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________________ सर्व वस्त्र अर्थे जाय परंतु जो एक ज गीतार्थ होय अने बीजा साधुओ अगीतार्थ होय तो गीतार्थ अग्रेसर-मुख्य बनावीने वस्त्र लेवा जाय. कदाच मानो के एक मात्र आचार्यमहाराज सिवाय बीजा बधा साधुओ अगीतार्थ होय तो अगीतार्थने विषे पण जे लब्धिसंपन्न होय एटले वाक्कलामां कुशळ होय, सामा माणसना भाव पारखनार होय तेने आचार्यमहाराज कहे के—“हे साधु ! तमे आ प्रमाणे निपुणताथी बोलीने वस्त्रनी याचना करजो.” एवी रीते अगीतार्थने पण वस्त्र याचवानी आज्ञा आपे परंतु आचार्यमहाराज स्वयं वस्त्रनी याचना करवा कदापि न जाय. वस्त्र याचना संबंधी आ विधि विस्तृत छे परंतु ग्रंथ विस्तारना भयथी अहीं संक्षेपमां ज जणावी छे, विस्तारपूर्वक विधि निशीथचूर्णीना पांचमा उद्देशामां वर्णवेल छे त्यांथी जोई लेवी. जे स्थाने चातुर्मास रह्या होय त्यां चातुर्मास पूर्ण थया बाद बे मास पर्यन्त वस्त्रादिक उपकरणो मांगवा नहीं. कदाच त्यांथी विहार करी अन्यत्र गया होय तो पण बे मास सुधीमां याचना करवी नहीं. वळी जे स्थानमां शुद्ध चारित्रपात्र क्रियाशील मुनिवरनुं चातुर्मास थयुं होय तेवा क्षेत्रमां तेमज पोते करेल चातुर्मासना स्थानथी पांच गाउना विस्तारमां जे क्षेत्र होय त्यां पण वस्त्रपात्रादिकनी याचना करवी नहीं; कारण के अगत्यना कारण सिवाय तेवी याचना करवानो शास्त्रकारो निषेध करेल छे. आम छतां पण जे स्थळे पासत्थादिक चातुर्मास रह्या होय त्यां उपकरणोनी याचना करवान निषेध फरमावेल नथी. चातुर्मास सिवायना शेष काळमां जे स्थाने मासकल्प कर्तुं होय ते स्थळे पण खास प्रयोजन सिवाय बे मास पर्यन्तना समयमां उपगरणो न ग्रहण करवा. आ संबंधी विशेष वर्णन जाणवाना इच्छुके श्रीनिशीथसूत्रना चौदमा उद्देशानी चूर्णी जोवी. उत्सर्गमार्ग प्रमाणे ते वस्त्रने थीगडुं न देवानुं फरमाव्युं छे कारण के कह्यं छे के – “जे भिक्खू वत्थस्स एगं पडिआणिअं देइ देन्तं वा साइज्जइ । ” अर्थात् जे साधु वस्त्रने एक थीगडुं आपे अगर तो अन्य मुनि थीगडुं देतो होय तेनी अनुमोदना करे तो तेने दोषापत्ति थाय. साधुए सुतरना बे अने ऊननुं एक-एम त्रण वस्त्रो राखवा. वर्षाऋतुमां ऊननुं वस्त्र वापरतुं परन्तु वर्षाऋतु सिवायना शेष समयमां फक्त एकलुं ऊननुं वस्त्र न वापरवुं. अंदर एक सुतरनुं वस्त्र पण साथे राखवुं अने तेनी ऊपर ऊननुं वस्त्र ओढवुं. आ प्रमाणे जो साधु न वर्ते तो अविधिनो दोष आवे, कारण के फक्त एकला ऊनना वस्त्रना परिधानथी शरीर ऊपर थता प्रस्वेदथी अगर तो शरीरना संलग्नपणाथी जूं विगेरे जीवनी उत्पत्ति थाय अने परिणामे दोषोत्पत्ति संभवे. साधुनुं वस्त्र जो फाटी जाय तो कारणप्रसंगे त्रण थीगडा देवाय परन्तु जो ते उपरान्त चोथुं थीगडुं आपे तो प्रायश्चित आवे. श्रीनिशीथसूत्रमां कह्यं पण छे के– “जे भिक्खू वत्थस्स परं तिह पडिआणिआणं देइ देन्तं वा साइज्जइ । ” अर्थात् जे भिक्षु - साधु वस्त्रने त्रण थीगडा उपरांत चोथुं थीगडुं आपे अगर तो देनारनी अनुमोदना करे - प्रोत्साहन आपे तो प्रायश्चित आवे. आ संबंधमा विशेष हकीकत जणावतां कहे छे के आवी ज रीते वस्त्रने रंगे तेमज धोवे तो पण आलोयण आवे. कारणवशात् रंगवानुं अगर धोवानुं बने तो त्रण खोबा जेटला जळनो उपयोग करवो, परन्तु तेथी विशेष जळ वापरे तो प्रायश्चित आवे. श्रीगच्छाचार - पयन्ना— ६७
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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