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भारत में सम्वतों की अधिक संख्या की उत्पत्ति के कारण
वर्तमान भारतीय राष्ट्रीय पंचांग
वर्तमान राष्ट्रीय कलैण्डर का निर्माण करते समय कुछ प्राकृतिक दृश्यों को ध्यान में रखा गया तथा कुछ पूर्व प्रचलित सिद्धान्तों को शोधित रूप में ग्रहण किया गया। पंचांग के आरम्भिक अवस्था में इन्हीं प्राकृतिक दृश्यों ने मनुष्यों को समय गणना के लिए प्रेरित किया। समय के अनन्त प्रवाह को ये ही प्राकृ तिक दृश्य विभाजित करते हैं । हमेशा दोहराये जाने वाले दिन-रात, चन्द्रमा की कलाओं का पुनरागमन, ऋतुओं का दोहराया जाना आदि इनमें प्रमुख हैं । समय को मारने के लिए इसी पुनरागमन को आधार माना गया । ये दृश्य मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये सारे मानव जीवन व पशु जीवन को निश्चित करते हैं । सभ्यता के आरंभ में जब मनुष्यों ने नदियों की घाटियों में जीवन आरंभ किया तो इन प्राकृतिक दृश्यों को बहुत महत्व दिया । इस अवस्था में मनुष्य कृषि पर निर्भर थे तथा कृषि इन्हीं प्राकृतिक दृश्यों पर निर्भर थी । इसी के आधार पर सामाजिक व राष्ट्रीय त्यौहार मनाये जाते थे, जो कि सम्यता के लिए अनिवार्य थे, लोग पहले से ही नये चन्द्रमा व पूर्ण चन्द्रमा के विषय में जानना चाहते थे । कृषि के विभिन्न कार्यों मानसून का आना, बीज बोना, फसल काटना आदि मुख्य त्यौहारों के रूप में मनाये जाते थे । इस प्रकार राष्ट्रीय कलैण्डर पूर्व अनुभवों के आधार पर इन्हीं घटनाओं की भविष्यवाणी के रूप में विकसित हुआ I
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दिन इन प्राकृतिक दृश्यों से सबसे छोटी इकाई थी तथा यह पंचांग के आधार रूप में ग्रहण की गयी। आज भी विभिन्न पंचांगों में विभिन्न नामों से यह समय मापन का महत्वपूर्ण तथ्य माना जाता है । विभिन्न राष्ट्रों में दिन के मापने के लिए अलग-अलग समय प्रयोग किये गये । सूर्योदय से सूर्योदय तक, सूर्यास्त से सूर्यास्त तक, आधी रात से आधी रात तक दोपहर से दोपहर तक आदि । "सौर दिन के अतिरिक्त खगोलशास्त्रियों ने एक नाक्षत्र दिन भी परिभाषित किया है जो कि दो क्रमिक, पारगमन का काल है । पृथ्वी सूर्य के चारों ओर अपनी धुरी पर घूमती है, उसके समय को मापता है। सौर दिन साइड्रियल दिन से बड़ा होता है क्योंकि पृथ्वी जब तक अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा करती है तब तक सूर्य पूर्व में एक डिग्री खिसक जाता है । पृथ्वी की कक्षा में गति के कारण यह थोड़ा अधिक समय लेता है ।'
१. "रिपोर्ट ऑफ द कलैण्डर रिफार्म कमेटी", १९५५, नई दिल्ली, पृ० १५७ ।