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कहेवाय अथवा तो पोतानी कुशळता दर्शाववापूर्वक श्रुतने अनुसारे उपदेशने अवसरे रचना करी बोले ते पण प्रकीर्णक कहेवाय. आ प्रमाणे श्रीऋषभदेवना समयमा ८४ हजार, बावीश तीर्थंकरना समयमा संख्याता हजार अने श्रीवीरपरमात्माना समयमां चौद हजार प्रकीर्णकोनी रचना थई.
ऊपर जणावेल हकीकतना संबंधमां केटलाक आचार्योनो मतभेद पण छे. केटलाक आचार्यो एम पण जणावे छे के - श्रीऋषभदेवने आश्रयीने जे साधु संख्या कही छे ते सूत्र रचवानी श्रेष्ठ शक्ति धरावनारा साधुओनी समजवी. बीजा सामान्य साधुओ तो घणा थया छे. वळी केटलाक एम पण जणावे छे के - श्रीऋषभदेवनी विद्यमानतामां ज जणावी तेटली साधुसंख्या थई, पण तेमना निर्वाण पछी जे जे साधुओ तेमना शासनकाळमां थया अने तेमां पण जे श्रेष्ठ शास्त्र रचवानी शक्तिवाळा थया तेओना रचेला ग्रंथो ज सूत्रमा अधिकृत करेला जाणवा. अने तेवा नाम ज श्रीनंदीसूत्रमा सूचवेल छे. आवा प्रकारनो मतांतर दर्शाववा माटे ज 'अहवा' शब्द सूत्रमा मूकवामां आव्यो छे. श्रीऋषभदेवादिक तीर्थंकरना समयमां तेमना जे शिष्यो (१) उत्पातबुद्धि, (२) वैनेयिकी, (३) कार्मणकी अने (४) पारिणामिकी - आ चार बुद्धिना धरनार हता तेमना रचेला जे पयन्ना ते प्रकीर्णको जाणवा. प्रत्येकबुद्ध पण तेटला ज जाणवा. आ संबंधमां कोई आचार्य एम कहे छे केदरेक तीर्थंकरना समयमा असंख्याता पयन्ना रचाय छे, पण अहीं तो फक्त प्रत्येकबुद्धना रचेला ज प्रकीर्णको जाणवा. आ कथन परत्वे कोई शंका करतां कहे के प्रत्येकबुद्धने शिष्य तो न होय तो तमारुं कथन सत्य-व्याजबी जणातुं नथी. आ शंकाना संबंधमां खुलासो करतां गीतार्थ जणावे छे के – परमात्माना शासनरहित काळमां जे प्रत्येकबुद्ध थाय तेने शिष्यनो अभाव होय छे, परन्तु जे परमात्माना शासनकाळमां प्रत्येकबुद्ध थाय छे तेने शिष्य करवानो निषेध नथी. आ संबंधी नीचेनो मूळपाठ दर्पण सरखो स्पष्ट छे. “इह तित्थे अपरिमाणा पइन्नगा पइण्णगसामिअपरिमाणत्तणओ, किं तु इह सुत्ते पत्तेयबुद्धपणीयं पइन्नगं भाणियव्वं, कम्हा जम्हा पइण्णगपरिमाणेण चेव पत्तेयबुद्धपरिमाणं कीरइ भणियं 'पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव त्ति चोयग आह-नणु पत्तेयबुद्धा सिस्सभावो य विरुज्झए? आयरिओ आह-तित्थगरपणीयसासणपडिवन्नत्तणओ तस्स सीसा हवन्तीति" अर्थात् “तीर्थमां परिमाण रहित-संख्या रहित पयन्नानी रचना थाय छे, कारण के पयन्नाना रचनारनी संख्या परिमाण रहित होय छे; परन्तु अहीं तो प्रत्येकबुद्धना ज रचेल पयन्नानी संख्या ज सूत्रकार कहे छे. आ संबंधमां शंका थतां शिष्य पूछे छे के – 'प्रत्येकबुद्धने तो शिष्यनो अभाव होय छे.' आ शंकानुं समाधान करतां आचार्यभगवंत कहे छे के–'महानुभाव ! तीर्थंकर भगवंतना शासनकाळमां जे प्रत्येकबुद्ध थाय तेने शिष्य करवानो निषेध नथी." सदाचारी गच्छमां निवास करवानुं फल -
आ प्रमाणे आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुतनुं स्वरूप जाणवू अने साथोसाथ प्रकीर्णक संबंधी समजुती पण विचारी लेवी. असदाचारी-भ्रष्ट गच्छमा रहेवाथी संसार-परिभ्रमण वधे तेम जणाव्यु, हवे सदाचारी-सारा गच्छमां वास करवाथी जे फायदा - लाभ थाय ते संबंधी वर्णन त्रण गाथाद्वारा करे छे.
श्रीगच्छाचार-पयन्ना-२३