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________________ अणगारे मने विनयमूळ धर्मनुं सत्य स्वरूप समज्याव्युं छे. ते हालमा नीलाशोक उद्यानमां विराजमान छे. तेमणे मने शुद्ध - निष्कलंक धर्मनुं भान करावतां में तमारो मिथ्या मार्ग त्यजी दीघो छे.” आ प्रमाणे सांभळी शुक परिव्राजकने पोताना पांडित्यनुं अभिमान प्रगट्युं अने शेठने कां के- “चालो, हुं तमारा गुरु साथे वाद करवा मागुं छं. जो हुं हारी जईश तो तेमने वंदन करीश अने हितो तेनो पराजय थशे.” आ प्रमाणे बोली शेठ साथे ते थावच्चा अणगार पासे आव्यो अने प्रश्न पूछवा लाग्यो — “हे भगवन् ! तमारे जात्रा छे ? जवणिज्ज छे ? अव्याबाध छे ? फासु विहार छे ?” थावच्चा मुनिए कह्यं के— “सर्व छे.” शुके पूछ्युं - “केवी रीते ?” मुनिए जवाब आयो के–“ तप, नियम करवो, छकायनी जयणा-रक्षा करवी ते अमारी यात्रा छे. पांच इंद्रिय अने मन अमारे वशवर्ती छे ते अमारुं जवणिज्ज छे. अमारा शरीरमां कोई पण प्रकारना व्याधिनी पीडा नथी ते अव्याबाध अने स्त्री, पशु अने पंडक (नपुसंक) रहित आरामादि-उद्यानादिक स्थानोमा दोष रहित पीठ-फलकादिक लईने विचरवुं ते फासु विहार छे.” बाद शुक परिव्राजके बीजो प्रश्न करतां पूछयुं - " हे मुनि ! तमे सरसव खाओ छो के नहि ? " मुनि बोल्या – “खाईए छीए, अने नथी पण खाता.' आवो संदिग्ध जवाब सांभळी शुकने कईंक अचंबी उत्पन्न थयो. तेणे कह्यं - "एम केम बने ?' मुनिराजे जवाब आपतां जणाव्यं के- “सरसव बे प्रकारना छे – (१) समान वयना ते मित्र सरसव अने (२) धान सरसव. मित्र सरसव पंचेन्द्रिय मनुष्यादि माटे भक्ष्य नथी. वळी धान सरसवना पण बे प्रकार छे - (१) शस्त्रादिकथी छेदन - भेदन थयेला भक्ष्य अने (२) सचित्त मारे अभक्ष्य छे अने शस्त्रपरिणत छे तेना पण बे प्रकार छे - (१) एक बेंतालीश दोषरहित अने (२) बेंतालीश दोषसहित. दोषसहित छे ते मारे अभक्ष्य छे अने जे दोषरहित भक्ष्य छे तेना पण बे प्रकार छे - (१) एक मांगेला अने (२) नहीं याचेला. जाच्याना पण बे भेद छे – (१) एक मळेला अने (२) नहीं मळेला. नहीं मळेला मारे अभक्ष्य छे अने जे मळ्या ते भक्ष्य छे; माटे में कह्यं छे के-भक्खेया वि अभक्खेया विअर्थात् भक्षण करवा लायक अने नहीं भक्षण करवा लायक बन्ने प्रकार छे.” आ प्रमाणे सांभळी शुके पुन: प्रश्न कर्यो के—“कुलत्थ बे प्रकारनां छे—(१) स्त्रीकुलत्थ अने (२) धानकुलत्थ. तेमां पण स्त्रीकुलत्थ त्रण प्रकारनां छे (१) कुलमाता (२) कुलवधू अने (३) कुलपुत्री. आ अमारे अभक्ष्य छे. जे धानकुलत्थ छे तेना सरसवनी माफक ऊपर जणाव्या प्रमाणे भेद जाणी लेवा. छेवट जे मळ्या ते अमारे कल्पनीय छे एटले में कह्यं के अभक्ष्य अने भक्ष्य बने प्रकार छे.” ' आटला प्रश्नोत्तरथी शुकने संतोष न थयो तेथी तेणे वळी पण पृच्छा करी के " हे स्थविर ! मासा भक्ष्य छे के अभक्ष्य ?” अणगारे जवाब आयो के - “ खावा लायक छे अने नथी पण." "एम केम ?” एम पुनः पूछतां मुनिपुंगवे प्रत्युत्तर आप्यो कि- “ मासा त्रण प्रकारना छे—- (१) कालमासा, (२) अत्थमासा अने (३) धन्नमासा. कालमासा तो श्रावण आदि बार मास छे ते मारे अभक्ष्य छे. अत्थमासा बे प्रकारना छे (१) सुवर्ण तोलवाना अने (२) रूपुं तोलवाना- आ बने प्रकार अमारे अभक्ष्य छे. धन्नमासा फासु-एषणीय मळे ते मारे भक्ष्य छे.” आ प्रमाणे सर्व प्रश्नोनो युक्तिसंगत उत्तर आपवाथी शुक परिव्राजक विचारमां पडी गयो ने चिंतववा लाग्यो के- 'मुनि एकपक्षी उत्तर आपशे एटले तेमने हुं श्रीगच्छाचार - पयन्ना—- ३० ܕ
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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