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भारतीय संवतों का इतिहास
से प्राप्त किये गये निष्कर्षों से भी इसी तिथि की पुष्टि होती है। अल्बेरूनी लिखता है-"श्री हर्ष के विषय में हिन्दू मानते हैं कि पृथ्वी के पेट में छिपे कोषों की प्राप्ति के लिये सातवीं पृथ्वी तक नीचे की ओर भूमि की परीक्षा किया करते थे, वास्तव में उन्हें ऐसे कोष मिले भी थे, और इसके परिणाम से, उन्हें कर आदि से प्रजा को दबाने की आवश्यकता नहीं रही थी। उनके संवत् का व्यवहार मथुरा कन्नौज के देश में किया जाता है। उस प्रदेश के कुछ आदिवासियो से मुझे ज्ञात हआ है कि श्री हर्ष और विक्रमादित्य के बीच ४०० वर्ष का अन्तर है सचाऊ ने इसका पाठ विक्रमादित्य से ४०० वर्ष पूर्व किया है तथा इसी आधार पर डा० मजूमदार के तर्क हैं, जिनका खण्डन डी०सी सरकार ने किया। परन्तु काश्मीर पचांग में मेंने पढ़ा कि श्री हर्ष विक्रमादित्य से ६६४ वर्ष पीछे हुये थे।" इस विवरण से स्पष्ट है कि विक्रमादित्य के ६६४ वर्ष पश्चात् अर्थात् ६६४-५८=६०६ ई० में हर्ष संवत् की स्थापना हुई । डा० देवहूति ने आर०सी मजमदार व डी०सी० सरकार के विवाद को विशेष महत्व नहीं दिया है तथा हर्ष संवत् के आरम्भ के संदर्म में अपना स्वतंत्र व निश्चित मत व्यक्त किया है :
हर्ष ने ६०६ ई० में एक संवत् आरम्भ किया लेकिन आर०सी मजमदार ने एक वि दि उत्पन्न कर दिया। जबकि उन्होंने कहा कि यह विवाद बहत कमजोर नींव पर खड़ा हुआ है जबकि डी०सी० सरकार ने प्रत्युत्तर में कहा कि आमतौर पर स्वीकार्य विचार के विपक्ष में मुटिकल से ही कोई साक्ष्य जाता है। हम दोनों विद्वानों द्वारा दिये गये विभिन्न मतों को ध्यान में रखकर अपना ही मत स्पष्ट करेंगे कि हर्ष ने अपना संवत् ६०६ ई० में ही आरम्भ किया । हर्ष जिसने कि राज्य ६०६ ई. तक काफी पा लिया था तथा जिसने राजा की उपाधि थानेश्वर के परमभट्टारक महाराजाधिराज की उपाधि ग्रहण की तथा जिसने अपनी दिग्विजय का झंडा उसी वर्ष उठा लिया ऐसे हर्ष ने अपने राज्य की शुरूआत ६०६ ई० ही मानी जो कि उसके लिये एक नया संवत आरम्भ करने के लिये एक सही घटना थी।
१. अल्बेरूनी, "अल्बेरूनी का भारत", अनु० रजनीकांत, इलाहाबाद, १९६७,
पृ०। २. देवहूति, "हर्षा", लन्दन, १९७०, पृ० २३५-३७ ।