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शिथिल थई नथी ने आयुष्यनो अंत आव्यो नथी त्यां सुधीमां आत्मकल्याण अर्थे हे भव्यो ! जरूर यत्न करो. आग लाग्या पछी कूवो खोदवो जेम मूर्खतानुं कारण छे तेम आ स्थिति पलटाया पछी-बाजी हाथमांथी गया पछी-उद्यम शुं कामनो? जेने तमो पोताना मानो छो ते तमारा रहेवाना नथी. लक्ष्मी चंचळ छे, क्षणभंगुर छे, आयुषनो भरोसो नथी, देह व्याधिग्रस्त क्यारे बनशे ते जाणी शकाय नहीं, पुत्र पत्नी आदि परिवार पण स्वार्थपरायण छे. आवा असार संसारमाथी साररूप संयमर्नु ज ग्रहण करवू ते सर्व श्रेष्ठ छे.” __ प्रतिष्ठासंपन्न अने अतिशयताने वरेला अतिमुक्त केवळीनी देशना फळवती बने एमां शुं आश्चर्य? केटला य भव्यात्माओए साधुधर्मनो स्वीकार को. बीजाओए बार व्रतयुक्त श्रावकधर्मनो स्वीकार को. आत्मकल्याणनी आवी केटली य परंपरा प्रवर्तावी प्रांते अतिमुक्तकुमारे मुक्तिपुरीमां पगलां कर्या.
श्रीअंतकृत्दशांग सूत्रना छठ्ठा वर्गमा एमनो १५मो अधिकार छे. तेमां अंतकृतकेवळी थईने मोक्षे गयानु कहेलुं छे. तत्त्व केवळीगम्य. बालवयमां भागवती दीक्षा स्वीकारी, इरियावही पडिक्कमतां ज जेमणे केवळज्ञान प्राप्त कर्यु ते महात्मा अतिमुक्तकुमारने अनेकश: वंदन हो ! श्रीवज्रस्वामीनुं वृत्तांत
सुप्रसिद्ध मालव देशमां तुंबवन नामनुं नगर हतुं. ते नगरने विषे धन नामनो व्यवहारविचक्षण अने श्रद्धाळु श्रावक वसतो हतो. तेने धनगिरि नामनो सद्गुणी पुत्र हतो. सत्समागमने कारणे धनगिरिनुं मन प्रथमथी ज वैराग्य प्रति ढळेलुं हतुं परंतु युवावस्थाना आंगणामां प्रवेश करतां ज पिताना आग्रहथी सुनंदा नामनी सुशील सुकन्या साथे पाणिग्रहण कर्यु. सुनंदाना भाई आर्य समिते संसारनी विलक्षणता निहाळी संयम स्वीकार्यु हतुं.
"कार्येषु मंत्री करणेषु दासी" नी माफक बनेनो संसार सुखपूर्वक चालवा लाग्यो. धनगिरि साथे संसारसुख भोगवता सुनंदा सगर्भा बनी. तिर्यग्नुंभक देवनो (जे देवे अष्टापद पर्वत पर श्रीगौतमस्वामीना मुखद्वारा पुंडरीक अध्ययन सांभळ्युं हतुं तेनो) जीव च्यवीने सुनंदानी कुक्षिमां अवतो. उत्तम गर्भना प्रभावथी सुनंदा धर्मकरणीमा अतिशय आसक्ति धरवा लागी. तेने उत्तम प्रकारना दोहदो उपजवा लाग्या, जे सर्व धनगिरिए पूर्ण कर्यां.
पोतानी भार्याने सगर्भा निहाळी धनगिरिनो अत्यार सुधी सुषुप्त रहेलो वैराग्यभाव जागृत बन्यो. एकदा प्रसंग जोई तेणे पोतानी प्रियाने का के–“हे सुलक्षणी ! तारुं अने तारा गर्भनुं कल्याण थाओ. तारा जीवनना आधाररूप संताननी तने प्राप्ति थई चूकी छे. हुं हवे मारूं आत्महित साधवा तारा भाई आर्यसमित्ते जेमनी पासे दीक्षा ग्रहण करी छे ते श्रीसिंहगिरि पासे सर्वविरति स्वीकारीश."
सुनंदाए घणा आग्रहपूर्वक आजीजी करी छतां अमृतपाननी इच्छावाळो धनगिरि तेणीना वचनरसमां आर्द्र न बन्यो. पत्नीने विशेष समजावतां छेवटे तेणे अनुमति आपी अने धनगिरिए चारित्र ग्रहण कर्यु.
श्रीगच्छाचार-पयन्ना-८०