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________________ गर्जारव सांभळी सुसुप्त सिंह पण जागृत थई जाय तेम शेलक सचेत बन्या. अत्यार सुधीना पोताना प्रमादीपणानुं भान थयुं अने निश्चय कर्यो के प्रातःकाले मंडुकनी परवानगी लईने, पीठ-फलकादि पाछा सोंपीने अन्यत्र विहार करीश. आ प्रमाणे अनाचार पाळवो ते मारे माटे योग्य नथी. एक वखत भोगविलासोनो त्याग कर्या पछी पुनः तेनो भोगवटो करवो ते तो वमन करेला भोजननो पुन: आहार करवा जेवुं छे. आ प्रमाणे पोताना मनमां मक्कम निर्णय करीने, मंडुकने सर्व वस्तु सुप्रत करीने पोते पंथक मुनिनी साथे पूर्ववत् उग्र विहार करवा लाग्या. आ व्यतिकर अगाउ चाल्या गयेला ४९९ शिष्योना जाणवामां आव्यो एटले तेओ पण शेलकाचार्यनी पासे आव्या. शेलकाचार्ये पूर्वनी माफक उग्र तपश्चर्या शरू करी अने छेवटे श्रीपुंडरीकगिरि ऊपर आव्या. त्यां पादपोपगम अणशण करी, केवलज्ञान प्राप्त करी छेवटे मोक्षलक्ष्मीना भोक्ता थया. आ दृष्टांतनो मतलब ए छे के जेम पंथक प्रमुख उद्यमी, क्रियाशील अने चारित्रना खपी मुनिने जोईने शेलकाचार्यने पोताना प्रमादीपणा प्रत्ये तिरस्कार आव्यो, पोतानी भूल समजाई अने परिणामे सुखशीलपणुं त्यजी दईने पुन: संयमधर्ममां स्थिर थया. आ प्रमाणे सदाचारी गच्छमां वास करवाथी कदाच कर्मवशात् पतित थवानो प्रसंग प्राप्त थाय तो पण संसर्गथी अने बीजाने उद्यमवंत देखीने पोताना प्रमादीपणानो त्याग करवानुं बने छे, वीर्य उल्लसे छे अने क्रिया प्रत्ये रुचि जागे छे; परंतु जो भ्रष्टाचारी गच्छमां वास होय तो नीसरणीना पगथियांनी माफक एक पगथियेथी चूक्या के तरत ज अध:पतन थवा लागे छे, माटे सदाचारी गच्छनुं ज हंमेशां अवलंबन लेवुं. हवे वीर्योल्लास थवाथी शुं फलप्राप्ति थाय ते जणावतां कहे छे के वीरिणं तु जीवस्स, समुच्छलिएण गोअमा ! । जम्मंतरक पावे, पाणी मुहुत्तेण निद्दहे ॥ ६ ॥ [ वीर्येण तु जीवस्य समुच्छलितेन गौतम ! । जन्मान्तरकृतानि पापानि, प्राणी मुहूर्तेन निर्दहेत् ॥ ६ ॥ गाथार्थ - हे गौतम! जीवनो वीर्योल्लास वृद्धि पामतां ते जीव पूर्वना अनेक भवोमां उपार्जन करेल ज्ञानावरणीय प्रमुख अशुभ कर्मोने अंतर्मुहूर्त मात्रमां-बे घडी जेटला समयमां बाळीने भस्म करी नाखे छे. ६. - विवेचन – अज्ञानादिकने कारणे आ आत्मा कर्मबंधन कर्या करे छे. आ प्राणी संयोगाधीन छे, कारण के कहां पण छे के A man is the creature of circumstances. अनादि काळथी मोहराजाँए तेने प्रमादरूपी मदिरा पाई एवो मस्त बनाव्यो छे के तेने पोताना सारासारपणानुं हिताहितनुं भातुं ज नथी. आवी अज्ञानावस्थामां- भोगविलासमां राज्योमाच्यो रही ते कर्मोपार्जन करे छे अने परिणामे तेना माठां फळ भोगवे छे. आवी रीते अनेक भवोमां कर्मसंचय वधतो जाय छे, परंतु तेनो आत्मा जागृत बनी अपूर्व आत्मोल्लास - वीर्योल्लासपूर्वक धर्मानुष्ठानमां रक्त बने, धर्मरंग रगे-रग व्यापी जाय त्यारे ते आत्मा अनेक भवना संग्रहित करेला पापराशिने बे घडी जेटलाज समयमा दग्ध करी शकवा शक्तिमान बने छे. एटले दरेक प्राणीए आत्मवीर्य गोपववुं श्रीगच्छाचार - पयन्ना—- ३४
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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