________________
१६६
भारतीय संवतों का इतिहास
समान ही विक्रम संवत का विस्तार क्षेत्र भी सम्पूर्ण भारत एक साथ नहीं बन पाया । यद्यपि यह स्वदेशी कहा जा सकता है पर राजकार्यों में इसका प्रयोग अधिक समय नहीं हो पाया, अतः इसको भी भारतीय राष्ट्रीय संवत् नहीं माना जा सकता।
इनके बाद शक संवत् का नम्बर आता है। जिसने भारतीय इतिहास को सर्वाधिक प्रभावित किया ! इसका विकास तीन चरणों में हुआ। प्रथम पुराना शक संवत् । ऐसा माना जाता है कि कनिष्क ने किसी नये संवत् का आरम्भ नहीं किया, अपितु यह उससे कई शताब्दी पहले ही प्रचलित था। वान लोहिजन डी ल्यू का विचार है कि तिथि गणना की प्राचीन भारतीय प्रथा १०० का अंक छोड़कर गणना करने की थी। मथुरा के अनेक ब्राह्मी अभिलेखों में ५ से ५७ वर्ष तक की तिथियाँ हैं, जिनमें प्राचीन भारतीय प्रथा का अनुसरण किया गया है। वहां १०५ के लिए ५ तथा ११४ के लिए १४ कूषाण संवत् के लिए प्रयुक्त हुए हैं । मथुरा के पास के प्रथम शताब्दी के लेखों की तिथि के सम्बन्ध में यही धारणा है। एम०एन० शाह के अनुसार कनिष्क का प्रथम वर्ष पुराने शक संवत् का २०१ वर्ष है। कनिष्क सन् ७८ ई० में सिंहासनारूढ़ हुआ और तब उसने नया शक संवत् चलाया । वान लोहिजन डी.ल्यू तथा एम०एन० शाह के विचारों से यही तथ्य सामने आता है कि पुराना शक संवत् १२३ ई० पूर्व में आरंभ हुआ तथा इसमें शताब्दियों का अंक छोड़कर गणना की जाती थी। ७८ ई० में आरंभ होने वाला संवत् नया शक संवत् माना जाता है। यह संवत् के विकास का दूसरा चरण माना जा सकता है। इसका प्रयोग आज भी हिन्दू धर्म कार्यों के लिए किया जाता है । इसे राष्ट्रीय संवत् मानने में कुछ कठिनाईयाँ हैं । प्रथम इसके वर्ष का आरंभ देश के विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग ऋतुओं में किया जाता है। दूसरा वर्ष की ही भांति इसके महीनों का आरम्भ भी अलग-अलग स्थानों पर पृथक रूप से है। पूणिमान्त व आमांत दो प्रकार के माह प्रचलित हैं। इसके साथ ही ईसाई व हिनी संवतों के समान ही शक संवत् पर भी विदेशी होने का आरोप लगाया जा सकता है जैसा कि इसके नाम से ही विदित है। अतः शक संवत् से इस स्वरूप को भारतीय राष्ट्रीय संवत् नहीं माना जा सकता। शक संवत् तीसरे चरण में, स्वतन्त्र भारत की सरकार द्वारा उसे राष्ट्रीय संवत् के रूप में ग्रहण करने के साथ आरंभ होता है । भारत सरकार ने जिस शक संवत् को राष्ट्रीय संवत् के रूप में ग्रहण किया उसका स्वरूप ७८ ई० में आरम्भ होने वाले शक संवत् से भिन्न है। २२ मार्च, १६५७ ई० को इसे भारतीय राष्ट्रीय संवत् के रूप में ग्रहण कर लिया गया है,