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तेवामां इन्द्रने संशय उपज्यो के प्रभु तो हजु बाळक छे. आटलो बधो विपुल जळराशि केवी रीते ते सहन करी शकशे? जन्मथी जत्रण ज्ञानवाळा परमात्माए अवधिज्ञान द्वारा इंद्रनो संशय जाण्यो एटले पोताना वाम चरणना अंगूठाथी मेरुपर्वतने दबाव्यो के तरत ज चारे तरफ उत्पात मची गयो, जेम-के पर्वतना शिखरो पड़वा लाग्या, मेघगर्जनाओ थवा लागी, समुद्र प्रचंड नादपूर्वक उछळवा लाग्या, वायु झंझावातनी माफक फेलाई गयो, धरती धणधणी ऊठी. एटले प्रभुना जन्ममहोत्सवना पवित्र कार्य प्रसंगे आवो उपद्रव शो? एम विचारतां इंद्रे पोताना अवधिज्ञाननो उपयोग मूक्यो तेवामां प्रभुनी ज आ बधी चेष्टा-लीला जणाई. वीर परमात्माना अनन्त बळनी तेने खात्री थतां प्रभुने तेणे तुर्त ज खमाव्या अने अनंतबळी होवाथी तेमनुं महावीर एवं बीजुं नाम प्रसिद्धिमां मुक्यु.
कोई कदाच कहे के - बीजा तीर्थंकरोनो त्याग करीने महावीर भगवंतने ज नमस्कार करवानुं कारण शुं? आनो स्पष्ट खुलासो करतां कहे छे के वीर परमात्मा चालु चोवीशीना अंतिम तीर्थंकर हता अने आपणे तेमना शासनमा होईने तेओ आपणा अत्यंत उपकारी छे तेथी तेमने नमस्कार करवामां आव्यो छे. तेओ देवेश - इंद्रथी नमस्कार कराएल छे अने तीर्थंकरपणारूपी ऐश्वर्यना स्वामी होवाथी महात्मा पण कहेवाय छे. तेमने नमस्कार करीने पांच समिति, पालन करनार, त्रण गुप्तिने धारण करनार, छकायनी रक्षा करवामां तत्पर मुनिवरोना समुदायना आचार-गच्छाचारने हुं वर्णवीश. भगवान महावीरनी पाटे विराजित श्रीसुधर्मास्वामी आदि शिष्योए जे क्रियाकलापर्नु आचरण कर्यु अने पंचांगीमां जेनुं वर्णन करवामां आव्युं छे ते गच्छाचार कहेवाय. तेनो प्रकीर्णक-पृथक् करवू ते गच्छाचार-पयत्रो. आ अभिधेय नाम समजवू. कोई शंका करे के श्रीमान् भद्रबाहुस्वामी आदि पूर्वपुरुषविरचित गच्छाचारना ग्रंथो छे तो आ नवीन ग्रंथ रचवानुं कारण शुं? आनो उत्तर आपतां जणावे छे के ए ग्रंथो विस्तृत अने विद्वानोने गम्य छे. मंदबुद्धिवाळा-अल्पज्ञानी प्राणीओना माटे संक्षेपमां आ ग्रंथरचना करी छे. आ रीते ग्रंथ, प्रयोजन पण जणावी दीधुं; कारण के का छे के– “प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते ।” प्रयोजन विना मंदमतिवाळो मूर्खजन पण कोई कार्यमा प्रवृत्ति करतो नथी. संक्षेपमां रचवानुं कारण एछे के ते सुखपूर्वक भणी शकाय, ग्रंथ संक्षिप्त जाणी सांभळवावाळा लोको पण उत्सुक बने अने परिणामे ज्ञानलाभ थाय. कोई एवी शंका करे के - आ ग्रंथरचना तो नवी छे, सर्वज्ञभाषित नथी; माटे तेमा विसंवादपणुं-साचापणुं तथा झूठापणुं जाणी लोको तेनो सांभळवा तथा शिखवामां अनादर करशे. आ शंकाना परिहार माटे ग्रंथकर्ता कहे छे के - आ ग्रंथ श्रुतसमुद्रमांथी उद्धरवामां आव्यो छे–नवीन नथी, माटे तेमां विसंवादपणानी संभावना करवी नहिं. ___ आ प्रमाणे गाथाना पूर्वाद्ध-पहेला तथा बीजा पादवड़े मंगळ अने उत्तरार्ध त्रीजा तथा चोथा पादवड़े नाम, प्रयोजन अने अर्थसंबंधपण दर्शाव्या छे. प्रयोजन बे प्रकारना छे: एक अनंतरप्रयोजन अने बीजुं परंपरप्रयोजन. ए बन्ने पण बब्बे प्रकारनां छे. एक कर्तानी अपेक्षाए एटले कर्ताने अनंतर तेमज परंपरप्रयोजन अने श्रोता-सांभळनारनी अपेक्षाए अनंतर अने परंपरप्रयोजन. कर्ताने अनंतरप्रयोजन एटले शिष्योने संक्षेपथी गच्छाचारनो बोध कराववो [१] अने कर्ताने परंपरप्रयोजन
श्रीगच्छाचार-पयन्ना–५