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काल गणना का संक्षिप्त इतिहास, इकाईयाँ व विभिन्न चक्र
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कर अपनी उसी अवस्था में आ जाते हैं जिससे एक दिन गिनना आरम्भ किया जाये । "सप्तर्षि एक - एक नक्षत्र के साथ सौ-सौ वर्ष ठहरते हैं । सत्ताईस नक्षत्र के साथ वे २७०० वर्ष ठहरेगें । इस प्रकार २७०० वर्ष का एक युग हो जाता है, यह दिव्य संख्या के अनुसार है । यह युग नक्षत्र व सप्तर्षियों के योग से चलता है ।"
सप्तर्षि गणना के विभिन्न नाम प्रचलित रहे हैं । काश्मीर आदि में शताब्दियों के अंकों को छोड़कर ऊपर के वर्षों के अंक लिखने का लोगों में प्रचार होने के कारण इसको लौकिक सम्वत् या लौकिक काल कहते हैं । विद्वानों के शास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थों तथा ज्योतिष शास्त्र के पंचांगों में इसके लिखने का प्रचार होने के कारण इसको शास्त्र सम्वत् कहते हैं । काश्मीर और पंजाब के पहाड़ी प्रदेश में प्रचलित होने से इसको पहाड़ी सम्वत् कहते हैं । इस सम्वत् के शताब्दियों को छोड़कर ऊपर के ही वर्षं लिखे जाने से कच्चा सम्वत् कहते हैं । कल्हण की राजतरंगिणी, चंबा से मिले एक लेख आदि से इस चक्र के विषय में उल्लेख मिलता है ।
बृहस्पति काल (चक्र)
बृहस्पति काल, बृहस्पति ग्रह की चाल तथा उसकी निश्चित समयावधि के चक्र पर आधारित व्यवस्था है जिसका प्रयोग भारतीय ज्योतिषियों तथा खगोल शास्त्रियों द्वारा समय गणना के लिए किया जाता है ।
बृहस्पति चक्र के दो रूप हैं, प्रथम ६० वर्षीय, दूसरा १२ वर्षीय, ६० वर्षीय चक्र में वर्ष गणनाओं से नहीं जाने जाते बल्कि ६० नामों की तालिका में से क्रमशः लिऐ जाते हैं । इस सूची को बृहस्पति संवत्सर कहते हैं जिसका तात्पर्य है बृहस्पति वर्षों का पहिया अथवा चक्र । इनमें से प्रत्येक वर्ष संवत्सर कहलाता है । संवत्सर का अर्थ वर्ष है । " इसका एक वर्ष एक सौर्य वर्ष के बराबर नहीं होता । यह बृहस्पति की माध्य गति के ऊपर निर्भर करता है । एक बृहस्पति वर्ष का समय वह समय है जिसमें ग्रह बृहस्पति एक राशि में प्रवेश करता है तथा अपनी माध्य गति के अनुसार इसमें से पूरा गुजर जाता है । प्रभवा से चक्र आरम्भ होता है ।" "बार्हस्पत्य संवत्सर (वर्ष) जो ३६१ दिन २ घड़ी और ५ पल का होता है और सौर वर्ष ३६५ दिन १५
१. पं० भगवद् दत्त, 'भारतवर्ष का वृहद् इतिहास' नई दिल्ली, १६५० पृ० १६५
२. रोबर्ट सीवल, 'दि इण्डियन कलैण्डर', लन्दन, १८६६, पृ० ३२