्रबाहु पण पोताना बंधु साथे वंदवा गयो. वांदीने बने भाईओ पोताने उचित जग्या ऊपर बेठा. गुरुमहाराजे देशना प्रारंभतां कह्यं के-चार गति अने चोराशी लाख जीवयोनिरूप आ संसार दुःखमय ज छे; कारण के जीवित तृणनी टोच ऊपर रहेला जळबिंदुनी जेम चंचळ छे. अने संपत्ति वीजळीना झबकारानी जेम क्षणिक छे. जेओ धर्मकर्ममां चतुर थशे तेज आ दुस्तर भवसागरने तरशे. आ संसारसागरने तरवा माटे क्षमादिक दश प्रकारना यतिधर्मरूप नावनुं आलंबन ग्रहण करवुं जोईए. दश दृष्टांते दुर्लभ मानवभवने सफल करवा इच्छता हो तो साधुधर्म अने ते न बने तो छेवटे श्रावकधर्म स्वीकारो आ गुरुराजनी देशना सांभळी भवभीरू भद्रबाहुने दीक्षा-ग्रहणनी तल्लीनता थई. तेणे लघु बंधु वराहमिहिरने कह्यं के- हुं तो संसारसागर तरवा माटे आलंबनभूत प्रव्रज्या ग्रहण करवा इच्छु छु. तमे संसारमा रही व्यवहारमां विचक्षण जो. वराहमिहिरे कह्यं के-साकर नाखेली क्षीर तमने एकलाने ज मीठी न लागी शके, ते तो जो कोई चाखे तेने मीठी लागे, माटे हुं पण आपने ज अनुसरवा मागुं छं. छेवटे बने भाईओए श्रीयशोभद्रसूरि पासे दीक्षा अंगीकार करी. क्रमशः शास्त्राभ्यास करतां भद्रबाहु मुनि चौद पूर्वना ज्ञाता थया. भद्रबाहुस्वामीनुं शुद्ध चारित्रपालन, शासनप्रेम अने गंभीरता जोई गुरुमहाराजे तेमने सर्व सुविहितम अग्रणी स्थाप्या. यशोभद्रसूरिने एक सम्भूतिविजय नामना क्रियापात्र अने निर्मळ श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २२४ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रवाळा शिष्य हता. पोतानुं आयु नजीक जाणी यशोभद्रसूरिए श्रीभद्रबाहु अने सम्भूतिविजयने आचार्य पदप्रदान करी पोतानी पाटे स्थाप्या पोते अणशण स्वीकारी स्वर्गे संचर्या... बन्ने पट्टधरो सूर्य चन्द्रनी माफक मिथ्यात्व-तिमिरनो नाश करी गच्छन् रक्षण करता. वराहमिहिर पण सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि अनेक शास्त्रोनो अभ्यास करी ज्योतिषमां पारंगत थया, पण तेमनामां अभिमान विशेष हतुं. श्रीयशोभद्रसूरिए भद्रबाहुने आचार्य पद आप्यं अने पोताने न आप्यु तेथी तेने पोतानुं स्वमान घवातुं होय तेवू दुःख उपज्यु. श्रीयशोभद्रसूरिए तेनी प्रकृति ज्ञानथी जाणी हती तेथी तेने आचार्यपद न आप्यु, कारण के का छे के-“बूढो गणहरसद्दो, गोयममाईहिं धीरपुरिसेहिं । जो तं ठवइ अपत्ते, जाणंतो सो महापावो ॥१॥” एटले के 'गणधर' एवो शब्द गौतमस्वामी जेवा प्रभाविक ने उत्तम मुनिवरोए धारण को हतो तेवो श्रेष्ठ शब्द जो कोई गुरु अयोग्य व्यक्तिने जाणतो थको आपे तो ते गुरुने महापापी समजवा. वराहमिहिरने हवे साधुपणामां रहे पसंद न पड्यु. पूर्वकर्मना प्राबल्यथी ऊंचे चडेलो वराहमिहिरनो आत्मा अध:पात करवा तैयार थयो. कर्मनी गति खरेखर विचित्र छे ! जैन साधुना वेशनो त्याग करी ते गृहस्थी बनी गयो. कहेवत छे के-प्राण ने प्रकृति साथे ज जाय अर्थात् प्रकृति (स्वभाव) कदापि न बदलाय. का छे के–“प्रकृत्या शीतलं नीर-मुष्णं तद् वह्नियोगत: । पुन: किं न भवेच्छीतं, स्वभावो दुस्त्यजो यत: ॥१॥" प्रकृतिथी पाणी शीतळ छे, परंतु अग्निना संसर्गथी ते उष्ण बने छे; पण शुं पाछु ते शीतळ नथी बनी जतुं? अर्थात् ठंडं थई जाय छे. खरेखर शुभाशुभ पडेल स्वभावनो त्याग करवो ते दुष्कर छे. हवे वराहमिहिरे पोते भणेल सूर्यप्रज्ञप्ति प्रमुख ग्रन्थोमांथी उद्धरीने सवालाख श्लोकप्रमाण “वाराहीसंहिता” बनावी पोते ज्योतिषवेत्ता बन्यो. लोकोने कहेवा लाग्यो के-हुं बार वर्ष सुधी सूर्यमंडळमां रह्यो छु. सूर्ये मारा ऊपर महेरबानी करी मने ज्योतिषना प्रचारने माटे पृथ्वी ऊपर मोकल्यो छे. ब्राह्मणोए तेनु कथन स्वीकारी लीधुं अने धीमे धीमे तेनी प्रतिष्ठा वधी, कारण के अज्ञानी लोकोने भोळववा ए कई मोटी वात नथी. ते मंत्र-तंत्रादिकथी अने मोहनीय विद्याथी लोकोने चमत्कार पमाडतो. राजा पर्यंत तेनी कीर्ति प्रसरी गई. राजाए तेने पोतानो पुरोहित बनाव्यो. तेवामां श्रीभद्रबाहुस्वामी पोताना परिवारयुक्त प्रतिष्ठानपुरना उद्यानमां समवसर्या, राजा तथा प्रजाजन तेमने वांदवा गया. राजानुं मान साचववा वराहमिहिर पण साथे गयो. राजा भद्रबाहुनी देशना सांभळी रह्यो हतो तेवामां राजपुरुषे वधामणी आपी के-युवराजनो जन्म थयो छे. राजाने वृद्धवय थया छतां पुत्र नहोतो तेथी आ वधामणी सांभळी तेने अतीव हर्ष थयो. तरतज पासे बेठेला वराहमिहिरने राजाए का के-राजकुमारनी जन्मकुंडळी बनावो अने ते केवो विद्यावंत, बुद्धिमान अने आयुष्यवाळो थशे ते जणावो. भद्रबाहुस्वामी पण ज्योतिषना श्रेष्ठ ज्ञाता छ, तमो पण विचक्षण छो, तो तमे बंने विचार करीने मने कहो. वराहमिहिरे गणत्री करी जणाव्यु के-राजपुत्र सो वर्षना आयुवाळो, अढार विद्यानो पारगामी अने पुत्र-पौत्रादिकने पूजनिक थशे. बाद राजाए श्रीभद्रबाहुस्वामी प्रत्ये जोयु. भद्रबाहस्वामी जाणता हता के-जिनमतमां निमित्त कहेवानो निषेध छे, छतां राजा प्रमुख लोकोमा जैन शासननी प्रभावना करवा माटे तेमणे का के-आ • श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २२५ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपुत्रनुं आयु सात दिवसनुं छे अने सातमे दिवसे ते बिलाडाद्वारा मृत्यु पामशे. बने ज्योतिर्विदोना कथनमां महद् अंतर जाणी राजा विस्मय पाम्यो पोताना कथनथी विरुद्ध भद्रबाहुस्वामीनुं सूचन जाणी वराहमिहिर क्रोधथी रक्त बनी गयो अने रोषावेषमां ज राजाने कह्यं के जो भद्रबाहुस्वामीनुं कथन असत्य निवडे तो तेमने महादंड आपवो. राजा सहित वराहमिहिर राजमहेले गयो अने राजपुत्रने तथा धावमाताने गुप्तावासमां सख्त चोकी पहेरा नीचे राख्या. दरवाजे वराहमिहिर पोते पहेरो भरवा लाग्यो, अने कोई पण बिलाडाने आववा देतो नहीं. परंतु कर्मनी गति विचित्र छे. तेनी पासे बळवानमां पण बळवान सत्तानुं कशु जोर चालतुं नथी. चक्रवर्ती अने तीर्थंकर जेवाने पण कर्मने वश थवुं पडे छे तो पामर प्राणीनुं शुं गजुं ? बराबर सातमे दिवसे बारणाना काष्ठनो आगळियो अकस्मात् राजकुमारना मस्तक ऊपर पड्यो अने तत्काळ तेनुं मृत्यु निपज्युं. धावमाता हाहाकार करवा लागी अन्तःपुरमा तरत ज वीजळीवेगे समाचार प्रसरी गया. सर्वत्र दोडादोड थवा लागी. वराहमिहिर पण विलाप करवा लाग्यो. राजा विचक्षण हतो. होनहार कदापि मिथ्या थतुं ज नथी एवी पूर्ण श्रद्धावाळो हतो. धावमाताने बोलावी कया कारणथी पुत्रमृत्यु थयुं ते पूछ्र्युं. तेणे लाकडानो आगळियो बताव्यो. राजाए बारीकाईथी जोयुं तो तेना अग्रभाग ऊपर बिलाडानी आकृति कोतरेली हती. श्रीभद्रबाहुस्वामीना वचनमां तेने पूरेपूरी श्रद्धा उत्पन्न थई. बाद विलाप करतां वराहमिहिरने कह्यं के-तमे भण्या छो पण गण्या नथी. राजाना आ तिरस्कारथी वराहमिहिर वनमां चाल्यो गयो अने परिव्राजक थई, तापसी दीक्षा पाळी, मृत्यु पामी अल्प ऋद्धिवाळो व्यंतर देव थयो. राजाए तरत ज श्रीभद्रबाहुस्वामी पासे जई, वंदन करी वराहमिहिरनुं वचन असत्य निवडवानुं कारण पूछ्युं. गुरुए जणाव्यं के- वराहमिहिर गुरुप्रत्यनीक छे. गुरुना अवर्णवाद बोलतां तेने लगार मात्र पण शरम नथी आवी एटले तेनुं वचन असत्य निवड्युं छे. राजाए तरत ज मिथ्यात्वनो त्याग समकित मूळ जैनधर्म अंगीकार कर्यो. व्यंतर थयेला वराहमिहिरे पोताना पूर्वभवना वैरनो बदलो लेवा माटे साधुओना छिद्रो जोवा शरू कर्यां, पण तेमां पण ते नाशीपास थयो. अप्रमत्त साधु-साध्वीनो एक केश पण वांको वाळवा ते समर्थ न थयो त्यारे खेदयुक्त बनतो ते श्रावकोने विविध प्रकारना उपसर्गो करवा लाग्यो. अग्रेसर श्रावकोए एकत्र थई विचार कर्यो के सिंह विना हाथीनो नाश नहीं थाय, सूर्यप्रकाश विना अन्धकार दूर न थाय; माटे श्री भद्रबाहुस्वामीनी सहाय विना आपणुं आ कष्ट विनाश नहीं पामे. ते ओए एकमत थई आ हकीकत जणाववा अने कष्ट निवारणार्थे विज्ञप्ति करवा केटलाक मुख्य श्रावकोने श्रीभद्रबाहुस्वामी पासे मोकल्या. श्रीभद्रबाहुस्वामीए ज्ञानद्वारा वराहमिहिरनुं आ कृत्य जाण्यं एटले तेओने “उवसग्गहर” नामनुं श्रीपार्श्वनाथनुं अति चमत्कारिक स्तोत्र रची आपी प्रतिदिन तेनो पाठ करवानुं कह्यं. आ प्रभाविक स्तोत्र स्मरणथी, जेम वायुथी वादळाओ विखराई जाय तेम वराहमिहिरकृत उपसर्गो नाश पाम्या. लोको प्रतिदिन ते स्तोत्रनो जाप करवा लाग्या. अद्यापि पर्यंत ते स्तोत्र श्रीसंघमा प्रचलित छे. श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २२६ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद श्रीभद्रबाहुस्वामीए १ आचारांग, २ सुयगडांग, ३ आवश्यक ४ दशवैकालिक, ५ उत्तराध्ययन, ६ दशाकल्प, ७ बृहत्कल्प, ८ व्यवहारसूत्र ९ सूर्यप्रज्ञप्ति, १० ऋषिभाषित, ए दश सूत्रोनी निर्युक्तिओ रची, अने जैनशासननी अपूर्व प्रभावना करी. पंचम श्रुतकेवली एवं मानवतुं बिरुद पण प्राप्त कर्यु. छेवटे आयुष्य नजीक जाणी, अणशण स्वीकारी समाधिमरणे स्वर्गे सिधाव्या. वराहमिहिरनी माफक जे गुरुना अवर्णवाद बोले ते गच्छ सुगच्छ न कहेवाय. हजु पण सुगच्छना विशेष लक्षणो दर्शावतां कहे छे के जत्थित्थीकरफरिसं, अंतरियं कारणे वि उत्पन्ने दिट्ठिविसदित्तग्गी - विसं व वज्जिज्जए गच्छे ॥ ८३ ॥ बालाए वुड्ढाए, नत्तुअदुहियाइ अहव भइणीए । नय कीरइ तणुफरिसं, गोयम ! गच्छं तयं भणियं ॥ ८४ ॥ [ यत्र स्त्रीकरस्पर्श, अन्तरितं कारणेऽपि उप्पन्ने । दृष्टिविषदीप्ताग्नि- विषमिव वर्जयेत् गच्छे ॥८३॥ बालाया वृद्धाया नप्तृकाया दुहिताया अथवा भगिन्याः । न च क्रियते तनुस्पर्श, गौतम ! गच्छ: सको भणित: ॥ ८४ ॥] गाथार्थ- कारण उत्पन्न थये सते पण वस्त्रादिकनुं अन्तर करीने स्त्रीना हस्तादिकनो स्पर्श दृष्टिविष सर्प, प्रज्वलित अग्नि के हळाहळ झेरनी जेम जे गच्छमां त्यजी देवातो होय ते गच्छने सुगच्छ जाणवो. ८३ वळी बाळकुमारी, वृद्धा, पुत्री, पौत्री के बहेन विगेरेना शरीरनो पण स्पर्श जे गच्छमां न रातो होय ते गच्छने हे गौतम! सुगच्छ जाणवो. ८४ विवेचन - वस्त्र प्रमुखथी ढांकेला स्त्रीना हस्तादिकनो स्पर्श करवानो निषेध कर्यो छे तो उघाडा अंगोपांगने माटे तो कहेवुं ज शुं ? पगमां कांटो वागी गयो होय, महाविषम व्याधि थयो होय छतां पण स्त्री-स्पर्श वर्ज्य वर्णव्यो छे तो विना कारणना स्पर्श माटे तो कहेवुं ज शुं ? ग्रंथकारे स्त्रीना स्पर्शने दृष्टिविष सर्प, प्रज्वलित अग्नि अने काळकूट झेरनी उपमा आपी छे उपर्युक्त त्रणे वस्तुथी प्राणी दूर रहे छे तेम साधुए स्त्री स्पर्शथी सदंतर वेगळा ज रहेवुं. लघुवयवाळी बालिकानो स्पर्श पण निषेध्यो छे तो यौवनवती स्त्रीने माटे तो कहेवापणुं ज क्या रह्यं ? वृद्धानो पण निषेध छे तो अनतिक्रांत यौवनवाळी एटले के लगभग सोल वर्षनी आदि लई चाळीश वर्षनी स्त्री माटे तो कहेवुं शुं ? आ करतां पण आगळ वधी ग्रंथकर्ता महापुरुष कहे छे के पोतानी पुत्री, पौत्री, बहेन विगेरे स्वजननो स्पर्श न करवो. पोताना कुटुंबीजनो साथे अकार्य करवानी कोई कल्पना पण न करी शके छतां पण शास्त्रकारे तेवी व्यक्तिओना करस्पर्शादिकनो निषेध फरमाव्यो छे तो बीजा माटे तो पूछवानुं ज क्या रह्यं ? आटला वक्तव्य ऊपरथी साबित थशे के जाज्वल्यमान अग्निनो स्पर्श करवो सारो परंतु स्त्री स्पर्श तो प्राणांते पण न करवो; कारण के तेथी व्रतभंगनो महादोष आवी पडे छे. श्रीगच्छाचार — पयन्ना- २२७ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनिशीथसूत्रना पंदरमा उद्देशकमां प्रलंबाधिकारमा का छे के-स्वादिष्ट वस्तु अने सुगंधथी पुरुष तेमज स्त्री उभयने सरखो मोह उपजे छे. जेम धतुराना पानथी पुरुषनी इंद्रियो चलायमान थाय छे तेम स्त्रीनी इंद्रियो पण चंचळ बने छे. तेमज शब्द, रूप, रस विगेरे पण उभयने माटे सरखी असर उत्पन्न करे छे. आ संबंधमां पुरुषपक्षे अने स्त्रीपक्षे भजना जाणवी एटले के पुरुषने पुरुष स्पर्श करे तो मोहोदय थाय अगर न पण थाय अथवा थाय तो मंद थाय, परंतु जो पुरुषने स्त्री स्पर्श तो अवश्य मोहोदय थाय. एवी रीते स्त्रीने स्त्री स्पर्श करे तो मोहोदय थाय किंवा न पण थाय अथवा अल्प थाय परंतु जो पुरुष स्पर्श करे तो अवश्य मोहोदय थाय. आवी रीते शब्द, गंध इत्यादि संबंधी पण जाणवू. श्रीनिशीथचूर्णीना अगियारमा तथा आठमा उद्देशामां स्पर्श संबंधी नीचेनुं दृष्टांत आप्युं छे. अनंग राजपुत्र तथा सुकुमारिकानुं वृत्तांत आणंदपुर नामना नगरमां जितारी नृपने विसत्था नामनी राणीथी अनंग नामनो पुत्र जन्म्यो. बाळवयमां ज ते राजपुत्रने नेत्र-रोग थयो तेथी सदैव रूदन ज कर्या करे. एकदा राणी नग्नावस्थामां हती तेवामां ते रूदन करवा लाग्यो त्यारे तात्कालिक तेने साथळ ऊपर बेसाडी चाप्यो एटले गुह्यप्रदेशना स्पर्शथी राजपुत्र रोतो बंध थई गयो. राणीए विचार्यु के–राजपुत्रने छानो राखवानो उपाय आ ज छे. बाद ज्यारे ज्यारे पुत्र रोवा मांडे त्यारे त्यारे राणी नग्न थईने तेने छाती साथे चांपती. आम करतां पुत्र मोटो थयो तो पण राणी तेम ज करती. जितारी नृप मृत्यु पाम्यो, पोते राजा थयो तो पण अनंग पोतानी माताने पूर्वनी पेठे ज भोगवतो. आ कथानो उपनय ए छे के - पोतानी मातानी स्पर्शथी पण जे कामी बन्यो ते बीजी स्त्रीना स्पर्शथी विषयाभिलाषी बने तेमां शी नवाई? कृष्ण वासुदेवना मोटा भाई जराकुमारना पुत्र जितशत्रुने शसक अने भसक नामना बे पुत्रो अने सुकुमारिका नामनी एक पुत्री हती. एकदा मरकीनो उपद्रव थवाथी तेनुं समग्र कुळ नाश पाम्युं फक्त बे भाइयो अने एक बहेन आ त्रण जीव ज बच्या. वैराग्य पामी त्रणे जणाए दीक्षा लीधी. सुकुमारिका यौवनवती थई त्यारे तेनुं रूप अत्यंत खीली निकळ्युं गोचरी जाय त्यारे पण युवान पुरुषो तेनी पाछळ-पाछळ भमवा लाग्या. प्रवर्तनीओ आ वात गुरुने कही. गुरुए तेना रक्षण माटे शसक ने भसक बंने भाइयोने भलामण करी. शसक अने भसक बने महायोद्धा हता. एकला एक हजार सुभटने पूरा पडे तेवा हता. एक जण उपाश्रयमा सुकुमारिकानुं रक्षण करतो अने एक जण गोचरीए जतो. जे कोई युवान पुरुषो आवता तेने नशाडी मूकतो. आवी रीते घणा माणसोने मार मारीने तेओ बंनेए विराधना करी. बाद तेओ त्यांथी विहार करी तुरुगिणी नगरीमां गया. त्यां रहेला तापसो साधुओने उपद्रव करवा लाग्या एटले शसक ने भसक तेनी साथे क्लेश करवा लाग्या. पोताना भाई प्रत्येनी अनुकंपाथी सुकुमारिकाए अणसण कर्यु, घणा दिवसना उपवासथी तेने मूर्छा आवी गई अने जाणे मृत्यु पामी गई होय तेवी देखावा लागी. बंने भाईओए जाण्यु के सुकुमारिका मरी गई छे एटले एके तेने पोताना खंभे उपाडी अने बीजाए तेना उपकरणो उपाड्या. ते समये पुरुषना स्पर्शथी तेमज शीतळ वायुना संचारथी सुकुमारिका सचेत थई. पुरुषनो स्पर्श थयो जाण्यो पण सुखानुभवथी कंई श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २२८ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण बोली नहीं. अरण्यमां तेनो त्याग करीने बंने भाईआ तो गुरु पासे गया. तेओना गया वाद सुकुमारिका पण सचेत थईने बेठी तेवामां एक सार्थ निकळ्यो. सार्थवाहे सुकुमारिकाने अतिशय रूपवंत जोईने पोतानी साथे लीधी. अने तेने पोतानी स्त्री करी. काळयोगे विचरतां विचरतां शसक ने भसक बंने ते सार्थवाहने गृहे गोचरी गया. सुकुमारिकाए ऊभी थई तेओने गोचरी वहोरावी पण बंने जणा विस्मय पामी तेने जोवा लाग्या. सुकुमारिकाए पूछ्यु-शुं जुओ छो? तेओए कह्य-अमारी बहेन जेवी तुं जणाय छे पण ए वात केम संभवी शके ? कारण के अमे तो तेने वनमां मरणावस्थामां त्यजी दीधी छे. सुकुमारिकाए का-हुं तमारी बहेन ज छं. पछी सर्व वृत्तांत कही संभळाव्यो. एटले तेओए सार्थवाह पासेथी पोतानी बहेनने मुक्त करावीने दीक्षा अपावी. बाद अणशण स्वीकारीने स्वर्गमां गई. आ कथानो सार जाणी कदापि साधुए स्त्रीस्पर्श करवो नहीं. आ ज हकीकतनी पुष्टि करतां विशेष कहे छे के जत्थित्थीकरफरिसं, लिंगी अरिहोवी सयमवि करिज्जा । तं निच्छयओ गोयम!, जाणिज्जा मूलगुणे भट्ठम् ।।८५ ।। कीरइ बीअपएणं, सुत्तमभणिअं न जत्थ विहिणा उ । उप्पन्ने पुण कज्जे, दिक्खाआयंकमाईए ॥८६ ।। [यत्र स्त्रीकरस्पर्श, लिङ्गी अहोऽपि स्वयमपि (स्वयमेव) कुर्यात् । तं निश्चयतो गौतम !, जानीयात् मूलगुणभ्रष्टम् ॥८५ ॥ क्रियते द्वितीयपदेन, सूत्राभणितं न यत्र विधिना तु। उत्पन्ने पुन: कार्ये, दीक्षाऽऽतङ्कादिके ॥८६॥] गाथार्थ- साधुवेषधारी अने आचार्य पदवीथी विभूषित एवा मुनि पण जो स्वयं स्त्रीनो कर-स्पर्श करे तो हे गौतम ! जरूर जाणवू के ते गच्छ मूळगुणथी भ्रष्ट छे. अपवाद मार्गथी पण स्त्रीनो करस्पर्श करवानो निषेध कर्यो छे परंतु दीक्षानो नाश थाय तेवं गंभीर कारण आवी पडे तो जे गच्छमां आगमोक्त विधि जाणनारा द्वारा ज स्पर्श कराय तेवा गच्छने सुगच्छ जाणवो. ८५-८६ विवेचन- स्त्रीस्पर्श केटलो कामोत्तेजक छे ते आपणे पूर्वे जोई गया छीए एटले शास्त्रकारे आचार्यपदथी विभूषित तेमज प्रौढ विचारशील साधने पण तेना स्पर्शनो निषेध कर्यो छे. श्रीमहानिशीथ सूत्रना पांचमा अध्ययनमां का के–“जत्थित्थीकरफरिसं, अंतरिया कारणे वि उत्पन्ने । अरिहावि करिज्ज सयं, तं गच्छं मूलगुणमुक्कम ॥१॥” जे गच्छमां पदवीधर साधु वस्रादिकथी आच्छादित स्त्रीनो हाथ, कारण उत्पन्न शये सते पण स्पर्श तेने चारित्र गुणरहित जाणवो. ते ज अध्ययनमा विशेष का छे के–“जण्णं गोयमा! मेहुणं तं एगंतेणं ३ णिच्छयओ ३ बाढं ३ तहा आउतेउसमारंभं च सव्वहा सव्वप्पयारेहिंसययं विवज्जेज्जा।” अर्थात् हे गौतम ! मैथुन अने अपकाय तथा अग्निकायना आरंभने सर्व प्रकारे निश्चयपूर्वक हमेशां वर्जवो. शास्त्रकार विशेषमां श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २२९ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरमावे छे के दीक्षा के रोगनुं कष्ट आवी पडे तो पण आगम विधि जाणनार जस्त्री - स्पर्श करी शके. आगमन ज्ञाता होय, प्रौढ होय, पदवीधर होय तेवा प्राज्ञ पुरुषने माटे पण आगम विधि मुजब स्पर्शनुं फरमान छे तो जेओ अज्ञानी छे तेओने माटे कहेवुं ज शुं ? श्रीबृहत्कल्पना छट्ठा उद्देशामां आगमविधि शुं छे? तेनुं वर्णन आपेल छे के— “निग्गंथस्स य अहे पादंसि खाणू वा कंटगे वा हीरे वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहित्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोमाणी वा नाइक्कमइ ||१ || निग्गंथस्स य अच्छिसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाज्जा नीहरित्तए वा विसोहेमाणी वा नाइक्कमइ ॥ २ ॥ निग्गंथीए अहे पादंसि खणू वा कंट वा हीरए वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाइज्जा नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा, तं निग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ ॥ ३ ॥ निग्गंथीए अच्छिसि पाणे वा बीए वा रए वा जाव निग्गंथे नीहरमाणे वा नाइक्कमइ ॥ ४ ॥” (१) कोई निर्गंथने पगमां काष्ठनी सळी, कांटो, झीणो कांकरो के रेती पेसी गई होय अने ते कांटा प्रमुखने काढवा पोते समर्थ न होय त्यारे साध्वी पासे विशुद्धि करावे तो ते बने भगवंतनी आज्ञानुं उल्लंघन करतां नथी, एटले आ कारण-प्रसंगथी साधु-साध्वीनो स्पर्श थाय तो पण ते बने आज्ञा- धारक ज छे. (२) बीजा सूत्रमां दर्शाव्युं छे के-कोई साधुनी आंखमां मच्छर प्रमुख सूक्ष्म जीव, सूक्ष्म बीज, सचित्त अचित्त पृथ्वीन रज (धूळ) पडी होय अने ते जीवादिकने काढवा समर्थ थाय तो साध्वी सहाय करी शके. आम करवामां श्रीतीर्थंकर भगवंतनी आज्ञा उल्लंघाती नथी. (३-४) जेवी रीते साधु संबंधी कह्यं तेवी ज रीते साध्वीना पगमां कंटक प्रमुख पेसी गया होय अने आंखमां सूक्ष्म जीवादिक प्रवेशी गया होय तो साधु तेम सहाय करी शके, ए वात त्रीजा-चोथा सूत्रमां दर्शावी छे- आ चार अपवादो उत्कृष्ट कारण आवी पडे त्यारे ज सेववाना छे; कारण के निर्युक्तिकार कहे छे के– “पाए अच्छि वि लग्गे, समणाणं संजएहिं कायव्वं । समणीणं समणीहिं, वोच्चुत्थे होंति चउगुरुगा ॥१॥” “जे साधुने पगमां कंकरादिक लाग्या होय अथवा आंखमां सूक्ष्म जीवादिक प्रवेश्यां होय तो साधु तेी विशुद्धि करे अने जो न करे तो चारमासी गुरु प्रायश्चित लागे. एवी ज रीते साध्वीना पगमां कंटकादिक पेसी गया होय त्यारे बीजी साध्वी तेनी विशुद्धि करे अने जो न करे तो तेने पण चारमासी गुरु प्रायश्चित लागे. आ ऊपरथी समजी शकाय छे के - उत्कृष्ट कारण आवी पड्या सिवाय ऊपर दर्शावेलां चार अपवादनो आश्रय न लेवो. जो ते प्रमाणे न वर्ते तो कई रीते दोषापत्ति थाय छे ते नीचेना श्लोकोथी जणाशे. “अण्णत्तो च्चिअ कुंटसि, अन्नत्तो कंटओ खतं जातं । दिट्ठ पिहतदिद्धिं किं पुण अदिट्ठइअरस्स ||२ || कंटककणुए उद्धर, धणितं अवलंब मे मति भूमी । सूलं च वत्थसीसे, पेल्लेहि घणं थणो फुरति ॥ ३ ॥ " साध्वी पासेथी कांटो कढावतो साधु धूर्तताथी तेमज स्वभावथी पोताना वस्त्रादिक बराबर ढांक्या विना बेसे एटले साध्वी तेने जेम होय तेम देखवाथी चलित चित्तवाळी बने अने खोतरवानुं स्थान मूकी अन्य स्थळे खोतरे त्यारे साधु 'अहीं खोतर, अहीं खोतर' एम अन्य अन्य स्थान दर्शावतां बनेनो परस्पर वधतो वार्तालाप श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २३० Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेवटे चारित्रभ्रष्टतामां परिणामे. जे भुक्तभोगी स्त्री होय ते पण अन्यनुं लिंग देखी विह्वल थई जाय छे तो जेणे कदापि लिंग देख्यु ज नथी तेवी स्त्री मनचलिता बने तेमां आश्चर्य शुं ? जो साध्वी साधु पासे कंटकादिक कढावे के आंखमांथी रज दूर करावे तो स्पर्श मात्रथी विह्वळता वधे अने पछी साध्वी कहे के-मने चकरी आवे छे, पृथ्वी फरती जणाय छे, मारा मस्तकमां पीडा थाय छे, मारा स्तन धडकवा लाग्या छे माटे मने अवलंबन आपो. आ प्रमाणे कथा-परिचय वधतां तत्काल चारित्रनो नाश थाय. बीजा पण घणा दोषो आवा प्रकारना वर्तनथी उपजे छे तेनुं विस्तृत विवेचन श्रीसुयगडांगसूत्रना “स्त्रीपरिज्ञा” नामना अध्ययनमां आपेल छे ते पैकी रोहा नामनी तापसीनी कथा जाणवा योग्य छे, जे नीचे प्रमाणेरोहा तापसीनी कथा कोई एक अजापालक (भरवाड) जांबूना वृक्ष ऊपर बेठो हतो तेवामां रोहा नामनी तापसी त्यां आवी चढी. भरवाडनुं सुंदर रूप अने भरावदार चहेरो जोईने तेने ते पसंद पड्यो एटले विचार्यु के-आ भरवाड केवो चतुर छे तेनी परीक्षा करूं. आ प्रमाणे विचारी तेणे तेनी पासे जांबूडा माग्यां, एटले अजापालके कां के ऊना आपुंके ठंडा? रोहाए का के-ऊना आप एटले भरवाडे पाकेला जांबुडां नीचे धूळमां नाख्या त्यारे तापसी तेने फूंकी फूंकीने खावा लागी अने पूछ्यु के-आ जांबुडां ऊना क्यां छे? त्यारे भरवाडे का के-जे ऊना होय ते फूंकीने ठंडा करीने खवाय. आ सांभळी रोहाए जाण्यु के-भरवाड छे तो चतुर पछी कपट करी तेने कहेवा लागी के–मारा पगमां कांटो वाग्यो छे ते तुं काढ. भरवाड नीचे उतरी कांटो काढवा लाग्यो त्यारे रोहा कंईक हसी, पण पगमां कांटो क्या हतो के निकळे? थोडीवार आमतेम तपास कर्या बाद अजापालके का के-तारा पगमां कांटो देखातो नथी. बाद रोहा ते भरवाडने पूंठ दईने बेठी अने हावभाव दर्शाववा लागी. छेवटे तेनी साथे भोग भोगवी चाली गई. आ प्रमाणे रोहाए कंटकना मिषथी अजापालकने भ्रष्ट कर्यो तेम साधु या साध्वीए परस्पर कंटकादि न कढाववा. आ संबंधे अनुलक्षीने विशेष वर्णन करतां टीकाकार कहे छे के मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा फासभावसंबंधो ।। पडिगमणादी दोसा, भुत्तमभुत्ते य णेयव्वा ।।५।। दिढे संका भोइय-घाडिगणातीयगामबहियाए। चत्तारि छच्च लहुगुरु छेदो मूलं तह दुगं च ॥६॥ आरक्खियपुरिसाणं, तु साहणे पावती भवे मूलं । अणवट्टप्पो सेटठीणं, दसमं च निवस्स कथितम्मि ॥७॥ एए चेव य दोसा, असंजतीकाहिं पच्छकम्मं च । गिहिएहि पच्छकम्मं, तम्हा समणेहिं कायव्वं ॥८॥ श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २३१ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो तु असति समणाणं । गिहि १ अण्णतिथि २ गिहिणी ३-परउत्थिगिणी तिविहभेदो ॥९॥ जतिसीसम्मि न पुंछति, तणुपोत्तेसु व न वावि पप्फोडे । तो से अन्नेसिंऽसति, दवं दलंती उमा दगं घाते ॥१० ।। माया भगिणी धूया, अज्जियणत्तीयसेसतिविहाओ। आगाढिकारणंमि, कुसलेहिं दोहि कायव्वं ॥११॥ गिहि अण्णतित्थिपुरिसा, इत्थीवि य गिहिणि अण्णतित्थीया। संबंधि ईतरा वा, वइणी एमेव दो एते ॥१२ ।। तं पुण सुण्णारण्णे, दुवारण्णे व अकुसलेहिं वा। कुसले वा दूरत्थे, ण वएइ पदंपि गंतुं जे ॥१३॥ परपक्खपुरिसगिहिणी, असोयकुसलाण मोत्तु पडिवक्खं । पुरिसजयंतमणुण्णे, होन्ति सपक्खेतरावत्ते ॥१४॥ सल्लुद्धरणक्खेण व, अस्थि व वत्यंतरं व इत्थीसु । भूमीकट्ठतलोरुसु, काऊण सुसंवुडा दोवि ॥१५ ।। एमेव य अच्छिमि, चंपादिद्धं तु नवरिणाणत्तं । निग्गंथीण तहेव य, णवरिं तु असंवुडा काई ॥१६॥ लोको साधु या साध्वीने परस्परनो कांटो काढतो देखे त्यारे विचारे के आ लोको बोले छे ते प्रमाणे वर्तता जणाता नथी. साध्वीए साधुना चरण ग्रहण कर्या तो तेओने बीजो पण संबंध होवो जोइए-कुकर्म करता हशे. आवा प्रकारनी हीलणा थाय अने साथोसाथ संयमविराधना पण थाय, कारण के भुक्तभोगी पण परस्परना स्पर्शजन्य सुखथी चलित थाय छे तो बीजानी तो वात ज शी करवी? (५) साधुने साध्वीनो कांटो काढतां कोई देखे त्यारे तेने शंका थाय के-शुं आ मैथुनने माटे उपासना करता हशे? आवी शंका करनारने चारमासी लघुदंड आवे, स्त्रीने कहे तो चारमासी गुरुदंड आवे, मित्रने वात कहे तो छमासी लघुदंड अने ज्ञातिने जणावे तो छमासी गुरुदंड आवे.(६) गामना कोटवाळने कहे तो मूळ प्रायश्चित, गामना श्रेष्ठिने कहे तो अनवस्थाप्य अने राजाने वात कहे तो छेल्लुं पारांचित नामनुं प्रायश्चित आवे.(७) हवे चारित्र विनाना स्त्री पुरुष पासे कांटो कढावे तो कयां दोषो लागे ते जणावतां कहे छे के-पूर्वे कह्या ते ज बधा दोषो लागे. असंयती हाथ प्रमुख धोवे तो पश्चात्दोष पण लागे. एटले के साधुनो कांटो साधु पासे ज कढाववो पण साध्वी या तो गृहस्थ के गृहस्थिनी पासे न कढाववा. तेवी जरीते साध्वीए कांटो साध्वी पासे कढाववो परंतु साधु या तो गृहस्थ के गृहस्थिनी पासे न कढाववो. (८) आ संबंधमां प्रतिवादी शंका करतो पूछे छे के-जो आ प्रमाणे कहेशो तो अगाऊ वर्णवेल सूत्र निष्फळ निवडशे. आचार्य भगवान तेनो उत्तर आपतां कहे छे के – सूत्र निर्रथक नथी. जो साधुनो सर्वथा अभाव होय तो साध्वी कांटो काढे ए सूत्र सफळ श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २३२ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज छे. सर्वप्रथम तो गृहस्थ श्रावक पासे कांटो कढाववो, तेना अभावमां अन्यमति गृहस्थ पासे, तेना अभावमां श्राविका पासे अने तेना अभावमां अन्यमति स्त्री पासे कांटो कढाववो. ते प्रत्येकना पण त्रण त्रण भेदो छे. गृहस्थ १ पश्चात्कृत, २ श्रावक अने ३ भद्रक-एम त्रण प्रकारे छे तेवी रीते अन्यमति गृहस्थ पण त्रण प्रकारना जाणवा. अन्यमति गृहस्थिनी स्त्री पण १ डोशी, २ मध्यम वयवाळी अने ३ युवान-एम त्रण प्रकारनी जाणवी. गृहस्थ पासे कांटो कढाववो पडे तो प्रथम पच्छाडक पासे कढाववो, तेना अभावमां श्रावक पासे अने तेना अभावमां भद्रक पासे कढाववो. साथोसाथ तेने सूचना आपवी के-तुं जळथी हाथ धोईश नहीं. जो ते शौचवादी न होय तो पोताना बंने हाथ परस्पर घसीने साफ करी ले, अगर तो वस्त्रथी लूंछी नाखे. (९) जो कांटो काढनार शौचवादी होय तो तेने सूचवq के-मारा मस्तकद्वारा अगर वस्त्रद्वारा तारा हाथ साफ करी ले, छतां पण ते तेम न करे तो तेने सुचवद् के-घरे जईने तमे अचित्त जळथी हाथ धोजो. तेना घरे तेवा जळनी जोगवाई न होय तो पोतानी पासे रहेला अचित्त जळथी तेना हाथ धोवराववा, कारण के जो तेम करवामां न आवे तो घरे जईने ते पुष्कळ काचुं (सचित्त) पाणी वापरे जेथी पृथ्वीकाय तेमज अपकायना जीवोनी विराधना थाय. (१०) गृहस्थादिकनो अभाव होय तो माता, बहेन, पत्री, दादी, पौत्री विगेरे पासे कढावे अने ते सर्वना अभावमा वृद्धा, मध्यमा अने युवती पासे कढावे. कदाच तेवो पण संयोग न होय अने गाढ कारण आवी पड्युं होय तो बे डाह्या पुरुषने पासे राखीने एक पासे कांटो कढाववो. (११) बे डाह्या एटले एक गृहस्थ ने एक अन्यतीर्थिक अथवा तो एक गृहस्थिनी अने बीजी अन्यतीर्थी स्त्री.(१२) साधुनो अभाव क्यारे होय, ते दर्शावतां कहे छे के-सिंहादिकथी व्याप्त अटवी होय अथवा शून्य अरण्य होय, रोगादिकने कारणे साधु एकला पाछळ रही गया होय अने कांटो लाग्यो होय त्यारे बीजा साधुना अभावमां ऊपर दर्शावेल पद्धति अनुसार कांटो कढाववो. (१३) हवे यतना दर्शावतां कहे छे के-पोताना संभोगी भला साधु पासे कांटो कढावे, तेना अभावमां असंभोगी भला साधु पासे अने तेना अभावमां पासत्था पासे कढावे. आ प्रमाणे जो पोताना पक्षना साधु न मळे तो पछी अनुक्रमे परपक्षी गृहस्थ, अन्यतीर्थिक, गृहस्थिणी, अन्यतीर्थी स्त्री, कुशळ अशौचवादी, कुशळ शौचवादी पासे कढावे. ते बधा पैकी एक पणनो संयोग न मळे तो माता, बहेन इत्यादिक संबंधी साध्वी पासे कढावे, तेना अभावमां वृद्धा, मध्यमा अने युवती स्त्री पासे कढावे. (१४) हवे साध्वी कांटो केवी रीते काढे ते दर्शावतां कहे छे के - नखहरणीवडे पगने स्पा विना ज कांटो काढे, अने तेम न बनी शके तो पगने वस्त्रवडे वींटीने, जमीन ऊपर या लाकडा ऊपर मूकीने कांटो काढे अने ते वखते बे साधु या तो साध्वी पासे बेसे. (१५) जेवी रीते पगना कांटादिक काढवानो उत्सर्ग अने अपवाद मार्ग कह्यो तेवी ज रीते आंखनी रज संबंधी पण जाणवू. (१६) साधुनी आंखमां पडेल तृणना संबंधमां सुभद्रानुं दृष्टांत छे, जे नीचे प्रमाणेसती सुभद्रानुं वृत्तांत- - ___ वसंतपुरमा जिनदास नामनो जैनधर्मरक्त श्रेष्ठी हतो. तेने तत्त्वमालिनी पत्नीद्वारा सुभद्रा नामनी पुत्रीनी प्राप्ति थई. सुभद्रा जेवी रूपवान हती तेवी ज गुणवान सती पण हती. जिनदासे पण पोतानी श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २३३ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकनी एक पुत्रीने लाडकोडमां उछेरी. जिनदास शेठना धार्मिक संस्कारो पण सुभद्राए झील्यां अने ते शुद्ध समकितधारिणी बनी. सुभद्राए यौवनवयमा प्रवेश करतां जिनदासने तेने योग्य पति माटे । चिंता उत्पन्न थई. तेनी इच्छा सुभद्राने योग्य जैनधर्मी कुळमां परणाववानी हती. आ अरसामां चंपानगरीनो बौद्धधर्मी बुद्धदास नामनो व्यापारी वसन्तपुर आवी चढ्यो. एकदा जिनदास श्रेष्ठीना महेल पासेथी पसार थतां तेणे सुभद्राने जोई. जोतां ज तेने अनुभव थयो के आ युवती वादळामांथी छूटी पडेली वीजळी तो नहीं होय? सुभद्राना रूपराशिए बुद्धदास, चित्त आकर्षी लीधुं पण तेने प्राप्त करवा शुद्ध जैनधर्मी बन्या सिवाय छूटको नहोतो, कारण के जैनधर्मीने ज पोतानी कन्या परणाववानी जिनदासनी मान्यता अचळ हती. पोताना कार्यनी सिद्धि माटे बुद्धदासे जैन शास्त्रोनो अभ्यास करवा मांड्यो अने श्रावकोचित करणी सामायिक, प्रतिक्रमण, जिनपूजा, व्याख्यानश्रवण, गुरुवंदन अने नवकारसी आदिक प्रत्याख्यान पण करवा लाग्यो. सुभद्राना रूप तेमज गुण ऊपर मुग्ध थयेला बुद्धदासे जिनदास पासे तेनी पुत्रीना पोतानी साथे लग्न करवानी । मागणी करी. अनुकूळ समये बुद्धदास अने सुभद्रा लग्नग्रंथीथी जोडायां. सांसारिक जीवन शरू कर्या बाद बुद्धदासने पोतानी मातृभूमि- आकर्षण थयं पण जिनदास श्रेष्ठी पोतानी कन्याथी जुदा पडवा तैयार न हता. वळी सुभद्राने जैनधर्मी नहीं पण एक चुस्त बुद्धधर्मी कुटुम्बमां वसवानुं हतुं. आ कारणथी बुद्धदास पण मनमां मूंझातो. जिनदास शेठ जमाईनी मूंझवण समजता हता. आ समये बन्ने धर्मों वच्चे तीव्र स्पर्धा चालती हती एटले जिनदास जेवा चुस्त जैन पोतानी कन्याने इतरधर्मी कुटुम्बमां वसवा माटे परवानगी आपे ते असम्भवित हतुं छेवटे सुभद्राए समजाववाथी अने जमाईना आग्रहथी जिनदासे रजा आपी अने साथोसाथ जुदा घरमा : वसवाना अने सुभद्राना धर्म-विचार अने आचार-स्वतंत्रता संरक्षवानी बुद्धदासने भलामण करी. __ चम्पानगरीमा आवी सुभद्रा पण नित्यनियम मुजब वर्तन करवा लागी. तेनुं सौभाग्य सुख अन्यने आंखना कणानी जेम खूचवा लाग्युं तेना सासु-ससराने बुद्धदास स्त्रीना दास जेवो जणावा लाग्यो, परंतु तेओनो कशो उपाय न चाल्यो. धीमे धीमे धुंधवातो आ ईर्ष्याग्नि घरना आंगणामां आवी पहोंच्यो. पोताना कुळमां एक जैनधर्मी स्त्री पोताना धर्मनुं यथार्थ पालन करे ते तेना सासु-ससराथी सहन न थयुं तेओ तेनो उघाडो विरोध करवा लाग्या, पण तेनी बुद्धदासे कंई दरकार न करी. ___ हवे तेना सासरियाओए सुभद्राना छिद्रो जोवा शरू कर्यां. एकदा तेओनी धारणा फळिभूत थई. एटले मासखमणने पारणे कोई तपस्वी मुनि सुभद्राना गृहे गोचरी अर्थे पधार्या. तेमनी आंखमां पवनना वेगथी एक तणखलुं पडेलुं, पण देह प्रत्ये उदासीन भाववाळा ते मुनिवरने तेनी दरकार न हती. सुभद्राए गोचरी वहोरावतां मुनिजीने थती व्यथा निहाळी एटले लघुलाघवी कळाद्वारा पोतानी जीभवडे आंखमांथी तणखलुं चपळताथी लई लीधुं परंतु तेम करतां पोताना भालप्रदेशमां करेल ताजा तिलकनुं कंकुं पण मुनिश्रीना कपाळमां चोंटी गयुं. दूरथी आ दृश्य तेनी सासुए जोयुं एटले तेनो अत्यार सुधी महामहेनते दबावेलो क्रोध-दावानळ भभूकी उठ्यो. तेणे पोतानापुत्रने बोलावी श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २३४ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व हकीकत वर्णवतां कां-जो, तारी स्त्रीना चरित्र ! ज्यां सुधी वात बहार नथी गई त्यां सुधी सारं छे पण आवी वात प्रसरता शहरमां तारी लाखनी प्रतिष्ठा राखना मूल्यनी थशे; माटे पाणी पहेलां ज पाळ बांध अने कंईक समज. बळतामां घी होमवानी माफक बुद्धदासने माताना वचननी असर थई. तेणे सुभद्रा साथेनो वहेवार बंध करी दीधो. बुद्धधर्मी भक्तोए आ हकीकतनो शहेरमां वायुवेगे प्रचार कयों. जैन श्राविका सुभद्रानी स्थळे स्थळे निंदा थवा लागी. आ बाजु सुभद्रा तो मेघाच्छादित सूर्यनी माफक निर्विकार अने प्रतापी ज हती. कलंक, निंदा अने अपवादनी मध्यमां पण तेने अंशमात्र क्रोध के आवेश स्पर्शी शक्या नहीं. शांत चित्तथीं तेणे आ कारण माटे शासनदेवीनी सहाय मांगी अने तेनी आराधना माटे कायोत्सर्ग को. अठ्ठमनी प्रांते शासनदेवीए पण प्रत्यक्ष थई तेनुं कलंक दूर करवा वचन आप्युं सुभद्राए कायोत्सर्ग पारी पारणुं कर्यु. बीजा दिवसनो प्रात:काळ थतांज नगरमा हाहाकार प्रवर्ती गयो. शहेरना चारे दिशाना दरवाजा ओचीता (आपमेळे ज) बंध थई गया. बहारनी दुनिया साथेनो चंपावासीओनो वहेवार तूटी गयो. जो दरवाजा न खुले तो समग्र नगरी क्षुधा-तृषाना संकटमां सपडाई जाय. नगरवासीओनी व्याकुळता वधी गई. राजा पासे वात पहोंची. राजाए द्वारपाळोने बोलाव्या द्वारपाळोए कां के देवकृत उपसर्ग सिवाय अमने बीजुकशुं कारण जणातुं नथी, माटे देव-प्रार्थना करावो. धूप-दीप-पुष्पादिकनो बलि समीने राजवीए देवने संबोधीने प्रार्थना करतां ज देव-वाणी थई के–“आ नगरनी कोई पण साची सती स्त्री काचा सुतरना तांतणाद्वारा चालणी बांधी ते चालणीद्वारा कूवामांथी पाणी खेंची द्वारो ऊपर छांटशे त्यारे ज ते दरवाजा उघडवाना.” राजाए आवी सती स्त्रीनी शोध माटे नगरीमां पडह वगडाव्यो. सतीत्वना घमंडवाळी केटलीय युवतीओ कूवाकांठे आवी निराश थईने चाली गई. कोईनो सुतरनो तांतणो तूटी जतो, कोईनो तांतणो कायम रहे तो पण चालणीमां पाणी न भराय अने कदाच ते बंने तो पण चालणी ऊपर आवतां पाणी, बिन्दु मात्र पण न मळे. राजा पण आवी जातना बनावथी शोकग्रस्त बनी गयो. नागरिक लोको ऊपर पण चिंतानुं वादळ छाई रह्य. सुभद्रा पोते जाणती के-मारा कलंकना निरसन माटे ज शासनदेवीए योजेल आ युक्ति छे एटले सर्व स्त्रीओए अजमायश करी लीधा पछी ते पोतानी सासु पासे गई अने नम्र वाणीमां आ कसोटीमाथी पसार थवा तेनी आज्ञा मांगी. परंतु धगधगता ज्वाळामुखी पर्वतमाथी जेम ज्वाळा बहार आवे तेम सासुनो रोषभर्यो वाग्-धसारो वहेतो थयो–“तारुं चरित्र मलिन छे तेथी तो अमे शरमना मार्या कोईने मों पण बतावी शकता नथी, माटे वधु फजेती न करावतां तुं छानीमांनी घरमां ज बेसी रहे ते ज उचित छे ! तारे त्यां जईने अमारी अधूरी रहेली मश्करी पूरी कराववी छे?" आवा कटु वचन सांभळी सुभद्रा पोताना आवासे गई अने स्नानादिकथी शुद्ध थई, पंचपरमेष्ठीना स्मरणपूर्वक कूवा कांठे गई. काचा सुतरना तंतुथी चालणी बांधी कूवामां उतारी. हजारो नेत्रो तेना प्रत्ये आकर्षाई गया, कारण के तेनी सफळता ऊपर तेओनी जीवन-आशा निर्भर हती. सौ कोईना आश्चर्य वच्चे चालणी जळ भरपूर बनी ऊपर आवी अने बंध दरवाजा ऊपर पाणी छांटतां ज ते तत्काळ खुली जवा लाग्या. उत्तर, श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २३५ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम अने दक्षिणना त्रण दरवाजाओ उघाड्या पछी, 'हजु पण कोईने पोताना सतीत्वनुं अभिमान होय तो आ पूर्व दिशानो दरवाजो उघाडे' एवा सूचन साथै सुभद्राए ते दरवाजो बंध रहेवा दीधो, जे अद्यापि बंध छे. चंपाना नृपतिए सुभद्रानुं बहुमान कर्यु, लोकोए “सुभद्रानी जय जय” पोकारी अने बुद्धदासे पण पत्नीने देवी मानी. तेना सासु ससरा वस्तुस्थितिनुं सत्य भान थतां जैनधर्मी बन्या. आ प्रमाणे धर्मनो प्रभाव दर्शावी सुभद्राए प्रांते दीक्षा स्वीकारी आत्मकल्याण साध्युं. साधु गमे तेटला गुणवान होय पण मूळगुणमां दोषित होय तो तेवा साधुने जे गच्छ बहार करे ते गच्छ जाणवो. ते संबंधमां जणावे छे के— मूलगुणेहिं विमुक्कं, बहुगुणकलियं पि लद्धिसंपन्नम् । उत्तमकुले वि जायं, निद्धाडिज्जइ तयं गच्छम् ॥८७ ।। [ मूलगुणैर्विमुक्तो, बहुगुणकलितोऽपि लब्धिसम्पन्नः । उत्तमकुलेऽपि जातो, निर्घाट्यते स गच्छः ॥ ८७ ॥] गाथार्थ - अनेक गुणोथी युक्त, लब्धिसंपन्न अने उत्तम कुळमां जन्मेल एवो साधु पण जो पंचमहाव्रतरूप मूळगुणथी रहित होय तो तेवा साधुने गच्छबाह्य कराय ते ज गच्छ प्रमाणभूत छे. विवेचन - राजन्य जेवा उत्तम वंशमां जन्म्यो होय, चंद्रादि उत्तम कुळमां दीक्षित थयो होय, अने *लब्धिओथी विभूषित होय, बीजा पण अनेक गुणो होय छतां पण जो ते साधु प्राणातिपातविरमणादि पांच महाव्रतरूप मूळगुणथी रहित होय तो तेने थीणद्धि निद्रावाळा अथवा कषायदुष्ट शिष्यनी जेम गच्छबाह्य करवा जोईए. मूळगुण ए संयमरूपी महेलनो पायो छे. जो पायो मजबूत न होय तो तेना ऊपर ऊभो करेल बारी-बारणायुक्त महेल टकी शकतो नथी तेम ज महाव्रतोना अभावमां बीजा वारी - बारणारूप गुणो पण टकी शकता नथी. मूळगुण जे एकान आंक छे. एकडा विनाना घणा मींडा पण निरर्थक छे तेम महाव्रतो सिवायना शेष गुणो शून्य जेवा छे. श्रीनिशीथसूत्रनी पीठिकामां थीणद्धि निद्रावाळाना केटलाक दृष्टांतो आपेला छे. कोई एक गाममां एक कौटुंबिक वसतो हतो. ते प्रतिदिन मांस पकावीने खातो एने घणी हिंसा करतो. एकदा तेने चारित्रपात्र मुनिनो संयोग थयो. धर्मोपदेश सांभळी कौटुंबिकने वैराग्य उद्धव्यो एटले दीक्षा ली धी. स्थविरोनी साथे विहार करतां करतां एक नगरमां आव्यो. मार्गे जतां एक हृष्ट-पुष्ट पाडो तेना जोवामां आव्यो एटले तेने तेनुं मांस खावानी इच्छा थई, पण साधु वेशमां शुं थई शके ? तेनी अभिलाषा वधवा लागी पण थाय शुं ? गोचरीए गया तो पण अभिलाषा तेनी ते ज. गोचरी करी, स्थंडिल गया, छेल्ली पोरसी भणावी, सांजनी आवश्यक विधि करी, छेवटे संथारा पोरसी पण करी छतां मांस खावानी इच्छा नाश न पामी. रात्रिए सूता पछी तेने * थीणद्धि निद्रा आवी. ते X * * लब्धियोनुं वर्णन पृ. १९२ थी १९८ ऊपर आवी गयुं छे. x थीणद्धि निद्रा ए दर्शनावरणी कर्मनी नव प्रकृति पैकी एक छे. दर्शनावरणीय कर्मनी नव प्रकृति आ प्रमाणे- १ निद्रा, २ निद्रानिद्रा, ३ प्रचला, ४ प्रचलाप्रचला, ५ थीणद्धि, ६ चक्षुदर्शन, ७ अचक्षुदर्शन, ८ अवधिदर्शन अने ९ केवळदर्शन. श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २३६ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठीने ज्यां पाडानो वाडो हतो त्यां गयो, पाडाने मारी तेनुं मांस तृप्ति प्रमाणे खाधुं अने बाकीनुं लईने उपाश्रये आव्या. छापरा ऊपर मूकी पुन: सूई गया. प्रभाते जागृत थई गुरुमहाराज पासे आव्या अने कहेवा लाग्या के-आजे मने आवुं स्वप्नं आव्युं हतुं के में एक पाडाने मारी नाख्यो, तेनुं मांस खाधुं अने शेष रह्यं ते उपाश्रय ऊपर मूक्युं गुरुए तपास करावी तो उपाश्रयना छापरा ऊपर मांस पडेलुं एटले तेमने थीणद्धि निद्रावाळो अयोग्य जाणीने ते ज वखते गच्छबहार कर्यो. कोई एक साधु गोचरी गया तेवामां एक स्थळे लाडुनुं भोजन जोईने ऊभा रह्या. घणी वार ऊभा रह्या छतां गृहस्थे ते वहोराव्या नहीं अने साधु पण कशुं बोल्या नहीं. मोदक लीधा बना उपाश्रये आव्या पण तेमनी इच्छा नाश न पामी. गोचरी आदिक सर्व कार्यों कर्यां छतां मनमांथी मोदकनी तृष्णा नाश न पामी. रात्रे सूता पछी थीणद्धि निद्राना वशथी उठीने ते गृहस्थना घरे गया अने रखेवाळने मारी नाखी, द्वारना कमाड तोडीफोडी नाखी यथेच्छ मोदको खाधा अने शेष रह्या ते पात्रामां भरी लई उपाश्रये आवी सूई गया. प्रात:काळे पात्रानी प्रतिलेखना करतां अन्य साधुओए मोदक जोया एटले तेमनो रात्रि संबंधी सर्व व्यतिकर सांभळीने गुरुए तेमने गच्छबहार कर्या. कोई एक कुंभारे एक गांवमां दीक्षा लीधी. थीणद्धि निद्राना कारणे ते रात्रिए ऊभो थयो अने जेवी रीते माटीना घडा दोरडाथी कापतो हतो तेवी ज रीते साधुओना माथां कापवा लाग्यो. साधुओना कलेवर एक बाजु अने माथा बीजी बाजु नाखवा लाग्यो. प्रभाते उठी गुरुने कह्यं के-रात्रिए मने आवा प्रकारनुं स्वप्नं आवेल छे. गुरुए तपास करावी तो तेमणे रात्रिमां घणा साधुओनौ संहार करी नाखेल. गुरु तेमने गच्छबहार कर्या. कोई एक साधु गोचरीए गया तेवामां राजानो हाथी सामो मळ्यो. हाथीए साधुने बीवराव्या एटले ते साधुने क्रोध चढ्यो रोषमां ने रोषमां साधु सूई गया. थीणद्धि निद्राने कारणे रात्रिमां ऊभा थई, ते हाथी पासे जई तेना दांत बहार खेंची काढ्या. बाद ते लई, उपाश्रये आवी, ते दंतुशूळने बारणा पासे की सूई गया. राई प्रतिक्रमण समये गुरुमहाराजने पोताने तेवा प्रकारनं स्वप्न आवेल तेवी वात करी एटले प्रात:काळे तपास करी तो बारणा पासे बन्ने दन्तुशूळ पडेला जोईने ते ज वखते गुरु तेमने गच्छबहार कर्या. कोई एक साधु गोचरीए गया तेवामां मार्गमां मोटुं शाळनुं वृक्ष आव्युं तेनी शाखाओ घणी विस्तृत होवाथी तेमने थोडो रस्तो फरीने जवुं पड्युं. तडको लाग्यो हतो, घणा साधुओनी गोचरी लाववानी होवाथी भार पण विशेष हतो, तृषा पण लागी हती, भूख पण पीडी रही हती तेथी उतावळे उतावळे पाछा फरतां ते वृक्षनी डाळी साथे जोरथी अथडाया अने मस्तक फुटी गयुं. रोषमां ने रोषमां ते उपाश्रये आव्या. रात्रे थीणद्धि निद्रना कारणथी उठीने ते शाळवृक्ष पासे गया अने तेने मूळमांथी उखेडी, खभे उपाडी लावी उपाश्रय पासे नाख्युं प्रात:काळे गुरुने खबर पडतां तेमने गच्छबहार कर्या. केटलाक आचार्यों आ संबंधमां कहे छे के-आ साधु पूर्वभवमां वनहस्ती हतो. ते समये तेणे घणा वृक्षो उखेडी नाखेला तेना अभ्यासथी आ भवमां पण शाळवृक्षने मूळमांथी खेंची काढ्युं. श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २३७ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आ संबंधमां प्रतिवादी शंका करतो पूछे छे के-थीणद्धि निद्रावाळा साधुने गच्छबाह्य ज़ शामाटे करवो? तेवा साधुनो तो वेष ज छीनवी लेवो जोईए. तेनो उत्तर आपतां ग्रंथकार कहे छे-थीणद्धि निद्रावाळाने वासुदेव करतां अर्ध बळ होय छे अने वज्रऋषभनाराच संघयण होय छे. तेने कोई पण जीती शके नहीं. वळी जो तेने विशेष क्रोधित को होय तो गच्छनो सर्वनाश करी नाखे, माटे तेमने पारांचित प्रायश्चित आपq उचित छे. हवे श्रीनशीथसूत्रना अगियारमा उद्देशानी चूर्णीमां जणावेल कषायदुष्ट साधुओना दृष्टांतो जणावे छे. कोई एक साधु गोचरीए गया. गोचरीमा तेमने सरगवानुं शाक मळ्युं. शाक स्वादिष्ट हतुं तेथी तेमां तेमने आसक्ति थई. गुरु पासे आवी गोचरी बतावतां गुरुए ज वधं शाक लई लीधू ने खाई गया. शिष्यने अत्यन्त क्रोध चढ्यो. गुरुए तेने खमाव्यो तो पण तेने क्रोध शान्त न थयो अने का के-हुं तमारा दांत पाडी नाख़ीश.त्यारे ज जंपीश. गुरुए विचार्यु के- आ साधु क्रोधना आवेशमां न करवानुं करी बेसशे एटले गच्छमां योग्य शिष्यने आचार्य तरीके स्थापी पोते अन्य गच्छमां चाल्या गया. ते शिष्य पण अन्य गच्छमां गयो अने त्यां गुरु संबंधी पूछपरछ करी. शिष्योए जाण्यु के-आ ते ज दुष्ट शिष्य जणाय छे. तेओए का के-आजे ज गुरु काळधर्म पाम्या छे अने तेमना शरीरने वोसरावी दीधुं छे. त्यारे ते दुष्ट शिष्ये कां के -मने ते स्थळ बतावो. शिष्योए स्थळ बताव्युं अने पछी गुप्त रीते संताई ते दुष्ट शिष्य शुं करे छे ते जोवा लाग्या. ते कषायदुष्टे गुरुना शरीरने बहार काढी, पत्थरवती तेना दांत पाडी नाख्या अने बोलवा लाग्या के-आ दांतने ज सरगवानुं शाक मीठु लाग्युं हतुं. बीजा शिष्योए तेनुं दुष्ट वर्तन जाणी गच्छमांथी काढी मूक्यो. कोई एक साधु पासे सारी मुहपत्ति आवी. गुरुए तेनी पासेथी ते लई लीधी एटले तेने अत्यंत क्रोध चढ्यो. गुरुए तेने पाछी देवा मांडी पण तेणे ते लीधी नहीं अने मनमां डंख राख्यो. एकदा बीजा शिष्यो आघापाछा गया हता तेवामा लाग जाईने तेणे गुरुर्नु गर्छ दबाव्युं गुरुए पण तेनुं गर्छ पकड्यु, छेवटे बन्ने मृत्यु पाम्या. आवा दुष्ट चेलाने कदापि पासे न राखवो. कोई एक साधु सूर्यास्त थया पछी पण वस्त्र सीववा लाग्या त्यारे गुरुए तेने का के-हे उलूक (घूवड) ! शुं तुं अत्यारे पण देखे छे? शिष्य क्रोधी बन्यो अने का के-मने आम कहेनारनी बन्ने आंख हुं काढी नाखीश. भय पामी गुरु अन्य गच्छमां जता रह्या अने त्यां अणशण स्वीकारी काळधर्म पाम्या. क्रोधी शिष्य पण ते गच्छमां गयो अने गुरु संबंधी पृच्छा करी. बीजा साधुओए जाण्यु के-आ ते ज दुष्ट शिष्य हशे. तेओए तेने गुरुने परठवेल ते स्थळ बताव्युं अने गुप्त रीते ते शुं करे छे ते जोयुं तो ते दुष्ट शिष्ये पोताना रजोहरणमांथी लोढार्नु चप्पु (चाकू) काढी गुरुनी बन्ने आंख फोडी नाखी. साधुओए तेने गच्छबहार काढी मूक्यो. एक साधुने गोचरीमा शिखरण मळ्यू. उपाश्रये आवी आचारधर्म मुजब गुरुने बतावतां ते सर्व पी गया एटले शिष्य रोषी बनीने पत्थर लईने गुरुने मारवा आव्यो. बीजा शिष्योए तेने वार्यों तो पण तेनो क्रोध शांत न थयो, गुरु अणशण स्वीकारी, काळधर्म पाम्या. शिष्यो तेने परठवी आव्या. बाद श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २३८ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे ठेकाणे गुरुने परठव्या हता त्यां आगळ ते दुष्ट शिष्य गयो अने गुरुना देहने बहार काढी पत्थरा मार्या त्यारे ज तेने आत्मामां शांति थई. आ प्रकारना शिष्यो दशमा पारांचित प्रायश्चितने योग्य छे. हवे सोना-रूपा विगेरेना परिग्रह विनाना गच्छने सुगच्छ वर्णवतां कहे छे के जत्थ हिरण्णसुवण्णे, धणधण्णे कंसतंबफलिहाणं । सयणाण आसणाण य, झुसिराणं चेव परिभोगो ॥८८ ॥ जत्थ य वारडियाणं, तत्तडिआणं च तह य परिभोगो । मुत्तुं सुक्किलवत्थं, का मेरा तत्थ गच्छम्मि ? ।।८९ ।। जत्थ हिरण्णसुवण्णं, हत्येण पराणगंपि नो छिप्पे । कारणसमप्पियं पि हु निमिसखणद्धपि तं गच्छम् ॥९० ॥ [यत्र हिरण्यसुवर्णयो-र्धनधान्ययो: कांस्यताम्रस्फटिकानाम् । शयनानामासनानाञ्च, शुषिराणां चैव परिभोग: ॥४८॥ यत्र च रक्तवस्त्राणां, नीलपीतादिरङ्गितवस्त्राणाञ्च परिभोगः । मुक्त्वा शुक्लं वस्त्रं, का मर्यादा तत्र गच्छे? ॥८९ ॥ यत्र हिरण्यसुवणे, हस्तेन परकीयेऽपि न स्पशेत् । कारणसमर्पितेऽपि हु निमेषक्षणार्धं स गच्छ: ॥९० ॥ गाथार्थ-जे गच्छमां सोनानो, रूपानो, धननो, धान्यनो, कांसा तेम ज तांबाना पात्रोनो, स्फटिक रत्नमय भाजनोनो, खाट पलंग आदि शयनीयनो, बेसवानी खुरशी, मांची आदि आसननो तेम ज सच्छिद्र (पोलां) पीठ फलकनो उपभोग कायम करवामां आवतो होय तेम जमुनिने योग्य श्वेत वस्त्रनो त्याग करीने रातां, लीलां के पीळां वस्त्रोनो उपयोग करातो होय ते गच्छने मर्यादावाळो क्याथी कही शकाय? वळी जे गच्छना साधुने भय के स्नेहादिकना कारणे कोई गृहस्थ सोनु, रुंघु अर्पण करे छतां पण साधु अर्धनिमेष मात्र समय पर्यन्त पण तेने हाथवती स्पर्शे नहीं ते गच्छ ज प्रमाण जाणवो. विवेचन-हिरण्य शब्दनो अर्थ रूपुं अथवा नहीं घडेलुं सोनु थाय अने सुवर्णनो अर्थ घडेलु सोनु थाय छे. धन एटले रोकड रुपिया, सोनामहोर, माणिक्य प्रमुख. धान्य चोवीश प्रकारना छे, ते आ प्रमाणे -१ यव, २ गोधूम (घउं), ३ शाळ, ४ व्रीहि-जुदी जुदी जातना चोखा, ५ साठी चावल, ६ कोद्रवा, ७ जुवार, ८ कांग-मोटा शरानी, ९ रालग-नाना शरानी, १० तल, ११ मग, १२ अडद, १३ अयसि-क्षमाकुरी, १४ काळा चणा, १५ तिउड़ा-बावरा, १६ वाल, १७ मठ, १८ मोटा चावल, १९ बंटी, २० मसुर, २१ तुर, २२ कळथी, २३ धाणा अने २४ गोळ श्वेत चणा (काबुली चणा). ग्रंथांतरमा धान्य-संख्या तथा नाममा फेरफार जोवाय छे. कांसाना पात्र-थाळी, कचोळा, वाटका विगेरे, त्रांबाना पात्र-कमंडलु, कळश विगेरे-आवा प्रकारना परिग्रहना त्यागवाळा साधुओ जे श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २३९ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छमां होय तेने सुगच्छ जाणवो. श्रीनिशीथसूचना अगियारमा उद्देशामां अढार प्रकारना पात्रोनो त्याग उपदिश्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ लोढाना, २ कांसाना, ३ त्रांबाना, ४ तरवाना, ५ सोनाना, ६ रूपाना, ७ सीसाना, ८ कथीरना, ९ हीरपुट (लोहपुट), १० मणिना, ११ काचना, १२ शंखना, १३ शींगडाना, १४ दांतना, १५ चेल एटले नेत्र प्रमुखना, १६ पाषाण-पत्थरना, १७ चामडाना अने १८ वज्ररत्नना-आवा अढार प्रकारना पात्रो पोते राखे,बीजा पासे रखावे अने राखनारने सारो कहे अथवा पोते भोगवे, बीजा पासे भोगवावे अने भोगवनारने भलो कहे तेने चारमासी प्रायश्चित लागे. वळी जे पात्राने लोढाना, त्रांबाना, कांसाना यावत् ऊपर कह्या ते अढारे प्रकारना बंधनथी बांध्या होय तेवा काष्ठना पात्रने पोते राखे, बीजा पासे रखावे अने राखनारनी अनुमोदना करे तेने पण चारमासी प्रायश्चित लागे. ___मांची, हिंडोळा प्रमुख आसनो पण वर्जवा कारण के तेनी प्रतिलेखना बराबर थई शकती नथी. मूळमां जे चैव' शब्द मूक्यो छे ते गादी, तकिया, गालमशूरिया विगेरे कोमळ अने पोला शयनादिक सूचवनारा छे, तेनो पण निषेध समजवो. लाल, पीळां के लीला वस्त्र साधुए न पहेरवा. फक्त श्वेत वस्त्र ज देह ऊपर धारण करवा. १ आचारांग, २ उत्तराध्ययन, ३ कल्पसूत्र टीका, ४ कल्पसूत्र चूर्णी अने ५ निशीथ सूत्र मूळ तेमज चूर्णीमां श्वेत वस्त्रनुं प्रतिपादन करेल छे; कारण के बीजा विचित्र रंगोवाळा वस्त्रमा मर्यादा सचवाती नथी. ऊपर आपणे जोई गया के रंगेल वस्त्र पण साधु न राखी शके तो पछी सुवर्ण के रुपुं पासे राखवानी वात संभवी ज केम शके ? सिद्धांतकार कहे छे के-कोई पण गंभीर कारण उपस्थित थये छते कोई गृहस्थ, साधु पासे सोनु-रुपुं मूकवा आवे तो पण तेने अर्धनिमेष जेटला समय पूरतुं पण ग्रहण न करवं. आंखमींचीने उघाडीए तेटला समयने निमेष कहेवामां आवे छे. आटला सूक्ष्मकाळ पर्यंत पण जेनो निषेध कर्यो छे तेना संसर्गनी तो कथा ज शामाटे करवी? शास्त्रकारे आ संबंधमां अपवाद मार्ग पण दर्शाव्यो छे. श्रीनिशीथसूत्रमा परिग्रहनो अधिकार छे त्यां दर्शाव्युं छे के–“गिलाणमंगीकृत्य वेज्जट्ठताय हिरण्णंपि गेण्हेज्जा उरालस्यापवादः, विसे कणगं ति विषग्रस्तस्य कनकं-सुवर्णं तं घेतुं घसिऊण विसणिग्घायणट्ठा तस्स पाणं दिज्जति, अतो गिलाणट्ठा उरालियग्गहणं भवेज्ज त्ति ॥" ग्लान साधुना उपचारने माटे, वैद्यने आपवा माटे अने कोई साधुने विस्फोटक थयुं होय त्यारे सोनुं घसीने पावा माटे उपयोगमा लेवु पडे तेटलो समय सोनुं ग्रहण करे परंतु कार्य परिपूर्ण थये अर्ध निमेष मात्र समय पर्यंत पासे राखी शकाय नहीं.. आत्रण गाथामां धन, धान्य विगेरेने लगती जे मर्यादा बतावी छे ते मर्यादाने साचवे-पाळे ते ज सुगच्छ कहेवाय. हवे साध्वी संबंधी गच्छमर्यादा वर्णवे छे जत्थं य अज्जालद्धं, पडिगहमाईवि विविहमुवगरणम् । परिभुज्जइ साहूहिं तं गोयम ! केरिसं गच्छम् ? ॥९१॥ श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २४० Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [यत्र चार्यालब्ध, पतद्ग्रहाद्यपि विविधमुपकरणम् । परिभुज्यते साधुभिः, स गौतम ! कीदृशो गच्छः ? ॥९१॥] गाथार्थ- जे गच्छमां साध्वीओए मेळवेल पात्रादिक उपकरणोनो साधओ वगरकारणे उपभोग करता होय तेने हे गौतम! केवो गच्छ कहेवो? अर्थात् ते सुगच्छ नथी ज. विवेचन-साध्वीए आणेल पात्रादिक उपकरणो पण साधुए स्वीकारवानो निषेध छे तो पछी तेनो लावेल आहार तो केम ज कल्पी शके ? श्रीयतिजीतकल्पमां का छे के–“गुरुउवहिअपडिलेहे, छप्पइअअसोहिकंमि तदग्गणे। लहुया गुरुगज्जाणं, सयमेव य वस्थपायगहे ॥१॥" गुरुनी उपधि पडिलेहि नहीं, तेमां जू विगेरेनी तपास न करे तो लघुचारमासी दंड आवे अने गृहस्थ पासे वस्त्र, पात्रादिक ग्रहण करे तो चारमासी गुरुदंड लागे. साध्वीने गृहस्थ पासे वस्त्र, पात्रादिक ग्रहण करतां केवा केवा दोषो उद्भवे ते जणावतां कहे छे के–साध्वीने ए प्रमाणे ग्रहण करतो कोई नूतन श्रावक जुए तो मिथ्यात्वी बने, वळी ‘साध्वीओ तो पात्रादिकना मिषथी भाई ले छे' तेवी शंका कोईने उपजे, स्त्रीजाति स्वभावथी चंचळ होय छे तेथी तेनी साथे मैथुन-सेवननी इच्छाथी गृहस्थ वस्त्र-पात्रादिक वहोरावे अने जो तेनी इच्छानो अनादर थाय तो लोकमां हांसी करे, वळी स्त्रीजातिनुं सत्त्व (धैर्य) अल्प होय छे एटले सारा वस्त्रादिकथी लोभाई जाय छे अने तेने अंगे अकार्य करवा प्रेराय छे. वळी रूपवती साध्वीने जोईने मोह पामेल कोई गृहस्थ वशीकरणद्वारा तेने व्यामोह पण पमाडे-इत्यादिक अनेक कारणोथी शास्त्रकारे साध्वीने वस्त्र-पात्रादिक ग्रहण करवानो निषेध फरमाव्यो छे. साध्वीने वस्त्रादिक तो जोईए ज, तो तेमणे क्याथी मेळववा? ते प्रश्नना जवाबमां जणाववामां आवे छे के - तेणे पोतानी जरूरियात पोताना आचार्यने जणाववी अने आचार्य पण विधिपूर्वक साध्वीने आपे. ते विधि कई छे? ते जणावतां कहे छे के-आचार्य साध्वीने योग्य उपधि मंगावीने सात दिवस पोतानी पासे राखे, बाद कल्प करीने स्थविराने पहेरावे अने विकार न थाय तो सुंदर एवी परीक्षा करीने ते उपधि प्रवर्तनीने आपे अने ते पण योग्य विधिपुरस्सर साध्वीने आपे. जो परीक्षा कर्या विना उपधि आपे अगर तो सीधेसीधा साध्वीने आपे तो आचार्यने चारमासी गुरु प्रायश्चित लागे. प्रवर्तनीने सोंप्या सिवाय कोई साध्वीने आचार्य सीधा उपधि आदि आपे तो अन्य साध्वी विचारे के-साध्वी युवान ने रूपवती छे तेथी आचार्ये तेने वस्त्र-पात्रादिक सीधा आप्या. आवी रीते कुशंका- कारण मळे. उपधि आपवा संबंधी विस्तृत अधिकार श्रीनिशीथसूत्रना पन्दरमा उद्देशानी चूर्णिमां छे. ___ अपवादमार्ग दर्शावतां का छे के-साधुना अभावमां साध्वीए वस्त्रादिक उपकरणो ग्रहण करवां पण तेमां स्थविरानो क्रम जाळववो. जो स्थविरा साध्वी न होय तो युवती साध्वी अन्य साध्वी साथे जईने आपे. आ संबंधमां विशेष पुष्टि करतां कहे छे के अइदुल्लहभेसज्जं, बलबुद्धिविवणंपि पुट्ठिकरम् । अज्जालद्धं भुज्जइ का मेरा तत्थ गच्छम्मि ? ।।९२ ।। श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २४१ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगो एगिथिए सद्धिं जत्थ चिट्ठिज्ज गोयमा !। संजइए विसेसेणं, निम्मेरं तं तु भासिमो ॥१३॥ दढचारित्तं मुत्तं, आइज्जं मयहरं च गुणरासिं । इक्को अज्जोवेई, तमणायारं न तं गच्छम् ॥१४॥ [अतिदुर्लभभैषज्यं, बलबुद्धिविवर्धनमपि पुष्टिकरम् । आर्यालब्धं भुज्यते, का मर्यादा तत्र गच्छे? ॥९२ ।। एक एकाकिस्त्रिया सार्थ, यत्र तिष्ठेत् गौतम !। संयत्या विशेषेण, निर्मर्यादं तं तु भाषामहे ॥९३ ।। दृढचारित्रां निर्लोभां, आदेयां महत्तरां च गुणराशिम् । एकाकी अध्यापयति, सोऽनाचारः न स गच्छः ॥१४॥ गाथार्थ-जे गच्छमां साधुओ साध्वीए आणी आपेल, बळ ने बुद्धि वधारनारा पुष्टिकारक, अति दुर्लभ औषध-भेषजनुं सेवन करतां होय ते गच्छमां मर्यादा क्याथी होय? एकलो साधु एकली स्त्री अथवा साध्वी साथे रहे तेने हे गौतम ! अमे विशेष प्रकारे मर्यादा विनानो ज गच्छ कहीए छीए. वळी दृढ चारित्रशील, निर्लोभी, आदेय वचनवाळी, महामतिवंत अने गुणना निधानरूप महत्तरा (सर्व साध्वीओनी स्वामिनी) साध्वीने साधु एकलो भणावे तो ते पण अनाचार ज छे. विवेचन-बाणुमी गाथामां आपेल मेरा शब्द देशी छे अने तेनो अर्थ मर्यादा थाय छे. जे गच्छ मर्यादावाळो नथी ते तीर्थंकरनी आज्ञा बहार छे. दुष्प्राप्य, बुद्धि वधारनार, शक्ति-दाता एवं औषध पण जो साध्वीथी लवायेल होय तो साधुथी वापरी शकाय नहीं. साधुने एकली स्त्री साथे वात करवानो पण निषेध कयों छे, तो एकली साध्वी साथे वास के वार्तालाप तो थाय ज क्यांथी? एकांतवास बह बुरी चीज छे. एकांतमा रहेतां एकबीजाना अंग-प्रत्यंगो जोवाय छे अने परस्परना विशेष वार्तालापथी मन चलित थई जाय छे. एकदा श्रेणिक महाराजा अने राणी चेलणाने भगवाननी पर्षदामां जोईने तेम ज तेओना रूपादिकनो विचार करीने श्रीमहावीर भगवंतना साधु तथा साध्वीए भवांतरमा तेवा थवानुं नियाणुं कर्यु हतुं. श्रीमहावीर परमात्माना दृढ अने क्रियापात्र साधु-साध्वीनुं मन चलित थई गयुं तो पछी बीजा सामान्य साधु या साध्वी माटे तो शुं कहेवू? माटे ज शास्त्रकारे एकांतमां तो स्त्री साथे वार्तालाप करनार साधुने मर्यादाहीन अने साध्वी साथे वास करनारने विशेष प्रकारे मर्यादाहीन कहेल छे. चारित्रना स्थिर परिणामवाळा, स्पृहा रहित, गुणवान अने महत्तरा (सर्व साध्वीओनी स्वामिनी) पदने प्राप्त थयेल एवी वृद्ध साध्वी पण जो साधु पासे एकांतमां भणवा बेसे तो ते गच्छ अनाचारी छे. साधुओना समूहमा जे स्थान आचार्य- छे तेवू ज स्थान (प्रतिष्ठा) महत्तरा (आचार्याणी)नुं छे. महत्तरा पदवी क्यारे प्राप्त थाय ते संबंधमां का छे के-“सीलत्था कयकरणा, कुलजा परिणामिया श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २४२ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यगंभीरा । गच्छाणुमया वुडा, महत्तरत्तं लहइ अज्जा ॥१॥" शियळवंती, सुकृत करनारी, कुलीन, वृद्धा, गंभीर अन्त:करणवाळी, गच्छमां मान्य एवी साध्वी महत्तरा पदने प्राप्त करे छे. हजु पण आ संबंधमा विशेष वर्णन करतां कहे छे के घणगज्जियहयकुहए-विजूदुग्गिज्जगूढहिययाओ । अज्जा अवारियाओ, इत्थीरजं न तं गच्छम् ।।१५।। [घनगर्जितहयकुहक-विधुदुर्गाह्यगूढहृदया: । आर्या अनिवारिताः, स्त्रीराज्यं न स गच्छः ॥९५ ॥] गाथार्थ-मेघनो गर्जारव, अश्वनाउदरमा रहेलो वायु अने वीजळीना चमकारनी जेमजेमना हृदय कळी न शकाय एवी साध्वीओ ज्यां स्वेच्छा मुजब गमनागमन करे ते स्त्रीराज्य छे पण गच्छ नथी. विवेचन- मेघ गर्जे त्यारे निर्णित न कही शकाय के-आ वरसशे के नहीं वरसे. वळी घोडो दोडे त्यारे तेना पेटमां एक प्रदेशमा संमूर्छिम वायु उपजे छे अने तेथी तेना उदरमां खळ-खळ एवो अवाज थाय छे पण ते मालूम पडतो नथी. कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्ये परिशिष्ट पर्वमां का छे के "दध्यौ च स्वर्णकारोऽपि, चरितं योषितामहो!। अश्वानां कुहकाराव-मिव को वेत्तमीश्वरः ॥१॥" ज्ञाता एवो सोनी, स्त्री- चरित्र अने अश्वना उदरमां थतो, 'कुहक' एवो शब्द जाणवाने कोण समर्थ छे? अर्थात् ते सर्व जाणी शकातां ज नथी. एटले कहेवानुं तात्पर्य ए छे के - स्त्री ए कपटनो करंडियो छे. तेनो स्वभाव चंचळ होवाथी तेनुं हृदय न कळी शकाय तेवू होय छे. आवी स्त्रीओ (साध्वीओ) जे गच्छमां अंकुश विना वर्तती होय ते गच्छने गच्छ न कहेवाय पण त्रियाराज्य ज कही शकाय. लौकिक शास्त्रोमां पण स्त्री-चरित्र संबंधी का छे के अनुप्लुतं माधवगर्जितं च, स्त्रीणां चरित्रं भवितव्यता च । ... अवर्षणं चाप्यतिवर्षणञ्च, देवा न जानन्ति कुतो मनुष्या: ? ॥१॥ जलमज्झे मच्छपयं, आगासे पक्खियाण पयपंति । महिलाण हिययमग्गो, तिन्निवि लोए न दीसन्ति ।।२।। यदि स्थिरा भवेद्विद्युत्, तिष्ठन्ति यदि वायवः । दैवात् तथापि नारीणां, न स्थेम्ना स्थीयते मन: ॥३॥ घोडाना पेटमां खळ-खळ एवो थतो ध्वनि, गाजतो मेघ वर्षशे के केम? स्त्री, चरित्र, भविष्यमां शुं थवानुं छे अने शुं थवा- नथी? आ वात देवो पण जाणी शकता नथी तो पछी मनुष्योनी शक्ति कई गणत्रीमां? जळमां माछलानो पग, आकाशमा उडतां पक्षीओना पगनी पंक्ति तेमज स्त्रीनुं हृदय-आत्रणे वाना जगतमां देखी शकाता नथी. कदाच दैवयोगथी वीजळी स्थिर बनी जाय, पवनो पण एक जग्यामां रहे परन्तु स्त्री, मन तो कदापि स्थिर रहे ज नहीं. श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २४३ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी पण स्त्रीजाति ज छे तेथी ते पण चपळ ने चंचळ मनवाळी होय छे. जो तेने लगाम विनाना अश्वनी माफक छूटी मूकवामां आवे तो ते कल्याण साधवाने बदले उलटुं हानिकर ज वर्तन आचरे छे. स्त्रीजातिने केटला अंकुशनी जरूर छे ते नीचेना श्लोकथी बराबर स्पष्ट समजाशे. का छे के–“पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने । पुत्रस्तु स्थविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥१॥" बालवयमा कुमारी होय त्यां सुधी स्त्री, रक्षण पिता करे छे, बाद युवती थाय त्यारे धणी पोषण करे अने वृद्धा थाय त्यारे पुत्रादिक तेनुं रक्षण करे; पण स्त्री स्वतंत्र न रहे. स्त्री- चित्त केटलुं दुष्ट होय छे ते विषयमां रेवती- वृत्तांत सारो प्रकाश फेंके छे. रेवतीनुं दृष्टांत राजगृही नगरीमां श्रेणिक राजा राज्य करता हता. नगरनी बहार गुणशील नामना यक्ष- मंदिर हतुं. ते नगरीमां महाशतक नामनो धनाढ्य गाथापति वसतो हतो. तेना आठ क्रोड सोनैया भंडारमा हता, आठ क्रोड व्यापारमा हता अने आठ करोड सोनैया, घरेणुं हतुं. आ उपरांत दश-दश हजार गायो- एक गोकुल एवा आठ गोकुल एटले एंशी हजार गायोनो ते स्वामी हतो. तेने तेर पत्नीओ हती, तेमां रेवती मोटी हती. रेवती पोताना पियरथी आठ क्रोड सोनैया अने आठ गोकुल कन्यादानमां लावी हती ज्यारे बाकीनी बारे पत्नीओ एक एक क्रोड सोनैया अने एक-एक गोकुल लावी हती. आ रीते महाशतकनी संपत्ति अने ऋद्धि अढळक हती. __भगवान महावीर विहार करतां करतां राजगृहीना गुणशील उद्यानमां समवसर्या. सर्व लोकोनी साथे महाशतक पण वंदनार्थे गयो. प्रभुनी अमृतमय देशना सांभळी समस्त पर्षदा आनंदित बनी. सर्व पोतपोताने स्थाने गया बाद महाशतके परमात्माने विज्ञप्ति करी के-हे प्रभो ! हुं पंचमहाव्रतरूप सर्व विरति ग्रहण करवा अशक्त छु, परंतु मने समकितमूळ श्रावकना बार व्रतरूप धर्म उच्चरवो. भगवंते का के–'धर्मस्य त्वरिता गति:' धर्मना सारा कार्यमां कदापि ढील न करवी. महाशतके श्रावकनां व्रतो अंगीकार कर्यां. आणंद श्रावक करतां विशेष ए ग्रहण कर्यु के–चोवीश क्रोड सोनैया उपरांत संपत्ति बधे तो तेनो धर्ममार्गमां व्यय करवो अने प्रतिदिन व्यापार करतां बे कांसाना पात्र भराय तेटलुं रुपुं उपार्जन थाय त्यारबाद व्यापारनो त्याग करवो. तेम ज रेवती आदि तेर स्त्रीयो उपरांतनो पण त्याग. धीमे धीमे महाशतक जीवाजीवादिक नव तत्त्वनो ज्ञाता थयो. महावीर भगवंत पण अन्यत्र विहार करी गया. एकदा रात्रिसमये रेवती जागत थई गई अने कटम्ब संबंधी विचारणा करवा लागी. तेवामां तेने विचार आव्यो के-आटली बधी सम्पति अने ऋद्धि होवा छतां हुं महाशतक साथे यथेच्छ भोगविलासो भोगवी शकती नथी. वळी मारी शोक्यो अंतरायभूत (वचमां आवे) छे माटे तेने अग्निना उपद्रवथी, शस्त्रप्रहारथी के विषप्रयोगथी मारी नां. आ प्रमाणे द्दढ विचार करी पोतानी शोक्योना छिद्रो जोवा लागी. तेओ वच्चे परस्पर अंतर पडावी रेवतीए छ शोक्योने शस्त्रप्रहारथी अने छने झेर आपीने मारी नाखी. तेना बार क्रोड सोनैया अने बार गोकुलोपण पोते लई लीधा. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २४४ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद रेवती महाशतक साथे यथेच्छ भोगो भोगववा लागी. विशेष भोग भोगववानी लालसाथी ते मांसलोलुपी थई अने प्रतिदिन तळेला, अग्निमां शेकेला विगेरे प्रकारना मांस खावा लागी. मांसनी साथे मदिरानुं व्यसन पण थयुं. ___एकदा राजगृही नगरीमां पर्वना दिवसोमां अमारी पडह वाग्यो एटले रेवतीने मांसने माटे मुश्केली ऊभी थई. राजाज्ञानु उल्लंघन थाय तो शिक्षापात्र थवाय एटले मांसना अभावमां रेवतीए पोताना गोकुलना माणसने बोलावीने का के-तारे हमेशां बे वाछडाओने मारीने तेनुं मांस मने मोकलाववं. आ प्रमाणे आवतां मांसने शेकीने, तळीने रेवती प्रतिदिन खावा लागी. ___ महाशतक श्रावक व्रत-पालन करतां चौद वर्ष व्यतीत कर्यां. एकदा पाछली रात्रे धर्मजागरिकामा विचार कयों के-गृहव्यवस्थामां में आटला वर्षों गाळ्या, हवे तो प्रात:काळे पुत्रने सर्व कारभार सोंपी हुं श्रावकनी प्रतिमा धारण करूं. प्रात:काळमां कुटुम्बीजनोने जमाडी, पुत्रने भार सोंपी, जिनेश्वरे कहेल धर्म अंगीकार करीने तेणे पौषधशाळामां वास कयों. आ अवसरे मांस तथा मदिराथी मदोन्मत्त बनेल रेवती पोताना केश छूटा मूकी, ओढणाना छेडाओ आघापाछा करती पौषधशालामा ज्यां महाशतक बेठा छे त्यां आवीने कहेवा लागी के हे श्रावक ! तुं चारित्र धर्मनी इच्छा करे छे, पुन्य बांधे छे, मोक्षनी वांछा करे छे पण ते धर्म, पुण्य, स्वर्ग अने मोक्ष विगेरे शुं छे ? धर्म करीने देवलोक जवानी तारी झंखना छे पण मारी साथे यथेच्छ भोग-विलासो भोगव तो देवलोकनुं सुख तो अहीं ज तने दर्शाएँ. मोक्षमां तो स्त्री नथी, अने स्त्री विनानुं सुख केQ? वळी परलोक कोणे जोयो छे? माटे मारी साथे मनगमतां विषयसुखो भोगव. रेवतीना आवां कष्टदायक वचन सांभळवा छतां महाशतक अंश मात्र चलायमान न थया त्यारे रेवती जेवी आवी हती तेवी चाली गई. बाद महाशतक श्रावके क्रमश: श्रावकनी अगियारे पडिमा वहन करी. पहेली प्रतिमा-जिन धर्मने विषे रुचि, मिथ्यात्वनो त्याग, पोषह के उपवास विगेरे न करे परंतु समकित रूडी रीते पाळे; बीजो त्याग न करे. बीजी प्रतिमा-समकित होय, श्रावकना बार व्रतो रूडी रीते पाळे पण सामायिक तथा देशावगासिक न करे. त्रीजी-सर्व प्रकारे समकित पाळे, श्रावकनां बार व्रतो पाळे, सामायिक तेम ज देशावगासिक करे परंतु आठम, चौदश, पूनम के अमावास्याने दिवसे पोषह न करे. चोथी-समकित, बार व्रत, सामायिक विगेरे करे, आठम-चौदश विगेरे दिवसोने विषे पौषध करे परंतु रात्रिने विषे काउसग्गध्यान करे. पांचमी-चोथीमां दर्शाव्या प्रमाणे सर्व क्रिया करे, उपरांत रात्रिभोजननो त्याग करे, रात्रिप्रतिमा करे-काउस्सग्ग करे, स्नान न करे, रात्रि भोजन न करे, धोतियु मोकळु पहेरे, दिवसे ब्रह्मचर्य पाळे, रात्रिए भोग-प्रमाण करे- आ प्रमाणे जघन्यथी एक, बे के त्रण दिवस अने उत्कृष्टथी पांच मास पर्यन्त विचरे. छट्ठी-पांचमीमां दर्शाव्या उपरांत रात्रिमैथुननो पण त्याग करे, परंतु सचित्तनो त्याग न होय. आ प्रमाणे जघन्यथी एक, बेत्रण दिवस अने उत्कृष्टथी छ मास पर्यंत विचरे. आठमी-सातमीमां दर्शाव्या ऊपरांत पोते आरम्भ न करे परंतु बीजा पासे श्रीगच्छाचार-पयन्ना-२४५ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराववानो त्याग नथी-आ प्रमाणे जघन्यथी एक, बे के त्रण दिवस अने उत्कृष्टथी आठ मास पर्यंत विचरे. नवमी-आठमीमां दर्शाव्या उपरांत पोताने अर्थे पण बीजा पासे आरम्भ न करावे पण बीजो कोई पोताने अर्थे आरम्भ करता होय तो तेनो त्याग नथी-आ प्रमाणे जघन्यथी एक, बे के त्रण दिवस अने उत्कृष्टथी नव मास पर्यन्त विचरे. दशमां-नवमीमां दर्शाव्या उपरांत पोताने अर्थे करेल भोजननो त्याग करे, मस्तक मुंडावे, चोटी रखावे, कोई वस्तु माटे पुत्रादिक पूछे तो बे अक्षर-हा के ना कहे. जाणता होय तो हा कहे. अने न जाणतो होय तो ना कहे-आ प्रमाणे जघन्यथी एक, बे के त्रण दिवस अने उत्कृष्टथी दश मास पर्यंत विचरे. अगियारमी-दशमीमां दर्शाव्या उपरांत मस्तक मुंडावे के लोच करे, साधुनी जेम वेष अने पात्रादिक राखे तेम राखे, साधुनी माफक ईर्यासमितिपूर्वक चाले, गोचरी अर्थे गृहस्थने घरे जाय त्यारे भात के दाळ रंधाई गया होय तो बने कल्पे. गृहस्थना घरमां जईने कहे छे के-हुं श्रावकनी पडिमा अंगीकार करेलो श्रावक छु माटे मने भिक्षा आपो. आ प्रमाणे मार्गमां विचरतां पण कोई प्रश्न करे के-तमो कोण छो? तो कहे के-हुँ पडिमाने वहन करनारो श्रावक छु. आ प्रमाणे जघन्यथी एक, बे के त्रण दिवस अने उत्कृष्टथी अगियार मास पर्यंत विचरे. आ बाबत कोई प्रश्न करे के-तो पछी तेओ साधु केम थई जता नथी? कारण के छल्ली अगियारमी पडिमामां तो साधुना जेवी ज आचरणा छे. आ प्रश्ननो खुलासो ए छे के-हजी स्वजनवर्गनो स्नेह तूट्यो नथी एटले सर्व विरति न ग्रही शके. महाशतक श्रावके आ अगियारे प्रतिमानुं वहन कर्यु अने तपश्चर्यादिकने कारणे तेनो देह दुर्बल बनी गयो. लोही तथा मांस सुकाई गया अने नाडीमां श्वासमात्र रह्यो. आ प्रमाणे कायकष्ट सहन करतां एकदा पाछली रात्रिमा धर्म-जागरण करतां तेने विचार उद्भव्यो के-देह दुर्बल थयो छे, लोही-मांस क्षीण थई गया छे अने नाडीमां श्वास छे तो हुं अणशण स्वीकारूं. बाद चारे आहारना त्यागपूर्वक- अणशण स्वीकारी विचरतां तेमने शुभ अध्यवसायोने अंगे अवधिज्ञान उत्पन्न थयु पूर्वदशामां लवणसमुद्रना हजार योजन, दक्षिण अने पश्चिम दिशामां पण हजार-हजार योजन पर्यंत अने उत्तर दिशामां चुल्लहिमवंत पर्वत पर्यंत जाणवा-देखवा लाग्या. ऊर्ध्वदिशामां सौधर्म देवलोक पर्यंत अने अधोलोकमां रत्नप्रभा नारकीना लोलुय नामना पाथडामां चोराशी हजार वर्षना आयुष्य प्रमाणने जाणवा-देखवा लाग्या. एकदा महाशतक पोतानी पौषधशाळामां छे तेवामां रेवती पूर्वनी माफक मदिरा-मस्त बनीने तेमनी पासे आवी अने केश छूटा मूकी, ओढवानुं वस्त्र आधु-पार्छ करती, हावभाव दर्शावती विषयसेवन माटे याचना करवा लागी. रेवतीए एक वार, बीजी वार अने त्रीजी वार पण ए ज प्रमाणे का एटले महाशतकने क्रोध उद्रव्यो अने अवधिज्ञानथी जोई तेने का के-“हे रेवती ! तारा अकृत्य अने दुष्ट आचरणथी तुं आजथी सातमी रात्रिए अळस रोगनी व्याधिथी मृत्यु पामी, रत्नप्रभा नारकीना लोलुय नामना पाथडामां चोराशी हजारना आयुष्यवाळा नारकी तरीके उपजीश.” महाशतकना आवा कठोर वचन सांभळतां ज रेवतीने भान आव्युं तेने जणायु के-महाशतक मारा ऊपर रूठ्यो छे अने मने धीरे धीरे मारी नाखशे. वळी मने श्राप दीधो छे तो मारूं हवे शुं थशे? एम भयभ्रांत श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २४६ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थती पोताना आवासे गई अने आर्तध्यानना योगथी प्रतिदिन झुरवा लागी. तेने परिणामे तेने अळस नामनो व्याधि थयो अने बराबर सातमे दिवसे मृत्यु पामी नारकीमां गई. आ बाजु पृथ्वी ऊपर उपकार करता करतां भगवंत श्रीमहावीरस्वामी ते नगरीमां समवसर्या. पर्षदा एकत्र थई अने भगवंते उपदेश आप्यो. पर्षदाना विसर्जन बाद भगवंते गौतमस्वामीने का के-हे गौतम ! आ नगरीमा महाशतक श्रावक अणशण स्वीकारीने पोतानी पौषधशाळामा रहेल छे. तेणे पोतानी पत्नी रेवतीने कठोर वचन का हतुं. अणशण स्वीकार्या पछी साचुं होय तो पण अनिष्ट अने अप्रिय वचनो कोईने पण न कहेवां जोईए, क्रोध पण न करवो घटे, माटे तमे तेमनी पासे जाओ अने प्रायश्चित आपी तेनी शुद्धि करो. भगवंतनुं वचन स्वीकारी गौतमस्वामी महाशतकनी पौषधशाळा तरफ चाल्या. गौतमस्वामीने आवतां जोई महाशतक श्रावक अतीव आनंदित थयो. बाद, गोतमस्वामीए भगवंते कहेल सर्व वृत्तांत जणावीने तेमने आलायणा आपी. वीस वर्ष पर्यन्त श्रमणोपासकपणं धारण करी, छेवटे साठ टंकनी मारणांतिक संलेखना स्वीकारी, काळधर्म पामी सौधर्म देवलोकमां अरुणवर्डिस नामना विमानमा चार पल्योपमने आउखे देव थयो. बाद त्यांथी च्यवी, महाविदेह क्षेत्रमा उत्पन्न थई मोक्षे जशे. आ कथानो सारांश ए छे के-स्त्रीजातिनो स्वभाव चंचळ होय छे माटे साध्वीनो संसर्ग न करवो तेमज तेनी पासे बेसबुं नहिं. स्त्री-चरित्र माटे पातालसुंदरी, कथानक पण बोधक छे, जे नीचे प्रमाणेपातालसुंदरीनी रसिक कथा विशाळापुरीना जयंतसेन राजाए एकदा गर्वथी पोताना सभाजनोने पूछयु के-एवी कोई कळा बाकी छे जेमां हुं निपुण न होउं? राजसभामां हाजी हा' कहेवावाळा घणा हता छतां एक सत्त्वशाली पुरुषे जणाव्यु के- राजन् ! आप हजी स्त्रीचरित्रनी कळा जाणी शक्या नथी. स्त्रीचरित्र आगळ देवो, दानवो, मंत्रतंत्रवादीओ विगेरे मुग्ध बन्या छे. जालंधरे स्त्रीने भोयरामा राखीने अनेक रक्षको रोक्यां तो पण ते जालंधरने छेतरी, भ्रष्टाचारी थई हती. राजा आ वात सांभळी आश्चर्य तो पाम्यो पण तेणे निर्णय कयों के-मारे हवे एक शुद्ध शियळवंत स्त्री साथे परणवू अने ते सती स्त्रीने भोयरामां राखीने हुं तेना सतीत्त्वनुं रक्षण करीश. बाद सामंतरायनी तरतनी जन्मेली एक स्वरूपवंत कन्या साथे ते परण्यो. राजमहेलमां एक गुप्त भोयरुं बनावी, तेमां तेने राखी अने धावमाताने पण तेनुं कार्य थई रह्या पछी विशेष बोलवा-चालवानो के बेसवानो निषेध को. अनुक्रमे ते यौवनावस्था पामी अने पाताळमां राखवाथी राजाए तेनुं पातालसुंदरी एवं नाम राख्यु. राजा तेनी साथे यथेच्छ विषयसुख भोगवे छे अने तेना निर्मळ शियलथी संतोष पामे छे, बीजी राणी करतां तेनुं अधिक सन्मान साचवे छे, राजकाजमां विशेष ध्यान आपतो नथी, राजसभामां पण मोडो आवी वहेलो चाल्यो जाय छे. ___एक समय त्यां रत्नद्वीपनो अनंमदेव नामनो व्यापारी विशालापुरी आव्यो अने राजाने आमळां जेवडां मोतीनो एक महामूल्यवान हार भेंट को. राजाए तेनुं दाण माफ कर्यु एटले व्यापार करतां तेने करोडो सोनैयानो लाभ थयो. ते नगरीमां तेणे पोतानुं मणिगृह बंधाव्यु अने राजानी कामपताका श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २४७ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामनी वेश्याने घणुं द्रव्य आपी वश करी. एकदा सार्थवाहे कामपताकाने पूछ्यु के-हमणां राजा राजकार्यमां शिथिल मनवाळो केम जणाय छे ? कामपताकाए का के-हुं कई विशेष जाणती नथी, परंतु अंत:पुरमां एवी वात चाले छ के-राजा भोयरामा राखेली एक रूपवंती राजकन्याना मोहमां पड्यो छे, बीजी राणीओनी खबर पण लेतो नथी अने तेथी राजकाजमां पण मंदता आवी जणाय ___ अनंगदेवने पण पातालसुंदरी जोवानुं मन थयु. जेणे सूर्यने पण देख्यो नथी एवी ते राजकन्या केवी गुणवंती ने रूपाळी हशे? लाग मळे तो मारे प्रेम पण करवो, एवो निर्णय करी अनंगदेवे प्रतिदिन विविध भेटणां धरी राजानुं मन वश करी लीधुं अने अंत:पुरमां पण एकलो जाव-आव करी शके तेवो विश्वास संपादन करी लीधो. क्रमे क्रमे भोयरानुं स्थान विगेरे जाणी लीधुं. बाद पोताना महेलथी भोयरा सुधी एक सुरंग पण खोदावी. एक दिवसे राजाना पाताळसुंदरी पासेथी जवा बाद अनंगदेव सुरंगद्वारा त्यां गयो. जुए छे तो पाताळसुंदरी ऊंघे छे. तेनुं स्वरूप जोई अनंगदेव घडीभर तो जाणे चित्रित होय तेम स्थिर थई गयो. बाद तेनी पासे जई, कोमळ वचनथी बोलावी तेने जाग्रत करी. कोई पण वखत राजा सिवाय अन्य पुरुषने जोयेल नहीं होवाथी पाताळसुंदरी अनंगदेवने जोतां ज विस्मय पामी. धीमे धीमे परिचय अने वार्तालाप थतां अनुराग वध्यो अने बन्ने परस्पर प्रेमी पण बन्या. धीमे धीमे गाढ प्रेम जामतां अनंगदेव- मन शंका रहित बनी गयुं एटले राजाना जवा बाद ते प्रतिदिन पातालसुंदरी पासे जवा लाग्यो. एकदा पातालसुंदरीए का के-मने तारा प्रासादे लई जई नगररचना देखाड. अनंगदेव तेने पोताना आवासे लई गयो. पातालसुंदरी गवाक्षमां बेसी नगरचर्चा जोवे छे तेवामां राजा पण हस्ती ऊपर बेसी आडम्बरपूर्वक उद्यानमां गयो. तेने जोई पातालसुंदरी विचारवा लागी के-मने केदीनी माफक भोयरामां छानी राखे छे अने पोते यथेच्छ विहार करे छे. राजाने पण हुं मारी चतुराई बतायूँ तो ज खरी. आ प्रमाणे दृढ निर्णय करी पातालसुंदरीए सार्थवाहने का के-राजाने तारा घरे जमवानुं आमन्त्रण आप. हुं बधी रसोई तेने जाते ज पीरसीश. तेनुं कथन सांभळी अनंगदेव तो दिग्मूढ ज थई गयो. अने अनंगदेव बोल्यो के-राजाने आमंत्रण आपी तारे मने यमदेवनो अतिथि बनाववो छे के महाअनर्थ उत्पन्न करवो छ ? तेम पूछतां पातालसुंदरीए का – तुं शा माटे भय पामे छे? वाणियानी जात डरपोक कही छे ते खोटं नथी. हुं कहुं छु तेम कर, नहिं तो तने पण मारे हाथ बताववो पडशे. राजाने हुशियारी अने अभिमान बहु ज छे, माटे तेनुं अभिमान उतारदुं छे. छेवटे सार्थवाहे राजाने आमन्त्रण आप्यु. ___पछी भोजनसमये पातालसुंदरी पोतानी हम्मेशनी साडी पहेरी राजाने पीरसवा लागी. राजानी तेना तरफ नजर जतां ते विचारमां पडी गयो के-आ पातालसुंदरी अहीं क्यांथी? हमणां ज हुं भोयरामांथी चाल्यो आq छु अने अहीं पण तेने ज देखें छु तो आ शुं? पण आ तो पातालसुंदरी जेवा स्वरूपवाळी अनंगदेवनी स्त्री हशे एम विचारी मन वाळ्युं. बीजी वार पण ते ज पीरसवा आवी अने राजानुं मन चकडोळे चड्यु. जमतां जमतां स्खलना थवा लागी. पातालसुंदरीथी कशुं अजाण्यु श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २४८ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न रह्य, त्रीजी वार ते पीरसवा आवतां राजाए तेनी साडी ऊपर निशानी माटे कढीनो छांटो नाख्यो. पातालसुंदरी राजानी कपटकळा समजी गई, पण जाणे कशुं जाणती ज न होय तेम पीरसवा लागी. हवे पातालसुंदरीए राजानी पूरेपूरी मश्करी करवानो उपाय रच्यो. __पोते एक पंखो लई राजानी बाजुमां बेठी अने कहेवा लागी - हे राजन् ! आ जमवानी वस्तु केम जमता नथी. खरी वात तो ए छे के–वाणियाना घर- भोजन राजाने क्याथी गमे? वळी अनंगदेवनी सामुंजोई कहेवा लागी-तमारा घरमां कई एवी वस्तु छे के राजा तेने जोईने आश्चर्यमां डूबी गया छे ? राजा बराबर जमता नथी अने विचारमां बराबर तल्लीन थई गया होय तेम जणाय छे. पीरसेलुं भोजन पण हजु तेमनुं तेम ज पडेल छे. पण हा, हुं खरेखर भूली गई. मोटा पुरुषने भूख ज बहु अल्प होय छे. आ प्रमाणे मीठी मश्करी करी शीतळ जळ आप्युं राजा पण मुखवास लईने पातालसुंदरीनी तपासना विचारमां ने विचारमा जल्दी अन्त:पुरमा गयो. पातालसुंदरी पण कढीना छांटावाळी साडी बदलावी, तेना जेवी बीजी साडी पहेरी, सुरंगद्वारा भोयरामां आवी सूई गई. राजाए आवी जोयुं तो पातालसुंदरी घोर निद्रामां ऊंघती हती. साडीनो पालव जोयो तो कढीनो डाघो पण न मळे एटले निर्णय को के-पातालसुंदरी जेवी अनंगदेवनी पत्नी पण हशे. पछी पातालसुंदरीने जगाडतां ते पण कपटपूर्वक जाणे गाढ निद्रामाथी उठी होय तेम आळस मरडी, राजानी साथे पूर्वनी पेठे भोगविलास करवा लागी. खरेखर त्रण जगतमां स्त्रीचरित्रनो पार कोण पाम्युं छे? बाद पातालसुदंरीए सार्थवाहने का के-आपणे हवे आ देशमा रहेवू नथी, माटे स्वदेश जवानी तैयारी करो, हुं पण साथे आq छु. सार्थवाह तो पातालसुंदरीनी वात सांभळी डरवा लाग्यो. पोतानो प्रपंच खुल्लो थई जवानो अने साथोसाथ मृत्युदंडनी भीति पण जणाई. पातालसुंदरीए का के–तमे डरो नहीं. हुं कहुं तेम करो. सर्व लेण-देण संकेली ल्यो, व्यापार ओछो करी नाखो अने वहाणो तैयार राखो. तमारा पिताना घरनो पत्र आव्यो छे एम जणावी अत्यारथी ज राजा पासे रजा मागो. निरुपाये अनंगदेवे ते प्रमाणे कर्यु. राजाए घणो आग्रह को परंतु अनंगदेव तो पातालसुंदरीना वचनथी बंधायेल हतो. अतीव स्नेहना बदलामां राजाए कंईक मागवायूँ कहेतां तेणे जणाव्यु के-मारी पासे धन, धान्य विगेरे अखूट छे. जो तमे समुद्रकांठा सुधी मने वळावा आवो तो आ देशमां अने परदेशमां पण मारी प्रतिष्ठा वधे. राजाए ते कबूल कर्यु. ___पछी शुभ मुहूर्ते प्रयाण नक्की थयुं राजा, अनंगदेव अने पातालसुंदरीनी त्रणे पालखीओ समुद्र तरफ रवाना थई. पातालसुंदरीए पोतानी पालखी राजानी पालखी पासे रखावी अने तेनी साथे वातचीत शरू करी. हे राजन् ! आपना प्रसादथी मारा स्वामीए घणुं धन पेदा कर्यु छे. अमे रातदिवस आपने भूलवाना नथी, पण कोई वखते आ सेवकने संभारजो. राजाने अमारा जेवा वाणिया याद न आवे परंतु अमे तो आपने कदी विसरवाना नथी. अमारो अविनय-अपराध थयो होय तो माफ करजो. पातालसुंदरी एम अनेक प्रकारे वात करती जाय छे, पण राजा तो पोताना विचारमा गरकाव छे. आ ते पातालसुंदरी के कोण? वळी तेने विचार आव्यो के धिक्कार छ मने ! अनंगदेवनी श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २४९ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नीने में पहेलां पण पातालसुंदरी धारी लीधी हती. थोडा वखतमां पालखीओ समुद्रकिनारे आवी पहोंची. राजाए विदाय आपी. वहाण नजरे पड्या त्यां सुधी राजा पातालसुंदरी तरफ जोई रह्यो. बाद राजाए स्वस्थाने आवी तपास करी तो पातालसुंदरी न मळे. तेना हृदयमां धास्को पड्यो. प्रधान विगेरेने बोलावतां तेओए तपास शरू करी. भोयरामां सुरंग मालूम पडी. राजाए कोई पण उपाये पातालसुंदरीने पकडी लाववा का पण ते निरर्थक हतुं. तेवामां त्यां चारणमुनि पधार्या. तेनी पासेथी सर्व वृत्तांत सांभळी राजा वैराग्य पाम्यो अने दीक्षा अंगीकार करी, स्वहित साध्युं. आ बाजु पातालसुंदरी वहाणमां अनंगदेवना भाई सुकंठ साथे प्रेममां पडी. कपट करी, अनंगदेवने दरियामां नाखी दीधो. सुकंठ साथे यथेच्छ भोगविलासो भोगववा लागी. अनंगदेवने भाग्ययोगे पाटियु मळी गयुं अने तरतां तरतां ते सिंहलद्वीपे निकळ्यो. मुनिनो योग मळतां दीक्षा लीधी. सुकंठ पण सिंहलद्वीपे आवी पहोंच्यो, कांठे उतरी उद्यानमा विहार करतां ते बंनेए अनंगदेवने साधुवेषमां जोयो. तेने जोतां ज सुकंठ तेनी पासे गयो. पातालसुंदरीए विचार्यु के-बंने भाई मळी गया छे अने मने हेरान करशे माटे तरत ज पाछी वळी अने समुद्रकांठे आवी जल्दी वहाण हंकार्या. त्यांथी अन्य द्वीपे जई वेश्या बनी. अंते मरण पामी दुर्गतिए गई. सुकंठे पश्चाताप करी प्रव्रज्या लीधी अने बंने भाई मुक्तिपद पाम्या. पातालसुंदरी- दृष्टांत स्त्रीचरित्र माटे प्रख्यात छे. जत्थ समुद्देसकाले, साहूणं मंडलीइ अज्जाओ । गोअम ! ठवंति पाए, इत्थीरज्जं न तं गच्छम् ॥९६ ॥ [यत्र समुद्देशकाले, साधूनां मण्डल्यां आर्याः । गौतम ! स्थापयन्ति पादौ, स्त्रीराज्यं न स गच्छः ॥९६ ॥] गाथार्थ-जे गच्छनी अंदर भोजनसमये साधुनी मंडळीमां साध्वीओ आवे छे ते हे गौतम! गच्छ नथी पण स्त्रीनु राज्य छे. विवेचन- सर्व साधुओनी मंडळीना भोजन करवाना समयने समुद्देशकाळ कहेवामां आवे छे. आवा समये साध्वीओ साधुमंडलीमा आवी शके नहीं, छतां पण जे आवा प्रकारनो निषेध न होय ते गच्छ कहेवातो ज नथी, परंतु स्त्री-साम्राज्य ज कहेवाय छे. श्रीओघनियुक्तिनी १९८-१९९मी गाथानी वृत्तिमां का छे के-साधुए उपाश्रयमां मंडली करवी, उपाश्रय न मळे तो शून्य गृहमां, देवना देरामां अथवा उद्यानमां करवी; ज्यां लोकोनुं आवागमन न होय. शून्य घरमां कोई गृहस्थ आवतो जणाय तो आडो पडदो करवो. तेवो पण योग न मले तो अरण्यमा निर्जन स्थळे जq अने अरण्य पण भययुक्त होय तो गुप्तस्थान शोध. संक्षिप्तमां कहेवानो सार ए छे के-कोई पण प्रकारे साध्वीनो परिचय न वधारवो. हवे कषायत्याग संबंधी दर्शावे छे– जत्य मुणीण कसाया, जगडिज्जत्ता वि परकसाएहिं । नेच्छन्ति समुट्टेडं सुनिविट्ठो पंगुलो चेव ॥९७ ।। श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २५० Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ यत्र मुनीनां कषायाः, उदीर्यमाणा अपि परकषायैः । नेच्छन्ति समुत्थातुं, सुनिविष्टः पंगुलः चेव ॥ ९७ ॥] गाथार्थ- सुखपूर्वक बेठेल पांगळा माणसनी माफक जे मुनिना कषायो बीजाओना क्रोधादिक कषायोवडे उद्दीपन कराय छतां उदय पामता नथी तेने हे गौतम! गच्छ जाणवो. विवेचन - पांगळो सुखपूर्वक बेठो होय त्यांथी पोतानी मेळे ऊभो न थाय तेम जे मुनिना कषायो बीजाना चळाव्या न चळे उदयमान न थाय ते साधु ज खरेखर सत्पुरुष छे अने वा साधुओना वसवाटवाळो गच्छ ज सुगच्छ छे. आ बाबतमां ग्रंथकार (१) स्कंदाचार्यना शिष्यो (२) अर्जुनमाळी अने (३) दमदंत मुनिना दृष्टांतो आपे छे. स्कंदाचार्यना शिष्योनुं वृत्तांत चंपा नगरीमां खंधक (स्कंदक) नामना राजाने पुरंदरयशा नामनी बहेन हती, जेने कुंभकारकड नगरना राजवी दंडक साथे परणावी हती. तो दंडक राजाने पालक नामनो मिथ्यात्वी पुरोहित हतो. ते एकदा दूत बनीने चंपा नगरीए आव्यो अने राजसभामां जैन धर्म तेम ज साधुओनो अवर्णवाद बोलवा लाग्यो. खंधके पोते तेनी साथे वाद करी तेने परास्त कर्यो. पालक अत्यंत क्रोधान्वित थई पोताना नगरे पाछो आव्यो. तेना मनमां वैरनी ज्वाळा बळती हती. खंधकनो बदलो लेवानो तेणे नक्की मनसूबो कर्यो. खंधके योग्य अवसरे वैराग्य-वासित थई, पुत्रने राज्य सोंपी श्रीमुनिसुव्रतस्वामी पासे प्रव्रज्या लीधी. पांच सो व्यक्तिओए तेमनी साथे दीक्षा लीधी. भगवन्ते तेमने पांच सो साधुओना आचार्य तरीके स्थाप्या. शास्त्राध्ययन करी स्कन्दक मुनि गीतार्थ बन्या. एकदा तेमणे श्रीमुनिसुव्रतस्वामी पासे पोतानी बहेन तथा बनेवीने प्रतिबोधवा जवा माटे आज्ञा मागी त्यारे परमात्माए कह्यं के-त्यां जवाथी तमने उपसर्ग थशे. स्कन्दक मुनिए पूछ्र्युं के विराधक थशुं के आराधक ? भगवन्ते कह्यं के तमारा सिवाय सर्व मुनि आराधक थशे. फक्त एक तमो ज विराधक थशो. मारा सिवाय सर्वनुं कल्याण सधातुं होय तो सारुं एम विचारी स्कन्दक मुनि तो पांच सो मुनिना परिवारयुक्त विहार करवा लाग्या. आ बाजु पालक पुरोहितने आ वातना समाचार मळतां ज तेणे पोताना पूर्वना वैरनो बदलो लेवानी युक्ति रची. नगरनी बहार अंग नामनुं उद्यान हतुं तेमां पांच सो शस्त्रो गुप्त रीते संताडाव्या. नगरनी समीप आवी पहोंचेला स्कंदक मुनिए तेज उद्यानमां वास कर्यो. नगरमा समाचार मळतां ज पौरजनो वांदवा गया. पुरन्दरयशा पण अतीव आनन्द पामी. मुनिने वांदी रत्नकम्बल वहोराव्यं. आ बाजु पालके राजाना कान भंभेर्या. हे स्वामिन् ! आ स्कन्दक मुनि परिश्रम सहन करी शकता नथी. दीक्षाथी कंटाळी गया छे. पोताना राज्यमा कई पण कारी फावे तेम न होवाथी पांच सो सुभटो साथे आवी तमारुं राज्य लई लेवा मांगे छे. राजाए कह्यं के तने आ वातनी खबर केम पडी ? पालके कह्यं के-तमने मारी नांखवा माटे साधुओना रूपमा सुभटो साथे लाव्या छे अने श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २५१ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शस्त्रो उद्यानमां गुप्त रीते संताड्या छे. राजाए तपास करावी तो पालके पोते ज गुप्त रीते मुकावेलां शस्त्रो मळी आव्यां एटले दंडक राजाने अतिशय क्रोध थयो अने तेना आवेशमां ने आवेशमां पालकने आज्ञा आपी के-हे पालक ! ते दुष्टोने तने उचित लागे ते शिक्षा कर “जोईतुं हतुं ने वैद्ये कह्यं” ते उक्तिनी माफक पालकने मनगमतुं मळी गयुं. तरत ज तेणे शेलडी पीलवानी घाणी मंगावी. स्कन्दक मुनिने एक स्थंभ साथे बांध्या, अने एक पछी एक चेलाने घाणीमां तल पीले तेम पीलवा मांड्या. स्कन्दके पालकने कह्यं के-सौप्रथम मने पीली नाख, पण पालकने तो तेमने पूरेपूरुं कष्ट उपजाववुं हतुं एटले एक पछी एक शिष्योने पीलवा मांड्या. स्कन्दक मुनि दरेक शिष्योने कहेवा लाग्या के - हे मुनिवरो ! परीषह सहन करवो ए साधु कर्तव्य छे. समताभावे परीषह सहन करजो. बाद तेने आलोयण आपी अणशण कराववा लाग्या. आ प्रमाणे ४९९ शिष्योने पीली नाख्या. छेवटे एक बाल शिष्यनी वारो आव्यो. आ लघुशिष्यो घात जोवो स्कन्दक मुनि माटे दुःसह्य हतो एटले तेमणे पालकने कां- हवे मने पीली नाख, पछी आ लघुशिष्यनो वा काढ. पण पालकने तो कोई पण प्रकारे स्कन्दक मुनिने पीडा ज उपजाववी हती, एटले तेमना कथननी दरकार न करी लघुशिष्यने ज पीली नाख्यो. हवे ते कारणे स्कन्दक मुनिनो क्रोध मर्यादामां न रह्यो. तेमणे नियाणुं कर्तुं के मारा चारित्रनुं फल होय तो हुं राजा प्रमुख सर्व नगरनो नाश करनार थउं. छेवटे पालके तेमने पण पीली नाख्या. स्कंदक मुनि मृत्यु पामी अग्निकुमार देव थया. एकदा बपोरना समये पुरन्दरयशा विचारका लागी के मुनिओ हजु गोचरी माटे केम न निकल्या ? तेवामां स्कन्दक मुनिनो लोहीथी खरडायेलो ओघो, कोई पक्षीए मांस समजीने उपाडेल ते वजन न उपाडी शकवाथी, महेलनी अगाशीमां ज पडतो मूक्यो. पुरन्दरयशा आ दृश्य निहाळी रडवा लागी. सर्व हकीकत जणातां तेणे राजाने कह्यं के-तमारो विनाश नजीक छे. हवे मारे तो चारित्र स्वीकारवुं ए ज श्रेयस्कर छे. तेवामां अग्निकुमार देव त्यां आव्यो अने पोतानी बहेनने, श्री मुनिसुव्रत स्वामी पासे परिवार सहित मूकी अने नगरमा संवर्तक वायु ने अग्नि प्रगटाव्या. सर्व नगर बळीने भस्म थई गयुं. आजे पण ते दंडकारण्यना नामे प्रसिद्ध छे. ते जमीनमां कंई पण फळ-झाड उगता नथी. आ कथानो सार ए छे के स्कन्दक मुनि विराधक थया पण तेमना पांच सो शिष्यो आराधक थया तेम साधुए क्रोधनां निमित्तो मले तो पण कदी पण कषायभाव धारण करवो नहीं. अर्जुनमालीनी कथा राजगृही नगरीमां श्रेणिक राजा राज्य करता हता. चेलणा नामनी तेमनी राणी हती. अर्जुन नामनो माली ते नगरीमा वसतो. तेने पण बंधुमती नामनी पत्नी हती. नगरीनी बहार गुणशील नामनुं चैत्य हतुं. बंधुमती रूपवंत अने सुकुमाळ हती. अर्जुन सुखी संपत्तिशाळी अने ज्ञातिमां प्रतिष्ठापात्र हतो. नगरीनी बहार तेनो एक मोटो बगीचो हतो. ते बगीचानी बहु नजीक नहीं तेमज बहु दूर पण नहीं तेवा स्थानमां मोगरपाणी नामना यक्षनुं देवळ हतुं. आ यक्ष तेनो गोत्र देव हतो. पेढी दर पेढीथी श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २५२ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेना पूर्वजो तेनी पूजा-मानता करता. अर्जुनमाली पण पुष्पनो मोटो करंडियो भरी, यक्षना देरे आवी, भक्तिथी पुष्प चढावी, पंचांग प्रणिपात करी नगरीमा जतो अने पुष्पो वेची आजीविका चलावतो. ते राजगृही नगरीमा लुलिय नामनो गोठी (धूर्त) वसतो हतो ते महर्द्धिक तेम ज कोईथी गांज्यो जाय तेवो न हतो. एकदा नगरीमां महामहोत्सव शरू थवानो पडहो वाग्यो, जे सांभळी अर्जुनमालीए विचार्यु के- हवे फूलोनी घराकी सारी रहेशे एटले मोटा मोटा करंडिया लई, बंधुमती पत्नीने साथे लई ते पोताना बगीचे गयो. मोटा मोटा पुष्पो एकत्र करी, करंडिया भरी ते मोगरपाणी यक्षना मंदिर तरफ आववा लाग्या. आ बाजु पेलो लुलिय पोताना बीजा छ मित्रो साथे यक्षना मंदिरमा आवी रमत रमी रह्या छे तेवामां पेला छ मित्रोए अर्जुनने पोतानी भार्या साथे आवतो जोयो. बंधुमतीने निरखतां ज ते बधानां मन विह्वल बनी गया अने परस्पर विचारवा लाग्या के-आपणे बधाए अर्जुनने बांधीने तेनी स्त्री साथे सारी पेठे भोग भोगववो. एम विचारी करी तेओ द्वारनी पाछळ संताई गया. अर्जुने मंदिरमा दाखल थई, पुष्प चडावी जेवो प्रणाम कर्यो के तरतज ते छ मित्रोए पाछळथी आवी तेने अवळे बंधने बांधी लीधो. पछी बंधुमती साथे ते मंदिरमा ज विषयसुख भोगव्यु, आ दृश्य निहाळी अर्जुनने अतीव घृणा उपजी. ते विचारवा लाग्यो के-आ यक्षने हाजराहजुर अने प्रभाविक मानी हुं अत्यार सुधी भक्तिभावथी पूजतो हतो परंतु मने जणाय छे के आ मूर्ति तो पत्थर सदृश छे; कांई पण चमत्कारिक नथी. जो तेनामां देवत्व होत तो मने तेनी हाजरीमा आq कष्ट केम पडे? मोगरपाणी यक्षे अर्जुननो विचार जाणी लीधो एटले ते तरत ज तेना शरीरमां दाखल थई गयो. तडतड करतां तेना बंधनो तूटी गया अने हजार पल प्रमाण मोगर(गदा) बडे ते छ मित्रोने अने सातमी पोतानी स्त्रीने मारी नाखी. बाद ते यक्षावेष्टित अर्जुनमाली हमेशां छ पुरुष अने एक स्त्री एम सात जणने नगरीनी बहार मारी नाखवा लाग्यो. नगरीमा त्रास फेलाई गयो. हमेशां आ प्रमाणे मृत्यु थतां होवाथी राजाए नगरमां पडह वगडाव्यो के कोईए पण तृण, पाणी के काष्ठ माटे नगरीनी बहार जQ नहीं, जशे ते यमनो अतिथि बनशे.. ते नगरीमा सुदर्शन नामनो श्रेष्ठी वसतो हतो. ते जीवाजीवादिक नव तत्त्वनो ज्ञाता हतो. शुद्ध देव, गुरु अने धर्म ऊपर अत्यंत श्रद्धावाळो हतो. ते नगरीना गुणशील नामना उद्यानमां श्रीमहावीर परमात्मा समवसर्या. परमात्मानु नाम सांभळवा मात्रथी पाप नाश पामे तो तेओनी देशना सांभळवाथी केवो अपूर्व लाभ थाय? एम विचारी सुदर्शन श्रेष्ठीए परमात्माने वांदवा जवा माटे तैयारी करी. ते जाणी सुदर्शनना मात-पिताए नगरीनी बहार जवा माटे घणा आग्रहपूर्वक निषेध कों, कारण के अर्जुनमालीनो भय हतो. सुदर्शनने घणो समजाववां छतां तेणे पोतानो निश्चय त्यज्यो नहीं, एटले मातपिताए निरुपाये आज्ञा आपी, त्यारे स्नान करी, शुद्ध वस्त्र पहेरी, पगे चालतो सुदर्शन नगरनी बहार निकळी गुणशील उद्यान तरफ चालता चालतां मोगरपाणी यक्षना मन्दिर नजीक आव्यो. आ यक्षना त्रासथी नगरीनी बहारनी भूमि उज्जड बनी गई हती, कारण के यक्षनी नजरे जे कोई चढतुं ते पोताना नाशने ज नोतरतुं. घणा समय पछी सुदर्शनने आवतो जोई यक्ष पोतानी गदा श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २५३ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उछाळतो-उछाळतो सुदर्शन तरफ आव्यो यक्षने आवतो जोई सुदर्शन श्रावके अंशमात्र भय के कंप अनुभव्या सिवाय उपसर्ग-सहन करवानी तैयारी करी अने ते स्थळे ऊभा रही, सागारिक अणशण स्वीकार्यं. ‘आ उपसर्गमांथी बचुं त्यारे ज कायोत्सर्ग पारुं; नहींतर मारे यावज्जीव चारे आहार तेमज प्राणातिपातादि अढारे पापस्थानकोना पच्चख्खाण छे.' सुदर्शननी श्रेष्ठ भावनाथी यक्ष तेने कंई पण उपद्रव करवा शक्तिमान थयो नहीं. हजार पल प्रमाण गदा लईने कायोत्सर्गमां रहेला श्रेष्ठीनी आसपास चारे बाजु फरवा लाग्यो. श्रेष्ठी काउसग्ग-ध्यानमा दृढ ज हता. छेवटे यक्ष कंटाळी, अर्जुनमालीना शरीरमाथी निकळी, पोतानी गदा लई जे दिशामांथी आव्यो हतो ते दिशामां चाल्यो गयो, एटले अर्जुनमालीनो देह तरत ज भूमि ऊपर पड्यो. ते एकाद मुहूर्त पछी सचेतन थयो. उपद्रव नाश पाम्यो जाणी सुदर्शने काउसग्ग पार्यो त्यारे अर्जुने तेने कह्यं के- हे देवानुप्रिय ! तमे कोण छो ? क्यांथी आव्या ? अने कई तरफ जाओ छो ? त्यारे सुदर्शने सर्व हकीकत आदिथी कही संभळावतां अर्जुने पण कह्यं के चालो, हुं पण तमारी साथे भगवन्त पासे आवुं छं. भगवन्तनी ते अमृतवाहिनी ने वैराग्यवासिनी धर्मदेशना सांभळी अर्जुनने पोताना कृत्यनो पश्चाताप थयो. देशना सांभळी सर्व लोको यथास्थाने गया पछी तेणे भगवन्त पासे आवी नम्रतापूर्वक दीक्षा आपवा प्रार्थना करी. बाद उत्तर दिशामा जई पंचमुष्टि लोच कर्यो अने साधु-जीवन शरु कर्यु. प्रभुए तेने साधु-धर्म उचित शिक्षा आपी. दीक्षा स्वीकारी ते दिवसथी ज अर्जुनमालीए परमात्मा पासे अभिग्रह धारण कर्यो के-छठ्ठ-छठ्ठनी तपश्चर्या करवी. आ प्रमाणे यावज्जीव महातपश्चर्या शरू करी. छठ्ठना पारणाना दिवसे पहेली पोरसीमां स्वाध्याय करे, बीजीमां ध्यान धरे अने त्रीजीमां पात्रानी पडिलेहणा करी, गौतमस्वामी तथा भगवन्तनी आज्ञा लई ईर्यासमितिपूर्वक नगरीमां गोचरीए जाय. नगरीमां गोचरी अर्थे परिभ्रमण करतां लोको कहेतां के-आ मुनिए मारा पिताने हण्या छे, कोई कहेता के मारी स्त्रीने हणी छे, एवी रीते विविध लोको पोतानी पुत्री, बहेन, पौत्र, भाई विगेरे स्वजनना नामो दर्शावी तेना घातक तरीके अर्जुनमाली मुनिने ओळखावता. केटलाक युवान तथा उछांछळा पुरुषो, लघु बाळकोद्वारा मुनिनी पाछळ पत्थरा पण उछळावता; छतां अर्जुनमाली मुनिवर सर्व समभावे सहन करी गोचरी अर्थे परिभ्रमण करतां. शुद्ध एषणीय गोचरी मळती ते लावीने, भगवन्तने के गौतमस्वामीने बतावीने आहार करतां अने पाछा पोताना स्वाध्यायमां तल्लीन बनी जता. जो गोचरी न मळती तो तप करता. आ प्रमाणे प्रतिदिनना व्यवहारथी अर्जुनमालीनुं चारित्र शुद्ध अने निष्कलंक बन्युं. थोडा समय पछी परमात्मा अन्यत्र विहार करी गया. अर्जुनमाली मुनि पण छ मास पर्यन्त साध्वाचार पाळी छेल्ले पखवाडीयानुं अणशण स्वीकारी अंतकृत्केवळी थई मोक्षवासी थया. जेवी रीते अर्जुनमालीए पौरजनोनो अपवाद सहन कर्यो, अने परीषह पण सारी पेठे सहन कर्यां तेवी ज रीते जे मुनिवर प्रसंगे पण कषायने उपशमावे तेवा साधुवाळा गच्छने ज सुगच्छ जाणवो. दमदंत राजर्षिनी कथा हस्तशीर्ष नगरमां दमदंत नामना राजवी हता. तेमना अतुल प्रतापथी तेमनी कीर्ति दिगंतमां श्रीगच्छाचार- पयन्ना— २५४ - Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेलाणी हती. संग्राममां पोताना शत्रु राजाओना हस्तीओना गण्डस्थळ फोडी नाखवाथी तेणे पोतान नाम सार्थक कर्यु हतुं. त्रण खंडना अधिपति प्रतिवासुदेव जरासंधे तेने सेवामां बोलाव्यो होवाथी ते राजगृही नगरीए गया तेवामा लाग जोईने पांडवोए तेनो राज्यप्रदेश लूटी लीधो. आ समाचार दमदंतने मळतां ज तेणे मोठे सैन्य लई, लवणसमुद्र जेम जंबूद्वीपने फरी वळे तेम हस्तिनापुर नगरने घेरी लीधुं. पांडवो सामे युद्ध करवा आवी शक्या नहीं. दमदंते दूत मोकली कहेवराव्यु के- तमे तो कायरना जेवू काम कर्यु छे, कारण के का छे के–“छलमुचियं कीवाणं, कीवाणव धणियविरहिए ठाणे । बलवंताण नराणं, न एस मग्गो सुवंसाण ॥१॥" स्वामी विनाना प्रदेशमा आवी तेने लूटवू ए कायरोनुं काम छे. जे शूरवीर होय छे अने श्रेष्ठकुलमां उत्पन्न थयेल छे तेनो आ मार्ग नथी-ते तो सिंह सामे बाथ भीडे. मारी गेरहाजरीमा तमे मारो प्रदेश लूट्यो ते तो शियाळना जेवू काम कर्यु. खरेखरा शूरवीर हो तो मारी सामे संग्राम करो. पांडवो एटला बधा भयभीत बनी गया हता के नगरनो किल्लो बंध करीने अंदर बेसी गया. ___ दमदंते घणा वखत सुधी घेरो घाल्यो, छेवटे तेओना राज्यप्रदेशमा आण वर्तावीने पोताना नगरे पाछो वळ्यो. नीतिपूर्वक राज्य चलावतां केटलाक समय बाद ते नगरमां श्रीनेमिनाथ भगवंतना शिष्य श्रीधर्मघोषसूरि पधार्या. तेमनी सुरम्य वैराग्यमय अने असरकारक देशना सांभळी दमदंत राजवीने ज्ञानगर्भित वैराग्य उद्भव्यो. तेथी तेमणे दीक्षा लीधी. शास्त्राभ्यास करी तेओ गीतार्थ बन्या. तपश्चर्या तपी राजर्षी खरेखरा तपस्वी पण बन्या. तेमनो समभाव पराकाष्ठाए पहोंच्यो हतो. तेओ विहार करतां करतां एकदा हस्तिनापुर नगरनी बहारना उद्यानमां आवी काउसग्ग ध्याने ऊभा रह्या. एवामां पांडवो रयवाडीना अर्थे निकळ्या. दमदंत मुनीश्वरने जोतां ज युधिष्ठिर हस्ती ऊपरथी नीचे ऊतर्या अने भावपूर्वक वंदन कर्यु, थोडा वखत बाद दुर्योधन पण पोताना परिवार साथे त्यां आव्यो. मुनिने जोतां ज तेने द्वेष उत्पन्न थयो. 'आ मुनिए ज मारा बाप-दादानी आबरू नष्ट करी हती.' एम विचारीने रोषमां ने रोषमां तेणे पोताना हाथमा रहेल बीजोरुं फेंक्युं तेनुं अनुसरण करीने बीजा कौरवोए तेमज सैनिकोए ते मुनि प्रत्ये पत्थर आदि फेंक्या. ते बधानो एवो मोटो ढग थई गयो के दमदंत राजर्षि तेनी ओथे अदश्य जेवा बनी गया. थोडो समय वीत्या बाद युधिष्ठिर ए ज रस्ते पाछा फर्या. दमदंत राजर्षिना स्थाने तेमने न जोतां युधिष्ठिरे पोताना सैनिकने प्रश्न पूछ्यो के-अहीं राजर्षि काउसग्ग ध्यानमां ऊभा हतां ते क्यां गया? अने आ पत्थरादिक ढगलो क्याथी? सैनिके दुर्योधन संबंधी सर्व हकीकत संभळावी. जे सांभळतां ज युधिष्ठरने अतिशय दुःख थयु. तेमणे तरत ज पोताना सेवकवर्गने ते पत्थरादि दूर करवा आदेश फरमाव्यो. बाद अत्यंत चतुर अंग मसळवावाळाने सूचना आपी, मुनिना शरीरे मर्दन करावी तेमने सज्ज कर्या. बाद मुनिने खमावी, वंदन करी पांडवो स्वस्थाने गया. पांडवो अने कौरवोए पोतपोताने उचित वर्तन कर्यु परंतु दमदंत राजर्षिने न पांडवो ऊपर राग प्रगट्यो के न कौरवो प्रत्ये द्वेष उपज्यो. तेओ तो विचारता हता के–“एस मे सासओ अप्पा, श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २५५ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १ ॥ " मारो आत्मा शाश्वत छे, ज्ञान- दर्शनथी युक्त छे, आ देह मारो नथी, ए तो सर्व संजोग लक्षण छे, कर्मना कारण छे. आ प्रमाणे विशुद्ध आत्मभाव भावतां, संवेग रंगमां निमग्न थता क्षपकश्रेणीए आरूढ थई केवळ ज्ञान पामी शिवगतिना सुखभाजन थया. दमदंत राजर्षिनी पेठे जेओ समभावमां रहे, शत्रु प्रत्ये वैरभाव न धरे अने मित्र प्रत्ये अनुराग न दर्शावे तेवा मुनिओवालो गच्छ ज सुगच्छ कहेवाय. वळी पण कहे छे के— धम्मंतरायभीए, भीए संसारगब्भवसहीणं । न उदीरन्ति कसाए, मुणी मुणीणं तयं गच्छम् ॥९८ ॥ [ धर्मान्तरायभीताः भीताः संसारगर्भवसतिभ्यः । नोदीरयन्ति कषायान्, मुनयो मुनीनां सको गच्छः ॥ ९८ ।।] गाथार्थ - सर्व कथित धर्मना अंतरायथी व्हीता तेमज संसारभ्रमण अने गर्भावासना त्रासथी भयभीत बनता मुनिजनो जे गच्छमां कषायोने उदीरता नथी- जागृत करता नथी ते गच्छ ज सत्य जाणवो. विवेचन - अगाउना विवेचनथी आपणे जाणी शक्या छीए के - आ संसारभ्रमणनुं मूल कारण क्रोधादि कषायो छे. कषायो एवा छूपा चोर छे के तेने जाणी शकवा पण मुश्केल छे. चोर कोई पण जानी चोरी करी जाय तो तरत ज खबर पडे छे के - आपणा अमुक पदार्थोनी चोरी थई, पण आ कषायो एवा गूढ चोर छे के - आपणुं भेगुं करेलुं आत्मधन तेओ चोरी गया तेनी खबर ज पडवा देता नथी, तेथी ज शास्त्रकार फरमावे छे के-आवा छूपा चोरथी सर्वदा सावचेत रहो. क्रोधना विषयमां चंडकौशिक सर्पनुं दृष्टांत अगाउ (पृ. २२५) आपणे जाणी गया छीए. क्रोध मानना संबंधमां अच्वंकारी भट्टानुं वृत्तांत जाणवा योग्य छे. क्रोध - मानविषये अच्छंकारी भट्टानी कथा क्षितिप्रतिष्ठित नगरमां जितशत्रु नामनो राजा हतो. सुबुद्धि नामनो तेनो प्रधान हतो. धारणी नामनी राणी हती. धन नामनो ते नगरीमां श्रेष्ठी हतो. तेने भट्टा नामनी पत्नीथी नवलीभट्टा नामनी पुत्री थई. नवली भट्टा श्रेष्ठीने अतीव प्रिय हती तेथी तेणे पोताना स्वजनवर्गने कह्यं केनवली भट्टाने कोईए कंई पण कहेवुं नहीं, ते कहे ते प्रमाणे सर्वथा वर्तवुं. कोईए तेने ठपको पण न आपवो. ट्रंकमां धनश्रेष्ठीए तेने संपूर्ण लाडकोडमां उछेरी. तेनुं रूप ने क्रोध अतिशय हता एटले लोको तेने ‘अच्वंकारी भट्टा’ एवा नामथी ओळखवा लाग्या. युवानवय आवतां भट्टानुं सौन्दर्य पूर्ण रूपमा विकस्युं. घणा युवको तेनी मागणी तेना पिता पासे करतां पण धनश्रेष्ठी कहेतो के - जे कोई तेना हुकम प्रमाणे वर्तवा तैयार होय तेमज तेनो गमे तेवो अपराध थयो होय तो पण लेश मात्र पण तिरस्कार न करे तेवी व्यक्तिने हुं मारी पुत्री परणाववा मागुं छं. परंतु युवको आ आकरी शरत श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २५६ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | स्वीकारवा कोई पण तैयार न थया. दिवसे दिवसे अच्चकारी भट्टा वयमां वधवा लागी तेवामां ! एकदा ते ज नगरनिवासी सुबुद्धि प्रधाननी तेना पर नजर पडी. तेना लालित्य अने सौन्दर्यथी आकर्षाई प्रधाने तेनी मागणी करी. धनश्रेष्ठीए पोतानी शरत जणावी. प्रधाने कबूल करी अने तेओ बने लग्नग्रन्थीथी जोडाया. प्रधान पण अच्वंकारी भट्ठाना कह्या प्रमाणे सर्व कार्य बराबर अनुसरवा लाग्यो. शुं वधारे ? तेना आदेशने शिरसा वंद्य गणवा लाग्यो. एकदा भट्टाए प्रधानने कह्यं तमे रात्रिना बहु मोडा आवो छो, माटे हवेथी प्रहर रात्रि वीत्ये तरत ज आवजो. प्रधाने राजसभामांथी वहेलुं आववुं शरु कर्यु. कामकाज ऊपर पूरतुं ध्यान आपातुं नहीं, कामकाज विशेष चढी जतां राजाए प्रतिहारीने कारण पूछ्युं. प्रतिहारीए प्रधाननी स्त्रीनो आदेश कही संभळाव्यो एटले राजाने कुतूहल थयुं. एकदा तेणे प्रधानने एवं गुंचवाळं कार्य सोंप्युं के प्रधान ऊंचुं माथुं न करी शके. राजा पण हाजर रह्यो एटले प्रधानथी ऊंचानीचा थवाणुं नहीं. तो पण जेम तेम काम शीघ्र पतावी ते घरे आव्यो, पण घणो ज समय वीती जवाथी भट्टाने रोष चढ्यो. तेने घरना बारणा सज्जड रीते दई दीधा. प्रधाने घरे आवी घणी बूम पाडी पण बारणा कोण उघाडे ? प्रधा बहु कालावाला कर्या त्यारे भट्टाए रोषपूर्वक बारणा उघाड्या अने तेनी साथे क्लेश करी, सर्व अलंकारो लई ते पोताना पिताना घरे जवा चाली निकळी. एवामां तो रस्तामां चोरो मळ्या. तेने लूटी लईने मारकूट सहित चोरो पोताना स्वामी पासे लई गया. चोरपतिए तेने पोतानी पत्नी थवा कह्यं. भट्टाए इन्कार कर्यो एटले तेणे तेने कोईएक वैद्यने वेची. वैद्ये पण तेना रूपथी मोहित थई पोतानी पत्नी बनवा कह्यं. भट्टाए तेनो इन्कार कर्यो एटले क्रोधे भरायेला वैद्ये तेने हुकम कर्यो . के–पाणीमांथी जळो पकडी लाव. जळो पकडवी ते सहेलुं काम न हतुं छतां शीलनी रक्षा माटे भट्टा ते कथन पण स्वीकार्यं. शरीरे माखण चोपडीने जळमां प्रवेशती. जळो तेना रूधिरनी पिपासाथी आवती तेने भट्टा पकडी लेती. वैद्ये आ प्रमाणे भट्टानुं लोही नीचोवी लीधुं तेथी ते अति कदरूपी बनी गई. एवामां तेनो भाई तेनी शोध करवा अर्थे ते देशमां आव्यो. तेणे भट्टाने पोतानी बहेन सदृश जाणीने तेने पूछ्र्युं के-‘तुं कोण छे ?' त्यारे तेने पोतानो भाई जाणी सर्व हकीकत कही एटले वैद्य द्रव्य आपी, पोतानी बहेनने मुक्त करावी, पोताना नगरे लावी, अनेक औषधोपचार करावी पूर्ववत् बनावी. प्रधान पण तेने पोताने घरे तेडी गयो अने तेने गृहस्वामिनी बनावी पूर्ववत् गृहस्थाश्रम शरू कर्यो. अच्चंकारी भट्टाए क्रोध तथा माननुं प्रत्यक्ष फळ अनुभवी कदी पण क्रोध के मान न करवानो अभिग्रह कर्यो. व्रत-नियमनी परीक्षा- कसोटी थाय त्यारे ज तेनी निश्चळता जणाय छे. भट्टाए लक्ष औषधिवाळु अने लक्ष द्रव्यना मूल्यवाळं लक्षपाक तेल बनाव्युं हतुं. एक घडो लाख-लाख द्रव्यनी किंमतनो हतो. दैवयोगे बे साधुओ औषधार्थे ते लेवा तेना गृहे आव्या. भट्टाए पोतानी दासीने लक्षपाक तेलनो घडो लाववा आदेश कर्यो. दासी लईने आवे छे तेवामां घडो फसकाई पड्यो अ श्रीगच्छाचार- पयन्ना— २५७. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेल ढोलाई गयं. भट्टाए बीजो लाववा का तो बीजो पण फूटी गयो, त्रीजो पण फूटी गयो छतां भट्टाए अंशमात्र दासी ऊपर क्रोध न कर्यो, केमके क्रोधना परिणाम ते स्वयं अनुभवी चूकी हती. छेवटे ते पोते ऊभी थइ, चोथो घडो लावी मुनिराजोने तेल वहोराव्यु. आ कथानो सारांश ए छे के-अच्चंकारी भट्टा जेवी श्राविकाए क्रोध तथा मानने हण्यां तो साधुओए तो सर्वथा क्रोध मानने त्यजवा ज जोईए. माया संबंधी पांडुर आर्यानी कथा एक पासत्थी साध्वी विशेष उपकरण राखी शरीरनी शोभा करती. धोईने श्वेत वस्त्र पहेरे एटले लोकोए तेनुं पांडुर आर्या एवं नाम स्थाप्यु, ते आर्या मंत्र, तंत्र, वशीकरण विगेर विद्या जाणती. लोकोने दोरा-धागा पण करी आपती, तेथी लोकोमा तेनी ख्याति विशेष हती. लोको तेनुं बहुमान करता अने मस्तक पण नमावतां. तेनी पासे लोको स्वार्थ साधवा माटे वारम्वार आव्या करता एटले लोकोनो संसर्ग सारा प्रमाणमा रहेतो. आ कार्य करतां घणाय वर्षों व्यतीत थई गया. ते वृद्धा बनी गई. तेने वैराग्य उद्भव्यो एटले गुरु पासे गई. गुरु पासे तेणे पोताना दुष्कृत्यनी आलोचना मागी. गुरुए का के-जो तुं मन्त्र-तंत्र विद्यादिक सर्वनो त्याग करे तो तने आलोयण आपुं. पांडुर आर्याए का के-हुँ दीर्घ समय दीक्षा पाळी शकीश नहि त्यारे गुरुए अमुक साधु-साध्वीने तेनी पासे राखी अणशण कराव्यु. थोडा साधु-साध्वीने पोतानी पासे नीहाळी ते आर्तध्यान करवा लागी. पूर्वे सेंकडो माणसोने पोतानी पासे जोयेला अने ए रीते समय व्यतीत करेलो एटले तेने आ स्थितिमां आनंद न आव्यो जेथी मानसिक रीते वशीकरण विद्यानुं आह्वान कर्यु, विद्याना प्रभावथी अल्प काळमां ज गाम-परगामना हजारो माणसो धूप, दीप लई, आभूषणो तथा स्वच्छ वस्त्रो परिधान करी पांडुर आर्या पासे आववा लाग्या. गुरुए पासे राखेला साधु-साध्वीने पूछयु - शुं तमे लोकोने पांडुरना अणशणनी वात करी ? तेओए पोतार्नु? अज्ञानपणुं दर्शाव्युं त्यारे गुरुए आर्याने पूछ्युं तेणे जेवी हती तेवी हकीकत कही एटले गुरुए कह्य-भद्रे ! एम न करवं. आर्याए मिथ्या दुष्कृत आप्यो; परंतु पांडुरथी लोकोना आदर-सत्कार विना रही शकायुं नहीं एटले बीजी वार, त्रीजी वार वशीकरण विद्यानुं आह्वान कर्यु. गुरुए निषेध करवाथी त्रण वार आलोचना लीधी. चोथी वार पाछो विद्यानो उपयोग को अने गुरुए कारण पूछ्युं त्यारे गुरु हवे ठपको आपशे तेवा भयथी कपट करी पांडुरे जवाब आप्यो के– लोको तो पूर्वना अभ्यासथी चाल्या आवे छे. हुं कई विद्यानो प्रयोग करती नथी. आ प्रमाणे माया करी, आलोचना कर्या सिवाय काळधर्म पामवाथी सौधर्म देवलोकमां ऐरावण नामना देवनी अग्रमहिषी थई. पूर्व भव जोई श्रीमहावीर भगवन्तने वांदवा आवी अने देशनाने अन्ते भगवान महावीर पासे हाथणी रूपे जई मोटा मोटा शब्दपूर्वक वातचीत करवा लागी. आ दृश्य जोई श्रीगौतमस्वामीए भगवानने कारण पूछ्युं एटले भगवन्ते तेनो पूर्वभव कही संभळावी मायानो निषेध उपदेश्यो. श्रीगच्छाचार–पयन्ना-२५८ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभ संबंधमां आर्य मंगुसूरिनी कथा आर्य मंगु सारा शास्त्रज्ञाता हता. आ उपरांत तेमनी उपदेशक-शक्ति पण सारी हती. विहार करता करतां तेओ पोताना शिष्यपरिवार साथे मथुरा नगरीमा आव्या. समर्थ साधु जाणी श्रावको तेमने घृत विगेरेनो स्वादिष्ट आहार वहोराववा लाग्या. प्रतिदिन रसयुक्त आहार मळवाथी मंगुसूरिनी रसगृद्धि वृद्धि पामी. अन्यत्र विहार करवानो विचार पण तेमने न आव्यो. साथेना शिष्यो गुरुनी आसक्ति जाणी गया एटले अन्यत्र विहार करी गया. गुरु एकला रह्या. तेमनु वर्तन साधुधर्मने उचित न हतुं, छेवटे आलोचना विना काळधर्म पामवाथी अधोलोकमां व्यंतर निकायमां उपज्या. मथुरा नगरनी खाळना अधिष्ठायक यक्ष थया. ___ काळयोगे तेमना शिष्यो विहार करतां पुन: मथुरा नगरीमां आव्या. तेओने यक्षमन्दिर पासे थईने स्थंडिल भूमिए जवानुं हतुं. तेओ प्रात:काळे स्थंडिल जवा निकळ्या त्यारे यक्षे पोतानी प्रतिमामां प्रविष्ट थई जीभ बहार काढी हलाववा मांडी. प्रतिमामां जीभ हालती जोई साधुओ आश्चर्य पाम्या. तेओए तेनु कारण पूछतां यक्षे पोतानो पूर्वभव कही संभळाव्यो अने का के-फक्त जिह्वाना लोलुपीपणाथी हुँ महोत्तम नरभव हारी गयो अने व्यंतर थयो तेम तमो पण जो रसगृद्धिमां आसक्त बनशो तो मारी माफक पस्ताशो. आ दृष्टांतथी आपणने लोभनुं दुष्परिणाम यथार्थ समजाशे. गच्छमां कोई साधु कोईनी साथे क्लेश-कंकास करता होय तो बीजा साधुए तेने रोकवा - समजाववा, समजावतां छतां न माने तो ते साधुने काढी मूकवा पण उपेक्षा न करवी. आ संबंधमां नीचेनुं दृष्टांत जाणवा योग्य छे एक महाअटवीमां सुंदर सरोवर हतुं सरोवरमां पाणी पण पुष्कल हतुं. ते सरोवरनी आसपास सुंदर वन हतुं. जलमां मत्स्यादिक जळचरो अने वनमां स्थळचरो तथा पंखी विगेरे खेचरो रहेता हता. हाथीओ- माटुं टोळु पण ते वनमां वास करतुं. ग्रीष्म ऋतुना सख्त तापथी अकळाई हाथीओनुं टोळं सरोवरमांथी निकळी वृक्षनी छायामां सूतुं हतुं एवामां बे काकीडा (करकेटिया) थोडे दूर लडवा लाग्या. ते वखते वनदेवताए बधा पशु-पंखीओने उद्देशीने का के-आ बंने काकीडाने लडता निवारो, पण देव- कोईए सांभळ्युं नहीं. पंखीओए विचार्यु के-आपणे शुं? आपणने क्यां मारवा आववाना छे? लडतां लडतां एक काकीडो भाग्यो अने नाशीने सूतेला हाथीनी सुंढमां पेशी गयो. तेनी पाछळ बीजो पण दाखल थई गयो. हाथीनी सुंढमां पण बंने लडवा लाग्या तेथी हाथी अकळाणो. वेदना थवाथी ते हाथी पण क्रोधान्वित बन्यो. वृक्षोने मूळमाथी उखेडी नाखवा लाग्यो. वीजा हाथी पण भयान्वित बनी तेम करवा लाग्या, जेथी घणा वनचर जीवोनो नाश थयो. पछी सरोवरमां हाथीओ पड्या अने तेनी पाळ तोडी नाखी तेथी पण घणा जळचर जीवो नाश पाम्या. आ दृष्टांतनो उपनय आ प्रमाणे जाणवो. तलाव, वृक्ष विगेरेनी शोभा सरखो गच्छनो आचार, जळचरादिक जीवो समान बाळ, वृद्ध तथा ग्लानादिक साधुओ, हस्ति समान मर्यादावंत श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २५९ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतार्थादिक साधु, काकीडा समान नीच के तुच्छ साधु, वनदेव समान आचार्य. ते गीतार्थादिक सर्वने कहे छे के-कपाय-क्लेश न करवो. सरोवरनी पाळ समान गच्छ-मर्यादा जाणवी. काकीडाने कोईए वार्या नहीं तो परिणाम महाहानिकारक आव्युं अने जळचर, स्थळचर अने खेचर प्रमुख घणा प्राणीओ विनाश पाम्या तेम जो लडता साधुने निवारवामां न आवे तो गच्छ-मर्यादानो नाश थाय अने चारित्र विनाश पामे. आ उपरांत (१) साधुओ जो परस्पर लडे तो लोकोमा गच्छनो अपयश थाय, (२) गच्छभेदने अंगे बने पक्षना साधओ पैकी कोई राज-फरियाद करे तो राजदंड थाय (३) कलह कर्या पछी मन संतापमां पडे, चिंता रह्या करे, (४) समकितनी हानि थाय, (५) क्रोधादिकनो वेग वधतो जाय तेम तेम चारित्रनो नाश थाय. आ संबंधी विशेष विस्तार श्रीनिशीथचूर्णिना दशमा उद्देशामां छे. कारणमकारणेणं अह, कहवि मुणीण उद्यहि कसाए । उदएवि जत्थ रुंभहि खामिज्जहि जत्थ तं गच्छम् ॥१९॥ [कारणेन अकारणेनाथ, कथमपि मुनीनां उत्तिष्ठन्ति कषायाः । उदयेऽपि यत्र रुन्धन्ति, क्षमयन्ति यत्र स गच्छ: ॥९९ ॥] गाथार्थ- गुरु-ग्लानादिकनी वेयावच्चादिक कारणे के वंगर कारणे पण मुनिओने जो कषायनो उदय आवे अने उदय आव्या पछी तेने रोके अने तदनन्तर खमावे तेने हे गौतम ! गच्छ जाणवो. विवेचन-कषायो थवाना बे कारणो छे: एक बाह्य कारण अने बीजुं आंतरिक एटले कर्मोदय. बाह्य कारणमां कोईना कहेवाथी के विरूद्ध वर्तनथी कषायो थाय छे. क्रोध, मान, माया अने लोभ -ए चार मुख्य कषायो छे. तेना अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान अने संज्वलन ए चार प्रकारे दरेक कषायो गणतां सोळ कषायो थाय छे. तेमा हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा (निंदा), पुरुषवेद, स्त्रीवेद अने नपुंसकवेद - ए नव नोकषाय मेळवतां कुल पच्चीश कषाय थाय छे. ग्रंथकार कहे छे के-कषायोदय थवो ते स्वाभाविक छे पण उदयमां आव्या पछी तेने अटकाववा मिच्छामि दुक्कडं मागवो अने क्षमापना याचवी ए ज खरेखरुं कर्तव्य छे. क्षमापना- महत्त्व आत्मा अंगारा जेवो सदा प्रज्वलित छे. अंगारा ओलवावा मांडे-तेना ऊपर राख छवावा मांडे त्यारे जो थोडो पवन नाखीए तो धीखता अंगारा ऊपरनी राख दूर थाय छे अने अंगारा पुन: सतेज बने छे. कषायो ए आवरण (राख) सदृश छे. जो तेने क्षमापनारूप पवन नाखीए तो ते कषायरूपी राख दूर थई आत्मारूपी अंगारानी अग्नि सतेज बने छे. आ छे क्षमापनानुं मूल्य ने महत्त्व, जो राखने दूर करवामां न आवे तो धीमे धीमे अंगारो बूझाई जाय छे तेवी रीते जो कषायरूपी राख दूर करवामां न आवे तो आत्मा सदन्तर कषायोथी अवराई जाय, माटे कषायनो स्हेज पण प्रवेश थाय के तरत श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २६० Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज तेने हांकी काढवानो प्रयत्न करवो. मात्र छूटीछवाई रज के मेल ज्यां जाम्या होय त्यां स्हेज सावरणी फरववार्थी ते धूळ के रज शीघ्र दूर करी शकाय छ तम कपायोदयनी कल्पना थतां ज तेने दूर करवा प्रयास करशो तो तमने बहु महेनत नहीं पडे. श्रीआराधनापयन्नामां अने ते ऊपरथी उपाध्याय श्रीविनयविजयजी महाराजे रचेला 'श्रीपुन्यप्रकाशना' स्तवनमां खामणानी अगत्य जणावी छे. शिवगति प्राप्त करवाना तेमणे दश प्रकारो ते स्तवनमा जणाव्या छे, ते पैकी त्रीजु स्थान क्षमापनाने आप्यु छे. तेओश्री ते स्तवनमां कहे छे जीव सवे खमावीए साहेलडी रे, योनि चोराशी लाख तो; मनशुद्धे करो खामणा साहेलडी रे, कोई शुं रोष न राखतो. १ सर्व मित्र करी चिंतवो साहेलडी रे, कोई न जाणो शत्रु तो; राग द्वेष इम परिहरी साहेलडी रे, कीजे जन्म पवित्र तो. २ साहमी संघ खमावीए साहेलडी रे, जे उपजी अप्रतीत तो; सज्जन कुटुम्ब करो खामणा साहेलडी रे, ए जिनशासन रीत तो. ३ खमीए ने खमावीए साहेलडी रे, एही ज धर्मनो सार तो; शिवगति आराधनतणो साहेलडी रे, ए बीजो अधिकार तो. ४ चार गाथा सरळ छे तेथी तेना विशेष विवचननी आवश्यकता नथी. उपलकीया-मात्र देखाव पूरती मन विनानी क्षमापनाने आमां स्थान नथी एटला माटे ज "मनशुद्ध करो खामणा” एम पण स्पष्ट कहेवामां आव्युं छे. आपणा महामान्य श्रीकल्पसूत्रमा पण कहेवामां आव्यु छ के–“खमियव्वं खमावियव्वं उवसमियव्वं उवसमावियब्वं सुमइसपुच्छणा बहुलेण होयव्वं । जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं । से किमाहु भंते ! उवसमसारं खु सामण्णं” अर्थात् साधुए पोते खम अने बीजाने उपशांत करवो. निर्मळ चित्तथी बीजाने सुखशाता पूछवी, रागद्वेष रहित बुद्धि ते सुमति. ते सुमतिपूर्वक सूत्रार्थ संबंधी विशेष प्रकारे पूछपरछ करवी अथवा सुखशाता पृछवी एटले के जेनी साथे कलह के कंकास थयी होय तेनी साथे निर्मळ चित्तथी वातचीत करवी. कलह करनार वनेमाथी एक पक्ष न खमावे तो शं? तेनो जवाब ए छे के-जे उपशांत थाय छे–जे क्षमाशील बने छ तेने आराधना छे. जे नथी खमावतो तेने आराधना नथी. श्रामण्य उपशमप्रधान ज छे. आ संबंधमां लोकिक अने लोकोत्तर त्रण दृष्टांतो आपे छेकुंभार- वृत्तांत 'आरिय' जनपद पासेना गामडामां एक कुंभार रहेतो हतो. ते वासणोनुं गाडं भरीने वेचवा माटे पासेना दुरुवग नामना गाममां गयो. ते गामना लोको लुच्चा हता. तेओए कुंभारनो एक बळद लई श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २६१ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेवानो विचार को. जेवामां कुंभार गाम नजीक आव्यो तेवामां तेओ कपटपूर्वक बोल्या के-अरे भाईओ ! एक आश्चर्य तो जुओ. आ कुंभार एक ज वळदथी गाडं हांके छे. कुंभारे विचार्यु के-आ गामना लोक बहु ज कपटी अने नीच छे. बे बळद छे छतां एक कहे छे. पछी ते कुंभार गामनी बजारमा गयो. गाडामांथी वासणो उतारी वेचवा लाग्यो तेवामां लाग जोईने ते कपटी लोको कुंभारनो एक बळद लई गया. वासणो वेची रह्या बाद कुंभारे जोयुं तो एक बळद न मळे. कुंभारे गामना मुख्य माणसने फरियाद करी त्यारे तेणे का - में पण सांभळ्युं हतुं के कुंभार एक बळदथी ज गाईं चलावतो हतो. कुंभारे वारंवार कहेवा छतां पण बळद न मळ्यो एटले रोष भराईने ते पोताने गाम चाल्यो गयो. वर्षाऋतु बाद खेतरमा धान्यना खळा तैयार थई रह्या हता त्यारे कुंभारे दुरुवग जई रात्रिना ते बधाना खळा बाळी नाख्या. आ प्रमाणे सात वर्ष सुधी खळा बाळी नाख्या. दुरुवग गामना लोको विचारमां पडी गया पण कंई कारण न समजायं आठमा वर्ष ते गाममां मल्लयद्धना महोत्सव थया ते समये घणा गामना लोको एकत्र थया. कुंभार पण गयो. गामना डाह्या माणसे ते वखते पोताना माणसद्वारा घोषणा करावी के-अमोए कोईनी कंई पण अपराध को होय तो तेने खमावीए छीए अने अमोए कोईनुं कई पण लीधुं हशे तो तेने पाछु आपीशु. अमारुं धान्य कोईए बाळq नहीं. घोषणा सांभळी कुंभारे ते ढोल पीटनारने का के-तुं आ प्रमाणे घोषणा कर–“अप्पिणह तं बइल्लं, दुरुवगा ! तस्स कुंभकारस्स । मा भेदिहिही गामं, अन्नाण वि सत्त वासाणि ॥१॥" जो कुभारनो बळद न लीधा होत तो सात वर्ष सुधी तमाळं धान्य न बळत. जो हजु पण बळद नहीं आपो तो बीजा सात वर्ष सुधी धान्य बाळीश. गामना लोको समजी गया. ते कुंभारने खमाव्यो अने बळद पण पाछो आपी दीधो. ___ आ दृष्टान्तनो सारांश ए छे के–असंयती-अज्ञानी लोकोए खमाव्यो अने कुंभार खम्यो तो जेओ साधु छे, चारित्र लीधुं छे तेओए तो अवश्य क्षमापना करवी ज जोईए. द्रमकनुं दृष्टांत कोईएक दरिद्रीना दीकराए आसो मासमां धनिकना घरमा खीरनं भोजन थतं निहाळी पोताना पिता पासे क्षीर मागी. दरिद्री गाममां जई दूध तथा चोखा मागी लाव्यो. तेनो स्त्रीए क्षीर रांधवा मांडी, दरमियान खडनो भारो लाववा ते खेतरे गयो एवामां गाममां चोर लोकोनी धाड पडी. तेओए गाम लूटी लीधुं. आ दरिद्रीना घरे आवी खीरनो हांडो लई जई पोताना सेनापतिने आप्यो. दरिद्री खेतरथी पाछो फरतां विचारे छे के-आज तो दीकरा साथे बेसी क्षीर खाईश. घरे आव्यो के तरत ज छोकरो रोवा लाग्यो. तेनी पत्नीए सर्व हकीकत कही एटले ते क्रोधे भराणो. खडनो भारो नीचे नाखी तरत ज ते चोरना सेनापति पासे गयो. चोर लोको पाछा गाममां गया हता. सेनापति एकलो ज हतो. पासे ज क्षीरनो हांडो पड्यो हतो. दरिद्रीए तरवारथी सेनापति, माथु कापी नाख्यु. चोर लोकोने आ खबर पडतां तेओ गाममांथी नाशी गया. पल्लीमां आवी सेनापतिनो अग्निसंस्कार श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २६२ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्यो. पछी तेना स्थाने तेना नाना भाईने स्थाप्यो त्यारे तेनी बहेन, मा विगेरे स्वजनो कहेवा लाग्या के-तुं सेनापति थवा छतां ते दरिद्री जीवतो रहे ते बने ज केम? धिक्कार छे तारा सेनापति पदने ! आ प्रमाणे चानक-वीड चडाववाथी ते सेनापति गाममां गयो ने दरिद्रीने बेडी नांखी पल्लीमां पकडी लाव्या पछी तेने मारवा माटे खडग हाथमां लीधुं अने दरिद्री ब्राह्मणने पूछ्युं के-बोल, तने केवी रीते मारुं? त्यारे समयसूचकता वापरी तेणे का के-शरणे आवेलाने जे रीते मराय तेवी रीते मारो. तेनुं आवं वचन सांभळी सेनापति पोतानी मा, बहेन सामुं जोवा लाग्यो. तेनी मा विगेरे तेनो भाव समजी गया अने का के-भाई ! शरणे आवेलाने मारवो ए आपणो धर्म नथी. त्यारे ते ब्राह्मणने छोडीने, तेनी पूजा करीने दक्षिणा आपीने रजा आपी. आ दृष्टांतनो सार ए छे के–अज्ञानी एवा चोरे पण दरिद्री ब्राह्मणने माफी मागवाथी छोडी मूक्यो, तो परलोकभीरु साधुओए तो पोतानी जेवा सर्व जीवोने जाणी वात्सल्यभाव दर्शाववो घटे. उदायन राजर्षिनी कथा चंपा नगरीमा *अनंगसेन नामनो सोनी वसतो हतो. ते अति विषयाभिलाषी हतो. जे रुपवंती कन्या देखे तेने घणुं धन आपीने पत्नी करतो. आ प्रमाणे ते पांच सो स्त्रीनो स्वामी थयो. पंचशैल नामना द्वीपनो विद्युन्माली नामनो यक्ष च्यवी गयो. त्यारे हासा ने प्रहासा नामनी मुख्य देवीओए विचार्यु के-कोईने लोभमां पाडीए तो ते आपणो स्वामी थाय अने तेनी साथे यथेच्छ भोग भोगवी शकीए, अनंगसेनने स्त्रीनो लोभी जाणीने बंने तेनी अशोक वाटिकामां आवी. सोनी तेना रूप तथा हावभाव जोई मोहित बनी गयो. मानवी स्त्री पण जो सुंदर होय छे तो तेना रूपराशि ऊपर केटलाय मानव-भ्रमर मोहित थाय छे तो आ तो देवीओ. तेना रूप पासे अनंगसेन जेवो कामी पाणी-पाणी थई जाय तेमां शुं आश्चर्य? हासा तथा प्रहासाए पण तेने बराबर पोताना पाशमां फसाववा हावभाव दर्शावी कटाक्ष फेंक्या. कामातुर सोनी जेवो तेओना मस्तके हाथ मूकवा जाय छ तरत ज तेणीए का-जो तारे खरेखर अमने मळवू ज होय तो पंचशैल द्वीपे आवजे. आ प्रमाणे कहीने बने चाली गई. ___ कामांध सोनी पंचशैल जवानी तैयारीमा पड्यो. पंचशैल द्वीपे जq एटले मृत्युने आमंत्रण आप. कोई पण नाविक तेने लई जवा तैयार न थयो त्यारे उद्घोषणा करावी के-मने जे कोई पंचशैल द्वीपे पहोंचाडशे तेने क्रोड सोनैया आपीश. एक वृद्ध नाविके पडह स्वीकार्यो. नाविके विचार्यु के-हवे वृद्ध थयो छु, मृत्युंने किनारे बेठो छु तो क्रोड सोनैया मेळवी पुत्रने तो सुखी करतो जाउं. सोनी पासेथी क्रोड सोनैया लई पोताना पुत्रने आप्या अने वहाण हंकारी मूक्यु. केटलाय दिवसो पसार थया बाद पंचशैल द्वीप नजीक तेनुं वहाण आव्युं त्यारे वृद्ध नाविके सोनीने सूचना करी के-हवे आगळ जतां समुद्रनुं वमळ आवशे. ते वमळमां-भमरमां जतां ज नाव __* केटलाक स्थळे कुमारनंदी एवं पण नाम जणावेल छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २६३ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रावे चडशे अने तेमां उलजाई आ वहाण नाश पामशे, हुं पण मृत्यु पामीश. जो तमारे बचवुं होय अने पंचशैल द्वीपे जवुं होय तो सामुं जे वडलानुं झाड देखाय छे तेनी नीचे थी वहाण आगळ के तरत ज तेनी शाखा पकडी लेजो. आ विशाळ वटवृक्ष ऊपर रात्रिना पंचशैल द्वीपना पंखी ओ आश्रय लेवा आवशे अने प्रात:काळ थतां उड़ी जशे ते समये भारंड पक्षीना पगे लटकीने तमे त्यां जई शकशो. स्वार्थ सिद्ध करवा माटे मानवी शुं न करे ? सोनीए ते प्रमाणे कर्तुं अने पंचशैल द्वीप पहोंच्यो पण हासा ने प्रहासाने क्यां जई गोतवी ? ते उद्यानमा आमतेम भटकवा लाग्यो तेवामां हासा प्रहासा तेनी नजरे चढी. पोतानी महेनत अने साहस सफळ थयां जाणी तेणे संपूर्ण संतोष अनुभव्यो. बने देवीओने तरत ज पोताने आवासमां लई जवा कह्यं. नीतिकारे खरेखर साधुं ज कह्यं छे के 9 दिवा पश्यति नो घूकः, काको नक्तं न पश्यन्ति । अपूर्व कोऽपि कामान्धो, दिवानक्तं न पश्यन्ति ॥ १ ॥ घूव दिवसे जोई शकतुं नथी, कागडो रात्रे जोतो नथी, परंतु कामान्ध पुरुष तो दिवसे के रात्रे पण कशुं जोई शकतो नथी, अर्थात् सारासारनो सर्वथा विवेक ज भूली जाय छे. बंने देवीओए तेना उत्कट कामाग्नि ऊपर शीतळ जळ रेडवुं शरू कयुं, जे सांभळतां ज अनंगसेनना होशकोश उडी गया. पोतानी मूर्खाईनुं तेने हवे बराबर भान थयुं, पण हवे थाय शुं ? बने देवीओए तेने कह्यं “प्रिय अनंगसेन ! तारी आ साहस- कथा जरूर प्रशंसापात्र छे, पण अमारा देहना आलिंगन सामान्य अने सस्ता नथी. अमारुं प्रथम दर्शन तो तने लोभाववानुं हतुं. कामी मानवीना हाथमां अमे रमकडां नथी बनतां. जो तने अमारा संगनी खरेखर उत्कट इच्छा ज होय तो बीजी परीक्षा पसार- पास कर. ‘आवतां भवमां हुं हासा-प्रहासानो पति थाउं' एवा नियाणापूर्वक मरण स्वीकारो . तेम करवाथी तमारो देवयोनिमां जन्म थशे अने तमने आ सप्त धातुमय औदारिक शरीरने बदले अमारा जेवुं मनोहर वैक्रिय शरीर प्राप्त थशे.” हासा-प्रहासानुं सूचन सांभळतां ज अनंगसेनना गात्रो गळी गयां, कामाग्निनो तीव्र ताप शमी गो. मनुष्य देहथी कंई शुक्रवार थवानो नथी एवा विचारथी तेना मुख ऊपर निराशा फरी वळी. तेना मुखमांथी सहसा बोलाई जवायुं के -“मारी दशा धोबीना श्वान जेवी थई. न रह्यो घरनो न रह्यो घाटनो. देवांगनाओ मळी नहीं अने मानवललनाओ हती ते पण अळगी थई गई.' " हासा-प्रहासाए तेनी व्याकुळतां पारखी लई कह्यं: “सुवर्णकार ! रंच मात्र तमारे निराश थवानी जरुर नथी. अमो तमने तमारा नगरमा क्षणभरमा सुखपूर्वक पहोंचाडी दईशुं. तमारो अमारा पर साचो स्नेह होय तो अमे जणावेला मार्गे चालजो. साचा स्नेह विना मनगमतुं सुख नहीं माणी शकाय.” श्रीगच्छाचार- पयन्ना— २६४ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवशक्तिने शुं अशक्य छे ? आंख उघाडतां ज सोनीए पोताने चंपानगरीमा पोताना आवासमां सूतेलो जोयो. दरियानी मुसाफरी, भारंड पक्षीना पगे वळगवू हासा-प्रहासाना दर्शन, सुंदर उपवन, मनोहर वार्तालाप विगेरे इंद्रजाळनी माफक तेनी नजर समक्षथी सरी गयुं तेनो अनुभव हजी ताजो ज हतो. हासा-प्रहासाए चडावेल नशो तेनी स्मृतिमा हतो. तेणे अग्निप्रवेश करवानो निर्णय को. आ वातनी तेना मित्र नागिलने खबर पडतां ते त्यां आव्यो अने अनंगसेनने अनेक प्रकारे समजाव्यो. नागिल दृढ जैनधर्मी अने समजु हतो. देवांगनाना संयोग पाछळ आत्मानो केटलो अध:पात थाय छे ते सर्व समजाव्यु, पण ते बधुं छार पर लीपण समान निरर्थक निवड्युं बाद ते जीवतो बळी मुओ अने नियाणाना प्रभावे पंचशैल द्वीपमां देवी-युगलनो विद्युन्माली नामे देव थयो. नानं बाळक ज्यां स्धी मुद्रिकानी किंमत समजतुं नथी त्यां सधी मीठाईना बदलापां ते काढी आपे छे, पण पेडानी कीमत समजतां ते कदी छेतरातुं नथी तेम आ प्राणीने अनुभवे ज खरेखरुं ज्ञान प्राप्त थाय छे. अनंगसेन मटी व्यंतरनिकायमां देवत्वनी प्राप्ति थवा छतां तेने संतोष न थयो. देवी साथे समागमना दिवसो पाणीना रेलानी माफक चाल्या गया. ए जीवन हमेशनुं बनी जतां पहेलानी देवीओ प्रत्येनो मोह पण अद्दश्य बनी गयो. __ एक वार नंदीश्वर द्वीपनी यात्रानो प्रसंग आव्यो. तरतज देवेंद्र तरफथी हासा-प्रहासाने नृत्य करवानो अने विद्युन्मालोने मृदंग वगाडवानो आदेश थयो. आ हुकम सांभळतां ज अनंगसेनना जीवने उच्चाट थई आव्यो पण देवराजनी आज्ञा अलंघनीय हती. दरेक यात्राप्रसंगे हासा-प्रहासानुं नृत्य अने विद्युन्माली, मृदंग-वादन आचाररूप हता. तेनी अनिच्छा छतां मृदंग तेना गळे बंधाई गयुं दुःख ने ग्लानि अनुभववा छतां तेने मृदंग वगाडत वगाडतां आगळ चालवू पडयु. आ बाजु तेनो मित्र नागिल उत्तरावस्थामां चारित्र पाळी अच्युत देवलोकमां देव थयो. तेणे आ स्थिति निहाळी. तेने पोताना मित्र माटे दुःख थयु. ते तरतज तेनी पासे आव्यो. नागिल देवना देदीप्यमान तेज आगळ विद्युन्माली- मुख सूर्य आगळ तारा सदृश जणावा लाग्युं अत्यंत तेजस्वी मुख न जोई शकवाने कारणे विद्युन्मालीए पोतानो हाथ मुख आगळ आडो धरवा मांडयो. नागिले तेने पूछयु-ओळखे छे? विद्युन्माळीए नकार जणावतां नागिले का-हुं तारो मित्र नागिल. तारुं अज्ञानताभर्यु बाळमरण निरखी मारुं मन वैराग्य तरफ वळयुं. निरतिचार चारित्र पाळी, शेष जीवनमा तप तपी हुं बारमा देवलोकमां देव थयो छु. अवधिज्ञानवडे तारी शोचनीय स्थिति जाणी तारी पासे आव्यो छु, विद्युन्मालीए तेने संबोधीने कां-मित्र ! तारी हितशिक्षा अवगणी तेनुं आ परिणाम आव्युं छे, पण हवे पश्चात्ताप करवाथी शो लाभ? हवे तो आ जीवनमाथी छूटवानो कोई सुमार्ग होय तो बताव. नागिल देवे तेने आश्वासन आपतां कॉ-मित्र ! निराश थवानी जरूर नथी. पुरुषार्थीने सर्व कांई सुलभ छे. चरम जिनपति श्रीमहावीरदेवनी गोशीर्षचन्दननी मूर्ति भरावी, तेनी सारा आचार्यद्वारा प्रतिष्ठा करावी तेनी हरहमेश पूजा कर. ए प्रकारनी जिनभक्तिथी तारा अशुभ कर्मो नाश पामशे, तारा आयुना प्रांतभागे तेने सारा नगरमां पहोंचती करजे के ज्यां ते प्रतिमानी सारी रीते पूजा थाय. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २६५ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठ्ठाई महोत्सव पूर्ण थया बाद विद्युन्माली देवे चुल्लहिमवंत पर्वत ऊपर जई गोशीर्ष चन्दननी प्रतिमा बनावी अने तेने रत्नना सर्व आभरणोथी अलंकृत करी. घणा काळ सुधी तेनी पूजा कर्या बाद तेने सुयोग्य स्थळे पहोंचाडवानो ते विचार करे छे तेवामां समुद्रमां एक वणिकनुं नाव छ महिनाथी खुंची गयेलुं मालूम पडयुं. छ महिनाना प्रयास छतां नाव न निकळयुं एटले वणिक पण मूंझाणो. तेणे धूप, दीप विगेरे पूजन सामग्री धरी इष्टदेवनुं स्मरण कर्यु. विद्युन्माली देवे त्यां आवी ते वणिकने कह्यं-हे वणिक ! मूंझाईश नहीं. जो तुं काष्ठनी पेटीने वीतभय नगरे महाराजा उदायन ने पहोंचाडवानुं कबूल करे तो तारुं वहाण सहीसलामत वीतभय नगरे पहोंची जशे अने तारो आपत्तिकाळ दूर थशे. वणिके ते कथन स्वीकार्यं विद्युन्माली देवे काष्ठनी पेटीमां श्रीमहावीरस्वामीनी मूर्ति मूकीने तेने सोंपी. देवप्रभावथी बीजे ज दिवसे वहाण वीतभयनगरे पहोंची गयुं. वणिके राजा पासे भेटणुं धरी सर्व हकीकत कही संभळावी अने देवाधिदेवनी पेटी हाजर करी. पेटीनो देखावज मन्त्रमुग्ध करे तेवो हतो. एनी कारीगरीमां, एना प्रत्येक आलेखनमां दैवी शक्तिनो चमत्कार जणातो हतो. वायुवेगे वात नगरमा प्रसरी गई अने मानवसागर उभरायो. राजाए जेनामां शक्ति होय तेने पेटीना द्वार खोलवा आमन्त्रण आप्युं. जनतामां द्वार उघाडवा संबंधी स्पर्धा चाली, पण संख्याबंध हाथोने निराशा मळी. समय वधवा लाग्यो अने मानवमेदनी विखरावा लागी. राजानी धीरज खूटवा लागी, पण पेटीना द्वारोए कोईने अंश मात्र पण खुलवानी आशा न आपी. परंतु आदरेलो समारंभ पूर्ण कर्या विना राजाथी ऊभा पण केम थवाय ? राजानी मूंझवणमां पण हवे वधारो थवा लाग्यो. आटला बधा प्रयास छतां पेटी न खुली त्यारे लोकोने दैवी करामतनी कल्पना आववा लागी. कोईए शंकरना नामे, कोईए विष्णुना नामे, कोईए गजाननना नामे स्तुति करी पण सर्व व्यर्थ. राजा भोजननो समय पण वीती गयो. राणी प्रभावतीए बे वार दासीने आमन्त्रण आपवा मोकली पण राजाथी उठाय तेम ज न हतुं. दासीमुखथी देवाधिदेव संबंधी हकीकत जाणी प्रभावती देवी पण घडीभर आश्चर्यमुग्ध बनी गई. ते खरी जैन धर्मिणी हती. तेने साहजिक विचार आव्यो के 'देवाधिदेव' तो राग-द्वेषादि अढार दूषण रहित श्रीजिनेश्वर ज होई शके. बाद स्नान करी, शुद्ध वस्त्रोमा सज्ज थई, पूजननी सामग्री साथै प्रभावती पेटी समीप आवी. नम्रभावे कराती स्तुतिना सुन्दर स्वरनी साथे ज पेटीना द्वार आपमेळे खुली गया अने गोशीर्षचंदननी महावीर भगवंतनी मूर्ति सौ कोईनी नजरे पडी. सर्वत्र आनंद छवाई गयो, राजवीनी चिंतानो अंत आव्यो. सुंदर प्रासाद बनावी तेनी प्रतिष्ठा की. प्रभावती प्रतिदिन तेनी पूजा करती. राजा पण पूजनसमये वाजिंत्र वगाडी राणीना भक्तिभावने वधारतो. एक प्रसंगे स्नान करी राणीए दासी पासे पूजाना श्वेत वस्त्रो माग्या. दासीए ते लावी हाजर कर्या छंता भ्रमवश राणीने ते राता जणाया. एटले आवेशमां ने आवेशमां तेनाथी बोली जवायुं के आ शृंगारने योग्य वस्त्रो शा माटे लावी ? गुस्सामां तेणे ते दासी तरफ दर्पण फेंक्युं, जे तेना मर्मस्थळमां श्रीगच्छाचार - पयन्ना— २६६ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वागतां ते मृत्यु पामी. वस्त्र तो श्वेत हता. ते राणीने जणातां ज पोताना अविचारी कृत्य माटे घणो ज संताप थयो. आवो ज एक बीजो प्रसंग बनी गयो. राणी पूजन बाद नृत्य करी रही हती अने राजा वाजिंत्र वगाडी रह्या हता तेवामां राजाने राणीनुं शिर-विहुणुं मात्र धडज जाणे नाचतुं होय तेम जणायु तेना गात्र ढीला पडी गया अने वाजिंत्र अटकी गयुं. राणीना नृत्यमान भंग पडतां तेणे कारण पूछयु. अतिशय आग्रह बाद राजाए सत्य हकीकत कही एटले दासीना अवसान बाद जे वात भुसावा मांडी हती ते पुन: ताजी थई. राणीए निश्चय कर्यो के-हवे पोतानुं आयु अल्प छे. तेणे राजा पासे आत्मकल्याणना पंथे जवा रजा मागी. राजाए एक शरते रजा आपी के-जो तुं काळ करीने देव थाय तो अमोने प्रतिबोध पमाडवो. प्रभावतीए चारित्र पाळी स्वर्गप्राप्ति करी. देव थया पछी प्रभावतीए राजाने प्रतिबोधवा अने जैनधर्मी बनाववा केटलाय प्रयासो कर्यां पण राजा तो तापसभक्त बन्यो. प्रभावती देवे तेने प्रतिबोधवा तापस वेश ग्रहण कर्यों अने राजाने एक अत्यंत मनोहर फळ आप्यु, तेना स्पर्शथी राजाने आनंद थयो, तेनी गंध पण उत्तम हती अने तेनो स्वाद तेने अमृत फळ जेवो जणायो एटले राजाए ते तापसने पूछयु के-आवा फळो क्यां मळे छे? तापसे का-मारी साथे तमे एकला आवो तो देखाईं. राजा तेम ने तेम अलंकार युक्त तापसनी पाछळ पाछळ गयो. थोडे दूर गया पछी एक वन देखायुं तेमां प्रवेश करतां थोडे दूर एक तापसाश्रम देखायो. राजाने आवतो जोई घणा तापसो एकत्र थई गया अने राजाने सर्व वस्त्राभूषणथी सज्ज जोई, तेने मारी नाखी तेना सर्व अलंकार लई लेवानो विचार करवा लाग्या. तेओनो तेवो विचार जाणी राजा भय पामी त्यांथी नाशवा लाग्यो. थोडे दूर जतां ते ज वनमां मनुष्योनो विशाळ समूह जोयो. पोताने शरण मळशे तेवा हेतुथी राजा त्यां गयो तो कामदेव जेवा स्वरूपवान, सौम्यमूर्ति, बृहस्पति समान विद्वान् साधुसमूहने अने तेनी पासे उपदेश सांभळतां चतुर्विध संघने जोयो. आचार्ये राजाने निर्भय बनवा का. राजा त्यां बेठो अने स्थिर चित्तथी उपदेश सांभळ्यो. जैनधर्मनो अंगीकार पण को. राजानी जैनधर्ममां दृढ श्रद्धा थई जाणी प्रभावती देवे पोतानी सर्व माया संहरी लीघी एटले राजाए पोताने एकलो सिहासन उपर बेठेलो जोयो. जाणे हुं क्यांय गयो नथी तेम आव्यो नथी. आ शुं थयुं ? तेम बिचारे छे तेवामा प्रभावती देवे प्रत्यक्ष थई का के-आ सर्व में ज तमने प्रतिबोध पमाडवा विकुयु हतुं. हवे तमे जैनधर्मनुं यथार्थ पालन करजो अने भविष्यमां कई पण विघ्न उपस्थित थाय त्यारे मारुं स्मरण करजो. ___ आ बाजुप्रभावती राणीना चारित्र-स्वीकार पछी पूजनादिनुं कार्य एक कुबडी दासीए स्वीकार्यु, तेना मनमां चमत्कारिक बिंबप्रत्ये भाव हतो एटले स्वेच्छाथी पूजारिणी पद स्वीकार्यु, धीमे धीमे आ प्रतिमा- माहात्म्य देशदेशावरमां प्रसरी गयुं हतुं. ___ गंधार देशनो कोई एक श्रावक दीक्षा लेवानी भावनावाळो थयो. दीक्षा लीधा पहेलां तेने तीर्थंकरोनी जन्म, दीक्षा, केवळ अने निर्वाणभूमिओना दर्शन करवानी इच्छा थई. ए प्रमाणे परिभ्रमण करतां ते घणा मुनिओना संसर्गमां आव्यो. एकदा कोई मुनिराज पासे सांभळयु के-वैताढ्य पर्वतनी श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २६७ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुफामा श्री ऋषभदेव आदि चोवीश तीर्थंकरोनी रत्नमय मूर्तिओ अलौकिक अने चमत्कारिक छे. प्रतिमाओना दर्शन करवानी भावनाथी गंधार श्रावक महामुशीबते त्यां गयो. देवाराधन करी, तेणे ते स्फटिक रत्नमय प्रतिमाओनां भावपूर्वक दर्शन कर्यां. ते स्थळमां रत्ननो अतिशय ढ़गलो जोई तेनुं मन लेश मात्र चलायमान न थयुं तेथी देवे तुष्टमान थई तेने 'वर' मागवा कह्यं निर्लोभी गंधार श्रावके पोताना अनिच्छा दर्शावी त्यारे 'अमोघं देवदर्शनम्' एम जणावी देवे तेने बत्रीश गुटिकाओ आपी अने कह्यं के-आ गुटिकाओना प्रभावथी मनचिंतित दरेक कार्य सफळ थशे. त्यांथी पाछा वळतांवीतभयनगरना श्रीमहावीर जिनबिंबनी प्राभाविकता सांभळी ते त्यां आव्यो. थोडा दिवस रही प्रभुभक्ति अपूर्व लाभ लीधो. अचानक गंधार श्रावकनुं स्वास्थ्य बगड्युं. ते मांदो पडयो. परदेशमां तेनुं स्वजन कोण होय ? कुबडी दासीए तेनी सेवा-चाकरी करी. सगी बहेन चाकरी करे तेवा भक्तिभावथी दासीए गंधारी सेवा-शुश्रूषा करी, तेथी गंधारने आराम तो न थयो, परन्तु तेनो दुःखभार ओछो थयो असाध्य रोगे गंधारनो प्राण लीधो ते पूर्वे तेणे कुबडी दासीने पोतानो गुटिकासंग्रह आपी दीधो अने साथसाथ तेना फायदा पण समजाव्या. गंधारना मृत्यु पछी दासीने गुटिकानो चमत्कार जोवानी तालावेली लागी. तेणे एक गुटिका खाई स्वरूपवान थवानी इच्छा करी तो गुटिकाना प्रभावथी देवांगना समी बनी गई. एक गुटिकानो चमत्कार जणायो के तरत ज दासीए मनोरथना किल्ला चणवा मांडया. अत्यार सुधी भोगसुखथी वंचित रहेल तेणीनी विलासनी वासना वृद्धि पामी, पण उदायन राजा द्वारा तेनी तृप्ति थवी अशक्य जणातां तेनी नजर उज्जैनीना राजवी चंडप्रद्योत ऊपर पडी. तेनुं नाम पण हवे सुवर्णगुटिका तरीके प्रसिद्धि पाम्युं. चंडप्रद्योते पोताना दूतने उदायन राजा पासे सुवर्णगुटिकानी मागणी करवा मोकल्यो. उदायने दूतनो तिरस्कार करी काढी मूक्यो. उदायन साथे बाथ भीडवी चंडप्रद्योतने माटे अशक्य हतुं, कारण के उदायनना सामर्थ्यथी ते सारी रीते परिचित हतो. तेणे युक्तिथी काम लेवानो निर्णय कर्यो. एक रात्रि पोताना अनिलगिरि नामना गंधहस्ती ऊपर बेसी, थोडा माणसो साथे ते वीतभयनगरे आव्यो. सुवर्णगुटिकाने तैयार थई जवा कह्यं, पण सुवर्णगुटिकाए कह्यं के-आ चमत्कारी प्रतिमा माराथी अहींथी एक पगलुं पण न खसाय, माटे आना जेवी ज महावीरनी बीजी प्रतिमा बनावी, तेने अहीं स्थापन करी, आ प्रतिमा आपणे साथे लई जवी जोईए. चंडप्रद्योतने सुवर्णगुटिकानुं वचन स्वीकार्या सिवाय छूटको नहोतो. उज्जैनीमां आवी चंडप्रद्योते तेवी प्रतिमा करावी. पछी अनुकूळ समय जोईने वीतभयपट्टणे गयो. मूळ प्रतिमाने स्थाने बीजी प्रतिमा स्थापी ते सुवर्णगुटिका साथे पोतानी नगरे पहोंची गयो. अनिलगिरि गंधहस्तीना आववाथी उदायन राजाना हाथीओ आलानस्तभं उखाड़ी नाखवा प्रयास करवा लाग्या हता, कारण ते गंधहस्तीनी गंध सामान्य हस्तीओ सहन करी शकता नथी हाथीओना श्रीगच्छाचार - पयन्ना — २६८ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घमसाणने कारणे महावतो जागी जई कारण तपासवा लाग्या तेवामां तो चंडप्रद्योतना आवागमनना अने सुवर्णगुटिकाना अपहरणना समाचार उदायन राजाने मळ्या, राजाए जिनप्रासादमां आवी जोयुं तो जे पुष्पमाळा कदी करमाती नहीं तेने चीमळायेली नीहाळी. उदायनने अतीव क्रोध चढ्यो दश मुकुटबद्ध राजाओ साथे तेणे उज्जैनी ऊपर चढाई करी. उदायने चंडप्रद्योतने कहेवरात्र्यं के आपणे द्वन्द्व युद्ध करीए, निरर्थक शामाटे शस्त्राशस्त्रनो अने सेनानो विनाश करवो ? चंडप्रद्योत अनिलगिरि हस्ती ऊपर बेसी अने उदायन रथमां बेसी तुमुल युध्द करवा लाग्या. युद्धकुशल उदयने अनिलगिरि हस्तीना चारे पगो शरथी वीधी नारख्या अने चंडप्रद्योतने पकडीलीधो. तेना ललाट ऊपर 'दासीपति' एवा शब्दो लखी बंदीवान तरीके तेने साथै लीधो. जीवंतस्वामीनी प्रतिमा पाछी लई जवा माटे उदायने प्रयास कर्या, पण मूर्ति अंशमात्र चली नहीं. उदायनने शंका थई के शुं परमात्मा रुष्टमान थया हशे ? तेवामां अंतरिक्षमां वाणी थ - वीतभयपट्टण थोडा ज समयमा धूळवडे ढकाई जशे, माटे आ प्रतिमाने पुनः त्यां लई जवाना प्रयास पड़ता मूक. राजा उदायन खिन्न हृदये पाछा फर्या. वीतभयनगर तरफ प्रयाण करता करतां वच्चे वर्षाऋतु आत्री एटले सारुं स्थळ जोई राजा उदायने पोताना सैन्यनी छावणी नाखी. वर्षाऋतुमां जीवोनो संहार न थाय ते हेतुथी एक ज स्थळे चातुर्मास गाळवानो निर्णय कर्यो, अने पर्युषण पर्वाधिराजनुं आराधन करवानुं पण ते स्थळे निर्णीत श्रयुं. जे स्थळे दश मुकुटबद्ध राजाए पडाव नाख्यो ते स्थळ एक नगरना देखाव समं शोभी उठयुं. ते स्थळ त्यारवाद 'दशपुर तरीके प्रसिद्धि पाम्युं हाल तेने मंदसौर तरीके ओळखवामां आवे छे. पर्युषणना अंतिम दिवसे रसोयो राजत्री उदायनने रसोई माटे पूछवा जतां तेणे कह्यं - आजे मारे उपवास छे. चंडप्रद्योतने पूछीने तेमने रुचे तेवी रसवती करी जमाडजे रसोयो चंडप्रद्योतने रसोई माटे पूछत्रा गयो. कोई दिवस नहीं अने आजे रसोयो रसोई माटे पूछवा आवंता चंडप्रद्योतना मनमां अनेक शंका-कुशंकाओ पसार थई गई. छूपी रीते पोताना अन्नमां विष भेळवी देशे तो ? ए वहेमे तेना मनमां मजबूत स्थान कर्यु. आ रीते छूपी रीते दगानो भोग थवा करतां उपवास करवो शुं खोटो ? एम विचारी तेणे रसोयाने कह्यं के-मारे पण आजे उपवास छे. राजवी उदायनने आ समाचार मळतां ज तेमणे विचार्य के चंडप्रद्योत तो मारो साधर्मी बन्धु, ज्यां सुधी एक पण स्वामी भाई सा वैमनस्य होय, ज्यां सुधी ए दोष निवारण करी तेनी साथे साची क्षमापना न करी होय त्यां सुधी मारुं पर्युषण पर्वाराधन अधूरुं ज गणाय. जिनाज्ञाना आराधक थवा माटे मारे चंडप्रद्योत साधेपण साची क्षमापना करी लेवी जोईए. तरत ज पोते स्वयं जई कारागृहना द्वार खोली नाख्या अने चंडप्रद्योतने भेटी पोताना स्वामी भाईनी आज सुधी जे कदर्थना करी ते माटे पश्चात्ताप जाहेर कर्यो. तेना ललाट ऊपर लखायेला 'दासीपति' शब्दने ढांकवा माटे सुवर्णपट्ट बंधाव्यो अने सुवर्णगुटिका तेने परणात्री तेनुं राज्य तेने पुन: पार्छु आप्यु. आ रीते चंडप्रद्योतने द्रव्य उपवास पण लाभप्रद श्रयो. राजवी उदायन तो श्रावक हता. चंडप्रद्योत जेवो गुनेगार शत्रु हतो छतां कषायने उपशमात्री क्षमापना करी तो पंच महाव्रतधारी साधुए अवश्य करवी ज जोईए, कारण के चारे कषाय संसाररूप श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २६९ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाळ महेलना मजबूत पाया छे. तेने शिथिल करशो तो संसारी महेलातने धराशायी थतां वार नहीं लागे. मोहराजाना ए व्रण पात्रो अने मायारूपी पौत्रीथी सदा सावधान रहेवू. ते एवा छुपा चोर छे के तेना आगमन नी अने लूटनी आपणने खबर पड़ती नथी. आ त्रणे दृष्टान्तों श्रीनिशीथचूर्णीना दशमा उद्देशामां आपलां छे. सुगच्छना लक्षणो बतावतां हजु पण ग्रन्थकार जणावे छे के सीलतवदाणभावण-चउविहधम्मंतरायभयभीए। जत्थ बहू गीअत्थे, गोअम ! गच्छं तयं भणिअम् ।।१०० ।। [शीलतपोदानभावना-चतुर्विधधर्मान्तरायभयभीताः । यत्र बहवो गीतार्थाः; गौतम ! गच्छ: सको भणितः ।।१०० ॥ गाथार्थ-दान, शील, तप अने भाव-आचार प्रकारना धर्मना अंतरायथी भय पामेला गीतार्थ साधुओ जे गच्छमां घणा होय तेने हे गौतम ! तुं सुगच्छ जाण. विवेचन-चार कषाय ए जेम संसाररूपी महेलना पाया छे तेम दानादि चार धर्मो धर्मरूपी महेलना आधारभूत चार स्थंभो छे. श्रीश्राद्धदिनकृत्यवृत्तिमां त्रण प्रकारनां दान कह्यां छे. दानशीलतपोभावै: स तु धर्मश्चतुर्विधः । दानं तावत् त्रिधा ज्ञानाऽभयोपग्रहभेदतः ॥१॥बीजाने भणावे, श्रुत संभळावे, तीर्थंकरप्ररूपित आगमनुं मुमुक्षु जीवोने अध्ययन करावे ते १ ज्ञानदान, २ अभयदान-स्वभावथी ज दुःख पामेला जीवोने पीडा न करे अने ३ उपकरणदान-ज्ञान तथा अभय आपनाराने आहारादिक आपीने उपग्रह करे ते; अथवा जे वस्तुना दानथी चारित्रने सहाय थाय ते पण धर्मोपकरण दान कहेवाय छे. दाननी माफक शीलना पण त्रण प्रकार छ: १ शुद्ध आचार-निर्वद्य (निष्पाप) श्रावक या साधुधर्मनुं पालन करवू, २ * अढार हजार शीलांग रथ- पालन-तेमां लेशमात्र पण दोष नलगाडवो अने ३ ब्रह्मचर्य पाळवं. तप बार प्रकारनो छे: छ बाह्य अने छ अभ्यंतर. आ तपने लगतुं विस्तृत विवेचन अगाउ पृष्ठ १०७ ऊपर आवी गयेल छे. आ संबधमां विशेष वर्णवतां कहे छे के-१ मघा, २ भरणी, ३ पूर्वाफाल्गुनी, ४ पूर्वाषाढा अने ५ पूर्वाभाद्रपद आ पांच उग्र नक्षत्रमा खास करीने तप करवो. *३ योग, ३ करण, ४ संज्ञा, ५ इंद्रियो, १० पृथ्वीकाय आदि(५ स्थावर, ४ त्रस अने १ अजीव) अने १० यतिधर्म-आ सर्वने परस्पर गुणतां १८००० भेद थाय छे, ते नीचे प्रमाणे क्षांतियुक्त, पृथ्वीकायसंरक्षक, श्रोत्रंद्रियने संवरण करनार अने आहारसंज्ञा रहित मुनि मनथी पाप-व्यापार न करे. एवी रीते क्षांतिना स्थाने मार्दव,आर्जव आदि नव यतिधर्म कहेवाथी १० भेद थया. आ दश भेद 'पृथ्वीकायसंरक्षक पदना योगथी थया, तेवी रीते अपूकायथी प्रारंभी अजीव सुधी प्रत्येकना दश-दश भेद करवाथी १०० भेद थया. आ सो भेद 'श्रोत्रंद्रिय पदना संयोगथी थया, तेवी रीते चक्षु आदि अन्य चार इंद्रियोना संबंधथी चारसो भेद करवाथी कुल ५०० भेद थया. आ पांच सो भेद आहारसंज्ञा' ना संबंधथी थया, अन्य त्रण संज्ञाओना संबंधथी पंदरसो थवाथी कुल बे हजार थया. आ बे हजार 'करण' पदनी योजनाथी थया. तेवी रीते 'करावण अने अनुमोदन' पदथी बे-बे हजार भेळवता ६००० थया. आ छ हजार भेद मन संबंधी थया. तेवी रीते वचन अने कायाना संबंधथी छ-छ हजार भेळवतां कूल १८००० भेद थाय छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २७० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुगुणषत्रिंशिकावृत्तिमां शरीर, वचन अने काया एत्रण प्रकारनो तप कह्यो छे. १ शरीर तप-देव, साधु, गुरु, सिद्धांतनी पूजा-बहुमान करे, शौच पाळे, ब्रह्मचर्य पाळे, सरळता राखे कपट न करे तेमज हिंसा न करे ते शरीर तप कहेवाय, २ वचनतप-बीजाने उद्वेग थाय तेवू न बोले, सत्य प्रिय हित ने मित वाक्य ज बोले, स्वाध्याय करे, सूत्राभ्यास वधारे ते वचन तप जाणवो. ३ मन तप-मनने आनंदित राखे, मौनपणुं राखे. दुर्ध्यान न करे, मन निर्मळ राखे. आत्रण प्रकारना तप अनुक्रमे एकथी एक उत्कृष्ट समजवा. सात्त्विक, राजस अने तामस-ए त्रण प्रकारनो पण तप होय छे. फळनी वांछा विना करातो तप सात्त्विक, पूजा, सत्कार अने बहुमाननी इच्छाथी करातो तप ते राजस, अने आत्माने पीडीने बीजाना नाश माटे जे कराय ते तामस कहेवाय छे. भावना बार प्रकारनी छे, ते आ प्रमाणे-१ अनित्य भावना-तारो संबंध, तारा संयोगो, तारी चीजो नित्य तारी पासे रहेवानी नथी, तारुं शरीर पण सदाने माटे तारुं नथी. २ अशरण भावणा-तने व्याधि थाय तो पीडामां कोई भाग पडावे तेम नथी, दुःखमां कोई टेको आपी शके तेम नथी, तारे तारो ज आधार छे. ३. संसार भावना-समग्र संसारमा कर्म राजा जे नाटक करावी रह्या छे अने आखो आ भवप्रपंच चाली रह्यो छे तेनी विवेक पर्वते ऊभा रही विचारणा करवी. ४. एकत्व भावना-आ प्राणीनो आत्मा एकलो ज छे, तेनु कोई नथी, ते पण कोईनो नथी, ए एनो पोतानो ज मालेक छे. ५. अन्यत्व भावना-आपणो आत्मा सर्वथी अन्य छे-भिन्न छे, एन कोई सगं नथी, एनं पोतानं शरीर पण एनाथी अन्य छे. आ स्वपरभाव विचारणा करवी. ६. अशुचि भावना-मांस, रुधिर, मेद, हाडका, लोही अने चामडीनुं बनेलं आ शरीर अपवित्रतानी पोटली छे, एना ऊपर मोह करवा जेवं नथी, तेनो खरेखरो उपयोग करी लेवा जेवू छे. ७. आश्रव भावना-जीव अव्रतीपणाथी, मिथ्यात्वथी, कषायोथी अने मन-वचन कायाना योगोथी कर्म बांधे छे, कर्मथी भारे थाय छे संसारमा रखडे छे. ८. संवर भावना-क्षमादि दश यतिधर्मो, आठ प्रवचनमाता, बार भावनाओ, बावीश परिषहो विगेरे द्वारा आवतां को रोकी शकाय तेवी विचारणा. ९ निर्जरा भावना-वृत्ति ऊपर अकुंश, अनशनादि बाह्य तपस्या तथा विनय-वैयावच्चादि आंतर तपस्याथी लागेलां कर्मोनी मुक्ति वगर भोगवे शक्य छे तेवी विचारणा. १०. धर्मसूक्तता भावना-आत्मानुं स्वरूप, कर्म स्वरूप, बनेनो संबंध, मुक्तिमार्ग, तेना उपाय अने तेनु उपादेयपणुं धर्ममां बताव्यु छे तेनी पुष्टिरूप विचारणा. ११ लोकपद्धति भावना-लोकाकाशनुं स्वरूप, लोकनुं स्वरूप, तेमां थतां आत्मानां जन्म मरणनी स्थिति अने रखडपाटानां स्थानोनी विचारणा * १२. बोधिदुर्लभभावना-साचा मार्गनी ओळखाण, प्राप्ति अने संरक्षण मश्केल छे पण ए रत्नत्रयीनी प्राप्ति करवी ए खास कर्त्तव्य छे तेवी विचारणा. आ बार प्रकारनी भावाना उपरांत मैत्री, प्रमोद कारुण्य अने माध्यस्थ्य-ए भावना गणतां सोळ भावना पण थाय छे. * भावनानं विशेष स्वरूप समडवा माटे उपाध्याय श्रीविनयविजयजीकृत “शांत सुधारस" ग्रन्थ वांचवो. ते संस्कृत पद्य ऊपर श्रीयुत मोतीचन्द गिरधरलाल कापडियाए गुजराती भाषामा "शांत सुधारस" ना लखेल बन्ने भागो खास वाचवा लायक छे. विवेचन बहु ज सुन्दर अने सरल भाषामां समजी शकाय तेवू छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २७१ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भाव्यते इति भावना' अर्थात् संसार प्रत्ये वैराग्य प्रगट करवा माटे मनमा वारंवार जेनें स्मरण करवामां आवे अन ते द्वारा आ संसारबंधनथी आत्माने मुक्त करवामां आवे अगर तो आत्माने मोक्ष सन्मुख करवामां आवे ते भावना कहेवाय छे. भावनानुं क्षेत्र आपणा सर्व संबंधान पृथक्करण करवांनु छे अने ते रीते ए भूमिकानी शुद्धि करे छे. शुद्ध करेली भूमिका ऊपर सुन्दर चित्रामण थाय तेम भावनावासित आत्मा ऊपर वैराग्यनी सुन्दर भूमिका रचाय छे. समजण अने ज्ञान वगर कोई पण क्रिया तेना वास्तविक स्वरूपमां थती नथी. 'आपणे कोण छीए? क्यां छीए? शा माटे छीए? आ संसार-परिभ्रमणनो हेतु शो?' ए बराबर विचारवान क्षेत्र भावना छे. भावना आपणने अन्दर जोतां शीखवाडे छे अने तेटला ज खातर कहेवामां आव्यु छ के-भावना भवनाशिनी। हवे त्याग करवा योग्य गच्छनु स्वरूप जणावतां कहे छे के जत्थ य गोयम पंचण्ह, कहवि सूणाण इक्कामपि हुज्जा। तं गच्छं तिविहेणं, वोसिरिअ वइज्ज अन्नत्थ ।।१०१।। सूणारंभपवत्तं, गच्छं वेसुज्जलं न सेविज्जा। जं चारित्तगुणेहिं तु उज्जलं तं तु सेविज्जा ॥१०२ ।। जत्य य मुणिणो, कयविक्कयाइ कुव्वंति संजमब्भट्ट । तं गच्छं गुणसायर !, विसं व दूरं परिहरिज्जा ।।१०३ ।। [यत्र च गौतम ! पञ्चानां, कथमपि सूनानामेकमपि भवेत् । तं गच्छं त्रिविधेन, व्युत्सृज्य व्रजेदन्यत्र ॥१०१ ॥ सूनारम्भप्रवृत्तं, गच्छं वेशोज्ज्वलं न सेवेत । यश्चारित्रगुणै: तूज्वलस्तं तु सेवेत ॥१०२ ।। यत्र च मुनयः, क्रयविक्रयादि कुर्वन्ति संयमभ्रष्टाः । तं गच्छं गुणसागर !, विषमिव दूरत: परिहरेत् ॥१०३ ॥] गाथार्थ- हे गौतम ! जे गच्छमां १ घंटी, २ उखल-खारणीयो, ३चूलो, ४ पाणीयाळं अने ५ सावरणी-आ अनेक अशरण जंतुओना वधस्थानो पैकी एक पण होय ते गच्छनो मन-वचन-कायाथी त्याग करीने अन्य सारा गच्छनो आश्रय लेजे. जीवहिंसाना कारणभूत खारणीया विगेरेना आरंभमां प्रवर्तेला अने उज्ज्वळ वेश धारण करनारादंभी साधुओना गच्छनी सेवा न करवी, परन्तु समिति-गुप्तिरूप चारित्र गुणोथी विभूषित गच्छनी वैयावच्चादिक सेवा करवी. वळी जे गच्छनी अंदर मुनियो क्रय-विक्रय आदि करे, करावे के अनुमोदे ते साधुओ संयमभ्रष्ट जाणवा. हे गुणना सागर समान गौतम ! तेवा साधुओने तो हळाहळ झेरनी माफक दूरथी ज त्यजी देवा. विवेचन-घंटी प्रमुख जीवहिंसामा हेतुभूत छे. साधुओने त्रिविधे त्रिविधे हिंसा- प्रत्याख्यान श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २७२ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होय छे. अन्य दर्शनीय ग्रन्थोमां पण हिंसाना हेतुभूत आ कारणोनो निषेध फरमाव्यो छे. श्रीशुकसंवादमां कह्यं छे के “ खंडनी १ पेषणी २ चुल्ली ३ जलकुम्भः ४ प्रमार्जनी ५ । पंचसूना गृहस्थस्य, तेन स्वर्गं न गच्छतीति ॥” अर्थात् खांडणी, घंटी, चूलो, जळनो घडो (पाणीयारुं) अने सावरणी - आ पांच वस्तुनो गृहस्थोए त्याग करवो, कारण के तेथी स्वर्गे जवातुं नथी. आ पांच प्रकारोमां आसक्ति धरावता होय तेवा श्वेतवस्त्रधारी साधुओनो पण शीघ्र त्याग करवो, कारण के तेवो उज्ज्वळ वेषधारक साधु नथी पण दंभी जाणवा. उज्जळ वेषथी विभूषा थाय छे, विभूषाथी चीकणां कर्म बंधाय छे अने चीकणां कर्मबंधथी संसार- भ्रमण वधे छे. श्रीदशवैकालिक सूत्रमां कह्यं छे के “विभूसावत्तिअं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे घोरे, जेणं पड दुरुत्तरे ||१ ||” उज्वळ वेष- परिधानथी ब्रह्मचर्यनो नाश थाय छे. कदरूपो प्राणी होय ते पण श्वेत वस्त्रविभूषाथी रुडो जणाय छे, तेने तेवा प्रकारनो देखी स्त्रीओ तेने क्रिडा योग्य जाणी तेना प्रत्ये आकर्षाय छे. तेमां वळी जो गात्रो रमणीय होय तो स्त्रीओना कटाक्षादिकथी क्षोभ पाम्यो छतो ब्रह्मचर्यथी भ्रष्ट थशे. वळी लोकोने विषे पण तेवा साधु निंदाने पात्र थाय छे, कारण के तेवा प्रकारना साधु जोईने लोको कहे छे के मुनि चोक्कस कामी जणाय छे, नहीं तो संसारना त्याग कर्या पछी वळी वस्त्रनी टापटीप शा माटे करे ? हे गौतम! आवा गच्छनो त्याग करी सुगच्छनो आश्रय लेवो. कोई शंका करतां पूछे के-काळना प्रभावथी अत्यारे निरतिचार चारित्रपालन दुष्कर छे तो तेनो जवाब ए छे के-जे दोष । लागे तेनी गर्हा-निंदा करे ते निरतिचार चारित्री जाणवो. जेम वस्त्र मेलुं थाय तेने धोवाथी ते मेल रहित थाय छे तेम अतिचार लाग्यो होय तेनी गर्हा-निंदा करवाथी निरतिचार चारित्र पळाय छे. वळी जे साधुओ पात्रादिकनो, औषधनो, पुस्तक, पोथीनो क्रयविक्रय करतां होय, करावता होय अगर तो तेवुं कार्य करनारनी अनुमोदना करता होय तेवा साधुओने झेर करतां पण विशेष हानिकर जाणवा. झेर खाधुं छतुं एक वखत ज प्राणनो नाश करे छे पण आवा संयमभ्रष्ट साधुना संसर्गथी तो अनेक भवोमां भटकवुं पडे छे. हे गौतम! आवा गच्छनो पवन पण न खावो. हजु पण आ संबंधमा विशेष दर्शावतां कहे छे के आरंभेसु पसत्ता, सुद्धंतपरंमुहा विसयगिद्धा । मुत्तुं मुणिणो गोयम ! वसिज्ज मज्झे सुविहियाणम् ॥ १०४ ॥ [ आरम्भेषु प्रसक्ताः, सिद्धान्तपराङ्मुखा विषयगृद्धाः । मुक्त्वा मुनीन् गौतम ! वसेत् मध्ये सुविहितानाम् ॥ १०४ ॥] गाथार्थ - हे गौतम! आरंभ-समारंभोमां रक्त बनेला शास्त्र- सिद्धांतना वचनोथी विरुद्ध वर्तनारा, कामभोगमां गृद्ध-लंपट बनेला एवा दुष्ट साधुओनोसंग सर्वथा त्यजीने सुविहित साधुओना समुदायमां वास करवो. विवेचन-पृथ्वीकायादिकना आरंभमां रक्त होय, काचुं पाणी तथा अग्निकाय विगेरेनो आरंभ कराव्रता होय, गृहस्थ पासे भार उपडावता होय, शरीरनी शोभा - विभूषा करता होय, वारंवार श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २७३ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथ-मुख धोता होय तेवा साधुओनो संग वर्जवो; कारण के तेथी संसार सागर तरवाने बदले तेमां पतित थवाय छे. शब्दादिक विषयो पण प्राणीने हेरान करी मूके छे तो सिद्धांत विरुद्ध आचरणा माटे तो पूछवुं ज शुं ? शब्दादिक पंच विषयोने अंगे राम, चपलाक्ष, गंधप्रिय कुमार, मधुप्रिय कुमार महेंद्र राजकुमार ए पांचेना वृत्तांतो जाणवा योग्य छे. श्रोत्रेंद्रियना विषयमां रामनी कथा ब्रह्मस्थळ नामना नगरमां भुवनचंद्र नामनो राजा हतो. तेने राम नामनो पुत्र हतो. ते पुरुषनी बोंतेर कलामां निपुण हतो. राजाए तेने योग्य उमरनो जाणी एकदा प्रधानने पूछयुं के- आपणे राम युवराजपदे स्थापीए. प्रधाने कह्यं हे राजन् ! आ राम राजा थवा लायक नथी. राजा कारण पूछ प्रधाने जणाव्यं के-ते परवश छे, कारण के ते श्रोत्रेंद्रियना विषयमां आसक्त छे. तेने हंमेशा संगीत प्रिय छे. ते दोषने अंगे तेने युवराज पद आपवुं योग्य नथी. तेनी पछी जे बीजो राजपुत्र छे ते राजाना बधा लक्षणोथी युक्त छे माटे तेने युवराजपद आपो. राजाए कह्यं प्रधानजी ! संगीत ए तो राजानुं लक्षण छे, तेने दोष न कहेवाय एटले प्रधाने जणाव्युं के - "जह अग्गीइ लवो वि हु, पसरतो दह गामनगराई । इक्किक्कमिंदियंपि हुं, तह पसरतं समग्गगुणे ॥ १ ॥” नानो एवो अग्निनो कणियो जो फेलावो पामे तो अनेक गाम तथा शहेरो बाळी नाखवा समर्थ थाय छे तेम इन्द्रियना विषयो वृद्धि पामे तो सर्व गुणनो नाश करी नाखे. प्रधानना निषेध छतां राजाए रामने युवराज पद आप्युं. थोडा समय बाद राजा मृत्यु पामतां राम राजा थयो अने पोताथी नाना भाईने युवराज स्थाप्यो. राम नित्य संगीत सांभळे, पोते पण वाजित्रो वगाडे अने संगीत शीखे. डुंब जातिना लोक संगीतमां घणा हुशियार होय छे तेने बोलाव्या अने तेना पासे नित्य संगीत गवरावे. श्रवणेंद्रियनी आसक्तिमां ते राज्यकारभार अने न्यायादिकने माटे पण अवकाश मेळती शकतो नहीं. तेवामां एक डुंबडी तेना जोवामां आवी. ते घणु ज मिष्ट गाती. तेनो कंठ कोयल जेवो सुमधुर हतो. रामेतेने पोता पासे राखी, तेना रूप ऊपर ते मोहित थयो अने छेवटे पोतानी मर्यादा छोडी तेनी साथे भोग भोगववा लाग्यो. मंत्री प्रमुखे विचार करी तेने राज्य ऊपरथी उठाडी मूक्यो. तेना नाना भाई महाबळने गादी बेसार्यो. राम देशांतरमां भमी मृत्यु पाम्यो. मरीने मृग थयो. तेवामां शिकारीए संगीतथी लोभावी, तेने पकडीने मारी नाख्यो. त्यांथी ते महाबळ राजाना पुरोहितना पुत्र तरीके उपज्यो. त्यां पण संगीत विलासी थयो. राजानी सेवामा रह्यो. महाबळ राजा पासे एक वखते डुंब लोको गावा आव्या त्यारे राजाए आ पुरोहित पुत्रने कह्यं के हुं निद्रावश थउं त्यारे आ डुंबने विदाय आपजे. थोडा वखतमां राजा ऊंघी गयो, परन्तु पुरोहित पुत्रने संगीतमा रस आववाथी तेओने रजा न आपी. बीजे प्रहरे महाबळ अचानक जागी जतां तेणे डुबोने गातां जोया एटले पुरोहितपुत्र ऊपर पोताना आदेश-भंग माटे क्रोध चढ्यो सवारे तेल ऊनुं करी तेना कानमा रेडाव्युं, जेनी वेदनाथी ते तर मृत्यु पायो. श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २७४ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ अविचारी कार्य कर्या पछी महाबळने घणो ज पश्चात्ताप थयो. तेवामां विचरतां विचरतां केवळी भगवंत आवी चढ्या. तेने वांदीने राजाए पुरोहितपुत्रनी वात पूछतां केवळी भगवंते रामना भवथी प्रारंभी सर्व वृत्तांत कही संभळाव्यो, जे सांभळी महाबळ राजाने तीव्र वैराग्य थयो. बाद निरतिचार चारित्र पाळी ते मोक्षे गयो. चक्षुइंद्रियना विषयमां चपलाक्षनी कथा विजयपुर नगरमां विश्वंभरी नामनो राजा हतो. तेने कुशळ नामनो प्रधान हतो. ते नगरमां यशोधर नामनो श्रेष्ठी हतो. आ त्रणेने परस्पर घणी प्रीति हती. एकदा ए त्रणेने एकी साथे पुत्रो थया. ए त्रणे युवान थया एकदा प्रधाने श्रेष्ठीने का के-तमारो पुत्र सदाचारी नथी. शेठे पूछ्युं केम? प्रधाने का के-राजमार्गमां राजाना अंत:पुरनी राणीओ प्रत्ये कुदृष्टि करे छे. राणीओने जोवा माटे वारंवार ते मार्ग पर फर्या करे छे, माटे भविष्यमां ते विनाशने नोतरशे तेथी तेने तुं समजावजे. श्रेष्ठीए पुत्रने घणो समजाव्यो पण तेणे पोतानुं कुव्यसन तज्युं नहीं. एकदा राजाए श्रेष्ठीपुत्रने राणीओने : सरागदृष्टिथी जोतां जोयो एटले राजाए तेने काढी मूक्यो अने पोताना महेलमां आववानो निषेध कयों. श्रेष्ठीने पण पोताना पुत्रना दुराचारथी घणुं दुःख थयुं लोकोए पण तेनुं चपलाक्ष एवं नाम प्रसिद्ध कर्यु. श्रेष्ठीए तेना दुर्वर्तन थी कंटाळी पोताना नोकर साथे परदेश मोकल्यो. त्यां पण ते चक्षुइंद्रियना आसक्तिथी नगरना प्रासादो, गवाक्षो, हवेलीओ जोतो फरे छे. बाग, बगीचा तथा वावडी ने तळावमां पण भटक्या करे छे. आ प्रमाणे फरतां फरतां तेणे एक महेलमा अत्यन्त सुन्दर पाषाणनी पूतळी जोई. तेने जोईने ते त्या ज बेसी रह्यो. भोजन करवानुं पण न सांभयु. नोकर तेने तेडवा आव्यो तो पण ते न उठ्यो. पछी नोकरे पाषाणनी पूतळी जेवी वस्त्रनी पूतळी करावी अने ते पाषाणनी पूतळीने ठेकाणे स्थापी. थोडी वार पछी ते पूतळी लईने पोताना उतारा तरफ चाल्यो एटले चपलाक्ष पण ते पूतळीने साची पूतळी मानीने तेनी पाछळ-पाछळ उतारे आव्यो. नोकरे हवे पोताना नगर प्रति प्रयाण कर्यु एटले चपलाक्ष पण तेनी साथे चाल्यो. रस्तामां चोर लोकोए धाड पाडी सर्वस्व लूंटी लीघु. पूतळी लुटाई जवाथी चपलाक्ष गांडो थई गयो. अटवीमां भमवा लाग्यो तेवामां राजानी राणीने त्यां क्रीडा करती निहाळी तेनी सामे एक दृष्टिथी जोई रह्यो. एटले राजपुरुषोए तेने मारी नाख्यो. मरीने ते पतंगीयो थयो. ते भवमां पण दीवामां घडी बळी मुओ. आप्रमाणे चक्षुरिंद्रियना वशपणाथी अनेक भवमां तेणे भ्रमण कर्यु. घ्राणेंद्रियना विषयमां गंधप्रियनी कथा__ पद्मखंड नामना नगरना राजा प्रजापतिने एक पुत्र हतो. तेने सुगंध ऊपर घणो ज प्रेम. जे कोई वस्तु होय तेने सुंघे तेथी लोकोए तेनुं गंधप्रिय एवं नाम पाडयु. एकदा ते राजपुत्र नदीमां क्रीडा करवा गयो. लाग जोईने तेनी अपरमाताए चूर्णयोगनी पडीकी करीने नदीना प्रवाहमां वहेती मूकी. श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २७५ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ चूर्णनो गंध महारौद्र होय छे अने तेने सुंघतां ज मृत्यु थाय. राजकुमारे ते पडीकी आवती जोई एटले तरत ज तेने लई लीधी. साथेना राजपुरुषोए तेने तेम करतां वायर्यो छतां राजपुत्रे ते पडीकी उघाडीने सूंघी के तरत ज चूर्णना तीव्र गंधथी मृत्यु पाम्यो. मरीने भ्रमर थयो. त्यां पण गंधनी आसक्तिथी कमळमां पेठो तेवामां हस्तीए आवीने ते कमळ खाधुं. त्याथी मृत्यु पामीने ते अनंत संसार रखड्यो. रसनेन्द्रियना संबंधमां मधुप्रियनी कथा___ सिद्धार्थपुर नगरमा विमल नामनो शेठ हतो. तेने रसनेन्द्रियमां आसक्त एक पुत्र हतो. तीखो, मधुर, खाटो विगेरे भोजन हमेशां जमे. हमेशां नवी नवी वस्तुओनी शोध कर्या करे पण व्यापारमा चित्त न परोवे. आ प्रमाणे घणी नवीन चीजो खाधा पछी तेने विचार आव्यो के-में घणी नवी नवी चीजो खाधी हवे मांस-मदिरानो स्वाद करूं. पछी ते मांस खावा लाग्यो. मदिरा पण पीवा लाग्यो. लोकोए तेनुं मधुप्रिय एवं नाम राख्यु. तेवामां तेनो पिता मृत्यु पामतां लोकोए तेनो तिरस्कार कयों एटले ते देशांतरमा गयो. परदेशमां मांसना लोलुपीपणाथी गामलोकोना छोकरा मारी नाखीने खावा लाग्यो. कोटवाळे तेने पकडीने फांसीए चडाव्यो मरीने नरकादिकमां अनंत संसार रखडयो. स्पर्शेन्द्रियना विषयमा महेन्द्र राजपुत्रनी कथा विष्णुपुर नगरमां धरणेंद्र राजाने महेन्द्र नामनो पुत्र हतो. तेने नगरशेठना पुत्र मदन साथे मित्राचारी हती. मदनने चंद्रवदना नामनी सुन्दर स्त्री हती. एकदा महेन्द्र तेना घरे गयो त्यारे मदन घरे नहोतो. चंद्रवदनाए तेनो सत्कार करी तेने तांबूल आप्युं ते वखते तेना स्पर्शथी राजपुत्रने सुख उपज्यु. तेनो कोमळ स्पर्श अनुभवी ते तेना प्रत्ये आसक्त थयो. पण मदनने मार्या विना चंद्रवदना मळे तेम न हतुं एटले मदनने मारी नाखवा माटे तेणे गुप्त पुरुषो रोक्या. तेओए प्रसंग साधी मदनने पकडयो अने मार मारवा लाग्या तेवामां ते स्थळे कोटवाळ आवी चढ्यो. तेणे तेओने पकडीने राजा समक्ष रजू काँ. राजाए पूछतां तेओए महेन्द्रकुमार संबंधी सर्व हकीकत जणावी. राजाए महेन्द्रकुमारने देशवटो आप्यो. बाद नाना राजपुत्रने राज्य आपी दीक्षा लई मोक्षे गयो. मदनने वैद्ये औषधद्वारा साजो कयों. महेन्द्र चंद्रवदनाने लई परदेश चाल्यो गयो. मदन पण स्त्री-चरित्र जोई वैराग्यवासित थई, चारित्र पाळी देवलोकमां गयो. परदेश भमतां महेन्द्र तथा चंद्रवदनाने चोरोए लूंटी लीधा अने बर्बरकूळमां वेची दीधा. त्यांना लोकोए तेनुं रुधिर काढ्युं एटले तेनी महावेदनाथी मरीने अनंत संसार भम्यो. ___ आ प्रमाणे एक एक इंद्रियना वशवतीपणाथी जीवो कष्ट पामे छे तो जेओ पांचे इन्द्रियोनो विषयो भोगवे छे तेनी पीडानुं तो पूछवू ज शुं? वाचकवर उमास्वातिरचित श्रीप्रशमरतिमां का छे के कलरिभितमधुरगांधर्व-तर्ययोषिद्विभषणरवाद्यैः । श्रोत्रावबद्धह्रदयो, हरिण इव नाशमुपयाति ॥१॥ श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २७६ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिविभ्रमेङ्गिताकार- हास्यलीलाकटाक्षविक्षिप्तः । रूपावेशितचक्षुः, शलभ इव विपद्यते विवशः ॥ २ ॥ स्नानाङ्गरागवर्तिक- वर्णकधूपाधिवासपटवासैः । गन्धभ्रमितमनस्को, मधुकर इव नाशमुपयाति ॥ ३ ॥ मृष्टान्नपानमांसौ-दनादिमधुररसविषयगृद्धात्मा । गलयन्त्रपाशबद्धो, मीन इव विनाशमुपयाति ॥४ ॥ शयनासनम्बाधन-सुरतस्नानानुलेपनासक्तः । स्पर्शव्याकुलितमति-र्गजेन्द्रे इव बध्यते मूढः ॥५ ॥ एवमनेके दोषाः, प्रनष्टशिष्टेष्टदृष्टिचेष्टानाम् । दुर्नियमितेन्द्रियाणाम् भवन्ति बाधाकरा बहुशः ॥ ६ ॥ एकैकविषयसङ्गा-द्रागद्वेषातुरा विनष्टास्ते । किं पुनरनियमितात्मा, जीवः पञ्चेन्द्रियवशार्त्तः ॥७ ॥ पादाहतः प्रमदया विकसत्यशोकः, शोकं जहाति बकुलो मुखसीधुसिक्तः । आलिङ्गितः कुरबक कुरुते विकाश-मालोकितः सतिलकस्तिलको विभाति ॥८ ॥ मनोहर स्वर, सुन्दर संगीत, वाजिंत्रनो नाद अने स्त्रीना नूपुरादि आभूषणोनी ध्वनि - आ प्रकारना सुन्दर स्वर तथा तालना मिश्रणथी श्रोत्रेद्रियमां आसक्त थयेलां प्राणी हरिण माफक मृत्यु पामे छे. (१) स्त्रीओना हावभाव, अंगविकार, हास्य, नेत्रकटाक्षादिथी चलित अने रूप-लावण्यमां मुग्ध थयेल प्राणी नेत्रेंद्रियना वशवर्तीपणाथी पतंगनी माफक विनाश पामे छे. (२) चंदनरस, अंबर, धूप, कस्तूरी, पटवास, अत्तर विगेरे सुगन्धी वस्तुओने विषे जे आसक्त थाय छे ते प्राणी भ्रमरनी माफक घ्राणेंद्रियना परवशपणाथी नाश पामे छे. (३) स्वादिष्ट भोजन, मद्य-मांस तथा मिष्ट रसपानमां लुब्ध थयेलो रसनेंद्रियना वशथी गळामां यंत्रपाशबद्ध माछलीनी माफक मृत्यु पामे छे. (४) सुकोमळ शय्या, बेसवाना सुन्दर बिछाना, सुन्दर सिंहासनादिक तेमज शरीर मसळाववुं. पीठी कराववी, स्नान करीने चंदनादिकनुं विलेपन कराववुं, अत्तर लगाडवुं विगेरे स्पर्शेन्द्रियना विलासमां पडेलो प्राणी * हाथीनी माफक कष्ट पामे छे. (५) आ प्रमाणे ऊपर दर्शावेला इंद्रियोना कष्टो, जेओ केवळी भगवंते दर्शावेला मार्गने स्वीकारता नथी तेओने अनेक प्रकारे दुःखदायक थाय छे. (६) एक-एक इन्द्रियना प्रसंगथी प्राणी राग-द्वेषने अंगे विनाश पामे छे, तो जेओ पांचे इंद्रियोमां लुब्ध बन्या छे तेओने माटे तो कहेतुं शुं ? अर्थात् एक इन्द्रियनी आसक्ति प्राणीने हणवामां समर्थ छे तो पांचेनो जे उपभोग * हाथी महाबळवान होवाथी तेने वश करवा माटे युक्ति करवी पडे छे. हाथी स्पर्शमां बहुज आसक्त होय छे तेथी .तेने पकडवामां कुशळ माणस सौ-प्रथम मोटो खाडो खोदे छे, तेना ऊपर तृण वगेरेनुं आच्छादन करी तेने ढांकी दे छे. पछी 'कागळनी चितरेली के कोतरेली हाथणी ते खाडा ऊपर गोठवे छे, जेने जोईने हस्ती दूर-दूरथी खेंचाई त्यां आवे छे. जेवो. हाथणीनो स्पर्श करवा जाय छे तेवो खाड़ामां पडे छे. केटलाक दिवसो सुधी तेमां तेने भूख्यो राखी, पछी वश बनावी आलानस्तंभे लई जाय छे. श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २७७ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे छे ते अवश्य विनाश पामे ज. (७) वस्त्रालंकारथी सुशोभित युवान स्त्री अशोक वृक्षने पाटु मारे त्यारे ते विकस्वर थाय छे, मोढामां मदिरानो कोगळो भरी स्त्री बकुल ऊपर छांटे त्यारे ते शोक रहित थाय अर्थात् विकस्वर बने, कुरब नामना वृक्षने ज्यारे स्त्री आलिंगन करे छे त्यारे ते प्रफुल्लित थाय छे अने तिलक वृक्षने स्त्री कटाक्ष युक्त निहाळे त्यारे विकास पामे छे. एकेन्द्रियमां पण इंद्रियनो रस प्रबळ होय छे. जेओ आवा प्रकारना इन्द्रियना रसने जीते छे ते ज गच्छ सुगच्छ जाणवो. हवे बीजी साधुस्वरूप अधिकारनो उपसंहार करतां कहे छे के तम्हा सम्मं निहालेडं, गच्छं सम्मग्गपट्ठियम् । वसिज्ज पक्खमासं वा, जावज्जीवं तु गोयमा ! ॥। १०५ ।। खुड्डो वा अहवा सेहो, जत्थ रक्खे उवस्सयम् । तरुणो वा जत्थ एगागी, का मेरा तत्थ भासिमो ॥१०६ ॥ [तस्मात् सम्यग् निभाल्य. गच्छं सन्मार्गप्रस्थितम् । वसेत् पक्षं मासं वा, यावज्जीवं तु गौतम ! ।। १०५ ॥ क्षुल्लो वाथवा शैक्षो, यत्र रक्षेत् उपाश्रयम् । तरुणो वा यत्र एकाकी, का मर्यादा तत्र भाषामहे ? ।। १०६ ।।] गाथार्थ- सन्मार्ग प्रतिष्ठित गच्छने कुशळ बुद्धिथी तपासीने तेवा गच्छमां पक्ष, मास अथवा जीवन पर्यन्त हे गौतम! वसवुं. जे गच्छनी अंदर बाळवयवाळो अथवा नवदीक्षित साधु अथवा तो युवान यति उपाश्रयनी सारसंभाळ करतो होय ते गच्छमां तीर्थंकर भगवंत तेमज गणधर महाराजानी आज्ञारूपी मर्यादा क्यांथी होय ? विवेचन - जेने दीक्षा लीधा छ महिना थया होय तेने शैक्ष अथवा नवदीक्षित जाणवो. बाळवयवाळा शिष्यने उपाश्रये एकलो मूकी जतां दोषोत्पत्ति थाय; जेमके - एकलो रहे तो रमत करवा लागे, अन्य रमतां छोकराने जोई तेनी साथे रमवा जाय तो धूर्त पुरुषो तेनी उपधि आदि लई जाय, कोईनी लालचमां लपटाई जाय, नाटक - प्रेक्षणक थतुं होय ते जोवा चाल्यो जाय, एकलो रहेवाथी तेना परिणाम फरी जाय तो उपधि विगेरे लईने चाल्यो पण जाय; माटे बाळ के नवदिक्षितने उपाश्रये एकलो मूकवो नहीं. युवान साधुने उपाश्रये एकाकी राखवाथी कया दोषो लागे ते जणावतां कहे छे के मोहनीय कर्मना उदयथी ते हस्तकर्म करवा प्रेराय, अंग मरोडे, लिंगलेपन करे, कोई स्वरूपवती स्त्रीने देखीने चोथा महाव्रतनो भंग करे, तेनी साथे हास्यादिक चेष्टा करे, विशेष मोहनीयना जोरथी गच्छनो त्याग करीने जतो रहे. इत्यादिक अनेक दोषोनो संभव जाणी कदी पण बाळ, नवदीक्षित के युवान साधुने उपाश्रये एकला राखवा नहीं. आ संबंधी विशेष वर्णन श्रीनिशीथचूर्णिमां आपेल छे. यतिस्वरूप नामनो आ बीजो अधिकार संपूर्ण थाय छे. आ बीजा अधिकारनो सारांश ए छे श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २७८ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के जे आचार्य विना फक्त गच्छर्नु नाम धारण करी विचरे छे, भ्रष्ट गच्छनी सामाचारी आचरे छे, एकलविहार करे छे, आचार्यनी आज्ञा उल्लंघे छे, शरीरनी टाप-टीप करे छे, गादी तकीया मूकीने बेसे छे, गृहस्थो पासे काम करावे छे, हाथ-पग-मुख विगेरेनुं प्रतिदिन प्रक्षालन करे छे, साबुथी वारंवार वस्त्रो धोवे छे, आवा प्रकारना वर्तनयुक्त साधुवाळा गच्छने ग्रन्थकार कहे छे के-अमे गच्छ कहेता ज नथी. आवा दुःशीलने जो साधु तरीके स्वीकारीए तो मिथ्यात्व लागे. ******* ******* श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २७९ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ॥ साध्वीस्वरूपनिरूपणे तृतीयोऽधिकारः॥ लघु, नवदीक्षिता अथवा युवती साध्वीने उपाश्रयमा एकाकी राखतां शुं दोषापत्ति थाय? ते दर्शावतां कहे छे के जत्थ य एगा खुड्डी, एगा तरुणा उ रक्खए वसहि। गोयम ! तत्थ विहारे, का सुद्धी बंभचेरस्स? ॥१०७ ।। [यत्र चैकाकिनी क्षुल्लिका, एकाकिनी तरुणी तु रक्षति वसतिम् । गौतम ! तत्र विहारे, का शुद्धि ब्रह्मचर्यस्य? ॥१०७॥] गाथार्थ-हे गौतम ! जे गच्छमां बाळ वयवाळी, नवदीक्षित युवान साध्वी एकली उपाश्रयमां रहेती होय त्यां ब्रह्मचर्यनी निर्मळता क्याथी जळवाय? विवेचन-ऊपर १०६ ठ्ठी गाथामां बाळ, नवदीक्षित के युवान साधु माटे जे जे दोषो दर्शाव्यां ते बधा बाळ, नवदीक्षित के युवान एकाकी साध्वीने पण घटी शके छे. विशेष ए के-लघु साध्वीने एकाकी देखीने कोई बळात्कारे तेनी साथे भोग भोगवे, तेनुं रूप-लावण्य देखी बलात्कारे अपहरण करी जाय. ब्रह्मचर्यनो भंग थतां युवती साध्वीने गर्भ रहे तो तेने औषधोपचारथी पडावे, जो न पडावे अने गर्भ वृद्धि पामे तो शासननी हीलना थाय. पूर्वे भोगवेली क्रीडा याद आवी जाय तो गच्छनो त्याग करवा पण मन ललचाय अने प्रांते वेश्या जेवी स्थिति भोगवी महादुःखी थाय, माटे साध्वी समुदाये उपाश्रयमां बाळ, नवदीक्षित के युवती साध्वीने एकली मूकवी नही. हजु पण साध्वी-मर्यादा संबंधी जणावतां कहे छे के जत्थ य उवस्सयाओ, बाहिं गच्छे दुहत्थमित्तिपि। एगा रत्तिं समणी, का मेरा तत्थ गच्छस्स? ॥१०८ ।। जत्थ य एगा समणी, एगा समणो य जंपए सोम!। निअबंधुणावि सद्धिं तं गच्छं गच्छगुणहीणं ॥१०९ ।। जत्थ जयारमयारं, समणी जंपइ गिहत्यपच्चक्खम्। पच्चक्खं संसारे, अज्जा पक्खिवइ अप्पाणं ॥११० ।। जत्थ य गिहत्यभासाहिं भासए अज्जिआ सुरुठ्ठावि। तं गच्छं गुणसायर!, समणगुणविवज्जिअं जाण ॥१११ ।। गणिगोअम ! जा उचिअं, सेअवत्थं विवज्जिउं । सेवए चित्तरूवाणि, न सा अज्जा विआहिया॥११२ ।। [यत्र चोपाश्रयात् बहि-र्गच्छेद द्विहस्तमात्रामपि । एकाकिनी रात्रौ श्रमणी, का मर्यादा तत्र गच्छस्य? ॥१०८ ॥ श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २८० Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्र च एकाकिनी श्रमणी, एकाकी साधुश्च जल्पते सौम्य ! | निजबन्धुनापि सार्धं, तं गच्छं गच्छगुणहीनम् ||१०९ ।। यत्र जकारमकांर, श्रमणी जल्पति गृहस्थप्रत्यक्षम् । प्रत्यक्षं संसारे, आर्या प्रक्षिपति आत्मानम् ॥ ११० ॥ यत्र च गृहस्थभाषाभिः, भाषते आर्या सुरुष्टाऽपि । तं गच्छं गुणसागर !, श्रमणगुणविवर्जितं जानीहि ॥ १११ ॥ गणिन् गौतम ! या उचितं, श्वेतवस्त्रं विवर्ज्य | सेवते चित्ररूपाणि, न सा आर्या व्याहृता ॥ ११२ ॥] गाथार्थ-जे गच्छनी अंदर रात्रिये एकली साध्वी बे हाथप्रमाण भूमि उपाश्रयनी बहार जाय ते गच्छनी मर्यादा केवी होय ? अर्थात् न ज होय. हे सौम्य गौतम ! जे गच्छनी अंदर एकाकी साध्वी पोताना बंधु मुनि साथे चाले अथवा तो एकलो साधु पोतानी भगिनी साध्वी साथे वातचीत करे ते गच्छने तारे गुणहीन समजवो. जे गच्छनी अंदर साध्वी गृहस्थ सांभळतां जकार, मकार विगेरे (शासननी होलना थाय तेवां) अवाच्य शब्दो बोले ते वेषविडंबक साध्वी पोताना आत्माने चतुर्गतिरूप संसारमा भमाडे छे. वळी जे गच्छमां अतिशय क्रोधाग्निथी प्रज्वलित थयेली साध्वी गृहस्थना जेवी सावद्य भाषा बोले छे-क्लेश करे छे ते गच्छने हे गौतम! तारे साधुगुणथी रहित जाणवो. हे गौतम! जे साध्वी योग्य श्वेत- मानोपेत वस्त्र तजीने विविधरंगी, भरत विगेरेथी विभूषित वस्त्र वापरे छे ते साध्वी नहीं पण शासननी हीलना करावनारी वेषविडंबिनी जाणवी. विवेचन - साध्वीने रात्रिए उपाश्रयथी बहार निकळवानो निषेध कर्यो छे तेनुं कारण ए छे के-परस्त्रीरमण करनारा लोको साध्वीने एकली देखीने हरी जाय, राजा एकलो नगरचर्चा जोवा निकळ्यो होय अने साध्वीने उपाश्रय बहार एकली जुए तो तेने कुशंका थाय. वळी चौरादिक निकल्या होय तेओ पण तेना वस्त्रादिक खेची जाय, पूर्वना भोग याद आव्या होय तो गुरुणी के वडील साध्वीने पूछ्या विना एकांतमां चाली जाय, परिणामे शासननी अपभ्राजना थाय माटे हे गौतम ! रात्रे एकली साध्वी उपाश्रयनी बहार निकळे ते गच्छने हुं मर्यादावाळो कहेतो नथी. सगा भाई बहेन पण जो दीक्षित थया होय तो भाई पोतानी बहेन साथे के बहेन पोताना भाई साथे एकांतमां बातचीत करे तो तेने पण भ्रष्ट समजवा; कारण के परस्पर वार्तालापथी दोषोत्पत्ति थाय छे. कंदर्प महादुष्ट छे, ते प्राणीनां छिद्रो जोया करे छे अने लाग मळतां पोतानुं शस्त्र नवळा मनना प्राणी ऊपर अजमावे छे. परस्पर वार्तालापथी क्यां दोषो थाय ते संबंधे कह्यं छे के संदंसणेण पीई, पीईउ रई रईओ वीसंभो । वीसंभाओ पणओ, पंचविहं वड्ढए पिम्मं ॥ १ ॥ जह जह करेसि नेह, तह तह नेहो भिवड्ढइ तुमंमि । तेनडिओ बिलियं, जं पुच्छसि दुब्बलतरोसि ॥ २ ॥ श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २८१ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्ति मम इय संदसणसंभासणेण, संदीविओ मयणवण्ही। बंभाई गुणरयणे, डहइ अणिच्छ वि पमायाओ॥३॥ मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्राम:, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ।।४।। सारी रीते जोवाथी प्रीति थाय छे, प्रीति थवाथी रति उपजे छे, रति (अभिलाषा) थवाथी विसंभ थाय-एटले भोगनो विश्वास थाय, विश्वासथी मन स्नेहमां परिणमे अर्थात् मळवानी इच्छा थाय-आ पांच प्रकारे प्रेमबन्ध थाय छे.(१) जेम जेम स्नेह करवामां आवे छे तेम तेम ते वृद्धि पामे छे. बळवानने पण आ स्नेहे (प्रेमे) पतित कर्यां छे तो पछी दुर्बळ एवा तारी तो वात ज क्यां रही? (२) मित्राई कोने कहीए? 'आ मारो छे' एवी ममता उपजे तेने मित्राई कहेवाय. पछी तेने जुए, बोलावे, स्नेह-संलाप करे त्यारे कामदेवरूपी अग्नि जागृत थवाथी प्रमादथी अनिच्छाए (तेने न इच्छे तो पण) ब्रह्मचर्यरूपी गुणरत्न बळी जाय-विनाश पामे. (३) पोतानी माता, बहेन के दीकरी पासे एकला न बेसवं, कारण के इंद्रियोना विषयो महाबलिष्ठ छे. तेना चक्करमां शाणा अने पंडितजनो पण मूंझाई जाय छे. (४) साध्वीएं आवेशमा आवी जई गृहस्थ समक्ष गाली-वचन बोलवां न जोईए, कारण के तेनो आचार तो समता भावनो छे. गाली प्रमुख वचन क्रोध कषायना हेतुभूत छे. गृहस्थनी भाषा पण साध्वीथी न बोलाय. 'तारुं घर बळो, तारी आंखो फूटी जाय, तारो पग कपाई जाय, तुं हुंठो था, तुं बहेरो था' इत्यादिक श्रापनां वचनो पण साध्वी न बोली शके; कारण के ते तेने उचित नथी, केमके ते बधां आक्रोश वचनो कषायो ज छे, कोई पण प्रसंगे साध्वीए पोताना मगजनुं समतोलपणुं न गुमावदूं जोईए. गृहस्थनो दोष होय, ते इरादापूर्वक साध्वीने उतारी पाडवा क्लेश करतो होय तो पण साध्वीए समभाव राखी स्वपर श्रेय ज इच्छवू, ए जिनाज्ञानो साचो मर्म छे.. साध्वीए श्वेत वस्रो पहेरवा जोईए, लाल के पीळा वस्त्र वापरवानो निषेध छे, छतां तेवां वस्त्रो वापरे तेने गच्छभ्रष्ट जाणवी. आवी विचित्र वेषधारिणी साध्वीने साध्वी तरीके मानवामां आवे तो पण मिथ्यात्व- दूषण लागे. आ वाबतमां शंका करतां कोई कहे के-आचरणाथी रंगेल वस्त्र पहेरे तो शो वांधो? तेनो जवाब ए छे के-आचरणा जो सावध होय तो तेनुं फळ संसार-भ्रमण छे. आचरणा एवी होवी जाईए के जेनो जिनागममा निषेध न होय. जो साध्वी मनगमता चित्रविचित्र रंगेला वस्त्रो पहेरे तो ते गृहस्थिणी माफक देखाय, लोकोमा निंदा थाय माटे रंगेला वस्त्रोनो तथा उपलक्षणथी पात्रा, दांडा प्रमुख उपकरणोनो त्याग ज करवो. हजु पण साध्वीना आचार संबंधी कहे छे के सीवणं तुन्नणं भरणं, गिहत्थाणं तु जा करे। तिल्लउव्वट्टणं वा वि, अप्पणो अपरस्स य ॥११३ ।। [सीवनं तुन्ननं भरणं, गृहस्थानां तु या करोति। तैलोद्वर्तनं वापि, आत्मनोऽपरस्य च ॥११३ ॥] श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २८२ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ-जे साध्वी गृहस्थ विगेरेनुं सीववं, तुणतुं के भरवू विगेरे क्रिया करे अथवा पोताने के बीजाने तेल आदिथी उद्वर्तन करे तेने साध्वी न जाणवी. विवेचन-साध्वीए गृहस्थना के अन्यतीर्थीना वस्त्र, कांबल, रेशमी वस्त्रादिक सीवी आपवा नहीं, तेमां भरतादिक चित्रामण पण करवू नहीं. शरीरे तेल चोळावे, दूधनी तरवडे पीठी चोळावे, साबुलगाडी स्नान करे, आंखे काजळ आंजे तेमज गृहस्थादिकना छोकराने आभूषणो पहेरावे, तेना हाथ पग, मुख विगेरे धोवे, तेना गाले के कपाळे तिलक करे, तेना अंगे पीठी चोळे, इत्यादि कार्यो जे साध्वी करती होय तेने साध्वी न जाणवी पण वेषविडंबिका तेमज पासत्थी जाणवी. तेनुं मुख पण जोवू सारुं नहीं आ संबंधमां निरियावलि उपांग सूत्रमा सुभद्रानुं अने श्रीज्ञाताधर्मकथा सूत्रमा कालीनुं उदाहरण आप्युं छे. सुभद्रानी कथा - राजगृही नगरीमां श्रेणिक राज्य करतो हतो. तेने चेलणा नामनी अति सुकुमार राणी हती. नगरीनी बहार गुणशैल नामर्नु चैत्य हतुं. परमात्मा श्री महावीर विहार करता करतां ते चैत्यमां समवसर्या. श्रेणिक राजा तथा पौरजनो वांदवा आव्या. पर्षदा समक्ष परमात्माए अमृतधारावर्षिणी देशना आपी. पर्षदाना लोको पोतपोताना स्थाने गया तेवामां 'बहुपुत्रिका' नामनी देवी पोताना परिवार सहित भगवंतने वांदवा आवी. सौधर्म देवलोकमां बहुपुत्रिका' नामनुं विमान छे. तेमां सुधर्मा नामनी सभा छे. तेमां बहुपुत्रिका नामनु सिंहासन छे ते ऊपर वसनारी आ बहुपुत्रिका नामनी देवी जाणवी. चार हजार सामानिक देव, चार सपरिवार महत्तरिका, त्रण पर्षदा, सात सेनापति, सोळ हजार आत्मरक्षक देवो एटलो तेनो परिवार छे. आटला परिवार उपरांत ते विमानवासी बीजा देव-देवीओनी साथे ते देवी वीणा, कंसताल, घनवाद्य, मृदंग, ढोल विगेरे प्रकारना वाजिंत्र नादपूर्वक दिव्य देवताई भोगो भोगवती हती. एकदा अवधिज्ञानद्वारा जंबूद्वीपने जोतां जोतां तेणे भगवान महावीरने राजगृही नगरीमां समवसरेला जाण्या एटले पोताना सिंहासनथी उठी, सात-आठ पगलां आगळ जई, जेम सूर्याभदेवे शक्रस्तवपूर्वक वन्दना करी हती तेम परमात्माने नमस्कार को. वांदीने पोताना सिंहासन ऊपर पूर्वाभिमुख बेसीने, पोताना आभियोगिक देवने बोलावीने, जेम सूर्याभदेवे सुघोषा घंटा वगडावीने घोषणा करावी हती तेम बहुपुत्रिका देवीए पण उद्घोषणा करावी के-श्रमण भगवान महावीरने वन्दन करवा जर्बु छे माटे सर्वे देव देवीओ सज्ज थईने आवो. बाद देवीए सूर्याभदेवना विमाननी माफक एक हजार योजन विशाळ एक विमान विकुथु, तेमां सर्व देव-देवीयोनी साथे उत्तर दिशामांथी असंख्याता द्वीप समुद्रनुं उल्लघंन करीने, सूर्याभनी माफक भगवन् पासे आवी, विधिपूर्वक प्रदक्षिणा आपीने वांदीने बेठी एटले भगवंते धर्मकथा कही. ते सांभळीने हर्षित बनेली देवीए देशनाने प्रांते ऊभा थई, पोतानो जमणो हाथ लांबो करी. तेमांथी १०८ देवकुमार विकुळ अने डावो हाथ लांवो करी १०८ देवकुमारीओ विकुर्वी. त्यारबाद बे लघु बाळकबालिका विकुळ. पछी भगवंतनी समक्ष सूर्याभदेवनी माफक दिव्य नाटक कर्यु. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २८३ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ प्रमाणे दिव्यसंगीत, नृत्य तथा नाटक दर्शावी, पोतानी ऋद्धि संकेली बहुपुत्रिका देवी जेवी आवी हती तेवी चाली गई तेना जवा बाद श्रीगौतमस्वामीए परमात्माने प्रश्न कर्यो के हे भगवंत ! देवीए आटली बघी विकुर्वेली ऋद्विक्यां गई ? परमात्माए जवाब आप्यो के - एक मोटी धर्मशाळामांथी बहार निकळता हजारो माणसो जोई शकाय, पण ते पाछा धर्मशाळामां दाखल थतां ए धर्मशाळा ज जणाय तेम ते देवीए पोताना शरीरमांथी विकुर्वेला घणा कुमार- कुमारिकाओ जणाया ते सर्व पाछा तेना वैक्रिय शरीरमां समाई गया. आटला समाधान पछी श्रीगौतमस्वामीए बीजो प्रश्न कर्यो के-हे भगवंत ! आ बहुपुत्रिका देवीने आटली बघी ऋद्धि शाथी प्राप्त थई ? पूर्वभवमां ते कोण हती अने तेणे केटलुं पुन्य कर्तुं हतुं ? भगवंते बहुपुत्रिका देवीनो पूर्वभव वर्णवतां कह्यं के वाणारसी नगरीमा अंबसाल नामनुं चैत्य हतुं. ते नगरीमां भद्र नामनो सार्थवाह हतो. तेने सुभद्रा नामनी पत्नी हती. भद्र श्रेष्ठी बहु ऋद्धिवाळो, प्रसिद्ध अने दरेक वातमां निपुण हतो. सुभद्रा पण स्वरूपवान, सुकुमाळ ने सारा स्वभावनी हती, परन्तु तेने एक पण संतान थयुं नहोतुं तेना हृदयमां हमेशां वांझीयापणानो संताप रह्या करतो. एकदा रात्रिए पाछला पहोरे जागी उठतां सुभद्रा कुटुंबचिंता करवा लागी. तेना मनमां विचार आव्यो के-हुं भद्र सार्थवाह साथे मनगमता भोगविलास भोगवुं छु छतां अत्यार सुधी मने संसारसुख सांपड्युं नहीं. खरेखर मने धिक्कार छे ! हुं हीन पुण्यशाळी छं. धन्य छे ते स्त्रीओने जे पोताना खोळामां दीकराने बेसाडीने रमाडे छे, तेनुं लालनपालन करे छे, पोतानी छातीए चांपी स्तनपान करावे छे, तेने स्नानादिक करावे छे, तेने मस्तके चुंबन करे छे, काखमा बेसाडीने रमाडे छे, बालकना काला काला वचन सांभळी हर्षित थाय छे, तेने प्रिय वचनथी बोलावी राजी थाय छे. आ प्रमाणे संतान संबंधी दुःखनी चिंता करती झूरती हती. एवामां पांच समिति अने त्रण गुप्तिनुं पालन करनारी, ब्रह्मचारिणी, आगमनी जाण सुव्रता साध्वी सपरिवार ग्रामनुग्राम विहार करतां करतां वाणारसी नगरीमा आवी पहोंच्या. शुद्ध स्थानक तपासी त्यां वास कर्यो. एकदा तेना संघाडानी बे त्रण साध्वीओ गोचरी माटे परिभ्रमण करती शुभद्राना आवासमां गई. तेओने आवती जोई सुभद्रा पोताने धन्य समजती आसन ऊपरथी उठी, सात-आठ पगंला सामा जई, वंदन करीने चारे प्रकारनो आहार भावपूर्वक वहोराव्यो. पछी साध्वीओने नम्र वाणीमां विज्ञप्ति करवा लागी के-हे आर्याओ ! हुं भद्र साथवाह साथे उत्तम प्रकारना भोग भोगवुं छु छतां मने संतान प्राप्ति थई नथी, माटे जे स्त्रीओ पोताना उत्संगमां पुत्रादिकने रमा छे ते खरेखर धन्य अने हुं हीणभागी छं. हे पूज्य ! तमे विलक्षण छो, शास्त्रकुशळ छो, घणा ग्राम-नगरादिकमां तमे विचरण कर्तुं छे, राजा कोटवाळ, प्रधान श्रेष्ठीओ विगेरे अनेक व्यक्तिना संसर्गमा आव्या छो, मोटा-मोटा सार्थवाहना घरे तमे गयेला छो तो हुं तमने विज्ञप्ति करुं छे के-एवी कोई विद्या, मंत्र तमारी जाणमां होय तो ते मने जणावो अगर तो कई औषध होय तो ते आपो के जेथी मारी मनोवांछा पूर्ण थाय. एवो कोई पण उपाय होय ते बतावो के जेथी मारे एक पुत्र अने पुत्री श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २८४ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थाय. सुभद्रानं आवं कथन सांभळी साध्वीओए का के-हे देवा- प्रिया ! अमे निग्रंथीणीओ छीए. पांच समिति, त्रण गुप्ति ए अष्टप्रवचन मातारूप अमारो धर्म छे. तुं जे कहे छे ते अमारे सांभळवू पण कल्पे नहीं तो तेनो उपाय बताववानी बात तो क्यां रही? आवी वातनी अनुमोदना के उपदेश पण अमाराथी न अपाय तो तने अमारे आ बाबतमां शुं कहेवू? अमारी फरज तो केवळी भगवंत प्ररूपित धर्मनो उपदेश करवानी छे. हे सुभद्रा ! जो तारी इच्छा होय तो अमे धर्म संभळावीए. ते धर्मना आराधनथी सर्व प्रकारनां सुख मळे छे. सुभद्राना कहेवाथी साध्वीए जैनधर्मनुं स्वरूप सक्षिप्तमां समजाव्यु जे सांभळी ते अत्यंत प्रमुदित बनी. तेणे कां-हे पूज्य साध्वीओ ! तमारा प्रवचननी हुं श्रद्धा करुं छु, प्रतीति करुं छु, रुचि करुं छं. तमोए मने जे धर्म कह्यो ते मने 'तहत्त' छे. हुं श्रावकधर्म अंगीकार करुं छु. साध्वीओए पण तेने प्रेरणा आपतां कांजहा सुखं अर्थात् तमने सुख उपजे तेम करो. सुभद्राए पुन: वंदन करवा बाद साध्वीओ त्यांथी चाली गई. सुभद्रा श्राविका धर्मनुं रुडी रीते पालन करे छे. बाद ते जीवाजी वादिक नव तत्वनी जाण थई. धर्म प्रत्ये तेमनी रुचि घणी ज वधी गई. पूर्वनी तेनी दिनचर्यामां पण महत्वनो तफावत थई गयो. महामहेनते मळेलुं चिंतामणि रत्लने साचववा जे काळजी राखवी पडे तेवी काळजीथी सुभद्रा श्राविका धर्मनुं पालन करवा लागी. साधु-साध्वीने आहारादिक वहोराववानी अने तेमनी वैयावच्च करवानी एक पण तक सुभद्रा जती करती नहीं. एकदा सुभद्रा पाठली रात्रिए जागी उठतां विचार करवा लागी के-मार्थवाह साथे भोग भोगवतां घणा वर्ष व्यतीत कर्यां छतां मने संतान-सुख प्राप्त न थयुं तो हवे हुँ मारुं आत्मकल्याण साधुं प्रभाते उठी, सार्थवाहनी रजा लई सुव्रता साध्वी पासे दीक्षा ग्रहण करु. हवे आ पापमय संसारमा कोण पडयुं रहे? आवो विचार करी, प्रात:काळे सार्थवाह पासे आवी, हाथ जोडी विनति करी के-हे सार्थवाह ! तमारी साथे यथेच्छ भोगो भोगवतां घणो समय पसार थयो छतां मने संतानसुख प्राप्त न थयुं. हवे तमारी आज्ञा होय तो हुं सुव्रता साध्वी पासे दीक्षा लेवा इच्छु छु. भद्र श्रेष्ठीए सभद्राने का के-हे देवानप्रिया ! हमणां तो श्राविका धर्म पाळी. मारी साथे जे रीते भोग भोगवो छो ते रीते भोग-विलासो माणो. पछी काळांतरे भुक्तभोगी थई प्रवज्या लेजो. चारित्र्य पाळवू घण दुष्कर छे. सुभद्रो श्रेष्ठीनुं वचन अणसांभळ्युं करी फरी वार पोतानी इच्छा दर्शावी एटले सार्थवाहे तेने अनेक प्रकारे समजावी छतां सुभद्राए पोतानो दृढ निश्चय जणाव्यो त्यारे श्रेष्ठीए तेने चारित्र-स्वीकारवानी संमति आपी. . __ यथावसरे पोताना स्वजन-संबंधी वर्गने भोजनार्थे निमंत्रण आपी भद्र सार्थवाहे सौने जमाड्या अने तेओनो सत्कार को. बाद सुभद्राने स्नान करावी, विलेपन करी, आभूषणो पहेरावी, उत्तम वस्त्रो परिधान करावी. हजार पुरुषो उपाडे तेवी शिविकामां बेसारी, ज्ञातिजनो साथे गीतवाजिंत्रना नादपूर्वक भद्र सार्थवाह वाणारसी नगरीनी मध्यमां थईने सुव्रता साध्वीना उपाश्रय पासे आव्यो. सुभद्राने आगळ करीने भद्र श्रेष्ठी साध्वी पासे जई कहेवा लाग्यो-हे पूज्य ! आ मारी भार्या मने अत्यंत वल्लभ छे. तेने वात पित्तादिकनो व्याधि न थाय ते माटे में तेनी घणी काळजी राखी छे. तेने श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २८५ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे भागवती दीक्षा स्वीकारवानी जिज्ञासा थई छे तो तमे तेने दीक्षा आपो. श्रेष्ठीनुं कथन सांभळी सुव्रता साध्वीए कहां-जहा सुहं, मा पडिबंधं करेह । अर्थात् जेथी तमने सुख उपजे तेम करो. सारा कार्यमां विलंब न करो. साध्वीना वचनथी हर्ष पामेली सुभद्राए स्वहस्ते ज अलंकारोनो त्याग करीने पंचमुष्ठी लोच कर्यो अने साध्वी पासे आवी, त्रण प्रदक्षिणा आपी वांदीने चारित्र ग्रहण कर्यु. पांच समिति अने त्रण गुप्तिपूर्वक संयम धर्मनुं आराधन करवा लागी. सुव्रता साध्वी साथेना सहवासथी सुभद्रां ज्ञान पण वृद्धि पाम्युं. एकदा लोकोना नाना नाना छोकराओने जोईने सुभद्रानो अत्यार सुधी सुसुप्त रहेलो संतानमोह जागृत थयो. वासनानो सर्वथा नाश ज करवो जोइये, नहीं तो ते घडियाळनी कमान माफक प्रसंग आवता छटकी जाय छे. सुभद्राना संबंधमां पण एवं ज बन्युं तेणे चारित्र स्वीकार्यं हतुं. परन्तु संतानमोह निर्मूळ थयो न हतो. ते नाना छोकराओने तेल चोळती, पीठी मसळती, अचित पाणीथी स्नान करावती, तेओना केश ओळती, आंखमां काजळ आजती, हाथ-पग अळताथी रंगती, चंदनादिकनुं विलेपन करती, रमवाना घुघरा प्रमुख रमकडाथी रमाडती, खीर प्रमुख खावानी वस्तुओ चखाडती, इत्यादिक अनेक प्रकारोथी छोकराओ साथे चेष्टा करती. छोकराओ पण क्षीर, मोदक प्रमुखना प्रलोभनथी तेनी पासे वारंवार आवतां. दिनप्रतिदिन बाळको साथेनी चेष्टाथी तेनां चारित्र. पालनमा शिथिलता आववा लागी. हवे तो सुभद्रा साध्वी वाळकोने काखमां बेसाडवा लागी, खोळामां रमाडवा लागी, जुदी जुदी दिशाओमां बेसाडी तेमनी साथे क्रिडा करवा लागी . केटलाकने जांघ ऊपर, केटलाकने छाती ऊपर, केटलाकने खंभा ऊपर, केटलाकने मस्तक ऊपर बेसाडवा लागी. बाळकना हालरडा गाई तेमने रंजित करवा लागी. तेना आवा प्रकारना आचरणनो सुव्रता साध्वी निषेध कर्यो. निर्ग्रथीणीनो धर्म समजाव्यो. सुभद्राने कह्यं के-नगरजनोना छोकराओ रमाडवा ते अनाचार छे. तेनी आलोयणा ले अने निर्विकार मनथी चारित्रनुं पालन कर सुभद्राए सुव्रता साध्वीनुं कथन स्वीकार्य नहीं कारण के तेने तो बाळ-क्रिडानो रंग लाग्यो हतो. सुव्रता साध्वीनुं कथन सुभद्राए न मानतां पोतानी पूर्ववत् करणी चालु राखी त्यारे अन्य साध्वीओ तेनी निंदा ने निर्भर्त्सना करवा लागी त्यारे सुभद्राने मनमां विपरीत विचार आव्यो. खरेखर हठाग्रहीओ पोतानो वांक न जोतां सामानो दोष ज जुए छे. घूवड पोताना नेत्रोनो विचार न करतां सूर्यप्रकाशने दोषित गणे छे. कडवां छतां हितकर वाक्य वदनार प्रत्ये कदापि क्रोध न करवो, कारण के तेमां तेने कशो लाभ नथी. तेनो हेतु तो हितशिखामण आपवानो छे परन्तु आ प्राणीनो ज स्वभाव एव विचित्र छे के-पोताना इच्छित मार्गमां कंईपण अंतराय के विघ्न आवे तो लाभालाभनो विचार कर्या विना ते पोताना आग्रहने ज पकडी राखे छे; एटला माटे ज कह्यं छे के—अप्रियस्यापि पश्यस्य, वक्तरि च मित्रेऽप्यलम् । सुभद्रा साध्वीने पण पोताना बाळकोनी साथेनी रमतना निषेधथी विपरीत विचार आव्यो. ते विचारवा लागी के- ज्यारे हुं श्राविका हती त्यारे तो आ साध्वीओ मारुं बहुमान करती, मारो आदर-सत्कार करती, मने सारा सारा वचनथी बोलावती, वळी ते वखते हुं स्वतंत्र हती; हवे हुं साध्वी थई त्यारे तेओ मारी निंदा करे छे, मारी ईर्ष्या करे छे माटे हवे तो आवती काली श्रीगच्छाचार - पयन्ना— २८६ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ गच्छनो त्याग करी अन्यत्र चाली जाउं. बीजे दिवसे तो विचारने तेणे अमलमां पण मूक्यो. सुव्रता साध्वीना संगनो त्याग कर्यो. हवे तो ते निरंकुश बनी, कोई अटकाववावाळु न रह्यं. स्वच्छंद वर्तनथी ते घणा लोकोना छोकराओ ऊपर मूर्च्छित बनी. पूर्ववत् नवराववानी, पीठी चाळवानी, तेल मसळवानी, केश समारवानी विगेरे बधी क्रियाओ करवा लागी. आ प्रमाणे लांबा समय सुधी पासत्थिणी प्रमाणे वर्तन चलावी, उन्मार्गनी आलोयणा कर्या विना, अनाचारनुं मिथ्यादुष्कृत आप्या सिवाय पंदर दिवसना अणसणपूर्वक सौधर्म देवलोकमां बहुपुत्रिका विमानमां देवी तरीके उपजी. गौतमस्वामीए भगवंतने पूछ्युं के - हे भगवंत ! तेनुं नाम बहुपुत्रिका केम पड्युं ? भगवंते जवाब आप्यो के-शकेंद्रनी उत्सव सभा थाय त्यारे आ देवी आठ नव वर्षना कुमार कुमारीओ विकुर्वीने दिव्य नाटक बतावे छे ए कारणथी तेनुं बहुपुत्रिका एवं नाम छे. बाद गौतमस्वामीना प्रश्नना जवाबमां भगवंते कह्यं के-तेनुं आयु चार पल्योपमनुं छे, एटले गौतमस्वामीए पुनः प्रश्न कर्यो के हे स्वामी ! ते देवी अहीँथी च्यवीने क्या उपजशे ? तेना जवाबमां भगवंते तेना आगामी भव वर्णवतां कह्यं के जंबूद्वीपा भरत क्षेत्रमा विध्याचळ पर्वतनी तळेटीमां बेभेळ नामना संनिवेशमां ब्राह्मणकुळने । विषे आ देवी उपजशे. बारमां दिवसे तेना मातपिता तेनुं 'सोमा' नाम पाडशे. सोमा यौवनवय पात तेनुं सौंदर्य खीली निकळशे. सोमा विनयी, विवेकी ने बुद्धिशाळी थशे. सोळ वर्षनी वये तेना । मातापिता पोताना भाणेज राष्ट्रकूट साथे तेने परणावशे. राष्ट्रकूट पण तेनी रत्नकरंडियो अथवा तेलना कूंपाना माकक सारसंभाळ राखशे. तेने वात, पित्तादिक व्याधि न थाय तेनी पण राष्ट्रकूट पूर्ण काळजी राख. राष्ट्रकूट साथे भोगो भोगवतां सोमाने प्रतिवर्ष एक-एक जोडलुं जन्मशे. ए प्रमाणे सोळ वर्षमां तेने बत्रीश संतानो थशे. आ प्रमाणे तेने केटलाक छोकराओ, केटलाक कुमारो, केटलाक बाळको थशे तेमाथी केटलाकने सुवाडशे, केटलाकने खोळामां लेशे, केटलाकने स्तनपान करावशे, वळी कोईने चालतां शीखवाडशे, कोईने स्नान करावशे, वळी कोई दूध मागशे, कोई खावा मागशे, कोई रमवा रमकडां मागशे, कोई लाडु, क्षीर प्रमुख मांगो, कोई पाणी मागशे, वळी कोई सोमाने ताडन करशे, कोई रीसाई जशे, कोई रुदन करवा लागशे, कोई लात मारशे, कोई मारीने नाशी जशे, कोई राडो पाडशे कोई पछाडी खाशे, कोई वडीनीत करशे, कोई लघुशंका करशे. आ प्रमाणे विविध प्रकारनी क्रियाथी सोमा रात्रिदिवस काममां ज रहेशे. राष्ट्रकूट पासे भोगो भोगववा जवा माटे असमर्थ बनशे. वळी पुत्रादिकने कारणे सोमा अशुचिमय रहेवाथी तेनो देखाव. पण मलिन लागशे. राष्ट्रकूटने तेना पासे जवानुं मन नहीं था. एकदा रात्रिने विषे जागृत थतां ते विचारशे के हुं आटला बघा पुत्रपरिवारवाळी होवाथी मळ-मूत्रमां ज लिप्त रहुं छं. पति साथे मनगमतां भोगविलास पण भोगवी शकती नथी, माटे जेओने पुत्र-पुत्री नथी ते ज खरेखर धन्य छे. एवामां सुव्रता साध्वी विहार करतां करतां ते बिभेल सनिवेशमां श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २८७ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवी पहोंचशे. तेना संघाडानी बे-त्रण साध्वी गोचरी अर्थे भमतां भमतां सोमाने त्यां जशे. साध्वीओने आवती जोई सोमा आसन ऊपरथी ऊभी थशे. आदर सत्कारपूर्वक वंदन करी चारे प्रकारनो आहार वहोरावी कहेशे के-हे पूज्य आर्याओ ! मारे पति साथे भोग भोगवतां सोळ वर्षमा सोळ जोडला जन्म्यां छे. तेना मळ-मूत्रादिक साफ करतां अने अन्य सारसंभाळ करतां हवे हुं कंटाळी गई छु माटे मने धर्म संभळावो. साध्वीयो जिनेश्वरभाषित धर्म संभळावशे, जे सांभळी सोमाने श्रद्धा उपजशे. प्रात:काळे पति पासे दीक्षित थवा माटे आज्ञा मागशे, पण राष्ट्रकूट ना पाडी. भुक्तभोगी थया पछी दिक्षा लेवानी रजा आपशे एटले दीक्षा-ग्रहणनो विचार पडतो मूकी, सुव्रता साध्वी पासे उपाश्रये वस्त्रालंकार सजी जशे. त्यां श्राविका धर्म स्वीकारशे. सुव्रता साध्वी अन्यत्र विहार करी जशे. सोमा श्राविका धर्मनं रूडी रीते पालन करशे. थोडा समय वाद सुव्रता साध्वी फरीथी ते संनिवेशमां पधारशे त्यारे आज्ञा मेळवी सोमा दीक्षा लेशे. छठ्ठ, अठ्ठमनी तपस्या करशे. निरतिचार चारित्र पाळी, प्रांते एक मासर्नु अणशण करी, काळधर्म पामी शकेंद्रनो सामानिक देव थशे. त्यां बे सागरोपमनुं आयुष्य पाळी, च्यवी, महाविदेह क्षेत्रमा जन्मीने, सर्वविरति चारित्र स्वीकारीने मोक्षे जशे. "कालीनी कथा" राजगृही नगरीने विषे श्रेणिक राजा हतो. तेने चेलणा नामनी राणी हती. ते नगरीमां गुणशैल नामर्नु चैत्य हतुं. तेमां भगवान महावीर आवीने समवसर्या.पर्षदा वांदवा आवी. वादीने ते गया बाद काली नामनी देवीए सपरिवार आवी प्रभुनी समक्ष दिव्य नाटक कर्यु, काली देवीनी परिवार विगेरे हकीकत ऊपरनी सुभद्रानी कथामां दर्शावेल बहुपुत्रिका देवीनी माफक जाणवी. काली देवी चमरचंचा राजधानीमां कालवडंसग नामना भुवनने विषे काल नामना सिंहासनने शोभावती हती. भगवंतने समवसर्या जाणी, पोताना सिंहासन ऊपरथी उठी, सात-आठ पगला आगळ आवी, शक्रस्तवपूर्वक चैत्यवंदन कर्यु, पछी बहुपुत्रिकानी माफक विचारीने, आवीने भगवंत समक्ष नाटक कर्यं. नाटक करीने तेना जवा बाद श्रीगौतमस्वामीए तेनो पूर्वभव पूछ्यी एटले भगवंते जणाव्यु के आ जंबूद्वीपना भरतक्षेत्रमा आमळकंपा नामनी नगरी हती. ते नगरीमां अंबशालवण नामर्नु चैत्य हतुं. जितशत्रु राजा हतो. ते ज नगरीमां काळ नामनो गाथापति हतो. तेने काळश्री नामनी पत्नी द्वारा काली नामनी पुत्रीनी प्राप्ति थई. तेने परणाववानो योग न मळवाथी काली वृद्ध थई गई. वृद्ध थई जवाथी वर मळवानी आशा नाश पामी गई तेथी ते मनमां ने मनमां ज संताप अनुभववा लागी. स्वाभाविक रीते ज तेना स्तन नीचा नमी गया, अंगोपांग शिथिल थई गया, गाल ऊपर करचगलीओ पडी गई. लोको तेने “जूनी कुमारी” एवा नामथी ओळखवा लाग्या. एवामां त्रेवीशमा तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ अंबशालवनमां समवसर्या. तेमनी काया नव हाथप्रमाण ऊंची हती. सोळ हजार साधु तथा आडत्रीश हजार साध्वीओनो परिवार हतो. पुरुषादाणी एवा तेमने समवसरेला जाणी पौरजनो तथा राजा आडंबरपूर्वक वांदवा चाल्या. काली पण श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २८८ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातपितानी आज्ञा मेळवी, स्नान करी, शुद्ध वस्त्रालंकार पहेरी, घणी दासीओना परिवारयुक्त धर्मरथमां बेसीने आडंबरपूर्वक वंदनार्थ गई. परमात्माने त्रण प्रदक्षिणा आपी, वंदन करीने बेठी. एटले परमात्माए धर्मकथा कही. ते देशना सांभळी कालीने संसार ऊपर अनासक्ति थई. भगवंतने का के-मारी दीक्षा लेवानी भावना थई छे. हुं मारा मातापितानी आज्ञा लई आईं त्यां सुधी आप अहीं ज स्थिरता करजो. बाद ते ज धर्मरथमां बेसी काली स्व-आवासे आवी अने मात-पिताने पोतानी इच्छा जणावी एटले तेओए संमति आपी अने स्वजन-संबंधीओने भोजनार्थ निमंत्र्या. पछी कालीने सोना रूपाना कळशवडे स्नान करावीने, रत्नमय आभूषणो पहेरावीने, रेशमी वस्त्रो परिधान करावीने, हजार पुरुषो उपाडे तेवी शिबिकामां बेसारीने सर्व परिजन वर्ग सहित महोत्सवपूर्वक भगवंत समीपे आव्या अने पंचमुष्ठी लोच करीने परमात्मा पासे प्रवज्यां ग्रहण करी. काली पांच समिति अने त्रण गुप्तिपूर्वक साध्वीधर्मनुं पालन करवा लागी. पुष्पचूला आर्या पासे अगियार अंगनो अभ्यास को. छठ्ठ, अठुम आदि तपश्चर्याओ पण अनेकविध करी. आ प्रमाणे संयम धर्मनुं पालन करती पृथ्वी ऊपर विचरवा लागी. ___एकदा कर्मसंयोगे ते काली साध्वी शरीरनी शोभा करावा लागी, वारंवार हाथ-पग धोवा लागी. स्तननां आंतरा, काखनो अंतरप्रदेश, गुह्यप्रदेश वारंवार धोवा लागी. ज्या ज्या वेसे त्या त्या पाणी छांटीने वेसे. सूवे तो पण पाणी छांटीने, पछी ज शयन करे. आ प्रमाणे तेने करती जोईने पुष्पचूला साध्वीए तेने का के-आपणे तो श्रमणी कहेवाईए. आपणे निग्रंथीओने आम करवं न शोभे-न कल्पे, माटे तमे आलोचना करो. काली साध्वीए तेमनें कथन न स्वीकार्य अने पूर्ववत् पोतानी करणी चालु ज राखी एटले अन्य साध्वीओ तेमनी निर्भर्त्सनानिंदा करवा लागी. काली पोतानी भूल कबूल न करता विपरीत विचार करती के-साध्वी थई एटले आ लोको मारी निंदा. ईर्ष्या विगेरे करे छे. हुं गृहस्थिनी हती त्यारे तो स्वतंत्र हती. हवे तो हुं आ गच्छनो त्याग करी जउं. बीजे दिवसे ते गच्छनो त्याग करी चाली गई. हवे तो ते निरंकुश रीते हस्त-पाद, शरीरना अंगोपांग धोवा लागी. पंदर दिवस- अणशण करी, आलोचनाके प्रतिक्रमण कर्या वगर मृत्यु पामी एक पल्योपमना आउखे काली नामनी देवी थई. बाद गौतमस्वामीए तेना भविष्य संबंधी पृच्छा करतां भगवंते कह्यं के त्यांथी च्यवीने महाविदेहक्षेत्रमा उत्तम कुळमां जन्मशे अने त्यांथी चरित्रधर्मनुं सम्यग् रीते आराधन करी मोक्षे जशे. __ हे गौतम ! काली नामनी साध्वीनी माफक राई प्रमुख २०६ साध्वीओ भगवंत पार्श्वनाथने हती. ते पैकी ११८ भवनपतिमां गई, ६४ व्यंतरेंद्रो थई, ४ सूर्यनी ने ४ चंद्रनी अग्रमहिषी थई, ८ सौधर्मेंद्रनी अने ८ ईशानेंद्रनी अग्रमहिषी थई. आ बधी साध्वीओ त्यांथी च्यवी, महाविदेहमां उत्तम कुळमां जन्मी, चारित्र ग्रहण करी मोक्षे जशे. आ प्रमाणे सुभद्रा ने काली प्रमुख साध्वीनी माफक जे संतानमोह राखे छे अगर तो शरीर-शुद्धि श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २८९ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर आसक्ति धरावे छे ते पोतार्नु श्रेष्ठ संयम-फळ गुमावी बेसे छे अने कोटी मूल्यन रत्न एक कोडीमां वेची नाखवा जेवू आचरण करे छे; माटे साध्वी थया पछी पासत्थीणीने योग्य वर्तन कदापि पण न करवू हवे कई साध्वी गच्छ-शासनने शत्रुरूप छे ते दर्शावे छे गच्छइ सविलासगई, सयणीअं तूलिअं सविब्बोअं। उव्वट्टेइ सरीरं, सिणाणमाईणि जा कुणइ ॥११४ ।। गेहेसु गिहत्थाणं, गंतूण कहा कहेइ काहीआ। तरुणाइ अहिवडते, अणुजाणे साइ पडिणीआ॥११५ ॥ [गच्छति सविलासगति:, शयनीयं तूलिकां सविब्बोकम् । उद्वर्तयति शरीरं, स्नानादीनि या करोति ॥११४ ॥ गृहेषु गृहस्थानां, गत्वा कथा कथयति काथिका। तरुणादीन् अभिपततः, अनुजानाति सा प्रत्यनीका ॥११५ ।।] गाथार्थ-विलासयुक्त गतिथी वेश्यानी माफक भ्रमण करे, रु आदिथी भरेली तळाईमां ओशीकापूर्वक शयन करे. तेलादिकथी शरीरनुं उद्वर्तन (पीठी) करे, स्नानादिकथी शरीर-शोभा वधारे, गृहास्थोना घरे जई इच्छानुसार कथा करे, सामा आवता युवान पुरुषोने सत्कारे-वचनना आडंबरथी अभिनंदे-आवा वर्तनवाळी साध्वीने शासननी शत्रु जाणवी. विवेचन–अंगनो मरोड करवो, लहेंकापूर्वक नेत्रकटाक्ष करवो, वांकी नजर करी जोवू-ए बधा विलासनां लक्षण छे. केटलाक आचार्यों नेत्रना विकारने (कटाक्षने) विलास कहे छे. पीजेला रूना भरेला गादलानो तेमज ओशीकानो शयनसमये उपभोग करवो के बेसती वखते पण रूनी भरेली नानीनानी गादलीनो उपभोग करवो ते चारित्रपात्र साध्वी माटे उचित नथी. पीठी चोळी स्नान करवाथी शरीर ऊपरनो मळ दूर थाय छे देहकांति वधे छे परन्तु साध्वीने माटे ते बधा निषिद्ध छे. जो ते तेवू वर्तन करे तो तेने साध्वी नहि परन्तु शासननी शत्रु जाणवी. साध्वीए गृहस्थना घरे जईने के उपाश्रयमां पण रहीने संयमयोग सिवायनी बीजी कथा न करवी. स्वाध्यायादि करवाने स्थाने देशकथादि चार विकथा करे ते साध्वीधर्मने उचित नथी. वळी आहारादिने अर्थे, वस्त्र पात्रने निमित्ते, पोतानो यश फेलाववाने अर्थे के पोताना बहुमान-पूज्यभावने अर्थे जो धर्मोपदेश करे तो पण ते साध्वीधर्मने लायक नथी. आ बाबतमां वादी प्रश्न करतां पूछे छे के-भगवंते तो पांच प्रकारनी वाचना (सज्झाय) कही छे-धर्मकथा, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा ने परावर्तना, स्वाध्यायमा धर्मकथानो समावेश थाय छे अने तेनाथी भव्य जीव प्रतिबोध पामे छे, तीर्थनी वृद्धि थाय छे. धर्मकथाथी निर्जरा थाय छे तो तमे निषेध शा माटे फरमावो छो? आचार्य भगवंत तेनो जवाब आपतां कहे छे के-धर्मकथा ए स्वाध्याय- पांचमुं अंग छे ते बराबर छे, परन्तु दिवस ने रात आठे पहोर धर्मकथा न करवी. बधो समय धर्मकथामां व्यतीत करवाथी हानि थाय. पडिलेहणादिक चारित्रना योग छे माटे ते करवाना समये स्वाध्याय न करवो, सूत्र, अर्थनी पोरिसीने श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २९० Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समये स्वाध्याय न करवो केमके तेथी शिष्यादिकने भणाववानो अंतराय पडे, वळी आचार्य, उपाध्याय के ग्लान साधुनी वेयावच्चमां खामी आवे. आप्रमाणे धर्मकथानी खामी समजवा उपरांत धर्मकथा कहेवामां खूब काळजी राखवी जोईए. (१) क्षेत्र जोईने विचारवं के-आ क्षेत्रमा साधु-साध्वीनो निर्वाह थशे, लोको भद्रिक होवाथी धर्म समजशे, दाननी रुचि रहेशे, श्रद्धावाला बनशे, साधु-साध्वीने उपकारक थशे-आवो विचार करी योग्य क्षेत्र होय तो ज धर्मकथा करवी. (२) राजादिक महर्द्धिक पुरुष आवे तो धर्मोपदेश करवो.(३) उत्तम कुळनी कोई व्यक्ति आवे तो उपदेश आपवो कारण के तेनी साथोसाथ नगरजनो पण प्रतिबोध पामे. आ प्रमाणे पूर्वापरनो विचार कर्या वगर जे साधु या साध्वी धर्मकथा कर्या करे छे ते काथिक-कथा करनार जाणवो. श्रीनिशीथचूर्णीना तेरमा उद्देशाना प्रांतभागमां का छे के-“जे भिक्खू काहीअं वंदइ वंदंतं वा साइज्जति" जे साधु काथिकने वांदे छे, अन्य पासे वदावे छे अने वंदन करनारने सारो कहे छे ते प्रायश्चित्तने पात्र थाय युवान रूपवंत पुरुषने आवता जाणी कहे के– “तमे भले आव्या, वळी पण वारंवार आवजो, कई काम होय तो कहेजो.” आ प्रमाणे आदर-सत्कार वचनो उच्चारे ते साध्वी न जाणवी पण शासननी शत्रु जाणवी; कारण के ते भगवंतनी आज्ञा लोपनारी छे. आ विषयने वधु स्पष्ट करतां कहे छे के वुड्ढाणं तरुणाणं, रत्तिं अज्जा कहेइ जा धम्मं । सा गणिणी गुणसायर!, पडिणीआ होइ गच्छस्स ॥११६ ।। जत्थ य समणीणमसं-खडाइं गच्छम्मि नेव जायंति। तं गच्छं गच्छवरं, गिहत्थभासा उ नो जत्थ ॥११७ ॥ [वृद्धानां तरुणानां, रात्रौ आर्या कथयति वा धर्मम्। सा गणिनी गुणसागर!, प्रत्यनीका भवति गच्छस्य ॥११६ ।। यत्र च श्रमणीना-मसंखडानि गच्छे नैव जायन्ते। स गच्छो गच्छवरः, गृहस्थभाषास्तु न यत्र ॥११७॥] . गाथार्थ-हे इंद्रभूति गौतम ! रात्रिसमये जे मुख्य साध्वी वृद्ध के तरुण वयवाळाने धर्मकथा संभळावे छे तेने गच्छनी बैरिणी जाणवी. जे गच्छमां साध्वीओ परस्पर क्लेश-कंकास करती नथी तेमज गृहस्थना जेवी सावध के खुशामतभरी वाणी बोलती नथी ते गच्छ सर्व गच्छोमां श्रेष्ठमां श्रेष्ठ जाणवो. विवेचन-साध्वीने रात्रिने विषे युवान तेमज वृद्ध पुरुषोनी समक्ष, उपलक्षणथी स्त्री के पुरुषोनी संयुक्त सभा समक्ष के दिवसे पुरुषो समक्ष धर्मकथा करवानो निषेध छे. अहीं मूळमां 'गणिनी' एवो शब्द आप्यो छे तेनो अर्थ मुख्य साध्वी छे. तेनो परमार्थ ए छे के-गच्छमां वडील साध्वीने पण रात्रिने विषेधर्मकथा करवानो निषेध छे तो बीजी साध्वीओने माटे पूछवू ज शुं? श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २९१ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहीं वादी प्रश्न करतां पूछे छे के-पुरुयोनी सभामां साध्वी धर्मोपदेश करे तेमां शो दोष ? तेनो जवाब ए छ के-जेम साधने एकली स्त्रीओनी सभामां उपदेश करवाना निषेध छ तेम केवळ पुरुषोनी सभामां साध्वीने उपदेश आपवानो निषेध छे. श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमा का छे के-“नो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहमिति ? आयरियाह-निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कहं कहेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जेज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं भवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं कहं कहेज्ज” त्ति. एटले के-स्त्रीओनी कथा कहेतां साधुने ब्रह्मचर्यमां शंका थाय अर्थात् मन चलित थाय, ब्रह्मचर्य, फळ तो क्यारे मळशे? एम वितिगिच्छा थाय, हाल तो विषयसेवन करूं एवी कांक्षा थाय, चारित्रनो भंग थाय, उन्माद प्रगटे, दीर्घकालीन रोगोत्पत्ति थाय, केवलीप्ररूपित धर्मथी भ्रष्ट थवाय माटे साधुए केवल स्त्रीओनी समक्ष धर्मकथा न करवी. आवी जरीते साध्वीए केवळ पुरुषो समक्ष कथा न करवी, तेथी ब्रह्मचर्यना दश स्थानो पैकी बीजा स्थाननो भंग थाय छे. ___ वळी श्रीस्थानांग सूत्रमा पण का छे के- “नो इत्थीणं कहं कहेत्ता हवई" जेवी रीते साधुओ बीजी ब्रह्मचर्यगुप्ति पाळे छे तेम साध्वीए पण पाळवी जोईए तेथी जेम साधुने स्त्रीओने मध्ये कथा करवानुं वर्जन कर्यु तेम स्त्रीने पुरुषोने विषे धर्मकथन करवानुं निषिद्ध छे. जे साध्वी आ आज्ञानुं उल्लंघन करे छे तेने शामननी शत्रुभृत जाणवी. जे गच्छमां साध्वीओ परस्पर कलह-कंकास के ईर्ष्यादि न करती होय; निंदा-कुथली-गृहस्थकथनी न करती होय; ‘आ मारो मामो, आ मारो भाई, आ मारो पिता, आ मारी माता' इत्यादि गृहस्थोचित भाषा बोलती न होय तेमज गृहस्थ साथे 'आवो, अमुक वस्तु लावजो, आ काम करजो' ए प्रमाणे सावध भाषापूर्वक वातचीत न करती होय तेमज 'तमारा जेवा दानवीर कोण छ ? तमे ज शासनने शोभावनार छो, तमो धर्मात्मा छो' तेवी खुशामतभरी भाषा न बोलती होय ते गच्छ ज श्रेष्ठ गच्छ जाणवो. स्वेच्छाचारी साध्वीनां विशेष कुलक्षणो जणावतां कहे छे के जो जत्तो वा जाओ, नालोअइ दिवसपक्खिअं वावि। सच्छंदा समणीओ, मयहरिआए न ठायंति ॥११८ ॥ विंटलिआणि पउंजति, गिलाणसेहीण नेव तप्पंति। अणगाढ आगाढं, करंति आगाढि अणगाढं ॥११९ ।। अजयणाए पकुव्वंति, पाहुणगाण अवच्छला। चित्तलयाणि अ सेवंते, चित्ता रयहरणे तहा ।।१२० ।। गइविब्भमाइएहिं आगारविगार तह पगासंति । जह वुड्ढगाण मोहो, समुईरइ किं तु तरुणाणं? ।।१२१ ।। बहुसो उच्छोलिंती, मुहनयणे हत्थपाय कक्खाओ। गिण्हेइ रागमंडल, सोइंदिअ तहय कव्वतु ।।१२२ ।। श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २९२ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ यो यावान् वा जात:, नालोचयन्ति दैवसिकं पाक्षिकं वापि । स्वेच्छाचारिण्यः श्रमण्यः, महत्तरिकाया न तिष्ठन्ति ।। ११८ ॥ विंटलिकानि प्रयुञ्जन्ते, ग्लानशैक्ष्यान् नैव तर्पयन्ति । अनागाढे आगाढं, कुर्वन्ति आगाढे अनागाढम् ॥। ११९ ।। अयतनया प्रकुर्वन्ति, प्राघूर्णिकानां अवत्सला । चित्रलानि च सेवन्ते, चित्राणि रजोहरणानि तथा ।। १२० ।। गतिविभ्रमादिभिः, आकारविकारं तथा प्रकाशयन्ति । यथा वृद्धानां मोह, समुदीर्यते किं पुनः तरुणानाम् ? ।।१२१ ।। बहुश उच्छोलयन्ति, मुखनयनानि हस्तपादकक्षाः । गृहणन्ति रागमंडलं, श्रवणेन्द्रियं तथैव कल्पकथाः ।। १२२ ।।] गाथार्थ - दैवसिक, राइ, पाक्षिक, चातुर्मासिक अथवा सांवत्सरिक जे अतिचार जेटलो थयो होय तेटलो न आलोचे, मुख्य साध्वीनी आज्ञामां न रहे, अष्टांग निमित्तादिक अथवा मंत्रतंत्रादिकनो प्रयोग करे, ग्लान के नवदीक्षितनी औषध, वस्त्र, पात्रादिकवडे सारसंभाळ न करे, खास न करवा जेवुं कार्य होय ते, अवश्य करवा लायक जेवुं लेखी करे अने खास करवा जे कार्य बेदरकारी राखी न करे, संयमकरणी वेठ उतारवानी माफक यतना रहित करे, ग्रामांतरथी आवेल थाकेला, भूख्या के तरस्या साध्वीओनी निर्दोष अन्न-पाणी वडे भक्ति- बहुमान न करे, विविधरंगी वस्त्रो वापरे तेमज विचित्र रचनावाळा रजोहरण वापरे, गति-विलासादिकवडे स्वाभाविक एवा हावभाव देखाडे के वृद्ध स्थविर साधुओने पण तत्काळ मोह (वेदोदय) जागे, वगर कारणे वारंवार मुख, नेत्र, हाथ, पग अने कक्षादिक धोवे अने वसंत के मल्हारादिक राग-रागिणीओ शीखी लई एवी रीते ललकारे के जेथी तरुण पुरुषोनी के बाळकोनी श्रवणेंद्रियने आकर्षित करे. हे गौतम ! आवी साध्वीओने अनार्या, नटडी तेमज स्वच्छंदाचारिणी जाणवी. विवेचन- गच्छमां वडेरी साध्वीने महत्तरिका कहेवामां आवे छे. जेम पुत्रे पितानी, शिष्ये गुरुनी, किंकरे शेठनी आज्ञामा रहेवुं जोईए तेम साध्वीए महत्तरिकानी आज्ञामां रहेतुं जोईए; कारण के आज्ञा ए अंकुश छे. अंकुश विनानो प्राणी क्यारे भूल करी बेसे ते न कल्पी शकाय तेवी बात छे. छद्मस्थ जीव मात्र भूलने पात्र छे, तो शास्त्रकारे बुद्धिमान मानवीओने पण आज्ञारूपी अंकुशमां रहेवा पात्र भलामण करी छे. तेथी साध्वी महत्तरिकानी आज्ञा उत्थापे अने दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक के छेवट सांवत्सरिक अतिचार न आलोचे ते साची आर्या नथी पण अनार्या ज छे. निमित्त के मंत्र - तत्रादिकनी बात करवी नहीं तेमज ते उपयोग पण न करवो, कारण के तेमां रक्त रहेवाथी रोगी या तो नवीन साध्वीनी औषधादिकथी सारसंभाळ लई शकाती नथी तेमज अध्ययन कराववा योग्य साध्वीने अभ्यास कराववामां खामी आवे छे. वळी निमित्त के मंत्र-तंत्रनुं कार्य एक वार शरु कर्या पछी तेनी मर्यादा सचवाती नथी. निमित्तकार्यमां प्रावीण्य प्राप्त थया पछी कीर्ति ने श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २९३ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशनी वांछा वधे छे अने चारित्ररक्षाना नियमो पाळववामां शिथिलता आवे छे. आटला खातर ज श्रीपुक्खरवरदी (श्रुतस्तव) मां कह्यं छे के सीमाधरस्स वंदे । अवश्य करवा योग्य क्रिया आगाढ कहेवाय छे. योगवहनादिं क्रियामां वधतुं ओछु आचरण करे ते साध्वी धर्मने लायक नथी. जेम माता पुत्र या पुत्रीनुं रूडी रीते पालन करे तेम पांच समिति अने त्रण गुप्तिरूपी अष्ट प्रवचन माता संयमधर्मनुं रक्षण करे छे. साध्वीए गमनागमनमां ईर्यासमिति अने बोलवामां भाषासमिति विगेरेनुं पूर्ण लक्ष राखवुं जोईए; तेने बदले वेठ * उतारवानी माफक अयतनापूर्वक - उपेक्षाभावथी करणी कराय ते कदापि फलदायक थती नथी. गृहस्थाश्रममां पण अतिथि आवे तो तेनी आगता-स्वागता करवानो रिवाज (फरज) छे तेम अन्य कोई साध्वी ग्रामांतरथी आवी होय तो तेनो सत्कार करवो, तेनो श्रम दूर करवानो प्रयास करवो अने शुद्ध अन्नपानादिकथी बहुमान कर, जो आ प्रमाणे न वर्ताय तो साध्वी पोताना संयमधर्मथी भ्रष्ट थाय छे. रंगेला वस्त्र के डांडो वापरे, किनारवाळो भरेलो ओघो राखे ते साध्वी स्वेच्छाचारी जाणवी. मुख मचकोडे, नेत्र वांका करे, स्तन ऊंचा बांधे, हाथणीनी पेठे गति करे, चालतां चालतां आडुं अवळु जोया करे-आ बधा विकारनां लक्षणो छे. आवी रीते वर्तन करती साध्वी वृद्ध वयवाळाने पण मोहित करे, कामज्वर प्रगटावे तो अन्य युवान वयवाळाने माटे तो पूछवुं ज शुं ? तेओने तो मोह प्रगटे ज. आवी रीते मोहोदय प्रगटाववाथी परिणाम विपरित आवे अने परिणामे शासननी निर्भछना थाय माटे आवी भ्रष्टाचारी साध्वीथी गच्छनुं रक्षण करवु. जे साध्वी निरंतर वगर कारणे हस्त पादादिनं प्रक्षालन कर्या करे, जुदी जुदी राग-रागणिओ शीख्या करे ते पोते स्वकृत्यथी चूके छे अने अन्यने मोह पमाडे छे. गीतादिक कार्ण मोहना छे अने एते एक वार तेनी शरुआत थई के पछी क्रम चूकाई जवाय छे अने जेम पर्वतना शिखर ऊपर थी पडेलो प्राणी नीचे तळेटीएज पहोंचे छे तेम साध्वी आ रीते पतित थई ते अध:पातने ज पामे छे. पछी तेने मोढा ऊपर शणगार करवानी, नेत्रमां अंजन करवानी, मस्तकमां सिंदुर पूरवानी, कपाळमां तिलक करवानी, गळामां पुष्पमाळा पहेरवानी, मुखमां तांदूल राखवानी, शरीरे चंदनादिकनुं विलेपन करवानी इच्छा थाय छे. १२२ मी गाथानो उत्तरार्ध पाठांतरमां आ प्रमाणे पण आयो छे-गेण्हणरामणमंडणभोयंति व त्ता उ कब्बडे । आ उत्तरार्धनो अर्थ ए छे के गृहस्थोना बालकने ग्रहण करे, तेने विविध क्रीडापूर्वक रमाडे अने तेने भोजन करावे ते साध्वी नथी पण नटडी जाणवी. गृहस्थोना बालकोने रमाडवाथी, तेनो अतिशय परिचय करवाथी केवुं विपरीत परिणाम आवे छे ते माटे अगाउ पृ. २८३ ऊपर बहुपुत्रिका (सुभद्रा) की कथा आवी गई छे. हवे केवी रीते साध्वी शयन करवुं ते जणावे छे. जत्थ य थेरी तरूणी, थेरी तरुणी अ अंतरे सुअइ । गोअम ! तं गच्छवरं, वरनाणचरित्तआहारं ॥ १२३ ॥ * राजा अगर तो अधिकारीओ पोताना कार्य माटे हलकी वर्णना लोकोने बोलावे छे अने तेनी पासे काम करावी कंई पण बदलो आपता नथी तेने 'वेठ' कहेवामां आवे छे. दबाणने अंगे ते लोकोने कार्य करवुं पडे छे पण तेमना मनमां काम करवानो उत्साह होतो नथी. श्रीगच्छाचार - पयन्ना- २९४ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [यत्र च स्थविरा तरुणी, स्थविरा तरुणी च अंतपिता: स्वपन्ति। गौतम ! तं गच्छवरं, वरज्ञानचारित्राधारम् ॥१२३ ॥] गाथार्थ-जे गच्छमां स्थविरा (वृद्ध) साध्वी पछी तरुणी अने तरुणी पछी स्थविरा एम अंतरे सूवे छे ते गच्छने हे गौतम ! उत्तम ज्ञान अने चारित्रना आधाररूप जाणवो. विवेचन-बे वृद्ध साध्वीनी वच्चे एक तरुण साध्वीने सूq उचित छे, कारण के जो युवान साध्वीओ पासे सूवे तो शयनावस्थामां एकबीजानो हस्त जांघ, स्तन के बीजा अवयवोने स्पर्शे ते पूर्वे करेल क्रीडा याद आवतां मन विकृत बनी जाय परन्तु जो वृद्ध साध्वी वच्चे सूता होय तो आवी स्थिती न बने माटे जे गच्छमां आवो क्रम जळवातो होय ते गच्छ ज्ञानदर्शनने माटे आधारस्थंभ समान छे. हवे कई साध्वीओ फक्त मुंडित छे पण साची साध्वीओ नथी ते त्रण गाथावडे जणावे छे धोयंति कंठिआओ, पोअंति तह य दिति पोत्ताणि।। गिहिकज्जचिंतगाओ, नहु अज्जा गोअमा! ताओ ॥१२४ ।। खरघोडाइट्ठाणे, वयंति ते वावि तत्थ वच्चंति । वेसत्थीसंसग्गी, उवस्सयाओ समीवंमि ॥१२५ ।। सज्झायमुक्कजोगा, धम्मकहाविहपेसणगिहीणं। गिहिनिस्सिज्जं बाहिति, संथवं तह करतीओ ॥१२६ ।। [धोवन्ति कण्ठिका, प्रोतयन्ति तथा च ददति वस्त्राणि । गृहिकार्यचिन्तिकाः, न हु आर्या गौतम ! ताः ।।१२४ ।। खरघोटकादिस्थाने, व्रजन्ति ते वापि तत्र व्रजन्ति। वेश्यास्त्रीसंसर्गिः, उपाश्रय: समीपे ॥१२५ ॥ स्वाध्यायमुक्तयोगाः, धर्मकथाविकथाप्रेषणगृहिणाम ।। गृहिनिषद्यां बाधन्ते, संस्तवं तथा कुर्वन्त्यः ॥१२६ ॥] . गाथार्थ-जे साध्वी वगरकारणे जळथी कंठप्रदेशने धोवे, गृहस्थोना मोती आदि परोवी आपे, बाळको माटे वस्त्र-औषधादि आपे-आ प्रमाणे गृहस्थोचित कार्य करवामां तत्पर रहे ते साध्वीने हे गौतम ! साध्वी न कहेवी. * जे साध्वी हाथी, घोडा, गधेडा आदिना स्थाने जाय अथवा तेओ साध्वीना उपाश्रय पासेथी निकळे त्यारे खुशी थाय, वेश्या स्त्रीनो संग करे अथवा तो जेना उपाश्रयनी नजीक वेश्यागृह होय तेने साध्वी न कहेवी. ___*१२५ मी गाथाना पूर्वार्धनो अर्थ बीजी रीते पण आपले छे, जे नीचे प्रमाणे- “ज्यां दास-दासी जेवा तेमज जुगारी जेवा धूर्तजनोनी पासे काळे-अकाळे साध्वीओ जाय अगर तो तेवा शठ लोको साध्वीना उपाश्रये आवे.” आ अर्थ उचित लागे छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २९५ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वळी स्वाध्याय योगथी रहित होय, धर्मकथाने स्थाने विकथा करे, गृहस्थोने विविध प्रकारनी प्रेरणा करे, गृहस्थना आसन ऊपर बेसे अने गृहस्थोनो परिचय करे तेने फक्त उदरंभरी साध्वी जाणवी. विवेचन जे साध्वी वगर प्रयोजने कंठप्रदेश धोवे, गृहस्थाना मोती परोवी आपे, परवाळानी माळा करी आपे, सोयमां दोरो परोवी आपे, तेना आभरणादिक स्वच्छ करी आपे, बाळकने माटे वस्त्रनुं दान करे, तेने दूध आपे, मांदा बाळकनी मावजत माटे पोतानी पासेथी औषधादि आपे, जडीबुट्टी वापरे, प्रस्वेदादिकने लुंछवा माटे जळथी आर्द्र (भीना) करेला वस्त्रो शरीर ऊपर वारंवार घस्या करे, “आ गृहस्थने घरे दीकरो आवे तो सारुं, अमुक गृहस्थ व्यापारमा सारं कमाय तो ठीक, अमुक गृहस्थ स्त्रीने परस्पर प्रेम वृद्धि पामे तो सारूं.” ए प्रमाणे गृहस्थोचित चिंताओ वारंवार कर्या करे तेवी साध्वीने हे गौतम ! तारे आर्या न समजवी पण गृहस्थनी चाकरडी मात्र जाणवी. गधेडा, बळद, घोडा, हाथी, बकरा विगेरे तिर्यंचो जडबुद्धिवाळा होय छे. तेओ पोताना स्थानमां गमे ते स्थितिमा रहेता होय छे तेथी साध्वीने तेवा स्थाने जवाय नहि; कारण के लिंगनी विकृतदशा जोतां कामोद्दीपन थाय माटे शास्त्रकारोए तेवा तुच्छ स्थानमां जवानो निषेध फरमाव्यो छे. खरनो अर्थ दासदासी अने घोडनोअर्थ लुच्चा माणस एवो पण थाय छे. तेनो परमार्थ ए छे के-दास दासी जेवा लुच्चा ने जुगारी, भाट, भवाया जेवा धूर्तजनो ज्यां वसता होय तेवा स्थळे साध्वीए जq नहीं तेमज तेवा लोकोने साध्वोए स्वसमीपे एटले के उपाश्रये आववा देवा नहीं; कारण के तेवा लोको छिद्रान्वेषी होय छे. प्रसंग मळे तो मन चळाववा पण समर्थ थाय छे तेथी तेवा खळजनोनो संसर्ग इच्छवो ज नहीं. श्रीव्यवहारभाष्यना सातमा उद्देशामां का छे के–“तह चेव हत्थिसाला-घोडगसालाण चेव आसन्ने । जंति तह जंतसाला, काहीयत्तं च कुव्वंति ॥१॥"जे साध्वी हस्तिशाळा, अश्वशाळा के शस्त्रागार पासे थईने जाय तेमज कथिकपणुं करे ते साध्वी नथी. वेश्या के पण्यांगनानो कदापि साध्वीए संसर्ग न करवो. तेनी पासे तो विलास अने मोजशोखनी ज कथा होय छे. वळी उपाश्रयनी नजीक वेश्या स्त्रीनो वास होय तो तेवा स्थाननो त्याग करवो कारण के वेश्या स्त्रीने त्यां जनारा अनेक छेलबटाउ, विलासी लोकोनी आवजाव विशेष थाय छे अने तेओर्नु आवागमन उपाश्रयनी पासे थईने थाय एटले पण ब्रह्मचर्यनी गुप्तिमां खामी आवे. वळी वेश्या स्त्रीने त्यां संगीत के नृत्यादिक थाय त्यारे चंचळ चित्तने अंगे स्वाध्यायमां, पडिलेहणादि आवश्यक क्रियामां तेमज यथार्थ चारित्र पालनमा स्खलना थाय माटे तेवा स्थाननो तो अवश्य त्याग ज करवो. वेश्यानी साथोसाथ तेनी दासीनो, जोगणी प्रमुख वेषधारिणीनो पण परिचय न राखवो. हे गौतम ! जे साध्वीओ ऊपर कह्या तेवा प्रकारनो आश्रय लेती होय तो ते साध्वी ज नथी पण केवळ भ्रष्टाचारिणी समजवी. स्वाध्वाय एटले भणq भणाववं, ते कार्यथी वेगळी रहे अर्थात् प्रथम पद “सज्झायमुक्कजोगा" ने स्थाने पाठांतरमा “छक्कायमुक्कजोगा" एवो पाठ.छे तेनो अर्थ ए छे श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २९६ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के-षड्जीवनिकायनी यतनामां बेदरकार रहे. धर्मकथाने स्थाने परस्पर के विधवादिक स्त्रीयोनी साथे राजकथा, भक्तकथादिक चार प्रकारनी विकथा करे, गृहस्थना कार्यसंबंधी चिंता राखे, गृहस्थ आवे तो तेने बेसवा आसन आपे, पोते गृहस्थने घरे जाय त्यारे चाकळा, गादी प्रमुख ऊपर बेसे, गृहस्थना घरमा आंटो फेरो मारे, गृहस्थनी रूबरूमां के पाछळ खुशामत करे, तेना स्वजनोनी प्रशंसा करे, गृहस्थनी साथे रातदिवस वातो ज कर्या करे. 'हे बाई तमे आ कार्य करो, तमारे आम करवू जोइए' ए प्रमाणे गृहस्थोचित कार्यमा आसिक्त वधारे तेवी साध्वीने हे गौतम ! तारे उदरंभरी-फक्त पेट भरनारी ज जाणवी. कई साध्वी गणिनी पदने योग्य छे ते बे गाथावडे दर्शावे छे समा सीसपडिच्छीणं, चोअणासु अणालसा। गणिणी गुणसंपन्ना, पसत्थपुरिसाणुगा ।।१२७ ॥ संविग्गा भीयपरिसा य, उग्गदंणा य कारणे। सज्झायज्झाणजुत्ता य, संगहे अविसारया ॥१२८ ॥ [समा शिष्यप्रतीच्छिकानां, चोदनासु अनलसा। गणिनी गुणसम्पन्ना, प्रशस्तपुरुषानुगता॥१२७ ॥ संविग्ना भीतपर्षद् च, उपदंडा च कारणे। स्वाध्वायध्यानयुक्ता, सङ्ग्रहे च विशारदा ॥१२८ ॥] गाथार्थ-पोतानी शिष्याओने तथा प्रतीच्छिकाओने समान गणनार, चोयणा, पडिचोयणादिकमां आळस रहित, प्रशस्त पुरुषोने अनुसरनारी अने ज्ञान-दर्शन-चारित्रगुणसंपन्न साध्वीने महत्तरिका-गणिनीपद योग्य जाणवी. वैराग्य रंगमां लीन चित्तवाळी, भवभीरु परिवारवाळी, अपराध आव्ये सख्त शिक्षा करनारी, सज्झाय ध्यानमा सावधान सुसाध्वीओना उपकार्थे वस्त्र-पात्रादिकनो संग्रह करवामां कृशळ एवी साध्वी गणिनी पदने लायक छे. विवेचन महत्तरिका-वडेरी साध्वीनां लक्षणो दर्शावतां कहे छे के-ते समभावी होय. पोतानी शिष्याओ तेमज ज्ञान या वेयावच्चादिक कारणोने अंगे आवेली अन्यगच्छीय साध्वीओ प्रत्ये समानभाव राखे. जेवी काळजी पोतानी शिष्याओना वस्त्र-पात्रादिक के औषध-भेषजनी राखे तेवी ज काळजी प्रतीच्छिका-अन्य शिष्याओ माटे राखे. चोयणा-पडिचोयणादिकवडे तेने प्रेरणा कर्या करे, तेमां कोई पण प्रकारनो प्रमाद न दर्शावे. जेम वहेतुं जळ निर्मळ रहे छे तेम चोयणा, पडिचोयणादिकवडे संयम शुद्ध रीते पळाय छे. चारित्रपालनमां कईंक प्रमाद थतो जोवाय के मुख्य साध्वी प्रेरणा करे. पंचम गणधर श्रीसुधर्मास्वामीए प्ररूपेलो शास्त्रविहित मार्ग ज शुद्ध छे एम मानीने जैन धर्मनुं यथार्थ पालन करनारी, तथा तेमणे दर्शावेला विधि-निषेधने अनुसरनारी तेमज ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना गुणोथी युक्त साध्वी गणिनी पदने योग्य छे. 'यथा राजा तथा प्रजा' ए सूत्रने अनुसारे मुख्य पुरुष- जेवू वर्तन होय छे तेवं आचरण तेनी श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २९७ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीचेना माणसो आचरे छे. गच्छमां वडेरी साध्वीनो वर्ताव संवेगरसाई न होय तो तेनी प्रतिभा अन्य साध्वीओ ऊपर न पडे तेटला खातर ज शास्त्रकारे पहेलुं विशेषण ए आप्यु के-ते वैराग्य रंगमां लीन होवी जोईए. साथे वसनारी साध्वीओने तेनो डर-भय लागवो जोईंए, कारण के तेवो भय होय तो लघु शिष्यादिक कई पण अकार्य करतां संकोच पामे. आवो भयभीत परिवार होय ते बीजुं लक्षण का, छतां पण कोई साध्वी भूलने पात्र बनी तो तेने उग्र प्रायश्चित्त आपतां संकोच न राखे. जो ए प्रमाणे एक बार अपराधनी शिक्षा न करे तो देखादेखीथी या तो गुरुणीनी नबळाई जाणी जईने अन्य साध्वीओ भूल करवा प्रेराय माटे मुख्य साध्वीए कारण प्रसंगे पोतानी सत्तानो उपयोग करवो जोईए, एटले के आलोचना आपवी. गच्छनी सारसंभाळ करतां जे शेष समय रहे तेमां पांच प्रकारनो स्वाध्याय करे अने चार प्रकारना ध्यान पैकी बे धर्म अने शुक्ल ध्यावे. जेम एक गृहस्थ पोताना कुटुंबना पालनार्थे सर्व प्रकारनी चिंता धरावे छे तेम मुख्य साध्वीए पण पोताना परिवारनी साध्वीओना उपकारार्थे निर्दोष वस्त्र, पात्र, औषध, ज्ञानोपगराण विगेरे वस्तु ओनो संग्रह करी राखवो जोईए. आ प्रमाणेना लक्षणो जे साध्वीमां होय ते महत्तरिका पदने लायक गणाय छे. वचनगुप्तिने आश्रयीने साध्वीए केवु वर्तन करवू जोईए ते त्रण गाथावडे बतावे छे– जत्थुत्तरपडिउत्तर, वडिआ अज्जा उ साहुणा सद्धिम् । पलवंति सुरुठ्ठावी, गोअम! किं तेण गच्छेण? ॥१२९ ।। जत्थ य गच्छे गोयम !, उप्पण्णे कारणंमि अज्जाओ। गणिणीपिट्ठिठिआओ, भासंती मउअसद्देण ।।१३० ।। माऊए दुहिआए, सुण्हाए अहव भइणिमाईणम् । जत्थ न अज्जा अक्खड़ गुत्तिविभेयं तयं गच्छम् ॥१३१ ।। [यत्र उत्तरं प्रत्युत्तरं, वृद्धा आर्याः साधुना सार्धम्। प्रलपन्ति सरोषा अपि, गौतम ! किं तेन गच्छेन? ॥१२९ ॥ यत्रच गच्छे गौतम! उत्पन्न कारणे आर्याः । गणिनीपष्टिस्थिता, भाषन्ते मृदुकशब्देन ॥१३० ॥ मातु: दुहितुः स्नुषायाः, अथवा भगिन्यादीनाम्। यत्र न आर्या आख्याति, गुप्तिविभेदं सको गच्छः ॥१३१॥] गाथार्थ-जे गच्छमां मुख्य या तो वृद्ध साध्वी कलह के खेदवश थईने उत्तर-प्रत्युत्तर करे तेमज क्रोधवश थईने जेम तेम प्रलाप करे तेवा गच्छथी हे गौतम ! शुं प्रयोजन अथवा तेवा गच्छने हुं गच्छ कहेतो नथी. हे गौतम ! जे गच्छमां कार्य प्रसंगे लघु साध्वीओ मुख्य साध्वीनी पाछळ रहीने स्थविर गीतार्थ प्रमुखनी साथे सहज, सरळ अने निर्विकार वाक्योवडे मृदु वचन बोले तेज वास्तविक गच्छ जाणजे. वळी वगरकारणे स्वपरवर्गमां ‘आ मारी माता छे, आ मारी पुत्री के पौत्री छे, आ मारी बहेन छे' श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २९८ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि जाहेर न करे अथवा मातादिकनी गुह्य बात होय तो ते मर्म प्रकाशित न करे. आवी वचनगुप्तिवाळा गच्छने ज हे गौतम ! तुं साचो गच्छ जाणजे. विवेचन-गृहस्थ वर्गमां पण कहेवत प्रचलित छे के–“कलहकंकासथी तो गोळाना पाणी पण सुकाय छे.” अर्थात् क्लेशथी सुखसंपत्ति नाश पामी जाय छे. जेओ संसारनो त्याग करी संयमना मार्गे चढ्या छे तेओए तो कदापि पण क्लेश-कलह न करवो जोईए. क्लेशथी कर्मबंध थाय छे, आर्त के रौद्र ध्यान थाय छे अने आवी रीते कलह करतां ईतरजनो जुए त्यारे शासननी अपभ्राजना थाय. क्रोधादिक कषायो छूपा चोर छे. ते क्यारे आपणा मनमां प्रवेश करी कब्जो करी वाळे छे तेनो आपणने ख्याल रहेतो नथी, माटे क्रोधादिक करवानां प्रसंगे उपस्थित थाय त्यारे अत्यंत सावचेत रहेQ. हे गौतम ! आवा प्रसंगे जेओ आत्मभान भूली जेम फावे तेम बोले छे ते गच्छने हुं सारो गच्छ कहेतो नथी. शास्त्राभ्यास करवाने अंगे तो गमे ते शंकादिनी पृच्छा करवा माटे साधु समीपे जq पडे त्यारे पण मुख्य साध्वीने आगळ करीने, तेमनी पाछळ रहीने साध्वीए पृच्छा करवी उचित छे. एकाकी साधु पासे जवु कल्पतुं नथी. साधु साथे वातचीत करवामां पण मृदु अने मिष्ट भाषा वापरवी जोईए. बोलवामां पण विवेक राखवो. विवेक ए मूंगु वशीकरण छे. विवेकथी सघळा कार्य सिद्ध थाय छे. श्रीसुक्तमुक्तावलीमां विवेक संबंधे का छे के हृदयधर विवेके प्राणी जो दीप बासे, सकळ भवतणो तो मोह-अंधार नाशे परम धरम वस्तू तत्त्व प्रत्यक्ष भासे, करम भरम पतंगा स्वांग तेता विनाशे। विकळ नर कहीजे ते विवेके विहीना, सकळ गुण भर्या ते जे विवेके विलीना। जिम सुमति पुरोधा भूमिगेहे वसंते, युगति जुगति कीधी जे विवेके उगते ।। गच्छमां साध्वीओए परस्पर कौटुंबिक संबंध पण न दर्शाववो; कारण के तेथी वचनगुप्तिनो भंग थाय छे. श्री दशवैकालिक सूत्रमा का छे के-“अज्जिए पज्जिए वा वि, अम्मो माउसिअ त्ति अपि । उस्सिए भायणिज्जत्ति, धूए नत्तुणिइत्ति अ॥१।। अज्जए पज्जए वा वि, बप्पो चुल्लपिउत्ते अमाउला भाउणिज्जत्ति, पुत्ता नत्तुणिइत्ति अ॥२॥" हे माता, हे दादी, हे भाणेज, हे पुत्रो, हे बहेन, हे काकी, हे भार्या, हे मामी इत्यादि सांसारिक संबंध सूचवतां शब्दो साधुए या साध्वीए बोलवा नहीं. हुं अमुकनी माता छु, हुं अमुकनी पुत्री छु, अमुकनी स्त्री छु. विगेरे संबंध दर्शावतां वाक्यो पण न बोलवा. वळी मातादिकनी गुप्त वात होय तो तेनो प्रकाश न करवो. जेम बने तेम वचनगुप्तिनुं यथार्थ पालन करनार गच्छने हे गौतम ! हुं गच्छ कहुं छु. हवे जिनोक्त मार्गर्नु उल्लंघन करनार साध्वीने शुं प्राप्त थाय ते दर्शावे छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २९९ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंसणियारं कुणई, चरित्तनासं जणेइ मिच्छत्तम् । दुण्हवि वग्गाणज्जा, विहारभेयं करेमाणी ।। १३२ ।। [दर्शनातिचारं करोति चारित्रनाशं जनयति मिथ्यात्वम् । द्वयोरपि वर्गयो: आर्या: विहारभेदं कुर्वाणाः ॥ १३२॥] गाथार्थ-जे साध्वी दर्शनातिचार लगाडे, चारित्रनो नाश करे अथवा मिथ्यात्व उत्पन्न करे, बन्ने वर्गना (साधु तेमज साध्वीना) मासकल्पादि विहारनी मर्यादानुं उल्लंघन करे ते साध्वी खरेखरी आर्या नथी. विवेचन-पंचांगीना जे पिस्तालीश प्रमुख आगमो छे, तेमां दर्शाव्या प्रमाणे विधिपूर्वक जे साध्वी चारित्र पाळे ते साची आर्या छे. जो ते मर्यादानु उल्लंघन करे तो समकितमां दूषण लगाडे छे, चारित्रनो नाश करे छे अने मिथ्यात्व उपजावे छे. आवी उन्मार्गे चालनारी साध्वी गच्छमां न राखवी. विहारनी मर्यादा संबंधी त्रेवीशमी गाथामां वर्णन थई गयुं छे छतां पण अहीं कईंक विशेष दर्शावे छे. श्री बृहत्कल्पना चोथा उद्देशामां का छे के- “नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ पंच महण्णवाओ महानदीओ उद्दिट्ठाओ गणिताओ वंजियाओ अंतो मासस्सदुखुत्तो वा तिखुतो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा तं जहा-गंगा जउणा सरऊ कोसिया मही।" जेमां विपुल जळ छे तेमज घणी ऊंडी छे तेवी नदीओ महार्णवा एटले समुद्र तुल्य जाणवी. तेवी नदीओ गंगा, यमुना, सरयु, कोशिका अने मही-आ पांच नदीओ महिनामां बे वार के त्रण वार उतरवी योग्य नथी. आ सूत्र ऊपर नियुक्तिकार विस्तारथी समजण आपतां कहे छे के-“पंचण्हं गहणे णं, सेसाविय सूइया महासलिला । तत्थ पुरां बिहरिंसुं नय ताउकयाइ सुक्कंति ॥१॥"ऊपर जे पांच नदीओ जणावी तेवी रीते बीजी पण तेवी मोटी नदीओ के जेमां अगाध जळ होय अने हमेशां वहेती होय तेनो पण समावेश जाणी लेवो. आ बाबतमा प्रतिवादी शंका करतां पूछे छे के-सर्व नदीओ शा माटे गणवी? जो तेमज होय तो सूत्रकार पांच नदीना ज नामो शा माटे जणावे? तेनो उत्तर ए छे के-गंगादिक पांच महानदीओ जे देशोमां छे ते स्थळोमां पूर्वे साधुओ विचर्या हता अने ते नदीओ कदी पण शुष्क बनती नथी तेथी तेओना नामो जणाव्या छे, परंतु उपलक्षणथी तेना जेवी विशाळ, दीर्घ पुष्कळ जळवाळो अने ऊंडी नदीओ पण साथोसाथ समजी लेवी. वळी पण श्री बृहत्कल्पना चोथा उद्देशामां का छे के–“अह पुण एवं जाणिज्जा एरवई कुणालाए जत्थ चक्किया एगंपादं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवण्हं कप्पइ अंतोमासस्स दुखुत्तो वा तिखुत्तो वा उत्तरिए वा संतरित्तए वा, एवं नो चक्किया एवण्हं नो कप्पइ अंतो मासस्स दुखत्तो वा त्तिखुत्तो वा उत्तरित्तए वा।" ऐरावती नामनी नदी कुणाला नगरीनी पासे वहे छे. ते अर्ध जंघाप्रमाण ऊंडी छे. ते नदी तथा तेवा प्रकारनी बीजी नदी विधिमां दर्शाव्या प्रमाणे उतरी शकाय. एक पग जळमां अने एक पग थळमां (आकाशमां) उंची राखवाना क्रमथी साधु या साध्वी चाली श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ३०० Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकवा समर्थ होय तो एक मासमां बे के त्रण वार नदी पार उतरे अने पाछा आवी शके ऐरावती नदी कुणाला नगरी पासे बे गाउना पहोळा पट (विस्तार) वाळी अने अर्ध जंघा प्रमाणे ऊंडाईवाळी छे. गोचरीने निमित्ते पात्रादिकना लेपनादिकने निमित्ते साधु या साध्वी मासमां बे त्रण वखत जयणापूर्बक नदी पार करी शके. आ सूचनथी ऊपर जे पांच नदीना ग्रहणथी तेवा प्रकारनी सर्व नदियोनो स्वीकार जणाव्यो तेने पुष्टि मळे छे. ऐरावती नदीमां केटलीक जग्यामां ज्यारे पाणी सूकाई जाय छे त्यारे ते नदी पार करीने गोचरी अर्थे जवामां आवे त्यारे ऋतुबद्ध काळमां जळनो त्रण संघट्टा थाय, वळतां पण त्रण थाय एटले छ संघट्टा थाय. चोमासामा सात संघट्टा थाय अने पाछा आवतां सात थाय. कुल चौद संघट्टा थाय. ज्यांसुधी ते क्षेत्रमा चातुर्मास होय त्यां सुधी आटला संघट्टा करी शकाय; तेथी विशेष संघट्टो थाय तो दोष लागे. वळी ज्यां विशेष जळ-संघट्टो लागे त्यां उतरवानो पण निषेध छे. मासकल्प पूर्ण थया पछी बीजो मासकल्प करवा माटे ते नदी उतर्या सिवाय अन्यत्र जई शकतो होय तो तेम करवू. चातुर्मास पण ते नदी उतर्या सिवाय बदली शकातुं होय तो तेम ज करवू. कोई पण बीजो उपाय न होय तो नदी उतरवी, ए जिनाज्ञा छे. संघट्टा संबंधमां का छे के–“सत्त उवासासु भवे, दगसयट्टा तिण्णि हुँति उडुबद्धे । ते तु न हणंति खित्तं, भिक्खायरियं च न हणंति ।। २॥ जह कारणंमि पुण्णे, अंतो तह कारणंमि असिवादी। उवहीगहणे लिंपण, नावा य गते पि जयणाए॥३॥" वर्षाकाळमां सात अने मासकल्पमांत्रण जळना संघट्टा साधुने होई शके. आरीते क्षेत्रमा रहे तो तेनुं क्षेत्र हणाय नहीं तेमज भिक्षाचर्या पण निषिद्ध न जाणवी अर्थात् के तेओ ते क्षेत्रमा रही शके अने गोचरी अर्थे जई शके. कोई पण कारण उत्पन्न थये सते मासकल्प बाद तेमज चोमासा पछी तेवू बीजुं क्षेत्र न मळे तो नदी उतरे. मासकल्पमां पण कईं उपद्रव थाय, मारी-मरकी जेवो व्याधि उत्पन्न थाय, वस्त्रादिक उपकरणनी जरूरत उत्पन्न थाय तो नदी उतरीने पण लावी शके. जरूर पडये नावमां बेसीने पण जई शके, परन्तु तेमां जयणा तथा विधि साचववा जोईये. ___ नाव उतरवा संबंधी हकीकत नीचे प्रमाणे जाणवी-"नावथललेवहेट्ठा, लेवो वा उवरिए व लेवस्स । दोण्णी दिवढमेकं, अद्धं नावाइपरिहाति ॥ ४॥"जे स्थळे नावमां बेसवार्नु होय ते स्थळे जोवू के गमनस्थळे थलमार्गे जवाशे अने बे योजननो फेर थशे तो शास्त्रकार कहे छे के-बे योजननो फेरो खावा परन्तु नावमां न बेसबुं १, तेवीज रीते संपूर्ण लेप न लागे तेवू जळ उतरवार्नु होय, परंन्तुं दोढ योजनना फेराथी स्थळमार्गे जवातुं होय तो तेम करवू पण नावमां न बेस, २, तेवी जरीते लेप लागे तेवू जळ उतरवा- होय परन्तु एक योजनथी स्थळमार्गे जवातुं होय तो तेम करवू पण नावमां न बेसवु ३, लेप ऊपर जळ लागे तेवा मार्गमां पण अर्ध योजननो फेरो खावो पण नावमां न बेसबुं ४, आ प्रमाणे तपास करतां छतां पण बीजो कोई मार्ग ज न होय त्यारे साधु नावमां बेसी शके; परन्तु निर्ध्वंसपणुं कदी न कर. श्री निशीथचूणींना बारमा उद्देशाना प्रांतभागमां नाव संबंधी वर्णन करतां का छे के श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३०१ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंघातारिमकत्थइ कत्थइ वाहाहि अप्पणा न तरे। कुंभे दतिए तुंबे, नावा उडुवे य पण्णीए ॥ १॥ ... समासतो जलसंतरणं, दुविहं थाहमथाहं च। जं थाहं तं तिविहं, संघट्टो लेवो लेवोवरियं च ॥ २ ॥ एतो एकतरणं, तरिअव्वं कारणंमि जातंमि। एतेसि विवच्चासे, चाउम्मासा भवे लहुगा ।।३।। नवानवे विभासा उ भाविताभाविए ति य। तदण्णभाविए चेव, उल्लाणोल्ले य मग्गणा ॥४॥ असती य परिरयस्सा, दुविहे तेणे व सावते दुविहे। संघट्टणलेवुवरी, दुजोयणा हाणिजा नावा ।।५।। जंघद्धा संघट्टो १, नाभिलेवो २ परेण लेवुवार ३। एगो जले थलेगो, निप्पगलणतीरमुस्सग्गो ॥६॥ निभए गारत्थीणं तु, मग्गतो चोलपट्टमुस्सारे । सभए अत्यग्घे वा, उत्तिण्णेसुंघणं पट्ट ।।७।। दगतीरे वा चिट्ठे निप्पगलो जाव चोलपट्टो। उ सभए पलंबमाणं, गच्छंति काएण अफुसंतो ।। ८॥ असति गिहिणालियाए, आणक्खेउं पुणो वि पडिअरणं । एगा भोगपडिग्गह, केई सव्वाणि नो पुरओ ॥९॥ ठाणतियं मोत्तूणं उवउत्तो तत्थ ठातिणावाहे। दतिओडु व तुंबेसु वि, विही होति संतरणे ॥१०॥ जे नाव द्वारा जळ उतराय ते नावडुं तारिमा कहेवाय छे. संक्षेपथी जळ उतरवाना बे प्रकार छे(१) थाह (थोडु) अने (२) अथाह (अगाध). थाहना त्रण प्रकार छे- (१) संघट्ट, (२) लेप अने (३) लेपोपरि. कोईक नदीमां थोडं जळ होय, अने कोईक नदीमां पुष्कळ जळ होय. अगाध जळवाळी नदीमां बंने भुजा द्वारा तरवू नहीं, केमके तेम करवाथी घणा अप्काय जीवोनी हिंसा थाय, माटे जळमां तरवाना साधनो दर्शाव्या छे, ते प्रमाणे आचरण करवू. प्रथम तो घडो होय तो तेनाथी तरवू, घडो न होय तो दत्तीथी तरतुं अने ते पण न मळी शके तो तुंबायी नदी उतरवी ते पण न मळे तो उडुप (लघुनाव) थी तरतुं अने ते पण न मळे तो पण्णीथी तरQ अने छेवटे नाव- ग्रहण करवू. आ आज्ञा विरुद्ध आचरण करे तो लघु चारमासी प्रायश्चित्त लागे. कुंभ मळवा छतां कुंभथी न तरतां दत्तीथी तरे तो आज्ञानुं खंडन कर्यु कहेवाय. एवी रीते एकेकने अभावे तरे तो दंड न समजवो.. नाव बे प्रकारनां छे. जूनुं अने नवं. जूनुं नाव उतरवाना उपयोगमां न लेवू कारण के तेनाथी कष्ट उपजे अने संयोगवशात ते तूटी जतां डूबी जवाय. नवा नावना पण बे प्रकार छे. (१) भावित अने (२) अभावित. भावित एटले जळमां गति करेल, तेवा भावित नवा नावथी नदी उतरवी, परन्तु श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ३०२ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभावितथी नहीं; केमके अभावित नवं नाव जळमां नाखतां घणा जीवोनी हिंसा थाय. भावित नाव जळमां वारंवार गति करेल होवाथी नवीन विराधना थती नथी. तेना पाटिया, पाथडा विगेरे रूढ थई गयेल होय छे, परन्तु नवा नावने जळनो संसर्ग थतां घणी ज विराधना थाय छे. भावित नावना पण बे प्रकार छे ते ज जळमां भावित थयेल अने अन्य जळमां भावित थयेल. जे ते ज जळमां भावित होय तेवां नाव द्वारा उरतवू श्रेष्ठ छे, कारण के एक जल बीजा जळने माटे शस्त्ररूप छे. आपणामां पण प्रचलित रिवाज छे के-एक कूवा या तो वावनो संखारो ते ज कूवा या तो वावमां नाखवो. जो भूलथी पण अन्य स्थळे नाखवामां आवे छे तो ते अप्कायना जीवोनी हिंसा थाय छे. मीठा कूवानुं पाणी खारा कूवाना जळमां नथी नाखवामां आवतुं तेमां पण आ ज हेतु समायेलो छे. आ प्रमाणे दर्शावेल भावित नावना पण बे प्रकार समजवा - (१) सूकायेली अने (२) आर्द्र. तेमां सूकी भावित नावथी न उतरवू, कारण के तेने जळमां प्रवेश करावतां ज ते जळ चूसबा मांडे छे अने ए रीते अप्कायना जीवोनी विराधना थाय छे, माटे आर्द्र भावित नावतो ज उपयोग करवो; अने ते प्रमाणे करतां जयणानो पूरेपूरो उपयोग राखवो. पिंडी सुधी जळ होय अने तेमां उतरे तेनो संघट्ट कहेवाय, नाभि सुधी जळ ऊंडं होय ते लेप कहेवाय अने नाभि उपरांत जळ होय अने तेमां उतरे तो लेपोपरि जाणवू. संघट्टामां केवी रीते उतरवू ते जणावतां कहे छे के-एक पग जळमां मकवो अने एक पग अधर (आकाशमा) राखवो-ए प्रमाणे जयणापूर्वक उतरवू; परन्तु जळy डोळाण न करवू कांठे आवतां पग ऊपरनुं पाणी नीतरवा देवू. पाणी सर्व सुकाई जाय त्यारबाद कांठे इरियावहिया पडिक्कमे अने कायोत्सर्ग करे. आ संघट्टानी जयणा जाणवी. लेप प्रमाण- जळ उतरवानो विधि दर्शावे छे-जो चोरादिकनो भय न होय तो जे रस्ते गृहस्थ उतर्या होय ते मार्गे नदी उतरवी अने जेम जेम जळमां आगळ वधाय तेम तेम विशेष ऊंडु जळ एटले चोळपट्टो ऊंचो ऊंचो करवो. चोळपट्टो ऊंचो लेवाथी अप्कायना घणा जीवोनो विनाश अटकी जाय छे, कारण के चोळपट्टो भीजावाथी घणा अप्कायना जीवोनी विराधना थाय. चौरादिकनो भय होय अने बीजा गृहस्थनो योग होय त्यारे गृहस्थ जळमां अडधा पर्यन्त पहोंचे त्यारे पोतानो चोळपट्टो बांधीने जळमां उतरे अने ते प्रमाणे उतरतां चोळपट्टो भीनो थाय तो जयणापूर्वक वर्ते. नदीना कांठा ऊपर आवीने ऊभा रहेQ अने ज्यां सुधी चोलपट्टानुं जळ नीतरी न जाय त्यां सुधी कांठा ऊपर ऊभा रहेवं. जो भय होय तो चोळपट्टो लांबो करीने एटले के-हाथमां लांबो करीने जाय अथवा दांडा ऊपर राखीने जाय, पण ते भीना चोळपट्टाने पोताना शरीर साथे स्पर्श न करावे. जो गृहस्थ साथे न होय तो आ विधि प्रमाणे वर्तवं. परन्तु गृहस्थ होय तो केम करवू ते पण दर्शावतां कहे छे के-जे स्थळे बीजा वटेमागें उतरतां जणाय ते स्थळेथी उतरवू, अने कोई पण वटेमा न होय तो जे स्थळेथी पूर्वे लोको गया होय तेवी पगदंडी जोवी अने पोताना देहप्रमाण करतां चार आंगळ अधिक दंड होय तेने “नालिया" कहे छे ते नालिया ग्रहण करीने जळनुं प्रमाण श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३०३ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपासतां तपासतां नदी उतरवी. नालिया पासे न होय तो अन्य तरवावाळानी राह जोवी. आ लेप प्रमाण जळ उतरवानी विधि दर्शावी. हवे अथाह-अथाग पाणी उतरवानी विधि कहे छे, तेमां नाव संबंधी हकीकत आ विवेचनमां पूर्वे जणादी दीधी छे. हवे नावम कई रीते बेसबुं ते जणावतां कहे छे के-सर्व पात्रादिक उपकरण एकत्र करीने बांधवा, पछी छीकामां ऊंधे मुखे राखीए तेम राखवा. केटलाक आचार्यों आ संबंधमां एम पण जणावे छे के-भंडोपकरणने पडिलेहीने, मस्तकथी ते पग पर्यन्त शरीरनी प्रतिलेखना करीने नावमां बेसवं. नावमां पण आगळ न बेसवु केम के तेथी प्रवर्तन दोष एटले नाव चालवानो दोष लागे. नावना पाछळना भागमां पण न बेसवू कारण के अतिशय जळप्रमाणने कारणे भय उपस्थित थाय; माटे नावना मध्यभागमा ज बेसवू. तेमां पण त्रण स्थान-१ देवस्थान, २ कूपस्थान अने ३ निर्यामकस्थान वर्जीने बेसवू. नावनो अग्रभाग ते देवस्थान, मध्यमां वनस्थान अने पाछळ तोरणस्थान-आ त्रण जग्या पण वर्जवी. जे स्थळे अन्य कोई न बेसे ते स्थळे उपयोगपूर्वक, नवकारमंत्र- स्मरण करीने बेसवं. सागारिक पच्चक्खाण पण करवू के-जो कई पण उपद्रव थाय अने काळधर्म पमाय तो मारे सर्वस्वनो त्याग छे. नाव जळमार्ग पसार करीने कांठे आवे त्यारे पण सौ प्रथम आगळना भागे न उतरे तेमज पाछलना भागे पण न उतरे; जेम मध्य भागमां बेसे तेवी ज रीते मध्य भागे उतरे. पछी कांठे उतरीने इरियावही पडिक्कमी कायोत्सर्ग को. जळनो संघट्ट न थयो होय तो पण आ प्रमाणे विधि करवी ज. दत्ती, उडुप अने तुंब विगेरेनो विधि पण आज प्रमाणे जाणवो. विशेष ए के-तेने मूकीने पछी इरियावहियादि क्रिया करवी. आ प्रमाणे नावद्वार जाणवू. हवे विहार संबंधी वर्णन जणावे छे. श्रीनिशीथसूत्रना दशमां उद्देशानी चूर्णिमां का छे के ऊणाइरित्तमासे, अट्ठ विहरिऊण गिम्हहेमंते। एगाहं पंचाहं, मासं च जहा समाहीए ॥१॥ काऊण मासकप्पं, तत्येव उवागयाण जयणाए। चिक्खल्लवासरोहेण, वा वि तेण ट्ठिया ऊणा ॥ २॥ वासाखित्तालंभे, अद्धाणाईसु पत्तमहिगाओ। साहगव्वाधाएणं, अपडिक्कमिउं जइ वयंति ।।३।। पडिमा पडिवण्णाणं, एगाहं पंचहो तहा लंदे । जिणसुद्धाणं मासो, निक्कारणओ य थेराणं ॥४॥ ऊणाइरित्तमासा, एवं थेराण अट्ठ नायव्वा। इयरे अट्ठ विहरिचं नियमा चत्तारि अच्छन्ति ॥५॥ चार मास हेमंत ऋतुना एटले शियाळाना अने चार मास ग्रीष्म ऋतुना एटले उनाळाना आ आठ मास दरमियान ओछो या अधिको विहार को होय. केवी रीते विहार करवो? ते संबंधे जणावतां कहे छे के-प्रतिमाधारीए विहार करता करतां आ आठ मास दरमियान गाम या नगरमां एक अहोरात्रि स्थिर रहेवू. यथालंदक कल्पवाळा साधुओ एक स्थळे पांच अहोरात्रि रहे १. • श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ३०४ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्पी, २. शुद्ध परिहारिक अने ३. स्थविरद ल्पी - ए साधुओ एक मास पर्यन्त एक स्थळे वास करी शके. आ प्रमाणे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र ए रत्नत्रीयीनी समाधि थाय-सुखशांतिपूर्वक आराधना थाय तेवी रीते विहार करीने वर्षा समये चातुर्मास योग्य स्थाने जव. आठ मासथी ओछो के अधिक विहार केवी रीते थाय ते जणावतां कहे छे के—कोई एक स्थळमां आषाढ मासकल्प कर्यो एटले के आषाढ मासमां वास कर्यो अने पछी ते ज स्थळमां चातुर्मास ह्या एटले आषाढ मासने गणत्रीमां न लेतां सात मास विहारना थया. आवी रीते ऊण आठ मास कहीए, बीजी रीते पण ऊण आठ मास थई शके छे, ते आ प्रमाणे-जे स्थळे चातुर्मास रह्या होय त्यांथी विहार करवाना मार्गमां कादव होय, वर्षाद वरस्या करतो होय, पासेना गाम-नगरादिकने घेरो घलायो होय अगर तो मारी- मरकी आदिक उपद्रव थयेल होय इत्यादिक कारणोथी मागशर मास पछी विहार थाय तो ऊण आठ मास थाय. आठ मासथी अधिक केवी रीते थाय ? ते जणावतां कहे छे के आषाढ मासमां चातुर्मास योग्य स्थळ न मळयुं होय तो पछी एक मास अने वीश दिवस पर्यन्त क्षेत्र मेळवी शकाय छे. भादरवा शुदि पांचमने दिवसे पर्युषण कल्प करवानो होय. आ प्रमाणे नव मास ने वीश दिवस पर्यन्त विचरण थई शके. सार्थवाहनी साथे विहार करवो पडे त्यारे मन- इच्छित विचरण न थवाथी चातुर्मास माटे आषाढ मास व्यतीत थ जवा उपरांत पांच अहोरात्रि यावत् एक मास ने वीश अहोरात्र व्यतीत थई जाय. वळी दैववशात् वृष्टि ज न थई होय तो आश्विन या कार्तिक मासमां विहार करवो पडे त्यारे पण अष्ट मास अधिक थाय. कोई पण विघ्न आवी पडवानुं होय, उपद्रव्य थवानो होय, कार्तिकी पूर्णिमा पछी विहार करवानुं मुहूर्त जन आवतुं होय, नक्षत्र तेमज चंद्रनुं बळ सारुं न होय अथवा अन्य कोई पण कारणे कार्तिकी पूर्णिमा पछी विहार करवानो दिवस ज न आवतो होय तो चउमासी प्रतिक्रमण कर्या पूर्वे ज विहार करवो पडे-आवी रीते भिन्न भिन्न कारणोने अंगे आठ मास उपरांत पण विहार करवो पडे. प्रतिमाधारी एक अहोरात्रि स्थिरवास करे अने यथालंदक पांत अहोरात्रि रहे. शेष काळमां विहार कर्या करे, शुद्ध परिहारिक शब्दथी प्रायश्चित्त पामेला परिहारादिक साधुनो निषेध दर्शाव्यो छे. १ जिनकल्पी, २ शुद्ध परिहारिक अने ३ स्थविरकल्पी साधुओने माटे मासकल्पी विहार दर्शाव्यो छे. जो कोई पण प्रकारनो व्याघात होय अथवा तो अन्य कोई पण कारण उपस्थित थयुं होय तो स्थविरकल्पी मासमा ओछु या अधिक करी शके छे एटले ए रीते स्थविरकल्पीने माटे ऊण अष्ट मास या तो अधिक अष्ट मास विहार कह्यो छे परन्तु १ प्रतिमाधारी, २ यथालंदक, ३ शुद्ध परिहारिक अने ४ जिनकल्पीने माटे तो जेम आठ मास संबंधी विहार कह्यो छे तेम विहार करीने चातुर्मासना चार मास एक क्षेत्रमा ज व्यतीत करे. चोमासुं केवा क्षेत्रमा रहेवुं तेमज गाम-नगरादिकमां केवी रीते प्रवेश करवो ते संबंधी हकीकत जणावतां कहे छेके आसाढपुण्णिमाए, वासावासम्मि होइ ठायव्वम् । मग्गसिरबहुलदसमी उ, जाव एगम्मि खित्तम्मि ॥ ६ ॥ श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ३०५ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहिट्ठियवसभैह्निं, खित्तं गाहित्तु वासपाउग्गम् । पं हित्तु ठवण, वासाणं सुद्धदसमीए ॥ ७ ॥ इत्थ य अणभिग्गहियं, वीसइरायं सवीसई मासम् । तेण परमभिग्गहियं, गिहिणायं कत्तिओ जाव ॥ ८ ॥ असिवाइकारणेहिं, अहवा वासं न सुट्टु आरद्धम् । अहिवढयंमि वीसा - इयरेसु ससीसई मासो ॥ ९ ॥ एत्थ उ पणगं पणगं, कारणियं जा सवीसई मासो । सुद्धदसमीठियाणं, आसाढी पुण्णिमोसरणम् ॥। १० ।। आषाढ पूर्णिमाए चातुर्मास रहेवुं. एटले के जे स्थळे चातुर्मास करवुं होय ते स्थानमां आषाढ पूर्ण प्रवेश करने कार्तिकी पूर्णिमा सुधी वास करवो. अपवाद तरीके कार्तिक वदि दशम (मारवाडी मागशर वदि दशम) सुधी पण रही शकाय. केटलाको आ दश दिवसनी वृद्धिने अंगे बे दश रात्रि (वीश दिवस) अधिक गणीने मागशर मास पर्यन्त रहेवानी छूट माने छे. Sharad गाम या नगरमा प्रवेश करवो ते संबंधी हकीकत जणावतां कहे छे के-जे स्थळमां आषाढ मासकल्प कर्यो त्यां अथवा अन्यत्र सामाचारी भावना कहेवी. पछी पर्युषणा कल्प आषाढ शुदि दशमी वर्षास्थापना करवी. केटलाक आषाढ वदि पांचमे (मारवाडी श्रावण वदि पांचमे) वर्षाकाळ सामाचारी स्थापवानुं कहे छे. आ प्रमाणे आषाढ मासनी पूर्णिमाए अगर तो आषाढ वदि पांचमे पर्युषणा कल्प करीने रहे तो पण जो कोई गृहस्थ चातुर्मास संबंधी पूछे तो संदिग्ध उत्तर आपवो, एटले के “हजी अमारे चातुर्मास रहेवानुं निश्चित नथी” आ प्रमाणे जवाब आपे. आ प्रमाणे एक मास ने वीश दिवस पर्यन्त संदिग्ध उत्तर आपवो. आवी रीते संदिग्ध उत्तर आपवानुं कारण शु ? ते जणावतां कहे छे के - ते स्थळमां अचानक कोई उपद्रव उपस्थित थाय, वरसाद शारो न वरसे एक मास ने वीश दिवसमां कंइ अमंगलिक कार्य थाय, राजा दुष्ट होय, पाखंडीओनुं जोर होय इत्यादिक अनेक कारणो होय छतां पण जो साधु चातुर्मास रहे तो जिनआज्ञानो भंग कर्यो कहेवाय. “अमे अहीं चातुर्मास रह्या छीए” आ प्रमाणे गृहस्थने जणाव्या बाद उपर्युक्त कारणो आवी पडये छते विहार करवो पडे तो लोकोमां जैन शासननी हीलना थाय. अने मिथ्यात्वी लोको उपहास करतां कहे के साधुओ जणावतां हतां के अमे तो सर्वज्ञ-पुत्र छीए तो तेमनुं सर्वज्ञपणुं क्यां गयुं ? पहेलां कह्यं के अमे चोमासुं रह्या छीए अने हवे संकट आवतां चाल्या गया-तेओनुं मृषावादीपणुं तो जुओ. वळी निश्चित रीते कहे के-अमे चोमासुं रहेवाना छीए तो पण मुश्केली आवे कारण के-लोको जाणे के साधु चोमासुं रह्या छे माटे वर्षाद सारो आवशे, नवुं धान्य घणुं पाकशे एम धारी जूनुं धान्य वेची नाखे, छापरा चळावे, खेडूतो हळ विगेरे तैयार करे, व्यापारीओ तल पीलावी तेल कढावे इत्यादि घणा आरंभ - संमारंभादिकना कार्यो थाय तेना निमित्तभूत साधुओ थाय अने दोषभागी बने.. श्रीगच्छाचार - पयन्ना— ३०६ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो अभिवर्द्धित वर्ष होय तो वीश रात्रि गये छते गृहस्थने कहे अने चंद्र वर्ष होय तो एक मास वीश रात्रि गये छते गृहस्थने कहे. जे वर्षमां बे मास होय ते अभिवर्धित वर्ष कहेवाय. अधिक मास युगनी मध्यमां के अंतमां थाय छे. जो अंतमां होय तो बे आषाढ मास होय अने मध्यमां होय तो पोष मास होय. शिष्य शंका करतां पूछे के-जो अभिवर्द्धित वर्षमां आषाढ अने पोष ए बे ज मास वधे छे तो अभिवर्धित वर्षमां वीश रात्रि अने चंद्र वर्षमां एक मासने वीश दिवस एम कहेवानो शो हेतु छे ? ए बन्ने मास चातुर्मासमां तो आवता नथी. गुरू तेनो प्रत्युत्तर आपतां जणावे छे के-आषाढ मास ग्रीष्म ऋतुमां वधे छे तेथी ते मास ग्रीष्म ऋतुमां गयो जाणवो. अने तेथी ज अभिवड्डियवरि वीसरातियं । एवो पाठ छे. आषाढी पूर्णिमाएं डगलादिक ग्रहण करे, पर्युषण कल्प कहे अने पांच दिवस बाद आषाढ वदि (मारवाडी श्रावण वदि) पांचमे पर्युषण करे. एम कारणे पांच-पांच दिवस वधारे. आ रीते वधारतां - वधारता भादरवा शुदि पांचमने दिवसे पर्युषण करे. आषाढ पूर्णिमा पर्युषण करे ते उत्सर्ग मार्ग कहेवाय अने आषाढ वदि पंचमी के अन्य दिवसे करे ते अपवाद मार्ग कहेवाय. भादरवा शुदि पंचमीए तो अवश्य पर्युषणपर्व करवुं ज एक मास ने वीश दिवसमां पण जो चातुमाँस योग्य क्षेत्र न मळे ता छेवटे वृक्ष हेठळ पण पर्युषण करवा, पण भादरवा शुदि पंचमी उल्लंघवी नहीं. शिष्य पुनः शंका करतां पूछे के-हालमां अपर्वतिथि भादरवा शुदि चोथने दिवसे पर्युषण म करवामां आवे छे ? आचार्य महाराज जवाब आपे छे के कारणिया चउत्थी । कारणे चतुर्थीए पर्युषण करवा पडे छे. शिष्य पूछे छे के - हे भगवंत ! एवं ते केवुं कारण आवी पडयुं के जेथी पांचमनी चोथ करवी पडी ? गुरू उत्तर आपे छे के - श्रीमान कालकाचार्ये ते प्रवर्तावेल छे. शिष्ये पुन: प्रश्न कर्यो के-कोण कालकाचार्य अने तेमने शा माटे पंचमीनी चतुर्थी करी ? गुरूए जणाव्युं के श्रीमान् कालकाचार्य विहार करतां करतां उज्जैणी नगरीमां आव्या ने त्त्यां चातुर्मास रह्या. ते नगरीमां बलमित्र नामनो राजा हतो अने तेनो लघु बंधु भानुमित्र युवराज हतो. तेने भानुश्री नामनी बहेन हती अने बलभानु नामनो भाणेज हतो. बलभानु भद्रिक स्वभाववाळो अने विनयी हतो. साधुओनी वैयावच्च करवामां सदा तत्पर रहेतो. एकदा आचार्ये ते बलभानुने उपदेश आप्यो, धर्मनुं यथार्थ स्वरूप समजाव्युं, भविष्यना योगे ते उपदेश बलभानुना हृदयमां सचोट उतरी गयो. तेने संसारनी स्वार्थता अने असारता समजाणी अने तेणे आचार्य श्रीकालकसूरि पासे प्रवज्या ग्रहण करी. बलमित्र तथा भानुमित्रने आ समाचार मळतां ज तेओ क्रोधी बन्या अने चातुर्मास होवा छतां आचार्यने नगरी बहार काढी मूक्या. बीजो पक्ष एम कहे छे के बलमित्र अने भानुमित्र कालकाचार्यना संसारी पणाना भाणेज हता. तेओ प्रतिदिन तेओनां व्याख्यानमां जतां अने तेनु बहुमान करतां. शैवधर्मी पुरोहितने आ पंसद न श्रीगच्छाचार - पयन्ना— ३०७ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडयु. तेणे राजाना कान भंभेरवा मांडया के-आलोको तो पाखंडी छे, वेद धर्मने मानता नथी. तेमना आचार विचारमा कशुं ठेकाणुं नथी. तेमनुं धर्माचरण तो धतींग छे. राजाए परस्पर वाद-विवाद गोठव्यो अने सूर्य समीप जेम आगियो (खद्योत) झांखो थई जाय तेम पुरोहितजी हारी गया. पुरोहितजीनो पराजय थयो पण तेमणे पोताना मनमांथी डंख न मूक्यो. तेणे राजाना कान भंभेरवा शरू ज राख्या. एकदा तेणे का के- हे राजन् ! जे मार्गे आ साधुओ चाले छे ते मार्गे चालवाथी राजा के सैन्यनो नाश थाय छे. काँचा कानना राजवीए आ हकीकत साची मानी लीधी अने आचार्यने नगरी बहार काढी मूक्या. केटलाको कहे छे के-आचार्य समर्थ तेम ज पोताना गृहस्थावस्थाना मामा होवाथी तेमने सीधी रीते चाल्या जवानो आदेश तो न आप्यो, पण समस्त नगरीमां सूझतो आहार न मळे तेवो प्रबन्ध कराव्यो जेथी आचार्यश्री कंटाळीने अन्यत्र विहार करी गया. विहार करीने तेओ प्रतिष्ठान नगरे गया. त्यांना लोकोने गाउथी कहेवराव्यु के-हं आव्या पछी पर्युषण करजो. त्यांनो राजा शालिवाहन जैनधर्मी हतो. तेने कालकाचार्यने आवतां जाणी अत्यंत हर्ष प्रदर्शित कर्यो अने महोत्सव तेमज आडंबरपूर्वक गुरूने प्रवेश कराव्यो. गुरुएं फरमाव्यु के-भादरवा शुदि पांचमने दिवसे पर्युषणपर्व करवानुं छे. ते समये राजाए विज्ञप्ति करी के-मारी प्रजाना आग्रहथी ते दिवसे मारे इन्द्र महोत्सव करवानो छे, तेथी हुं साधुवंदन अने चैत्यपरिपाटी करी शकुं नही तो आप छठ्ठनी पर्युषण करावो. गुरूमहाराजे जणाव्यु के-भादरवा शुदि पांचम ओळंगवी नहीं तेवी शास्त्रज्ञा छे. राजाए पुन: विनति करी के-तो चोथर्नु पर्व राखो. गुरूए ते कबूल कर्यु, श्रीकालकाचार्य युगप्रधान होवाथी तेमणे प्रवर्तावेल चतुर्थी सौए कबूल राखी अने ते प्रमाणे हालमां पण चतुर्थीए ज पर्युषणपर्वनी आराधना कराय छे. __ शालिवाहन राजाए पोतानी सर्व राणीओने आदेश आप्यो के-तमे सर्व अमावसनो उपवास करो अने प्रतिपदाने दिवसे (भादरबा शुदि १ ने दिवसे) साधुओने वहोरावीने, पारणुं करावीने पछी करजो. बाद बीज, त्रीज ने चोथ-ए त्रण दिवस- तेलाधर पर्व करजो. राणीओए राजानी आज्ञानुं पालन कर्यु अने प्रतिप्रदाने दिवसे साधुओने भक्तिपूर्वक पारणा कराव्या ते दिवसथी ते प्रदेशमा “साधुपूजा” - पर्व प्रवत्युं छे. हवे पांच-पांच दिवसनी हानि केवी रीते करवी ते संबंधी काळ अवग्रह एटले रहेवा- प्रमाण दर्शावे छे. इय सत्तरी जहन्ना, असीइनउईदसुत्तरसयं च। जइ वासइ मग्गसिरे, दस राया तिण्णि उक्कोसो ॥११॥ काऊण मासकप्पं, तत्थेव ठियाण जाव मग्गसिरो। सालंबणाण छम्मा-सिओ उ जिट्ठग्गहो होइ ।।१२।। जड़ अस्थि पयविहारो, चउपाडिवयंमि होइ निग्गमाणम्। अहवावि अणिताणं, आरोवणपुव्वनिद्दिठ्ठा ।। १३ ॥ श्रीगच्छाचार–पयन्ना-३०८ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राया सप्पे कुंथू, अगणिगिलाणे, य थंडिलस्ससई । एएहिं कारणेहि अप्पत्ते होइ निग्गमणम् ।। १४ ॥ काइयभूमी संथारए अ, संसत्त दुल्लहे भिक्खे। एएहि कारणेहिं अप्पत्ते होइ निग्गमणम् ।। १५ ।। वासं वा नोवरमई, पंथा वा दुग्गमा सचिखल्ला । एएहिं कारणेहिं अइक्कंते होइ निग्गमणम् ।। १६ ।। असिवे ओमोदरिए, रायदुढे भये व गेलन्ने । एएहि कारणेहिं अइक्कंते होइ निग्गमणम् ।। १७ ।। आषाढ चातुर्मासथी एक मास ने वीस दिवस गये छते पर्युषण करे तो ते सित्तेर दिवसनुं जघन्य चातुर्मास थयुं, कारण के चार मासना एकसो वीस दिवस पैकी पचाश दिवस जतां ७० दिवसर्नु जघन्य चातुर्मास थयुं जो श्रावण वदि (मारवाडी भाद्रवा वदि) दशमे पर्युषणा करे तो ८० दिवसनो मध्यम वर्षाकाळ थाय. जो श्रावण शुदि पूनमर्नु पर्युषण करे तो ९० दिवसनो मध्यम वर्षाकाळ थाय. जो आषाढ वदि (मारवाडी श्रावण वदि) दशमे पर्युषणा कल्प करे तो ११० दिवसनो मध्यम वर्षाकाळ थाय अने जो आषाढ पूर्णिमाथी करे तो तेने १२० दिवसनो उत्कृष्ट वर्षाकाळ थाय. आ प्रमाणे वचलो आंतरो पण समजी लेवो. आ प्रमाणे वर्षाकाळ व्यतीत करीने कार्तिक वदि एकमने दिवसे तो विहार करी जवो, परन्तु जो मागशर मासमां पण वरसाद होय, रस्तो कादववालो होय, रस्तामां जळ भरेल होय तो अपवाद तरीके एक, बे अने उत्कृष्टा त्रणथी दश रात्रि पर्यन्त स्थिरता करे. अथवा उग्र कारणे मागशर मासनी पूर्णिमा सुधी रहे. त्यारबाद जो मार्ग कादव-कीचडवाळो होय, रस्तामां जळ भरेलुं होय, जळ उतरवानो प्रसंग प्राप्त थतो होय तो पण अवश्य विहार करवो ज. जो विहार न करे तो चार गुरूमासी प्रायश्चित आवे. आ प्रमाणे पांच मास, उत्कृष्ट चोमासुं का. ___ आषाढ मासनो कल्प कयों होय अने पछी चातुर्मास योग्य अन्य क्षेत्र न मळतां तेने ते ज स्थानमां चातुर्मास करीने, वर्षादिकने कारणे मागशर मासमां विहार करवो पडे तो चोमासानो छ मासनो उत्कृष्टो काळ जाणवो. जो कादव अने वृष्टि प्रमुख, कारण न होय अने रस्ता चोक्खा थई गयाहोय तो कार्तिक (मारवाडी मागशर) वदि १ ने दिवसे अवश्य विहार करवो जोईए, जो न करे तो पूर्वे कहेल प्रायश्चित्त आवे. ___ कारण उपस्थित थये चार पडवाओ पहेलां पण अन्यत्र विहार करी जवो पडे. ते कारणो नीचे प्रमाणे जाणवा. १ राजा दुष्ट होय, २ उपाश्रयमा सर्पनो प्रवेश थयो होय, ३ उपाश्रयमां कुंथुआनो उपद्रव थयो होय, ४ अग्नि लागवाथी उपाश्रय भस्मीभूत थई जाय, ५ ग्लान साधुनी वेयावच्च करवा जवू पडे, ६ ग्लान साधुना औषधार्थे अन्यत्र जq पडे, ७ स्थंडिल जवानी सारी जग्या न होय. वळी कारण उपस्थित थये चारे पडवाना दिवसे पण विहार करी जवो पडे, ते कारणो नीचे श्रीगच्छाचार–पयन्ना-३०९ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणे-१. स्थंडिल-मातरादिकनी जग्या जीवाकुळ होय, २ संथारामां जीवादिक होय, ३ दुःखपूर्वक गोचरी मळती होय, ४ पोताने के अन्यने मोहोदय थयो होय, ५ मरकी प्रमुख रोगोनो उपद्रव उपस्थित थयो होय. चार पडवा व्यतीत थई गया होय छतां पण नीचेनां कारणोथी आगळ विहार करवानो निषेध फरमावे छे, ते कारण आ प्रमाणे छे- १ विहार करवानो मार्ग कठिन विषम होय, २ विहारना मार्गमां स्थळे स्थळे जळ भरेलुं होय, ३ मार्गमां अतिशय कादव होय, ४ वरसाद वरसतो बंध न रहे तो होय. वळी कया कारणे विहार न थाय ते जणावतां कहे छे के-१ मरकी प्रमुखनो देशमां उपद्रव चालतो होय ते अशिव, २ भिक्षा ओछी मलती होय, ३ राजा दुष्ट होय, ४ रोगादिक व्याधिओ उत्पन्न थई होय अने, ५ चोर लोकोनो भय होय. आ गाढ पांच कारणोने अंगे चोमासा पछी पण साधु विहार न करे. आ वर्णन श्रीपर्युषणकल्पनी निर्युक्तिनी चूर्णिमां तेमज श्रीनिशीथसूत्रना दशमा उद्देशानी चूर्णिमां पण करेल छे. आ प्रमाणे आगमोक्त विधि प्रमाणे विचरे ते गच्छ जे साध्वी आ प्रमाणे विचरण न करे ते विहारभेद करनारी तेमज मिथ्यात्व वधारनारी समजवी. हवे साध्वीए केवुं वचन अने भाषा बोलवी ते आ गाथाद्वारा दर्शावे छे तम्मूलं संसारं जणेइ अज्जा वि गोयमा ! नूणं । तम्हा धम्मुवसं, मुत्तुं अन्नं न भासिज्जा ॥ १३३ ॥ मासे मासे उजा अज्जा, एगसित्थेण पारए । कलहे गित्यभासाहिं सव्वं तीइ निरत्थयं ॥ १३४ ॥ [ तन्मूलं संसारं जनयति, आर्याऽपि गौतम ! नूनम् । तस्मात् धर्मोपदेशं मुक्त्वा, अन्यत् न भाषते ॥ १३३ ॥ मासे मासे तु या आर्या, एकसिक्थेन पारयेत् । कलहे गृहस्थ भाषाभिः, सर्व तस्याः निरर्थकम् ॥ १३४ ॥] गाथार्थ--है गौतम ! धर्मोपदेश सिवायनुं वचन संसार- भ्रमण करावे तेवुं छे तेथी साध्वीओए धर्मोपदेश सिवाय अन्य वचन बोलवु नहीं. मासक्षमण जेवा उग्र तपने पारणे कुरादिक रूक्ष एक सित्थ (दाणा) वडे पारणुं करनारी साध्वी पण जो परमर्मप्रकाशन, आल के मकार चकारादिक गाली प्रदानरूप गृहस्थ योग्य सावद्य ( दोषित) भाषा बोले तो तेनुं सघळं तप निष्कळ जाणवुं. विवेचन- धर्मोपदेश सिवायना वचनोच्चार ए केवळ विकथा ज गणाय. राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा अने भक्तकथा- एविकथाना चार प्रकार अगाउ पृ. ५३ ऊपर वर्णवाई गया छे. अत्यारे वाणी-व्यापार एटलो बधो वृद्धिंगत थयो छे के बोलनारने पोताने पण पोते शुं बोले छे ? कई जातनी विकथा करी रह्यो छे तेनुं भान रहेतुं नथी. शास्त्रकार तो त्यां सुधी कहे छे के बीजाने कडवुं लागे, दुःख लागे तेवुं वचन न बोलो. कारण के तेवा वचन पण एक प्रकारनी भाव हिसा ज छे. भाषासमिति श्रीगच्छाचार - पयन्ना—- ३१० . Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने वचनगुप्तिनो यथार्थ मर्म समजनार कदापि धर्मोपदेश सिवाय अन्य कुथली (निंदा) न करे. श्री वंदित्तासूत्रनी छेतालीशमी गाथामां पण एज भाव भयों छे के- चिरसंचियपावपणासीइ, भवसयसहस्समहणीए। चउवीसजिणविणिग्गयकहाई वोलंतु मे दिअहा।। ४६ ।। अर्थात् अनेक भवमां उपार्जन करेला पापराशिने नष्ट करनारी, लाखो भवोनो अंत करनारी एवी चौवीश तीर्थंकर परमात्मानी कथा करवावडे करीने मारो दिवस व्यतीत थाओ ! आवो अतुल लाभ आपनार धर्मकथा छोडीने साध्वीए अन्य विकथामां शा माटे आसक्त थर्बु घटे? मासखमण-मासखमणनी उग्र तपश्चर्या करनारी अने पारणाने दिवसे मात्र एक दाणो रूक्ष आहार करनारी साध्वी पण जो भाषासमिति न जाळवे. गृहस्थ योग्य सावध भाषा बोले, पारकाना मर्म प्रकाशे, अन्यने आल आपे, कोईना पर क्रोधित बनी श्राप आपे तो शास्त्रकार कहे छे के तेवी साध्वीनी तीव्र तपश्चर्या निरर्थक जाणवी. कां छे के–“क्रोधे क्रोड पूरवतणुं, संयमनो फळ जाय। मात्र क्रोधना अवलंबनथी कौशिक तापस मरीने चंडकौशिक सर्प थयो अने पूर्वभवना तीव्र संस्कारने कारणे दृष्टिविषद्वारा अनेकना प्राणो हरवा लाग्यो. आ माटे ज शास्त्रकार कहे छे के साध्वीए कदापि क्रोधावेशमां आवीने गृहस्थोचित सावध भाषा बोलवी नहीं। श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३११ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहारआ गच्छाचार प्रकीर्णक कया कया सूत्र-सिद्धांतमाथी उद्धरेल छे ते दर्शावतां ग्रन्थकार कहे छे के: महानिसीहकप्पाओ, ववहाराओ तहेव य। साहु साहुणि अट्ठाए, गच्छायारं समुट्ठिओ ।। १३५ ।। पढंतु साहुणो एयं, असज्झायं विवज्जिउं। उत्तमं सुअनिस्संदं, गच्छायारं सुउत्तमम् ।। १३६ ।। गच्छायारं सुणित्ताणं, पठित्ता भिक्खुभिक्खुणी। कुणंतु जं कहा भणियं. इच्छन्ता हियमप्पणो॥ १३७ ।। [महानिशीथकल्पात्, व्यवहारात् तथैव च। साधुसाध्वीनामर्थाय, गच्छाचारः समुद्भुतः ।। १३५ ।। पठन्तु साधव एतद् अस्वाध्यायिकं विवर्ण । उत्तमं श्रुतनिस्यन्दम्, गच्छाचारं सूत्तमम् ॥१३६ ॥ गच्छाचारं श्रुत्वा, पठित्वा भिक्षवः भिक्षुण्यः । कुर्वन्तु यद्यथा भणितं, इच्छन्तो हितमात्मनः ॥ १३७॥] गाथार्थ--श्रीमहानिशीथ, श्रीबृहत्कल्प अने व्यवहारभाष्यमांथी तेमज निशीथादिक(छेद) सूत्रोमांथी साधु-साध्वीओने माटे आ गच्छाचार प्रकीर्णक उद्धृत करेल छे. श्रीस्थानांगसूत्रमा दर्शावेल दश प्रकारनी असज्झाय वर्जीने महानिशीथ, बृहत्कल्पादिक प्रधान श्रुतना निचोडरूप-तत्त्वसाररूप आ गच्छाचार पयन्नानुं साधु तेमज साध्वीओए भणq गणवू तथा परिशीलन सुविचार पूर्वक करवू. श्रेष्ठ साधु-साध्वीओनी मर्यादारूप आ गच्छाचार पयन्ना सद्गुरू पासे अर्थरूपे सांभळी तेमज योगोद्वहनरूप विधिवडे सूत्ररूपे ग्रहण करी आत्मानुं कल्याण इच्छनारा साधु-साध्वीओए जेम आ गच्छाचार पयन्नामां वर्णव्युं छे तेवू समाचारण करवू. . विवेचन-आ गच्छाचारपयन्नो श्रीमहानिशीथ, बृहत्कल्प अने व्यवहारभाष्य जेवा प्रमाणभूत सूत्रोमांथी उद्धरीने बनावेल छे. एटले ते प्रमाणिक अंने माननीय छे. वळी प्रकीर्णकोनी रचना प्रत्येकबुद्ध मुनिवर के तीर्थंकर भगवंतना विशिष्ट शिष्यद्वारा थाय छे एटले पण प्रकीर्णकोनी समुद्धरता स्वयमेव ज साबित थई जाय छे. आवा पयन्नानु पठनपाठन-परिशीलन अस्वाध्याय वर्जीने करवू. श्रीस्थानांगसूत्रना दशमा स्थानकमां दश प्रकारनी असल्झायो नीचे प्रमाणे जणावी छे-दसविहे अंतलिक्खिए असज्झाइए पन्नत्ते तं जहा-उक्कावाए १, दिसिदाहे २, गज्जिए ३, विज्जुए ४ निग्धाए ५५, जुवए ६, जक्खालित्तए, ७, धूमिआ ८, महिआ ९, रयउग्घाए १०, आकाशथी दश प्रकारनी असज्झाय श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ३१२ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न थाय छे. १ उल्कापात-तारानुं खरवुं विगेरे, २ दिशिदाह- कोईएक दिशामा कोई महानगर बळे तेनो आकाशमां जे उद्योत थाय ते, ३ गर्जता - अकाळे मेघनी गर्जना थाय, ४ विद्युत - अकाळे आकाशमां विजळी थाय, ५ निर्घात वादळयुक्त के वादळ रहित आकाशमां व्यंतरदेवोनो करेलो महाध्वनि, ६ जुवक चन्द्रमानी प्रभा अने संध्यानी प्रभा ए बने साथे थई जाय, एटले मिश्र थइ जाय. चन्द्रनी प्रभाथी ढंकायेल संध्या ज्यां सुधी जाणवामां न आवे त्यां सुधी शुक्ल प्रतिपदादिकमां संध्यानो छेद जाणतां छतां काळ न जणाय माटे त्रण दिवस प्रादोषिक काळ ग्रहण न करवो, पछी कालिक सूत्रनो स्वाध्याय न थाय, ७ यक्षादीप्तं - आकाशमां यक्षदीप्त थाय एटले उजाश थई जाय, ते समये स्वाध्याय करे तो क्षुद्र देव छळवा आवे, ८ धूमिका - महिकानो भेद, ते वर्णथी धूम्रवर्णादि छे, ९ महिका-झीणो वरसाद, १० रजघात विस्त्रसा परिणाम थी चारे दिशामां धूळ वरसवा मांडे. बीजी रीते पण दश प्रकारनी असज्झाय कही छे, ते आ प्रमाणे - दसविहे ओरालिए असज्झाइए पन्नत्ते तं जहा-अट्ठी १ से २ सोणिए ३ असुइ सामंते ४ सुसाणसामंते ५ चंदोवरा ६ सूरोवराए ७ पडणे ८ रायवुग्गहे ९ उवस्सयस्स अंतो उरालिए सरीरे १० । औदारिक शरीर असज्झाय दश प्रकारनी छे. १ ३ अट्ठि एटले हाडकां मंसे एटले मांस, शोणिए एटले रुधिरलोही अने चर्म विगेरे, औदारिक शरीरना आ चारे पदार्थो साठ हाथनी अंदर पडया होय तो जे काळमां पड्था होय त्यारथी त्रण पहोरनी असज्झाय. बिलाडीए उंदर प्रमुख मार्या होय तो एक अहोरात्री असज्झाय. आ तिर्यंचना हाड-मांसनी मापक मनुष्यना हाड-मांस विगेरेनी असज्झाय जाणी लेवी. जो मनुष्यादिकना हाड-मांस सो हाथनी अंदर पड्या होय तो जे काळे पड्या होय त्यारथी अहोरात्रिनी असज्झाय जाणवी. स्त्रीना ऋतुकाळनी त्रण दिवसनी असज्झाय, पुत्रजन्मनी सात दिवसनी, पुत्रीजन्मनी आठ दिवसनी भूमिमां दाटेला प्राणीनी पण असज्झाय जाणवी. ४ अशुचि- स्थंडिल तथा मातरुं प्रमुख नजीक होय तो असज्झाय, ५ श्मशानसमीपम् श्मशान अर्थात् मशाण पासे बेसी स्वाध्याय न करवो. ६-७ चन्द्र के सूर्यनुं ग्रहण होय तो असज्झाय. जो चन्द्र अने सूर्यग्रहणावस्था अस्त थाय तो ते रात्रि के दिवस पछी अहोरात्रिनो त्याग करवो अने जो ग्रहण थया बाद चन्द्र या सूर्यनो उदय थाय तो चन्द्र संबंधी ते रात्रिनो काळ अने सूर्यनो ते दिवस तेमज रात्रि संबंधी काळ पर्यन्त असज्झाय जाणवी. सूर्य तेमज चन्द्रने औदारिकमां गणवानो हेतु एछे के-ते ओना विमान औदारिक छे. ८ पतन-मरण, नगरमां राजा, प्रधान, सेनापति के कोटवाळ विगेरेनुं मृत्यु थयुं होय तो तेने स्थाने बीजो न बेसे त्यां सुधी अस्वाध्याय जाणवी. निर्भय थया पछी पण अहोरात्रि वर्जवी. गामनो नगर शेठ के बहु कुटुम्बनो धनी, शय्यातर के सात घरने आंतरे कोई मृत्यु थाय तो एक अहोरात्रिनी असज्झाय जाणवी. कदाचने स्वाध्याय करवी ज होय तो गुप्त रीते करे. जो मन करे तो लोकोमां निंदा थाय के-आ लोको केवा निर्दय छे. कोईनी पीडा पण समजता नथी विगेरे ९ राजविग्रह - राजानो संग्राम होय, सेनापति विगेरे मोटा माणसोनी लडाई होय, तथा नजीकमां कोई स्त्री-पुरुष लडता होय, सुभट-सुभट वच्चे झगडो थयो होय तो अस्नाध्याय कारण के तेमां देवने छळवानो भय रहेलो छे. १० उपाश्रयमां मनुष्यादिकना, शरीरनुं छेदन- भेदन थयुं होय श्रीगच्छाचार - पयन्ना— ३१३ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो १०० हाथ सुधीमां असज्झाय अने कदाच छेदन-भेदन न कर्यु होय परन्तु इंगछितपणाथी १०० हाथ सुधीमां होय तो पण असज्झाय जाणवी. तेने दूर मूकी आवे अने स्थानशुद्धि करे तो असज्झाय न रहे. आ प्रमाणे वीश प्रकारनी असज्झायो जाणवी, अस्वाध्याय संबंधी विशेष वर्णन श्रीनिशीथसूत्रना ओगणीशमा उद्देशानी चूर्णिमां तथा आवश्यकनियुक्ति प्रमुख ग्रन्थोमांथी जाणवू. आ पयन्नाने उत्तम कहेवानो भाव ए छे के-आ ग्रन्थमां कहेला आचार-विचार- सारी रीते पालन करवामां आवे तो माणसना मन, वचन अने काया पवित्र बने अने चार पुरुषार्थपैकी उत्तम मोक्षने मेळववा समर्थ थई शके. वळी आ पयत्रो सर्व सिद्धांतना सारभूत छे तेने हे साधुओ ! तमे भणो. ___ हवे वादी शंका करतां कहे छे के-आ पयनोसाधुए जाणवो तेम तमे का तो शुं श्रावके ते न भणवो? तेना उत्तरमां शास्त्रकार जणावे छे के-आगमोने विषे श्रावकोने वाचना देवानो निषेध कयों छे. श्रीनिशीथसूत्रना ओगणीशमा उद्देशाना प्रांतभागमां का छे के-जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा वाएइ वायंतं वा साइज्जइ । इत्यादि. आ वाक्यनी चूर्णिमां जणाव्यु छे के-जे साधु-साध्वी अन्यमतिने, अल्पबुद्धिवाळा स्वधर्मीय गृहस्थने वाचना आपे या तो वाचना आपनारने सारो कहे तो चार लघुमासी प्रायश्चित्तने पात्र थाय. वळी जो पासत्थाने, ओसन्नाने, कुशीलीयाने, संसक्तने, सूत्रनी वाचना आपे तो पण चारमासी लघु दंड अने अर्थनी वाचना आपे तो चारमासी गुरू दंड आवे. यथाच्छंदकने सूत्रवाचना आपे तो चारमासी गुरूदंड अने अर्थनी वाचना आपे तो छमासी लघु दंड आवे. आ संबंधमां अपवाद दर्शावतां कहे छे के-कोई श्रावक दीक्षा लेवा तैयार थयो होय तो तेने छजीवणिया अध्ययनथी पिण्डैषणा सुधी वाचना आपवी, उत्सर्ग मार्ग तो श्रावकने वाचना आपवानो नथी. ___ आ गच्छाचार पयन्नना श्रवणथी, तेना मननथी अने परिशीलनथी साधु साध्वीओ जो पोताना आचार सम्यग्रीतिमा परिणमावे तो स्वकल्याणकारक थवा उपरांत परहित करवामां पण समर्थ __ आ गच्छाचारपयन्नानी टीका तपागच्छरूपी गगनमां सूर्य समान भट्टारकपुरन्दर श्रीआणंदविमलसूरीश्वरजीना चरणकमळसेवी (शिष्य) श्रीविजयविमलगणिए करेल छे. गच्छाचार टीकार्नु प्रमाण ५८५० श्लोक छे. श्रीविजयविमलगणिए वि. सं. १६३४ मा वर्षे आ टीकानी रचना करी हती. अत्रे तेमनी विस्तृत पट्टपरम्परा ग्रन्थवृद्धिना भयथी त्यजी दईने केवल अमारी मान्य राखेल पट्टपरंपरानो क्रम नीचे प्रमाणे जणाव्यो छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३१४ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरमजिनपति श्रीवर्द्धमानस्वामीजी श्रीसुधर्मस्वामीजी श्रीजंबूस्वामीजी श्रीप्रभवस्वामीजी श्रीशय्यंभवसूरिजी श्रीयशोभद्रसूरिजी श्रीसंभूतिविजयजी अने श्रीभद्रबाहुस्वामीजी श्रीस्थूलिभद्रजी श्रीआर्यमहागिरिजीअने श्रीआर्यसुहस्तिसूरिजी श्रीसुस्थितसूरिजी श्रीसुप्रतिबद्धसूरिजी ११ श्रीइंद्रदिन्नसूरिजी श्रीदिन्नसूरिजी ११ श्रीसिंहगिरिजी १४ श्रीवज्रस्वामीजी १५ श्रीवज्रसेनसूरिजी १६ श्रीचंद्रसूरिजी १७ श्रीसामंतभद्रसूरिजी १८ श्रीवृद्धदेवसूरिजी श्रीप्रद्योतनसूरिजी श्रीमानदेवसूरिजी २१ श्रीमानतुंगसूरिजी २२ श्रीवीरसूरिजी २३ श्रीविजयदेवसूरिजी श्रीदेवानंदसूरिजी २५ श्रीविक्रमसूरिजी श्रीनरसिंहसूरिजी श्रीसमुद्रसूरिजी २८ श्रीमानदेवसूरिजी २९ श्रीविबुधप्रभसूरिजी ३० श्रीजयानंदसूरिजी- - ३१ श्रीरविप्रभशूरिजी ३२ श्रीयशोदेवसूरिजी ३३ श्रीप्रद्युम्नसूरिजी ३४ श्रीमानदेवसूरिजी ३५ श्रीविमलचन्द्रसूरिजी ३६ श्रीउद्योतनसूरिजी ३७ श्रीसर्वदेवसूरिजी श्रीदेवसूरिजी श्रीसर्वदेवसूरिजी ४० श्रीयशोभद्रसूरिजी श्रीनेमिचंद्रसूरिजी ४१ श्रीमुनिचंद्रसूरिजी श्री अजितदेवसूरिजी ४३ श्रीजयसूरिजी श्रीसोमप्रभसूरिजी श्री मणिरत्नसूरिजी ४५ श्रीजगच्चंद्रसूरिजी श्रीदेवेंद्रसूरिजी श्रीविद्यानंदसूरिजी श्रीधर्मघोषसूरिजी श्रीसामप्रभसूरिजी श्रीसोमतिलकसूरिजी श्रीदेवसुन्दरसूरिजी ५१ श्रीसोमसुंदरसूरिजी श्रीमुनिसुंदरसूरिजी ५३ श्रीरत्नशेखरसूरिजी श्रीलक्ष्मीसागरसूरिजी ५५ श्रीसुमतिसाधुसूरिजी ५६ श्रीहेमविमलसूरिजी ५७ श्रीआनंदविमलसूरिजी ५८ श्रीविजयदानसूरिजी ५९ श्रीहरिविजयसूरिजी ६० श्रीविजयसेनसूरिजी ५२ श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३१५ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति :श्रीमत्सौधर्मगच्छ: प्रवरमतियुत: कल्पवृक्षः प्रतीतो, गच्छाचारैकचारप्रशमरसधर: सूरिमुख्यो विशाल: । संसारोन्मूलनेभश्रमणगणशुभ: शान्तिचारु: प्रफुल्ल:, सोऽयं सौधर्मगच्छो जयति जगा वो बोधिबीजं तनोतु ॥ १ ॥ तदाच्छेसरिराजा वरचरणधारा भूरिभूता यतीशा:, पारम्पर्येण जातस्तपविरुदधरो विश्वसौभाग्यरूप: । चञ्चचन्द्राभचन्द्रस्तपगणगगनेऽभूज्जगच्चन्द्रसूरिः, कस्मिंश्चित्पट्ट्याते यवनवरपतिज्ञानहीराख्यसूरिः ।। २ ।। केचित्पट्टाश्च जाता: प्रकटसुरसमो देवसूरिर्बभूव, तस्माच्छीरत्नसूरिः सकलमतविदो यक्षनाथैः प्रपूज्य: । तच्छिष्यो निष्कलङ्को विविधतपधर: श्रीक्षमासूरिरासीत्, तत्पट्टे लोकशास्ता सुविहितमुनिराट् प्राज्ञदेवेन्द्रसूरिः ॥ ३ ॥ तत: कल्याणसूरियों, मुनीशो मोहनाशकृत्। प्रमोदविजयाचार्य:, साधुसम्पत्सुशोभित: ।। ४॥ शिष्येणाखिलबोधाय, कृता राजेन्द्रसूरिणा। गच्छाचारस्य भाषेयं, सञ्चरेद्धि सतांहदि ।। ५ ।। सुशोधिता सुधियैषा, धनविजयादिमुनिवरेण तथापि हि। दोषस्थानपटुभिः, शोधनीया समयसुविज्ञैः ॥ ६॥ . वेदवेदाङ्कचन्द्रेऽब्दे, पौषशभ्रे तथोत्तमे। पञ्चमीविधुवारे च, सम्पूर्णाऽभूदियं शुभा ॥७॥ मुद्रणे शुश्रमोऽकारि, चास्य ग्रन्थस्य शोधने । विजयाद्यगुलाबादि-चतुष्टयेन साधुना ॥८॥ हस्ताग्रे द्विसहस्त्राब्दे, वैशाखे चाऽर्बुदोपरि। प्रसार देनाथस्य, ग्रन्थोऽयं पूर्णमाप्तवान् ।। ९ ।। जे सौभाग्यशाळी तोर्मगच्छ विशिष्ट बुद्धिवाळो, कल्पवृक्ष समान, गच्छना आचारोनुं पालन करवामां ने प्रशमरस-सानाने धारण करवावाळो, उत्तम सूरिमहाराजाओना परिवारवाळो, विशाळ, संसाररूपी वृक्षतुं ५५ क वामां हस्ती समान, साधु-श्रमण समूहनी शोभावाळो, मनोहर शांतरस प्रधान अने विकरवर छे ते विश्वमा विजयवंत वर्ते छे ते श्रीसौधर्मगच्छ तमारा बोधिबीज (समकित) ने विस्तार करो. १ श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३१६ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते गच्छमां श्रेष्ठ चारित्रने पाळनारा घणा आचार्य थई गया. तेओनीज परंपरामा ‘तपस्वी' एटले तप बिरुदवाळा, विश्वने विषे सौभाग्यशाळी, तपगच्छरूपी गगनप्रदेशमां चंद्रनी जेम प्रकाशित श्रीजगच्चंद्रसूरि थया. त्यार बाद केटलाक पट्टधरो थया. बाद यवनराज (मोगल शहेनशाह अकबर) ने प्रतिबोध देनार श्रीविजयहीरसूरीश्वर थया. २ __त्यारबाद केटलाक पट्टधरो थया पछी साक्षात देवसमान स्वरूपवाळा श्री विजयदेवसूरि थया. तेमनी पाटे सकल मतोने जाणनार अने यक्षराजोथी पूजायेल श्रीविजयरत्नसूरि थया. तेमना पाटे निर्मळ चारित्रवाळा, विविध प्रकारनी तपश्चर्या करनारा शिष्य श्रीविजयक्षमासूरि थया. तेमनी पाटे लोको ऊपर प्रभाव पाडनारा, सुविहितोमा अग्रणी पंडित श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि थया. ३ । त्यारबाद मोहराजानो पराभव करनार (निर्मोही) श्रीविजयकल्याणसूरि थया. तेमनी पाटे साधुगुणरूप संपत्तिथी विभूषित श्रीविजयप्रमोदसूरि थया. ४ ते श्रीविजयप्रमोदसूरिजीना शिष्य आचार्य श्रीविजयराजेन्द्रसूरि थया जेमणे समस्त लोकना बोधने माटे आ गच्छाचार प्रकीर्णकनुं विवरण कर्यु के जे सज्जन पुरुषोंना हृदयमां संचार पामो-सारी रीते प्रवेश पामो.५ आ ग्रंथ- वाचनाचार्य बुद्धिमान् श्रीधनविजयादि मुनिवर्गे संशोधन कर्यु छे, तो पण दोष निकालवामां अने दोषोनी स्थापना करवामां पण चतुर अने सिद्धांतोने जाणनारा एवा विज्ञ पुरुषोए आ ग्रन्थमां कंई.पण स्खलना-दोष जणाय तो सुधारी लेवा कृपा करवी. ६ _ वि. सं. १९४४ ना पौष शुदि पांचम ने सोमवारना दिवसे आ सुंदर भाषाग्रंथ पूर्ण करवामां आव्यो. ७ आग्रंथ, प्रूफ आदि संशोधन करवामां तेमज मुद्रणकार्य कराववामां श्रीगुलाबविजयादि चार मुनिवरोए सारो प्रयास करेल छे. ८ संवत् २००२ ना वैशाख मासमां श्रीअर्बुदाचल ऊपर विराजमान आदितीर्थपति भगवान श्रीआदिनाथजीनी कृपाथी तेमनी यात्रामा ज आ ग्रंथ- मुद्रणकार्य संपूर्ण थयुं छे. ९ इति श्रीगच्छचारप्रकीर्णस्य टीकानुसारेण श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिणा भाषा कृता वाच्यमाना श्रेयस्करी भूयात् ।। सर्वत्र श्रीशुभं भवतु ॥ श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ३१७ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा नं. ९२ अइदुल्लहभेसज्जं ४८ अगीयत्थकुसीलेहिं ४६ अगीयत्थस्स वयणेणं १२० अजयणाए पकुव्वंति २ अत्थेगे गोयमा ! पाणी मूलगाथानाम् अकारादिक्रम - २२ अप्परिसावी सम्म १०४ आरंभे सत्ता ७८ इच्छिज्जइ जत्थ सया ५ उज्जमं सव्वयामेसु २९ उम्मग्गट्ठिए सम्मग्ग ३० उम्मग्गठिओ एक्को उम्मग्गमग्गसं ३१ ९३ एगो एगिथिए सद्धि ३४ ओसन्नो वि विहारे ९९ .कारणमकारणेणं ६५ किं पुण तरुणो अबहु ८६ कीरइ बीअपएणं २४ कुलगामनगररज्जं ७६ खज्जूरिपत्तमुंजेण ५३ खंते दंते गुत्ते १.२५ खरघोडाइट्ठाणे पृष्ठ २४२ १५० १४९ २९३ ९ ११९ २७४ २०६ २४ १३१ १३१ १३२ २४३ १३५ २६१ १८३ २३० १२४ २०३ १५८ २९६ गाथा नं ५४ खरफरुसकक्कसाए १०६ खुड्डो वा अहवा सेहो ६९ खेलपडिअमप्पाणं १२१ गइविब्भमाइएहिं ११४ गच्छइ सविलासगई १३७ गच्छायारं सुणित्ताणं ५१ गच्छो महाणुभावो ११२ गणिगोअम ! जा उचिअं ४४ गीअत्थस्स वयणेणं ४९ गीअत्थे जे सुसंविग्गे गुरुणा कज्जमकज्जे ५६ ५२ गुरुणो छंदणुवत्ती ११५ गेहेसु गिहत्थाणं ९५ घणगज्जियहयकुहए १२ छत्तीसगुणसमण्णा ३३ जइ नवि सक्कं काउं ६६ जइवि सयं थिरचित्तो ३८ जओ, सयरी भवन्ति ११० जत्थ जयारमयारं ९७ जत्थ मुणीण कसाया ६१ जत्थ य अज्जारकप्पो ३१८ पृष्ठ १५८ २७९ १८५ २९३ २९१ ३१३ १५७ २८१ १४६ १४२ १६६ १५८ २९१ २४४ ५६ १३५ १८४ १३९ २८१ २५१ १७३ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा नं. पृष्ठ गाथा नं पृष्ठ २४१ ९४ १४३ १५८ २८१ १३९ २९३ २९९ १७१ ३११ २७३ ३८ २७९ १२६ १३८ ९१ जत्थ य अज्जालद्धम् ६२ जत्थ य अज्जाहि समं १७७ १०८ जत्थ य अवस्सयाओ २८१ १०७ जत्थ य एगा खुड्डी १०९ जत्थ य एगा समणी . २८१ १३० जत्थ य गच्छे गोयम ! १११ जत्थ य गिहत्थभासाहिं २८१ १०१ जत्थ य गोयम ! पंचण्ह ६० जत्थ य जिट्ठकणिट्ठो १७२ १२३ जत्थ य थेरी तरुणी २९५ १०३ जत्थ य मुणिणो कय २७३ ७७ जत्थ य बाहिरपाणि २०३ ८९ जत्थ य वारडियाणं २४० ११७ जत्थ य समणीण २९२ ७९ जत्थ य सूलविसूइय ७२ जत्थ य संनिहिउक्खड ९६ जत्थ समुद्देसकाले ९० जत्थ य हिरण्णसुवण्णं ८८ जत्थ हिरण्णसुवण्णे ८३ जत्थित्थीकरफरिसं . ८५ जत्थित्थीकरफरिसं १२९ जत्थुत्तरपडिउत्तर २९९ १३ जह सुकुसलो वि विज्जो - ६० - ३३ जामद्धजामदिणपक्खं ... २४ १७ जीहाए विलिहतो ४३ जे अणहीअपरमत्थे ५५ जे अन अकित्तिजणए ३९ जो उ पमायदोसेणं ११८ जो जत्तो वा आओ ५८ तं पि न रूवसत्थं १३३ तम्मूलं संसारं ७ तम्हा निउण निहालेउं १०५ तम्हा सम्मं निहालेउं २७ तित्थयरसमो सूरी ३७ तीआणागयकाले १९ तुम्हारिसा वइ मुनिवर ६४ थेरस्स तवस्सिस्स व ९४ दढचारित्तं मुत्तं १३२ दंसणियारं कुणई ५७ दूरुज्झियपत्ताइसु १४ देसंणियारं कुणई ९८ धम्मंतरायमीए १२४ धोयंति कंठआओ १ नमिऊण महावीरं २० नाणम्मि दंसणम्मिय ___४२ निट्ठविअ अठमअट्ठाणे ५० पजलंति जत्थ धगधग ४९ पज्जलियं हुयवहं १८३ २४३ २०८ ३०१ १९५ १६७ २५१ ३०१ २४० २५७ २४० २९६ २२८ १०० १४२ १५६ १५१ ३१९ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा नं. १३६ पढंतु साहुणो एयं ४५ परमत्थओ विसं नो तं ४७ परमत्थओ न तं अमयं २१ पिंड उवहिं सिज्ज ७५ पुढविदगअगणिमारुअ ८१ पुफ्फाणं बीयाणं १२२ बहुसो उच्छोलिंती ८४ बालाए वुड्ढाए १६ बालाणं जो उ सीसाणं ८० बीयपणं सारूवि ५८. भट्ठायारो सूरी ९ भय केहि लिंगेहि ३६ भूए अत्थि भविस्संति ७३ मउए निहुअसहावे १३५ महानिसीहकप्पाओ १३१ माऊए दुहिआए १३४ मासे मासे उ जा अज्जा ७४ मुणिणं नाणाभिग्गह ८७ मूलगुणेहि विमुक्कं ११ मूलुत्तरगुणभट्ठ ८ मेढी आलंबणं खमं लीला अलसमाणस्स ४ ६३ वज्जेह अपम्मत्ता ७१ वायामित्तेण वि जत्थ पृष्ठ ३१३ १४६ १४९ ११४ ५९ २०२ ११६ वुड्ढाणं तरुणाणं २०९ २६ स एव भवसत्ताणं २९३ ४० संखेवेण मए सोम ! २२८ १५ संगहोवग्गहं विहिणा ७३ १० सच्छंदयारि दुस्सीलं २०८ १२६ "सज्झायमुक्कजोगा १३१ १२७ समा सीसपंडिच्छिणं ३९ ३५ सम्मग्गग्गसंपट्ठिआण १३८ ९ १२८ संविग्गा भीयपरिसा य १९५ ६७ सव्वत्थ इत्थिवग्गंमि ३१३ ६८ सव्वत्थेसु विमुत्तो २९९ ७० साहुस्स नथ लो ३११ १९५ २३७ ४० ३८ २४ १७८ १८८ गाथा नं ११९ विंटल आणि पवंजति २५ विहिणा जो उ चोएइ वीरिणं तु जीवस वेअण वेयावच्चे ६ २३ सीयावेइ विहारं ११३ सीवणं तुन्नाणं भरणं १०० सीलतवदाणभाव १८ ३२० ३२ सुद्धं सुसाहुमग्गं १०२ सुणारंभपवत्तं ८२ हांस खेड्डा कंदप्प N सीसो वि वेरिओ सो उ पृष्ठ २९३ १२५ ३४ १७१ २९२ १२६ १४० ७३ ४० २९६ २९८ १३७ २९८ १८५ १८५ १८६ १२० २८३ २७१ ९५ १३२ २७३ २१० Page #336 -------------------------------------------------------------------------- _