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भारतीय संवतों का इतिहास चक्र है जिसके विषय में यह मान लिया गया है कि सप्तर्षि नाम के सात तारे अश्विनी से रेवती पर्यन्त २७ नक्षत्रों में प्रत्येक पर क्रमशः सौ-सौ वर्ष तक रहते हैं । २७०० वर्ष में एक चक्र पूरा होकर दूसरे चक्र का प्रारम्भ होता है जहां-जहां यह सम्वत् प्रचलित रहा या है वहां नक्षत्र का नाम नहीं लिखा जाता केवल एक से १०० तक के वर्ष लिखे जाते हैं । १०० वर्ष पूरे हो जाने पर शताब्दी का अंक छोड़कर फिर एक से प्रारम्भ करते है।"
काश्मीर के इतिहास में इसका प्रयोग मुख्य रूप से हुआ है । कल्हण की राजतंरगिणी में भी इसका वर्णन है । आज भी पहाड़ी प्रदेश तथा दक्षिण पूर्वी काश्मीर आदि क्षेत्रों में इस सम्वत् का प्रयोग किया जाता है । "कनिंघम ने इसके आरम्भ की तिथि ६७७७ ई० पूर्व दी है।"२ सप्तर्षि चक्र पर आधारित सम्वत् को सप्तर्षि सम्वत् अथवा लोक काल कहा जाता है परन्तु दोनों की आरम्भिक तिथि में काफी अन्तर है। कनिंघम दोनों को एक ही मानते हैं। कलैण्डर सुधार समिति के अनुसार सप्तर्षिकाल का आरम्भ ३१७६ ई० पूर्व में हुआ। यह चन्द्र सौर्य पद्धति पर आधारित है इसमें माह पूणिमान्त है तथा इसका प्रचलन मुख्य रूप से काश्मीर में था। सी० मोबेल डफ ने इस सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट विचार व्यक्त किये हैं : "३०७६ ई० पूर्व, कलि सम्वत् २६ चैत्र शुदी प्रथम से लौकिक अथवा सप्तर्षि सम्वत् का आरम्भ है । काश्मीर में यह परम्परागत रूप से प्रयुक्त होता रहा है । इसकी गणना १०० वर्षीय चक्र से की जाती है।''
सप्तर्षि काल को दिव्य काल माना गया है । वाराह मिहिर ने वृहत्संहिता में इस गणना को ठीक माना है। "जब साधारण गणना और इस गणना क्रम से कोई घटना तिथि ठीक निकले तो तथ्यता में अणु मात्र दोष नहीं रह सकता।" यह माना जाता है कि २७०० वर्ष में सप्तर्षि अपना एक चक्र पूरा १. रायबहादुर पण्डित गौरीशंकर हीरा चन्द ओझा, 'प्राचीन भारतीय लिपि
माला', अजमेर १६१८, पृ० १५६ २. एलेग्जेण्डर कनिंघम, 'ए बुक ऑफ इण्डियन एराज,' वाराणसी, १६६७,
पृ० २६५ ३. सप्तर्षि काल कनिंघम के अनुसार- ६७७७ ई० पूर्व लोककाल, कलैण्डर
सुधार समिति के अनुसार ७२२१ ई० पूर्व ४. रिपोर्ट ऑव दि कलैण्डर रिफोर्म कमेटी' दिल्ली, १९५५, पृ० २५८ ५. सी० मोबेल डफ, 'दि क्रोनोलॉजी अव इण्डिया' भाग-प्रथम, वाराणसी,
१९५५, पृ० ४ ६. पं० भगवद् दत्त, 'भारतवर्ष का वृहद् इतिहास' नई दिल्ली, १९५०,
पृ० १६५