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ऐतिहासिक घटनाओं से आरंभ होने वाले सम्वत्
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समझा जाता है कि देश के एक बड़े भू-खण्ड पर फसली संवत् का प्रचलन होने पर इसका प्रसार प्रशासनिक ही रहा, यह जनमानस का संवत् नहीं बन पाया । फसली सन् सम्पूर्ण भारत में एक साथ नहीं अपनाया गया वरन् इसका प्रसार शनैः शनै हुआ । “पहले इस सन् का प्रचार पंजाब और संयुक्त प्रदेश में हुआ और पीछे से जब बंगाल आदि क्षेत्र अकबर के राज्य में मिले तब से वहां भी इसका प्रचार हुआ । दक्षिण में इसका प्रचार शाहजहां बादशाह के समय में हुआ । ओझा के समय (१९१८ तक) यह सन् कुछ-कुछ प्रचलित था । परन्तु भिन्न-भिन्न हिस्सों में इसकी गणना में अंतर रहा। पंजाब, संयुक्त प्रदेश तथा बंगाल में इसका प्रारम्भ आश्विन कृष्ण एक (पूर्णिमांत ) से माना जाता है जिससे इसमें ५६२-६३ मिलाने से ई० सन् और ६४६-५० मिलाने से विक्रम संवत ही बनता है ।' "" विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग समय में फसली पंचांग में सुधार किये जाते रहे । “मद्रास इहाते में इस सन् का पहिले तो आडि (कर्क) संक्रान्ति से वर्ष आरम्भ होता रहा परन्तु ई० सन् १८०० के आसपास के तारीख १३ जौलाई से माना जाने लगा और ई० स० १८५५ से तारीख एक जौलाई प्रारम्भ स्थिर किया गया है । दक्षिण के फसली सन् में ५६०-६१ जोड़ने से ई० सन् श्रौर ६४७-४८ जोड़ने से विक्रम संवत् बनता है ।"" जेम्स प्रिसेप ने भारत के विभिन्न प्रान्तों में प्रचलित फसली पंचांगों को प्रकाशित किया था । दक्षिण फसली संवत् का आरम्भ शाहजहां द्वारा १६३६ ई० में किया गया । "फसली संवत् एक प्रकार का मिश्रित संवत् है जिसके ६६३ वर्ष हिज्री के चन्द्रीय में (चन्द्रमान में ) पड़ते हैं तथा इसके बाद के वर्ष सूर्यमान में पड़ते हैं ।" इस प्रकार फसली संवत् के विभिन्न आरम्भ तथा इसके वर्ष के भी विभिन्न आरम्भ बिन्दुओं का उल्लेख मिलता है । में डा० त्रिवेद का कथन उचित ही जान पड़ता है : "निश्चय ही इस आरम्भ की तिथि ५६२६३ ई० के आसपास रही होगी तथा विभिन्न पर अलग-अलग अवसरों पर इसकी पद्धति में अंतर आते रहे होंगे अथवा विभिन्न क्षेत्रों में पृथक रूप में इसे ग्रहण करते समय कुछ परिवर्तन के साथ संवत् का आरम्भ ० वर्ष से किया गया होगा ।""
इस संदर्भ संवत् के समयों
१. राय बहादुर पण्डित गौरी शंकर हीरा चन्द ओझा, "भारतीय प्राचीन लिपिमाला", अजमेर, १६१८, पृ० १६२ ।
२ . वही ।
३. एलेग्जेण्डर कनिंघम, "ए बुक ऑफ इण्डियन एराज", वाराणसी, १९७६, पृ० ८२ ।
४. डी० एस० त्रिवेद, "इण्डियन क्रोनोलॉजी”, बम्बई, १९६३, पृ० ४३ ।