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________________ परमार्थतो विषं न तद-मृतरसायनं खलु तद्विषं । निर्विघ्नं यद् न तद् मारयति, मृतोऽपि अमृतसमः ॥४५॥ गाथार्थ- गीतार्थ पुरुषना वचनथी बुद्धिमान तरत मरण निपजावनाएं हळाहळ झेर पण नि:शंकपणे पी जाय अने तेवो पदार्थ पण खाई जाय कारण के परमार्थथी तो ते झेर झेर नथी परंतु निर्विघ्नकारी अमृत समान रसायण ज होय छे कारण के ते विष खानारने मारतुं नथी, अने कदाच मरण निपजे तो पण ते अमर ज मनाय छे. विवेचन- गीतार्थ साधुपुरुष हलाहल तालपुट विष विगेरे पीवायूँ कहे तो पण शंकारहितपणे पी जवं. ते झेर न जाणवू पण अमृत जाणवू कारण के गीतार्थ तो महाउपकारी छे अने तेना उपदेशद्वारा कराती क्रिया अजरामरस्थानने-शाश्वतसुखने आपनार छे. माटे तेना वचनमां कदापि शंका न करवी. आवा गीतार्थ साधु अने संवेगा केवा होय ? केवा लक्षणवाळाने तेवा जाणी शकाय? तेने माटे चाभंगी दर्शाव छ–“संविग्गा नाम एगे नो गीअत्था १, नो संविग्गा नाम एगे गीयत्था २, संविग्गा णाम एगे गीयत्यावि ३, नो संविग्गा णाम एगे नो गीयत्थावि ४ ॥१॥ १ चारित्रवान छे पण गीतार्थ नथी, २ गीतार्थ छे पण चारित्रपात्र नथी, ३. चारित्रपात्र छे अने गीतार्थ पण छे, ४. गीतार्थ पण नी अने चारित्रपात्र पण नथी. पहेलो भांगो कामनो नथी, कारण के का छे के–“पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही, किंवा णाही सेयपावगं ॥१॥" पहेलं ज्ञान अन पछी दया ए प्रमाण संयममा वर्त. साधुमार्गनो अजाण शुं हित साधी शकशे? ज्ञान थया विना जीवदया केवी रीते पाळी शकाय? ज्ञान होय तो ज संयममार्गमा यथेच्छ राते प्रवृत्ति करी शकाय माटे ज प्रथम ज्ञान अने पछी चारित्र कहेल छे. वळी “जो हेउवाय.... सिद्धतविराहगो अन्नो ॥१॥" जे हेतु तेमज परपक्षने जाणे तेने आगमिक-आगमज्ञाता कहीए परंतु जे पोताना सूत्रनी प्ररूपणा करे अने बीजो उपाय न जाणे तेने सिद्धांतनो विराधक कह्यो छे, एटले के जाण्या विना क्रिया करे, तेनी प्ररूपणा करे पण ते संबंधी ज्ञान न होय तो विराधक गणाय. वळी पूर्वे वर्णवेला छ प्रकारना अपवादादिक सूत्रो न जाणतो होय तो ते केवी रीते चारित्रनु पालन करी शके ? वळी “सावज्जण... देसणं काउं ॥१॥" जे ‘आ वचन सावद्यकारक छ अने आ निरवद्य छे' ते जाणां शकता नथी तो तेओ उपदेश देवाने-व्याख्यान वाचवाने कई रीते अधिकारी थई शके? माटे ज्ञान-प्राप्ति विना बोलवू-उपदेश देवो ते साधुने माटे वय॑ छे. आगमना रहस्यी अज्ञात साधु गच्छना त्याग करीने विचरे ते पोते संसारमा डूबे छे अने बीजा भव्य प्राणिओने पण डूबाडे छे. भवरूपी अंधारा कृवामाथी पोते बहार निकळता नथी अने बीजाने निकळवा देता नथी. विशेष शुं कहीए? छ-छ मासनी अति दुष्कर तपश्चर्या करवा छतां पण जो ते अगीतार्थ होय तो, विषनो जेम त्याग करीए तेम तेनो त्याग करवो, सर्पथी जेम दूर नासीए तेम तेनाथी दूर भागवू, लुच्चा पुरुपनो संसर्ग न करीए तेम तेनो संग न करवी. वळी अकुलीन बंधु, भयंकर श्मशान, महादुष्ट पिशाच तथा बळता अरण्यनी माफक तेनो त्याग ज करवो इष्ट छे. आ प्रथम भांगो अशुद्ध छे– श्रीगच्छाचार-पयन्ना– १४६
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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