Book Title: Bharatiya Samvato Ka Itihas
Author(s): Aparna Sharma
Publisher: S S Publishers

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Page 204
________________ १६० भारतीय संवतों का इतिहास कुछ तत्व ग्रहण किये, परन्तु इनका मुख्य उद्देश्य भारत में अपनी संस्कृति को आरोपित करना था। अत: इनके द्वारा लाये गये संवत भारत में स्थाई रहे व कालान्तर में वे भारतीय इतिहास व गणना पद्धति का हिस्सा बन गये । इन संवतों को भारतवासियों ने पूर्ण रूप से अंगीकार नहीं किया। अतः ये अपने मोलिक रूप में भी चलते रहे तथा भारत में प्राचीन गणना पद्धति व नई गणना पद्धतियों की मिश्रित पद्धति भी चलती रही। भारत के क्रमिक इतिहास से यह पता चलता है कि भारत एक शासनतंत्र के नीचे बहुत ही कम समय रहा। यहां अलग-अलग प्रान्तों में अलग-अलग राजवंशों की स्थापना हुई। इस प्रान्तीयता की भावना ने भी कुछ नये संवतों को जन्म दिया जैसे कि बंगाली सन, कोल्लम, अण्डु, बर्मी, कोमन व नेवार संवतों के नाम से ही यह अनुमान हो जाता है कि ये किसी क्षेत्र से सम्बन्धित हैं। प्रान्तीयता की भावना ने ही अलग-अलग रीति-रिवाजों व भाषाओं को भी जन्म दिया। अतः एक स्थान पर प्रचलित गणना-पद्धति को दूसरे प्रान्तवासियों के लिए समझना कठिन हो गया, जिससे विभिन्न भाषा-क्षेत्रों में गणना की अलग-अलग पद्धतियों की आवश्यकता महसूस की गयी व अनेक क्षेत्रीय गणनाओं का जन्म हुआ। ओर नहीं तो एक संवत् के वर्ष आरम्भ में अन्तर कर दिया गया। उसके सौर व चन्द्रीय महीनों में अन्तर कर दिया गया तथा महीनों के आरम्भ व अन्त में अन्तर कर लिया गया। शक संवत् व विक्रमी संवत् इसका अच्छा उदाहरण है जिनके उत्तरी व दक्षिणी दो अलग-अलग प्रकार की गणना पद्धतियां आज भी प्रचलित हैं। __ भारतीय इतिहास में यह एक प्रथा-सी बन गयी थी कि जो भी शासक स्वयं को जरा भी शक्तिशाली महसूस करता था अथवा उसके कुछ शासन वर्ष शान्ति से कट जाते थे वह स्वयं को महान् व विशिष्ट दिखाने का प्रयास करता था। अपने नाम से किसी शासक द्वारा एक नये संवत् का चलाया जाना भी इसी अहं भाव का प्रतीक था। मौर्य, गुप्त, गांगेय, हर्ष, लक्ष्मणसेन, शाहूर, जुलूसी, राज्याभिषेक आदि संवतों का आरम्भ इसी अहंभाव को लेकर हुआ । पूर्व प्रचलित संवत् को स्वीकार न कर अपना निजी संवत् चलाना अथवा शासन काल के इतनवे (२४वें, चौथे, तीसरे आदि) वर्ष में अमुक कार्य सम्पन्न हा अथवा अमुक दानलेख, शिलालेख व स्तम्भ लेख की स्थापना हुई। ये भी इसी प्रतिष्ठित करने की होड़ के द्योतक हैं। गौतमी पुत्र सातकर्णी का नासिक गुहालेख २४वां वर्ष, कनिष्क का सारनाय प्रतिमा लेख तीसरा वर्ष आदि अनेक उदाहरण इस सम्बन्ध में इतिहास से मिलते हैं।

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