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भारतीय संवतों का इतिहास
धर्म चरित्रों से संबंधित संवतों के प्रचलन क्षेत्र के लिए किसी भू-क्षेत्र का नाम नहीं लिया जा सकता वरन् इनका प्रचलन धर्म विशेष व सम्प्रदाय विशेष से हैं । धर्म अनुयायियों के देश-विदेश में बसने व धर्म के प्रसार के साथ ही इन संवतों का प्रचलन-क्षेत्र भी बढ़ता रहा है ।
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इन संवतों को सम्प्रदायों द्वारा सामूहिक रूप में ग्रहण किया गया है । अतः इनके आरम्भकर्ता के रूप में किसी विशिष्ट व्यक्ति का नाम नहीं लिया जाता । महावीर निर्वाण, बुद्ध निर्वाण, महर्षि दयानन्दाब्द आदि संवतों को इनके अनुयायियों द्वारा सामूहिक रूप से मनाया जाता है तथा इन्हें कब संवत का नाम दे दिया गया इस संदर्भ में साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं ।
इन धर्मं चरित्रों से संबंधित संवतों का धार्मिक महत्व ही अधिक है, शेष कार्यों राजनीति, अभिलेखीय अथवा इतिहास लेखन के लिए इनका प्रयोग नगण्य ही रहा है । इन संवतों का एक प्रयोग खगोलशास्त्रीय व पंचांग निर्माण के लिए भी रहा है । कलि संवत् के संबंध में एक कथन इसकी पुष्टि करता है : "इसका प्रयोग खगोलशास्त्रीय तथा पंचांग निर्माण दोनों कार्यों में हुआ है । इसका प्रयोग बहुधा शिलालेखीय कार्यों के लिए नहीं हुआ है ।" "
इन संवतों (भारतीय संत्रतों) के सन्दर्भ में पृथक-पृथक गणना पद्धति का उल्लेख नहीं मिलता तथा जो विदेशों से आये संवत् हैं और उन्हें भारतीय इतिहास में ग्रहण कर लिया गया इनके लिए अलग गणना पद्धति का प्रयोग हुआ है । हिन्दू धर्म के संबंधित संवतों का आधार वैदिक गणना पद्धति है । ईसाई के लिए सौर वर्ष व हिज्रा के लिए चन्द्रीय वर्ष का प्रयोग हुआ है । बाद में इन पद्धतियों में बहुत से सुधार भी होते रहे हैं ।
इन धार्मिक संवतों के आरम्भ का मुख्य उद्देश्य धर्म-नेताओं व देवताओं को प्रतिष्ठित करना व दूसरे धर्मों से अपने धर्म को अधिक प्राचीन दर्शाना रहा है ।
इन संवतों का नामकरण धर्मं आरम्भकर्ता के जीवन की किसी घटना अथवा किसी देवी देवता के नाप पर अथवा धर्म के नाम पर हुआ है । संवत् का नाम सुनकर ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह किस धर्म से संबंधित है ।
इनमें अनेक संवतों के संबंध में यह शंका रहती है कि उनका प्रचलित वर्षं लिखा गया है या व्यतीत । क्योंकि बहुत से संवतों का प्रचलित वर्षं लिखने की
१. रोबर्ट सीवल, "दि इण्डियन कलैण्डर ", लन्दन, १८६६, पृ० ४०-४१ ।