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काल गणना का संक्षिप्त इतिहास, इकाईयां व विभिन्न चक्र हैं । भारत में ज्योतिष का विकास इससे काफी पहले हो गया था, जबकि विदेशों से इस सम्बन्ध में आदान-प्रदान आरम्भ हुआ। यद्यपि यवनों से प्राप्त ज्ञान भी महत्वपूर्ण है और भारतीय विद्वानों ने उसे स्वीकार किया है, परन्तु इस कारण भारत में विकसित हुए ज्ञान का महत्व कम नहीं हो जाता वरन् भारतीयों का निजी प्रयास भी महत्वपूर्ण व सराहनीय है।
गौरंगनाथ बनर्जी ने कोलबुक, एस० डेविस, बैटले, जे० वालेन, बेले डेलाम्बर के मतों का अध्ययन कर इस सम्बन्ध में अपना मत इस प्रकार दिया है, "यहां यह कहना काफी है कि हिन्दुओं ने अपना विज्ञान स्वतन्त्र रूप से विकसित किया, किन्तु उसमें वैज्ञानिकता आंशिक रूप से इस कारण से आयी कि उसका सम्पर्क यूनानियों से हुआ ।" "इन सब बाहरी संकेतों तथा सम्भावना के भीतरी तर्कों को मिलाकर देखने से हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि भारतीयों की वैज्ञानिक खगोल विद्या यूनानी विज्ञान से फूटी हुयी एक शाखा है।" गौरंगनाथ बनर्जी के विचारों को भी मध्यम मार्गी ही कहा जा सकता है। नक्षत्र क्रम अथवा चन्द्रीय चक्र का विकास भारत में ही हुआ जबकि राशीक्रम को भारतीयों ने यूनानियों से ग्रहण किया-बनर्जी ने ऐसा विश्वास व्यक्त किया है।
भारतीय ज्योतिष में जिन तत्वों पर विदेशी होने की सम्भावना की जाती है वे इस प्रकार हैं। (१) "चन्द्रमा की गति के लिए रविमार्ग का सत्ताईस या अट्ठाईस
नक्षत्रों में बांटा जाना। थोड़ा हेरफेर के साथ ऐसा विभाजन
हिन्दूओं की, अरब वालों की और चीनियों की पद्धतियों में है। (२) "रवि की गति के लिये रवि मार्ग का १२ राशियों में बांटा जाना
और प्रत्येक का नाम, इन नामों का अर्थ हिन्दू व यवन दोनों
पद्धतियों में एक है ।"3 (३) "हिन्दू, यवन और अरब की फलित ज्योतिष पद्धतियों में समानता
और कहीं-कहीं पूर्ण अभिन्नता से प्रबल धारणा होती है कि
१. गौरंग नाथ वनर्जी. 'हेलेनिज्म इन एंशियेण्ट इण्डिया', नई दिल्ली, १९६१,
पृ० १४६ । २. वही, पृ० १५० । ३. बरजेस, गोरख प्रसाद द्वारा उद्धत, 'भारतीय ज्योतिष का इतिहास',
लखनऊ, १९५६, पृ० १६६ ।