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भारतीय संवतों का इतिहास
कर पाना असम्भव है । इस प्रकार पहले ग्रीक, फिर इस्लाम व इसके बाद योरोपीय संवतों व गणना-पद्धतियों का भारतीय गणना-पद्धति में समावेश हुआ है । इस रूप में विदेशी संवत् भारतीय संस्कृति की ग्राह्य शक्ति को स्पष्ट करते हैं ।
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भारत का प्राचीन ज्योतिष, गणित व खगोलशास्त्रीय अध्ययन उन्नत अवस्था में था - इसका बोध भी संवतों के अध्ययन से होता है । वैदिक काल में ही गणना की महत्वपूर्ण इकाइयों का निर्धारण भारत में कर लिया गया था । कलि संवत् की परमाणु, अणु, त्रिसारेणु, त्रुटी, लव व निमेष आदि इकाईयां समय - मापन की सूक्ष्म व व्यवस्थित पद्धति की साक्ष्य हैं जिनका निर्धारण ईसा से हजारों वर्ष पूर्व हो चुका था । इस प्रकार संवतों के अध्ययन से भारत की प्राचीन गणित, ज्योतिष की असावारण विकसित परिस्थिति का ऐतिहासिक ज्ञान होता है । संवतों से प्राचीन भारत की सृष्टि, जगत परिवर्तन, काल-क्रम आदि के बारे में विद्यमान धारणायें विकसित हुयी हैं । शनैः-शनैः विकसित व शोधित गणना पद्धति का वैज्ञानिक स्वरूप आज भारत में विद्यमान है जिसको वर्तमान राष्ट्रीय पंचांग के रूप में देखा जा सकता है । इसमें अत्याधुनिक व प्राचीन इकाइयों के मध्य एक संतुलित गणना-स्वरूप निर्धारित किया गया है । तथा सभी धर्मों व सम्प्रदायों के लोगों की मान्यताओं को स्थान देने का प्रयास हुआ है । किन्तु बहुत से कारणों से इसका व्यापक प्रसार अभी नहीं हो पाया है ।
आशा है संवतों के इस प्रकार के क्रमिक व आलोचनात्मक अध्ययन से इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं का अध्ययन हो तथा उनकी तिथि निर्धारण में सहयोग मिले । गणना-पद्धति के ऐतिहासिक अध्ययन से उसके मौलिक तत्वों, उस पर विदेशी प्रभाव व उसके वर्तमान वैज्ञानिक स्वरूप का अध्ययन हुआ है। साथ ही यह धारणा व्यक्त हुई है कि भारत की वर्तमान परिस्थितियों में किस प्रकार की पद्धति व संवत् का कैसा स्वरूप ग्रहण किया जाना लाभप्रद है । संवतों के इस आलोचनात्मक अध्ययन से भारत का प्राचीन इतिहास अधिक स्पष्ट हो गया है ।