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भारत में सम्वतों की अधिक संख्या की उत्पत्ति के कारण
गया। ब्रिटिश शासकों के आगमन के साथ जूलियन व ग्रिगेरियन कलेण्डर भारत आये ।
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भारतीय राष्ट्रीय पंचांग में कुछ पूर्व प्रचलित समय निर्धारण की इकाईयों में सुधार भी किए गये तथा उन्हें नवीन खगोलशास्त्रीय खोजों के आधार पर निर्धारित करने का प्रयास किया गया है । सदियों से चली आ रही रूढ़ियों के कारण आधुनिक मान्यताओं में फीके पड़ रहे उनके मूल्यों को पुनः आंकने का कार्य भी भारतीय पंचांग सुधार समिति द्वारा किया गया ।
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सूर्य सिद्धांत का प्रयोग आज भी पंचांग निर्माण के लिए किया जाता है । इसका प्रभाव यह होता है कि वर्ष का आरम्भ .०१६५६ दिन प्रति वर्ष विकसित होता है। इस प्रकार लगभग १४०० वर्ष में वर्ष का आरंभ २३२ दिन विकसित हो जाता है । इसलिए भारतीय सूयं वर्ष महाविषुव ( वरनल इक्वीनोक्स अथवा २२ मार्च) से आरम्भ होने के स्थान पर १३ या १४ अप्रैल से आरम्भ होता है । स्थिति वैसी ही है जैसी यूरोप में हुई थी, जहां कि वर्ष की लम्बाई के लिए ३६५.२५ दिन प्रयोग किये जाने के कारण जूलियस सीजर के समय से क्रिसमस १० दिन " दक्षिण अमान्त" की तरफ बढ़ जाता है । यह गलती जार्ज ग्रिगोरी ३० वें के समय सुधारी गयी। इस भूल को सुधारने के लिए भारतीय पंचांग समिति ने यह सुझाव दिया कि "नया भारतीय वर्ष महाविषुव के बाद वाले दिन या महाविषुव के दिन से ही आरम्भ होना चाहिए ।"" लेकिन भारतीय कलैण्डरों के बहुत से रूढ़िवादी निर्माता इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं तथा वे वर्ष का आरम्भ नवरात्रि आरम्भ १३-१४ अप्रैल से ही करते हैं । इण्डियन कलैण्डर रिफोर्म कमेटी ने यह विचार सूर्य सिद्धान्त के साथ सामंजस्य पर ही निर्धारित किया ।
सूर्य सिद्धान्त में महीनों की सही लम्बाई न लिखे होने के कारण हिन्दू पंचांगों में महीनों की असमान लम्बाई प्रचलित है तथा पंचांग निर्माण के समय इस सन्दर्भ में अनेक रूढ़ियों का सामना करना पड़ता है । सूर्य महीनों की गिनती २६ से ३२ दिन के बीच होती है । कार्तिक, मार्गशिर, पौष, माघ, फाल्गुन के महीने २९ से ३० दिन के होते हैं, चैत्र, बैशाख, आश्विन के माह ३० या ३१ दिन के होते हैं, बाकी महीने जैसे कि ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद में ३१ से ३२ दिन होते हैं जिनमें एक या दो महीने में प्रतिवर्ष ३२ दिन होते है । महीनों
१. "रिपोर्ट ऑफ द कलैण्डर रिफोर्म कमेटी", १९५५, नई दिल्ली, पृ० २४१ ।