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________________ चार भाग अने एक भाग खाली. अत्यंत उष्णकाळमां बे भाग पाणी, त्रण भाग आहार अने एक भाग खाली अने मध्यम उष्णकाळमां बे भाग जळ, त्रण भाग आहार अने एक भाग खाली राखवो. आ प्रमाणे आ सत्तावनमी गाथामां कुशळ मुनि निर्दोष आहार स्वीकारे तेम दर्शाव्यं पण आहार रूप, रस विगेरेनी वृद्धि माटे करवानो नथी ते माटे जाणवो छे के तंपि न रुवरसत्यं, न य वण्णत्थं न चेव दप्पत्थं । संजमभरवहणत्थं, अक्खोवंगं व वहणत्थम् ॥ ५८ ॥ [ तमपि न रूपरसार्थं, न च वर्णार्थं न चैव दर्पार्थम् । संयमभरवहनार्थं, अक्षोपाङ्गमिव वहनार्थम् ॥५८॥] गाथार्थ - ऊपर कह्यो निर्दोष आहार पण रूप तथा रसने माटे नहीं, शरीरनी कान्ति वधारवा माटे नहीं, काम-विषयवासनानी वृद्धि माटे नहीं परंतु अक्षोपांगनी माफक चारित्रनो भार वहन करवा निमित्ते शरीरने धारण करवा माटे ग्रहण करे. विवेचन - आहार करवाथी शरीरनी कांति वधशे, इंद्रियो सशक्त थशे तेवी इच्छाथी पण निर्दोष आहार न करे परंतु शरीर शक्ति हशे तो ईर्यासमिति आदि पाळी शकाशे, संयमनुं आराधन करी शकाशे एवी इच्छामात्रथी आहार करे. गाडाना पैडानी मध्यमां नाभिनी धरीमां माखण अगर तो जे तेल मूकवामां आवे छे तेथी गाडुं सुखपूर्वक चाली शके छे अने भार वहन थाय छे तेम आ शरीररूप शकटमा संयम - भार वहन करवाने माटे माखण अगर तेलरूप आहार स्वीकार्या विना चाले नहीं. जो देहने आधाररूप आहार न लेवाय तो दशविध सामाचारी न पळाय, स्वाध्याय ध्यान न थाय. आ प्रमाणे संयमना निर्वाहार्थे आहार लेवो उचित छे परंतु रूप, रसनी वृद्धि माटे लेवो नहीं. हवे या छ कारणथी साधु आहार स्वीकारे ते कहे छे वेण १ वेयावच्चे २, इरिअट्ठाए य ३ संजमट्ठाए ४ । तह पाणवत्तिआए ५, छट्टं पुण धम्मचिंताए ॥५९ ॥ [वेदनावैयावृत्त्ये- र्यार्थं च संयमार्थम् । तथा प्राणप्रत्ययार्थम् षष्ठं पुनो धर्मचिन्तार्थम् ।। ५९ ।।] गाथार्थ - क्षुधावेदना शमाववा, गुरु, बाल, ग्लान, वृद्ध तथा तपस्वी साधुनी वैयावच्च करवा, ईर्यासमिति जाळववा, संयम निर्वहवा, जीवितने राखवा तथा धर्मचिन्तन करवा माटे साधु आहार ग्रहण करे. विवेचन-‘नास्ति क्षुत्सदृशी वेदना' जगतमां भूखनी वेदना जेवी बीजी एक पण पीडा नथी. कह्यं छे के - “पंथसमा नत्थि जरा, दारिद्दसमो अ परिभवो नत्थि । मरणसमं नत्थि भयं, छुहासमा वेयणा नत्थि ॥१ ॥ तं नत्थि जं न वाहइ, तिलतुसमित्तंपि एत्थ कायस्स । सन्निज्झं सव्वदुहाइ दिति आहाररहिअस्स ||२ ||” चालवु- परिभ्रमण करवुं ते समान वृद्धावस्था नथी दारिद्रय समान कोई श्रीगच्छाचार - पयन्ना - १७०
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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