________________
ऐतिहासिक घटनाओं से आरंभ होने वाले सम्वत्
१३१
उसने अपनी दिग्विजय पूरी कर ली थी, जो ६०६ ई० में उसके राज्यारोहण से आरम्भ हुयी थी ।" "
हर्ष संवत् के वर्तमान प्रचलित वर्ष का अब अनुमान कठिन है क्योंकि इसकी गणना पद्धति, वर्ष की लम्बाई, महीनों की संख्या तथा बौंद के वर्ष आदि का उल्लेख नहीं मिलता । इन सबके अभाव में अब इतना समय बीत जाने पर इसके वर्तमान प्रचलित वर्ष को बता पाना संभव नहीं है । इस संवत् के आरम्भ का समय ५२६ चालू शक अथवा ६०६-०७ ई० है । हर्ष वर्धन अपने वंश का एक शक्तिशाली शासक था । अपने राज्यारोहण के समय हर्ष ने इस नए संवत् की स्थापना की । संवत् का वास्तविक आरम्भ ६१२ ई० में हुआ तथा इसके आरम्भ की तिथि ६०६-०७ ई० से मानी गयी। जैसा कि गुप्त संवत् के संदर्भ में भी समझा जाता है । अधिकांश विद्वान् इस विचार से सहमत हैं कि हर्ष के राज्यारोहण के समय से हर्ष संवत् का आरम्भ हुआ तथा अभिलेखों, साहित्य व तत्कालीन लोक प्रचलन में इस संवत् को पर्याप्त स्थान मिला । लेकिन डा० आर०सी० मजूमदार ने अपने कुछ लेखों में इस मत का खण्डन किया है । वे मानते हैं कि इस सम्बन्ध में न ही कोई अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध है और न ही ऐतिहासिक तथ्यों से इसकी पुष्टि होती है कि हर्ष ने किसी संवत् का आरम्भ किया । मजूमदार का विश्वास है कि हर्ष संवत् की मानी जाने वाली समस्त तिथियां या तो भट्टिका संवत् की हैं जो इसके लगभग साथ ही आरम्भ हुआ अथवा वे किन्हीं क्षेत्रीय संवतों से सम्बन्धित हैं । " किसी स्मारक, लेख, अभिलेख अथवा चिन्ह में हर्ष के नाम का इस संवत् से सम्बन्ध नहीं दर्शाया गया है । यहां तक कि बाण अथवा ह्वेन्सांग जिन्होंने इस महान् सम्राट के विषय में इतनी बातें कहीं हैं, कहीं भी संवत् का लेशमात्र भी संदर्भ नहीं दिया है ।"२ मजूमदार ने हर्ष संवत् की स्थापना की सम्भावना को अस्वीकारते हुये इस सम्बन्ध में एक आपत्ति यह भी उठाई है कि हर्ष के पश्चात् शीघ्र ही अराजकता फैल गयी तथा स्वयं भी उसने लम्बे समय तक शासन नहीं किया । इस प्रकार दोनों ही परिस्थितियां जो किसी संवत् का मुख्य सहारा हो सकती हैं हर्ष संवत् के सम्बन्ध में उपलब्ध
१. सी०पी० वैद्य, 'हर्षा एण्ड हिज टाइम्स', 'द जर्नल ऑफ द बोम्बे ब्रांच ऑफ द रायल एशियाटिक सोसाइटी", वोल्यूम २४, १९१७, पृ० २३५-७६ ॥
२. आर०
०सी० मजूमदार, '६ हर्ष एरा', 'इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली”, वोल्यूम २७, सितम्बर, १९५१, कलकत्ता, पृ० १८३ ।