SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥३ ।। जहठियदव्वं न याणइ सच्चित्ताचित्तमीसियं चेव । कप्पाकप्पं च तहा, जोगं वा जस्स जं होइ ॥४॥" जे अगीतार्थ होय अने पोतानो गच्छ वधारे ते तेमज अगीतार्थनी निश्राए पण जे रहे ते अनंतसंसारी थाय छे. गच्छने वधारतो उद्यमवंत अगीतार्थ अनंतसंसारी केम थाय? ते प्रश्नना जवाबमां कहे छे के-द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव, पुरिस, प्रतिसेवणा (कारणे दोष लगाडवो) आ छ प्रकार अगीतार्थ न जाणे,तेमज अपवाद अने उत्सर्ग मार्ग न जाणे, जेवा द्रव्य होय तेवा यथास्थित न जाणे, सचित्त, अचित्त अने मिश्र न जाणे, ‘आ कल्पे अने आ न कल्पे' ते पण न जाणे, जोग पण न जाणे-आ प्रमाणे ते पोते ज अज्ञानी होवाथी स्वयं अनंत संसारमा परिभ्रमण करे छे अने पोताना आश्रितने पण परिभ्रमण करावे छे. आवा अगीतार्थनो संग न करवो ते जणावतां कहे छे– अगीयत्थकुसीलेहिं, संगं तिविहेण वोसिरे । मुक्खमग्गस्सिमे विग्घे, पहम्मि तेणगे जहा ||४८ ।। [अगीतार्थकुशलैः, सङ्गं त्रिविधेन व्युत्सृजेत् । मोक्षमार्गस्येमे विघ्नाः, पथि स्तेना यथा ॥४८॥] गीतार्थ- मन, वचन अने कायाथी अगीतार्थ तथा कुशीलियानो संग सदा त्यजी ज देवो, कारण के चोर अथवा डाकुओ जेम मुसाफरीमां विघ्नकारक छे तेम ते पण मोक्षमार्गमां हानिकारक छे. विवेचन- पांच प्रकारना अगीतार्थ छे. पासत्थो, ओसन्नो, कुशीलियो, संसक्त अने यथाच्छंदनक. जेम त्राजवानी मध्य दांडी ऊंची करता आपोआप बन्ने बाजुना त्राजवा ऊंचा नीचा थाय ज छे तेम अहीं मुळगाथामा अगीतार्थ कशीलमध्यमां सुचववाथी स्वयमेव पूर्व अने पश्चिमना बे-बे अगीतार्थो ग्रहण कराई ज जाय छे. आ पांचे प्रकारना अगीतार्थोनो संग त्रिविधे त्रिविधे (मन, वचन, कायाथी करवं, करावq अने अनुमोद) कदापि करवो नहीं. श्रीमहानिशीथसूत्रना छठ्ठा अध्ययनमां का छे के-आंखो जेनी फूटी गई छे तेवी स्थितिमां लाख वर्ष रहेवू सारुं परंतु अगीतार्थनी पास एक क्षण (दश सेकंड) के अडधी क्षण पण न रहे. कोई शंका करवापूर्वक पूछे के पोताना गुरु पाछळथी पासत्था थई गया होय तो शिष्ये शुं करवू? आ संबंधमां श्रीउपदेशमालानी ३७६मी गाथानी हेयोपादेय नामनी टीकामां का छे के -“गीयत्थं संविग्गं, आयरियं मुयइ वलइ गच्छस्स । गुरुणो य अणापुच्छा, जं किंचि वि देइ गिण्हइ वा ॥१॥" मोक्षना अभिलाषी संविज्ञगीतार्थ आचार्यने विना कारण छोडे, गच्छनो त्याग करे,तेमज आज्ञा विना कंई पण दे अगर तो ले तो दोषभागी थाय; परंतु आ अगीतार्थनो त्याग करवामां दोषनो लेशमात्र संभव नथी. श्री स्थानांगजीना त्रीजा स्थानकमां पण का छे के-प्रमादी आचार्यनो त्याग करवो. आवा अगीतार्थ साधुओने चोर, लूटारा सरखा जणाव्या छे. एक नगरथी बोजा नगरे जतां रस्तामां डाकुओ मळे तो ते विघ्न करे अने संपत्ति होय तो लूटी ले तेम आ अलार्थ साधुरूपी चोरो मोक्षमार्गरूपी नगरमां पहोंचता उपद्रव करे छे अने शुद्ध धर्मरूपी आलि पनि लूंटी लई अगाध श्रीगच्छाचार–पयन्ना-१४९
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy