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भारतीय संवतों का इतिहास
संवतों की श्रेणी में ही रखा है। अतः स्पष्ट नहीं है कि इस संवत् का आरम्भ भारत में ही किया गया अथवा बाहर से इसे लाया गया। यदि भारत में ही इसे आरम्भ किया गया तब इसका नाम विलायती क्यों रखा गया ?
अमली संवत् के समान ही १९५४ ई० में इसका भी प्रचलित वर्ष १३६२ था। अत: १६५४-१३६२=५६२ ई० का वर्ष इसका प्रथम वर्ष माना जा सकता है । इसका प्रयोग मुख्य रूप से बंगाल और उड़ीसा में हुआ। इसके महीनों के नाम चन्द्रीय महीनों के नाम के समान हैं तथा इसका आरम्भ बंगाल सन् के करीब ही है। लेकिन दो बातों में यह बंगाली सन् से भिन्न है : प्रथम, "इसके वर्ष का आरम्भ सौर माह कन्या से होता है जोकि बंगाल सन् के आश्विन के समान है। दूसरा, इसके माह का आरम्भ दूसरे और तीसरे दिन के बजाय संक्रान्ति से होता है।"
स्पष्ट है कि विलायती संवत् अमली संवत् का समकालीन था। दोनों की गणना पद्धतियां भी परस्पर मेल खाती हैं । दोनों ही के० वर्ष का आरम्भ ५६२ ई० संवत से होता है तथा उड़ीसा व बंगाल इनके प्रचलन के मुख्य क्षेत्र थे। ये चन्द्रसौर पद्धति पर आधारित थे। इसका कोई पता नहीं चलता कि इस प्रकार समान गणना पद्धतियों वाले एक ही समय में एक ही क्षेत्र में दो संवतों को प्रचलित करने का क्या कारण था ? अथवा इनकी उपयोगिता में क्या कोई भिन्नता थी जो इन्हें आरम्भ किया गया ? विलायती संवत् की गणना बंगाल के फसली सन से भी काफी मेल खाती है। विलायती संवत् के मास सौर हैं और महीनों के नाम चैत्रादि नामों से हैं। इसका प्रारम्भ सौर अश्विन अर्थात् कन्या संक्रान्ति से होता है और जिस दिन संक्रान्ति का प्रवेश होता है उसी को मास का पहला दिन मानते हैं । इस सन् में ५६२-६३ जोड़ने से ई० सन् और ६४६-५० जोड़ने से विक्रम संवत् बनता है।
फसली सम्वत् फसल सम्बन्धी कार्यों को पूरा करने के उद्देश्य से इस संवत् का आरम्भ हुआ और इसी कारण इसका नाम भी फसली संवत् रखा गया। सौर फसली व लनीसोलर फसली तथा दक्षिणी फसली व मद्रास फसली दो प्रकार से फसली संवत् का वर्गीकरण किया जाता है। क्षेत्रीय प्रसार के दृष्टिकोण से शक व विक्रम संवतों के बाद फसली संवत् का नाम लिया जा सकता है । इसका प्रचलन उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम में लगभग सम्पूर्ण भारत में हुआ । परन्तु ऐसा
१. रोबर्ट सीवेल, "दि इण्डियन कलण्डर", लन्दन, १८६६, पृ० ४३ ।