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पळावे ते सुआचार्य जाणवा. आ पांच प्रकारना आचारमा जे चारित्राचार कह्यो ते शुद्ध पिंडादिकना ग्रहणथी थाय छे, माटे तेनुं स्वरूप दर्शावतां कहे छे के
पिण्डं उवहिं सिज्जं, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धम् । चारित्तरक्खणट्ठा, सोहिंतो होइ स चरित्ती ॥ २१ ॥ [पिण्डमुपधिं शय्यां, उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धम् ।
चारित्ररक्षणार्थ, शोधयन् भवति स चारित्री ॥ २१ ॥ गाथार्थ- चार प्रकारनो पिंड उपधि (संयम-चारित्र पाळवामां उपयोगी उपकरणो) अने शय्या (वसति) - आ त्रणे वस्तुने उद्गम, उत्पादन अने एषणावडे शुद्ध, चारित्रनी रक्षा माटे ग्रहण करे ते ज साचो चारित्रवान छे. ___ विवेचन – १ अशण, २ पाण, ३ खादिम अने ४ स्वादिम-ए चार प्रकारनो पिंड छे. उपधिना बे प्रकार छे-(१) औधिक अने (२) औपग्रहिक. औधिक उपधि त्रण प्रकारे छे– १ जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट. १ मुहपत्ति, २ पात्रानी पूंजणी ते पात्रकेसरिका, ३ गुच्छक एटले पात्र ऊपर बांधवानो वस्त्रखंड अने ४ पात्रने मूकवानो वस्त्रखंड- आ प्रमाणे जघन्य उपधि जाणवी. मध्यम उपधि छ प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-१ पटल, २ रजस्राण-पात्रा राखवानी झोळी, ३ पात्राने बांधवानी झोळी, ४ चोळपट्टो, ५ मात्रक एटले नंदिपात्र अने ६ रजोहरण - ओघो. उत्कृष्ट उपधि चार प्रकारे छे-१ पात्रा अने २-४ त्रण वस्त्रो (वे सूतरना अने एक ऊन). आ प्रकारनी औघिक उपधि स्थविरकल्पी मुनिने होय. बीजी औपग्रहिक उपधि पण जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट ए प्रमाणे त्रण प्रकारनी छे. १ पीठ-पाछल राखवा- पाटियु, २ पादप्रोञ्छन, ३ दंडक-प्रमार्जन, ४ डगल (माटीनु), ५ सोय, ६ नखहरणी (नख कापवानी नरणी) अने ७ कर्णशोधनी-कानमांथी मेल काढवानी कानखोतरणी-आ सात प्रकारनी जघन्य जाणवी. मध्यम नव प्रकारनी छे, ते आ प्रमाणे-१ संथारो, २ संथारा ऊपर पाथरवानो उत्तरपट्ट, ३ दांडो, ४ मातरुं करवानुं भाजन, ५ स्थंडिलनुं भाजन, ६ मलश्लेष्मनुं भाजन, ७ योगपट्ट-उपधि ऊपर बांधवानुं वस्त्र, ८ सन्नाहपट्ट-शरीरे बांधवानुं वस्त्र अने ९ चिलमिली-मच्छरादिकथी रक्षा करवानो पडदो. उत्कृष्ट औपग्रहिक उपधि बे प्रकारनी छे -१ स्थापनाचार्य अने २ पांच प्रकारना पुस्तको. आने लगतुं विशेष वर्णन बृहत्कल्प तेमज यतिजीतकल्पनी टीकाद्वारा जाणवू. जे उपधि पासे ज रहे, गृहस्थनी मांगेली लेवी-देवी न कल्पे ते औधिक उपधि अने जरूर पड्ये गृहस्थ पासेथी मांगी ले अने पछी पाछी पण आपे ते औपग्रहिक उपधि जाणवी. शय्या-वसति-रहेवानुं स्थानक. आ १ पिंड, २ उपधि अने ३ शय्या उद्गम, उत्पादन अने एषणाना दोष रहित स्वीकारवा. उद्गमना सोळ दोष छे अने ते गृहस्थथी उत्पन्न थाय छे, उत्पादनमा पण सोळ अने ते साधुथी ज उत्पन्न थाय छे अने एषणाना दश दोष तो साधु अने गृहस्थ बंनेथी थाय छे. आ दश दोष पैकी बे शंकित अने अपरिणत साधथी लागे छे अने बाकीना आठ गृहस्थथी लागे छे. आ प्रमाणे बेतालीश दोष रहित पिंड, उपधि अने वसति ग्रहण करे ते आचार्य
श्रीगच्छाचार-पयन्ना-११४