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भारतीय संवतों का इतिहास मिथिला में इस संवत का आरम्भ किया गया तथा अपने आरम्भ के दिनों में यह बंगाल, बिहार और मिथिला में प्रचलित था। इसके पश्चात सम्भवतः संवत् का प्रचलन-क्षेत्र सीमित हो गया और यह मिथिला व तिरहुत में प्रचलित रहा। उपरोक्त कथनों से यही बात स्पष्ट होती है तथा कलैण्डर सुधार समिति की रिपोर्ट में इसका प्रचलन-क्षेत्र मात्र मिथिला ही बताया गया है' अर्थात संवत् का प्रयोग-क्षेत्र निरन्तर घटता रहा है । इसके साथ ही यह कहीं भी मुख्य संवत् के रूप में प्रयोग नहीं हुआ है वरन शक व विक्रम के साथ क्षेत्रीय संवत के रूप में ग्रहण किया गया है ।
यह संवत अब प्रचलन में नहीं है, न ही इसकी गणना पद्धति के विषय में स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध हैं । अतः इसके कुल व्यतीत वर्षों अथवा वर्तमान प्रचलित वर्ष बता पाना संभव नहीं।
इस संवत् का प्रयोग राजनीतिक व ऐतिहासिक महत्व के साहित्य के लिए किया गया जैसा कि मिनहाज उससिराज व अब्बुल फजल की पुस्तकों के उपरोक्त आये उद्धरणों से विदित है।
शिव सिंह संवत् __ यह संवत् “शिव सिंह संवत्'' अथवा मात्र "सिंह संवत्" नामों से जाना जाता है इस संवत के विषय में जानकारी का मुख्य स्रोत कर्नल जेम्स टॉड द्वारा रचित "ट्र विल्ज इन वेस्टर्न इंडिया" है। कर्नल टॉड ने काठियावाड़ के दक्षिण में गोहिलों को इस संवत् का प्रवर्तक माना है । भगवान लाल इन्द्रजी का कथन है : “संभवतः ई० संवत् १११३.१११४ (विक्रम संवत् ११६९-७०) में (चालुक्य) जय सिंह (सिद्धराज) ने सोरठ (दक्षिणी काठियावाड़) के (राजा) खेंगार को विजय कर अपने विजय की यादगार में यह संवत् चलाया।"२ परन्तु इस कथन पर श्री ओझा द्वारा अनेक आपत्तियां लगाई गयी हैं। प्रथम-ई० संवत् १११३-१११४ में ही जय सिंह के खेंगार को विजय करने का कोई प्रमाण नहीं है । दूसरी आपत्ति यह है कि यदि जय सिंह ने यह संवत् चलाया होता तो इसका नाम "जय सिंह संवत्" होना चाहिये थे न कि "सिंह संवत्"
१. "रिपोर्ट ऑफ द कलण्डर रिफोर्म कमेटी", नई दिल्ली, १६५५, पृ० २५८ । २. गौरीशंकर होराचन्द ओझा द्वारा अपनी पुस्तक, "भारतीय प्राचीन लिपि__ माला", अजमेर, १६१८, पृ० १८२ में उद्ध त। ३. वही, पृ० १६२-८३ ।