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________________ एवं चेव नवरं पुटिव सोभणे कहेइ पच्छा इयरे त्ति चउत्था ४।" अर्थात् पोतानो धर्म संभळावीने तेना गुण- वर्णन करे के-आ जैनमत जेवो बीजो कोई पण श्रेष्ठ धर्म नथी. ते अहिंसामय छे, ते विनयमूळ धर्म छे, एनी सदुपासना करनार स्वर्ग अने प्रांते मोक्षलक्ष्मीनो भोक्ता बने छे इत्यादि. आ प्रमाणे प्रथम स्वधर्मनी श्रेष्ठता दर्शावी परमतना दोष दर्शाववापूर्वक कहे के-जैनधर्म सिवायना बीजा धर्मो दोषयुक्त छे. परधर्मीओ काचा-सचित्त पाणीवडे स्नान करी असंख्याता जीवोने हणी नाखे छे, पंचाग्नि तप करी तेमां तेउकायना अनेक जीवोनो संहार करे छे. तपश्चर्या करे छे पण ते अज्ञान कष्ट छे, कारण के अनंत जीवोना स्थानभूत अनंतकाय-कंदमूळ अने अभक्ष्य फळो खाय छे तेमज राक्षसनी पेठे रात्रिभोजन पण करे छे. एवी रीते अन्य दर्शनोना दूषणो देखाडी स्वधर्मनी पुष्टि करे ते प्रथम भेद. पुब्वि परसमयं..... अन्य मतोनी वात करी तेनुं मिथ्यापणुं सिद्ध करी बतावे. विष्णुमार्गी कहे छे के - विष्णुए ज आ जगत रच्यु-उत्पन्न कर्यु. जगतना जीवोने ते उत्पन्न करे छे अने मृत्यु पण ए ज पमाडे छे परन्तु आ कथन वृथा छे. जो विष्णु प्रथम जीवोने जन्मावी सुखो आपे अने पाछो मृत्यु पमाडतो होय तो तेने बाळहत्या-जनहत्यानो दोष लागे. बाळहत्या-जनहत्या करनार तो आ लोकमां महापातकी-महाघातकी गणाय छे. एवी व्यक्तिनं नाम पण केम लेवाय? अने तेनी पूजनादि क्रिया संभवी ज केम शके? विष्णुनुं जगत्कर्तृत्व कदी घटी शकतुंज नथी. आवी रीते विष्णु मतनो निरास कर्या पछी ब्रह्मवादी संबंधी कहेवू के-सर्व जीवाजीव ब्रह्मस्वरूप छे ते पण खोटुं छे, कारण के तेम मानवाथी तप-जपादिक क्रिया अने धार्मिक करणी निष्फळ बने छे. जो बधा ज ब्रह्मस्वरूप होय तो सर्वनी सरखी बुद्धि होवी जोईए अने एक -बीजी व्यक्तिनी वच्चे जे भिन्नता-विचारभेद अने असंगतता जोवामां आवे छे ते कदी होई शके नहीं. आ रीते ब्रह्ममतने मिथ्या जणावी, सांख्य, मीमांसकादि दर्शनोनु निष्फळपणुं दर्शावी स्वमत-जैनमतनी पुष्टि करवी. स्याद्वाद सिद्धांतनी अपूर्वता जणाववी अने स्वमतनुं अविसंवादपणुं प्रगट करवू-आ बीजो भेद. मिच्छावायं कहित्ता सम्मावायं कहेइ.... मिथ्यावादनुं कथन करीने पछी सम्यग्वादनुं निरुपण करवू. परदर्शननी वात करीने तेमां जे जे स्थाने दोषापत्ति होय ते दर्शावे अने तेनी साथोसाथ जैनदर्शनमां जणावेल विशिष्टता देखाडे. दाखला तरीके भागवतमां एक एवो उल्लेख छे के पंडित लोक धनिक लोको पासे शा माटे जाय? वस्त्र लेवा माटे. त्यारे जणाववामां आवे छे के शुं वस्त्रो रस्तामां नथी मळतां के धनिक वर्ग पासे जवू पडे? रस्तामां जे वस्त्रना टुकडा पड्या होय ते ग्रहण करी, तेने धोई, तेनी कंथा बनावीने पहेरवी. आ हकीकतनो जैन सिद्धांतानुसार विरोध दर्शाववो के रस्तामां पण पडेला वस्त्रो ग्रहण करवाथी अदत्तादाननो दोष लागे, वस्त्र धोवाथी जीवहिंसा थाय अने कंथामां जीवोत्पत्ति थवाथी तेनी जयणा न रहे. आप्रमाणे दोष देखाडी तेने अनुरुप जैन-आम्नाय समजाववो. जैन साधुओ वस्त्रादि मांगवा माटे जता नथी ते तेनुं नि:स्पृहपणुं जाणवू. आ कारणथी वस्त्रादिनी भिक्षा माटे गृहस्थवर्ग पासे जवानुं वर्ण्य गण्युं छे. आवी रीते मिथ्यामतनुं वर्णन करी, तेनी निरुपयोगिता दर्शावी आस्तिक मतनी सिद्धि करे ते त्रीजो भेद. श्रीगच्छाचार-पयन्ना– ४८
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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