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एटले बीजाने गच्छाचारनो उपदेश आपी सर्द्धममां जोड़वो. आवी जातना उपकारथी कर्म क्षय थाय छे अने छेवटे मोक्षसुखनी पण प्राप्ति थाय छे. [२] शिष्यने अनंतरप्रयोजन एटले ग्रंथना संक्षेपथी अल्पप्रयासे गच्छाचारनुं ज्ञान थाय. [१] जेवी रीते श्रीशय्यं भवसूरिए अल्पायुषी पोताना पुत्र मनक माटे दशवैकालिक सूत्रनी रचना करी, तेना द्वारा संक्षिप्तमां सघळो बोध समजाव्यो. अने शिष्यने परंपरप्रयोजन ते गच्छाचार जाणी अनाचार छोड़े अने तेवी शुद्ध आचरणाथी प्रांते तेने शिवसुखनी प्राप्ति थाय. [२] ग्रंथनुं नाम गच्छाचार कर्यु. नाम विना प्रयोजन होय नहिं, कारण के महात्मा पुरुषो विनां प्रयोजने प्रवृत्ति करता नथी.
आ पयन्नो गच्छाचार जाणवानो उपाय छे, तेना विना गच्छाचार जाणवामां न आवे तेथी गच्छाचार जाणीने अंगीकार करे ते उपेय छे. ग्रंथांतरमां तेने प्रतिपाद्य अने प्रतिपादक कहेवामां आवे छे. प्रयोजन अने संबंधने प्रकारांतरे भिन्नपणुं जुदापणुं होय छे. कह्यं छे केसमबन्धः प्रोक्त एव स्यात्, एतस्यैतत् प्रयोजनम् । इत्युक्तेन तन्नो वाच्यो, भेदेनासौ प्रयोजनात् ॥ १ ॥
यस्याः पादे प्रथमे, द्वाद्वशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि । अष्टादश द्वितीये, चतुर्थके पञ्चदश सार्या ॥ १ ॥
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श्रुतसमुद्रमांथी 'गच्छाचार - पयन्नो' उद्धरुं छं एम कहेवाथी शिष्यने गुरुपरंपरा दर्शावे छे. प्रथम श्रीवीर परमात्माए आ गच्छाचार प्रतिपादन कर्यो, श्रीसुधर्मास्वामीए तेने द्वादशांगीमां सूत्ररूपे गूंथ्यो. बाद श्रीभद्रबाहुस्वामी प्रमुखे तेने बृहत्कल्पादिकमां दाखल कर्यों अने ते ते ग्रंथोमांथी उद्धरीने संक्षेपथी मंदबुद्धिवाळाओ माटे रच्यो. एटले परंपराए आ ग्रंथना कहेनारा सर्वज्ञ परमात्मा ज छे. एटले आ प्रकीर्णक अवश्य ग्रहण करवा योग्य - आदरवा योग्य छे. आ पयन्नाना मूळश्लोक आर्या छंदमां छे, तेथी तेनुं लक्षण नीचे प्रमाणे जगावे छे
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आर्या छंदा प्रथम पादमां बार मात्रा होय, त्रीजामां पण बार होय, बीजामां अढार अने चोथामां पंदर मात्रा होय छे. आ आर्या छंदने प्राकृतमां “ गाथा" कहेवामां आवे छे.
श्रीगच्छाचार - पयन्ना - ६
संसारने असार-दुःखरूप जाणी, मातपिताना वात्सल्यने तिलांजलि दई, संसारजन्य कष्टोने दूर करवा माटे तेमज इहलोक अने परलोक साधवा माटे जेओ साधुपणुं अंगीकार करे छे तेओनो जे गच्छ ते सुविहित गच्छ जाणवो. ते गच्छमां (सारणा वारणा) चोयणा, पडिचोयणा इत्यादि होय अने शिष्यवर्गने शुद्ध आचरणमां प्रवर्तावे. आवा सुविहित गच्छमां ज वास करवो योग्य छे; कदापि असदाचारी भ्रष्ट गच्छमां निवास करवो नहि. जे गच्छमां साधु परिग्रह अने आरंभमां आसक्त होय, नित्य अनाचार सेवता होय, गृहस्थो पासे कार्य करावता होय, गृहस्थो साथे आलाप-संलाप करवाने कारणे पड़िलेहणादि आवश्यक क्रिया करवामां प्रमादी बनी जता होय तेवो गच्छ असदाचारी - भ्रष्ट कहेवाय. तेनो तो सदैव त्याग ज करवो जोईए. आ संबंधमां टूंका टूंका दश दृष्टांतो आपवामां आवे छे.