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भारत में सम्वतों की अधिक संख्या की उत्पत्ति के कारण.. २०३ बराबर हिस्सों में बांटती है। प्राचीन बेबीलोन में दिन व रात की सम्मिलित इकाई थी। मिश्र में दिन को बारह भागों तथा रात्रि को बारह भागों में बांटा गया । बाद के मध्य युग में पूरे दिन व रात के समय के लिए २४ घण्टों का विभाजन अपना लिया गया। दिन का विस्तृत बंटवारा हिन्दुओं द्वारा दो रूप में किया गया । दिन को चार बराबर भागों में जो कि प्रहर कहलाते थे, बाँटा गया तथा रात का भी विभाजन ठीक इसी प्रकार चार प्रहरों में किया गया। भारतीय समय मापन की प्रहर महत्वपूर्ण इकाई थी। लोग प्रहर व आधे प्रहर का प्रयोग करते थे । सिद्धान्त ज्योतिष में पूर्ण रूप से वैज्ञानिक व्यवस्था दिन के उपभागों के लिए विकसित कर ली गयी थी। इसकी मुख्य इकाईयां घटिका, प्रहर, यम व मुहर्त आदि हैं। सूर्योदय से अगले सूर्योदय का एक दिन था जिसको ६० बराबर घटिकाओं में बांटा गया, प्रत्येक घटिका ६० बराबर पल में वांटी गयी थी, प्रत्येक पल ६० विपल में बंटा था, इस प्रकार एक दिन में ६० घटिका, ३६०० पल, या २१६००० विपल होते थे। काल गणना के लिए वर्ष को इकाई माना गया । यह इतिहास काल की बात है। प्रागैतिहासिक काल में काल गणना वर्ष के बजाय ऋतु चक्र द्वारा की जाती थी। एक शरद ऋतु के आरम्भ होने से दूसरी शरद के आरम्भ होने तक का समय शरद कहलाता है । वर्ष स्वयं एक ऐसा शब्द है जिसका अभिप्रायः एक वर्षा काल के आरम्भ से दूसरी वर्षा तक के आरम्भ तक का समय अंतनिहित है। ऋग्वेद में शरद, बसन्त और हेमन्त शब्दों का प्रयोग वर्ष या संवत्सर के अर्थ में हआ है।
वैदिक भाषा में ऋतु चक्र को यज्ञ और प्रजापति भी कहा गया है । इसकी उत्पत्ति सूर्य से होती है । अर्थात् ऋतुयें सूर्य से उत्पन्न होती है इसीलिए सूर्य को ऋतुओं का पिता तथा सविता कहा गया है और उस सविता का पुत्र उक्त ऋतु चक्र "वत्स", "संवत्सर" या "वत्सर" कहा गया। "ये संवत्सर पांच प्रकार के होते थे, इसीलिए सूर्य को पंचपाद पितरं भी कहा गया है । एक संवत्सर में पांच ऋतुयें होती हैं और ऐसे पांच ऋतु चक्रों का एक युग माना गया है : (१) संवत्सर (२) परिवत्सर (३) इडावत्सर (४) अनुवत्सर (५) उद्वत्सर। इन पांच वर्षों के ऋतु सम्बन्धी सूक्ष्म विभागों का अनुसंधान गणित द्वारा किया जाता था यह अनुसंधान ही पंचांग कहलाता था।"
वर्ष और ऋतु चक्र में तालमेल बैठाने के लिए यूरोपीय पंचांग में 'लीपइयर" की व्यवस्था की गयी तथा भारतीय पंचांग में "अधिमास" की व्यवस्था की गयी।
१. "कादम्बनी", जनवरी १९८७, दिल्ली, पृ० २२ ।