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________________ महाभारत वांचे अने मध्यान्ह पछी रामायण कहे, (२) कुप्रावचनिक- पूर्व कह्या ते चरकादिक पाखंडियो पूजा करे, होम करे, जाप करे, गायत्रीनो पाठ करे, वलद जेम गाजे; तेम महादेवनी मूर्ति समक्ष गान-तान इत्यादिक क्रिया करे. (३) लोकोत्तर चारित्रपात्र, तपस्या करनार साधु पासे सांभळे, अने श्रीजिनराजे प्ररुपेल पंचांगीमां कहेल शुद्ध सामाचारी साधु पासे सांभळे ते श्रावक अने श्राविका. आ प्रमाणे चतुर्विध संघ आवश्यक क्रियामां एकचित्त बने, शुभ लेश्या - परिणामवाळो बने, क्रिया करती वखते क्षणे क्षणे आनंदित थाय, शरीर थी जिनमुद्रा विगेरे साचत्रे, रजोहरण (श्रावक चरवला)थी प्रमार्जना करे, मुहपत्ति मोढे राखीने बोले विगेरे. उभय टंक आवश्यक करे. आ संबंधमा प्रतिवादी शंका करतां कहे छे के आवी हकीकत तो आगमद्रव्यावश्यक्रमां जणावी छे तो आ नोआगमना प्रकारमां पुन: केम जणावो छो ? तेनो जवाब एछे के मुखवस्त्रिका पडिले हवी, रजोहरणथी संडासा करवा इत्यादिक क्रिया करवानो जे देश छे ते नोआगमपणुं छे तेथी नोआगमावश्यकमां आ हकीकतनो समावेश थाय छे. आने लगती विशेष हकीकत आवश्यकचूर्णी . तथा तेनी टीकामा विस्तारथी जणावी छे, पण ग्रंथविस्तारना भयथी अहीं जती करी छे. आ प्रमाणे सामाचारीनुं स्वरूप दर्शावी संयमनुं वर्णन करतां जणावे छे– “पंचासववेरमणं, पंचिदियनिग्गहो कसायजओ । तियदंडविरमणाओ, सत्तरसहा संजमो होइ || १ || " सत्तर प्रकारनो संयम छे- पांच आश्रवनो त्याग करे, पांचे इन्द्रियोनो निग्रह करे-दमे, चार कपायोने जीते अने त्रण दंड (मानदंड, वचनदंड अने कायदंड) थी विरमे. आत्रा प्रकारना गच्छमा रहेल साधु निर्जरा करे. वळी गुरुमहाराज (१) सोय लागी जतां जेवी वेदना थाय तेवी वेदना उपजावनारी खर वाणी कहे. (२) वाण लाग्या जेवी परुष वाणी (३) भालाना प्रहार जेवी कर्कश वाणी (४) कागडानो शब्द न गमे तेवी रीते जे वाणी सांभळवी न गमे तेवी अनिष्ट वाणी (५) क्रोधित थयेल वाघ जेवो भयंकर शब्द करे तेवी भय उपजावनारी दुष्ट वाणी (६) पत्थर लागवा जेवी निष्ठर वाणी- आवा प्रकारनी वाणीवडे निर्भछना करे, तिरस्कार करे अगर तो गच्छमांधी बहार काढी मूकें तो पण जाय नहीं मनमा विचारे के 'मारा आत्महित खातर ज गुरु शिक्षावचन कहे छे' परन्तु एम विपरीत न विचारे के- 'आ गच्छ ऊपर क्या देवु कर्तुं छे, मने पण बीजे स्थाने रोटला मळी रहेशे' तेम मनमां न लावे. वळी अवर्णवाद न बोले, मरणांत कष्ट आवे तो पण शासनहीलना थाय तेवुं कार्य न करे ते ज सुशिष्य कर्मनी निर्जरा करी शके छे. आ प्रमाणे सुशिष्यनुं स्वरुप दर्शावी हवे गच्छनुं स्वरुप दर्शावे छ गुरुणा कज्जमकजो, खरकक्कसदुट्ठनिठुरगिराए । भणिए तकत्ति सीसा, भांति तं गोयमा गच्छम् ||५६ ।। [ गुरुणा कार्याकार्ये, खरकर्कशदुष्टनिष्ठरगिरा । भणिते तथोति शिष्याः, भणन्ति स गौतम ! गच्छः ॥५६ ।।] गाथार्थ -करवा लायक अगर न करवा लायक कार्योमां कठोर. कर्कश, दुष्ट अने निष्ठर भाषाद्वारा गुरुमहाराज जो कई पण कहे तो “हे प्रभो ! आप कहो ते वास्तविक ज छे” ए प्रमाणे श्रीगच्छाचार- पयन्ना — १६५
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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