Book Title: Gacchayar Ppayanna
Author(s): Vijayrajendrasuri, Gulabvijay
Publisher: Amichand Taraji Dani
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मित्ति मम इय संदसणसंभासणेण, संदीविओ मयणवण्ही। बंभाई गुणरयणे, डहइ अणिच्छ वि पमायाओ॥३॥ मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्राम:, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ।।४।। सारी रीते जोवाथी प्रीति थाय छे, प्रीति थवाथी रति उपजे छे, रति (अभिलाषा) थवाथी विसंभ थाय-एटले भोगनो विश्वास थाय, विश्वासथी मन स्नेहमां परिणमे अर्थात् मळवानी इच्छा थाय-आ पांच प्रकारे प्रेमबन्ध थाय छे.(१) जेम जेम स्नेह करवामां आवे छे तेम तेम ते वृद्धि पामे छे. बळवानने पण आ स्नेहे (प्रेमे) पतित कर्यां छे तो पछी दुर्बळ एवा तारी तो वात ज क्यां रही? (२) मित्राई कोने कहीए? 'आ मारो छे' एवी ममता उपजे तेने मित्राई कहेवाय. पछी तेने जुए, बोलावे, स्नेह-संलाप करे त्यारे कामदेवरूपी अग्नि जागृत थवाथी प्रमादथी अनिच्छाए (तेने न इच्छे तो पण) ब्रह्मचर्यरूपी गुणरत्न बळी जाय-विनाश पामे. (३) पोतानी माता, बहेन के दीकरी पासे एकला न बेसवं, कारण के इंद्रियोना विषयो महाबलिष्ठ छे. तेना चक्करमां शाणा अने पंडितजनो पण मूंझाई जाय छे. (४)
साध्वीएं आवेशमा आवी जई गृहस्थ समक्ष गाली-वचन बोलवां न जोईए, कारण के तेनो आचार तो समता भावनो छे. गाली प्रमुख वचन क्रोध कषायना हेतुभूत छे. गृहस्थनी भाषा पण साध्वीथी न बोलाय. 'तारुं घर बळो, तारी आंखो फूटी जाय, तारो पग कपाई जाय, तुं हुंठो था, तुं बहेरो था' इत्यादिक श्रापनां वचनो पण साध्वी न बोली शके; कारण के ते तेने उचित नथी, केमके ते बधां आक्रोश वचनो कषायो ज छे, कोई पण प्रसंगे साध्वीए पोताना मगजनुं समतोलपणुं न गुमावदूं जोईए. गृहस्थनो दोष होय, ते इरादापूर्वक साध्वीने उतारी पाडवा क्लेश करतो होय तो पण साध्वीए समभाव राखी स्वपर श्रेय ज इच्छवू, ए जिनाज्ञानो साचो मर्म छे..
साध्वीए श्वेत वस्रो पहेरवा जोईए, लाल के पीळा वस्त्र वापरवानो निषेध छे, छतां तेवां वस्त्रो वापरे तेने गच्छभ्रष्ट जाणवी. आवी विचित्र वेषधारिणी साध्वीने साध्वी तरीके मानवामां आवे तो पण मिथ्यात्व- दूषण लागे. आ वाबतमां शंका करतां कोई कहे के-आचरणाथी रंगेल वस्त्र पहेरे तो शो वांधो? तेनो जवाब ए छे के-आचरणा जो सावध होय तो तेनुं फळ संसार-भ्रमण छे. आचरणा एवी होवी जाईए के जेनो जिनागममा निषेध न होय. जो साध्वी मनगमता चित्रविचित्र रंगेला वस्त्रो पहेरे तो ते गृहस्थिणी माफक देखाय, लोकोमा निंदा थाय माटे रंगेला वस्त्रोनो तथा उपलक्षणथी पात्रा, दांडा प्रमुख उपकरणोनो त्याग ज करवो. हजु पण साध्वीना आचार संबंधी कहे छे के
सीवणं तुन्नणं भरणं, गिहत्थाणं तु जा करे। तिल्लउव्वट्टणं वा वि, अप्पणो अपरस्स य ॥११३ ।। [सीवनं तुन्ननं भरणं, गृहस्थानां तु या करोति। तैलोद्वर्तनं वापि, आत्मनोऽपरस्य च ॥११३ ॥]
श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २८२

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