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विभिन्न सम्वतों का पारस्परिक सम्बन्ध व वर्तमान अवस्था
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प्रथा रही व बहुतों की व्यतीत वर्ष लिखने की तथा कभी-कभी एक ही संवत् का कहीं प्रचलित वर्ष लिखा है व कहीं व्यतीत, तो कहीं दोनों ही । जहां संवत् के प्रचलित व व्यतीत वर्ष साथ-साथ लिखे मिलते हैं वहां कठिनाई नहीं है । लेकिन चालू व व्यतीत वर्षों के अकेले लिखे होने पर उनकी पहचान मुश्किल हो जाती है । कलि संवत् के चालू व्यतीत व दोनों साथ-साथ लिखे वर्ष मिलते हैं । "कभी इसका गुजरा वर्ष तथा कभी चालू वर्ष दिया गया है व कभी-कभी दोनों साथ-साथ दिये गये हैं ।" "
ये कुछ विशिष्टतायें ऐसी हैं जो लगभग सभी धार्मिक संवतों में पायी जाती हैं । चाहे वे किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय से सम्बन्धित हों ।
धर्म चरित्रों से संवत् का आरम्भ जोड़ने के अतिरिक्त भारत में संवत् आरम्भ का सम्बन्ध ऐतिहासिक घटनाओं से जोड़ने की प्रथा भी थी । इस प्रवृत्ति ने संवतों की एक बड़ी संख्या को जन्म दिया । इन संवतों की कुछ विशिष्टतायें थीं जो एक-दूसरे से मेल खाती थीं तथा इनकी विशिष्टतायें धर्म चरित्रों से सम्बन्धित संवतों से थोड़ी पृथक् थीं ।
संवतों की उत्पत्ति के कारणों में समानता थी । अधिकांश संवतों का आरम्भ राजाओं द्वारा शक्ति प्रदर्शन व आत्मिक प्रतिष्ठा को लेकर किया गया । संवतों की उत्पत्ति के समय के सन्दर्भ में विवाद है जो अधिकतर संवतों में पाया जाता है । आरम्भकर्ता के सन्दर्भ में विवाद भी अधिकांश संवतों की सामान्य प्रवृत्ति है । इन संतों की एक विशिष्टता यह है कि इनका नाम आरम्भकर्ता के नाम पर पड़ा है। भारतीय संवतों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में यह प्रवृत्ति बहुतायत से पायी जाती है कि जिस घटना, वर्ष व समय से उनका आरम्भ माना जाता है उसके काफी समय बाद संवत् का आरम्भ किया गया तथा गणना का समय वही माना गया जिस समय घटना घटित हुई। यह प्रवृत्ति न केवल भारतीय संवतों में वरन् विश्व के अनेक प्रमुख संवतों में रही है । क्रिश्चियन संवत् का आरम्भ इस संवत् की १०वीं शताब्दी से माना जाता है ।
इन संवतों का प्रयोग राजनीतिक व धार्मिक कार्यों के लिए साथ-साथ हुआ । शक व विक्रम दो संवत् ऐसे रहे जिनका प्रयोग धर्म, राजनीति, साहित्य, अभिलेख अंकन व दैनिक व्यवहार के लिए हुआ । पंचांग निर्माण के लिए बहुत कम संवतों का प्रयोग हुआ है ।
१. रोबर्ट सीवेल, “दि इण्डियन कलैण्डर ", लन्दन, १८६६, पृ० ४०-४१ ।