________________
१३०
भारतीय संवतों का इतिहास
बंगाली सन् की गणना पद्धति का उल्लेख करते समय दो तथ्यों को समझना आवश्यक है । प्रथम, इसके विषय में धारणा है कि यह "मिश्रित पद्धति"" वाला संवत् है । दूसरा, यह फसली सन् का प्रकारांतर मात्र है। इन दोनों बातों का तात्पर्य एक ही है क्योंकि फसली संवत् भी मिश्रित पद्धति वाला है और यह फसली संवत् के ही समान है। इससे संदर्भ में ओझा का निम्न मत है : “यह एक प्रकार से बंगाल के फसली सन का प्रकारान्तर मात्र है। बंगाली सन् व फसली सन् में अन्तर इतना ही है कि इसका आरंभ आश्विन कृष्ण एक से किंतु उससे सात महीने बाद मेष संक्रान्ति (सौर वैशाख) से होता है और महीने सौर है जिससे उनमें पक्ष व तिथि की गणना नहीं है। जिस दिन संक्रान्ति का प्रवेश होता है उसके दूसरे दिन को पहला दिन मानते हैं ।" __ पंचांग निर्माण के लिए इस संवत् का प्रयोग किया गया। वर्तमान समय में भी राष्ट्रीय पंचांग में इसका वर्ष अंकित रहता है । बंगाल प्रान्त में धार्मिक दृष्टिकोण से भी यह महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय पंचांग में इस संवत् का अंकन इस बात का द्योतक है कि यह वर्तमान समय में भी प्रचलित है तथा इसका महत्व बढ़ रहा है।
श्री हर्ष संवत् इस संवत् का नाम इसके आरम्भ करने वाले राजा हर्ष के नाम पर हर्ष संवत् पड़ा है। हर्ष संवत् का विस्तार मथुरा व कन्नौज में हुआ। हर्ष द्वारा इस नये संवत् का आरम्भ भारत में संवत् आरम्भ के संदर्भ में पूर्व प्रचलित परम्परा का अंश था। यह पहले संवत् के समान ही हर्ष के चक्रवर्ती सम्राट होने के उपलक्ष्य में चलाया गया था, ठीक उसी प्रकार जैसे कि विक्रम, शक व गुप्त आदि संवतों की स्थापना की गयी थी। "वास्तव में एक नये संवत् का आरम्भ उस समय अपने साम्राज्य का विशेष चिन्ह समझा जाता था और हर्ष ने उसी प्रथा के प्रति उत्तर में अपना संवत् ६१२ ई० में आरम्भ किया, जबकि
१. फसली संवत् के सम्बन्ध में मिश्रित पद्धति का अर्थ चन्द्र सौर की मिश्रित
पद्धति नहीं है वरन् इसका अर्थ है कि यह संवत् कुछ समय केवल चन्द्र
पद्धति व कुछ समय केवल सौर पद्धति का रहा। २. रायबहादुर पण्डित गौरी शंकर हीरा चन्द ओझा, "भारतीय प्राचीन लिपि
माला", अजमेर, १६१८, पृ० १६२-६३ । ३. "रिपोर्ट ऑफ द कलेण्डर रिफोर्म कमेटी", दिल्ली, १९५५, पृ० २५८ ।