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भारतीय संवतों का इतिहास
शासकों की पूर्व-प्रचलित प्रथाओं को मिटाने व नये तत्वों को लागू करने की प्रवत्ति भी संवतों की जन्मदायिनी रही और इस बात की संभावना तब और अधिक बढ़ जाती थी जबकि एक राज्य दूसरे को विजित कर अपना शासन स्थापित करता था । धर्म संस्कृति के समूल नाश में गणना पद्धति भी अछूती नहीं रहती थी व पूर्व प्रचलित संवत् के स्थान पर नये संयत् की स्थापना कर दी जाती थी। चालुक्य, विक्रम, शाहूर व राज्याभिषेक संवतों का प्रादुर्भाव इसी भावना का फल था। इस प्रवृत्ति को प्रान्तवाद का नाम भी दिया जा सकता है । इन संवतों के आरम्भकर्ता प्रान्तीयता की भावना से प्रेरित थे । अतः अपने प्रान्त को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए उन्होंने संवतों के आरम्भ को प्रतीक रूप में ग्रहण किया। इनमें एक नयी पद्धति देने की भावना व जोश था, जो नये संवतों की जन्मदायिनी बनी।
भारत में नये-नये धर्मों व सम्प्रदायों के प्रादुर्भाव से भी नये संवतों की स्थापना हुई । ये नये सम्प्रदाय अपने धार्मिक नेता को प्रतिष्ठित करने तथा भारत में पूर्व प्रचलित धर्म के बराबरी में अपने धर्म को लाने के लिए नये संवत् आरम्भ करते रहे जैसाकि भारत में पूर्व प्रचलित सनातन धर्म के देवी-देवताओं के नाम पर संवत् प्रचलित थे। महावीर-निर्वाण, बुद्ध-निर्वाण, महर्षि दयानन्दाब्द, बहाई संवत् आदि इसी प्रकार नये सम्प्रदायों द्वारा आरम्भ किए गए संवत् हैं।
अब तक ऐसे कारणों का उल्लेख हआ है जो भारत में इतनी बड़ी संख्या में सम्वतों के प्रादुर्भाव के लिए उत्तरदायी रहे। अब कुछ ऐसे कारणों को भी समझना जरूरी है जिन्होंने सम्बतों की इस विशाल संख्या को सीमित कर दिया तथा आज भारत में कुल आरम्भ हुए सम्वतों का एक तिहाई भाग ही प्रचलित है, शेष अपने आरम्भ की कुछ शताब्दियों बाद ही अदृश्य हो गये। इस संदर्भ में कुछ कारण इस प्रकार गिनाये जा सकते हैं :
प्रथम, अधिकतर सम्वतों के आरम्भकर्ता शासक अथवा राजवंशों का शासनकाल सीमित था जब तक कि लोग उनके द्वारा दी गयी किसी नयी व्यवस्था से भली-भांति परिचित हो पाते वे उसे ग्रहण करते, उससे पूर्व ही शासक वंश बदल गया तथा प्रजा मये राजा की नीतियों में उलझ गयी। अतः पहले द्वारा दी गयी पद्धति को स्थाई रख पाना उसके लिए संभव न रहा । इससे आरम्भकर्ता के शासन-समाप्ति के साथ ही अधिकतर सम्वतों का भी अन्त हो गया।