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________________ देवलोकने विषे पण पूजाय छे. ते अस्थिओ पुण्य-परमाणुना निपजेला होय छे तेथी सर्व देवो तेनी पूजा करे छे अने उपद्रव थये छते तेनुं न्हवणजवळ छांटवाथी विघ्नोप शांति थाय छे. (७) वळी कहे छे के-जेम मेघवृष्टिनुं जळ नदीना जळमां मळवाथी जेम नदीचं पाणी रोग हरनारूं थाय छे तेम सर्व लब्धिधारी मुनिना शरीरने स्पर्शीने आवेला वायुद्वारा पण झेरथी मूर्छा पामेल प्राणी स्वयमेव सचेत थई जाय छे. विषमिश्रित आहार नजर सामे जोवामां आव्यो होय तो ते अन्न पण निर्विष थई जाय छे. वळी कोई पण जातनो विकार होय के वैर होय ते पण तुरत शमी जाय छे. हवे ६. सभ्भिन्नश्रोतस्लब्धि-सांभळवा- कार्य कर्ण, छे छतां कोई पण इंद्रियद्वारा सर्व इन्द्रियोना विषयो जाणवानी शक्ति. का छे के- “सर्वेन्द्रियाणां विषयान्, गृह्णात्येकमपीन्द्रियम्। यत्प्रभावेण सम्भिन्न-श्रोतोलब्धिस्तु सा मता ॥१॥" जे लब्धिना प्रभावथी एक इंद्रियवडे सर्व इंद्रियोना विषयोने ग्रहण करी शके ते संभिन्न श्रोतस् नामनी लब्धि जाणवी. वळी चार योजनमां पडेला चक्रवर्तीना सैन्यना विस्तारमा सर्व स्थळे एक साथे वाजिंत्रो वागतां होय ते सर्वने जुदा जुदा समजवानी शक्ति पण संभिन्नश्रोतस्लब्धि कहेवाय छे. ७. अवधिज्ञानलब्धि-इंद्रियोनी के मननी मदद लीधा विना आत्मा रूपी द्रव्योने आत्मसाक्षात् जाणे अथवा देखे. ८. ऋजुमतिमन: पर्यवज्ञानलब्धि-इन्द्रिय तथा मननी सहाय विना अढी आंगुल न्यून अढी द्वीपमा रहेला संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोना मनोगत भावोने जाणे ते मन:पर्यवज्ञानलब्धि कहेवाय परंतु तेमां जे सामान्यथी अल्प पर्याय जाणे ते ऋजुमतिमन: पर्यवज्ञानलब्धि कहेवाय. अढी आंगुल उत्सेधांगुल समजवा. ९. विपुलमतिमन: पर्यवज्ञानलब्धि-संपूर्ण अढीद्वीपना संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोना मनोगत भावो विशेषपणे जाणे. १०. धारणलब्धि आकाशमां गमन करवानी शक्ति, ते बे प्रकारनी छे-(१) जंघाचारण अने (२) विद्याचारण. वच्चे विसामो लीधा विना ज तेरमा रुचक द्वीप सुधी जई, त्यां शाश्वत चैत्यने वंदना करी, पाछा वळतां एक विसामे आतृमा नंदीश्वर द्वीपे आवी, त्यां शाश्वत चैत्योने वांदी, बीजूं उड्डयन करी स्वस्थाने आवे ते जंघाचारण कहेवाय. प्रथम उड्डयने मानुषोत्तर पर्वते जई, त्यां शाश्वत चैत्योनी वंदना करी, बीजा उड्डयने नंदीश्वरद्वीपे जई त्यां शाश्वत चैत्योने वांदे अने त्यांथी पाछा वळतां एक ज उड्डयने स्वस्थाने आवे. आ प्रमाणे ति गति संबंधी जाणवू. ऊर्ध्वगतिमां जंघाचारण मुनि एक ज उड्डयनवडे मेरुपर्वतना शिखर पर रहेल पांडुकवन सुधी जई, शाश्वत चैत्योने वंदना करी, पाछा वळतां एक उड्डयनथी नंदन वनमां आवी, त्यां शाश्वत चैत्योने वांदी बीजे उड्डयने स्वस्थाने आवे. विद्याचरण तो प्रथम उड्डयने भूमिथी ५०० योजन पर आवेला मेरुपर्वतना नंदनवनमां जई, त्यां शाश्वत चैत्योने वांदी, बीजा उड्डयनवडे मेरुना शिखर पर एटले नंदनवनथी ९८५०० योजन ऊपर रहेला पांडुकवनमां आवी, शाश्वत चैत्योने वांदी, पाछा उतरतां एक ज उड्डयनथी स्वस्थाने आवे. जंघाचारण मुनिनी गति जतीं वखते विशेष होय छे अने पाछा वळतां ओछी होय छे तेनुं कारण ए छे के जंघाबळ प्रथम वधारे प्रमाणमां होय छे अने पछी थाक लागे तेथी घटी जाय छे. विद्याचारणोने प्रथम विद्याभ्यास अल्प होय छे अने पछी जेम जेम विशेष श्रीगच्छाचार–पयन्ना– १९०
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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