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________________ पण जे त्रण जगतना भावाने पोतानी हथेलीमां रहेला जळबिंदुनी जेम समये समये जाणे छे तेवा केवळी भगवंत पण उपर्युक्त गुणशाळी गीतार्थ मुनि साथे विचरे ते ज खरेखर आश्चर्यकारक घटना छे. हवे केवा साधुओ साथे विहार न करवो ते जणावे छे जे अणही अपरमत्थे, गोअमा ! संज तम्हा ते वि विवजिज्जा, दुग्गइपंथदायगे ॥४३ ॥ [ येऽनधीतपरमार्था, गौतम ! संयता भवन्ति । तस्मात्तानपि विवर्जयेत्, दुर्गतिपथदायकान् ॥ ४३ ॥] गाथार्थ - हे गौतम! संयममां वर्ततां छतां जेणे शास्त्रनो परमार्थ जाण्यो नथी अने तेने परिणामे जे प्राणिओने दुर्गतिना मार्गे दोरी जाय छे तेवा अगीतार्थ साधुथी सदंतर वेगळा ज रहेवुं. विवेचन— आगमना रहस्य केटला प्रकारना छे ते संबंधी श्रीआचारांगसूत्रना चोथा अध्ययनमां कह्यं छे के–“जे आसवा ते परिस्सवा १, जे परिस्सवा ते आसवा २, जे अणासवा ते अपरिस्सवा ३, जे अपरिस्सवा ते अणासवा ४ ।। " जेनाथी आठ प्रकारनां कर्मों बंधाय ते आश्रव कहेवाय, अने काणा घडामांथी जेम पाणी झरे तेम कर्म झरे तेने परिश्रव कहीए. जे आश्रव छे ते परिश्रव छे, १, जे परिश्रव छे ते आश्रव छे २, जे अनाश्रव छे ते अपरिश्रव छे ३ अने जे अपरिश्रव छे ते अनाश्रव छे ४. तेनो परमार्थ एछे के – (१) गृहस्थ जेम माला, पुष्प, चंदन, विलेपन, स्त्री तेमज भोगोपभोगना पदार्थोने सुखनुं कारण जाणी तेमां ज रक्त रहे तो ते आश्रव छे, ज्यारे तत्त्वना जाणारा कर्मबंधनाते ज कारणो असारभूत जणाय छे अने विरक्ति पामे छे एटले निर्जराना स्थानक थाय छे. (२) जैन मुनिनो तप, चारित्र तथा दशविध चक्रवाल सामाचारी इत्यादिक निर्जराना कारण छे परंतु कोइक अशुभ अध्यवसायवाळाने अशुभ कर्मना उदयथी मिथ्या परिणाम थाय तो ते संवर घणो करे छे तो पण मन व्याकुळ होवाथी आश्रव करे छे. (३) जेमां अनाश्रव थाय - कर्मबंध न थाय तेवा महाव्रतादिकने विषे पण अशुभ कर्मोदयथी अध्यवसाय बदलाय त्यारे ते तेने कर्मबंधनुं कारण था. दृष्टांत तरीके- प्रसन्नचंद्र राजर्षि. प्रसन्नचंद्र राजर्षि काउस्सग्ग ध्यानमां स्थित रह्या छे तेवामां दुर्मुख नामनो दूत त्यांथी निकळ्यो अने बोल्यो के–“तमारा बाळपुत्रनुं राज्य झंटवी लेवामां आव्युं छे.” आ वचन सांभळतां ज पोतानी मुनि अवस्थानुं विस्मरण थई जवाथी तेनी ते स्थितिमा शत्रुराजा साथे मानसिक युद्ध करवा लाग्या. आ प्रमाणे पंचमहाव्रतधारी होवा छतां अशुभ अध्यवसायथी तेमने कर्मबंध थयो. (छेवटे तो पाछी विचारधारा बदलाई अने क्षण मात्रमा सकल कर्मनो क्षय करी केवलज्ञान प्राप्त कर्यु.) (४) कर्मबंधना कारण होवा छतां कर्मबंध न थाय. दा. त. शासननी हीलना अटकाववा माटे कणेरनी कामडी फेरवनार लघु शिष्य अथवा शासननी उन्नति करवा माटे करातो प्रयास. परंतु तेमां पोतानी पूज्यता के महत्तानो अंश मात्र रह्यो होय तो अवश्य पापबंध थाय. आवा प्रकारना आगमना रहस्यने जे जाणे नहीं तेने अगीतार्थ जाणवो. वळी श्रीगच्छाचार- पयन्ना— १४२
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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