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रमणीय स्थानोथी शोभित तुंगिया नगरीमा क्षमावंत, दयावंत, इंद्रियोने जीतनार, पांच समिति तथा त्रण गुप्तिना धारक, अढार हजार शीलांगना धरनार - ब्रह्मचर्य पाळनार, ममता अने कंचन रहित, एकांते रहेनार, मिथ्यात्वग्रंथीने छेदनार, आश्रवनो रोध करनार, पापरूप लेप रहित, शंखनी माफक निरंजन - राग रहित, जीव जेम कोई स्थळे न रोकाय तेम अप्रमत्त विहार करनार - आ प्रमाणे अनेक गुणोवाळा एक साधु मध्याह्नसमये गोचरी अर्थे भ्रमतां भमतां एक श्रावकने घेर गया. मुनिने आवेला जो श्राविका घणो हर्ष पामी अने वहोराववा अर्थे आहार लेवा रसोडामां गई तेवामां नजर करतां द्वार नीचुं जोईने मुनिवर्य आहार ग्रहण कर्या विना ज चाल्या गया. श्राविका बहार आवी जुए छे तो साधु न मळे; तेथी ते घणो ज अफसोस करवा लागी तेवामां एक बीजा साधु आवी चढ्या. तेमने आहार वहोरावीने श्राविकाए तेमने पहेला साधुनो समग्र वृत्तांत कही 'तेमणे न वहोरवानुं अने वहोरवानुं' कारण पूछ्युं. जवाबमां ते बीजा साधुए कह्यं के— 'जगतमा दंभी लोको घणा छे. ते ओ भोळा लोकोने ठगे छे. आ प्रमाणे एक घरे वहोरे अने एक घरे न वहोरे एटले जगतमां जश प्रसरे के 'अमुक साधु तो घणा ज शुद्ध चारित्रपात्र छे,' परंतु हुं तो ढोंगने तिरस्कारुं छं एटले जे स्थळे जेवी गोचरी मळे तेवी ग्रहण करी लउं छु' बीजा मुनिनी आवी वात सांभळी श्राविका घणी दुःखी थई विचारवा लागी के - 'साधु-साधु वच्चे पण संप नथी. एक बीजानी निंदा करे छे.' आ प्रमाणे विचारे छे तेवामां त्रीजा साधु आवी चढ्या. तेमने पण गोचरी वहोरावीने श्राविकाए उपर्युक्त बने साधुओनी हकीकत कही कारण पूछ्युं. जवाबमां त्रीजा मुनिए कहां के - 'हे श्राविका ! तमारा रसोडानुं द्वार नीचुं छे अने प्रकाश आवतो नथी तेथी प्रथम साधुए आहार वहोर्यो नथी, कारण के कह्यं छे के–“नीयदुवारं तमसं, कोट्ठगं परिवज्जए । अचक्खूविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ॥१ ॥” जे घरमां द्वार नीचुं होय, अंधकार होय, कोठार होय ते घरमा साधुए गोचरी माटे न जवुं कारण के तेवा गृहमां आंखथी बराबर देखातुं न होवाथी जीवोनी जयणा थती नथी.' श्राविकाए तेमने पुन: पूछ्धुं के—'तो पछी तमोए शामाटे आहार ग्रहण कर्यो ?' मुनिए उत्तर आप्यो के-'हुं तो मात्र वेशधारी छु, माराथी साध्वाचार पळातो नथी. मारुं जीवितव्य निष्फळ छे. प्रथम मुनिने धन्य छे ! ते मुनिना आचार पाळे छे अने महातपस्वी पण छे.' आ प्रमाणे कहीने ते त्रीजा साधु पण गया. आज दृष्टांत धन्यकुमार चरित्रमां पण आपेल छे परंतु तेमां फेर एटलो ज छे के - ऊपर जे बीजा साधु छे ते त्यां त्रीजा तरीके वर्णव्या छे. आ कथानो उपनय ए छे के प्रथम साधु शुक्लपाक्षिक हंस जेवा छे. हंसनी पांखो बने बाजु श्वेत होय छे तेम शुक्लपाक्षिक साधु बाह्य अने अभ्यंतर निर्मळ होय छे. बीजा साधु कृष्णपाक्षिक कागडा जेवा छे. कागाडानी पांख बने बाजु श्याम होय छे तेम कृष्णपाक्षिक साधु बाह्य अने अभ्यंतर मलिन होय छे. त्रीजा संविज्ञपाक्षिक साधु चक्रवाक पक्षी जेवा होय छे. तेनी पांख ऊपरथी मलिन होय छे पण अंदर श्वेत होय छे तेनी जेम साधु बाह्यथी शुद्धाचारहीन होय छे पण तेनुं अंत:करण निर्मळ होय छे. एटले ज ग्रंथकारे आ गाथाना अर्थमां तेने त्रीजी कोटिमां जणावेल छे. कोईथी शुद्ध चारित्र न पाळी शकाय तो तेणे शुं करवुं ? ते संबंधी
श्रीगच्छाचार - पयन्ना— १३४
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