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________________ शक्तिवाळो रहे-हीन न थाय. वीर्यान्तरायना असाधारण क्षयोपशमथी बाहुबलिनी माफक वर्ष सुधी कार्योत्सर्गध्यानमां निश्चळ ऊभा रहे अथवा बेठा होय तो पण परिश्रम न लागे तेवी शक्ति कायलब्धि कहेवाय. श्रुतज्ञानावरण अने वीर्यान्तराय कर्मना उत्कृष्ट क्षयोपशमथी प्रगटेला असाधारण महाबुद्धिने अंगे मुनि द्वादशांगी के चौद पूर्व न भण्या होय तो पण चौदपूर्वधरनी माफक दुर्गम भावार्थो जाणी शके ते प्राज्ञश्रमण कहेवाय. अन्य विशेष भणेल होय अने पोते अल्प भणेल होय तो पण विद्यावेगने कारणे बीजाना वशमां न आवे ते विद्याधरश्रमण कहेवाय. ऊपर जणावेल अठ्ठावीश लब्धिओ पैकी केटली केटली लब्धि कोने होय ते जणावतां कहे छे के-भव्य पुरुषने अठ्ठावीश लब्धिओ होय. भव्य स्त्रीने (१) तीर्थंकर (२) चक्रवर्ती, (३) वासुदेव, (४) बळदेव, (५) संभिन्नश्रोतस्, (६) चारण, (७) पूर्वधर, (८) गणधर, (९) पुलाक अने, (१०) आहारक शरीरलब्धि- प्रमाणे दश लब्धिओ न होय, एटले अढार लब्धि होय छे. अनंतकाळे कोई कोई वखत अच्छेरारूपे स्त्री तीर्थंकर थाय छे, जेम के चालु चोवीशीना ओगणीशमा जिनेश्वर मल्लिनाथ, परन्तु तेने आश्चर्यमां गणवाथी स्त्रीने तीर्थंकरलब्धि न होय तेम दर्शाव्युं छे. अभव्य पुरुषने १५ लब्धि ज होय छे. ऊपर जणावेल दश लब्धिओ उपरांत (११) केवळी, (१२) ऋजुमतिमन: पर्यवज्ञान अने (१३) विपुलमतिमन: पर्यवज्ञान ए तेर लब्धि सिवायनी पंदर होय. अभव्य स्त्रीने १४ चौद लब्धिओ होती नथी अने चौद होय छे. ऊपर कहेल तेर लब्धिओ उपरांत (१४) मधुक्षीराश्रवलब्धि पण होती नथी. लब्धिओनुं विशेष स्वरूप प्रवचनसारोद्धार तेमज योगशास्त्रनी टीकामांथी जाणवुं. आव लब्धिवाळो शिष्य पण जो चारित्रमां दोष लगाडे तो तेने आचार्य दंड आपे. हजी पण शिक्षाप्रदान अने सद्गुणवर्णनवडे गच्छनुं स्वरूप कहे छे. जत्थ य संनिहिउक्खड - आहडमाईण नामगहणे वि । पूईकम्मा भीता, आउत्ता कप्पतिप्पे ॥ ७२ ॥ मउ निहुअसहावे, हासदवविवज्जिए विगहमुक्के | असमंजसमकरंते, गोअरभूमट्ठ विहरन्ति ॥ ७३ ॥ ari नाणाभिग्गह-दुक्करपच्छित्तमणुचरंताण । जायइ चित्तचमक्कं, देविंदाणं वि तं गच्छम् ॥ ७४ ॥ [ यत्र च संनिध्युपस्कृत- आहृतादीनां नामग्रहणेऽपि । पूतिकर्मणः भीता, आयुक्ताः कल्पत्रेपयोः ॥ ७२ ॥ मृदुका निभृतस्वभावा, हास्यद्रवविवर्जिता विकथामुक्ताः । असमञ्जसमकुर्वन्तः, गोचरभूम्यर्थं (गोचरभूम्यष्टकं विहरन्ति ॥ मुनीनां नानाभिग्रह- दुष्करप्रायश्चित्तमनुचरन्तानाम् । जायते चित्तचमत्कारो, देवेन्द्राणामपि स गच्छः ॥७४॥] गाथार्थ-जे गच्छमां रात्रिए अशनादि राखवामां तेम ज औद्देशिक, अभ्याहत, पूतिकर्म श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १९४
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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