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यत्र च एकाकिनी श्रमणी, एकाकी साधुश्च जल्पते सौम्य ! | निजबन्धुनापि सार्धं, तं गच्छं गच्छगुणहीनम् ||१०९ ।। यत्र जकारमकांर, श्रमणी जल्पति गृहस्थप्रत्यक्षम् । प्रत्यक्षं संसारे, आर्या प्रक्षिपति आत्मानम् ॥ ११० ॥ यत्र च गृहस्थभाषाभिः, भाषते आर्या सुरुष्टाऽपि । तं गच्छं गुणसागर !, श्रमणगुणविवर्जितं जानीहि ॥ १११ ॥ गणिन् गौतम ! या उचितं, श्वेतवस्त्रं विवर्ज्य | सेवते चित्ररूपाणि, न सा आर्या व्याहृता ॥ ११२ ॥]
गाथार्थ-जे गच्छनी अंदर रात्रिये एकली साध्वी बे हाथप्रमाण भूमि उपाश्रयनी बहार जाय ते गच्छनी मर्यादा केवी होय ? अर्थात् न ज होय. हे सौम्य गौतम ! जे गच्छनी अंदर एकाकी साध्वी पोताना बंधु मुनि साथे चाले अथवा तो एकलो साधु पोतानी भगिनी साध्वी साथे वातचीत करे ते गच्छने तारे गुणहीन समजवो. जे गच्छनी अंदर साध्वी गृहस्थ सांभळतां जकार, मकार विगेरे (शासननी होलना थाय तेवां) अवाच्य शब्दो बोले ते वेषविडंबक साध्वी पोताना आत्माने चतुर्गतिरूप संसारमा भमाडे छे. वळी जे गच्छमां अतिशय क्रोधाग्निथी प्रज्वलित थयेली साध्वी गृहस्थना जेवी सावद्य भाषा बोले छे-क्लेश करे छे ते गच्छने हे गौतम! तारे साधुगुणथी रहित जाणवो. हे गौतम! जे साध्वी योग्य श्वेत- मानोपेत वस्त्र तजीने विविधरंगी, भरत विगेरेथी विभूषित वस्त्र वापरे छे ते साध्वी नहीं पण शासननी हीलना करावनारी वेषविडंबिनी जाणवी.
विवेचन - साध्वीने रात्रिए उपाश्रयथी बहार निकळवानो निषेध कर्यो छे तेनुं कारण ए छे के-परस्त्रीरमण करनारा लोको साध्वीने एकली देखीने हरी जाय, राजा एकलो नगरचर्चा जोवा निकळ्यो होय अने साध्वीने उपाश्रय बहार एकली जुए तो तेने कुशंका थाय. वळी चौरादिक निकल्या होय तेओ पण तेना वस्त्रादिक खेची जाय, पूर्वना भोग याद आव्या होय तो गुरुणी के वडील साध्वीने पूछ्या विना एकांतमां चाली जाय, परिणामे शासननी अपभ्राजना थाय माटे हे गौतम ! रात्रे एकली साध्वी उपाश्रयनी बहार निकळे ते गच्छने हुं मर्यादावाळो कहेतो नथी.
सगा भाई बहेन पण जो दीक्षित थया होय तो भाई पोतानी बहेन साथे के बहेन पोताना भाई साथे एकांतमां बातचीत करे तो तेने पण भ्रष्ट समजवा; कारण के परस्पर वार्तालापथी दोषोत्पत्ति थाय छे. कंदर्प महादुष्ट छे, ते प्राणीनां छिद्रो जोया करे छे अने लाग मळतां पोतानुं शस्त्र नवळा मनना प्राणी ऊपर अजमावे छे. परस्पर वार्तालापथी क्यां दोषो थाय ते संबंधे कह्यं छे के
संदंसणेण पीई, पीईउ रई रईओ वीसंभो । वीसंभाओ पणओ, पंचविहं वड्ढए पिम्मं ॥ १ ॥ जह जह करेसि नेह, तह तह नेहो भिवड्ढइ तुमंमि । तेनडिओ बिलियं, जं पुच्छसि दुब्बलतरोसि ॥ २ ॥
श्रीगच्छाचार- पयन्ना- २८१