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भारतीय संवतों का इतिहास
घड़ी, ३१ पल व ३० विपल का होता है, अतएव वार्हस्पत्य संवत्सर सौर वर्ष से ४ दिन १३ घड़ी और २६ पल के करीब छोटा होता है जिससे प्रति ८५ वर्ष में एक संवत्सर क्षय हो जाता है । "" बार्हस्पत्य संवत्सर एक सौर्य वर्ष से ४.२३२ दिन कम होता है इसका अर्थ हुआ कि एक संवत्सर यदि सौर्य वर्ष के ठीक साथ आरम्भ होता है तो अगला संवत्सर ४ २३२ दिन पहले शुरू हो जायेगा । इस प्रकार प्रत्येक आने वाले वर्ष में संवत्सर की शुरूआत ४ २३२ दिन पहले ही हो जायेगी और निश्चित रूप से एक ऐसा समय आयेगा जबकि दो संवत्सर एक ही सौर्य वर्ष में आरम्भ होगें । इस प्रकार नियम है कि जब दो बार्हस्पत्य संवत्सर एक ही सौर्य वर्ष में आरम्भ हों तो पहले को निकला हुआ कहा जाता है या क्षय कहा जाता है । इस तरह से ८५ सौर्य वर्ष के समय में एक निष्कासन निश्चित है अतः दो निष्कासनों के बीच का समय कई बार ८५ वर्ष व कई बार ८६ वर्ष होता है । दक्षिण में बार्हस्पत्य संवत्सर लिखा तो जाता है परन्तु वहां इसका बृहस्पति की गति से कोई सम्बन्ध नहीं । वहां वाले इस बार्हस्पत्य संवत्सर को सौर वर्ष के बराबर मानते हैं जिससे उनके यहां कभी संवत्सर क्षय नहीं माना जाता । कलियुग का पहला वर्ष प्रमाथी संवत्सर मानकर प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला एक से क्रमशः नवीन संवत्सर लिखा जाता है ।
एलेग्जेण्डर कनिंघम ने बृहस्पति के ६० वर्षीय चक्र में समय गणना की तीन भिन्न पद्धतियों का उल्लेख किया है । इसमें सर्वाधिक प्राचीन वाराहमिहिर द्वारा दी गयी पद्धति है इसके अनुसार कलियुग का प्रथम वर्ष " जो वियन" का २७ वां वर्ष है अर्थात् इसका आरम्भ कलियुग से २७ वर्ष पूर्व हुआ । दूसरी पद्धति स्पष्टतः वाराह मिहिर के सिद्धान्त का शुद्धिकरण है जो "ज्योतिशत्वा" में दिया गया है इसमें कलियुग का प्रथम वर्ष तथा इसका प्रथम वर्ष एक ही माना गया है । "उत्तरी भारत में ये दोनों पद्धतियां प्रयुक्त होती रही हैं । जहां जोवियन के प्रत्येक ८६ वें वर्ष का लोप कर दिया गया है । तीसरी पद्धति दक्षिण भारत में प्रचलित है जिसमें सूर्य वर्ष तथा जोवियन वर्ष को एक ही माना गया है । इसमें बृहस्पति मान का विशेष महत्त्व नहीं रह जाता ।
१. रायबहादुर पंडित गौरी शंकर हीरा चन्द ओझा, 'भारतीय प्राचीन लिपि माला', अजमेर, १६१८, पृ० १८७-८८
२. राबर्ट सीवल, "दि इण्डियन कलैण्डर", पृ० ० ३३
३. वही
४. एलेग्जेण्डर कनिंघम, 'ए इण्डियन ऑफ एराज', वाराणसी, १६७६, पृ० १८