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निष्कर्ष
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संवतों से धामिक व्यवस्था का ऐतिहासिक अध्ययन सम्भव है क्योंकि उनमें तत्कालीन धार्मिक मान्यता स्पष्ट हो सकती है और धार्मिक विश्वास व सामाजिक व्यवस्था का ज्ञान हो सकता है। बुद्ध व महावीर-निर्वाण संवतों के अध्ययन के साथ इसी प्रकार का सामाजिक व धार्मिक अध्ययन जुड़ा है । जब हम बुद्ध-निर्वाण की तिथि निर्धारित करने का प्रयास करते हैं, तो बुद्ध के सिद्धान्तों से प्रभावित धर्म, समाज व राजनीति का भी अध्ययन करते
भारत में लगभग सभी धर्म व सम्प्रदायों के अपने संवत् हैं जो इन सम्प्रदायों का अपने धर्म प्रचारकों व धर्मोपदेशकों के प्रति विश्वास व मान्यताओं के प्रतीक हैं । कई बार तो संवत् का नाम ही किसी सम्प्रदाय के परिचय का माध्यम बनता है तथा संवत् का नाम भर आने से अमुक सम्प्रदाय के धर्म व नाम का बोध हो जाता है। ___ संवतों के माध्यम से न केवल धर्म व राजनीतिक जागरूकता का परिचय मिलता है वरन ये आर्थिक क्षेत्र में हुयी प्रगति व नयी नीति-निर्धारण का भी प्रतीक है। फसली संवत जिसको विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग शासकों द्वारा विभिन्न अवसरों पर ग्रहण किया गया इस बात का द्योतक है कि शासक लोग कृषि व अर्थ सम्बन्धी कठिनाइयों से परिचित थे व उनके निवारण के लिए बहुतसी नई नीतियां व योजनायें निर्धारित करते थे। फसली संवत् का आरम्भ ६०० ई० के करीब हुआ तथा इसका मुख्य उद्देश्य किसानों को सुविधा प्रदान करना था। चन्द्रीय पंचांग के अनुसार किसानों को ३० वर्षीय चक्र में लगान की दो किश्त अधिक देनी पड़ती थीं। साथ ही लगान का समय भी परिवर्तित होता रहता था। अतः इस आर्थिक समस्या को सुलझाने के उद्देश्य से सौर गणना वाला फसली पंचांग मुगल बादशाह अकबर व शाहजहां द्वारा ग्रहण किया गया।
भारतीय संस्कृति की ग्राह्य शक्ति धर्म, जाति, रीति-रिवाजों के संदर्भ में विदित है। संवतों के क्षेत्र में भी इसका महत्व कम नहीं । समयगणना की बहुतसी इकाइयों को भारतीय गणना-पद्धति व संवतों में इस प्रकार आत्मसात कर लिया गया है कि आज उनके मौलिक उद्गम स्थानों को बता पाना सम्भव नहीं। इस संदर्भ में सबसे अच्छा उदाहरण शक संवत् का दिया जा सकता है। इस संवत को भारत में राजनीतिक, धार्मिक व अभिलेखीय कार्यों के लिए साथ-साथ प्रयोग किया गया। इसकी गणना-पद्धति आज पूर्ण रूप से भारत में उत्पन्न हुए विक्रम संवत् की पद्धति में घुल-मिल गयी है तथा इनके पृथक स्वरूपों को इंगित