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________________ २, पच्चत्थिमे णं जाव थूणाविसयाओ एत्तए ३, उत्तरे णं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए ४, एतावता व कप्पड़ एत्तावता व आयरियखेत्ते णो से कप्पड़ एतो बाहिं तेण परं जत्थ णाणदंसणचरित्ताइं उस्सप्पंति । " साधु या साध्वीने पूर्व दिशामां अंग तथा मगधदेश सुधी विचरकुं कल्पे, दक्षिण दिशामां कौशांबी नगरी सुधी, पश्चिम दिशामां थुणानी सीम सुधी अने उत्तर दिशामां कुणालानी सीम पर्यंत विहार करवी कल्पे. आटलुं ज आर्यक्षेत्र होवाथी तेमां विचरतुं, परन्तु तेथी विशेष क्षेत्रमां नहीं कारण के ते अनार्यक्षेत्र छे. अपवादमार्गथी तो जणाव्युं छे के जो ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी वृद्धि थती होय तो आर्यक्षेत्र उपरांत पण विहार करवो. आ प्रमाणे बृहत्कल्पसूत्रना पहेला उद्देशामां जणावेल छे. आ बाबतमां शंका करतां कोई कहेशे के-आ मासकल्पी विहार तो चोथा आरामां हतो, हमणा तो नथी. तेने जवाब आपतां श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजा पोताना पंचस्तु ग्रंथनी टीकामा 'निरंतरनी क्रिया' नामना द्वारमा पडिलेहण तथा प्रमार्जनाना अधिकारमां जणावे छे के- “अवलंबिऊण कज्जं, जं किंचि समायरन्ति गीअत्था । थोवावराहबहुगुण, सव्वेसिं तं पमाणं तु ।।१।।” आगमना ज्ञाता गीतार्थ आचार्य कोई महाकार्यने अंगे अल्प दोष अने बहु गुणनो संभव जाणीने जे आचरण करे ते सर्व जिनमतानुयायीओए प्रमाणभूत मानवुं जोईए. कहेवानो आशय ए छे के-कोई एक गच्छमां विद्वान् साधु भणवाना उधमवाळा छे. हवे जो ते मासकल्पी विहार करे तो तेना अध्ययनमां अंतराय पडे तेथी गीतार्थ आचार्य तेने मास उपरांत रहेवानी अनुज्ञा आपे. आ आचरणमां दोष अल्प छे अने गुण विशेष छे एटले तेने प्रमाणभूत मानवुं; कारण के श्रीजिनेश्वर भगवंतनो मार्ग तो उत्सर्ग तेमज अपवादरूप छे; पण तेनो अर्थ एवो नथी के मासकल्पी विहार न करवो. अपवाद तो कारणरूप छे; अने तेने जे ते गीतार्थ वारंवार अंगीकार कर्या करे तो ते जोईने अन्य गीतार्थो पण तेनुं अनुकरण करे अने उत्सर्गमार्गनुं उत्थापन थाय. आ ऊपरथी साबित थाय छे के-श्रीहरिभद्रसूरिजीना समयमां (स्वर्गवास वी. सं. १०५५) पण मासकल्पी विहार हतो. हवे गीतार्थनिश्राए विहार करवा संबंधी वर्णन करतां कहे छे के- “गीअत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिओ । इत्तो तइयविहारो, नाणुन्नाओ जिणवरेहिं ।। १ ।। ” १. गीतार्थ जेणे सूत्रनो अर्थ रूडी रीते जाण्यो छे ते जिनकल्पी मुनिनो पोतानी इच्छामां आवे ते प्रमाणे विहार, २ गीतार्थ निश्रित एटले आचार्य, उपाध्याय आदिनी आज्ञामां रहीने, गच्छमां वसीने करवानो विहार. आ बने प्रकारना विहार उपरांतनो त्रीजो एटले स्वच्छंदाचारी, अगीतार्थ, पासत्थादिकनी जेम विचरे ते विहारनो श्रीजिनेश्वरभगवंतोए निषेध करेल छे. नियुक्तिनी गाथाद्वारा गीतार्थ विगेरेनुं स्वरूप वर्णवंता कहे छे- “गीअं मुणितेगहूं, विदियत्थं खलु वयंति गीयत्थ । गीएण य अत्थेण य, गीयत्यो वा सुबं गीयं ॥ १ ॥” गीत अने मुणित शब्दनो अर्थ एकज छे एटले जे छेदसूत्रादिनो अर्थ सम्यकू प्रकारे जाणे ते गीतार्थ कहेवाय, अथवा गीत अने अर्थथी जे युक्त होय ते गीतार्थ. गीत एटले शुं ? श्रुत-सूत्र. " गीएण होइ गीई, अस्थी अत्थेण नायव्वो । गीएण य अत्थेण य, गीयत्थं तं विजाणाहि ।।१ ॥।” आना रहस्यार्थ संबंधमां चतुर्भंगी जणावे छे - १. सूत्रने जाणे छे पण अर्थ श्रीगच्छाचार - पयन्ना — १२१
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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