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जाणतो नथी, २. अर्थन जाणे छे पण सूत्रने जाणतो नथी, ३. सूत्रने पण जाणे छे तेमज अर्थने जाणे छे अने ४. सूत्र तेमज अर्थ बनेने जाणतो नथी. आ चार भांगामां चोथो भांगो तो शून्य छे, वस्तुस्वरूप नथी. जे त्रीजा भांगाने धारण करे छे ते ज गीतार्थ छे. एकलुं जे सूत्र भणे छे ते गीती कहेवाय, जे एकलो अर्थ जाणे ते अर्थिक कहेवाय अने जे सूत्र तेमज अर्थ बने जाणे ते गीतार्थ कहेवाय. गीतार्थ अने गीतार्थनिश्रित विहार संबंधी कहे छे के- “जिणकप्पिओ गीयत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो । गीयत्थे इड्रिदुगं सेसा गीयत्थनीसाए ॥१॥" जिनकल्पी, परिहारविशुद्धि चारित्रवाळा, 'अपि' शब्दना ग्रहणथी पडिमाधारी तेमज यथालंदकल्पी कारण के तेओ जघन्यथी नव पूर्वनी आचार नामनी त्रीजी वस्तु पर्यंतना ज्ञाता होय छे, अने गच्छमां ऋद्धिमंत एटले आचार्य तथा उपाध्याय-आटलाने गीतार्थ विहार होय छे, बाकीना साधुओने गीतार्थनिश्रित विहार होय. छे. "आयरियगणी इड्डी, सेसा गीता वि होन्ति तन्नीसा। गच्छगयनिग्गया वा, ठाणनिउत्ताऽनिउत्ता वा ॥१॥” आचार्य अने उपाध्याय गच्छमां ऋद्धिमंत-श्रेष्ठ छे अने बाकीना साधुओ गीतार्थ होय तो पण तेमणे आचार्य-उपाध्यायनी आज्ञामां ज विचर. बाकीना साधुओ कोण ते संबंधी गाथाना त्रीजा तथा चोथा पादमां जणावे छे के-गच्छमां रहेल, कोई कारणे गच्छमांथी बहार निकळी एकला विचरनारा, कोई कारणे प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक इत्यादि पदवीधर साधुओने आचार्य उपाध्याये स्थानकमा राख्या होय ते तेमज पदवी विनाना साधुओ-आ सर्व आचार्य-उपाध्यायनी आज्ञामां ज विचरे. तेओ केवी रीते विचरे ? ते संबंधमां जणावे छ के- “आयारपकप्पधरा, चोद्दसपुव्वी अ जे य तं मज्झा। तन्नीसाइ विहारो, सबालवुडस्स गच्छस्स ॥१॥"
१. आचारप्रकल्पधर-निशीथ अध्ययनना जाणकार ते जघन्यगीतार्थ, २. चौदपूर्वी-चौद पूर्वना ज्ञाता ते उत्कृष्टगीतार्थ अने ३. आ जघन्य तथा उत्कृष्टगीतार्थनी मध्यना ते मध्यमगीतार्थ, तेओ व्यरहारसूत्र, दशाश्रुतस्कंधना ज्ञाता होय छे-आ त्रण प्रकारना गीतार्थोनी निश्रामां बाल तथा वृद्ध साधुवाळा गच्छे विहार करवो कल्पे. आ त्रण प्रकारना गीतार्थोने पण स्वच्छंदपणे विहार करवो योग्य नथी. आचार्यनी निश्राए ज विहार शामाटे करवो? ते शंकाना समाधानमा जणावे छे के“एगविहारी अज्जाय-कप्पिओ जो भवे चवणकप्पे। उवसंपन्नो मंदो, होहिइ वोसट्टतिट्ठाणो ॥१॥” एकलविहारी अगीतार्थ जाणवो तेमज तेने चारित्रथी भ्रष्ट थवाने अंगे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र ए रत्नत्रयीने त्यजी देवानो भाव थाय छे अने पासत्थादिकपणे विचरवाथी बुद्धिहीन पण बने छे. आ गाथा नियुक्तिनी छे तेथी तेना पर विवरण करतां कहे छे के- “मुत्तूण गच्छनिग्गय, गीयस्स वि एक्कगस्स मासो उ। अविगीए चउगुरुगा, चवणे लहुगा य भंगट्ठा ॥१॥" गच्छथी निकळेला जिनकल्पी साधु सिवायना गीतार्थ जो एकला विचरे तो एक मास लघुदंड, अगीतार्थ एकलो विचरे तो चारमासी गुरुदंड अने जे मनमां पासत्थादिकपणे विचरवानी इच्छा मात्र करे तेने चारमासी लघुदंड आवे, अर्थात् आ गाथामां गच्छनी निश्रा सिवाय विचरवानो सदंतर निषेध को छे. आ संबंधमां बृहत्कल्पवृत्तिनी पीठिकानी गाथा 'गीअत्यो अ विहारो.' अन तेनो अर्थ (पृ. १२४) ऊपर जणावी गया छीए. वळी ओघनियुक्तिमां पण तेनी तेज
श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१२२