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भारतीय संवतों का इतिहास
पुड़वे संवत्
इस संवत् का उल्लेख श्री ओझा ने किया है। कोचीन राज्य व डच ईस्ट इण्डिया कंपनी के बीच जो संधि हुई वह तांबे के पांच पत्रों पर खुदी मिली है जिसमें पुड़ वैप्पु संवत् ३२२, १४ मीनम् ( मीन संक्रान्ति का १४ दिन = ई० संवत् १६६३ तारीख २२ मार्च) लिखा है । इसी के आधार पर इस सवत् का आरंभिक दिन निकाला जाता है । १६६३ – ३२२ = १३४१ ई० से पुर्वप्पु संवत् का आरंभ हुआ । श्री ओझा के शब्दों में : " ई० संवत् १३४१ में कोचोन के उत्तर में एक टापू (१३ मील लंबा और १ मील चौड़ा ) समुद्र में से निकल आया, जिसे "बीपीन” कहते हैं । उसकी यादगार में वहां पर एक नया संवत् चला जिसको पुण्डुर्वप्पु (पुंडु = नई, वेप = आबादी ; मलयालम भाषा में ) कहते हैं |""
मात्र ओझा ने ही इस संवत् का उल्लेख किया है । इस संबंध में अन्य किसी साक्ष्य से कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है । अतः यही संभावना है कि इसका प्रचलन बीपीन टापू (जिसका उल्लेख श्री ओझा ने किया है) तक ही सीमित रहा होगा । देश के अन्य हिस्सों में प्रचलित नहीं हो पाया । तथा दूसरे अनेक संवतों के समान ही कम समय में ही इसका प्रचलन बन्द हो गया ।
तारीख इलाही सवत्
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तारीख-ए-इलाही का अर्थ है खुदा का संवत् । क्योंकि इलाही धर्म के साथ ही यह नया संवत् भी आरंभ किया गया था। अतः इसका नाम भी इसी धर्म के नाम पर इलाही संवत् पड़ा । "नौरोज के त्योहार १५८४ में अकबर ने अपने शक्तिशाली संवत् या ईश्वरीय संवत् का प्रारंभ किया इससे संबंधित सभी चीजें ईश्वरीय थीं ।' इस संवत् को महान् अथवा ईश्वरीय संवत् भी कहा जाता है । अकबर तथा जहांगीर के समय की लिखावटों, सिक्कों तथा ऐतिहासिक ग्रंथों पर इस सन् का अंकन पाया जाता है । लगभग ७२ वर्षं तक यह प्रचलन में रहा । ऐसा समझा जाता है कि शाहजहां ने गद्दी पर बैठते ही इसको समाप्त कर दिया । इलाही संवत् के प्रचलन का क्षेत्र अकबर का शासन क्षेत्र ही था ।
१. गौरीशंकर ओझा, "भारतीय प्राचीन लिपिमाला", अजमेर, १६१८, पृ० १८६ |
२. एल०डी० स्वामी पिल्लंयी, “इण्डियन क्रोनोलॉजी", मद्रास, १९११, पृ० ४५ ।