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ऐतिहासिक घटनाओं से आरंभ होने वाले सम्वत्
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इससे पूर्व यह संवत चन्द्रीय पद्धति पर आधारित था। संवत् का उद्देश्य पूर्ववत ही रहा, फसल सम्बन्धी कार्यों को पूरा करना ।
निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि फसली संवत का आरम्भ ५६२ ई० के आसपास हुआ जैसाकि कलण्डर रिफोर्म कमेटी का निर्णय तथा डा० डी० एस० त्रिवेद का मत है । विभिन्न अवसरों पर इसकी पद्धति में अन्तर आते रहे तथा विभिन्न क्षेत्रों में पृथक रूप से इसे ग्रहण करते समय कुछ परिवर्तन के साथ संवत् का आरम्भ ० वर्ष से किया गया और बाद में जिन-जिन शासकों ने इसको अपनाया व प्रयोग किया उनका नाम भी इसके साथ जुड़ता चला गया। इस प्रकार नाम के जुड़ जाने का कारण इन शासकों द्वारा इस संवत् में किये गये कुछ सुधारों का किया जाना भी हो सकता है । इसके अतिरिक्त एक वजह यह भी हो सकती है कि संवत का अपना कोई विशिष्ट नाम नहीं था । अतः फसल से सम्बन्धित कार्यों को पूरा करने के लिये जिस भी शासक ने इसको किसानों अथवा लेखा-जोखा रखने के कार्य में प्रयोग किया उसका नाम ही संवत के सम्बोधन के लिये लिखा जाने लगा। ___ फसली संवत की गणना पद्धति एक शहस्त्राब्दी के करीब चन्द्रीय रही। उसके बाद इसके लिये सौर पद्धति का ग्रहण कर लिया गया। इसका नाम इस्लाम के स्रोतों से लिया गया था परन्तु इसका वर्ष हिन्दू पद्धति पर आधारित था। देश के विभिन्न स्थानों पर इसके वर्ष का आरम्भ अलग-अलग समय पर किया जाता रहा । बंगाल सन हिन्दुओं के वैशाख की पहली तिथि को आरम्भ होता है, उत्तरी भारत का फसली सन् चान्द्रिक आश्विन की पहली तिथि को आरम्भ होता है । इस प्रकार फसली संवत के विभिन्न आरम्भ वर्षों व उसके वर्षारम्भ के विभिन्न महीनों का उल्लेख मिलता है जैसाकि शक संवत् के वर्ष के सम्बन्ध में पाया जाता है।
रोबर्ट सीवैल ने फसली संवत् की गणना पद्धति की विशिष्टिता बताते हुए लिखा है: "इसकी विशिष्टिता यह है कि इसके महीनों को शुक्ल पक्ष व कृष्ण पक्ष में नहीं बांटा गया है । इसका सम्पूर्ण ढांचा बगैर पक्ष के बंटवारे के ही चलता है। तिथियां बढ़ाई नहीं जाती। विलायती वर्ष के समान ही इसका आरम्भ है । यह पूर्ण चन्द्र से आरम्भ होता है।"
बंगाल में प्रचलित तथा दक्षिण भारत में प्रचलित फसली पंचांगों में दो वर्ष का अन्तर रहता है। दूसरे सभी चन्द्रसौर संवतों की भांति फसली सन् भी
१. रोबर्ट सीवल, "इण्डियन कलेण्डर", लन्दन, १८६६, पृ० ४४ ।