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चित्र नजर सन्मुख खडुं थाय छे. जनता पोताना आवासमांथी वर्षाकाळनं आ हृदयंगम दृश्य निहाळी रही छे. पौषधशाळाना मकानमांथी बाळसाधु अतिमुक्तकनी दृष्टि पण आ तरफ स्वाभाविक खेचाय छे. घडीभर स्वाध्याय बाजु पर मूकी उपाश्रयमांथी नीचे उतरे छे अने पाणीना वह्या जतां प्रवाह पर नजर मंडाय छे. वरसाद अटकतां जाणे कारागृहना बंधनमांथी छूट्या होय एम नानी वयना केटल य बाळको घरमाथी बहार आवी, पाणीना नाना नाना खाबोचीयामां कागळनी होडीओ बनावी सागरमां वहाण हंकार्या तुल्य आनंद माणी रह्यां छे. आ दृश्य जोतां ज अतिमुक्तक मुनिवर पण बाळवयनी ऊर्मि जागृत बनतां ज समान वयना शिशुओनी साथे शरत करी काचलीनी होडी तराववामां लीन बने छे. पोते कई कक्षामां वर्ते छे, पोते सचित्तना त्यागी साधु छे ए वात तद्दन स्मृति बहार जाय छे. आ समये ज्ञानी सिवाय, कोण जाणी शके तेम छे के जळमां काचलीनुं नाव तरावनार आ बाळसाधु अल्प काळ पछी संसारसागरमा आत्म- नाव तरावी आत्मसिद्धि प्राप्त करनार छे ! अज्ञानी जनता तो उघाडी आंखे जोई रही छे के – मुनिपणाने न छाजे, एमां दूषण लागे तेवुं अतिमुक्तकनुं वर्तन छे.
उपाश्रयनी बारीएथी जोई रहेला श्रीगौतमस्वामीनी दृष्टि अकस्मात् आ लघु शिष्य पर पडी. तरत ज तेओश्री त्यां जई पहोंच्या. गुरुश्रीने जोतां ज अतिमुक्तक शरमाया. उभय प्रभु श्रीमहावीरदेव समीपे गया.
ज्यां प्रवेश करी ईर्यापथिकी पडिकमवा लाग्या त्यां अतिमुक्तक साधुए 'दगमट्टी दगमट्टी' ए पदना अर्थमा पुष्कळ विचारणा करी. पोते साधु जीवनना सूत्रोने अभराई ऊपर चढावी, नाव तराववामां हमणां ज पाणी तथा माटीना जीवाने जे किलामणा पहोंचाडी छे ए आखुं य दृश्य चक्षु सामे खडुं करी एनी साचा मनथी क्षमापना आरंभी. खरूं ज कह्यं छे के– 'मन एव मनुष्याणां, कारणं बंधमोक्षयोः ।' कर्मबंध के मुक्तिनुं कारण मनुष्य मात्रने पोतानुं एक मन ज छे.
‘दगमट्टी' नी विचारणामां ने विचारणामां ज अतिमुक्तक मुनि लयलीन बनी गया. विचारधारा वी एकाग्र बनी गई के पोतानी आसपास शुं चाली रह्यं छे तेनुं पण तेमने भान न रह्यं पश्चात्तापनो पावक विशेष प्रदीप्त थयो अने ए पावकनी ज्वाळामां कर्मसमूह दग्ध थवा लाग्यो. छेवटे क्षपकश्रेणीनुं अवलंबन ग्रहण करी, सकल कर्मनो क्षय करी अल्पकाळमां केवळज्ञान प्राप्त कर्यु. समीपस्थ देवोए तेमनो केवळज्ञान महोत्सव कर्यो. जे तीव्र कर्मों कोटि जन्म सुधीना तीव्र तपथी बाळी शकाता नथी ते अर्धी क्षणमा आत्मभावनारूपी तीव्र तपबळ ने समतानुं अवलंबन लई बाळी शकाय छे.
बाद अतिमुक्तक केवळीए पृथ्वीतळ पर विहार करी, घणा भव्य जीवोने उपदेशवारिथी सिंचित करी, अधोगतिमां पडतां अटकावी तेओनो उद्धार कर्यो. आवी रीते विचरतां विचरतां, जुदा जुदा गाम-नगरोमां फरतां फरतां सूर्यपुर समीप आवी ते नगरना बहारना उद्यानमां समवसर्या. जितशत्रु राजा श्रेष्ठ जन समूहयुक्त आवी, प्रदक्षिणा दई, वंदन करी, धर्मश्रवण करवा बेठो मुनिना मुखद्वारा उपदेशधारा वहेवा लागी– “ज्यां लगी आ देह स्वस्थ छे अने वृद्धावस्था आवी नथी तेमज इंद्रियो
श्रीगच्छाचार - पयन्ना- ७९